Wednesday, March 31, 2021

हमारे दरमियाँ

 


मुश्किलों से जब मिलो आसान होकर मिलो,
देखना आसान होकर , मुश्किलें रह जाएंगी।
हमारे डॉ. राजीव रावत की किताब 'हमारे दरमियाँ' के पन्ने पलटते हुए स्व. प्रमोद तिवारी की गजल का यह शेर दिखा। मजा आ गया। पैसे वसूल हुए।
डॉ राजीव रावत हमारे आयुध निर्माणी संगठन से जुड़े रहे हैं। कानपुर की फील्ड गन फैक्ट्री के राजभाषा विभाग से जुड़े रहे। 2009 से आई.आई.टी. खड़गपुर में वरिष्ठ हिंदी अधिकारी हैं।
सहज, सरल, तरल भाषा में लिखे ललित निबन्ध तसल्ली से पढ़ने वाले हैं। अपनी बात कहते हुए बेहतरीन कविता पंक्तियों के उध्दरण से लेखों की खूबसूरती बढ़ गयी है। इन उद्धरणों के चलते हमेशा आसपास रखने लायक किताब है यह। किताबें वैसे भी आसपास रहनी चाहिए। तमाम अलाय बलाय से बचाती हैं किताबें।
किताब अभी तो शुरू की है। फिलहाल इतना ही।
किताब खरीदने का मन करे तो लिंक यह रहा।

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Tuesday, March 30, 2021

होली के टाइटल बमार्फत अरविंद तिवारी जी

 

Arvind Tiwari जी वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं। बावजूद वरिष्ठता के उनकी सबसे अच्छी खूबी यह भी है कि वे अपनी वरिष्ठता सर पर लादकर नहीं रखते। उनका खिलंदड़ापन भी बरकरार है। हंसी-मजाक से परहेज नहीं। खिलकर लिखना, खुलकर हंसना। लिखाई में एक बैठक में एक लेख निकाल देते हैं। लेखन में निरन्तर सक्रिय हैं। क्रिकेट की भाषा में कहें तो विकेट के चारो तरफ शॉट लगाते हैं। खूब लिखा है। खूब छपे हैं। अभी भी लिख रहे हैं। छप रहे हैं। नए से नए विषय पर लिखना जारी है। नए से नए लेखक की किताब पढ़कर उस पर , बिना चेला बनाने के लालच के, लिखना अरविंद जी के व्यक्तित्व की खूबसूरती है।
इनाम भी खूब पाए हैं। आगे भी मिलेंगे इंशाअल्लाह। फिलहाल थोड़ा ब्रेक टाइप लगा है शायद। असल में इनामिया कमेटी में शामिल लोग शायद इनके साथ के ही हैं जो इनको नम्बर तो अच्छे देते होंगे लेकिन इतने अच्छे नहीं कि इनामों के मामले में उनके बराबर आ सकें। बिना गुट, मठ, चेलेबाजी के लेखन के ये सहज साइड इफ़ेक्ट होते होंगे।
बहरहाल यह सब तो भूमिका है अरविंद जी द्वारा दिये होली के टाइटल साझा करने की।
दरअसल अरविंद तिवारी जी ने मुझको होली के टाइटल देने का जिम्मा सौंपा। लेकिन हम अलसिया गए। फिर जब मन किया लिखने का तो कुछ सूझा नहीं , सिवाय दो-चार के। फेसबुक वॉल पर 'टायटल चन्दा' की अपील लगाई तो अरविंद जी ने हमारे आलस्य पर लानत टाइप भेजते हुए सूचना दी कि उन्होंने टाइटल दे दिए हैं। एक से एक शानदार टाइटल। यह घण्टों की मेहनत का काम है। इससे पता चलता है कि अरविंद जी ने काम भले हमें सौंप दिया होगा लेकिन उनको हमारी नाकाबिलियत और आलस्य पर पूरा भरोसा होगा कि -'इनसे हो नहीं पायेगा।'
हमको अरविंद जी द्वारा सौंपे काम को न कर पाने का जितना अफ़सोस है उससे ज्यादा खुशी इस बात की है कि हमने उनके विश्वास की रक्षा की (इनसे न हो पायेगा)। जितने लोगों को टाइटल दिए अरविंद जी ने उनको अपन ठीक से जानते भी नहीं।
कुछ टाइटल सौरभ जैन ने भी दिए हैं और कुछ अर्चना चतुर्वेदी ने भी। बेहतरीन होने के बावजूद वे 'कुछ ही' हुए। अरविंद जी के टाइटल में साझा करने का विकल्प नहीं है इसलिये कॉपी करके यहां पेस्ट कर रहे हैं।
अरविंद जी ने अपने लिए टाइटल दिया था - 'मुझे नहीं मिलेंगें अब सम्मान'। प्रभाशंकर उपाध्याय जी की आपत्ति पर बदलकर किया -'आज का ज्ञान समाप्त हुआ।' हमको सूझा था -'डोनाल्ड ट्रम्प की नाक काटने वाला अकेला व्यंग्यकार'।
गोपाल चतुर्वेदी जी वरिष्ठतम व्यंग्यकार हैं। विपुल लेखन है उनका। अभी भी नियमित लिखते हैं सोमवार के दैनिक हिंदुस्तान में। लगभग सब इनाम मिल चुके। वे कंट्रोलर आफ फाइनेंस रहे हैं। कोई भी खर्च बिना उनकी सहमति के होता नहीं है। अभी भी बड़े इनाम उनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहमति से ही मिलते हैं। उनके लिए सोचा था -'कमेटी कोई हो इनाम के लिए हमारी वित्तीय समहति जरूरी है -हमको हलके में न ले कोई।'
Hari Joshi जी के लिए अरविंद जी ने लिखा -'व्यंग्य के त्रिदेव उपन्यास नहीं, संस्मरण है।' हरि जोशी जी ने लिखा भी -आप इसे कविता भी मान सकते हैं। 🙂 हमको उनके लिए सूझा था -'व्यंग्य के त्रिदेव का मारा, एक शरीफ व्यंग्यकार बेचारा।'
Harish Naval जी की किताब अमेरिकन प्याले में हिंदुस्तानी चाय पर लिखा। विपुल लेखन के बावजूद हरीश जी का लेखन 'बागपत के खरबूजे' की खुशबू से ही जाना जाता है। इस खुशबू के आगे कोई खुशबू जम नहीं पा रही। उनके लिये लिखना था मुझे -'बागपत के खरबूजे अभी तक महक रहे हैं।'
हरीश नवल जी की 'अमेरिकन प्याले में भारतीय चाय' में लगभग आधे लेख उनके मित्रों द्वारा उनकी तारीफ में लिखे लेख हैं। इस पर इनाम भी मिला। यह व्यंग्य के नए अंदाज हैं। इस किताब के छपने, बिकने के पहले ही इसका अनुवाद आया और इनाम भी (समग्र व्यक्तित्व के संलग्नक के रूप में)। सब कुछ इतनी फुर्ती से कि बरबस राम जी द्वारा धनुष भंग वाली चौपाई याद आई -'लेत, चढ़ावत, खैंचत गाढ़े। काहू न लखा देख सब ठाढ़े।' टाइटल भी बना हरीश जी के लिये:
-अपने तआरुफ़ के लिए बस इतना काफी है हरीश, किताब छपते ही अनुवाद/इनाम आ जाता है।' 🙂
ज्ञान जी के लिए कई टाइटल सूझे थे। ज्ञान जी वलेस में जब भी कोई संदेश डालते हैं तो उसकी शुरुआत करते हुए अपने लेखन की जानकारी देते हैं -'मित्रों, नए उपन्यास के एक लाख शब्द लिख चुका हूँ/सातवां ड्राफ्ट हो चुका है।' लगता है ज्ञान जी को भरोसा नहीं है कि यह नहीं बताएंगे तो लोग उनको हल्के में लेंगे। अब तो इसका इतना अभ्यास हो गया है कि इसके बिना कुछ शुरुआत करेंगे तो पूछेंगे -'ज्ञान जी का खाता हैक हो गया है क्या?' कुछ टाइटल यह भी हो सकते थे उनके लिए:
-पागलखाना के बाद नया स्वांग
- हर उपन्यास की शुरुआत पांचवे ड्राफ्ट से
-इंटरव्यू कोई ले लेकिन बोलना केवल अपन को ही है
प्रेम जनमेजय जी की चर्चा बिना इनाम के हो यह सम्भव नहीं।नेटवर्किंग के उस्ताद जिसको चाहे इनाम दिलवा दें, जिसको चाहे कबीर बना दें। भले ही कबीर उनको बाद में लुकठिया दें। व्यंग्य यात्रा के द्वारा अपने अद्भुत काम से व्यंग्य के लिये लगातार समर्पित प्रेम जी के लिए यह भी सोचा था
- 'व्यंग्य यात्रा का समर्पित कंडक्टर , यात्रियों को इनाम की गारंटी।'
- 'सभी व्यंग्य यात्रियों से निवेदन है कि वे अपने व्यंग्य सामान से हास्य को यात्रा के पहले निकाल दें। किसी व्यंग्य यात्री के पास हास्य पाया गया तो रास्ते में उतार दिया जाएगा।'
-'राजधानी में गंवार, पहले लेखक फिर संपादक ' 🙂
Alok Puranik व्हाट्सप के पढ़े लिखे क्या हो गए अपनी सहेलियों सनी लियोनी और राखी सावंत को भूल गए।
बातें बहुत सारी हैं लेकिन फिर कभी। फिलहाल आप मजे लीजिये अरविंद तिवारी जी द्वारा दिये टाइटल की।
(बुरा न मानो होली है।सम्मानों की रिस्क पर लिखा है।याददाश्त पर आधारित है और आत्मीय लोगों पर लिखा है।जोड़ने का आग्रह न करें।शेष अगली होली में)
नरेंद्र कोहली___व्यंग्य के रवि शास्त्री
गोपाल चतुर्वेदी___आप भी सम्मानित होंगे और.. आप भी!
सूर्यबाला____कहानी,व्यंग्य के साथ घर भी संभाला
विष्णु नागर______"शब्द सम्मान" सेलिब्रेट कर रहा हूं
ज्ञान चतुर्वेदी___स्वांग लिखता हूं,करता नहीं
प्रेम जनमेजय_____सम्मान दिलाना हो, तो नियम बदलवा देता हूं
हरीश नवल_____चाय मत देखो, अमेरिकन प्याला देखो
यशवंत व्यास______व्यंग्यकारों की मनोहर कहानियां
लिख रहा हूं
सुभाष चंदर_______ससुराल में होली, सिर्फ़ मैंने खेली
गिरीश पंकज__रचनावली के लिए तीन ट्रक बुक किए हैं
आलोक पुराणिक______व्यंग्यश्री का खुमार बाकी है
गिरिराज शरण अग्रवाल__कब तक प्रतीक्षा करें सम्मान की
श्रीकांत चौधरी___व्यंग्य का सब कुछ गलत हाथों में है
अभी भी
मूलचंद गौतम_____व्यंग्य का प्रगतिशील दर्पण
हरि जोशी________त्रिदेव उपन्यास नहीं,संस्मरण है
अनूप श्रीवास्तव____मेरे लिए सभी अतिथि संपादक हैं
पिलकेंद्र अरोड़ा______टेपा सम्मेलन का पुराना "टपोरी"
कैलाश मंडलेकर__ज्ञान जी ने मेरा नाम लिया..शुक्रिया शुक्रिया
शांतिलाल जैन__ज्ञान जी ने मेरा भी नाम लिया है,समझे!
विजी श्रीवास्तव______समीक्षा करूंगा तो धो दूंगा
संतोष त्रिवेदी_____व्यंग्य का खुरपेच
पूरन सरमा_______पुराने व्यंग्यों का नया प्रयोग
यशवंत कोठारी______इस उम्र में काहे की यारी
मनोज लिमये___कभी दिखे कभी खोए
अजय अनुरागी_____जवाहर सर्कल पर सिनेमा के टिकट ब्लेक में बेचता था
अनुराग बाजपेई_______यू ट्यूब का वीडियो
फारूख अफ़रीदी____बिना लिखे ही मीरी
अतुल चतुर्वेदी_____ सम्मानअभी म्यान में है
अतुल कनक______हर घटना की मिल जाती है भनक
बुलाकी शर्मा____साहित्य अकादमी राजस्थानी में और चर्चा व्यंग्य में
जवाहर चौधरी___अगले शरद जोशी सम्मान पर नज़र
शरद उपाध्याय_____प्रेमी प्रेमिका व्यंग्य स्पेशिलिस्ट
स्नेहलता पाठक______खुद की पुस्तकें, खुद ही पाठक
अनीता यादव____व्यंग्य की नई रेसिपी है मेरे पास
शशि पांडेय___ऑल टाइम लाइव रहती हूं
अर्चना चतुर्वेदी_____खबरदार!ब्रज भाषा में मीठी गालियां भी हैं
समीक्षा तेलंग_____मैं भी व्यंग्य की जंग में हूं
पल्लवी त्रिवेदी____व्यंग्य की खाकी वर्दी
वीना सिंह___व्यंग्य भी लिखती हूं,किचन रेसिपी भी
इंद्रजीत कौर____अभी किचन में व्यस्त हूं
मीना सदाना अरोड़ा_____ व्यंग्य लघुकथा दोनों को निपटाया
मलय जैन______व्यंग्य का पुलिसिया सर्च ऑपरेशन
हरीश कुमार सिंह____महाकालेश्वर से ललितेश्वर तक
निर्मल गुप्त____व्यंग्य की ऊन का उलझा गुल्ला
कुमार विनोद_____शायरी का पानी व्यंग्य के तालाब में
अनूप शुक्ल____पुलिया के ए टी एम में अभी बैलेंस है
शशांक दुबे_____व्यंग्य भी और फ़िल्म भी
श्रवण कुमार उर्मिलिया____व्यंग्य में "ख़ोंगा पानी"
रमेश तिवारी____व्यंग्य की धारा मोड़ दूंगा
एम.एम. चंद्रा____रचनाएं आमंत्रित हैं,शर्तें लागू
रामविलास जांगिड़_____सपाटबयानी का कट्टर दुश्मन
रामस्वरूप दीक्षित____चंदेल राजाओं के समय का व्यंग्यकार
ब्रजेश कानूनगो____व्यंग्य का सीनियर गिरदावर
ईश्वर शर्मा___न वाद न विवाद सिर्फ़ अनहद नाद
अश्वनी कुमार दुबे____सम्मान के लिए कितनी किताबें चाहिए
सुनीता शानू____अब मैं एडमिन भी हूं
प्रभाशंकर उपाध्याय_____कतरनों का संग्रहालय
अनुज खरे____व्यंग्य में कौन उठाए और कौन धरे
सौरभ जैन____अभिषेक अवस्थी का छीना चैन
अमित शर्मा_______व्यंग्य लेखन में पठार भी आते हैं
अनुज त्यागी____व्यंग्य स्तम्भ का नया वैरागी
अनूप मणि त्रिपाठी__गुरू ने अंगूठा मांगा नहीं,दिखाया
पंकज प्रसून___व्यंग्य पर नहीं,इतिहास पर नज़र है
रामकिशोर उपाध्याय__अट्टहास में पूर्णकालिक हूं
ललित लालित्य___अब मैं गब्बर हूं,वह सांभा
रणविजय राव___नए ग्रुप के सूत्रधार
विनोद कुमार विक्की___अतिथि संपादक बनने का रेकॉर्ड बनाया है
डॉ संजीव कुमार___उनसे तो इकरारनामा था,रजिस्ट्री हमसे करानी पड़ेगी
प्रभात गोस्वामी___दिल्ली में विमोचन हो गया,अब जयपुर बेमानी
मृदुल कश्यप__व्यंग्य के खरगोशों को हराने वाला कच्छप
ललित शौर्य__ मंत्रियों से मिल रहा हूं,व्यंग्य बाद में
मोहन मौर्य____व्यंग्य का मेवाती चेहरा
राजेश कुमार____व्यंग्य, मानक शब्दों में टाइप करें
गोविन्द शर्मा____बाल साहित्यकार, पर व्यंग्य में ओवरटाइम
सुनील जैन राही____रेगिस्तानी खेत का मचान
कृष्ण कुमार आशु_____प्रेम के मार्ग का राही
दीपक गिरकर__समीक्षाएं व्यंग्य लिखने ही नहीं देती
राजेश सैन____अब एक छोटा सा अंतराल
अलंकार रस्तोगी_व्यंग्य का "रनर"भी चालीस हजार का
नीरज दईया____खानदानी व्यंग्यकार सिर्फ़ मैं हूं
संजीव निगम___अपनी ढपली अपना राग
प्रमोद तांबट______अभी चुका नहीं हूं
तीरथ सिंह खरबंदा___व्यंग्य के चक्कर में चौपट है धंधा
सिंघई सुभाष जैन____ये मुकेश राठौर है बड़ा बेचैन
मुकेश जोशी___मैं निर्दोषी व्यंग्यकार हूं
मुकेश राठौर______अमर उजाला से निराश हूं
जयप्रकाश पांडेय____व्यंग्य जैसा भी है, परोस देता हूं
रमेश सैनी____व्यंग्य का पुराना चावल
विवेक रंजन श्रीवास्तव__व्यंग्य का बाबू नहीं, अभियंता हूं
प्रदीप उपाध्याय___जहां जो छपे,वही लिखता हूं
सुधीर कुमार चौधरी____व्यंग्य का चौधरी कब बनूंगा
कमलेश पांडेय____आलोक पुराणिक,अनूप शुक्ल और मैं,व्यंग्य की नई त्रयी है परसाई,जोशी और त्यागी की तरह
आशीष दशोत्तर___रतलामी सेव की तासीर
संजय जोशी____दुखी हैं पड़ोसी
अभिषेक अवस्थी____सौरभ जैन के साथ फुल मस्ती
सूर्य कुमार पांडेय___गद्य पद्य दोनों से व्यंग्य दोहन जारी
बी एल अाच्छा____सम्मान से सुखी,व्यंग्य से दुखी
सुरेश सौरभ____लघुकथा से व्यंग्य उपजा देता हूं
अरविंद तिवारी____आज का ज्ञान समाप्त हुआ
आसिम अनमोल___पुरानी कतरनों का भी है मोल
अरुण अर्णव खरे____पुरस्कार से पुरस्कार खींचे जाते हैं
सुधीर ओखदे_____व्यंग्यकार के ठीक ठाक चौखटे

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Friday, March 26, 2021

मुसीबत का मुकाबला डटकर करो

 

पार्क में पेड़ की पत्तियों ने सोशल डिसटैनसिंग को मानने से साफ इंकार कर दिया है। वे नए खिले फूलों के साथ सटकर मस्ती में झूम रहीं हैं। झूले अलबत्ता दूरी बनाए हुए हैं। जहां के तहाँ 'थम' गये हैं। उनको डर है कि जरा कहीं नजदीक दिखे तो कोई तुड़ाई कर देगा।
कमरे में खिड़की खोलते ही अनगिनत किरणें बिना मास्क खिलखिलाते हुए बिस्तर, कुर्सी, फर्श पर पसर गयीं। हम उनको दूरी बनाकर रहने को कहते हैं कि भाई दूरी बनाकर रखो। कोरोना से डरो। वे और पास आकर चमकने लगती हैं।
हम सूरज भाई से कहते हैं अरे भाई समझाओ अपनी इन बच्चियों को। कोरोना से बचकर रहना है। दूरी बनाकर रहना है।
सूरज भाई हंसते हुए कहते हैं -'कोरोना इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ये जन्मजन्मांतर ऐसे ही खिलखिलाते रहेंगी। कोरोना इनसे बचने के लिए देश-देश मारा-मारा घूम रहा है। इनकी संगत में रहो तुम भी बचे रहोगे।'
हम क्या बोलें सूरज भाई ऊपर आसमान में चमकते हुए ड्यूटी बजा रहे हैं। पूरे आसमान में छाए हुए हैं । उनके यहां न लाकडाउन न वर्क फ्रॉम होम। जलवा है सूरज भाई का। हो भी क्यों न ! लाखों-करोड़ों डिग्री टेम्परेचर रखते हैं सूरज भाई। पूरी धरती उनके सामने ऐसी जैसे स्विमिंग पूल में कोई कम्पट। उनके लिए क्या कोरोना, क्या फोरोना।
हम सूरज भाई के साथ सेल्फी लेने की सोचे कि जलवेदार हस्ती के साथ फोटो खिंचा कर अपलोड कर दें। डरेगा कोरोना। लेकिन सूरज भाई ने टोंक दिया कि ऐसे भूत बनके सेल्फी न लो। जरा नहा-धोकर राजा बाबू बनकर आओ तब फोटो खिंचवाओ। उजड़े-उखड़े मुंह फोटो खिंचायोगे तो लोग समझेंगे कि कोरोना के डर से कवि हो गए हो।
हम बोले ठीक। आते अभी नहाकर। सूरज भाई बोले -'हम भी आते जरा रोशनी, गर्मी और उजाले की सप्लाई देखकर।'
ऊपर उठते हुए सूरज भाई कह रहे थे -'चिंता न करो। मुसीबत का मुकाबला डटकर करो। सफाई से रहो, दूरी बनाओ। मस्त रहो। दम बनी रहे, घर चूता है तो चूने दो।'

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Tuesday, March 23, 2021

जो डरता है वही डराता है

 कल बढिया चाय के बाद मूड झक्क होने की बात लिखी। आज सुबह उठकर चाय बनाई। रोज की तरह। फेसबुक पर कल की पोस्ट दिखी। 'लोटपोट' पर उस स्टेटस के बगल में कप धरा। खींच लिया फोटो। जिनके कमेंट और फोटो दिख रहे हैं वे साथी अपने हिस्से की चाय ग्रहण करें। बाकी इंतजार करें। समझते हुए कि आप कतार में हैं।

अंदर बैठकर चाय पी रहे थे। चिड़िया चिंचियाते हुए बताईं कि सूरज भाई आ गये हैं। बाहर बुला रहे हैं। हम आ गए। सूरज भाई ढेर सारी रोशनी, विटामिन डी, चमक, जगमग उजाला हम पर उड़ेल दिए। हम सबको हथियाते हुए बोले-'इसकी क्या जरूरत थी।'
सूरज भाई मुस्कराते हुए बोले -'ऐश कर लो भाई जी कुछ दिन। अभी मुफ्त में मिल रहा है सब। क्या पता कल को सब कुछ बाजार में आ जाये। पाउच में बिकने लगे धूप। बोतल में आने लगे रोशनी। विटामिन डी तो आने ही लगी है गोली में।'
हम बोले-'बता रहे हो कि डरा रहे हो?'
सूरज भाई बोले-'हम काहे को डराएंगे। डराता वही है जो खुद डरता है। डर तो तुम लोग खुद पैदा किये अपने लिए। आपस में डरते-डराते हो। अपनी दुनिया डरावनी बनाते हो।'
सूरज भाई और कुछ कहते कि उनके साथ आई किरण ने उनको टोंक दिया। क्या दादा आप भी सुबह-सुबह शुरू हो गए। चाय खत्म हो गई और आप अभी तक सिप मार रहे हो।
सूरज भाई ने मुस्कराते हुए गियर बदला। बोले-'चाय वाकई बढिया बनाने लगे हो।'
हम बोले-'रेसिपी न पूछोगे?'
वो बोले -'हम काहे को पूंछे। जब पीना होगा चले आएंगे। पियेंगे, चले जायेंगे।'
सूरज भाई कप धरकर निकल लिए। हम भी निकलते। आप भी मजे करो जी। याद करते हुए उमाकान्त मालवीय जी की कविता पंक्तियां:
एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो कुल
इतना सामान ही रहा।

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Friday, March 19, 2021

Wednesday, March 10, 2021

जीवन

 जीवन को समझना चाहो तो कोई पेड़, कोई पौधा, कोई फूल....एक ही सही....कैक्टस ही क्यों न हो....लगा कर देखो तो सही। धरती किसान से, अपने चाहने वाले से, बार-बार बेवफाई करती है। फिर भी वो उस पर भरोसा करता है। धोखे पर धोखे खाता है। फिर भी प्यार किये जाता है और जब वो प्यार के लायक नहीं रहता तो गांव छोड़ देता है। शहर जाकर अपना थका-हारा पिंजर किसी मिल को सौंप देता है। शहर में फिर उसे जीते-जी धरती अपनी सूरत नहीं दिखाती। दरी, चटाई, संगे-मरमर, सीमेंट, टाइल्स के फर्श और तारकोल के नीचे अपना मुंह छिपाये रहती है।

-मुस्ताक अहमद युसूफ़ी
'धनयात्रा' से

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Sunday, March 07, 2021

दीवार पर अकड़ता हुआ बन्दर

 दुनिया के सबसे कठिन कामों की फेहरिस्त बनाने का काम अगर हमारे जिम्मे दिया तो सुबह जल्दी उठना इस लिस्ट में अव्वल आएगा। जग जाते हैं, लेकिन उठ नहीं पाते। जगने का क्या, कुछ लोगों की तो रातें ही करवटें बदलते बीत जाती हैं। करवटें बदलते होंगे तो कुछ तो जगे होते ही होंगे।

बहरहाल, आज सुबह साढ़े सात बजे शुरुआत होनी थी, शहीद पार्क से। हम समय पर निकल लिये। रास्ते में लोग अलग-अलग तरह से समय बर्बाद कर रहे थे। कुछ लोग टहल रहे थे। कुछ बतियाते हुए भी दिखे। सबका अलग-अलग नजरिया, अलग-अलग अंदाज।
एक आदमी एक हाथ में बीड़ी , दूसरे में झोला लिए चला खरामा-खरामा जा रहा था। बीड़ी को नीचे 'छिपाए टाइप' था। दिख नहीं रही थी, लेकिन बीड़ी के धुएं ने उसके होने की चुगली कर दी , जैसे कि कुछ लोगों के चुप रहने से छिपी बेवकूफियां उनके मुंह खोलते ही मुनादी करने लगती हैं।
कामसासू काम्प्लेक्स की दीवार पर एक बन्दरिया दूसरे के जुएं बिन रही थी। दुलराती जाती, जुएं बीनती जाती। हमको देखकर जुएं बीनना स्थगित करके हमको देखने लगी। हमको वह अजूबे की तरह देख रही थी। उसको भी लग रहा होगा कि यह बन्दा सुबह-सुबह साईकिल पर क्यो टहल रहा है।
बन्दरियों के अलावा कुछ बन्दर दीवार पर और पेड़ों पर चहलकदमी कर रहे थे। एक बंदर अपनी पूछ को झंडे की तरह फहराता हुआ दीवार पर गर्वीली चाल से टहल रहा था। ऐसे जैसे कोई किलेदार अपने किले की रखवाली करता घूम रहा हो। टहलते हुए रुआब मारने वाले अंदाज में इधर-उधर-सब तरफ देखता। बन्दर की गर्दन किसी नवेले, नकचढ़ेअफसर की तरह अकड़ी हुई थी। उसकी अकड़ देखकर लगा कि किसी दूसरे बन्दर को ' देखते' ही रगड़ देगा। लेकिन आगे चलकर उसके रास्ते में जुएं बीनती बंदरियां दिखीं। बन्दर अपनी सारी अकड़ को अपनी पूछ सहित समेटकर दीवार से नीचे उतर गया।
सड़क पर कुछ कुत्ते दो नाबालिक टाइप गाय की बछियों को भौंकते हुए दौड़ा रहे थे। कुत्तों का नेतृत्व एक पालतू कुत्ता कर रहा था। उसका साथ कुछ सड़क के कुत्ते कर रहे थे। गाय की बछियां कुत्तों के डर से अकबकाते हुए इधर-उधर भाग रही थीं। पालतू कुत्ते का मालिक सड़क पर खड़ा अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कुत्ते के करतब देख रहा है। मुदित हो रहा था।
मुझे लगा कि बछियों की जगह वह आदमी होता और उसको कुत्ते इसी तरह दौड़ाते तो उसके क्या हाल होते?
मोड़ पर माँगने वाली महिला बैठ गयी थी। पता चला डबल स्टोरी के पास किसी की कोठरी में रहती है। जिसकी कोठरी है उसको इस बात की सहूलियत हो जाती है कि उसके सामान की देखभाल हो जाती है। चलने से मोहताज बुढ़िया रिक्शे से सवारी करके आती है। इसके अलावा और कोई नहीं है बुढ़िया का।
मन्दिर के पास भी माँगने वाले जुट गए थे। कुछ छोटे बच्चे मांगने वाली मम्मियों से चुहल करते हुये बतिया रहे थे।
मन्दिर के आगे 'नेकी की दीवार' दिखी। लोग वहां पुराने कपड़े छोड़ जाते हैं। जरूरत मन्द ले जाते हैं। एक बच्चा रिक्शे पर ढेर सारे कपड़े लादकर ले जाता दिखा। हमने उससे कहा-'जरूरत भर के कपड़े ले जाओ।' उसने कहा-'सब हमारी जरूरत के हैं।' चलते हुए उस बच्चे ने चाय पीने के दस रुपये मांगे। हमने उससे कहा -'कपड़े इकट्ठा करना छोड़कर सवारी पहुंचाओ कहीं और कमाओ।' कपड़े बीनते हुए मेरी बात हवा में उड़ा दी यह कहते हुए -'आजकल रिक्शे पर कोई नहीं चलता। सब बैटरी रिक्शे पर चलते हैं।'
शहीद पार्क पर साइकिल-साथी इकट्ठा थे। समय पर निकल लिए। शहर के बीचोबीच होते हुए 'नगरिया बुर्ज' तक गए। वहां से लौट आये। रास्ते में गेंहू के खेत, गन्ने की खेती, जमीन पर पसरी बेहिसाब धूप देखने को मिली। गर्रा नदी से साफ पानी से नीचे की बालू दिख रही थी। बालू के बिस्तर पर नदी का पानी अलसाया सा लेटा था। सूरज की किरणें नदी के पानी पर दौड़ते हुए उसको चमका रहीं थीं।
सड़क किनारे गांव की पगडंडी पर एक बच्चा तेज साइकिल चलाते हुए आया। सड़क और जमीन की ढलवां ऊंचाई को जोर लगाकर पार करते हुए साइकिल को मिसाइल की तरह पगडंडी से सड़क की कक्षा में स्थापित किया। सड़क पर आकर साइकिल का पहिया चरखी की तरह घूमा और मुड़कर सीधे चलने लगा।
शहर में घुसने पर अलग नजारे दिखने लगे। एक ठेलिया पर पुराने जमाने बड़ा टीवी औंधा लेटा था। कभी इस टीवी के जलवे होते होंगे। लेकिन अब मार्गदर्शक मंडल के बुजुर्ग सरीखे हाल हो गए।
एक घर के बाहर दो आदमी तसल्ली से बैठे बीड़ी पी रहे थे। हमको देखकर बीड़ी छिपा ली गोया कहीं हम न मांग लें। उनसे पूछकर फोटों खींची तो उन्होंने कहा -'अखबार में काम करते हैं क्या?
सड़क पर किसी से बातचीत करते हुए इंसान को अभी भी लोग अखबार वाला समझते हैं। जबकि अधिकतर अखबार संवाद का सिलसिला बन्द कर चुके हैं।
कुछ देर बाद हम लौट आये घर। सकुशल।

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Friday, March 05, 2021

सड़क पर राग मल्हार

 

ये भाई लोग इतवार को मिले थे। मुख मुद्रा से उदास टाइप लग रहे। पता नहीं क्या सोच रहे हों। इनके जीवन के संकट क्या हैं हमको पता नहीं। हम तो बस कयास ही लगा सकते।
जिस मैदान की तरफ इनकी पीठ है वह शाहजहाँपुर का प्रसिद्द खेल का मैदान है। कभी यहां नियमित हॉकी का अभ्यास होता था। कई नामी खिलाड़ी इस मैदान की देन हैं। अब वे खिलाड़ी नहीं रहे। कोई अभ्यास करते नहीं दिखता इस मैदान पर। मैदान भी उजाड़ हो गया। शायद उसी का दुख मना रहे हों भाई लोग।
सामने जिधर की तरफ मुंह किये खड़े हैं दोनों लोग उधर शहीद उद्यान है। शहर के सबसे बेहतरीन पार्को में से एक। शहीदों के नाम पर बने पार्क भले बेहतरीन हों लेकिन उनके आदर्शों पर चलने वाले कम होते जा रहे। शहीदों के नाम पर मेले लगने की बात तो दूर , उनकी याद तक लोग कायदे से नहीं करते। हो सकता है इसी बात पर दुखी हों ये भाई लोग।
पास ही शाहजहाँपुर के तीन प्रसिद्द ओज कवियों की मूर्ति लगी है। लगभग एक समय में ही हुए तीनो कवि। आज कोई ओज कवि उतना प्रसिद्द नहीं । इसका दुख भी हो सकता है इन लोगों को।
लेकिन इन बातों से इनका क्या लेना-देना? ये न तो इंसान है और न ही कवि, खिलाड़ी या शहीद खानदान के लोग। इनकी चिंता कुछ और होगी। हम समझ नहीं पा रहे। बिना समझे हम अपनी चिंताएं इनके माध्यम से व्यक्त कर रहे।
चिंता व्यक्त करते हुए हम भूल गए कि ये जोडीदार भी हो सकते हैं। एक नर दूसरा मादा। नर मादा घराने के लफड़े भी हो सकते हैं इनके बीच। ये मियां-बीबी भी हो सकते हैं। लेकिन शादी का चलन तो होता नहीं गधों के यहां। एक दूसरे को ऐसे ही पसन्द करते होंगे। साथ-साथ रहते होंगे। लिव-इन टाइप कुछ। कुछ बात हो गयी सबेरे-सबेरे इनके बीच। खटपट में मूड उखड़ गया होगा।
लेकिन मूड खराब होने की बात तो मैं इनके चेहरे और लटके मुंह को देखते हुए कर रहा। क्या पता इनके समाज मे यह परम सन्तुष्टि की मुद्रा हो। हो सकता है हमारे लिए जो सबसे खराब स्थिति हो, वही इनके लिए परम् सन्तुष्टि की हालत हो।
गधों की क्या कहें? हमारे समाज में ही ऐसा मतभेद होता है। जब सारा समाज अपनी त्रासदी में हाहाकार करता तब भी कुछ लोग कहते हैं कि इससे बेहतर समय कोई नहीं। यह हमारा स्वर्ण युग है। यह भी कि जब बहुतायत में लोग खुश हों तो चंद लोग कहें-'बड़ा खराब समय है।'
दोनों वर्ग अपने-अपने हिसाब से सही होंगे। जब बहुतायत में लोग हलकान हो रहे होंगे तब कुछ लोग खुश होंगे। उन कुछ लोगों की आवाज बहुतो पर भारी होगी।
इसके लिए कोई कहावत भी होगी। है न -'आग लागे हमरी झोपड़िया में, हम गाये मल्हार।' जब हमारी ही झोपड़ी में लगी आग के बावजूद हम मल्हार गा सकते हैं तो समाज बेहाल लगने पर कुछ लोग खुश क्यों नहीं हो सकते।
क्या पता सड़क पर खड़ा यह हसीन जोड़ा मौन स्वर में राग मल्हार गा रहा हो। हम अज्ञानतावश उसको समझ न पा रहे हों और इनको दुखी समझकर दुखी हो रहे हों।

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Tuesday, March 02, 2021

सपना नहीं हकीकत है यह

 

कल रात देर तक पानी बरसता रहा। टप टप। बादल हमसे बोला भी एक दो बार गरजकर, आओ मेरे जलवे देखो।
हम नहीं आये झांसे में। दुबककर सो गए। कुछ किताबें बगल में धर लिए जिससे कि सपने में कोई आये तो हवा-पानी पड़े। वह भी सोचे कि पढ़ने-लिखने वाला आदमी है। कोई अच्छा सपना दिखाना चाहिए इसको।
सपने के नाम पर एक गाना है न, 'कल रात मैंने सपना देखा, तेरी झील सी गहरी आँखों में।' कितना हसीन लेकिन उससे ज्यादा बीहड़ सपना है। सपना देखने के लिए किसी झील सी गहरी आँखों की कल्पना करें।
झील के नाम पर हमारे पास ही 'रॉबर्टसन झील' है। वहां तक पहुंचने के पहले उसके आसपास के अवैध कब्जे से होते हुए गुजरना होता है।यह कब्जा बिना 'भूमि अधिग्रहण क़ानून' के आम लोगों ने किया है। बताते हैं प्रदेश के एक छुटभैये नेता ने लोगों को इस झील के पास की जमीन पर कब्जा करने में सहयोग किया। फिर कब्जेदारों के वोटों के सहयोग से चुनाव जीतकर प्रभावी , वरिष्ठ और लोकप्रिय नेता होते हुए परमगति को प्राप्त होकर अमर हो गए।
लेकिन हमको झील वाले बवालिया सपने नहीँ आते। हमको हमारी औकात वाले सपने ही आते हैं। कल भी आया ।वही लिखाई-पढ़ाई और इम्तहान वाला। सपने में देखा कि इन्तहान के दिन नजदीक आ गए हैं लेकिन पढ़ाई बिलकुल नहीं हुई है। कोर्स अधूरा है। डर लग रहा है कि कैसे पूरा होगा कोर्स।
आज के सपने में एक और लफड़ा हुआ कि आज दो-दो इम्तहान देने का सपना आया। दोनों की तारीखें आपस में भिड़ी हुई हैं। पर्चे एक ही दिन। मजे की बात की इंटर और ग्रेजुएशन के इम्तहान एक साथ देने हैं। तय किया कि एक इम्तहान छोड़ देंगे। कौन सा छोड़ना है यह तय नहीं किया। जाहिर है कि पहले इंटर वाला पर्चा ही देंगे।लेकिन यह अच्छा हुआ कि कोई इम्तहान देना नहीँ पड़ा। बिना पढ़े ही सपना खत्म हो गया।
हमें हमेशा ये इम्तहान वाला सपना ही आता है।कोर्स ज्यादा है,तैयारी अधूरी। शायद इसलिए कि तमाम काम अधूरे छूटने का एहसास रहता है अवचेतन में।सोचते ज्यादा हैं करने की, हो कम पाता है। बजट घाटे की तरह काम-घाटा सपने में आता है। काम का दबाब मतलब व्यक्तिगत,सामजिक और दफ्तरी काम का दबाब।बगल में धरी मोती किताबें भी सपने में शामिल हो जाती होंगी-'अभी हमें पढ़ा जाना बाकी है।'
मैं सोचता हूँ कि क्या हमारी तरह और लोगों को भी सपने आते होंगे? क्या उनको भी अधूरे काम की चिंता सताती होगी? आते तो जरूर होंगे। प्रेम करने वालों/वालियों के सपने में उनके प्रेमी/प्रेमिकाएं हीरो/हीरोइनों की तरह आते होंगे।बेरोजगारों के सपने में नौकरी आती होगी। नौकरी करने वालों के सपने में प्रोन्नति दिखती होगी। कुछ को बर्खास्तगी का सपना आता होगा।युवा होती लड़कियों के माँ-बाप को सपने में दामाद दीखते होंगे।
यह तो आम लोगों के सपने हुए। घरेलू टाइप। कुछ लोग अलग टाइप के सपने भी देखते होंगे।आतंकवादी सपने में देखते होंगे -'इतने लोगों को ठिकाने लगा दिया, अब इतनों को और लगाना है।'
कोई देखता होगा-'इतनी जमीन हड़प ली।अभी इतनी और हड़पनी है।'
बांग्लादेश में ब्लॉगर को मारने वाले सपने में किसी दूसरे ब्लॉगर की पहचान कर रहे होंगे जिसको वे ठिकाने लगा सके।
और भी सपनों की लिस्ट बनाते लेकिन देखते हैं कि दफ्तर जाने का समय हो गया है। सपना होता तो टाल जाते लेकिन यह सपना नहीं हकीकत है। जाना पड़ेगा।
आप मस्त रहो।हम निकलते हैं।

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