नारदजी
को इस बार ज्यादा नहीं झेलना पड़ा।ज्योंही वे स्वर्ग के प्रवेश द्वार पर
पहुंचे, दरबान से लपककर मुख्यद्वार खोला। दरवाजा जिस तरह चरमराता हुआ खुला
उससे बहरे भी अनुमान लगा सकते थे कि हाल-फिलहाल यह दरवाजा बहुत दिनों से
नहीं खुला। मतलब पिछले काफी समय से यहां कोई आया नहीं था। नारदजी बड़ी
फुर्ती से विष्णुजी के चैम्बर की तरफ बढ़े । दरवाजे में खड़े द्वारपाल ने
एअर इंडिया के महाराजा की तरह झुकते हुये सलाम किया । नारदजी सलाम का जवाब
देने के पहले दरबान को बगलिया कर अंदर प्रविष्ट हो गये थे।कुर्सी पर बैठने
से पहले उन्होंने विष्णुजी से ‘मे आई कम इन सर’ कहा तथा चेहरे पर
‘सिंसियरिटी’ चिपका ली।विष्णुजी नारदजी से मुखातिब हुये।
पृथ्वीलोक की बढ़ती दुर्दशा का हौलनाक वर्णन करने लगे नारदजी। विष्णुजी
भी अपने संस्मरण ठेलने लगे। एक बारगी तो लगा कि दो प्रवासी चिट्ठाकार
सप्ताहांत में देश की दुर्दशा पर विचार कर रहे हो-’प्लीज्ड टु डिसकस द
पैथेटिक कंडीशन आफ मदरलैंड’ टाइप।
अचानक विष्णुजी बोले-नारदजी ,ऐसी हालत किसलिये हुयी पृथ्वी की? क्या
उसके सुधार के कोई उपाय नहीं हैं। नारदजी ने पहले तो खुद को शातिर
सरकारी कर्मचारी की तरह बचाते हुये कहा -इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। पर
जहां तक मेरी समझ में आता है तो कारण समझ में यही आता है कि पृथ्वी पर पाप
बहुत बढ़ गया है। अब आप अपनी अलाली त्यागकर अगला अवतार लें। दुष्टों तथा
पाप का नाश करें। विष्णुजी अचकचा गये -यार ये संहार करने पर पता नही किस
देश में कौन सी दफा लग जाये! उसके बारें तो सोचना पड़ेगा। हां ,ये बताओ कि
कोई ‘शार्टकट’है जिससे पाप नष्ट हो जायें- पृथ्वी पर मेरे बिना जाये । क्या
इसकी आउटसोर्सिंग हो सकती है?
इंद्र-प्रभा
नारदजी आंखे मूंदकर काफी देर तक कुछ बोले नहीं। सोचने की आड़ में हल्की
झपकी लेकर बोले-महाराज,मैं किसी को बताता नहीं पर आप पूछ रहें है तो बताता
हूं कि अपराध/पाप को नष्ट करने का सबसे मुफीद उपाय है सत्संगति।
साधु पुरुष के साथ पल मात्र रहने से करोड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं। कहा गया है:-
एक घड़ी ,आधी घड़ी, आधी में पुनि आधि,
तुलसी संगति साधु की हरै कोटि अपराध।
साधुओं के बारे में सुनते ही विष्णुजी का चेहरा लटक गया। लगा कि पेरिस का कोई बासिंदा ओलम्पिक की
मेजबानी न मिलने
की वजह से चेहरे पर मुहर्रम धारण कर बैठा हो। बोले -यार ,यहां साधु कहां
खाली हैं?सबरे तो लगे हैं राममंदिर बनवाने में। पता नहीं कब मंदिर बनेगा
,कब वे खाली होंगे। जो हालात हैं उससे तो मुझे मुगलेआज़म फिल्म का डायलाग
याद आता है-
अनारकली! सलीम तुझे मरने नहीं देगा ,हम तुम्हें जीने नहीं देंगे। कुछ और
‘टू मिनट्स नूडल टाइप’ उपाय बताओ।
इस पर नारदजी ने कहा -महाराज मैं आपकी पृथ्वी से पाप नाश के लिये किये
गये प्रयासों से अविभूत हूं। अपनी शेषशैया पर लेटे-लेटे आपने जो मेहनत की
वह वर्णनातीत है।कहा जाता है कि संतसमागम सुनने से भी उतना ही लाभ होता है
जितना करने से। यह संयोग ही है कि हाल ही में भारतवर्ष में गंगा नदी के तट
पर स्थित कानपुर नगर में दो सत्पुरुओं का मिलन हुआ। यह मेरा तथा आपका भी
सौभाग्य है
ठेलुहा और
फुरसतिया
नाम से जाने जाने वाले इन महापुरुषों की भेंटवार्ता का विवरण मेरे पास
उपलब्ध है।मैं आपके कमर दर्द को भुलाने तथा पृथ्वी पर पाप नाश के लिये
पृथ्वीलोक पर ही हुये इस अनूठे संतसमागम का आंखों देखा हाल सुनाता हूं ।
विष्णुजी ध्यान से सुनने का उपक्रम करते हुये बोले- यार नारद,हो सके तो
इनमें से किसी संत का ही लिखा वर्णन सुनाओ, तुम्हारा लिखा सुनने से कुछ
बोरियत सी होती है।
सो नारद जी ने हमको फोनियाये तथा अनुरोधियाये -भैया जरा जल्दी संत समागम विवरण भेज दो। ये भगवानजी,बिना सुने हमें जीने नहीं देंगे।
मौसम भयंकर गर्मी का चल रहा था लिहाजा हम नारदजी के अनुरोध पर फौरन पसीज
गये।पसीजने पर हमने जो विवरण भेजा उन्हें उसकी एक प्रति हमारे पास रह
गयी जिसे कि यहां जस का तस प्रस्तुत किया जा रहा है:-
अनूप-इंद्र-प्रभा-सुमन
अतुल-रमणकौल-स्वामी समागम
सूचना से हमारी पहली हिंदी ब्लागर मुलाकात की योजना पर पानी फिर गया। मन किया कि
अवस्थी को
अपने पास से टिकट खरीद कर दे दें कि चले जाओ अब क्या बचा है यहां पर?दो
दिन पहले आ जाते तो हमको गौरव मिलता पहली ब्लागर मीट का। पर ये बताकर आये
हुये अतिथि थे। कैसे भगा देते! और क्या हमारे भगाने से ये भाग जाते?
बहरहाल जो हुआ उसपर रोने से कुछ फायदा नहीं। लिहाजा हम मजबूरन खुशी के सागर में कूद गये,तैरने की कोशिश की पर बाद में डूब गये।
अवस्थी सपरिवार आये। मेरे घर के पास ही उनके मामा रहते हैं। वो
साहित्यिक रुचि के हैं। जब कोई नहीं पढ़ता मेरा चिट्ठा तो मैं उनको पढ़ा
देता हूँ। बड़े भले पाठक हैं। भरोसेमंद। कहां मिलते हैं ऐसे पाठक आजकल जो
आपका सारा लिखा हंसते-हंसते झेल जायें। वैसे अच्छे श्रोता होने के पीछे
कारण यह भी है कि ये बहुत अच्छे वक्ता भी हैं ।ढेरों कवितायें-किस्से
सुनाते रहते हैं। स्वरचित तथा पररचित।
बिना बदनाम हुये सुनाने के लिये सुनने की आदत बहुत ज़रूरी होती है।
चूंकि मुलाकात दो साल बाद हुयी थी उसमें भी पत्नियों की आपस में पहली
भेंट थी लिहाजा दोनो एक दूसरे को बढ़-बढ़कर खिंचाई करने में जुटना पड़ा।
सारे हथियार चुक जाने के बाद जब मामला टाई सा होता लगा तब तक कैसेट बजने
लगा-
“दो सितारों का मिलन है जमीं पे आज की रात “
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
खानपान के बाद फिर गाना-बजाना हुआ। मुझे छोड़कर सभी लोगों पर तानसेन की
आत्मा आ गयी। गाने कुछ कम लगे तो लंदन फोन किया गया अमरनाथ उपाध्याय को कि
तुम्हारी भाभियां तुम्हारा बहुहूटित गाना
‘राही मनवा दुख की चिन्ता क्यों सताती है’ सुनना चाहती हैं।सुना डालो खुद फोन करके।हम काट रहे हैं इधर से।
उपाध्याय पर फोन मिलाते-मिलाते समझदारी के कीटाणु प्रवेश कर गये थे।
आमतौर पर वे अपना गाना जबरियन सुनाने के लिये जाने जाते हैं। श्रोताओं की
मांग पर गाकर वे अपनी वर्षों की बनी-बनाई छवि नहीं तोड़ना चाहते थे।
लिहाजा वे गाने से साफ मुकर गये।अपना शराफत का ग्राफ उचका लिया।
हमने सबसे कम अशांति फैलाई।केवल एक कविता सुनाई। फिर हमें लगा कि हम
अनजाने में सस्ते में निपट गये। रात के तीन बज गये थे
गाते-बजाते-बतियाते-गपियाते ।पर हमने सोचा कि जो सुरीले लरजते गाने हमें
झेलाये गये उनका बदला चुकाना जरुरी है ।लिहाजा मैंने प्रमोद तिवारी की
कविता -
‘आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं’ का कैसेट चला दिया। कालान्तर में सबलोग निद्रागति को प्राप्त हुये। मेरा बदला पूरा हो गया।
कौन कितने पानी में है
सबेरे जब हम उठे बालकगण ठुनके कि हम लोग तो स्वीमिंग पूल जायेंगे।आमतौर
पर अकेले में दुर्वासा सा व्यवहार करने वाले पिता भी दूसरों के सामने बहुत
उदार हो जाते हैं फिर हम तो पैदाइसी उदार ठहरे ।बच्चों को ले जाकर ठेल
दिया स्वीमिंग पूल में। बच्चे तैरने लगे। हम गपियाने लगे। कल जो बाते रह
गयीं थी वहीं से शुरु किया गया। सारे चिट्ठाकारों को कृतार्थ किया गया।
सबके बारे में ठेलुहई का फ्लेवर लगाकर कमेंट किये गये। अब क्या कमेंट किये
गये यह लिखा जायेगा तो डर है कि संबंधित लोग समझने की कोशिश करेंगे। जहां
यह प्रयास किया जायेगा वहीं भभ्भड़ मच जायेगा लिहाजा दिल की तमाम हसरतों को
कुचलते हुये सारे कमेंट्स को सेंसरियाया जा रहा है(यह दिन भी देखना बदा
था!) ।
हम स्वीमिंगपूल के किनारे बैठे बालकगणों को ब्लाग पर टिप्पणियों की तरह
उछलते देखरहे थे।देश-दुनिया की हांकरहे थे। लौटकर हम नास्ता टूंग ही पाये
थे कि अपने परिवार से बहुत कम समय की मोहलत मांगकर आये
गोविंद उपाध्याय नमूदार हुये।
गोविंद,इंद्र तथा अनूप
गोविंदजी आजकल मेरे बचपन के मीत टाइप लंबी सस्मरणनुमा कहानी लिखने में
लगे हैं। आधी हकीकत -आधा फसाना। उसी की पहली किस्त मुझे देने आये थे।चिट्ठे
या
निरंतर में लिखने के लिये। अभी तक उसे टाइप नहीं किया जा सका है।
जाहिर है कि इंद्र-गोविंद एक दूसरे से मिलकर बहुत खुश हुये। पर यह खुशी
बहुत देर तक कायम न रह सकी। उपाध्यायजी मुझको लेख देकर दो मिनट में वापस
जाने वाले थे लेकिन जब हमारे यहां से गये तो समय आधे घंटे से ज्यादा सरक
चुका था।
मामाजी
खान-पान के बाद आराम करते हुये हम फिर नये दौर के वार्ताक्रम में
पहुँचे।मिलन स्थल अवस्थी के मामा का घर। लेटे-अधलेटे गपियाना शुरु हुआ विषय
सारे दुनिया जहां की बातें।
अचानक हमें लगा कि कुछ तकनीकी वार्तालाप भी किया जाये।तो हमने पूछा जरा
बताओ ये ‘पुलकोट’ का जुगाड़ कैसे करते हैं ब्लाग में।हमने यह भी बताया
किदेवाशीष बता चुके हैं लेकिन हम कर नहीं पाये। अवस्थी उवाचे-तुम जरूर समझ
गये होगे इसीलिये कर नहीं पाये।पुरानी आदतें छोड़ो समझने की। करने की आदत
डालो। फिर अवस्थी ‘सोर्स’ तलाशते रहे लेकिन देर हुयी कुछ हुआ नहीं तो मुझे
डर लगा कि कहीं इनको भी समझ में न आ जाये-फिर कर ही न पायें। पर कुछ देर
बाद ‘लैपटाप’ पर नगाड़ा सा बजा तो हमें लगा गया हमारा ‘लैपटाप’। पर दूसरे
ही क्षण हम खुश हुये।’लैपटाप’ अवस्थी का था तथा ‘पुलकोट’ की गुत्थी सुलझ
गयी थी।
देवांशु-अनन्य
फुरसतिया पर तो हमने कर लिया पर
हिंदिनी पर
करते-करते हमारे स्वामीजी लगता है साल बिता देंगे। पता नहीं ये ज्ञानी लोग
अपना सारा ज्ञान कब उड़ेलेंगे किसी सार्वजनिक स्थान पर। अगर
अतुल अपना
फोटो चिपकाने का तरीका खुलासा किये रहे होते तो ये फोटो एक जगह मिलते।
इधर-उधर मारे-मारे न फिरते -भारत की ‘अनेकता में एकता’ की तरह।ज्ञानीजन की
ज्यादा बुराई करते हुये भी डर लगता है। अभी दस ठो लिंक थमा देंगे अंग्रेजी
के
‘ट्राई दिस’ करके। अंग्रेजी वैसे भी बड़ी कड़ी भाषा है -बकौल हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी,तीन बार पढ़ो तब कहीं कुछ समझ में आती है।
तकनीकी खुराफात के बाद हमें फिर लगा कि यार हम पहली मीट करते करते रह
कैसे गये। पहले सोचा गया कि जांच के लिये उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया
जाये। पर यह सोच हमें निम्नस्तरीय लगी लिहाजा खारिज कर दी गयी। फिर लगा कि
हम कुछ और नया कर लें जो पहली बार हुआ हो। तय हुआ कि हिंदी-अंग्रेजी
ब्लागर मीट की जाये। जहां हमने यह प्रस्ताव किया अवस्थी सहम से गये। कांपते
हुये पूँछा- तो क्या तुम अब अंग्रेजी में भी ब्लाग लिखोगे?
हमने आश्वस्त किया -घबराओ नहीं हम इतने निष्ठुर नहीं कि अपनी वह अंग्रेजी सुहृदय लोगों को झेलायें जो हम खुद झेलते हुये डरते हैं।
फिर हमने खुलासा किया कि पड़ोस में हमारे साथी रहते हैं। दोनों
मियां-
बीबी अंग्रेजी
में ब्लाग लिखते हैं। मुलाकात करते हैं तो पहली अंतर्राष्ट्रीय
हिंदी-अंग्रेजी ब्लागर मीट हो जायेगी।सच्चे मन से जो चाहा जाता है वह होकर
रहता है यह फिर सच साबित हुआ जब दस मिनट के भीतर हम हिंदी-अंग्रेजी के
अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर चाय-पानी करते हुये समोसे टूंग रहे थे।
पहिला हिंदी-अंग्रेजी ब्लागर मीट
इस बीच ठेलुहे
मैया मोरी चंद्र खिलौना लैंहों के अंदाज में कहने लगे कि वह सुरसा की मूर्ति दिखाओ जिसकी नाक में तुम
उंगली करते थे।हम थोड़ा नखरे के बाद मान गये। गये घटनास्थल । मूर्ति मुस्करा सी रही थी । गोया कह रही हो -
तुम आये इतै न कितै दिन खोये?
सुरसा
अब अवस्थी को कुछ-कुछ होने लगा। बोले -यार,चलते हैं किसी कैफे में बैठ
के थोड़ा इंटेलेक्चुअल से हो जायें। हमने कहा -एक कैफे के मालिक ने तुम्हें
देखकर अपने दुकान बंद कर ली थी । फिर कैफे जाने का मन बना रहे हो? ठेलुहे
बोले,चलो यार बिना कैफे गुजारा नहीं। सो हम पहुंचे
कैफे -०५१२ । जी हां कैफे का नाम है- ०५१२ जो कि कानपुर का एस.टी. कोड है।
करीब एक घंटा वहां बैठने के बाद हमने चाय-पान किया। ऊलजलूल बतियाये। फिर
हमने अपने मित्र चतुर्वेदीजी को भी बुला लिया इस शिखर वार्ता में शरीक
होने के लिये। वे पास ही रहते हैं। आने में कुछ देर हो गयी। हम बाहर आ गये।
बेयरे को पैसे -टिप देकर।बाहर हम आती-जाती सर्र से निकल जाती गाड़ियों को
बेवजह ताकते रहे। तब तक बेयरे ने अंदर से बाहर आकर अवस्थी को उनका कैमरा
थमाया कि साहब ,इसे आप शायद गलती से छोड़ आये हैं। साथ में लेते जाइये।हमें
लगा कि यह तो एक पोस्ट भर का मसाला हो गया ।शीर्षक भी तय हो गया -
भारत में ईमानदारी अभी भी जिंदा है। हम
अपनी योजना को तुरंत अंजाम देने के इरादे से काम भर की बेचैनी से
दायें-बायें ‘कैफे’ तलाशने लगे। तब तक सड़क पर चतुर्वेदीजी अवतरित हुये।
चूंकि चतुर्वेदीजी देरी से आये थे। हमसे बुजुर्ग भी हैं। लिजाहा उनको सजा
सुनाई गयी कि वो किसी दूसरे रेस्टोरेंट में चाय पिलायें। हम दो थे ,वे
अकेले थे।लिहाजा बहुमत जीता तथा थोड़ी देर में हम हीरपैलेस के सामने
क्वालिटी रेस्तरां के मीनू को सरसरी निगाह से देख रहे थे।
चतुर्वेदीजी
फिर वार्ता का दौर चला। कुछ बात चली तो अचानक
रिंगमास्टर की
याद सताने लगी।हम मोबाइल तथा नंबर टटोलते पाये गये। अगले ही पल पूना से
देवाशीष की आवाज आ रही थी -क्या हो रहा है ,अनूप भाई? हम बोले जो नहीं होना
चाहिये वह हो रहा है। मैंने मजाक में कहा था यह पर यह सच साबित हुआ जब
देखा गया कि हमारे मोबाइल से जो नंबर हमने मिलाया उस पर अवस्थी बतियाने में
जुटे थे।
बहरहाल उठते-उठते रात काफी हो गयी थी ।जब हम घर पंहुचे तो चिट्ठाकारी जगत में नये आयाम जुड़ चुके थे।
हिंदी-अंग्रेजी ब्लागर-(परिवार)कथाकार-पाठक-संयोजक मीट संपन्न हो चुकी थी। बहुत संक्षेप में कही गयी कहानी । थोड़ा कहा बहुत समझना। फिर मिलने की कोशिश करना।
इतना बता कर नारदजी जब सांस लेने को रुके तो विष्णुजी के चेहरे पर
ये दिल मांगे मोर का इस्तहार सा चिपका था। पर नारदजी ने किसी काइयां संचालक की तरह बोले-आगे की कहानी नान-कामर्शियल ब्रेक के बाद!
अफवाह यह भी है कि विष्णुजी नारदजी को अकेले में ले जाकर पूंछते पाये गये-
हिंदी में चिट्ठा कैसे लिखते हैं?
त्राहि-त्राहि मची है
अगले साल क्या पियेंगे ?
मना मयूर क्यों
बरसात में
काले बादल
कितने मनमौजी
बरसे कहाँ
एकाकी बैठे
पानी की टपटप
सुनते हम…
पानी मिलाने
का काम बरखा का
ग्वाले खुश।
खुले गटर
कमर भर पानी
हड्डी संभालो।
सिली माचिस
फूल गये किवाड़
वर्षा है आई।
मेरी जान मुंबई
फिर फंस ली!
मुंबई को फ़ंसने में भी मजा आता है, न फ़ंसे तो बच्चों को पानी में चलने का मजा, स्कूलों से अचानक मिली छुट्टी का मजा कैसे मिले। हम तो कहत है बरसो रे हाय बैरी बदरवा बरसो रे, जोर से बरसो, रोज बरसो, ताकि हम रोज पकौड़ी का मजा ले सके मसालेदार चाय के साथ्। बारिश में भीगने का अपना ही एक मजा है। जिस दिन बारिश होती है हम तो जानबूझ कर छाता भूल जाते हैं ।