Monday, February 29, 2016

ये लो पेश हुआ बजट

ये लो पेश हुआ बजट
एक बवाल गया निपट
अब चलो तुम करो बुराई
औ तुम तारीफ़ फटाफट।

बोलो बजट बड़ा झकास है
विकास के लिए नई आस है
इसमें सबके लिए कुछ खास है
समेटे नई उमंग है, उल्लास है।

चलो तुम करो विरोध इसका
कहो-बजट नहीं, बकवास है
देश का करेगा सत्यानाश है
होगा देश का पक्का विनाश है।

तुम बोलो ये अच्छा किया
वो बोलेगा ये बुरा किया
बजट तो बस झुनझुना है
सम्हालो अब तुमसे ही आस है।

-कट्टा कानपुरी

Sunday, February 28, 2016

इतवार की एक खुशनुमा सुबह


रामफल की पत्नी
आज सुबह निकले तो कुछ कम लोग दिखे सड़क पर। शायद ’सुबह-टहलुये’ भी इतवारी मूड में रहे हों। फ़ैक्ट्री के सामने की चाय की दुकान भी बन्द मिली। शायद उसको पता नहीं कि आज भी फ़ैक्ट्री ओवरटाइम में चल रही है।

स्टेडियम के पास सड़क पर तीन लोग पूरी सड़क घेरे चले जा रहे थे। खरामा-खरामा। हम बगल से बचाकर निकल गये आगे। हनुमान मन्दिर के पास नाले में सिल्ट जमा थी। पानी बेचारा सिल्ट के बीच से रास्ता निकालकर किसी तरह आगे निकल रहा था। पानी सिल्ट के बीच से ऐसे सहमा हुआ सा निकल रहा था जैसे चौराहे पर खड़े शोहदों से बचकर मोहल्ले की लड़कियां निकलती हों। जरा सा जगह मिलते ही दौड़ता पानी।

रामफ़ल की पत्नी घर के बाहर कुर्सी डाले बैठे थीं। सबके हाल बताये। बड़ा लड़का गुड्डू लेबरी का काम करता है। फ़ल का काम उससे हुआ नहीं। बन्द कर दिया। छोटा लड़का भी फ़ैक्ट्री में ठेके पर लेबर का काम करता है। लड़की जो कि विधवा हो चुकी है एक जगह किसी की बच्ची की देखभाल करने जाती है। 3000/- मिलते हैं उसको। उसमें 50/- रोज आने-जाने के खर्च हो जाते हैं। उसका बच्चा हाईस्कूल करने के बाद रोहाणी जी के यहां काम पर जाता है। 100/- रोज मिलते हैं। बिटिया आईटीआई कर रही है। बच्चे के लिये बोली - ’बाबू जी (रामफ़ल) होते तो आगे पढाते उसको।’


वैसे तो गाय हमारी माता है , उसको खाने को ऐसे ही मिल पाता है।
रामफ़ल की याद करते हुये बोली- ’ पहले सपने में आते थे। एक दिन बोले -मैं अयोध्या जी में आ गया हूं। तुम घर चली जाओ। बच्चों का ध्यान रखना। मेरी चिन्ता मत करना।’

रामफ़ल के स्वभाव की याद करते हुये कहने लगीं-’नौ साल की थी जब हमारी शादी हुई। जिन्दगी भर कभी एक चांटा नहीं मारा। कभी डांटा नहीं। कभी पैसे का हिसाब नहीं मांगा। बहुत ’गरू’ (अच्छे) आदमी थे।’

यह बताते हुये अपनी आंख पल्लू से पोछनें लगीं वे।

दवाई ब्लड प्रेसर आदि की लेती हैं। पांव में सूजन रहती है। 300/- रुपये महीने विधवा पेंशन बंध गयी है। इस महीने से मिलेगी।

सड़क से गुजरते ,आते-जाते लोग उनको नमस्ते करते जाते थे। एक ने तम्बाकू भी मांगी लेकिन -’है नहीं भईया ’ कहकर मना कर दिया उनको।


दिल्ली में होगा पानी का अकाल। जबलपुर में तो ऐसे बहता है
घरों के बाहर लोग अपने घर का कूड़ा बुहार कर सड़क पर डाल रहे थे। एक जगह रात की पार्टी की जूठन इकट्टा थी। गायें उसको खा रही थीं। जूठन के साथ पालीथीन और प्लास्टिक भी जरूर जा रही होंगी उनके पेट में। इकट्ठा होगी और फ़िर उसी से निपट भी जायेंगी वे। जबलपुर स्मार्ट सिटी होने वाला है। क्या पता तब यह चलन जारी रहेगा या निपट जायेगा।

बिरसा मुंडा त्तिराहे  पर आज चाय की वह दुकान खुली नहीं थी जिससे हम चाय पीते हैं। दूसरी दुकान वाले से चाय ली। पता चला आज उस चाय वाले ने ठिलिया नहीं लगाई है।

तीन लड़कियां चाय पीने आईं वहां। एक की टी शर्ट के पीछे कृषि विश्वविद्यालय छपा था। पूछा तो बताया कि एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटी में पढती हैं। छात्रावास में पढती हैं। सुबह की चाय वहां नहीं मिलती सो चौराहे पर आयी हैं।

हमने पूछा -’अब तक तो तीसरे साल में हो तो खेती करना सीख गई होगी। हल चला लेती हो कि नहीं?’
इस पर तीनों हंसने लगीं। एक ने बताया ट्रैक्टर चलाना सीखा है। आगे क्या स्कोप है पूछने पर बताया कि एम टेक, पीएचडी वगैरह करते हैं लोग। पूछने का मन हुआ कि जिस तरह इंजीनियरिंग कालेज में कैम्पस इंटरव्यू होते हैं क्या वैसे इंटरव्यू यहां नहीं होते? केवल अध्यापन ही रोजगार है क्या? लेकिन फ़िर पूछ नहीं पाये।
बताया बच्चियों ने कि क्लास में 25 के करीब लड़कियां और 75 के करीब लड़के होते हैं। लड़कियों और लड़कों का अनुपात 1:3 का हुआ। हमारे समय में तो यह अनुपात 1:60 करीब होता था। मतलब अनुपात में गुणात्मक सुधार हुआ है।


रॉबर्टसन झील पर सूरज भाई का जलवा पसरा है
लड़कियां सिवनी, कुंडम और बालाघाट की रहने वाली हैं। बालाघाट की छोटी लाइन की छुकछुक गाड़ी अब बंद हो गयी है। बस से आना जाना होता है।

तीन में से एक बच्ची चाय नहीं पी रही थी। हमने कहा - ’तुम अच्छी बच्ची हो।’ एक ने कहा - ’गुड ब्वाय है यह।’ हमने कहा - ’गुड ब्वाय क्यों गुड गर्ल क्यों नहीं? क्या यह बच्ची लड़का बनना चाहती है?’ इस पर तीनों हंसती हुई चली गयीं।

लौटते में देखा एक जगह पानी लगातार बह रहा था। हमेशा यह बहता दिखता है। एक बच्ची एक गगरिया में पानी भरे चली जा रही थी। हाथ और कमर के सहारे गगरी को लादे चलती जा रही थी। हर कदम पर गगरी उसकी कमर से टिक जाती वह फ़िर गगरी को कमर से धकियाकर दूर करते हुये कदम आगे बढाती। जब एक हाथ थक जाता तो गगरी दूसरे हाथ में ले लेती।

एक लड़का एक नाली के किनारे खड़ा मोबाइल पर बात कर रहा था। फ़ोन लगते ही उचककर उसने ’नमस्ते मामा’ कहा । ऐसा लगा कि नमस्ते उछालकर फ़ेंका हो उसने मामा को। इसके बाद इत्मिनान से बतियाने लगा वह।

एक आदमी घर से निकलकर बाहर सड़क पर आया। बनियाइन के नीचे पीठ खुजलाने के बाद उसने पूरा मुंह खोलकर जम्हुआई ली। आंखें पूरी बन्द हो गयीं और मुंह पूरा खुल गया - ’पान की दुकान की गुमटी की तरह।’ थोड़ी देर में उसने मुंह बंद कर लिया । आंखे अपने आप खुल गयीं। इसके बाद वह गरदन इधर-उधर घुमाकर सड़क निहारने में जुट गया।


सुबह की सड़क खुशनुमा तो दिखती है
आगे एक बुजुर्ग मुंह में ब्रश डाले उसको दातुन की तरह चबाने की कोशिश करते हुये कुछ सोच से रहे थे। कुछ देर बाद ब्रश को मुंह में एक तरफ़ से हटाकर दूसरी तरफ़ कर लिया। दांत घिसने का काम फ़िर भी शुरु नहीं किया।

दीपा के घर गये। वह पढ़ रही थी। उसके पापा खाना बना रहे थे। बताया उसने कि वह कल स्कूल गयी थी। आज तमाम काम करेगी। कपड़े धोना है, स्कूल ड्रेस साफ़ करना है, फ़िर नहाना है। खांसी अभी एकदम ठीक नहीं हुई है।

लौटते में राबर्टसन लेक होते हुये आये। सूरज भाई का जलवा पूरी झील पर पसरा हुआ था। पूरा तालाब सुनहरा हो रखा था। आज झील में मछुआरे ’तालाब खेलने’ आये थे। उनकी नावें झील में दिख रहीं थीं। सूरज भाई पूरी मुस्तैदी से देख रहे थे कि कहीं कोईअंधकार का टुकड़ा धरती पर बचा न रह जाये।

सड़क पर लोग आते-जाते दिख रहे थे। पेड़ों की छाया और धूप दोनों मिलकर सड़क को सुन्दर बना रहे थे। पेड़ों की पत्तियां हवा के सहयोग से हिलडुल कर हर आते-जाते का स्वागत कर रही थीं। इतवार की सुबह को खुशनुमा बना रहीं थीं।


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Saturday, February 27, 2016

बीड़ी जानलेवा है


पोल के बीच सर घुसाये सूरज भाई
आज सुबह उठने के पहले ही हनुमान मंदिर से घंटे की आवाज सुनाई देने लगी। याद आया आज शनिवार है। भीड़ रहेगी मंदिर में। मांगने वाले और देने वालों का जमावड़ा होगा।

मेस के बाहर एक आदमी राख के रंग का कोट और कफ़न के रंग की धोती पहने चला जा रहा है। हाथ में कानून व्यवस्था की तरह डंडा हिलाते हुये। लेकिन डंडा हिलने से कोट और धोती का रंग नहीं बदल रहा था। एक आम आदमी भी कभी-कभी पूरा समाज जैसा दीखता है।

चाय की दुकान पर गाना बज रहा था:

’फ़ूल तुम्हें भेजा है खत में,
फ़ूल नहीं मेरा दिल है।’

बताओ भाई दिल जब खत में भेज दिया तो खून की पम्पिंग कौन करेगा? पुराने जमाने में ऐसा ही था। उन दिनों तो दिल केवल खत में भेजते थे लोग। आज तो हर संदेश में धड़कते हुये, उछलते हुये दिल भेजने की चलन है।
सड़क पर एक सरदार जी काला चश्मा लगाये जा रहे। धूप का चश्मा। धूप निकली नहीं थी अभी लेकिन उसकी अगवानी की तैयारी हो गयी थी।


ट्रेन के इन्तजार में बंद रेलवे फाटक
उधर बायीं तरफ़ सूरज भाई एक आसमान पर अपनी दुकान सजा लिये थे। धकाधक रोशनी, उजाला, किरण, गर्मी सब धड़ल्ले से सप्लाई कर रहे थे। हमको देखा तो बोले फ़ोटो खैंचो न यार मेरी भी। हम खैंचने लगे तो बोले एक मिनट उधर चलकर खैंचो। इसके बाद पास के दो खंभों के बीच मुंडी घुसाकर पोज दिये और बोले अब खींचो। हमने खींचा और हंसते हुये कहा- " जरा सा और सर बड़ा होता तो खम्भा काटकर निकालना पड़ता। यहीं जबलपुर में एक बच्चे की मुंडी घुस गयी थी कुकर में। काटना पड़ा तब निकला।" सुनते ही सूरज भाई खम्भे के बीच से मुंडी निकालकर पेडों के ऊपर चमकने लगे।

मैदान में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। पास ही एक हैंडपम्प पर कई सारे आदमी-औरत नहा रहे थे। आदमी बदन उघाड़े हर-हर गंगे, नर्मदे हर कर रहे थे। महिलायें कपड़े पहने स्नान कर रहीं थीं। कुछ जो नहा चुकी थीं वे गीले कपड़े की आड़ में सूखे कपड़े पहन रही थीं। बहुत सावधानी से। कहीं कपड़ा बदलते हुये बदन उघड़ न जाये। बुजुर्ग महिलायें कुछ बेफ़िक्री से यही सब कर रही थीं।

रेलवे का फ़ाटक बंद था। देखा कि सिग्नल लाल था। गोया हमारी साइकिल कोई ट्रेन हो जो फ़ाटक पार कर जायेगी अगर सिग्नल लाल हुआ।


स्कूल जाते बच्चे।
फ़ाटक पर एक जीप में कुछ बच्चे बैठे थे। जीप पर ’स्कूल बस’ लिखा था। संसद में यह मुद्दा उठ जाये तो हफ़्तों बहस हो सकती है आराम से, महीनों प्राइम टाइम निकल सकता है इस बाद पर। कोई कहेगा अरे भाई वह बस नहीं जीप है। कोई दूसरा जीप का फ़ोटो लहराते हुये कह सकता है देखिये- ये लिखा है स्कूल बस। जब लिखा है बस तो माननीय सदस्य इसको जीप कहकर सदन को गुमराह क्यों कर रहे हैं।

पीछे बैठे बच्चे से बात करने लगते हैं। पूछते हैं - ’तुम अकेले क्यों पीछे बैठे हो? क्या भगा दिया दीदियों ने?’
बच्चा कहता है- ’नहीं। हम अपने मन से बैठे हैं।’

कक्षा 2 में पढता है बच्चा। क्राइस्टचर्च में। स्कूल साढे सात बजे का। बाकी बच्चे अलग-अलग क्लास में। हम मजे लेने के लिये ऊटपटांग बाते पूछते हैं -’ सब लोग अलग-अलग क्लास में क्यों पढते हो? एक ही क्लास में क्यों नहीं पढते? तुम पांच में क्यों पढती हो? क्या कक्षा दो से भगा दिया तुमको?’

बच्चे हमारी बात पर हंसते हैं। खिलखिलाते हैं। लेकिन छोटा बच्चा हंसने की बजाय मुस्कराता है। उसके एक दांत में केविटी है। थोड़ा सा बदरंग है दांत। हल्का सा टूटा भी है। ’दंत दिव्यांग’ है बालक। उसके घर में, स्कूल में और सब जगह उसको एहसास कराया गया होगा कि उसका एक दांत खराब है तो वह खुलकर हंसने से परहेज करने लगा होगा।

लोग सुन्दरता के अपने मानक गढकर उससे अलग को असुन्दर मानते हैं। उसको एहसास भी कराते हैं। अनजाने में की जाने वाली क्रूरता है यह जो कि समाज के सभ्य होने के साथ बढ़ती जाती है।

हमने बच्चे से कहा -तुम खुलकर हंसा करो यार! हंसता हुआ इंसान हमेशा बहुत खूबसूरत लगता है। इसपर वह मुस्कराया। खूबसूरत, प्यारा लगा।


कामगारों की सुबह की रसोई
बच्ची ने बताया कि उसका स्कूल साढे सात का है। उसकी मम्मी साढे पांच पर उठती हैं। वह साढे छह बजे। फ़िर तैयार होकर स्कूल जाती है।

हमने सोचा जो बच्चियां अभी एक घंटा देर से उठती हैं उसकी भरपाई उनको तब करनी पड़ती है जब वे मम्मी बनती हैं। मर्द अक्सर इस सजा से मुक्त रहते हैं।

बच्चे ने पूछा -आपने हमारी जीप का फ़ोटो क्यों खींचा? हमने बताया ऐसे ही। फ़िर उसका फ़ोटो पूछकर खींचा। दिखाया। वह खुश हुआ। बच्चियों ने भी देखा और देखकर खिलखिलाईं। तब तक फ़ाटक खुल गया और ’स्कूल बस’ चल दी। हम भी चल दिये।

दीपा को देखने गये। कल शाम को गये थे उधर तो उसके पापा ने बताया कि वह कल भी स्कूल नहीं गयी थी। जूते न होने के कारण डांट पड़ती। अनुशासन और सबको एक जैसा बनाने की आड़ में असमानता की शुरुआत स्कूल से ही होती है। जो बच्चे ड्रेस नहीं बनवा पाते वो स्कूल जायें तो डांट खायें। इसी चक्कर में पिछड़ जाते हैं।
जूते के कारण स्कूल न जा पाने की बात सुनकर खराब लगा। ३ दिन से नहीं गयी थी स्कूल। दीपा तो सो गयी थी। फ़िर उसकी फ़ोटो दिखाकर पास ही आधारताल से उसके जूते लाये गये। आज सुबह नाप हुई तो ठीक पाये गये। आज स्कूल जायेगी दीपा।

हमने उससे कहा -’तुम कल सो गयी थी जब हम आये थे।’

वह बोली - ’हम सुन रहे थे आपकी बात। लेकिन नींद बहुत जोर से आती है। नींद में हमको कोई उठा नहीं सकता।’

लौटते में पुल के नीचे ही मजदूरों का किचन चालू था। पास के गांवों से मजूरी करने आये हैं ये सब लोग। गांव में खेती भी है कुछ लोगों की। एक ही गांव के हैं सब। कित्ता समय लगता है गांव से आने में पूछने पर किसी ने बताया पांच घंटा तो कोई बोला 100 रुपया। लकड़ी भी गांव से लाते हैं। उसका अलग किराया नहीं पड़ता।
बीड़ी कान में खुशी थी एक के। हमने कहा- ’बीड़ी बिना गुजारा नहीं होता क्या?’

एक ने कहा- ’ बीड़ी तो हमारी जान है।’

दूसरा मजे लेते हुये बोला- ’बीड़ी जानलेवा है।’

सब हंसने लगे इस डायलाग बाजी पर। फ़ोटो लेकर सबको सबको दिखाया तो सब अपनी- अपनी फ़ोटो देखकर बड़ी जोर-जोर से हंसने लगे। बीच में बीड़ी पीते हुये खाना बनाते आदमी की खूब मौज ली गयी।

हम लौट आये। रास्ते में काले चश्मे वाले सरदार जी फिर दिखे।

मुस्कराइए कि सुबह हो गयी।

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तम्बाकू नहीं खायेगें अब



मयूर (दांये) सोनू के साथ पुलिया पर
कल दोपहर को लंच के लिये मेस आते हुये पुलिया पर दो लोग बैठे दिखाई दिये। साइकिल उनकी सामने खड़ी थी। दोनों साथ के लिफ़ाफ़े से कुछ निकालकर हथेली से रगड़कर खाते हुये दिखे। हमें लगा कि ये दोनों तम्बाकू खा रहे हैं । ’तम्बाकू विरोधी प्रवचन का मौका मिला सोचकर हम किंचित प्रसन्न भी हुये। उनके पास से गुजरते हुये बतियाने लगे।

जैसे खुद को पक्का ईमानदार मानने वाला इंसान दूसरे की हर हरकत को बेईमानी की दिशा में उठा हुआ कदम समझकर उसकी निन्दा करता है। या फ़िर आजकल अपने को देशभक्त मानने वाले लोग अपने से अलग विचार रखने वाले को देशद्रोही ही मानकर यथासंभव उनका हर संभव संहार करने की चेष्टा करते हैं वैसे ही किसी को तम्बाकू खाते देखकर, बीडी पीते हुये उसको प्रवचनामृत पिलाने की सहज इच्छा घेर लेती है अपन को भी।

बात करने पर पता चला कि वे तम्बाकू नहीं खा रहे थे। बल्कि मूंगफ़ली छीलकर खा रहे थे। मूंगफ़ली छीलकर हथेली में रगड़कर दानों का छिलका हटाने को हमने उनका तम्बाकू खाना समझ लिया। कितनी पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता हो रखी है अपन की भी। आपके साथ भी ऐसा होता है क्या ? :)


उनमें से एक ने बताया कि वे टेंट हाउस में काम करते हैं। वेटर और अन्य सब सर्विस का काम। उसी की मजदूरी लेने जा रहे थे। 375 से 400 रुपये रोज के मिलते हैं। जब टेंट हाउस का काम नहीं मिलता तो बेलदारी का काम करते हैं। उसमें 250 रुपये तक मिलते हैं।

मयूर चौरे नाम था। शक्ल से 20-22 साल के लगने वाले ने अपनी उमर 30 साल बताई। उसके साथ उसका चचेरा भाई सोनू था।

अपना किस्सा बताते हुये मयूर ने बताया कि वह मराठी है। बालाघाट में घर है। लेकिन पिता जबलपुर आ गये। छह बहनों का अकेला भाई है वह। पिता अब हैं नहीं। मां साथ में हैं। शादी हो गयी है। पत्नी छत्तीसगढ की है। मयूर खुद पांचवी पास है। पत्नी आठवीं पास है। दो बच्चे हैं उसके। बच्ची छह साल की और एक बच्चा चार साल का। सब बहनों की शादी हो गयी। दो बहनों की शादी पिता के न रहने पर की।

हमने कहा -’पिता के सात बच्चे हुये। तुम्हारे तीस साल की उमर में दो बच्चे हो चुके। आगे और होंगे!’

’अब नहीं होंगे। हमने वाइफ़ का आपरेशन करवा दिया- छोटा परिवार, सुखी परिवार।’ - मयूर एकदम परिवार नियोजन कार्यक्रम का ब्रांड एम्बेसडर सा हो गया।

हमने कहा -’ बड़े समझदार हो तुम तो यार।’

काम काज के बारे में बात करते हुये बोला- ’ टेंट हाउस के काम में पैसा तो मिलता है लेकिन हमको अच्छा नहीं लगता। लोग गाली-गलौज करते हैं। अबे-तबे करते हैं। शादी-व्याह पार्टी में दारू पीकर बदतमीजी से बात करते हैं। कुछ बोल सकते नहीं। बोलो तो मारपीट तक पर उतारू हो जाते हैं। इसलिये हम कुछ और काम करने की सोच रहे हैं।’

हमने फ़िर कहा -’ तुम तो बड़ी समझदारी की बात करते हो यार। लगते भी नहीं 30 साल के हो।’

इस पर सोनू ने बताया कि कोई भी नहीं कहता इसको कि 30 साल का है यह। सब कम उमर ही समझते हैं इसे।

बात करते हुये अपने मोबाइल में उसने अपने घर वालों के फ़ोटो दिखाये। मोबाइल पुराना था। स्क्रीन शायद ढीला हो गया था। रबड़ बैंड से बांधा गया था। मां, पत्नी, बच्चे सबके फ़ोटो दिखाये । पत्नी का नाम बताया पूनम। धूप में डेढ इंच बाई डेढ इंच के स्क्रीन में फ़ोटो साफ़ नहीं दिख रहे थे लेकिन उसके उत्साह की चमक के चलते हमने सब फ़ोटो देखे और तारीफ़ की।

पत्नी की बात चली तो हमने पूछा- ’ कभी घुमाने / पिक्चर दिखाने ले जाते हो?’

वह बोला- ’ घर में ही टीवी में देखती है। बाहर जाने की फ़ुर्सत ही नहीं मिलती।’

मां का बहुत ख्याल रखता है ऐसा लगा। इतनी तारीफ़ की अपनी मां की उसने कि अगर मुनव्वर राना सुनते तो कुछेक और शानदार शेर निकाल देते।

चलने के पहले हमने उससे कहा -’तुम्हारे दांत से लगता है कि तुम तम्बाकू भी खाते हो! क्यों खराब करते हो अपने दांत? ’

इस पर उसने कहा -’ आपने कह दिया अब आज के बाद से कभी नहीं खायेंगे।’ कहते हुये उसने जेब से तम्बाकू की पुडिया निकालकर वहीं फ़ेंकने का उपक्रम किया।

हमने कहा -’ यहां मत फ़ेंको। अपने साथ ले जाओ। घर में रखना। पत्नी के पास कि अब छोड़ दी। यह आखिरी थी । ’

शाम को फ़ोन पर फ़िर बताया उसने कि तम्बाकू नहीं खायेगा अब ! :)

पता नहीं अपने कहे पर अमल कर पाता है कि नहीं। लेकिन तय किया यही क्या कम ! :)

चलते हुये बोला -’ आप बहुत अच्छे हैं अंकल जी। वर्ना आजकल कौन आम लोगों से इस तरह बात करता है! ’ यह कहते हुये उसने आते-जाते तमाम लोगों की तरफ़ इशारा किया गोया शिकायत दर्ज करा रहा हो कि देखिये इनमें से कोई रुककर हमारा हाल-चाल नहीं पूछ नहीं रहा।  :)

हमने कहा - ’अरे यार,तुम आम नहीं खास हो। इतने समझदार हो। तुमसे बात करके बहुत अच्छा लगा मुझे।’
वह बोला -’मुझे भी बहुत अच्छा लगा अंकल जी। आपसे बात करते-करते मूंगफ़ली कब खत्म हो गयी पता ही नहीं चला। 30 रुपये थे हमारे पास। 10 रुपये की मूंगफ़ली ली थी। सब खा डाली यहीं बैठकर आपसे बात करते हुये।’ यह कहते हुये उसने पास के बचे हुये 20 रुपये भी दिखाये।

हमने कहा -’ अच्छा हम दे देते हैं 10 रुपये तुमको। फ़िर से खा लेना मूंगफ़ली।’ :)
 
मयूर हंसते हुये अपने साथी सोनू के साथ चला गया। हम भी मेस चले आये।

मयूर (दांये) सोनू के साथ पुलिया पर। मूंगफली का पैकेट दोनों के बीच ।





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Friday, February 26, 2016

दिल में किसी का प्यार बसाना अच्छा है


समीर यादव स्कूल जाते हुए
आज सुबह साईकल स्टार्ट की और निकल ही पड़े। मेस के बाहर लोग लपकते हुए टहल रहे थे। जितनी तेजी से लोग जाते दिख रहे थे उससे भी ज्यादा तेजी से आते दिखे। कुछ ऐसे ही जैसे जितनी तेजी से अपने यहां विकास होता है उससे भी ज्यादा तेजी से कुछ लोग विनाश करके हिसाब बराबर कर देते हैं।

हो सकता है विनाश करने वालों की मंशा विकास करने वालों को रोजगार देना हो। पुराने जमाने में कुछ प्रजा वत्सल राजा अकाल के समय दिन में निर्माण कराते थे। मजदूरों को निर्माण की मजूरी देते थे। रात को अगले दिन बने हुए को गिरवा देते थे। उसकी भी मजदूरी देते थे। इससे अकाल के समय प्रजा का पेट पलता थी। आजकल अकाल नहीं पड़ा लेकिन दिमाग में अकल का अकाल तो पड़ा ही है।

फैक्ट्री के पास चाय की दुकान पर केंद्रीय विद्यालय के समीर यादव से मुलाक़ात हुई। कक्षा 8 में पढ़ते हैं। साईकल पर स्कूल जा रहे थे। बीच में टॉफ़ी खरीदने के लिए रुके थे। 5 रूपये की टॉफ़ी खरीदी। एक मुंह में डाली। छिलका डस्ट बिन में फेंका। बाकी बोले दोस्तों को खिलाएंगे।

दोस्त लोग भी कुछ-कुछ लाते हैं। कोई आइसक्रीम तो कोई कुछ और। सब मिलकर खाते हैं। स्कूल में फ़ुटबाल खेलते हैं। पहले क्रिकेट भी खेलते थे। लेकिन फिर बैट टूट गया। एक खो गया। स्कूल से मिलता नहीं। अब फ़ुटबाल खेलते हैं।


सूरज भाई रॉबर्टसन झील में नहाते हुए
गणित अच्छा लगता है। सोशल खराब। आगे चलकर बायो लेने की सोचते हैं। हमने पूछा-'जब गणित अच्छा लगता है तो उसको छोड़कर बायो क्यों लोगे? बोले--'देखेंगे, हाई स्कूल के बाद तय करेंगे।जैसे नंबर आएंगे वैसा करेंगे।'

पापा जीसीएफ में वेल्डर हैं। हमने पूछा -'वेल्डिंग पता है कैसे करते हैं।' पता नहीं था उसको। हमने बताया कि वेल्डिंग में जोड़ने का काम होता है। उदाहरण देकर समझाया।

वेल्डिंग रॉड अपना अस्तित्व खत्म करके दो समान, आसमान टुकड़ों को जोड़ने का काम करती है। ऐसे ही समाज में भी तमाम लोग जोड़ने का काम करते हैं। लेकिन हमको दीखते नहीं। हमको तो सिर्फ तोड़ने वाले दीखते हैं। जोड़ने वाले शायद इसलिए नहीं दीखते क्योंकि उनका अस्तित्व जोड़ने में ही खत्म हो जाता है-वेल्डिंग रॉड की तरह।

पापा कभी-कभी पिटाई भी कर देते हैं। साल में एकाध बार। पिटाई खेलकर घर लेट आने पर ही होती है। लेकिन घंटे-दो घण्टे में कुछ सामान लाकर मना भी लेते हैं।


होमवर्क करती हुई दीपा
फेसबुक खाता है समीर का लेकिन फोन पापा के पास रहता । एक बार स्कूल ले गये फोन तो स्कूल वालों ने जब्त कर लिया। एक महीने बाद दिया। अभी तो परीक्षाएं चल रही हैं इसलिए फोन बन्द।

स्कूल तक हम लोग साथ गए। फिर समीर स्कूल चले गए। हम आगे बढ़ गए।

रॉबर्टसन लेक देखी। सूरज भाई झील में नहा रहे थे।पूरी झील चमक रही थी। पानी ख़ुशी के मारे इठला रहा था। लहरें इधर से उधर और फिर उधर से इधर भागती हुई बनी बावली घूम रही थी। किरणों की संगत में उनकी खूबसुरती कई गुनी बढ़ गयी थी। ऊपर तारों पर बैठे पक्षी सब कुछ कौतुक भाव से निहार रहे थे। हमको देखकर सूरज भाई जोर से चहके। झील का पानी और चमक गया।

पास ही एक आदमी बेर के पेड़ से गिरे हुए बेर बीन रहा था। तोड़ रहा होता तो शायद गाना बजने लगता:
'मेरी बेरी के बेर मत तोड़ो
कहीं काँटा चुभ जाएगा।'
बेकरी की दुकान पर बिस्कुट लेने रुके। एफ एम पर गाना बज रहा था:

'दिल में किसी का प्यार बसाना अच्छा है
पर कभी-कभी।'

दीपा के पापा दीपा की चुटिया करते हुए
गाने में शमा, परवाना सब थे। सुबह-सुबह शमा परवाना सुनकर लगा कहीं रात तो नहीं हो गयी।लेकिन ऐसा था नहीं।

शोभापुर रेलवे क्रासिंग पर देखा ट्रेन बहुत तेज भागती चली जा रही थी। लगता है कल के बजट से उत्साहित होकर ख़ुशी जाहिर कर रही थी।

दीपा अकेली थी अपने टपरे पर। बैठी चाय पी रही थी। पापा कहीं गए थे। बोली-'कहां चले थे इत्ते दिन।' हमने बताया घर गए थे। बोली-'हम इतवार को आपके उधर गए थे। पूछा तो बताया कि ससुराल गए हैं।'

हमने पूछा-'स्कूल गयी थी? होमवर्क किया ? वह हाँ बोली तो हमने कहा दिखाओ। उसने दिखाया। अधूरा था। 'मैं गांधी बन जाऊं' कविता लिखनी थी। आधी लिखी थी। वहीं बैठकर हमने लिखवाई। 'च' को 'ज' लिखा था। 'चादर' को 'जादर'। ठीक कराया। और भी वर्तनी की गलतियां।

हल्के से लिखती है पेन्सिल से दीपा। बेमन से। जैसे सरकारी योजनाओं की घोषणा हो जाने पर सरकारी अमला बेमन से उनका क्रियान्वयन करता है। किसी तरह निपटाते हुए वैसे ही दीपा होमवर्क करती है। हमने बैठकर कविता पूरी करवाई।

दीपा के पापा आ गए। स्कूल जाने के लिए बिटिया की चुटिया बनाई। बताया कि दो दिन से स्कूल नहीं जा रही दीपा। उसके जूते कहीं खो गए हैं। पापा कहते हैं कहीं भूल गयी। दीपा कहती है घर से कोई ले गया। अब 'फटका' तो लगा नहीँ घर में।लगा होता तो कोई न ले जा पाता। स्कूल में डांट पड़ेगी। 120 रूपये में आएंगे जूते।
हमको अपने साथ कक्षा 1 में पढ़ने वाला साथी मोतीलाल याद आया। वह पढ़ने में अच्छा था। उसके पिता शायद रिक्शा चलाते थे। नंगे पाँव आता था। लेकिन तब गुरूजी इस बात के लिए डांटते नहीं थे। वह सरकारी स्कूल था। टाट पट्टी वाले स्कूल। सरकारी स्कूल में गरीब अमीर बच्चे एक साथ पढ़ते थे। सम्पन्न बच्चों को भी गरीब बच्चों के साथ रहकर उनके बारे में जानकारी रहती थी।अब स्कूल लोगों की आर्थिक हैसियत के हिसाब से अलग-अलग हो गए हैं। Sharad

लौटते में देखा एक आदमी अपने कुत्ते को टहला रहा था। कुत्ता जबर था। वह आदमी को अपने हिसाब से घसीट रहा था। लग रहा था कि कुत्ता आदमी को टहला रहा था।

वैसे यह हर जगह हो रहा है अब। पालतू कुत्ते मालिकों को टहला रहे हैं। मालिक इसी में खुश कि कुत्ते की जंजीर उसके हाथ में हैं। कुत्ते जबर हो रहे हैं।

सुबह भी हो ही गयी।


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Wednesday, February 24, 2016

आँखों की भाषाएँ तो अनगिन हैं

जबलपुर स्टेशन के बाहर चाय की दुकान
आज सुबह बाहर बरामदे में खड़े होकर चाय पी रहे हैं। कप धर लिया है रेलिंग पर और सुड़कते जा रहे हैं चाय। आपको सुड़कने से एतराज है तो 'सिप करते जा रहे हैं' पढ़ लीजिये। मतलब एक ही है।

सामने सूरज भाई करीब 25 डिग्री ऊपर पहुँच गए हैं। चमक रहे हैं।

बगीचे की तमाम चिड़ियाँ चिंचियाते हुए कह रही हैं कि जब निकले थे सूरज भाई तो लाल थे। जैसे ही सब लोग जगे तो रंग बदल दिया। बहुत बड़े रंगबदलू हैं सूरज भाई।

सूरज भाई चिड़ियों की बात सुनकर मुस्कराने लगे। उनके मुस्कराते ही अनगिनत किरणें उन चिड़ियों की चोंच पर स्वयंसेवकों की तरह सवार हो गयीं। सब चिड़ियों की चोंच चमकने लगीं।

किसी एक चिड़िया ने पास की नाली में जमा पानी में अपनी सूरत देखी तो चहकते हुए कहने लगी -'देख तो यार ये सूरज भाई ने मेरी चोंच कैसी चमका थी।और कोई होता इतनी बुराई करने पर अपने आदमियों से मेरी चोंच नुचवा देता।उनके भक्त इतनी बुराई करने पर हमारे खानदान को गरियाने लगते अब तक।'

इस पर उसकी सहेली ने कहा बड़े लोग ऐसे ही बड़े मन के होते हैं। छुद्र लोग छुद्र हरकते करते हैं।

खुश होकर उसने सूरज भाई को खूब सारा धन्यवाद बोला। इतनी जोर से सूरज भाई की तरफ देखकर चिंचियायी मानो उनको 'चोंच सलामी' दे रही हो। क्या पता 'लव यू सूरज भाई' भी बोला हो। हमको तो उनकी भाषा आती नहीं। आपको जैसा लगे वैसे समझ लीजिये रमानाथ अवस्थी जी की कविता के हिसाब से:

'आँखों की भाषाएँ तो अनगिन हैं
जो भी सुंदर हो समझा देना ।'
सूरज भाई हमको बाहर खड़ा देखे तो वो भी साथ आ गए और हमारे ही कप से चाय पीने लगे। हम आपस में बतियाने लगे।

जरा सुबह की मार्निंग बहस है और कुछ नहीं
चाय की बात से याद आया। कल स्टेशन के बाहर चाय की दुकान पर चाय पी। दो लोग थे हम। 7 रूपये की एक चाय। 15 रूपये दिए हमने। एक रुपया फुटकर था नहीं चाय वाले के पास। उसने हमको इलायची का छोटा पैकेट थमाने की कोशिश की। हमें लगा कि एक रूपये के बदले 'मसाला पुड़िया' दे रहा है। हम नहीं लिए। बाद में पता लगा कि वह इलायची थी। जब पता लगा तब भी लेने का मन नहीं किया। छोड़ दिया तो छोड़ दिया। इलायची ही तो थी कोई आरक्षण थोड़ी था जिसके लिए पहले मना किया हो और बाद में कहें हमें भी चईये।
वहीं चाय पीते हुए देखा कि एक ऑटो वाला अपना ऑटो लेकर आया। पार्किंग पर कुछ विवाद हुआ वहीं खड़े एक आदमी से। दोनों एक दूसरे को देख लेने की धमकी दे रहे थे। हमें समझ ही नहीं आया कि ये आमने-सामने बहस करते लोग क्या अभी एक दूसरे को देख नहीं पा रहे जो बाद में देख लेने का साझा प्लान बना रहे हैं। फिर लगा कि शायद एक समय में एक ही काम करने के हिमायती हों ये भाई लोग। जब बहस करना है तब देखना नहीँ एक दूसरे को।

लगा तो यह भी कि शायद लड़ने के चलते गुस्सा इतना बढ़ गया हो दोनों का कि 'नेत्र दिव्यांग' हो गए हों दोनों।

आखिर बड़े-बुजुर्ग जो कह गए हैं कि क्रोध में इंसान अँधा हो जाता है तो गलत थोड़ी ही न कहें होंगें।

है कि नहीं ?

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अच्छे लोगों की कमी नहीं है दुनिया में

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Tuesday, February 23, 2016

हमको मिटा सके, ये जमाने में दम में नहीं


सूरज की अगवानी में क्षितिज पर बिछी लाल कालीन
सबेरे नींद खुली। खिड़की से देखा कि क्षितिज ने सूरज की अगवानी के लिए लाल कालीन सी बिछा रखी है। लाल और उसके ऊपर सफ़ेद रंग की पट्टी। नीचे धरती पर पेड़ पौधे पत्तियां सब हरे रंग में।

हमने सोचा यार ये तो बड़ा जलवा है सूरज भाई का। सुबह छह बजे रोज रेड कार्पेट वेलकम होता है भाई जी का।
सफेद, लाल और हरे रंग की पट्टियां देखकर हमने बोला -'ये क्या झंडा फहराते हो सुबह-सुबह। इतना दूर तक करोड़ों मील का झंडा। लेकिन रंगों का क्रम गलत है भाई जी। सफेद ऊपर रखते हो। किसी ने शिकायत कर दी या किसी अदालत ने खुद संज्ञान में लेकर नोटिस थमा दिया तो घर न जा पाओगे शाम को।'

सूरज भाई बड़ी जोर से हंसे। पास होते तो पक्का वो ये वाले शेर का कोई संस्करण सुनाते:
"हमको मिटा सके, ये जमाने में दम में नहीं
हमसे जमाना खुद है, जमाने से हम नहीं।"
सूरज भाई के हँसते ही उजाला और बढ़ गया। एक जगह आसमान से सूरज भाई इतना पास से दिखे कि लगा मानों क्षितिज की दीवार फोड़कर उजाला धरती पर उड़ेल दिया हो।

कुछ किरणें मेरे डिब्बे की खिड़की के पास आकर गर्मी सप्लाई करने लगीं। शायद उनको पता चल गया था कि कुछ सर्दी बढ़ गयी है।

कटनी स्टेशन पर गाडी 35 मिनट लेट पहुंची। चाय की दुकान से काफी आगे रुकी। हमें लगा कि कोई चाय वाला 'चाय गरम, चाय गरम' करते हुए गुजरेगा तो चाय पिएंगे। लेकिन गरम क्या कोई ठण्डी चाय वाला भी न निकला। हम थोड़ा पीछे बढ़कर चाय की खोज में बढे कि सिग्नल पीला हो गया। हम दौड़ के डब्बे में वापस आ गए। चयासे ही बने रहे।


सूरज भाई ने अपनी किरणों को मेरे पास भेज दिया
गाड़ी कुछ देर नहीं चली तो इस बार चश्मा धारण करके चाय की खोज में मुंडी बाहर किये चाय वाले को खोजते रहे। ट्रेन चल दी। आगे एक चाय वाला खड़ा था। उसको इशारे से बताया तो उसने चलती ट्रेन में चाय और हमने दस का नोट थमा दिया। 7 की चाय दस में। पर कोई खलने का भाव नहीं आया। जब उड़न कंपनियां 2 हजार का टिकट 50 हजार में बेंच रहीं हैं तब चाय वाला 7 की चाय 10 में दे रहा है तो क्या बुरा। चिल्लर वापस करने का समय भी नहीं था उसके पास।

चाय बढ़िया थी। डिप डिप वाली चाय। शायद 10 की हो। हम बिना जाने उस पर 3 रूपये मंहगी बेंचने की तोहमत लगा दिए। पक्के भारतीय होते जा रहे हैं हम भी। एकदम टीवी चैनलों की तरह। मिडिया ट्रायल पहले कर दिया फिर बोल दिया -'जो वीडियो हमने दिखाया वह फर्जी था।'

चाय पीते हुए ऊपर की बर्थ वाले की बातचीत सुनी। कह रहा था -'टीटी ने सौ रूपये लेकर बर्थ दे दी । आराम से चले आये।'

यह नहीं पता चला कि टीटी ने सौ रूपये टिकट के किराये के अलावा अलग से लिए या कुल सौ में दे दी बर्थ। लेकिन यह ख्याल जरुर आया कि अगर एयरलाइंस वाले भी अपने यहां टीटी रखने लगें तो कितना अच्छा हो। दिल्ली से कोलकता जाते हुए अगर कुछ सीट खाली दिखें तो लखनऊ, पटना में रोककर प्लेन सवारी बैठा लेंगे।विमान कम्पनियां इत्ते घाटे में थोड़ी रहेंगी। सीटें खाली ले जाना आर्थिक गुनाह है भाई। सौ दो सौ में सौदा बुरा नहीं लगेगा। विजय माल्या सोंचे अगर पोस्ट पढ़ रहे हों।

सूरज भाई ने आते ही पेड़, पौधों, कोने, अतरे में छिपे बैठे, धरना दे रहे सारे अन्धकार तत्वों की तुड़ईया करके सबको तितर-बितर कर दिया। सब जगह सूरज की किरणें खिलखिलाते हुए अठखेलियां करने लगीं। धरती की हरियाली और हरी-भरी और खुशनुमा हो गयी। सूरज भाई ऊपर आसमान की अटारी पर चढ़कर सब जगह मुआयना करते हुए देखते हुए लग रहे हैं कि कहीं रोशनी की सप्लाई रह तो नहीं गयी।

सुबह हो गयी। ट्रेन संस्कार धानी पहुंच गयी।

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Monday, February 22, 2016

बीड़ी से सौहार्द बढ़ता है




 पटरी भी सलामत है और ट्रेन भी पधार रही है। कानपुर है कौनौ मजाक थोड़ी कि कोई ट्रेन को रोक दे। 
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हमारा ट्रेन का डब्बा प्लेटफार्म से 10 -15 मीटर उतरकर आता है। पटरी पर खड़े हुए ट्रेन का इंतजार करते हुए प्लेटफार्म पर बैठे लोगों की बतकही सुनते रहे। एक भाई किसी का जलवा बड़ी ऊँची आवाज में बता रहे थे कि वहां बाहर ही बीड़ी का बण्डल और माचिस धरी रहती थी जिसको मन आये पिए।  :)

 हमें लगा कि धरना पर बैठे जाट भाइयों की आंदोलन के शुरुआत में ही ठीक से बीड़ी-माचिस से आवभगत हो गयी होती तो बवाल इतना नहीं बढ़ता। बीड़ी से सौहार्द बढ़ता है। 

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अपना तो यह रोज का किस्सा है


गोविन्दपुरी रेलवे स्टेशन
कल सुबह जब नींद खुली तो ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँका। सूरज भाई आसमान के माथे पर टिकुली सरीखे चमक रहे थे। आसमान सुहागन के माथे सा दमक रहा था।

ट्रेन पटरी पर छम्मक छैंया करते हुए चल रही थी। खटर खट करती हुई। पटरी पर कैटवॉक सरीखा करती दायें-बाएं होते हुए दुलकी चाल से चल रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर में सेंसेक्स जैसा ऊपर भी उछल जा रही थी। ठण्डी हवा जैसे ट्रेन से सटी हुई चल रही थी। उसकी मिजाजपुर्सी सी करती हुई।

ट्रेन एक पुल के पास गुजरी तो सूरज भाई कोने में खड़े दिखे। ट्रेन पुल से जैसे ही गुजरी सूरज भाई ट्रेन के पीछे लग लिए। जैसे लड़के लोग कालेज जाती लड़की के घर से निकलने का इन्तजार चौराहे/मोड़ पर करते हैं और लड़की के आते ही उसको एस्कार्ट करने लगते हैं कुछ वैसे ही सूरज भाई ट्रेन के साथ चलने लगे।

एक बार जब साथ हुआ तो सूरज भाई एकदम ट्रेन की नकल करने लगे। ट्रेन जैसे पटरी पर इठलाते हुए चल रही थी, सूरज भाई उसी तरह आसमान में इठलाने लगे। पेड़ों की फुनगियों पर साइन कर्व सरीखा बनाने लगे। एक बारगी यह भी लगा कि ट्रेन को अपना ईसीजी सा दिखा रहे हैं।

ट्रेन भी सूरज भाई की हरकतें कनखियों से देखते हुए अनदेखा करती रही। जब काफी दूर का साथ हो गया तो वह सूरज भाई की संगत कुछ ज्यादा ही शिद्दत से महसूसने लगी। एक जगह नदी पड़ी तो सूरज भाई उसमें उतरकर नहाने लगे। शायद उनको लगा हो कि राजा बेटा बन जाने में इम्प्रेशन अच्छा पड़ेगा।

ट्रेन ने जब सूरज भाई को साथ आते नहीं देखा तो बिना स्टेशन के ही पटरी पर खड़ी हो गयी। इन्तजार सा करने लगी सूरज भाई का। जैसे ही सूरज भाई आते दिखे वह आगे चल दी यह जताते हुए मनो वह अपने किसी काम से रुकी थी। लेकिन सूरज की किरणें सब देख रहीं थी। वह यह सब देखकर मुस्कराने लगीं और सूरज भाई से कहने लगीं -'क्या बात है दादा, आज कुछ ज्यादा ही जम रहे हो।' सूरज भाई उनसे प्यार से अपना काम करने करने और पूरी कायनात में चमकने की कहकर ट्रेन के ऊपर आकर आसमान में चमकने लगे।

मेरी सीट पर एक महिला आकर सिकुड़ी सी बैठ गई थी। मैं भी उठकर बैठ गया और उससे बतियाने लगा।
महिला ने बताया कि वह घाटमपुर के आगे रागौर की रहने वाली है। वहीं उसका मायका है। शादी उसकी बांदा जिले में हुई थी। लेकिन ससुर गाली-गलौज , मारपीट करते थे। पेड़ से बांधकर मारने की धमकी करते थे। नशा पत्ती करते भी करते थे। इसलिए वह भागकर मायके आ गयी थी।

ससुराल बहुत पिछड़े इलाके में थी। एक बच्चा इलाज के अभाव में मर गया। डायरिया हो गया। इसलिए भी मायके आ गए। ससुराल में 12-15 लोगों का परिवार था। सबके लिए चक्की का आटा पीसना। खाना बनाना ऊपर से बिना बात मारपीट। रह नहीं पाये वहां। चले आये मायके। पंचायत बैठी और यह वायदा किया ससुर ने कि ठीक से रखेंगे लेकिन फिर वही हरकत। एक बार तो मायके तक में हाथ उठा दिया तो अम्मा ने कहा-'अब नहीं भेजना।'

सास और खुद के बच्चे साथ-साथ होते रहे। अब तो ससुर रहे नहीं। कैंसर हो गया था। पहले पति भी मार-पीट करता था लेकिन अब नहीं करता। घर जमाई बनकर सुधर गया है। अब साइकिल की मरम्मत का काम करता है।

चार बच्चे हैं। सब लड़के। 10 वीं, 7 वीं , 4 थी और दूसरी में पढ़ते हैं।
महिला खुद फूल का काम करती है। शिवाले जा रही थी फूल लेने। कोई सहालग है। सुबह 4 बजकर 7 मिनट पर उठी थी। नहाकर, पूजा करके खाना बनाया और फिर साढ़े पांच बजे ट्रेन पकड़ ली कानपुर के लिए। लौटते में साढ़े दस बजे ट्रेन है। अगर मिल गयी तो ठीक वरना नौबस्ता, घाटमपुर होते हुए बस से लौटेगी।
बात करते हुए फोन बजा उसका। झोले से काला नोकिया का मोबाइल निकाल कर बतियाई। घर में बच्चों को खाने की हिदायत दे रही थी। पूड़ी-सब्जी बनाकर आई थी। सब्जी सेम की। :)

हमने कहा-'तुम तो बहुत बहादुर हो।अब मायके में तो सुखी होगी।'

वह थोड़ा मुस्कराई। दांत विको वज्रदंती टाइप। लेकिन चेहरे पर समय के थपेड़े के निशान। बोली-'सुख-दुःख सबको मिलते हैं। छोटे आदमी को छोटे दुःख लगते हैं। बड़े आदमी के बड़े दुःख। पैसे वाले को बड़ी बीमारी मिलती हैं।

कुछ देर में उठकर वह शायद बाथरूम की तरफ गयी। ऊपर की सीट की एक सवारी जहां वह बैठी उसकी जगह आकर धँस गयी। उसका झोला सरका दिया। सीट हमारी थी पर वह जिस धमक के साथ बैठे उससे कोई समझता की सीट उनकी ही है। मैंने सोचा कि जब वह महिला लौटकर आएगी तो और सरक जाएंगे और उसके लिए बैठने की जगह बन जायेगी। एक बर्थ पर 3 लोग तो आराम से बैठ सकते हैं।

लेकिन जब वह महिला लौटकर आई तो उसने अपनी जगह किसी दूसरे को बैठे देखा तो अपना झोला उठाकर तेजी से बिना कुछ कहे दूसरे डिब्बे की और चली गयी।

कुछ ही देर में हमारा स्टेशन भी आ गया। सुबह सुहानी सी थी। महेश ऑटो वाले स्टेशन पर ही इंतजार करते दिखे। बताया कि रात को पानी बरसा था इसलिए मौसम बढ़िया हो गया वरना गर्मी काफी थी।

सूरज भाई स्टेशन पर मुस्कराते मिले। हमने कहा -'क्या भाई, आज तो खूब मजे हो रहे हैं।' इस पर सूरज भाई ठहाका मारकर हँसते हुए बोले-' अपना तो यह रोज का किस्सा है।'

हमने कहा -'क्या बात है। झाड़े रहो कलट्टर गंज।'   :)

सूरज भाई भी बोले-' हटिया खुली, बजाजा बन्द।'

यह तो कल का किस्सा था। अब्बी याद आया तो सूना दिया लौटते हुए।

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Saturday, February 20, 2016

देशप्रेम और देशद्रोह का हल्ला

पिछले दिनों मीडिया में देशप्रेम और देशद्रोह का जबर हल्ला मचा रहा। इसके पहले कुछ दिन तक सहिष्णुता और असहिष्णुता का जबाबी कीर्तन हुआ। जब उससे ऊबे तो शायद मूड बदलने के लिए देशप्रेम और देशद्रोह की अंत्याक्षरी शुरू हुई।

इस खेल में सक्रिय लोग कुछ लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे लोगों को देशद्रोही कहने लगे। बहुतों को समझ ही नहीं आया खेल कि एक जैसे दीखते, एक जैसी हरकतें करते, एक तरह से ही चिल्लाते लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही किस आधार पर कह रहे हैं। हमको भी कुछ समझ में नहीं आया।

लेकिन जब हमने दिमाग पर जोर डाल के सोचा तो हमको 35-36 साल पहले इंटरमीडिएट के दिनों में 'देशप्रेम' पर निबन्ध याद आया।

हमको हमारे हिंदी के गुरूजी ने 'देशप्रेम' पर निबन्ध लिखकर लाने के लिए कहा था। 'देशप्रेम' पर निबन्ध लिखवाने का मुख्य कारण यही था की परीक्षा में यह निबन्ध आने के चांस ज्यादा रहते थे। 'देशप्रेम' पर लिखे निबन्ध की पूँछ पकड़कर परीक्षा की वैतरणी पार करने की सम्भावना ज्यादा रहती थी।

आजकल तो देशप्रेम का महत्व और भी बढ़ गया है। लोग 'भारत माता की जय', 'वन्देमातरम' का हल्ला मचाकर न जाने क्या-क्या हासिल कर रहे हैं। जिस 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाकर क्रांतिकारी लोग फांसी के फंदे पर लटका गए उसी नारे को चिल्लाते हुए लोग आज बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर चिपक गए हैं।

बहुत बरक्कत हुई है इन नारों में। ये नारे इतने सटीक और असरकारी साबित हुए हैं कि अपराधी तक जोर से इन नारों को चिल्ला दें तो उनको देशभक्त मान लिया जाता है। शातिर लोगों के यहां तो देशभक्ति का अखण्ड कीर्तन चलता रहता है। इस कीर्तन का फायदा यह होता है समाज और क़ानून की सहज भवबाधाएं उनके पास नहीं फटकती। उनके धंधे निर्बाध चलते रहते हैं।

खैर बात निबन्ध की हो रही थी। जैसे आजकल कुछ भी उलजलूल बोलते हुए दूसरे को बोलने का मौका न देने वाला खुद को अच्छा एंकर/प्रवक्ता माना जाता है वैसे ही उन दिनों हम समझते थे कि जितना ज्यादा लिखा जाए उतना अच्छा होता है। जितने ज्यादा उद्धरण, उतना धांसू निबन्ध। चूंकि घर से लिखकर लाना था तो हम जितनी किताबें थीं हमारे पास उन सबसे उद्धरण खोजकर एक पूरी कॉपी भरकर धर दिए गुरु जी के सामने।

गुरूजी देखे तो बस यही बोले -'थोड़ा कम लिखते तो अच्छा रहता।'

हमको बड़ा अखरा कि बताओ एक तो हम इतना मेहनत कर दिए 'देशप्रेम' के नाम पर और गुरु जी कह रहे हैं कि थोड़ा कम लिखते। कुछ ऐसा ही लगा जैसे कोई उत्साही कार्यकर्ता देशप्रेम/देशद्रोह के धर्मयुद्ग में किसी विधर्मी से गाली गलौज करे, उसका सार्वजनिक 'भरतमिलाप' करा दे और बाद में उसकी पार्टी के लोग उसको शाबासी देने की बजाय उसकी निंदा करें और उससे किनारा करने लगें।

दो उद्धरण हमको अभी भी याद हैं उस निबन्ध के।

"जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान है
वह नर नहीँ, नर पशु निरा है और मृतक समान है।"
उस समय का रटा हुआ यह उद्धरण हम आजतक प्रयोग करते आये हैं। कुछ दिन पहले देखा तो आज के बच्चे भी इसी से काम चला रहे हैं। इससे यह पता चलता है कि दुनिया कितनी भी आगे बढ़ गयी हो पिछले 35 सालों में पर देशप्रेम के मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है।

अलबत्ता अभी यह जरुर सोच रहे हैं कि इसमें केवल 'नर' को गौरव और अभिमान करने का जिम्मा दिया गया है। 'नारी' को पता नहीं देशप्रेम के झंझट से मुक्त रखा गया है या फिर उनको इस महती जिम्मेदारी लायक समझा नहीँ गया।

दूसरा उद्धरण था:

"विषुवत रेखा का वासी जो जीता है नित हांफ-हांफ कर,
रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर,
हिम वासी जो हिम में तम में, जीता है नित काँप काँप कर,
कर देता है प्राण न्योछावर, वह भी अपनी मातृभूमि पर।"
मतलब लोग चाहे जहां भी रहें सबको अपने देश से प्रेम होता है। मतलब देश से प्रेम करना उतना ही सहज माना जाता था जितना आज राजनीति के लिए गुंडा गर्दी, छलकपट।

बाद में देशप्रेम से जुड़े और भी आयाम पता चले। 'पुरस्कार' कहानी में देशप्रेम और व्यक्तिगत प्रेम का कॉम्बो पैक दिखा। पहले मधुलिका ने प्रेम किया, फिर देशप्रेम किया और बाद में सबको झटका देकर अपने प्रेमी के साथ मरने के लिए खुद के लिए मृत्यु मांग ली।

समय के साथ देशप्रेम के स्वरूप में बदलाव आया। पहले देशप्रेम का मतलब देश के लिए अधिक से अधिक त्याग और बलिदान करना होता था। जैसे -जैसे जमाना आधुनिक होता गया लोगों में मेहनत करने कम होने लगा। नए और आसान तरीके खोजे गए देश से प्रेम करने के। झंडा लहराकर, शरीर में झंडे का रंग पोतकर और अन्य शरीफ तरीकों से देशप्रेम की नुमाइश करने लगे। अनुराग, अलौकिक रखने वाले देश के लिए खटते रहते और समझदार लोग प्रोफाइल पर झंडा फहराकर देशभक्त बनते गए।

इसी हल्ले में देशप्रेम का कम्पटीशन भी शुरू हुआ। खुद को दूसरों से बड़ा देशप्रेमी बताने का चलन शुरू हुआ। लेकिन उसमें बहुत मेहनत लगती। आराम का रास्ता खोजते हुए लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही बताने लगे। हम जब पढ़ते थे तो देशद्रोही पर निबन्ध लिखाया नहीँ गया इसलिए उनपर कोई उद्धरण नहीं याद। उनके गुण भी नहीँ पता लेकिन आये दिन देखते हैं कि एक जैसी चिरकुट हरकतें करते लोग खुद को देशप्रेमी और दूसरे को देशद्रोही ठहराते रहते हैं।

एक जैसे काम करते हुए सभ्य नागरिक जब आपस में एक-दूसरे को देशप्रेमी और देशद्रोही जैसी उपमाओं से नवाजते हैं तो कभी-कभी यह भरम होता है कि देशप्रेमी और देशद्रोही का रिश्ता आपस में समधी जैसा होता है। जैसे एक का समधी दूसरे के लिए भी होता है वैसे ही एक देशप्रेमी दूसरे को देशद्रोही मानकर खुश हो लेता है।
देशप्रेमी और देशद्रोही की इस वाचिक जंग में कुछ उत्साही लोग ही शामिल होते हैं। उनकी संख्या बहुत कम होती है। कुछ लोगों को इससे बहुत तकलीफ होती है। उनको लगता है ये बहुमत वाले लोग न देशप्रेम की बात कर रहे हैं न किसी को देशद्रोही ठहरा रहे हैं। यह देशकर कुछ लोग परशुराम की तरह कुपित होकर रामधारी सिंह दिनकर की कविता को कोड़े की तरह फटकारते हुए उदासीन लोगों को भविष्य का अपराधी ठहराते हुए धिक्कारने लगते हैं:

'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध'

कमजोर दिल वाले लोग यह दहाड़ सुनते ही सबसे नजदीक के बाड़े में आँख मूंदकर कूद जाते हैं। उनको यह डर सताने लगता है कि कहीं उदासीन रहने पर सही में कोई अपराधी न ठहरा दे। एक बार अपराधी ठहरा दिए गए जिनदगी कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते बीत जायेगी। किसी भी बाड़े में कूदते ही दूसरे बाड़े के लोग उनको देशद्रोही कहते हैं। जब वे यह हल्ला सुनते हैं तो वे भी हल्ला मचाने लगते हैं।

पिछले दिनों इसी हल्ले को देखते रहे। देश भी कहीं से अपने बच्चों को हल्ला मचाते, लड़ते-झगड़ते देख रहा होगा। हो सकता है कभी-कभी अपने बच्चों को वात्सल्यपूर्ण नज़रों से निहारता हुआ वह सोचता भी हो कि ये बच्चे कब बड़े होंगे, कब समझदार होंगे।
आप क्या कहते हैं ?








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Tuesday, February 16, 2016

हम कच्ची नहीं , इंगलिश पीते हैं

कल शाम घूमने निकले साइकिल पर। शाम क्या रात ही कहिये। आठ बजे कहने को ’गुड इवनिंग’ भले कह लें पर होती तो वह रात ही है। है कि नहीं?

निकलते ही मोड़ पर सामने से मोटरसाइकिल आती दिखी। हेडलाइट बंद थी। धडधड़ाती आ रही थी। हम किनारे हो गये। अपनी सुरक्षा अपने हाथ। क्या पता अंधेरे में मोटर साइकिल भिड़ जाये हमारी साइकिल से और गाना गाते हुये कहने लगे--’आ मेरे गल्ले लग जा, ओ मेरे हमराही।’

मौसम हसीन टाइप था। आसमान में चांद खरबूजे की फ़ांक सा खिला हुआ था। पीला-पीला। खरबूजा तो गर्मी के मौसम में होता है। इसलिये सोचते हैं चांद को पपीते की फ़ांक सा लिखा जाये। कच्चे पपीते की फ़ांक सा। आसमान के अंधेरे में चांद को कोई डर भी नहीं लग रहा था। धड़ल्ले से खिला हुआ था। बहुत डेयरिंग है यार चांद।

घूमते हुये शोभापुर की तरफ़ चले गये। पुल के नीचे चूल्हे सुलग चुके थे। पुल के नीचे लोग खाना बना रहे थे। बतिया रहे थे।

उधर ही दीपा रहती है अपनी पापा के साथ। देखा तो झोपड़ी के सामने ’कोमल’ (दीपा के पापा) का रिक्शा दरवाजे की तरह सटा था। मुझे लगा कि वो लोग सो गये होंगे। लेकिन बाहर दूसरे रिक्शे वाले ने देखा तो बुलाया चिल्लाकर।

कोमल बाहर आये। हमने पूछा -दीपा कहां है?

वो बोला-’का पता कहूं गई होगी टीवी देखने इधर-उधर।’

हमने कहा-’ अरे, इतनी रात कहां गई होगी टीवी देखने। तुमको पता भी नहीं। खोज के लाओ। देखो।’

कुछ ठिकानों के बारे में बताते हुये उसने कहा-’ वहां भी नहीं, उधर भी नहीं , न जाने किधर चली गयी।’

यह शायद उसके लिये रोजमर्रा का किस्सा होगा। लेकिन मेरे लिये नया था कि रात आठ बजे बाप झोपड़ी में घुसा है और 2 में पढ़ने वाली बिटिया कहां है उसको पता नहीं।

कुछ देर में वह खोजकर लाया दीपा को। पता चला कि आते ही पापा ने किसी बात पर डांट दिया था तो वह गुस्साकर चली गयी थी।

दीपा के पापा उसकी शिकायत करते हुये बोले- ’ दिन भर से बर्तन नहीं धोये थे। हमने आकर डांटा तब धोये। फ़िर चली गयी।’

हमने पूछा-’ कहां चली गयी थी? होमवर्क कर लिया? ऐसे न जाया करो।’

उसने कहा -’ हां होमवर्क कर लिया।’

इसपर उसके पापा हल्ला मचाते हुये बोले- ’ कुछ न किया। बस घूमती रहती है। साहब जी आप इसको डांटो।’
कोमल को हर बात इलाज डांट में ही सूझता है।डांटता रहता है अपनी बिटिया को। सोचता है उसी से ठीक हो जायेगी।

इस बीच दूसरे रिक्शेवाला के पास वहीं कुछ लोग बैठे दिखे। अंदाज से लगा -’कच्ची छन रही है उनकी।’

जब कोमल लड़की को ढूंढने गया था तब वह कह रहा था- ’ लड़की को डांट के रखना चाहिये। ऐसे कैसे चली जाती है बिना बताये।’

किसी ने टोंका-’ तुम खुद कैसे रखे अपने लड़के को जिसने तुमको पीटकर घर से भगा दिया?’

इस पर वह बोला- ’ अरे लड़के की बात अलग है। लड़की की और।’

वहीं पास की एक दुकान वाला भी ’रसरंजन’ में शामिल था। चलते समय हमसे बतियाने लगा। बोला--’ आप बातचीत करने में अच्छे लगे इसलिये आपसे बात करने का मन हुआ।’

हमने पूछा -’ तुम यहां इनके साथ दारू पी रहे हो। कच्ची। क्या दारू के नशे में हम हमारी बातचीत अच्छी लग रही है।’

इस पर उसने कहा- ’अरे नहीं। हम कच्ची नहीं पीते। इंगलिश पीते हैं। थोड़ी ले लेते हैं बस।’

फ़िर अपने पीने का कारण उसने संगति दोष बताया। अपने परिवार के कई लोगों के नाम और काम गिना डाले। कुछेक प्रवचन भी सुना डाले।

हमने उससे कहा -’तुम दीपा को पढा दिया करो दुकान चलाने के साथ-साथ शाम को।’ वह बोला - ’हां, बहुत अच्छी लड़की है यह। सब इसको बहुत प्यार करते हैं।’

और भी कई बाते हुई। इसके बाद खांसी की दवा जो मेरे पास रखी थी दीपा को देकर चले आये।

आते समय और अभी भी यही सोच रहे हैं कि देश इतनी तेजी से आगे भागता चला रहा है। जबलपुर भी स्मार्ट बन ही जायेगा दो-चार दस साल में। लेकिन क्या दीपा जैसे बच्चों का जीवन स्तर कभी सुधर पायेगा। सुधरेगा भी तो कब !

आपको क्या लगता है?

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ऐसे मनाया गया 'वैलेंटाइन डे' संस्कार धानी में




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Monday, February 15, 2016

सुबह का बखत है, झूठ नहीं बोलेंगे

पानी भरने के लिए जाती दीपा
बहुत दिन बाद आज साइकिल फ़िर स्टार्ट हुई। हमें लगा कुछ तन्न-भन्न करेगी लेकिन पहला पैडल मारते ही चल दी। अगले में तो ऐसे चलने लगी मानो बहुत देर से चलाते आ रहे हों।

साइकिल का व्यवहार ऐसे साथी के व्यवहार सा लगा जिससे बहुत दिन बाद मिलने पर आशंका सी होती हो कि मिलने पर गुस्सायेगा लेकिन अगला मिलते ही गले लगा ले। आलिंगन में आशंका की मूरत ऐसे चकनाचूर हो जाए कि अलगाव का समय पता ही न चले कभी था भी क्या !

बाहर निकलते ही चार-पांच लड़के घुटन्ना पहले जेब में हाथ डाले टहलते जा रहे थे। मुझे उनको देखकर एक दोस्त की कही बात याद आ गयी कि जो जेब में हाथ डालकर फ़ोटो खिंचाते हैं वे घुटे हुये, घुन्ना होते हैं। उनकी बात का भरोसा नहीं किया जा सकता। क्या ऐसा सही में होता होगा? फ़िर तो जाड़े में तमाम लोग घुटे हुये हो जाते हैं। हाथ जेब में डाले घूमते हैं।

एक बच्चा छुटकी साइकिल में स्कूल जा रहा था। उससे पूछा तो बोला -650 का स्कूल है। साइकिल बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। आगे कुछ लोग सड़क पर दौड़ते हुये जा रहे थे। आधी सड़क घेरे हुये से। अचानक उनपर समझ टाइप हावी हो गयी और वे एक लाइन में आगे-पीछे होकर दौड़ने लगे। दौड़ते-दौड़ते एक धावक ने सड़क पर संटी टाइप उठाई और हवा में लगराते हुये आगे बढा। उनमें से जो सबसे आगे आ रहा था वह कुछ देर आगे रुककर दूसरे साथी से बोला - पैर दर्द हो रहा है। शायद जल्द ही दौड़ने का अभ्यास शुरु किया उन लोगों ने।
उनको देखकर मुझे Satish Saxena जी की दौड़ते हुये फ़ोटो याद आये। उन्होंने भी जब दौड़ना शुरु किया होगा तो पांव दर्द करते होंगे उनके। अब तो मैराथन धावक हो गये हैं। नये सिरे से जवान हो रहे हैं।  :)

दीपा से मिलने गये आज। VD Ojha और Surendra Mohan Sharma जी ने खासतौर पर उसके हाल पूछे थे। पहले भी गये थे एक बार परसों लेकिन रात हो जाने के कारण सो गये थे वो लोग।

आज जब मिले तो दीपा के पापा खाना बना रहे थे। बोले- ’बहुत याद करते रहे। कहां चले गये थे। आये नहीं। हम सोचत रहें हमसे कछु गलती हुई गई का?’


बेटे ने दारु, ठकुराई और जवानी के संयुक्त नशे  में आकर पीट दिया तो घर से बाहर आ गए
दीपा अन्दर से निकलकर आई। मुस्कराते हुये। हमने उसके हाल पूछे तो उसके पापा ने उसकी शिकायतों का पुलिन्दा हमारे सामने खोल के धर दिया- ’पढती नहीं है। बात नहीं मानती। मंदिर के पास शैतान लड़की की संगत में पड़ गयी है। खेलती रहती है। कल गोबर लाने को कहा तो गोबर तो ले आई लेकिन लीपा नहीं। बरतन नहीं मांजे। अभै फ़िर उठाया और मंजाये। कुछ कहो तो कहती है -मारते हौ।’

मारने की बात पर दीपा फ़ट से धीमे से बोली- ’तो का पिट जायें?’

हमने उसकी पढाई के बारे में पूछा तो उस पर भी उसके पापा बोले-’ ट्युशन भी नहीं गई। बुखार हो गया तौ दवा लाये लेकिन नहीं खाई। जे देखौ धरी हैं। हम समझाते हैं -बिटिया तुम्हारी मां नहीं , भाई नहीं , बहन नहीं । जो कुछ हैं हमई तुम हैं। लेकिन मानती नहीं।’

हमने दीपा को समझाया कि पढ़ा करो। वह चुप रही। बाल की लटें उलझी हुई थीं। लगता है बहुत दिन से नहाई-धोई नहीं ठीक से।

बुखार था दीपा को। उतर गया। खांसी अभी भी आ रही है। हमको भी आ रही है खांसी। आज सिरप लायेंगे दोनों के लिए। :)


खम्भे का बल्ब फिर फ्यूज हो गया है। अंधेरा रहता है दीपा के यहां रात को। पता नहीं फिर कब ठीक होगा बल्ब। शायद जबलपुर के स्मार्ट सिटी बन जाने के एन पहले।

ऐसे बच्चे जो जिनका बचपन जैसा न होकर दीपा जैसा कठिन सा हो जाता है कैसे पढ सकते हैं यह सोचने की बात है। कल आराधना ने एक एनजीओ के बारे में बताया जिसमें वो लोग शनिवार/इतवार को आसपास के बच्चों को पढ़ाने का काम करते हैं। http://ngorahi.org/ मन किया अपन भी कुछ ऐसा काम करें। लेकिन मन करना अलग बात है। उस पर अमल दीगर बात।


ट्रेन से फिसलकर दिव्यांग हुए घनसियाराम
दीपा का स्कूल आठ बजे का है। वह पानी लाने चली गयी। हम उसके पापा से बतियाते रहे कुछ देर। वहां दूसरा रिक्शा देखकर पूछा तो बताया कि एक जन हैं कंचनपुर में रहते हैं। उनको उनके लड़के ने पीट दिया तो वे यहीं रहते हैं। हमने कहा आओ रहो।

इसी बीच दूसरे रिक्शे वाले भी आ गये। पूछा तो बोले- ’ सुबह का बखत है। झूठ नहीं बोलेंगे। हम और हमारा लड़का दोनों पीते हैं। उसने नशे में मुझे पीट दिया तो हम यहां चले आये।’

घर में बीबी है। लड़की की शादी कर दी। लड़का शटरिंग का काम करता है। 400-500 रुपये रोज कमाता उसकी शादी करने वाले थे इस साल । लेकिन उसने पीट दिया तो घर से चले आये।

बताया --’खाना होटल में खाते हैं। दारू रोज पीते हैं।

कितने की पीते हो ? पूछने पर बोले-’ हम कच्ची पीते हैं। 20 रुपये की रोज पीते हैं।’

हमें रागदरबारी के कुसहरप्रसाद याद आये जिनको उसके बेटे छोटे पहलवान ने पीट दिया तो पंचायत के पास पहुंचे थे। ये रिक्शे वाले भी राठौर हैं। ठाकुर, दारू और जवानी के संयुक्त नशे में बेटे ने बाप को पीट दिया।

हमने समझाया कि तुमको तुम्हारे लड़के ने थोडी ही पीटा है। दारू ने पीटा। नशा उतर गया अब घर जाओ। इस पर वो कुछ बोले नहीं। शायद दो-चार दिन में घर वापस चले जायें।

लौटते में एक पुलिया के पास बीड़ी सुलगाते घनसियाराम दिखे। एक पैर से ’दिव्यांग’। सन 1986 में ट्रेन में चढते समय पैर फ़िसल गया। जूता गीला था। अभी पुल बन रहा है। वहीं काम करते हैं। बीड़ी क्यों पीते हो पूछने पर बोले- ’ क्या करें? ’

लौटते में सूरज भाई दिखे। साथ-साथ चलते रहे। बोले- ’बहुत दिन बाद दिखे।’ किरणें भी कंधे, साइकिल, पीठ, चेहरे पर चढकर उछलती-कूदती रहीं। खिलखिलाती रहीं। सुबह सही में हो गयी है।

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Sunday, February 14, 2016

Saturday, February 13, 2016

चाय के साथ चुम्बन दिवस



सुबह-सुबह मोबाइल आन किया तो पता चला कि आज ’चुम्बन दिवस’ है। क्यों मनाया जाता है चुम्बन दिवस यह जानने के लिये गूगल की शरण गये तो खूब सारी फ़ोटो चुम्बनरत फ़ोटो दिखीं। अधिकतर में युवा लोग खड़े होकर या बैठे हुये चुम्बन करते दिखे । सब नवीन वस्त्र धारण किये। इससे लगा कि जो भी हो यह त्योहार सुबह-सुबह नहीं मनाया जाता। आराम से नहा धोकर ’सेलिब्रेट’ किया जाता है। बिना नहाये-धोये मनाया जाता होता तो फ़ोटो में लोग बिस्तर में बैठे, मंजन करते, चाय पीते दीखते। फ़ोटो में लोग नदी के किनारे दिखे, पहाड़ पर दिखे, एफ़िल टावर के पास दिखे। 

कोई व्यक्ति किसी झुग्गी-झोपड़ी के पास किसी को चूमते नहीं दिखा। कोई फ़टेहाल व्यक्ति किसी दूसरे बदहाल को चूमते नहीं दिखा। कोई हड्डी-पसली का एक्सरे टाइप आदमी किसी चुसे हुये चेहरे वाले इंसान को चूमते नहीं दिखा। जो भी दिखा किसी को चूमते हुये वह झकाझक कपड़े में चकाचक चेहरे वाला ही दिखा। बढिया शैम्पू किये बाल, डिजाइनर कपड़े पहने लोग ही चुम्बनरत दिखे। इससे यही अंदाज लगा कि ’चुम्बन दिवस’ गरीब लोगों के लिये नहीं है। मीडिया इसको जितना धड़ल्ले से इसे दिखा रहा है उससे भी सिद्ध होता है कि इस त्योहार का गरीब लोगों से कोई संबंध नहीं है।

पुराने समय की पिक्चर में हीरो-हीरोइन लोग आपस में एक दूसरे को सीधे-सीधे चूमने में परहेज करते थे। सब काम इशारे से होता था। फ़ूल को भौंरा चूम लेता था लोग समझ जाते थे कि चुम्मा हो गया। कुछ इसी तरह से जैसे पहले जनसेवक , आजकल की तरह, गुंडागर्दी खुद नहीं करते थे। इस काम के लिये अलग से गुंडों का इंतजाम करते थे।

धीरे-धीरे थोड़ा खुलापन बढा और हीरो लोग हल्ला मचाने लगेे -’दे दे चुम्मा दे दे’ कहने लगे। जितने जोर से हीरो चुम्मा मांगता है उतनी जोर से अगर गरीब लोग अपने लिये रोटी मांगते तो शायद अब तक भुखमरी खत्म हो गयी होती देश से।

पहले सिनेमा में चुम्बन ऐसे हो थे मानो नायक स्पर्श रेखा खींच रहा हो नायिका के अधर या गाल पर। आजकल की पिक्चरों में तो ऐसे चूमते दिखाते हैं मानों कम गूदे वाला आम चूस रहे हैं। इतनी मेहनत करते हैं लोग पिक्चरों में चूमने में कि देखकर लगता है कि अगले के होंठ न हुये कोई सार्वजनिक सम्पत्ति हो जिसे नोचकर लोग अपने घर ले जाना चाहते हों।

प्रगाड़ चुम्बन में जुटे होंठ बिजली के पिन और साकेट सरीखे लगते हैं। जहां कनेक्शन हुआ नहीं कि मोहब्बत की बिजली दौड़ने लगती है।जरा देर तक बही करेंट तो बहुत देर तक झटका मारती रहती है। सांस उखड़ने लगती है। बेदम हो जाते हैं लोग। बाद में ताजादम भी।

सूरज भाई भी लगता है ’चुम्बन दिवस’ पूरे उल्लास से मना रहे हैं। हर कली को, फ़ूल को, पत्ती को, घास को, मिट्टी को, सड़क को, कगूरे को एक समान प्रेम से चूम रहे हैं। हमको देखा तो हमारे गाल पर भी धर सी एक ठो पुच्ची।

फ़िलहाल आप मजे से जैसा मन करे वैसे मनाइये ’चुम्बन दिवस’। हम तो चाय के कप को चूमते हुये चाय की चु्स्की के साथ मना रहे हैं ’चुम्बन दिवस।

'चाय' के साथ 'चुम्बन' जोड़ने से अनुप्रास अलंकार भी हो गया। और कुछ हो न हो लेख के अंत की छटा दर्शनीय हो गयी।

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पढ़ाई का जज्बा




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Tuesday, February 09, 2016

वर ‘अनूप’ को ‘सुमन’ सदृश सुरभित झंकृत उर तार मिला


अनूप -सुमन फोटो सौजन्य अनन्य
.....और मजाक-मजाक में 27 साल फुर्र हो गए साथ-साथ चलते।
कंटकवर ‘अनूप’ को ‘सुमन’ सदृश सुरभित झंकृत उर तार मिलाजी का स्वागतगीत सुनाई दे रहा है:
'बरसों बाट जोहते बीते था नयनों को कब विश्राम ,
सहसा मिले खिला उर उपवन सुरभित वंदनवार ललाम।

जीवन पथ पर मिले इस तरह जैसे यह संसार मिला।'
स्वागतगीत पूरा सुनने मन हो तो यहां पढ़/सुन सकते हैं : (http://fursatiya.blogspot.in/2010/02/blog-post_19.html )
ये 'सुरभित झंकृत उरताल' जबसे मिला है तबसे (सच्चाई और समझदारी के तकाजे के तहत) हम यही कहते आये हैं- ' हमारे जीवन और परिवार में जो भी अच्छा हुआ है उसके पीछे सुमन की मौजूदगी अहम कारण रही। अम्मा तो जब तक साथ रहीं कहतीं रहीं-'गुड्डो,अगर नहीं होती तो हम इतने दिन नहीं जी पाते।'


शादी की सालगिरह का केक
25 वीं सालगिरह में अम्मा साथ थीं। बगीचे में सब लोग इकट्ठा हुए थे और निरुपमा दीदी ने हम दोनों के लिए रची अपनी कविता (सलोनी पच्चीसवीं उमर को मुबारक हो) पढ़ी थी।






Kiran दीदी ने सुबह-सुबह हमारी शादी की सालगिरह का नगाड़ा बजा दिया। हमारी खूब तारीफ़ भी करी। हम यही सोच रहे हैं -'मैन इज नोन बाई द कंपनी ही कीप्स।' सुमन-संगत का असर है यह तारीफ़।
ये कविता पहली मुलाकात पर लिखी गयी थी:

दीदी की कविता अनूप-सुमन की 25 वीं सालगिरह पर
"तुम
कोहरे की चादर में लिपटी
किसी गुलाब की पंखुड़ी पर
अलसाई सी ठिठकी
ओस की बूँद हो।

नन्हा सूरज
तुम्हें बार-बार छूता
खिलखिलाता है।
मैं सहमा सा
दूर खड़ा
हवा के हर झोंके के साथ
तुम्हें गुलाब की छाती पर
कांपते देखता हूँ।
अपनी हर धड़कन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम फूल से नीचे न ढुलक जाओ।"

इसके बाद फाइनल शेर लिखकर कलम माने कि माउस तोड़ दिया:
'तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
कि भीग तो पूरा गए, पर हौसला बना रहा।'



27 साल का साथ काम भर का लंबा साथ होता है। बकौल अनूप सेठी इतने समय में :

'पति-पत्नी आपस में घिसकर सिलबट्टा बन जाते हैं।'


सुमन फूलों की संगत में
27 साल में पता नहीँ यह कविता कितनी कारगर हुई हमारे ऊपर लेकिन लगता है कि तमाम मौलिक अनगढ़ता और बेवकूफियां हमने अभी तक बचा के रखी हैं। इसका पुख्ता प्रमाण तब और मिल जाता है जब गाहे-बगाहे सुनने को मिले-'इतने साल हो गए लेकिन तुमको हम सिखा नहीं पाये।'

अब तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं। बड़े होते बच्चे कब अभिभावक सरीखे हो जाते हैं, पता नहीं चलता। बड़े बच्चे ने कल केक भेजा और आज पिक्चर देख आने के लिए कहा है। पैसे उसकी तरफ से। पिक्चर तो शाम को देखी जायेगी। अभी तो गुलगुले खाते हुये आपसे कह रहे हैं केक खाइये। :)


दीदी ने दो साल पहले अपनी कविता में आदेश दिया था:

"मुबारकों की बेला में
आओ सुमन अनूप बढ़ चलें
अपने प्यारे कारवाँ के साथ
शादी के पच्चीसवें मोड़ के आगे.....
प्यार से प्यार के साथ
सदियों से दुर्लभ रहे प्यार के लिए।"
तो भैया हम तो आगे बढ़ लिए। आप भी आइये साथ में। गुलगुला भी खिलाएंगे। :)
हमारी शादी के किस्से पढने का मन करे तो यहां आइये :
http://fursatiya.blogspot.in/2005/01/blog-post_25.html


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207290023462324

Monday, February 08, 2016

शहंशाह भिखारी

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Saturday, February 06, 2016

बीड़ी से बीड़ी जलती है

कल लंच के समय हम फैक्ट्री के सामने की सड़क पर दो साईकिल सवार अगल-बगल खड़े होकर बतियाते दिखे। एक दूसरे की विपरीत दिशा में साइकिलें समानांतर पटरियों पर खड़ी अप-डाउन रेलगाड़ियों सरीखी लग रही थी। साइकिल सवार कुछ देर बात करने के बाद बीड़ी सुलगाते हुए चलने को हुए।

बीड़ी सुलगाकर साथ में पीते हुए साइकिल सवारों को देखकर केदारनाथ अग्रवाल की कविता पंक्ति याद आ गई:
"बीड़ी से बीड़ी जलती है।"

हमारे साइकिल के पास पहुंचने तक एक साइकिल सवार जा चूका था। दूसरे भी पैडल मारने की तैयारी में थे कि हम उनके पास पहुंचकर बतियाने लगे।

साइकिल पर पानी के प्लास्टिक के डब्बों में पानी भरकर ले जा रहे थे। यही बातचीत शुरू करने का माध्यम बना। हमने पूछा-'कहाँ से पानी भर के ला रहे?' बोले-'मेस से। कंचनपुर में रहते हैं। वहां पीने का पानी ठीक नहीं आता।'

बात शुरू हुई तो फिर काफी हुई। अपने बारे में बताया साइकिल सवार ने। 2008 में वी ऍफ़ जे से रिटायर हुए। टेलीफोन एक्सचेंज से। छपरा के रहने वाले हैं। अब यहीं बस गए। कंचनपुर में रहते हैं। मकान खरीदा था। फिर बेंचकर नातियों की शादी की। अब किराये के मकान में रहते हैं।

एक लड़का था। 40 साल की उम्र में गुजर गया। मोटर साइकल से जा रहा था। एक सांड ने टक्कर हो गई। खम्भे से टकरा गया सर। नहीं रहा।

हेलमेट नहीं पहने था? पूछने पर बोले-'नहीं। यहाँ कोई हेलमेट नहीं पहनता हैं। देखते हैं कितने लोग जा रहे हैं दुपहिया पर। पहने हैं कोई हेलमेट?'

हमारे देखते-देखते कई मोटरसाईकल/स्कूटर वाले गुजरे वहां से। बहुत कम हेलमेट पहने थे। पेट्रोल पम्प पर बिना हेलमेट पेट्रोल देना मना है। वहां भी लोग एक दूसरे का हेलमेट पहनकर पेट्रोल भराते हैं।

अपने बारे में बताते हुए बोले प्रभु- 'बाईपास कराये थे।' सीना खोल के अपने कृत्तिम दिल (पेसमेकर) दिखाए। बोले- 'ये डाक्टर गड़बड़ लगाया। काम नहीं करता। कन्ज्यूमर फोरम में जायेंगे। पैसा वापस लेंगे। दूसरा ये वाला दिल्ली से लगवाये हैं। अच्छा काम करता है।'

सीजीएचएस की दवाओं के बारे में बताया-'सुबह से दोपहर तक लाइन लगाओ तो झोला भर दवा दे देते हैं। बहुत भीड़ होती है।'

बातों के दौरान पता चला कि उनका नाती भी कुछ दिन पहले नहीं रहा। पेट में दर्द हुआ। नहीं रहा। दुःख पर दुःख। बस हौसला बना है। जब खुद की देखभाल के लिए बच्चे होने चाहिए तब वो बच्चों और उनके बच्चों की देखभाल कर रहे हैं।

हमारे बारे में पूछा। बोले-'ट्रांसफर करा के जल्दी से कानपुर जाइये। नियम है जब कि पति-पत्नी सरकारी नौकरी में हो तो एक जगह रहना चाहिए तो होगा कैसे नहीं। कराइये ट्रांसफर। जाइए।'

हम बोले-'हाँ लगे हुए हैं कोशिश में।'

एक आदमी जो कि अनजान होता है पांच मिनट पहले उससे दुःख/सुख बतिया लीजिये तो आपका कितना हितचिंतक हो जाता है। है न ?

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दफ्तर है, दूरी है, दुनिया के लफ़ड़े हैं मेरी वेलेंटाइन

मेरी मोहब्बत को तू बस, कुछ ऐसा समझ ले भाई,
स्विस बैंक में जमा काला धन, घर ला नहीं सकता।

मेरे दिल की सब जमा मोहब्बत तू अपने नाम समझ,
औ मजबूरी भी समझ, तुझे इसे दिखा नहीं सकता।

दफ्तर है, दूरी है, दुनिया के लफ़ड़े हैं मेरी वेलेंटाइन,
पत्ती, चीनी, दूध भी है, पर तुझको चाय पिला नहीं सकता।

-कट्टा कानपुरी

कैसर पीड़ितों का फरिस्ता

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Friday, February 05, 2016

बच्चों को पालना है चोरी-चमारी से बचाना है, इसलिए दारु नहीं पीते



मुन्ना पुलिया के पास खड़े अपनी झाड़ू ठीक करते हुए
मुन्ना मिले आज सुबह पुलिया पर। सड़क बुहारने वाली झाड़ू की सींके ठीक कर रहे थे। झाड़ू आसमान की तरफ और पीठ सूरज की तरफ किये। और कोई होता तो बुरा मान जाता अपनी अवहेलना से लेकिन सूरज भाई इस सबसे बेखबर शहंशाहों की तरह धूप, उजाला और गर्मी सप्लाई करते रहे।

मुन्ना से उम्र पूछी तो बोले 35 साल। फिर बोले 45 साल। हमने कहा -'हमने पहले कभी तो कभी देखा नहीं तुमको पुलिया पर या आसपास।'

'लेकिन हमतो अक्सर/ रोज देखते रहते हैं आपको।' मुन्ना बोले।

'बाप हमारे मिलिट्री से रिटायर होकर जीसीएफ में भर्ती हुए। फिर वहां से रिटायर होकर कुछ दिन जिए। दारु बहुत पीते थे। तबियत खराब हो गयी। मर गए। माँ भी नहीं रही।'- मुन्ना ने अपने पिता के बारे में बताया।
'तुम नहीं पीते दारु ? -हमने पूछा।'

'कहां से पिएंगे? चार हजार रूपये महीने में ठेकेदार देता है। दो बच्चियां हैं। बीबी है।दारु पिएंगे तो परिवार कहाँ से पालेंगे।' -मुन्ना ने मुझे समझाया।

दो बेटियां हैं मुन्ना की। नाम बताया-निहारिका मलिक और अंशिका मलिक। कक्षा 8 और कक्षा 7 में पढ़ती हैं। हजार रूपये महीने फ़ीस के चले जाते हैं। साल के शुरू में दस/बीस हजार एडमिशन में लग जाते हैं।
सफाई के काम के अलावा सूअर पालने का काम करते हैं मुन्ना। उससे कुछ आमदनी हो जाती है।


हमने कहा जरा इधर मुंह करो तो करके फोटो खिंचा लिए मुन्ना
'बच्चों को पालना है। चोरी-चमारी से बचाना है। इसलिए दारु नहीं पीते।' -मुन्ना ने कहा।

पैसे नहीं हैं इसलिए नहीं पीते। मतलब मन करता है पीने का। -मैंने पूछा।

'अरे मन तो बहुत कुछ करता है। लेकिन मन की करेंगे तो बच्चों की परवरिश कैसे होगी। इसलिए नशा नहीं करते'- मुन्ना ने कहा।

लेकिन दांत से लगता है पान/मसाला तम्बाकू खाते हो। - मैंने कहा।

हम तम्बाकू कभी-कभी खाते रहते हैं। आदत पड़ गयी है। इसके अलावा और कोई नशा नहीं करते। -मुन्ना बोले।

खुद को हरिजन बताया और बोले , कड़वा करतार हमारे कुल देवता हैं।

हमने कड़वा करतार का नाम पहली बार सुना। पता नहीं कि ये देवता 33 कोटि देवताओं में शामिल हैं या वहां से 'बिरादरीबदर' हैं।

फोटो दिखाई तो मुन्ना ने मोबाईल में घुसकर देखी। दिखाकर हम दफ्तर चले आये। मुन्ना सड़क बुहारने लगे होने। हम फ़ाइल निपटाने लगे। अपनी-अपनी रोजी कमाने में जुट गए दोनों लोग।  :)

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