Friday, May 31, 2019

गद्य लिखना ज्यादा कठिन है- खुशवंत सिंह

 आज छुट्टी के दिन पिछले कई दिनों से बाँची जा रही खुशवंत सिंह की किताब 'सच प्यार और थोड़ी सी शरारत' पूरी हुई। किताब में लेखन से जुड़ी बातें पढ़ते हुए लगा कि जीवन के हर क्षेत्र में यह बात लागू होती है। खुशवंत सिंह जी लिखते हैं:

लेखक बनने के लिए किस-किस चीज की जरूरत है? पहली बात , लेखक बनने की एक निर्बाध लगन, एक धुन होनी चाहिए। पैसा इसकी प्रेरक शक्ति नहीं है (खाने-पीने) की चीजों या पान का खोखा लगाने से, पेट्रोल पंप चलाने से या फिर फिर वकालत या डॉक्टरी में कहीं ज्यादा पैसा मिलता है) , पहचान या प्रसिद्धि की तलाश भी इसमें प्रेरक नहीं हो सकती (वह सब राजनीति या फ़िल्म में ज्यादा आसानी से मिल जाती है)।
दरअसल , ज्यादातर लेखकों के सामने यह कारण स्पष्ट नहीं होता कि उन्होंने लेखन क्यों अपनाया, सिवाय इसके कि भीतर से कोई चीज उन्हें धकेल रही थी, मजबूर कर रही थी लिखने के लिए। ज्यादातर मामलों में , जब वे देखते हैं कि लेखक बनने की इच्छा को असलियत का जामा पहनाने में कितना कुछ करना पड़ता है तो उसकी धुन अपने- आप ठंडी पड़ जाती है। यह ललक बार-बार सर उठाती है। कुछ लोग इसकी निकासी के लिए छोटे-छोटे लेख, अधूरी कहानियां या उपन्यास लिखते हैं पर जल्दी ही हार मानकर यह स्वीकार कर लेते हैं कि उनमें लेखक बनने का माद्दा ही नहीं है।
ज्यादा संवेदनशील लोगों के अंदर कविता भरी रहती है जो उनकी किशोरावस्था में फूट निकलती है। बाद के बरसों में यह चुपचाप धीरे-धीरे दब जाती है।
गद्य लिखना ज्यादा कठिन है। इसके लिए क्लासिकी और आधुनिक साहित्य का विस्तृत अध्ययन बड़ा शब्द भंडार और सबसे बढ़कर , काम पूरा होने तक जुटे रहने के दमखम की जरूरत होती है। संक्षेप में, इसमें घोर परिश्रम की क्षमता , जरूरत पड़े तो घण्टों तक कोरे कागज के आगे बैठे रहने की क्षमता और इस संकल्प की जरूरत है कि इस कागज़ को लिखकर पूरा भरे बगैर आप उठेंगे नहीं।
जो कुछ लिखकर आपने कागज भरा है, हो सकता है वह कोरी बकवास हो, पर यह अनुशासन आगे काम आएगा। जल्दी ही, आपका लेखन सुधरने लगेगा, जल्दी ही लेखक के अंदर जो कुछ बेहतर है, सबसे अच्छा है, वह प्रकट हो जाएगा।
मेरी समझ में , रोज डायरी लिखना उपयोगी होता है। दोस्तों को लंबे-लंबे पत्र लिखना भी अच्छा अभ्यास है। अखबारों के लिए नियमित कॉलम लिखना और तय किये समय में काम पूरा कर देना उपयुक्त अनुशासन है। कुछ थोड़े से दिन के लिए लिखना छोड़ दीजिए, और इसे फिर से शुरू करना पहाड़ हो जाएगा।
-खुशवंत सिंह

Monday, May 27, 2019

ज्ञान चतुर्वेदी और राहुल से हुई लंबी बातचीत के चुनिंदा अंश



ज्ञान जी और राहुल देव की लंबी बातचीत ’साक्षी है संवाद’ के रूप में पिछले दिनों आई। इस किताब के बारे में विस्तार से पिछली पोस्ट में लिखा गया है। लिंक यह रहा। https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10214454674054111
किताब के कुछ मुख्य अंश यहां पेश हैं:
1. भगवान एक अनगढ हीरा देता है। उसे गढना पढता है। गढने में बहुत मेहनत लगती है। बहुत से प्रतिभाशाली हैं पर मेहनत नहीं करना चाहते। वो भी हीरा ही हैं। पर उसकी पहचान बनाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है। वो प्रतिभा तराशने का काम आपका है।
2. आज व्यंग्य की प्रतिभा मुझसे ज्यादा अगर किसी में कहूं तो अंजनी चौहान में हैं।
3. व्यंग्य की हालत हमने लगभग मंच की कविता की तरह कर दी है जो लोकप्रिय तो है पर कमजोर भी है।
4. व्यंग्य बहुत लोकप्रिय है, बहुत छप रहा है। बहुत गतिविधियां हैं। बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही हैं पर वो गहराई नहीं है। फ़ैलाव शायद बहुत है, गहराई नहीं है। बड़ी बात नहीं कही जा रही है।
5. जब आप सबकी तारीफ़ करते हैं, तो वास्तव में किसी की तारीफ़ नहीं करते। आपमें यह हिम्मत होनी ही चाहिये कि नहीं, खराब भी लिखा जा रहा है।
6. इन लोगों का बाकायदा एक गिरोह चल पड़ा है, जो दर्पण को दोनों तरफ़ से काला कर रहे हैं और उसी दर्पण को वे अब वास्तविक दर्पण बताने की कोशिश कर रहे हैं।
7. यहां तो बुझी मशाल लेकर चलने वाले आलोचक भी व्यंग्य में नहीं हैं। जलती हुई मशाल तो छोड़ ही दीजिये। जिनके पास बुझी मशाल है, उनमें से केवल मिट्टी का तेल धुंवाता है चारों ओर, बदबू आती है; मशाल वो भी नहीं है।
8. अभी आलोचना के नाम पर हमारी व्यंग्य पत्रिकाओं में जो लिखवाया जा रहा है, वो बहुत कमजोर चीज है। हम परिभाषाओं पर ज्यादा जाते हैं।
9. मुझे आलोचना बहुत उदात्त स्वरूप में व्यंग्य में अभी तक नहीं दिखी है।
10. मेरा मानना ये है कि समय जितना कठिन होता जायेगा, लेखन उतना ही बेहतर कर सकते हैं। चुनौतीपूर्ण समय आपको एक बड़ी चुनौती देता है और एक अच्छा लेखक बड़ी चुनौती से बाकयदा प्रेरणा लेता है।
11. ये जो बहलाने की तरकीबें हैं बाजार की, पूरे समाज को और हर आमजन को, ये मुझे बहुत डराती हैं। आमजन कभी अपने और समाज को सुधारने के लिये जो क्रांति के सपने बुनता था, जो बदलाव के सपने देखता था, बाजार ने वहां से उसकी दृष्टि हटा दी है। वो अब दूसरे किस्म के सपने देखने लगा है। वो असली सपनों से अलग हो गया है।
12. मनुष्य एक बहुत सक्षम किस्म का पुतला बनकर रह जायेगा। रोबो तैयार करना चाहते हैं आप। एक से सारे लोग हों, एक सा सोचें, एक से कपड़े पहनें, एक सी चिंतायें करें। चिंता के दायरे इतने सिकुड़ गये हैं कि जो बड़ी-बड़ी चिंतायें समाज को लेकर होती थीं, जीवन को लेकर होती थीं। वे तिरस्कार और उपहास के पात्र हो गये हैं।
13. अब चिन्तक पैदा होने कठिन हो गये हैं। हमारा चिंतन सारा इकोनामिक्स बेस्ड है और इस इकोनामिक्स ने इतने जोर से समाज को पकड़ लिया हैकि यहां की सारी क्रियेटिविटी, आपकी सारी रचनात्मकता अब केवल बाजार कैसे बढे, इसके लिये हैं।
14. जो रचनात्मक लोग हैं, उनका जो रचनात्मक पैनापन, वो बाजार के काम आ रहा है। वो रचनात्मकता जो समाज को मिलनी चाहिये, जो समाज को बदल सकती थी, वह बाजार की चेरी बन गयी है।
15. हिन्दी प्रकाशन में तो सभी बदमाश हैं, बहुत सारी गड़बडिया हैं।
16. अंग्रेजी में जिनके बहुत नाम हैं लेखन में, अरुंधती को मैने पढा अभी, नया जो उनका नावेल आया है। मैंने देखा है कि उन्होंने अच्छा लिखा है, मैं भी ऐसा ही लिखता हूं। मैं भी ऐसा ही अच्छा लिखता हूं। पर मेरे को पूछ कौन रहा है भैया अब?
17. मेरे मन में आता है कि मेरे उपन्यासों का, खासतौर पर ’नरक यात्रा’ वगैरह का कोई अच्छा अंग्रेजी अनुवाद कर दे, तो बहुत बिकेगा और पैसे भी मिलेंगे। वो मुझे अभी तक ऐसा सक्षम कोई आदमी नहीं मिला, जो अंग्रेजी अनुवाद कर दे मेरे उपन्यास का।
18. अगर मैं अपनी किताबों की रायल्टी पर ही जीने लगूं तो बर्बाद हो जाऊं।
19. मैं कहता हूं कि व्यंग्य वह है, जो मैं लिख रहा हूं। मेरे हिसाब से वो व्यंग्य है। जो परसाई ने लिखा है, वो व्यंग्य है। जो शरद जी ने लिखा, मुझे लगता है वो व्यंग्य है। जो त्यागी जी ने लिखा, वो व्यंग्य है और बहुतों मे ऐसा भी लिखा , जो मैं कह सकता हूं कि ये व्यंग्य नहीं है।
20. मुझे लगता है कि व्यंग्य की भी सबसे पहली शर्त ये है कि मैं पढूं तो मुझे लगे कि ये व्यंग्य है। मेरा पाठक पढे, तो उसे लगे कि यह व्यंग्य है। परिभाषा नहीं पूछता पाठक।
21. व्यंग्य की शास्त्रीय परिभाषा की मैंने कभी परवाह नहीं की। व्यंग्य को ’व्यंग’ कहें कि ’व्यंग्य’ कहें और ’व्यंग्य’ कहने से कौन सी गड़बड़ हो जायेगी ये सब बातें बेवकूफ़ी की हैं। ये उनके मानसिक विलास , जिनसे व्यंग्य बनता नहीं है।
22. आपको भ्रम है कि आप बड़ी तगड़ी अभिव्यक्ति दे रहे हैं। कोई नहीं पूछता साब। आप लिखिये। ठाठ से लिखिये। जब तक उनकी राजनीति के आड़े नहीं आता कोई, तब तक कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
23. मुझे अभी फ़िलहाल के वातावरण में भी कहीं कोई अभिव्यक्ति पर खतरा नजर नहीं आता।
24. रचनाकार भी कहते हैं कि समय ही तय करेगा कि अंतत: कौन अच्छा रचनाकार था, कौन नहीं था? वो कई बार अपनी कमजोर रचना का बचाव करने के लिये भी कह देते हैं कि ये तो समय ही तय करेगा।
25. मुझे लगता है कि आलोचना को लफ़्फ़ाजी में बड़ा मजा आता है। कविता में लफ़्फ़ाजी बहुत की जा सकती है। उसमें बहुत सारी चीजें ढूंढी जा सकती हैं, पाठ-पुनर्पाठ करके।
26. आलोचना करने वाला फ़िर धीरे-धीरे खलीफ़ाई करने पर उतर आता है। जैसे ही उसका नाम हो जाता है, वह महंत बन जाता है।
27. हमारे ज्यादातर व्यंग्य आलोचक, व्यंग्य ही नहीं , हर तरह के आलोचक, जो बने, वे अंतत: खलीफ़ा के अंदाज में फ़तवे जारी करने लगे।
28. विचारहीन व्यंग्य हो ही नहीं सकता। विचार तो होना ही चाहिये व्यंग्य में।
29. व्यंग्य केवल भाषा या शैली ही नहीं है। यह केवल जुमलेबाजी भी नहीं है। ये सब बहुत जरूरी हैं व्यंग्य को करने के लिये क्योंकि ये व्यंग्य को एक ताकत देते हैं, व्यंग्य में पैनापन पैदा करती हैं ये सारी चीजें। पर अंतत: बात वहां टिकटी है कि आप इनका सहारा लेकर आखिर कह क्या रहे हो?
30. जहां तक वैचारिक प्रतिबद्धता की बात है कि वो वामपंथी हों, प्रगतिशील हों, इसके खिलाफ़ हम शुरु से ही थे। कोई भी आदमी मेरे को डिक्टेट नहीं कर सकता कि मैं क्या लिखूं?
31. अंतत: हर विचार एक मठ में तब्दील हो जाता है।इसे ही वैचारिक प्रतिबद्धता कहते हैं।
32. लेखक कितना एक्टिविस्ट हो और कितना लेखक हो, यह लेखक को ही तय करना है।
33. आप किसी चीज की कीमत पर ही दूसरी चीज कर पाते हैं। आपका प्यार किसके प्रति बहुत है यह तय करता है कि आप कितने एक्टिव रहे या कितना आपका लेखन रहेगा।
34. मेरी सारी प्रतिबद्धता मेरे लेखन के प्रति है और मेरी समाज के प्रति है जिसको मैं समझता हूं और जिसके बारे में , मैं लिखना चाहता हूं। उतना मैं कर सकूं तो मुझे लगेगा कि मैंने सब कर लिया। वो वैचारिक प्रतिबद्धता मेरी है। उतनी , उन अर्थों में है।
35. आप अपनी कमजोरी लेखन की विशेषता मत बता दीजिये। अगर मेरे से हास्य रचते नहीं बनता , तो मैं हास्य को कहूं कि ये तो बेकार की चीज है। मेरे से एक अच्छी कविता लिखते नहीं बनती और मैं यह कहूं कि कविता करना बेकार है। तो मैं अपनी कमजोरियों को विशेषता बनाकर न कहूं।
36. व्यंग्य को सपाटबयानी में तब्दील करने की इस मुहिम में हुआ यह है कि धीरे-धीरे व्यंग्य में भी व्यंग्य नहीं बचा। हास्य का साथ छोड़ा और व्यंग्य में जो विट और व्यंजना होनी चाहिये, वो है नहीं। वो ही नहीं बचा , क्या कहेंगे, कूव्वत, वो ही नहीं बची व्यंग्य में।
37. हास्य बहुत कठिन है, बहुत बड़ी चुनौती है और बहुत प्रतिभा मांगता है।
38. हास्य की तो बहुत इज्जत की जानी चाहिये। ’हास्यकार’ कहके किसी को दरकिनार कर देना बहुत बड़ा अपराध है।
39. यहां बहुत सारे वे लोग व्यंग्य लिख रहे हैं आज, जिनको व्यंग्य का क, ख, ग तक नहीं पता पर वो भी व्यंग्य लिख रहे हैं। वो इस कारण है कि लोगों ने व्यंग्य को एक बड़ा सरल काम समझ लिया है।
40. हिन्दी में बहुतों ने ’व्यंग्य’ लिखा है, पर वो व्यंग्य नहीं हो के व्यंग्य के नाम पर कुछ लिखा गया है।
41. ज्यादातर सीधा आदमी कई बार जटिल हो जाता है।
42. मेरे लिये किस्सागोई बहुत महत्वपूर्ण है। फ़िर उसमें जो बात कही जायेगी। वो आपके ऊपर है कि आप कितना जीवन समझते हो?
43. आप कमीनेपन में नहीं पडोगे जीवन में, जब आप घटियापन में नहीं पड़ोगे, जब आप छोटे-छोटे स्वार्थों में नहीं पडोगे तो आप जीवन में बहुत बड़ी-बड़ी बातें भी सीख सकते हो।
44. ये जीवन बहुत छोटा है मनुष्य का। अब बुढापे में धीरे-धीरे समझ में आता है।
45. आप पॉपुलर होते हैं , तो आपको परेशानियां तो होती हैं।
46. (लेखन में) किस्सागोई बनी रहनी चाहिये। मजा आना चाहिये।
47. अगर मुझे गली का ही क्रिकेट खेलना है , तो मैं गली का ही क्रिकेटर होकर रह जाऊंगा। मुझे बड़ा काम करना है, तो मुझे बड़ा काम करना है। फ़िर आपको चुनौतियां भी बड़ी लेनी होंगी। फ़िर छोटी चुनौतियों की औकात नहीं रह जाती।
48. मेरी मुमुक्षा है , लिखना। जिस दिन मेरी यह मुमुक्षा खत्म हो जायेगी , उसी दिन मैं चुक जाऊंगा, खत्म हो जाऊंगा।
49. आपको हर रचना में डर लगना चाहिये। हर नयी रचना लिखने में मुझे बहुत डर लगता है कि इस बार वह ठीक नहीं हो पायेगी। लगता है, हर बार तो ठीक करते गये पर इस बार जरूर कोई गड़बड़ होगी। तो यह डर मुझे बड़ा अलर्ट रखता है, हमेशा।
50. अगर व्यंग्य आपका सहज स्वभाव है तब तो ठीक है, वरना जब तक व्यंग्य आपके सहज स्वभाव में नहीं है, आप व्यंग्य उपन्यास नहीं लिख सकते।
51. मुझे लगता है कि मेरा पाठक से सीधे जुड़ पाना ही मेरी ताकत है। जो मैं कह रहा हूं, वो पाठक को लगे कि ये ही बात तो वो भी कहना चाहता है- यही मेरी ताकत है।
52. एक सफ़ल व्यंग्यकार बनने की आवश्यक योग्यता है ईमानदारी और एक निर्मल हृदय। जैसे ही आप तिकड़म में जाते हैं, आप व्यंग्य से बाहर हो जाते हैं। मेरा मानना है कि वो ही व्यंग्यकार बड़े बन पाये, और वो तभी तक बड़े रहे, बाद में, जब तक वो जीवन की छोटी तिकड़मों में नहीं पड़े।
53. अगर आपको व्यंग्य उपन्यास लिखना है, तो आपके अन्दर एक व्यंग्य की दृष्टि होनी चाहिये। आपको जीवन की समझ बहुत अच्छी होनी चाहिये और आपका हृदय बहुत निर्मल होना चाहिये।
54. एक सफ़ल व्यंग्यकार और एक बड़े व्यंग्यकार में अंतर है। सफ़ल व्यंग्यकार होना बीच का रास्ता है। एक बड़ा व्यंग्यकार होने के लिये वो मुमुक्षा चाहिये आपको। जब व्यंग्य ही आपका जीवन हो जाये।
55. पूरा समाज , जीवन, देश और विश्व इस तरह से बदला है कि बिल्कुल ही अलग चुनौतियां हैं अब जीवन के सामने। बहुत अलग किस्म की चुनौतियां हैं ये और उसके बीच अगर हम उथला-उथला खेल करेंगे, अभी भी हम राजनीति पर बहुत उथले व्यंग्य लिखते रहेंगे और हम सोशल मीडिया की तारीफ़ को ही अगर तारीफ़ समझेंगे , एक दूसरे की तारीफ़ को जो कि एक वहां का सामान्य शिष्टाचार बन गया है, तो कहीं नहीं पहुंचेंगे।
56. आप किसी सही व्यक्ति को पकड़ो, जो आपसे सही बात कर सके। फ़िर आप आगे बढो। और रातों-रात, ओवरनाइट स्टार होने की कल्पना मत करो। ये एक बहुत लम्बा खेल है साहित्य। आप अच्छा लिखो, बस बाकी चीजें अपने आप पीछे-पीछे आयेंगी। मैं ये कह रहा हूं। पुरस्कार भी
आयेंगे। पहचान भी आयेगी। सम्मान भी आयेंगे। आपके बारे में बात भी होगी।
पुस्तक विवरण
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पुस्तक का नाम:’साक्षी है संवाद ’ (ज्ञान चतुर्वेदी से लंबी बातचीत)
वार्ताकार- राहुल देव
सहयोग राशि- 100
पेज- 96
प्रकाशक: रश्मि प्रकाशन, 204, सन साइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4 , कृष्णा नगर, लखनऊ- 226023
किताब के लिये आर्डर करने के तरीके:
1. 100 रुपये पेटीम करें फ़ोन नंबर - 8756219902
2. या फ़िर 100 रुपये इस खाते में जमा करें
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3. किताब अमेजन पर इस पते पर उपलब्ध है -http://www.amazon.in/dp/B07D3N2P1R

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ईमानदारी और एक निर्मल हृदय एक सफ़ल व्यंग्यकार के लिये आवश्यक योग्यता है-- ज्ञान चतुर्वेदी



“एक सफ़ल व्यंग्यकार बनने की आवश्यक योग्यता है ईमानदारी और एक निर्मल हृदय। जैसे ही आप तिकड़म में जाते हैं, आप व्यंग्य से बाहर हो जाते हैं। मेरा मानना है कि वो ही व्यंग्यकार बड़े बन पाये, और वो तभी तक बड़े रहे, बाद में, जब तक वो जीवन की छोटी तिकड़मों में नहीं पड़े।“
यह बात प्रसिद्ध व्यंग्यकार पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी जी ने युवा कवि, आलोचक और संपादक राहुल देव से लंबी बातचीत करते हुये के सवाल -“आपके अनुसार एक सफ़ल व्यंग्यकार बनने की आवश्यक योग्यता क्या है?” के जबाब में कही।
ज्ञान जी से राहुलदेव की लंबी बातचीत ’साक्षी है संवाद’ शीर्षक पुस्तक में संकलित हैं। किताब स्व. सुशील सिधार्थ जी को समर्पित है। रश्मि प्रकाशन लखनऊ से छपी किताब में प्रकाशक की तारीफ़ करनी होगी कि पैसा पेटीएम करने के तीन-चार दिन बाद ही किताब पहुंच गयी। कुल जमा सौ रुपये में 96 पेज की किताब डाकखर्च सहित। मतलब लगभग एक रुपया फ़ी पेज।
किताब मिलते ही सरसरी तौर पर सारे पन्ने देख डाले। काफ़ी कुछ बांच भी लिये। इसके बाद कल और आज तसल्ली से पढी। चुनिंदा अंश नोट भी किये जो कि अलग से आपको पढवायेंगे।
इस लंबी बातचीत में राहुल ने ज्ञान जी के लेखन और उनके जीवन से जुड़े तमाम सवाल पूछे हैं। ज्ञान जी ने उनके विस्तार से और कहीं-कहीं क्या लगभग हर सवाल का बहुत विस्तार से जबाब दिया है- ’खासकर अपने लेखन और व्यक्तित्व से जुड़े सवालों के जबाब में।’ मतलब पाठक के अनुमान लगाने के लिये कुच्छ नहीं छोड़ा। बहुत आत्मीयता से सवालों के जबाब दिये।
ज्ञान जी ने समसामयिक व्यंग्य लेखन से जुड़े सवालों के जबाब देते हुये अच्छे व्यंग्य लेखन की शर्तें भी बताईं। व्यंग्य में आलोचना की स्थिति बताते हुये कहा-“ अभी आलोचना के नाम पर हमारी व्यंग्य पत्रिकाओं में जो लिखवाया जा रहा है, वो बहुत कमजोर चीज है। हम परिभाषाओं पर ज्यादा जाते हैं।“
आलोचकों के बारे में उनका यह भी मानना है - “हमारे ज्यादातर व्यंग्य आलोचक, व्यंग्य ही नहीं , हर तरह के आलोचक, जो बने, वे अंतत: खलीफ़ा के अंदाज में फ़तवे जारी करने लगे।“
“व्यंग्य में हास्य की जरूरत पर अपनी राय व्यक्त करते हुये उन्होंने कहा- हास्य बहुत कठिन है, बहुत बड़ी चुनौती है और बहुत प्रतिभा मांगता है। हास्य की तो बहुत इज्जत की जानी चाहिये। ’हास्यकार’ कहके किसी को दरकिनार कर देना बहुत बड़ा अपराध है।“
व्यंग्य में हास्य को त्याज्य बताने वाले संप्रदाय की समझ के खिलाफ़ फ़्रंटफ़ुट पर बैटिंग करते हुये ज्ञान जी ने कहा-“ बहुत लोग कहते हैं, प्रेम जनमेजय उनमें सबसे आगे हैं, और उनके साथ वाले बहुत से लेखक कहते हैं कि हास्य डाल दो, तो व्यंग्य डायल्य़ूट हो जाता है, उसका तीखापन खराब हो जाता है, उसकी चोट नहीं पड़ती।
मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूं कि आप अपनी कमजोरी लेखन की विशेषता मत बता दीजिये। अगर मेरे से हास्य रचते नहीं बनता , तो मैं हास्य को कहूं कि ये तो बेकार की चीज है। मेरे से एक अच्छी कविता लिखते नहीं बनती और मैं यह कहूं कि कविता करना बेकार है। तो मैं अपनी कमजोरियों को विशेषता बनाकर न कहूं।
व्यंग्य में सपाटबयानी पर अपनी बेबाक राय रखते हुये ज्ञानजी ने सीधे कहा-“ व्यंग्य को सपाटबयानी में तब्दील करने की इस मुहिम में हुआ यह है कि धीरे-धीरे व्यंग्य में भी व्यंग्य नहीं बचा।“
हिन्दी प्रकाशकों को बदमाश बताते हुये उन्होंने यह इच्छा जाहिर की कि कोई उनके उपन्यासों नरकयात्रा और पागलखाना का अंग्रेजी में अनुवाद कर सके तो उनका दुनिया में नाम भी हो और पैसा भी मिले। ज्ञान जी की राय में हिन्दी का लेखन दुनिया के किसी भी लेखन की तुलना में उन्नीस नहीं इक्कीस ही है। हिन्दी से अंग्रेजी में अच्छे अनुवादक के न होंने के कारण दुनिया में पहचान और पैसा भी नहीं मिल पाता हिन्दी के लेखक को।
व्यंग्य के त्रिदेव, दो साल पहले हुये अट्टहास पुरस्कार प्रकरण, अपने व्यंग्य में गालियों पर उठे सवालों पर बहुत विस्तार से जबाब दिये ज्ञान जी ने। अंजनी चौहान जी (जिनको ज्ञानजी आज की पीढी का सर्वेश्रेष्ठ व्यंग्यकार मानते हैं) को ’अट्टहास’ का ’शिखर सम्मान’ दिलाने के चक्कर में ’अट्टहास’ का ’युवा सम्मान’ एक गलत आदमी को चला गया।
ज्ञान जी की एक बार फ़िर से इस मसले में सफ़ाई पढकर लगा कि वे कितने भोले हैं जो ऐसी बात पर दो साल से लगातार सफ़ाई देते आ रहे हैं जिस तरह की बातें हर सम्मान सामान्य तौर पर जुड़ी हैं। अभी हाल ही में हिन्दी व्यंग्य के सर्वेश्रेष्ठ में से एक माने गए व्यंग्यकार के नाम से शुरु हुये सम्मान की शुरुआत उसी तथाकथित गलत आदमी को देकर हुई। उसमें किसी ने इस मामले में बात तक नही की।
ज्ञानजी ने और भी तमाम सम्मानों से जुड़ी बातें विस्तार से बताई और गणित की भाषा में इति सिद्धम किया कि सिवाय एक इनाम के उन्होंने सारे इनाम सुपात्रों को संस्तुत किये और बाकायदा उनके लिये लड़े भी।
पाठक से सीधे जुड़ सकने की अपनी क्षमता को अपने लेखन की ताकत बताते हुये ज्ञानजी ने कहा-“ मुझे लगता है कि मेरा पाठक से सीधे जुड़ पाना ही मेरी ताकत है। जो मैं कह रहा हूं, वो पाठक को लगे कि ये ही बात तो वो भी कहना चाहता है- यही मेरी ताकत है।“
अपने लेखन की सबसे बड़ी कमजोरी की चर्चा करते हुये ज्ञान जी ने अपनी कमजोर याददाश्त को अपनी कमजोरी बताया। उन्होंने कहा-“ मेरी याददाश्त उतनी अच्छी नहीं है। मुझे लोगों के चेहरे याद नहीं रहते। मुझे लोगों के नाम याद नहीं रहते। इसलिये मुझे घटनायें उस तरह से याद नहीं रहतीं। कई बार तो मुझे लगता है कि वो चीज , एक अच्छी स्मरण शक्ति मेरे अन्दर यदि और होती उस तरह की, जिस तरह की बहुत लोगों की बहुत अद्भुत है।“
अच्छी स्मरण शक्ति वाले लेखकों के उदाहरण के रूप में ज्ञान जी ने अमृतलाल नागर जी को याद किया जिन्होंने आंखे कमजोर होने के बाद ’करवटें’ और ’पीढियां’ उपन्यास बोलकर लिखवाये।
अपनी कमजोर स्मरण शक्ति की विस्तार से चर्चा करते हुये ज्ञानजी ने बताया-“ मेरी स्मरण शक्ति उतनी अच्छी नहीं है। मैं भूल जाता हूं उन चीजों को। बोलते टाइम भी मेरे को बहुत बार धोखा हो जाता है। कई बार मैं मंच से किसी का नाम लेना चाहता हूं, तारीफ़ करना चाहता हूं और मुझे वो शब्द याद नहीं आ रहा, नाम याद नहीं आ रहा। मैं इतना दीवाना भी किसी लेखक का , और मैं किसी मंच से उसकी तारीफ़ कर रहा हूं और उसी का नाम याद नहीं आ रहा है। कोई कहे कि यही आपकी दीवानगी है? आप तारीफ़ कर रहे हैं और आपको नाम तक याद नहीं है! लोग ये सोचते हैं कि नाटकबाजी में ही ये तारीफ़ कर रहा है, इसको ऐसा होगा नहीं, पर वास्तव में मेरी स्मरण शक्ति.....। नाम तो बड़े गायब होते हैं मेरे से, और खासकर मौके पे तो नाम याद आते ही नहीं मेरे को।
जैसे अभी मैं आपको प्रमोद जब भोपाल में नाम ले रहा था , तो प्रमोद ताम्बट का नाम मुझसे छूटा। प्रमोद ताम्बट भी बहुत ऊंचे हैं इस मामले में कि वो फ़ालतू के जुगाड़ में नहीं पड़ते। मैं सोच रहा था कि बोलते हुये कि कोई नाम छूट रहा है। तो मेरे से कई नाम छूट जाते हैं। लोग नाराज भी हो जाते हैं।
मेरी स्मरण शक्ति की ये जो कमी है, इसने लेखन में मुझे कमजोर किया है। इसने मुझे और ताकतवर बनाया होता, अगर मेरे अन्दर उतनी अच्छी स्मरणशक्ति होती, जो कई बड़े हिन्दी लेखकों में है। मेरी नहीं है। संदर्भ याद नहीं रहते। कवि का नाम याद नहीं रहता, वही कविता भूल जाता हूं जिसपे मैं फ़िदा रहता हूं। तो वो मेरी कमजोरी है। बहुत बड़ी कमजोरी है।“
ज्ञान जी की इस कमजोरी के बारे में जानकर मुझे बड़ा सुकून टाइप हुआ। एक तो इसलिये कि नाम अक्सर मैं भी भूल जाता हूं। दूसरे इसलिये कि इस लंबी बातचीत में उन्होंने तमाम लेखकों का नाम लिया। उनमें अनूप शुक्ल का नाम शामिल नहीं है। हालांकि अनूप शुक्ल को ऐसी कोई आशा भी नहीं थी लेकिन अपन ने अनूप शुक्ल को समझा दिया कि ज्ञानजी तुमको बहुत अच्छा लेखक मानते हैं। बस नाम लेना भूल गये होंगे लम्बी बातचीत में याददाश्त की अपनी कमजोरी के कारण। तबसे अनूप शुक्ल बौराये घूम रहे हैं।
ज्ञान जी ने सवालों के जबाब के बहाने अपने उपन्यासों की चर्चा विस्तार से की है। ईमानदारी से की गयी इस चर्चा में बात करते हुये वे कई बार आत्ममुग्धता के पाले में पहुंच गये दे लगते हैं। अपने उपन्यासों की तफ़सील से चर्चा करते हुये अपने समकालीनों के उपन्यासों पर चर्चा करते हुये किंचित अनौदार्य के पाले में पहुंच गये से लगते हैं जब वे कहते हैं-“वरना बहुत हैं जिन्होंने, वही, जैसा मैंने आपको बताया कि किसी ने कॉलेज ले लिये, कॉलेज नहीं तो दफ़्तर ले लिया, बैंक ले लिया और ऐसे करके आप कुछ लिख सकते हैं। दो-चार। उसमें व्यंग्य की छुटपुट छटा दिखा दी, और उसे कहा कि ये व्यंग्य उपन्यास है।“
इसके जबाब में कॉलेज, दफ़्तर, बैंक लेकर लिखने वाले कह सकते हैं कि यह बात ऐसा लेखक कह रहा है जिसने अपने उपन्यास लेखन की शुरुआत अस्पताल को लेकर की थी।
ज्ञान जी ने अपने बहुपठित होने के सबूत में अपने पास मौजूद तमाम किताबों के नाम बताये हैं जो उनके पास हैं और जिसे उन्होंने बाकायदा खरीदा है। बाकायदा खरीदने की बात कुछ मजेदार लगी क्योंकि किताबें और गुजर चुके लेखकों की रचनावलियां तो खरीदकर ही पढी जायेंगी। अब गुजर चुके बड़े लेखक नवोदितों की तरह अपनी किताबें सादर, सप्रेम भेंट करने तो आयेंगे नहीं। बाद में इस बात के कहने का कारण भी समझ में आया।
वह इसलिये कि ज्ञानजी को बचपन में किताबें पढने की ऐसी लगन थी कि किताबें चोरी करने में भी गुरेज नहीं करते थे। अपने किताब चोरी के अनुभव साझा करते हुये ज्ञान जी बताते हैं-“ मेरे एक सहपाठी मित्र होते थे, नवीन जैन। हम दोनों मिलकर जाते थे किताबों की दुकान पे। दुकान वाले को बातों में उलझाते थे और वहां से चोरी करके, किताब मारकर, बाकायदा पैंट के अन्दर छुपा लेते थे। शर्ट बाहर निकली हुई है, पैंट के अन्दर खोंस लेते थे। हमारे पास एक जमाने में हजार के करीब ऐसी चोरी की किताबें हो गयीं थीं।“
बाद में ज्ञानजी का किताब चोरी करके पढने वाला सहपाठी किताब चोरी करते हुये पकड़ा गया था। उसकी बहुत पिटाई भी हुई। कपड़े उतार लिये गये। साथ में न रहने के चलते अपने ज्ञानजी बच गये।
अपनी पसंदीदा किताबों का जिक्र भी किया है ज्ञान जी ने। कल उनमें से एक जोसेफ़ हेलर के उपन्यास ’कैच ट्वेंटी टू’ की तारीफ़ से प्रभावित होकर मैं उसे खरीदने निकल पड़ा। लेकिन किताब मिली नहीं। इसके बाद ज्ञान जी दूसरे पसंदीदा अंग्रेजी लेखक पीजीवुडहाउस की एकमात्र उपलब्ध किताब ’बिग मनी’ लेकर आ गया। ढाई सौ रुपये की मिली। अब मैं भी पीजीवुडहाउस का जिक्र करते हुये कहूंगा-’बाकायदा खरीदकर लाया था यह किताब।’
ज्ञानजी ने अपने पढे-लिखे होने का जिक्र करते हुये तमाम कवियों और लेखकों का जिक्र किया। तफ़सील से उनके बारे में बताया है। लेकिन जिस मासूमियत से उन्होंने नरेश सक्सेना जी की बेहतरीन कविता का जिक्र करते हुये उसको पढ रखने का जिक्र किया उसे देखकर मुझे बहुत हंसी आई। ज्ञानजी की निश्छल मासूमियत की बलैयां लेने का मन हुआ। ज्ञानजी बताते हैं:
“ अभी के जो कवि हैं, चाहे भगवत रावत जी हों, चाहे राजेश जोशी हों, चाहे अरुण कमल हों, चाहें विनोद कुमार शुक्ल हों, नरेश सक्सेना साहब हों-’पुल पार होता है पुल पार करने से , नदी पार नहीं होती’। ये मैंने पढे हैं।“
राहुल देव की जगह मैं होता सवाल पूछने वाला तो मैं मजे के लिये पूछता नरेश जी की वो वाली कविता भी तो बताइये:
"शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है"
राहुल देव ने सभी सवालों के जबाब बहुत विस्तार से दिये हैं ज्ञान जी ने। शायद आमने-सामने की बातचीत और उसकी रिकार्डिंग के आधार पर किताब तैयार की गयी है। इसीलिये जबाबों में दोहराव है। कई जबाब अनावश्यक विस्तार से दिये गये लगते हैं।
इस बातचीत को पढना मेरे लिये उपलब्धि रहा। ज्ञान जी ने अच्छे व्यंग्य लेखन के जो गुर बताये हैं वे सबके लिये समान रूप से लागू होते हैं शायद जीवन के हर क्षेत्र में ही। वे कहते हैं:
“रातों-रात, ओवरनाइट स्टार होने की कल्पना मत करो। ये एक बहुत लम्बा खेल है साहित्य। आप अच्छा लिखो, बस बाकी चीजें अपने आप पीछे-पीछे आयेंगी। मैं ये कह रहा हूं। पुरस्कार भी आयेंगे। पहचान भी आयेगी। सम्मान भी आयेंगे। आपके बारे में बात भी होगी।“
किताब अपने में बहुत महत्वपूर्ण है। रोचक भी। इतनी कि इसके चक्कर में ज्ञानजी का उपन्यास ’पागलखाना’ पढना छोड़कर इसे पूरा किया। अब जब पूरी हो गयी किताब तो सोचा इस पर लिखा भी जाये। वैसे हमारे हिन्दी व्यंग्य में लेखक लोग सीधे किताबों के बारे में कम बाते करते हैं।
लेकिन राहुल देव की ज्ञान जी से बातचीत चर्चा, विस्तृत चर्चा की हकदार है। राहुल देव बधाई के हकदार हैं।
मुझे लगता है हिन्दी के सभी लेखकों से विस्तार से चर्चा होनी चाहिये। होना तो यह चाहिये कि बड़े स्थापित लेखक आपस में एक दूसरे का इंटरव्यू लें और नवोदितों के सामने नजीर पेश करें कि देख बेट्टा ऐसे लिया जाता है इंटरव्यू।
बहरहाल एक बेहतरीन बातचीत के लिये ज्ञानजी और राहुल देव संयुक्त रूप से बधाई के पात्र हैं।
इस बातचीत से के मुख्य अंश अगली पोस्ट में। लिंख यह रहा
पुस्तक विवरण
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पुस्तक का नाम:’साक्षी है संवाद ’ (ज्ञान चतुर्वेदी से लंबी बातचीत)
वार्ताकार- राहुल देव
सहयोग राशि- 100
पेज- 96
प्रकाशक: रश्मि प्रकाशन, 204, सन साइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4 , कृष्णा नगर, लखनऊ- 226023
किताब के लिये आर्डर करने के तरीके:
1. 100 रुपये पेटीम करें फ़ोन नंबर - 8756219902
2. या फ़िर 100 रुपये इस खाते में जमा करें
Rashmi Prakashan Pvt. Ltd
A/C No. 37168333479
State Bank of India
IFSC Code- SBIN0016730
दोनों में से किसी भी तरह से पैसे भेजने के बाद अपना पता 08756219902 पर भेजें (व्हाट्सएप या संदेश)
3. किताब अमेजन पर इस पते पर उपलब्ध है -http://www.amazon.in/dp/B07D3N2P1R

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Monday, May 13, 2019

गंगा की रेती पर

सुबह टहलने निकले तो देखा साइकिल में हवा गोल है। साइकिल टहलाते हुए हवा भराने पहुंचे। साइकिल की दुकान और घर के गठबंधन वाली एक झोपड़ी दिखी। आगे दुकान, पीछे घर। एक महिला खाना बना रही थी। दो लड़कियां अंदर बैठी थीं। एक बच्ची बच्ची टीवी देखते हुए कुछ काम कर रही थी। दूसरी कान और कंधे के बीच मोबाइल दबाए किसी से बतियाती हुई सब्जी काट रही थी।
दुकान का मालिक खटिया पर बैठा था। एक रिक्शा वाला आया। खुद हवा भरी कम्प्रेशर से और पैसे देकर चल दिया। हमने भी स्वयंसेवा की। चार रुपये लगे खुद हवा भरने के। लगा कि एक कम्प्रेसर हम भी धर लें। लोग खुद हवा भरेंगे और पैसे मिलेंगे। हम आगे सोचते तब तक एक रिक्शा वाला पंचर बनवाने आ गया। दुकान वाले ने टॉयर खोलकर पंचर बनाना शुरू कर दिया। हमने हवा भरने की दुकान खोलने का काम स्थगित कर दिया। पैसे बचे, बवाल कटा।
क्रासिंग बन्द थी। हम बगलिया के निकले। पटरी को दूर तक और देर तक देखा। एक झोपड़ी के बाहर एक लड़की तवा मांज रही थी। दो बकरियां बिना मतलब ही जुगाली करती दिखीं। झोपड़ियों के झुरमुट में ही एक मंदिर उगा था। किसी देवी की मूर्ति खड़ी थी संकरे में। अकेलेपन और बोरियत मूर्ति के चेहरे से टप्प टप्प चू रहा था।
क्रासिंग पार करते ही कुछ लोग ऊंचाई पर बैठे दिखे। एक आदमी को घेरे हुए कुछ लोग उससे चुहल कर रहे थे। हम रुक गए। हमसे वो बोले -'ये उनके बहुत बड़े भक्त हैं। उनके गीत गाते रहते हैं। आप भी सुन लेव।'

हम रुके। बतियाना शुरू किए तो गीतकार भाई जी शर्माकर निकल लिए।
वहां बैठे लोग ओवरब्रिज पर काम करने वाले थे। बताया काम फिर से रुक गया है क्योंकि पेमेंट नहीं हुआ। न जाने कब शुरू होगा। काम करने वाले लोग बिहार के रहने वाले हैं। वोट डालने नहीं जा पाये। रिजर्वेशन नहीं मिला।
ओवरब्रिज कई सालों से बन रहा है। अनगिनत बार काम रुका है। न जाने कब बनेगा।
नए पुल की तरफ से शुक्लागंज की तरफ गए। पुल की शुरुआत में ही एक महिला अपने बच्चे को नहला रही थी। बाल्टी में पानी था। जिस किफायत से बच्चे के ऊपर पानी डालते हुए नहला रही थी महिला उसको देखकर लगा कि कोई समझदार फोटोग्राफर होता तो इसी से 'पानी बचाओ' अभियान का वीडियो बना लेता। बच्चे के हाथ मे चोट लगी थी। बच्चे के पास शायद मोबाइल नहीं था वरना अब तक अपनी नहाती हुई फ़ोटो की खींचकर 'मदर्स डे' मना चुका होता।

गंगाघाट पर देखा कि जहां 'जय हो फ्रेंड्स ग्रुप' के लोग बच्चों को पढ़ाते हैं वह जगह दीवार से घिर गई है। नमामि गंगे योजना वाले घाट बन रहे हैं। गंगा छिटककर दूर जा चुकी हैं। बच्चे पढ़कर जा चुके थे।
गंगा की रेती में कुछ बच्चे एक रेत की बोरी के ऊपर से कूदते हुये अलग-अलग मुद्रा में जम्प कर रहे थे। पता चला स्टंट और डांस सीख रहे हैं। हवा में अलग-अलग स्टाइल में कूदते देखते रहे उनको।
बच्चे रोज सीखते हैं स्टंट। अपने आप। वीडियो के सहारे। कोई सिखाने वाला नहीं। नेट के वीडियो इन एकलव्यों के द्रोणाचार्य हैं। एक बच्चा किसी कंपटीशन में भाग भी ले चुका है।
एक बच्चा एकदम नया है। चड्डी बनियाइन में। अभी दो दिन हुए सीखते हुए।
डांस में क्या करते हो ? पूछने पर बच्चे ने कोई डांस का नाम बताया। हमको समझ नहीं आया। बच्चे ने डांस करके बताया। पैर जमीन पर पटककर शरीर अकड़ा लिया। ऐंठ है डांस में। लेकिन है तो डांस ही।
कोई तय नहीं कि यह शौक आगे कहाँ तक जाएगा। लेकिन बच्चों में जुनून है।

आगे दो महिलाएं रेती में बैठे बतिया रही थीं। एक रोजे के किस्से और उससे जुड़े किस्से सुना रहीं थी। दूसरी अपनी बहुओं के किस्से। बहु मायके चली गयी है, उसके बारे में सास बता रही है। रोजे वाली महिला बता रही कि कैसे एक बार रोजे के दौरान उसकी तबियत बिगड़ गयी लेकिन उसने रोजा नहीं छोड़ा।
इस बीच एक साधु जी टहलते हुए आये। पता चला कि हठयोगी हैं। खड़े रहने का प्रण लिए हैं दो साल से। कामख्या में मुख्य मठ है। पश्चिम बंगाल में कहीं मंदिर बनवाने का संकल्प लिया है। जब तक नहीं बनेगा तब तक खड़े रहेंगे। खड़े रहने से एक पांव दूसरे के मुकाबले फूल गया है। रात को सोते समय झूले के सहारे खड़े रहते हैं। किसी भक्त ने झोपड़ी बनवा दी है। मच्छरदानी लगी है। कोई पत्रकार फलाहार दे जाते हैं। हठयोग चल रहा है। समाज से वैराग्य है, खाना समाज से ही मिल रहा है।
बाबा जी यूट्यूब पर अपने बारे में उपलब्ध वीडियो का लिंक बताते हैं। हम वहीं खड़े होकर देखते हैं। ख्याल आता है कि देश में रोज बढ़ती बेरोजगारी का इलाज बाबागिरी हो सकती है। ख्याल को हड़का देते हैं। बाबा बनना आसान नहीं है।

गंगा किनारे कुछ लिफाफे दिखे। देखा तो पता चला कि किसी बैंक के नोटिस हैं जो कर्ज न चुकाने वाले डिफाल्टरों को भेजे गए हैं। वे कर्जदारों तक न पहुंचकर गंगा किनारे पहुंच गए हैं। उनकी अंत्येष्टि हो गई। परलोक सुधर गया कर्जे का।
लौटते में नाव से पार आये। 30 रुपये तय हुआ। केवट प्रसंग याद आया :
'कहेहु कृपालु लेहु उतराई
केवट चरण गहेहु अकुलाई।'
केवट घबरा गए थे। यहां भगवान पैसा दे रहे हैं मतलब आगे लफ़ड़ा होगा।
इसी डर से ठेले वाले , दुकानदार, रिक्शेवाले, टेम्पोवाले इलाके के वर्दी वाले से पैसे नहीं लेते। आगे काम बिगड़ जाएगा।
बीच नदी में बात हुई। पता चला सुबह से मछली पकड़ रहे हैं। तीन-चार किलो मिलीं। मछली 120 रुपये किलो हैं। जो पकड़ी गई मछलियां उनकी उम्र 3 से 4 महीने हैं। पकड़ गयीं। क्या पता मछलियों के कोई थाने होते हैं क्या जहां जाकर इन मछलियों के मां-बाप रिपोर्ट लिखाते होंगे कि उनकी बच्ची गुम हो गयी।
पार उतरे। 35 रुपये दिए। पांच रुपये ज्ञान के। घर आये। बीच के किस्से अलग से।


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Saturday, May 11, 2019

लापरवाही में बनी कलाकृति का किस्सा

कल हमनें एक फोटो साझा की। 'बेवकूफी का सौंदर्य' के नाम से। मित्रों से पूछा कि अंदाज बताएं कैसे बनी होगी। शीर्षक भी बताने को उकसाया था।

मित्रगणों ने अनुमान लगाए। कुछ मित्रों के अनुमान बहुत नजदीकी रहे। कुछ शीर्षक भी बताए। Abhishek ने कई किस्से लिखे इस फोटो के बारे में। वो सब पिछली पोस्ट में देख सकते हैं।
अब बताएं कि तस्वीर कैसे बनी। हुआ यह कि कल जूते पॉलिश करने की सोची। दो पॉलिश में से कम मेहनत वाली पॉलिश इस्तेमाल करने की सोची। दो पॉलिश मतलब एक लिक्विड पॉलिश और दूसरी डिबिया वाली पॉलिश। डिबिया वाली पॉलिश रगड़कर चमकानी पड़ती है। लिक्विड वाली में कम मेहनत में काम बन जाता है।
लिक्विड पॉलिश में ऊपर एक स्पंजी टुकड़ा होता है। जो पॉलिश को बराबर करता है जूते पर। वह स्पंज का टुकड़ा निकल गया था। कभी रगड़ गया होगा ज्यादा तो उखड़ गया। गठबंधन टूट गया पॉलिश के साथ।



स्पंज का टुकड़ा निकल गया तो हमने जरा सा पॉलिश डालेंगे जूते पर फिर उसको ब्रश से चमका लेंगे। लेकिन जैसे ही हमने दबाया तो ढेर सारी पॉलिश जूते के उपर से होते हुए जमीन पर गिर गयी। तब मुझे पता लगा कि ऊपर लगा स्पंज पॉलिश बराबर करने के साथ-साथ सोख्ते का भी काम करता है।
अब जब जमीन पर पॉलिश गिर गयी तो हमने पहले उसको ब्रश से समेट कर जूते पर लगाई। फिर कपड़े से पोंछी। पोंछने के पहले जो चित्र बना वह कल पोस्ट किया था। उस पर मित्रों ने अपनी कल्पना की छौंक लगाकर टिप्पणियां कीं।
तो यह रहा लापरवाही में बनी एक फोटो का किस्सा । अब वह चित्र फर्श से साफ हो गया है। लेकिन फेसबुक पर स्थायी हो गया। तब तक रहेगा जब तक हमारा खाता नहीं हटता या फिर फेसबुक नहीं हटता। हमारी जिंदगी में भी ऐसा होता है। लोग आते- जाते हैं लेकिन उनके किये कामों की यादें बनी रहती हैं।
जूते पर पॉलिश के किस्से से मुझे धूमिल की कविता मोचीराम की याद आ गयी। कविता का लिंक नीचे दिया है। इस कविता का एक अंश है:
"और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है"
१. धूमिल की कविता मोचीराम http://kavitakosh.org/.../_%E0%A4%A7%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0...


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10216729206155992