Wednesday, November 30, 2016

हिन्दी साहित्य में रहना है तो लंगोट को मजबूत रखें


1. हिन्दी साहित्य में लंगोट का पक्का होने तथा लंगोट रक्षा की पुरानी परम्परा है। एक पवित्र परम्परा के तहत जोर इस बात पर है कि रचना चाहे कमजोर हो, पर लंगोट की पक्की हो।
2. रचना में अश्लीलता न आने पाये , इस पर हिन्दी साहित्य के वयोवृद्ध किस्म के बुजुर्गों तथा जवानों की नजर है। इस चक्कर में रचना का कचरा होता हो, तो हो!
3. हिन्दी कहानी, कविता या लेखों में अश्लीलता कहीं से प्रवेश न कर जाये, इसके लिये हिन्दी के पुरोधा किस्म के साहित्यकार रात-रात भर ड्यूटी पर जागते हैं, किसी कुंवारी, जवान बेटी के बाप की तरह।
4. कच्ची लंगोट के साथ हिन्दी साहित्य के अखाड़े में उतर रहे हो? इधर ब्रह्मचारी चाहिये।
5. हिन्दी में लंगोटी-युग , हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारम्भ से जमा हुआ है।
6. हिन्दी में अश्लील रचनायें नहीं चलेंगी। इसके लिये हिन्दी के पाठ्कों को अंग्रेजी साहित्य देखना होगा। हम स्वयं भी वही देखते हैं।
7. बदमाशी और भारतीय संस्कृति साथ-साथ चलतीं रहें। हिन्दी कहानी पारिवारिक बनी रहे तथा अपनी मां-बहनों को पढ़वाने लायक रहे( दूसरों की मां-बहनों को पढ़वाने लायक साहित्य अंग्रेजी से लेकर हम स्वयं उन्हें देकर आयेंगे)
8. हिन्दी कहानी की नायिका नितान्त चरित्रवान रही है। कोई उस पर उंगली नहीं उठा सकता। वह नायक को भी हाथ नहीं धरने देती।
9. क्रांतिकारी प्रेम नहीं करता और हिन्दी में कई वर्षों से घनघोर क्रांति चल रही है।
10. हिन्दी कहानी की नायिका चिरकुंआरी है। वह चरित्रवती है। हिन्दी कहानी का नायक चरित्रवान है। जहां तक लेखक का सम्बन्ध है, वह तो बीसों बार लड़कियों से पिटने के बावजूद चरित्रवान है ही। हिन्दी साहित्य का हेडआफ़िस चरित्रवान एंड चरित्रवान लिमिटेड जैसा हो गया है।
11. हिन्दी साहित्य में रहना है तो लंगोट को मजबूत रखें। कसकर बांधे। बांधकर रखें।
12. कलम की लंगोट ढीली हुई, कि हमने हिन्दी से बाहर किया।
ज्ञान चतुर्वेदी के लेख ’हिन्दी साहित्य में लंगोट रक्षा’
यह लेख ज्ञानजी के व्यंग्य संकलन ’खामोश ! नंगे हमाम में हैं’ में संकलित है। यह संकलन पहली बार राजकमल प्रकाशन से 2002 में आया। 2015 में पेपरबैक संस्करण आया। ’हम न मरब’ में प्रयुक्त गालियों पर लिखे दिलीप तेतरबेे Dilip Tetarbe जी के लेख और बाद में Suresh Kant जी की इस बारे में की आलोचना के जबाब शायद ज्ञान जी ने पहले ही तैयार कर रखे थे।
किताब आन लाइन खरीदने का लिंक ये रहा http://rajkamalprakashan.com/…/khamosh-nange-hamam-mein-hai…

Monday, November 28, 2016

आदमी का प्रवासी हो जाना

पिछले हफ़्ते एक शादी के सिलसिले में दिल्ली जाना हुआ। नोयडा में रुकना! गाजियाबाद स्टेशन से नोयडा जाते हुये देखा दोपहर को एटीएम के बाहर लम्बी लाइन लगी थी। जगह कम होने के चलते गुड़ी-मुड़ी हुई सी लाइन। कानपुर और गाजियाबाद एक सरीखे से ही लगे।

नोयडा से दिल्ली की 50 किमी का सफ़र तय करने में ढाई घंटे लगे। सड़क भले चकाचक बन जाये लेकिन ट्रैफ़िक फ़ुल जाम मय। नया हाईवे भले लखनऊ से दिल्ली साढे तीन घंटे में पहुंचाने का दावा करे लेकिन लगता है नोयडा से दिल्ली की दूरी समय के हिसाब से ऐसी ही रहेगी।

जहां रुके थे सुबह वहां टहलने निकले। कालोनी के बाहर सब्जी की दुकान धरे राजकुमार गुप्ता मिले। गोपालगंज, बिहार से आये थे1998 में नोयडा। जंगल था तब सब यहां। अब जगह मिलना मुश्किल। 18 साल में देखते-देखते नोयडा एकदम्मे बदल गया। पहले खुद आये, फ़िर परिवार लाये। थोड़ी जमीन लेकर मकान बना लिये हैं पास के ही सेक्टर में। खुद आठवीं पास है। बेटा बीए में पढ़ता है। बिटिया भी स्कूल जाती है। उन दोनों को सिर्फ़ पढाने में लगाये हैं। काम-धाम से नहीं जोड़े।

हर तरह की सब्जी धरे हैं दुकान पर। गाजियाबाद से लाते हैं सब्जी। घरों में भी डिलीवरी देते हैं। आसपास के लोग फ़ोन करके आर्डर देते हैं। वे घर पहुंचा देते हैं। साथ में लड़के को रखे हैं। 5000 रुपया महीना देते हैं उसको। नोटबंदी के चलते थोड़ा बिक्री में फ़र्क पड़ा लेकिन अब पेटीएम ले लिये हैं।

जब आदमी प्रवासी हो जाता है तो उन बदलावों को भी सहजता से स्वीकार कर लेता है जिसको अपने घर में रहते हुये शायद उतनी जल्दी न स्वीकारता। बिहार का आदमी जब नोयडा पहुंचता है तो हर तरह के बदलाव को फ़ौरन स्वीकार कर लेता है। यही अगर बिहार मतलब घर में रहते होते गुप्ता जी तो अभी तक भुगतान के लिये वैकल्पिक तरीका अपनाने में समय लगाते।

नोयडा/दिल्ली में सेवा प्रदाता ज्यादातर बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं। एक दिन की हड़ताल कर दें तो बैठ जाये दिल्ली/नोयडा ! लेकिन प्रवासी आदमी हड़ताल के लिये थोड़ी आता है। काम के लिये आता है।
बिहार जाते रहते हैं गुप्ताजी। इस बार छ्ठ पर जा नहीं पाये रिजर्वेशन के चलते। यहीं नोयडा में एक तालाब किनारे मनी छठ।
पास में ही रजाई भरने की दुकान पर सोनू मिले। मुरादाबाद के रहने वाले । गर्मी में कूलर का धन्धा करते हैं। जाड़े में रजाई भरने का। मतलब साल भर मौसम की मार से बचाने का काम करते हैं।।दिल्ली में सीखे एक दुकान पर कूलर का काम। रजाई का काम अपने बहनोई से सीखे। आठ-दस साल पहले आये थे दिल्ली। पास के ही सेक्टर में किराये पर रहते हैं।
रजाई अगर रुई, कपड़ा खुद का हो तो डेढ सौ रुपये में बना देते हैं। दुकान से लेने पर छह औ से सात सौ रुपये की पड़ती है रजाई। तीन से साढे तीन किलो तक रुई लगती है एक रजाई में। रुई भी अलग-अलग तरह की। डेढ सौ से सौ रुपये किलो तक की। जैसी मन आये भरवा लो। बात करते, काम करते रहे सोनू। हम तो ठेलुहा सो बतियाते रहे।
लेकिन आज तो हमको जाना है भाई दफ़्तर। हम चलें। आप मजे करो। शुभ दिन !

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Sunday, November 27, 2016

नये नोट-पुराने नोट



पिछले दिनों पुराने नोट बन्द हुये। नये चालू हुये। कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश एक हो गया। मिजोरम से महाराष्ट्र तक पूरा राष्ट्र एटीएम की लाइनों में खड़ा हो गया। सबका उद्धेश्य एक ही, पैसा निकालना। सबकी मंशा एक ही, बस किसी तरह एटीएम पैसा उगल दे। कष्ट सबको था लेकिन लोगों की मंशा में बदलाव नहीं आया। कर्म और विचार से पूरा राष्ट्र एक दिखा। जिस तरह लोग दरभंगा में खड़े थे उसी तरह दिल्ली में, जैसे जबलपुर में सीधे पैरों लाइन में लगे थे वैसे ही जामनगर में अपने पैरों पर खड़े मिले लोग। धर्म, क्षेत्र, भाषा, जातिभेद भूलकर लोग लाइनों में लग गये। नोटबंदी ने लोगों को एकात्म कर दिया। लोगों के शरीर भले अलग दिखे लेकिन ध्येय एक ही - “किसी तरह नोट निकल आयें एटीएम से।“
अद्भुत राष्ट्रीय एकता का मुजाहिरा हुआ नोटबंदी के बाद। सरकार और विपक्ष दोनों जनता की भलाई की चिन्ता में जुट गये। पूरा विपक्ष सरकार के विरोध में फ़ेवीकोल लगाकर साथ खड़ा हो गया। पूरी सरकार विपक्ष के मुकाबले एकजुट हो गयी। जनता अपना भला चाहने वालों से निर्लिप्त एटीएम की लाइन में खड़ी हो गयी। पूरा देश नोटबंदी पर बयान जारी करने लगा। नोटबंदी की परेशानियों के तेज में बाकी समस्याओं की आंखें चौंधियां गयीं। वे सब इकट्ठा शर्मिंदा सी होकर नेपथ्य में चली गयीं। सारे चैनल, अखबार, समाचार नोटबंटी पर बात-बहस करने लगे। पूरा देश नोटबंदी के बहस महासागर में छप्प-छैयां करने लगा। सम्पूर्ण राष्ट्र एटीएम से नोट पाने के एकमात्र ध्येय को पूरा करने में जुट गया। ऐसी दुर्लभ राष्ट्रीय एकता की भावना पर दुनिया के सारे सुख न्यौछावर। ऐसी एकता देखकर हमारे प्रचार से परहेज करने वाले मित्र ने नाम न बताने की शर्त पर सुझाव दिया -“जब भी देश में कभी राष्ट्रीय एकता पर कोई आंच आये, फ़ौरन नोटबंदी लागू कर देनी चाहिये।“
जो बड़े नोट कभी बाजार के बादशाह थे उनके हाल कौड़ी के तीन भी न रहे। जिनको तिजोरियों, तहखानों में छिपाकर रखते थे उनको लोग अवैध बच्चों की तरह कूड़ेदान में फ़ेंककर चलते बने। जिनके बिना बाजार का पत्ता तक न हिलता था वे खुद ही चलने-फ़िरने के मोहताज हो गये। बड़े नोटों के हाल दफ़्तरों के उन बड़े अधिकारियों की तरह हो गये जिनको उनकी बर्खास्तगी के बाद उसी दफ़्तर में घुसने की जगह न मिले जिसमें घुसने के लिये पहले उनकी अनुमति चाहिये होती थी।
नये नोटों के आने में देरी के चलते थोड़ी परेशानी हुई। जानकार लोगों के हिसाब से नोटों के बाजार में आने में देरी का कारण पहले तो यह हुआ कि ’सोनम गुप्ता’ ने नये नोट पर आटोग्राफ़ देने में देरी की। दूसरा और बड़ा कारण यह रहा कि जिनको नोट छापने थे वे बेचारे खुद नोट निकालने की लाइन में लगे थे। गोपनीयता के चलते उनको पता ही नहीं चला कि उनको ही नोट छापने थे। नोटों में छपने में हुई एकाध गड़बड़ी का कारण भी लोग यही बताते हैं नोट का डिजाइन फ़ाइनल करने वाले भी नोट निकालने की लाइनें में लगे थे। धक्कामुक्की में देख ही नहीं पाये और डिजाइन फ़ाइनल कर दिया। जब गलती पता चली तब तक नोट छपकर बाजार में टहलने लगे थे। और बाजार में तो पहुंचकर चाहे आदमी हो या नोट खर्च होना ही उसकी नियति होती है।
नोटबंदी का फ़ैसला देश में कालेधन पर अंकुश लगाने की मंशा हुआ। कालेधन को जैसे ही यह पता चला वह फ़ौरन खूब सारा सफ़ेद रंग खरीदकर ले आया और अपने को पूरी शिद्धत से सफ़ेद करने में जुट गया। जाकर जन-धन खातों के सफ़ेद तालाब में छुप गया, पेट्रोल पम्पों के टैंक में डूब गया, बैंक मैनेजरों को अपना कुछ अंश देकर सफ़ेद वर्दी पहन ली, सर्राफ़ा बाजार में जाकर सलवार-कुर्ता पहनकर फ़ूट लिया, भूखे-नंगों के खातों में जमा हो गया।
युद्धस्तर पर सफ़ेद होने लगा कालाधन। सफ़ेदपोशों के साथ खड़ा होकर ’काले धन’ के खिलाफ़ नारे लगाने लगा। नारेबाजी के बीच जैसे ही मौका मिलता वह सामने खड़े कालेधन को अपने में घसीटकर उसको सफ़ेद कर लेता और उससे भी कालेधन के खिलाफ़ नारे लगवाने लगता। कालाधन सफ़ेद होते ही कालेधन की बुराई में उसी तरह से जुट जाता जिस तरह जनप्रतिनिधि दलबदल करने के बाद पहले वाले दल की बुराई में जुट जाते हैं।
नये नोट के हाल घर में आई संयुक्त परिवार की उस बहू सरीखे हैं जिसकी चुटिया-कंधी की उमर बीतते ही ऐसे घर में शादी कर दी गयी हो जहां आते ही उसकी सास खतम हो गयी हों। हरेक की फ़र्माइश पूरी करते-करते बेचारे के हाल खराब हैं। कुल नोटों की जरूरत का 14% नोट बाजार में मौजूद हैं। बाजार के हाल ऐसे टापर बच्चे जैसे हैं जिसका एन इम्तहान के पहले पूरा सिलेबस और विषय बदल दिया गया हो फ़िर भी आशा की जाये कि वह इम्तहान में टाप ही करे। बेचारे के दिन की नींद और रात के चैन हराम हैं।
इसी बीच खबर आई कि उधर जन्नत में शाहजहां ने धूप में मूंगफ़ली टूंगते हुये औरंगजेब से शिकायती लहजे में कहा - “ तूने मुझे इमारतें बनवाने में फ़िजूलखर्ची के चलते मुझे कैदकर लिया था। अब देख कि मेरा बनवाया हुआ लालकिला अपने देश के लोगों के कितना काम आ रहा है। 500 रुपये के नोट पर कितना फ़ब रहा है लालकिला। कितना अच्छा लग रहा है यह देखकर कि पूरा हिन्दोस्तां मेरी बनवाई इमारत वाली रकम से खरीदकर रहा है। लग रहा है अभी हमारी हुकूमत काबिज है समूचे हिन्दोस्तां में। “
औरंगजेब का मन तो किया अपने अब्बाजान को किसी एटीएम में तब तक खड़ा रखे जबतक 500 रुपये का नोट न निकल आये। लेकिन फ़िर बाप समझकर छोड़ दिया उसने। उसको खर्च के लिये पैसे भी निकालने थे इसलिये चुपचाप एटीएम की लाइन में लग गया।
पुराने नोट नये नोट पर फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी नये नोट निकलने के बाद !

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Saturday, November 26, 2016

अरविन्द तिवारी के उपन्यास ’शेष अगले अंक में’ के कुछ और पंच



1. भ्रष्टाचार एक ऐसा जन्तु है जिसकी घ्राण शक्ति पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी जन्तुओं से अधिक पावरफुल होती है।
2. पिछले दस वर्षो से दोनों अखबारों के बाजार भाव स्तंभ में कोई संषोधन नहीं हुआ था। प्रैस लाइन की तरह ये भाव अपरिवर्तनीय थे।
3. लोकल कवि, लोकल बस, लोकल नेता, लोकल सब्जीमंडी, लोकल साँड़ों के बाद इन दोनों अखबारों को प्रमाणिक रूप में लोकल वस्तु माना जाता था।
4. इस बात की मैं गारंटी देता हूँ कि ये पत्रकार आपके पीछे नहा धोकर नहीं पड़े हैं, सर! सच बात तो यह है इन पत्रकारों में से अधिकांष नहाते ही नहीं। दो तीन पत्रकारों को खुजली हो गई है।
5. अतिरिक्त गोभी आने पर जैसे सब्जी मण्डी का विस्तार हो जाता है, उसी तरह चुनाव घोषित होते ही राष्ट्रीय और राजस्तरीय समाचार पत्रों ने अपने पेज बढ़ा दिये।
6. अपनी जिन्दादली और शराबनोशी के कारण वे पतझड़ से वसंत ऐसे खींच लाते थे, जैसे अकाल के बावजूद जिले में अच्छी फसल होने का प्रैस नोट जारी करते थे।
7. पी आर ओ साहब सच-सच बताना नागौर में जिला स्तर के अधिकारियों की हालत कीचड़ में फंसी कुतिया जैसी नहीं है!
8. वे समझ गए थूकने का पत्रकारिता से कोई गहरा सम्बन्ध है। पहले कन्हैयालाल स्नातक ने अधीक्षण अभियंता की हथेली पर थूक कर विज्ञापन हासिल किए और अब इस हौजरी के व्यापारी ने उनके पाजामे पर थूक दिया।
9. वैसे वे जेबकट थे, पर 1942 में कांग्रेस में शामिल हो गए थे।
10. जब से के0के0 गोस्वामी नगरपालिका अध्यक्ष बने हैं, पत्रकारों का हाजमा खराब चल रहा है।
11. विज्ञापन का अर्थ है सरकारी विज्ञापन। और सरकारी विज्ञापन मिलते नहीं झपटने होते हैं।
12. मिस आरती के बारे में कहा जाता है कि पत्रकारों ने उनके खिलाफ इतना अंट षंट छापा कि मजबूर होकर उन्हें पत्रकारिता में उतरना पड़ा।
13. कालूजी की चीकट बनियान से कुछ स्वेद बिन्दु बेसन के घोल में गिर रहे थे। संभवतः घोल में नमक कम था, जिसकी पूर्ति के लिए स्वेद बिन्दु सायास गिराये जा रहे थे।
14. औसत देखें तो जब से ‘प्रदेश समाचार’ निकलना शुरू हुआ तब से उसमें प्रतिमाह एक सेक्स स्कैण्डल जरूर छपता रहा है।
15. धुंआधार वीर रस से कवि थे और उनकी कविता को सहन करने की अपेक्षा उनकी पत्रकारिता को सहन करना हमेषा आसान लगा।
16. साहित्यिक आयोजनों का नाम सुनते ही पी आर ओ दफ्तर की जीप बीमार हो जाती, जबकि किसी मंत्री या अन्य वी आईपी के दौरों पर यह जीप तेजी से दौड़ती।
17. नागौर के अनेक सप्ताहिक समाचार पत्रों की तरह यह निजी बस रुक-रुक कर चल रही थी।
18. सड़क के गड्डे कहीं कोई देख न ले, इसलिए नगरपालिका ने इस सड़क से अपनी ट्यूब लाइटों को हटवा लिया।
19. दोनों कुत्तों की हालत गधे ने ऐसी कर दी, जैसे मंहगाई आम आदमी के थोबड़े की करती है।
20. अपने सीने पर हाथ रखकर कह दो, सेठ लखनचंद की बीवी को एक तरह से अपनी बीवी नहीं बना लिया आपने। इससे ज्यादा चटपटी खबर राम अकेला का बाप भी नहीं छाप सकता।
21. ‘नई दिशा’ के नागौर संवाददाता मनीष ने बी0एस0सी0 करने के बाद अम्बाला शहर स्थिति एक अखिल विश्व स्तरीय संस्था से पत्राचार के जरिये पत्रकारिता का डिप्लोमा किया।
22. राम अकेला भड़वा है। अपने अखबार में रंडियों के इण्टरव्यू ऐसे छाप रहा है जैसे पूरी उम्र भड़वागिरी करता रहा हो।
23. शाम के समय चैक में गाय, वकील सांड, पत्रकार, गधे, अध्यापक, सट्टेवाले, सुअर, चोर आदि एक साथ खड़े हुए पाये जाते थे।
24. जिस तरह किसी कुतिया के सद्य जन्में बच्चे क्षेत्र विशेेष में धमा-चैकड़ी मचाये रहते हैं, वैसे ही भ्रष्टाचार पानी की टंकी के परिसर में मचाए रहता।
25. उनकी हालत उस मुख्यमंत्री की तरह हो रही थी, जिसे हटाने के लिए विपक्षी दलों के साथ अपने दल के नेता भी जुटे थे, लेकिन मुख्यमंत्री दोनों के बीच बैलेंस बनाकर सत्ता पर काबिज थे।
26. अस्पताल दो मंजिला था और ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए बिल्डिंग के दोनों सिरों पर दो जीने थे, जिनके ऊपर ‘ऊपर जाने का रास्ता’ नामक आध्यात्मिक वाक्य से अंकित बोर्ड टंगे थे।
27. पत्रकारों के अनुसार शैलेन्द्र सुमन ने समुद्र का अवगाह्न कर इस समाचार रूपी रत्न को प्राप्त किया है, जबकि उन्हें तैरना भी नहीं आता!
28. आपने तो पत्राचार से डिप्लोमा किया था, आपके गुरू कहाँ से आ गए।

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Friday, November 25, 2016

रामराज्य में विमुद्रीकरण

जब रामचन्द्र जी लंका विजय के बाद अयोध्या लौटकर आये तो उन्होंने राजकाज संभालते ही कुछ बढ़िया काम करने की सोची। लेकिन भरत जी ने 14 साल में इतनी अच्छी तरह से शासन संभाला था कि उसमें कुछ करने की गुंजाइश ही नहीं बची थी।
लंका जीतकर रामजी को अपना अयोध्या का राजा बनना ऐसा लगा जैसे किसी प्रधानमंत्री को किसी राज्य का राज्यपाल बना दिया जाए।
लेकिन रामजी को तो इस स्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ा। वे तसल्ली से रह थे। वर्षों बाद बिना हल्ले-गुल्ले का जीवन बिताते हुए उनको जो आनन्द मिल उसकी उन्होंने पहले कभी कल्पना तक नहीं की थी।
लेकिन रामजी के 'जे बिनु काज दाहिने बाएं' उनको रोज कुछ न कुछ ऐसा क्रांतिकारी करने के लिए उकसाते रहते जिससे राम जी का अलग से भौकाल बने।रामजी चतुराई पूर्वक मुस्कराते हुए इस झमेले से खुद को बचाये रखते। उनके भक्त लोग उनकी इस रुख से दुखी रहते। लेकिन राम जी का कुछ बिगाड़ पाने में असमर्थ होने के चलते वे बेचारे चुप रहते और उनको कोई क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए उकसाने की नित नई तरकीब सोचते रहते।
एक दिन राम जी कुछ मौज के मूड में थे तो उन्होंने 'दिव्य बुद्धि दल' के प्रमुख से पूछ ही लिया -'क्या क्रांतिकारी करने का सुझाव देते हैं आप मुझे?'
यह पूछते ही सुझावों की झड़ी लग गईं। कुछ आप भी देखिये:
1. आपको लंका पर चढ़ाई करके फिर से उस पर विजय करनी चाहिए। लंका न सही तो किसी पडोसी राज्य पर ही विजय प्राप्त करनी चाहिए।
2. आपको राज्य से त्यागपत्र देकर फिर से राजगद्दी संभालनी चाहिए।
3. आपको राज्य में हरेक नागरिक के यहां छापा डलवाना चाहिये। जो इसका विरोध करे उसे राजद्रोही साबित कर देना चाहिए।
4. आपको सरयू नदी का पानी इस्तेमाल करने पर शुल्क लगा देना चाहिये। इससे राज्यकोष बढ़ेगा।
5. ध्वनि पदूषण रोकने के लिए आपको पूरी अयोध्या नगरी में बोलने पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए।
रामजी इतने क्रांतिकारी सुझाव सुनकर दहल उठे। उन्होंने 'दिव्य बुद्धि बल' प्रमुख की तर्क शक्ति परखने के लिए पूछा - 'जब लंका और सारे पडोसी देश हमारे मित्र हैं तो उन पर हमला करने और उन पर विजय का क्या मतलब ?'
इस पर उत्साहपूर्ण आवाज में प्रमुख ने बताया -'राजा की कीर्ति विजय से ही बढ़ती है। राजकाज अच्छा करने मात्र से राजाओं को कोई याद नहीं करता। इसलिए आपको हर वर्ष किसी न किसी राज्य पर विजय प्राप्त करते रहना चाहिए।'
'लेकिन जब कोई पड़ोसी देश मित्र हो और युद्ध के लिए कोई कारण न हो तो कैसे उस पर हमला कर दें?' - राम जी को मजा आने लगा था बातचीत में।
'पडोसी राज्य से इस बात का आग्रह किया जाए कि वह हमारे राज्य से युद्ध करे। जो राज्य इस आग्रह को मानने से इंकार करे उस पर इसी बहाने से हमला कर सकते हैं कि उसने आपकी युद्ध करने की बात नहीं मानी।' -दिव्यदल प्रमुख का चेहरा चमचमा च तमतमा उठा।
रामजी इस तरह के सुझाव सुनकर चिंतित हो उठे। उन्होंने प्रमुख की सेवा पञ्जिका मंगवाकर देखी। पता चला कि वह अयोध्या आने के पूर्व लंका राज्य का प्रमुख सलाहकार था। राम जी ने उसको फ़ौरन 'दिव्य बुद्धि बल' विभाग से हटाकर ' दिव्यांगबुद्धि बल' दल में भेजा और भाई भरत को बुलाकर मंत्रणा की कोई ऐसा काम बाकी रखा हो भरत जी ने जिसे करके राम जी अपने भक्तों की ' कोई क्रांतिकारी काम' करने की इच्छा को पूरी कर सकें।
भरत ने राम जी की परेशानी पर विचार किया और कहा-'भैया, 14 साल तक मैंने आपके आज्ञाकारी सेवक की तरह काम किया। निस्वार्थ भाव से किया तो अब स्वर्ग के देवता लोग भी जब कभी घूमने आते हैं अयोध्या तो कहते हैं काश स्वर्ग में भी अयोध्या जैसी सुविधाएँ होतीं। मैंने सब योजनाओं का नामकरण भी आपके और माता जानकी के नाम ही किया था इसलिए फिलहाल तो नाम बदलने का क्रांतिकारी काम भी नहीँ किया जा सकता।'
राम जी यह सुनकर किंचित उदास हो गए। बोले- 'भैया भरत, कुछ तो छोड़ा होता मेरे करने के लिए। इन भक्त लोगों ने तो मेरा जीना दूभर कर रखा है। अब तुम ही कुछ उपाय सोचो ताकि हम कुछ क्रांतिकारी करने की अपने भक्तों की मांग पूरी कर सकें। जानकी भी दुखी रहती हैं इन मांगों से।'
राम जी के मुंह से जानकी का नाम सुनकर भरत को याद आया। उन्होंने राम से कहा -'भैया , एक काम करिये। मैंने जो मुद्राएं चलाई थीं उनमें आपकी पादुकाओं के चित्र थे। अब उनका कोई मतलब नहीं है। आप मुद्राओं के स्थान पर अपनी और सीता भाभी के चित्र वाली नई मुद्रायें जारी करें। इससे सीता भाभी को भी अयोध्या से जुड़ाव प्रतीत होगा। अभी तक वे यहाँ आने के बाद से कष्ट ही पाती आई हैं।"
राम जी ने शुरुआत में तो ना-नुकुर की लेकिन फिर भरत जी के समझाने पर इस शर्त के साथ मान गए कि नई मुद्रा बस चला देंगे लेकिन पुरानी को फौरन बंद न करेंगे। वैसे भी रामराज्य में कोई काला धन, आतंकवाद , नकली मुद्रा जैसा चलन था नहीं जिसके बहाने पुरानी मुद्रा को फौरन बन्द किया जाए।
नई मुद्रा पर राम-सीता की फोटो थी। चलने लगी वह भी। लोगों ने इसी बहाने राम-सीता के दर्शन किये। लेकिन जैसे भ्रष्टाचार की आदत हो जाने पर लोग साफ़ तरीके से काम करना नहीँ चाहते वैसे ही लोग नई मुद्रा के शुरू हो जाने पर भी पुरानी मुद्रा से ही काम चलाते रहे। लोगों में नए नोट के प्रति ज्यादा रुझान नहीं था।
एक बार जब खुद की फोटो वाली मुद्रा चल गईं तो रामजी को और उनसे ज्यादा उनके भक्तों को लगने लगा कि जो लोग नई मुद्रा व्यवहार में नहीं ला रहे वे जानबूझकर गड़बड़ कर रहे हैं।रामजी के भक्तों ने लोगों के बीच जाकर नई मुद्रा व्यवहार में लाने को कहा। जिन लोगों ने मान लिया उनका तो ठीक। जिन कुछ लोगों ने इसमें ढील दिखाई उनका बहिष्कार करने का आह्वान किया यह कहते हुए:
जाके प्रिय न राम-वैदेही
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही।
मतलब जिन लोगों को राम-सीता के चित्र वाली मुद्राएं पसन्द नहीं हैं उनको दुश्मन की तरह त्याग दिया जाए भले ही वे कितने ही प्रिय न हों।
इसके बाद तो भभ्भड़ मच गया। सब लोगों ने अपनी मुद्राएं बदली। नई राम सीता के चित्र वाली मुद्रा लागू हुई।
इसी में एक क्षेपक कथा भी है। जब सभी लोग नई मुद्रा व्यवहार में लाने लगे तो किसी हनुमान जी से जलने वाले व्यक्ति ने उलाहना दिया कि हनुमान जी तो कोई मुद्रा नहीं रखते। क्या राम-सीता उनको प्रिय नहीं है। कुछ दिन तो गुपचुप बातें हुईं फिर सभी यह सवाल करने लगे।
बात जब हनुमान जी तक पहुंची तब भी उन्होंने कुछ कहा नहीं। लेकिन एक दिन राम दरबार में सरे आम किसी ने टोंक दिया। राम जी ने उसको डपटने के लिए मुंह खोला तब तक हनुमान जी ने भरे दरबार में अपना सीना किसी मंदिर के कपाट की तरह खोलकर दिखा दिया। उनके हृदयस्थल पर राम-सीता की वही मूर्ति बनी हुई थी जो नई मुद्रा में छपी थी।
सभी लोग हनुमान जी की जय बोलने लगे। जिसने उनपर पर आरोप लगाया था उसकी आवाज सबसे ऊँची थी। राम जी ने लपककर हनुमान जी को गले लगाया। अपने राज्य के सारे अधिकार उनको सौंप दिए। तब से लोग कहने लगे:
राम दुआरे तुम रखवारे
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।
मतलब राम के दरबार की आप रक्षा करते हैं। बिना आपकी आज्ञा के कोई राम दरबार में प्रवेश नहीं कर सकता।
कलयुग तक आते -आते इस चौपाई का मतलब बदला और बिगड़कर जो हुआ उससे लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं और मानने लगे हैं कि बिना मुद्रा के दरबार में कोई काम नहीं होता।
कभी-कभी बजरंगबली को यह सब देखकर गुस्सा आता है । मन करता है कि ऐसा करने-कहने वालों पर गदाप्रहार कर दें। किन्तु कर नहीं पाते। आखिर भगवान अपने भक्तों से ही हारते हैं।
बोल बजरंगबली की जय। सियावर रामचन्द्र की जय। सब संतों की जय। दुष्टों का नाश हो। भक्तों का कल्याण हो।

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Wednesday, November 23, 2016

शेष अगले अंक में


किसी किताब को पढ़कर उस पर जैसा महसूस कर रहे हों वैसा ही लिखना मुश्किल काम है। यह मुश्किल तब और बढ़ा जाती है जब लेखक से परिचय हो।सोचा जाता है कि इत्मिनान से लिखेंगे। कोई पहलू छूट न जाए। इसी इत्मिनान और तसल्ली के चक्कर में मित्रों की पढी हुई कई किताबों पर लिखना नहीं हो पाया। लगता है तसल्ली का बहुत इन्तजार करना भी ठीक नहीं होता।
अरविंद तिवारी जी का उपन्यास 'हेडऑफिस के गिरगिट' इसी साल पढ़ा। उसके बारे में जब लिखा ( https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208904124333837 )तो अरविन्द जी ने अपने दूसरे उपन्यास 'शेष अगले अंक में' के बारे में बताया। यह भी कि यह उनका सबसे बढ़िया व्यंग्य उपन्यास है।
मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ कि व्यंग्य लेखन की दुनिया इतनी छोटी होते हुए भी अपने समय के ही लेखकों और उनकी रचनाओं से कितना कम परिचय है अपना। यह तब है जब अपन व्यंग्य की दुनिया के तमाम लोगों से जुड़े हुए हैं। फिर आम जनता इनके बारे में क्या जानती होगी। वह तो भला हो सोशल मीडिया का जिसके चलते कई लेखकों से परिचय हो सका। अरविन्द तिवारी जी भी ऐसे लोगों में ख़ास हैं।
'शेष अगले अंक में' के बारे में पता चलते ही आर्डर किया। समय पर आ भी गया। जबसे आया यह उपन्यास तबसे लगातार साथ रहा मेरे। घर में आते ही दो-चार पन्ने पढ़ते, फिर धर देते। रोचकता इतनी कि लगता अगर एक बार में नहीं पढ़ा तो मजा कम हो जाएगा। जो किताबें अच्छी लगती हैं उनको पढ़ते हुए जितना अच्छा लगता है डर भी कम नहीं लगता कि एकबार जब पूरी पढ़ ली तो इसके बाद क्या पढ़ेंगे। खुदा झूठ न बुलवाये इसी मासूम डर के चलते कई बेहतरीन किताबें अब तक अधपढी, अनपढी रह गयी हैं।
'शेष अगले अंक में' की संगत शुरू हुई पिछले महीने की आठ तारीख से। कलकत्ता गए तो साथ ले गए। जमीन से दस हजार मीटर की ऊंचाई पर पढ़ना शुरू किया। हवाई जहाज की खिड़की से सटाकर फोटो लिया। उतरते समय कलकत्ता शहर की रौशनी से सटाकर फोटो खींचा। मतलब खूब मन लगाकर पढ़ा। दफतर आते-जाते भी साथ आता-जाता रहा यह उपन्यास।
शुरुआत में तो रोचकता की गिरफ्त में आकर जल्दी-जल्दी पढ़ते चले गए। फिर जब आखिर तक पहुंचने लगे तो लगा कि इसके 'पंचवाक्य' पर निशान लगाने चाहिए ताकि उनको पोस्ट किया जा सके। अब दुबारा पढ़ते हुए वह काम कर रहे हैं। तब तक आइये आपको जरा हड़बड़ी वाले अंदाज में ही बता दिया जाए उपन्यास के बारे में।
'शेष अगले अंक में' एक छोटे कस्बे नागौर अखबारी दुनिया के किस्से के बहाने अपने समाज की पड़ताल करने वाला उपन्यास है। छोटे कस्बाई अख़बारों में कैसी खबरें छपती हैं, कैसे पत्रकार होते हैं, कैसे ब्लैकमेलिंग करते हैं अख़बार वाले और कैसे अख़बारों में प्रतिद्वन्दिता होती है इसका बड़ा रोचक अंदाज में चित्रण किया है अरविन्द जी ने। आलोक पुराणिक ने जब इस उपन्यास की समीक्षा लिखी थी तब इसको मीडिया के छात्रों के पढ़ने के लिए जरुरी उपन्यास बताया था।
जनसम्पर्क अधिकारी प्रशांत कुमार शर्मा जिनको गैस की बीमारी है और जिनको अपने को कवि कहलाने की हसरत है के नागौर आने और नागौर छोड़ने के बीच के समय का आख्यान है इस उपन्यास में।
कन्हैयालाल स्नातक का अख़बार 'प्रदेश समाचार' और राम अकेला का 'तलवार' इस उपन्यास के दो प्रमुख स्तम्भ हैं। किस्से-कथानक नागौर, जयपुर आदि घूमते-फिरते हुए इन स्तंभों के आसपास आते रहते हैं। दोनों अख़बारों के संपादक समान रूप से न सही किन्तु नशे को बहुत महत्व देते थे। विरोधी अख़बार होने के चलते दोनों के नशे भी अलग थे। कन्हैयालाल स्नातक शराब के आदी थे जबकि राम अकेला को भांग खाने का शौक था।
अरविन्द जी ने यह उपन्यास अपने अनुभवों की जमीन पर कल्पना के बीज छिड़ककर लिखा है। शुरुआत में अपने कवि सम्मलेनों से जुड़े अनुभव बड़े रोचक अंदाज में लिखे हैं अरविन्द जी ने। इनको पढ़ते हुए 'खोया पानी' के मुशायरे के किस्से याद आये। इन कवियों के लिए इंतजाम का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि -"कवि सम्मेलन में किसी तरह का कोई व्यवधान न हो , इसलिए कवियों को सिर्फ एक बार पानी पिलाने की अनुमति दी गई।"
कवि कैसे थे इसका मुजाहिरा इस बात से लगाया जा सकता है :
" वीर रस के कवियों में एक अखिल भारतीय स्तर के स्थानीय कवि थे धुंआधार। इन दिनों वे पैरोल पर छूटे थे। एम.एल.ए. बनने के सब्जबाग दिखाकर उनके समधी ने उन्हें मूर्तिचोरी के षड्यंत्र में शामिल करके जेल पहुंचाने का राष्ट्रभक्ति पूर्ण कार्य किया था, ताकि जेल में रहकर वे किसी महाकाव्य की रचना कर सकें।"
अनेक मजेदार किस्से हैं जिनके छटाएं उपन्यास में बिखरी हैं। के के गोस्वामी की बवासीर का बियर की खाली बोतल से शौच जाने का इलाज रोचक तरीके से चित्रित किया गया है।
मनीष, पुष्पकुमार और पीआरओ प्रशांतकुमार की जगजाहिर दोस्ती के किस्से हों या फिर रामअकेला के संपादकीय लिखने का कौशल, पुष्पकुमार द्वारा कुंवारे रहने, नौकरी छोड़ने की जिद से होते हुए चुनाव के समय में किसी प्रत्याशी के पक्ष में हवा बहाने के चलाने के चलते पिटने और उसके बाद उनको सुरक्षा गार्ड मिलने का किस्सा हो ये सब बड़े रोचक अंदाज में बयान किये गए हैं।
वीरांगना पत्रकार मिस आरती अकेली महिला पात्र हैं इस उपन्यास में। अब यह अरविन्द जी ने अपने को शरीफ जताने के लिये किया या रागदरबारी( जिसमें बेला एकमात्र महिला पात्र हैं) से प्रभावित होने के चलते किया यह पूछना बाकी है उनसे।
चुनाव के समय पत्रकार कैसे रिपोर्टिंग करते हैं यह के के गोस्वामी के चुनाव और फिर उनके राज्यमंत्री बनने के किस्से में है। एक ही बिल्डिंग के कई उद्घाटन, पानी की टँकी का गिरना जैसे किस्से लोकतंत्र में किस तरह आम हैं यह बखूबी दिखाया है तिवारी जी ने। और तो और उपन्यास आगे बढ़ा तो पुष्पकुमार का विवाह भी करा दिया गया और उनसे दुश्मनी निभाने के लिए उनकी पत्नी का तबादला भी उनके पास ही करा दिया मनीषकुमार और तेजपाल ने।
उपन्यास जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे-वैसे सच्ची पत्रकारिता के दर्शन होते जाते हैं।इसी सिलसिले में नागौर के विख्यात और कुख्यात कवि धुंआधार कहते हैं -"उजड्डता से व्यक्ति गुंडा बनता है। गुंडई काले धंधे करवाती है। काले धंधे से धन उपजता है और धन से अख़बार निकलता है। अख़बार निकालने से व्यक्ति को सुख प्राप्त होता है।"
'शेष अगले अंक में' इसी अख़बार निकालने की प्रक्रिया में अपने -अपने सुख तलाशते कई तरह के किस्से हैं। ज्यादातर किस्से सच्ची घटनाओं पर हैं। उपन्यास पढ़ते हुये उन किस्सों की जानकरी भी अरविन्द जी से होते रहने उपन्यास और रोचक लगा। ऐसा ही एक किस्सा पत्रकार दीनदयाल पत्रकार का है जिनकी साईकल रिपेयरिंग की दुकान थी। जब वे एस.पी. से कवि सम्मेलन के लिए चन्दा लेने जाते हैं और डीएम उनसे खफा हो जाते हैं उसका बड़ा मजेदार चित्रण किया है अरविन्द जी ने :
"जी मैं प्रदेश समाचार का संवाददाता हूँ।
इतना कहने पर भी एस पी ने उन्हें बैठने के लिए नहीं कहा।
कोई बात नहीं , आप काम बताइये।
एस पी साहब का यह वाक्य सुनकर दीनदयाल को लगा कि जिसे वे पंक्चर सोचकर जोड़ने की कोशिश कर रहे थे, वह तो लंबा चौड़ा 'बर्स्ट' है। बिना ट्यूब पकाये ठीक नहीं हो सकता। वे बर्स्ट जोड़ने में जुट गए।"
इसी तरह के तमाम रोचक प्रकरण हैं इस उपन्यास में । जिनका लुत्फ़ इसको खुद पूरा पढ़ने पर ही उठाया जा सकता है।
उपन्यास के कुछ रोचक अंश यानि कि पंचवाक्य मल्लब धाँसू संवाद:
1.संवेदना तो उनके हृदय में कूट-कूटकर भरी थी, जैसे उनके फ्रिज में शराब और बीयर की बोतलें भरीं थीँ।
2.हमारे देश की हुकूमत गधे की तर्ज पर काम करती है। जब तक समस्या विकराल रूप न धारण कर ले तब तक उसके समाधान के लिए हमारे देश की सरकार लात नहीं उठाती।
3. कविता लिखने के लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है इसलिए आरती से इश्क करना उसकी मजबूरी थी।
4. चुनाव प्रचार उस ऊंचाई पर जा पहुंचा था जिस ऊंचाई पर पहुंचकर अक्सर प्रेमी-प्रेमिका या तो विवाह कर लेते हैं या फिर साथ-साथ आत्महत्या।
5. इस देश में आजादी के बाद जितने भी नेता गरीबों के मसीहा सिद्ध हुए , वे अपने पेशे में असफल होने के कारण ही हुए हैं।
6. नगर पालिका में घोटाला नहीं तो नगरपालिका कैसी।
7. भारतीय लोकतंत्र की विशेषता है कि किंगमेकर को भी किंग जैसा सम्मान मिल जाता है।
8. बिना उद्घाटन के राजनीति अधूरी है और बिना राजनीति के उद्घाटन दुर्लभ घटना है।
9. इस देश की राजभाषा जो है , वह पुलिस के डंडे से निकलती है। डंडे की भाषा उत्तर में भी समझी जाती , दक्षिण में भी। पूरब में भी और पश्चिम में भी। इसदेश में पुलिस न होती तो हम कैसे साबित करते , कि देश कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है।
10. जो पत्रकार पत्रकारिता में धुरन्धर हो जाता है, वह अपने से कनिष्ठ पत्रकारों को घास नहीं डालता।
11. राज्य सभा को संसद का पिछवाड़ा कहते हैं।
कुल मिलाकर एक रोचक, पठनीय और चर्चनीय उपन्यास है -शेष अगले अंक में। इसका पढ़ा जाना खासकर व्यंग्य के नए लेखकों के लिए जरुरी है ताकि अपने हलके से जुड़े व्यंग्य उपन्यास लिखने का मन बना सकें। दूसरी बात इसलिए भी इसका पढ़ना इसलिए भी जरुरी है ताकि उनको अंदाज हो सके जिस व्यंग्य में उपन्यास न लिखे जाने का स्यापा किया जाता है वहीँ कैसे एक बेहतरीन उपन्यास चर्चा में नहीं आता। ऐसा साजिशन होता है या अनजाने में यह अलग से चर्चा का विषय है।
'शेष अगले अंक में' पढ़ने के बाद अपनी कही बात दोहराने का मन है । इसको पढ़ने के बाद एक अच्छे उपन्यास को पढ़ने का आनन्द तो मिला ही साथ ही यह भी अंदाज हुआ कि व्यंग्य में जिन लोगों , किताबों का हल्ला है उससे भी इतर बहुत कुछ लिखा गया है जो उनसे कमतर नहीं जिसका हल्ला है। उसको भी पढना चाहिये। यह एहसास बनाने के लिये अरविन्द जी के उपन्यास की फिर से शानदार भूमिका रही।
अरविन्द तिवारी जी को उनके इस बेहतरीन उपन्यास के लिए बधाई। अब उनके कवि सम्मेलनों पर केंद्रित अगले उपन्यास -'लिफ़ाफ़े में कविता' (नामकारण बजरिये -आलोक पुराणिक) का इंतजार है।
उपन्यास का नाम : शेष अगले अंक
लेखक : अरविन्द तिवारी
पृष्ठ : 227
प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन
कीमत: हार्डबाऊंड की आनलाइन 150 रूपये
ऑनलाइन खरीद का लिंक :
http://www.printsasia.in/…/%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B7-%E0%…
इस उपन्यास के बारे में फिलहाल इतना ही। शेष अगली किसी पोस्ट में।
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अरविन्द तिवारी के लेखन से उद्धरण


1.संवेदना तो उनके हृदय में कूट-कूटकर भरी थी, जैसे उनके फ्रिज में शराब और बीयर की बोतलें भरीं थीँ।
2.हमारे देश की हुकूमत गधे की तर्ज पर काम करती है। जब तक समस्या विकराल रूप न धारण कर ले तब तक उसके समाधान के लिए हमारे देश की सरकार लात नहीं उठाती।
3. कविता लिखने के लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है इसलिए आरती से इश्क करना उसकी मजबूरी थी।
4. चुनाव प्रचार उस ऊंचाई पर जा पहुंचा था जिस ऊंचाई पर पहुंचकर अक्सर प्रेमी-प्रेमिका या तो विवाह कर लेते हैं या फिर साथ-साथ आत्महत्या।
5. इस देश में आजादी के बाद जितने भी नेता गरीबों के मसीहा सिद्ध हुए , वे अपने पेशे में असफल होने के कारण ही हुए हैं।
6. नगर पालिका में घोटाला नहीं तो नगरपालिका कैसी।
7. भारतीय लोकतंत्र की विशेषता है कि किंगमेकर को भी किंग जैसा सम्मान मिल जाता है।
8. बिना उद्घाटन के राजनीति अधूरी है और बिना राजनीति के उद्घाटन दुर्लभ घटना है।
9. इस देश की राजभाषा जो है , वह पुलिस के डंडे से निकलती है। डंडे की भाषा उत्तर में भी समझी जाती , दक्षिण में भी। पूरब में भी और पश्चिम में भी। इसदेश में पुलिस न होती तो हम कैसे साबित करते , कि देश कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है।
10. जो पत्रकार पत्रकारिता में धुरन्धर हो जाता है, वह अपने से कनिष्ठ पत्रकारों को घास नहीं डालता।
11. राज्य सभा को संसद का पिछवाड़ा कहते हैं।
अरविन्द तिवारी के उपन्यास 'शेष अगले अंक में' से

Monday, November 21, 2016

महाभारत में नोटबंदी

महाभारत काल में द्रोणाचार्य जी बहुत प्रसिद्ध गुरु थे। तमाम राजकुमारों को ट्यूशन पढाने के चलते दूर-दूर तक उनका नाम था। राजकुमारों को ट्यूशन पढ़ाना तो उनकी मजबूरी थी लेकिन इस बात को उन्होंने इस तरह प्रचारित किया कि जो भी उनके यहां ट्यूशन पढ़ता था वो राजकुमार बन जाता था। यह प्रचार आजकल के बड़े-बड़े कोचिंग संस्थानों की तर्ज पर था जिसमें वे लोग हर इम्तहान के टापर को पकड़कर उसका फ़ोटो लगाते हुये उनसे बयान दिलवाते हैं कि उनकी सफ़लता सिर्फ़ उस कोचिंग में पढ़ने के चलते हुयी। कभी-कभी तो एक-एक टापर की सफ़लता के पीछे इतनी कोचिंगों का हाथ सिद्ध होता है कि यह तय करना मुश्किल होता है कि इतनी कोचिंग में आने-जाने में ही दिन में जितने घंटे लग जाते हैं उतने घंटे तो दिन में होते भी नहीं। खैर !
जब सब राजकुमार पढ-लिख गये तो द्रोणाचार्य खाली हो गये। कोई नया काम करने की सोची। पहले तो विश्वामित्र की तर्ज पर लोगों को सीधे स्वर्ग भेजने का काम शुरु करने की सोची । लेकिन फ़िर जब याद आया कि वे राजा त्रिशंकु को स्वर्ग में इंट्री कराने में असफ़ल रहे थे तो उन्होंने विचार छोड़ दिया।
इसके बाद द्रोणाचार्य जी ने अपनी अच्छे ट्यूटर की धाक का उपयोग करते हुये बड़े कोचिंग संस्थान खोले। जैसे आजकल हर शहरों की ’कोचिंग मंडी’ में लाखों बच्चे इंजीनियर/ डाक्टर बनाने की कोचिंग में भर्ती के लिये भागे चले आते हैं वैसे ही द्रोणाचार्य जी के संस्थान में हर साल अनगिनत बच्चे भरती होने के लिये आने लगे। खूब पैसा पीटा उन्होंने। देखते-देखते द्रोणाचार्य जी की गिनती देश के बड़े धनिकों में होने लगी। उनकी सफ़लता के किस्से चलने, दौड़ने लगे।
ऐसे में ही महाभारत का युद्ध शुरु हो गया। युद्ध की बात तो खैर लोगों ने अपने मन से उड़ा दी है। सच में तो उस समय एक बड़ा चुनाव हुआ था। कौरव और पाण्डव पहले एक ही पार्टी में थे। महाभारत का जब चुनाव हुआ तो दोनों में समाजवादी पार्टी की तरह वर्चस्व की लडाई थी इसलिये भाई-भाई एक दूसरे के खिलाफ़ चुनाव प्रचार में जुट गये।
द्रोणाचार्य कौरवों और पाण्डवों दोनों के गुरु थे। उनके पास जमा पैसे के चलते दोनों उनको अपनी पार्टी में शामिल करना चाहते थे। लेकिन लोकतंत्र में बहुमत के महत्व को विचारते हुये द्रोणाचार्य जी कौरवों की पार्टी में शामिल हो गये और उनके पक्ष में धुंआधार प्रचार करने लगे।
एक दिन ऐसे ही द्रोणाचार्य बीच कुरुक्षेत्र में माइक पर दहाड़ते हुये कौरवों के समर्थन में भाषण दे रहे थे। ऐसे-ऐसे कटाक्ष कर रहेथे पांडवों पर कि उनके हाल बेहाल हो गये। लेकिन कटाक्ष का कोई जबाब न होने के चलते पांडव बेचारे सर झुकाये चुपचाप गुरु जी को बीच मैदान दहाड़ते सुन रहे थे। महाभारत के चुनाव में अपनी लगभग निश्चित पराजय से दुखी हो रहे थे बेचारे पांडव।
उस समय के पांडवों के ’प्रशांत किशोर’ कृष्ण जी ने जब पाण्डवों के ऐसे हाल देखे उन्होंने द्रोणाचार्य की ताकत का कारण पता किया। उनको पता चला कि जब से द्रोणाचार्य जी के पास कोचिंग की कमाई का पैसा आना शुरु हुआ है तब से उनका आत्मविश्वास बहुत बढ गया है। वे ट्रंप की तरह बड़बोले भी हो गये हैं।
द्रोणाचार्य जी की ताकत उनके पास इकट्ठा अथाह पैसे में जानकर कृष्ण जी ने युधिष्ठर को कुछ सिखाकर गुरु द्रोण के पास भेजा। यु्धिष्ठर को अपनी तरफ़ आता देखकर द्रोण जी की आवाज गनगना उठी। वे और तेज आवाज में पाण्डवों के खिलाफ़ प्रचार करने लगे।
युधिष्ठर ने गुरु द्रोण की बातों का कोई जबाब नहीं दिया। सीधे मंच पर पहुंचकर गुरु के चरण छुये और कान में फ़ुसफ़ुसाकर कुछ कहा।
युधिष्ठर ने गुरु के कान में क्या कहा यह उस समय पता नहीं चला लेकिन बाद में तमाम लोगों ने नाम न बताने की शर्त के साथ बताया कि युधिष्ठर ने द्रोणाचार्य के काम में जो फ़ुसफ़ुसाया था उसका लब्बो-लुआब यह था -’ गुरुदेव आप जिन कौरवों के पक्ष में चुनाव प्रचार कर रहे हैं उन्हीं कौरवों ने बड़े नोट बंद करने की राजाज्ञा जारी कर दी है। उनको डर है कि कहीं चुनाव के बाद आप अपने पैसे के बल पर जीते हुये प्रतिनिधि खरीदकर खुद राजगद्दी न हड़प लें।’
युधिष्ठर की बात सुनते ही पहले गुरु द्रोण का दिल बैठ गया, इसके बाद उनकी आवाज और अंतत: वे खुद भी बैठ गये। एक बार जो बैठे तो फ़िर दुबारा उठ नहीं पाये।
विमुद्रीकरण के झटके न सह पाने के चलते हुई यह संभवत: पहली मौत थी।

एटीएम मल्लब एक ट्राई और मारो




आजकल एटीएम के चर्चे जोरों पर हैं। लाइनें लगी हुईं हैं। देखकर लगता है कि देश वाकई अपने पैरों पर खड़ा हुआ है। लिखते-लिखते लव हो जाने की तर्ज पर ’लगते-लगते लव हो जाने’ की खबरे भी आ रही हैं। अकेले गये थे लाइन में लगने लेकिन लौटते हुये लक्ष्मी लेकर लौट रहे हैं। यह चलन बढा तो आगे ऐसी शादियां ’एटीएम शादी’ के नाम से जानी जायेंगी।

एटीएम पैसा निकालने की मशीन है। पहले पैसा बैंक से निकलता था। लोग बैंक जाते थे। टोकन लेते थे। लोगों से बतियाते थे। गपियाते थे। देखने, घूरने, आंखे लड़ाने के सिलसिले भी इसी बहाने हो लेते थे। दावत के ’पंगत सिस्टम’ सरीखा था बैंक से पैसा निकालने का काम । एटीएम आने के बाद पंगत सिस्टम ’बुफ़े सिस्टम’ में बदल गया। एटीएम खाने की मेज की तरह पैसे की खड़ी ठेलिया में बदल गये हैं। आओ , पिन दबाओ, जित्ता मन चाहे पैसा ले जाओ।

एटीएम का मतलब तो आटोमेटेड टेलर मशीन होता है। लेकिन हम इसे ’आल टाइम मनी’ मशीन समझते हैं। इधर पैसे के लिये लोग एटीएम दर एटीएम भटक रहे हैं। उनके लिये एटीएम का मतलब हौसला बढाने की मंशा से ’एक ट्राई और मारो’ हो गया है। किसी और एटीएम पर लाइन लगाओ। क्या पता पैसा निकल ही आये।

एटीएम एक तरह से पैसे के छोटे-छोटे बांध हैं। चंचला लक्ष्मी के की सरपट गति को रोकने के लिये जगह-जगह बने स्पीड ब्रेकर हैं। यहां पैसा निकलने के पहले जरा तसल्ली से बैठकर सुस्ता लेता है।

एटीएम पर कुछ और बात करने के पहले हम यह बता दें कि दुनिया में भले एटीएम आज शुरु हुये हों लेकिन अपने भारत दैट इज इंडिया में दुनिया का हरकाम सबसे पहले हो चुके होने की तर्ज एटीएम का चलन बहुत पहले से था। हमारे मंदिर, मठ धन संपदा के एटीएम ही तो थे। खूब पैसा जमा होता था। जिसको भी पैसा चाहिये होता था वो मंदिर पहुंचकर पैसा निकाल लेता था। महमूद गजनवी ने सोमनाथ वाले एटीएम से कई बार पैसा निकालने की कोशिश की थी। जब कई तरह के पिन फ़ेल हो गये पैसा नहीं निकला तो बेचारे ने शाश्वत एटीएम -लूटपाट का प्रयोग किया और पैसा लेकर चला गया। आजकल जो लोग एटीएम लूटकर ले जाते हैं वे महमूद गजनवी की परम्परा के सच्चे वाहक हैं। मशालची हैं लूटपाट की मशाल मशाल को सुलगाते हुये आगे बढ़ाने का काम के।

आज एटीएम के सामने लम्बी-लम्बी लाइनें लगी हुई हैं। लोग पैसा निकालने के लिये लगे हुये हैं। पैसा आ नहीं रहा है। लोग इंतजार में लगे हुये देश दुनिया के दीगर मसायल सुलटा ले रहे हैं। देवी-देवताओं की भी चांदी है। लोग तरह-तरह की मनौती मान रहे हैं आज पैसा निकल आया तो प्रसाद पक्का, सौ के नोट निकल आये तो लड्डू भोग। यमराज की दुकान भी खूब गुलजार हो रखी है।

कामगारों को नये तरह का काम मिला है। लाइन में लगने के पैेसे मिल रहे हैं। मनरेगा की तर्ज पर धनरेगा चल रहा है। बड़े-बुजुर्गों की पुराने बर्तनों को धोने-पोंछकर प्रयोग करने की तर्ज पर लाइनों में लगाया जा रहा हैं।

लोग एटीएम को सिर्फ़ पैसा निकालने की मशीन के रूप में जानते हैं। लेकिन इसके कई दीगर व्यवहारिक उपयोग किये जा सकते हैं। कुछ इस तरह के हो सकते हैं:

१. एटीएम स्थल प्रेम, मोहब्बत के नये ठीहे की तरह प्रयोग किये जा सकते हैं। एटीएम पर हुआ प्रेम ’एटीएम प्रेम’ और उससे हुई शादी एटीएम शादी के नाम से जानी जायेगी। ’एक्सिस शादी’ , ’ एसबीआई प्रेम’ जैसे फ़ैशन सुनने में आयेंगे।

२. एटीएम पर हुई भीड़ का उपयोग सभाओं के रूप में करने का चलन शुरु हो सकता है। आसपास माइक लगाकर जब मन चाहा भाइयों, बहनों शुरु हो सकता है। एक ही एटीएम पर विरोधी दलों की सभाओं में भाइयों-बहनों से हुई शुरुआत मां-बहन की ऊंचाइयों तक पहुंच सकती है।

३. लोग अपनी किताबों का विमोचन किसी लम्बी लाइन एटीएम के सामने करके कहकर कह सकते हैं -खचाखच भीड़ में विमोचन के बाद किताब खरीदने के लिये लाइन में लगे लोग।

४. एटीएम टूरिज्म की नई संभावनायें तलाशी जा सकती हैं। विदेश से आये लोगों को शहर में लगी एटीएम लाइने दिखाने के लिये बसें चलवाई जा सकती हैं। उनको बताया जा सकता है -यही असली भारत है।

५. एटीएम ट्यूशन का चलन शुरु हो सकता है। बच्चे स्कूल से लौटते ही अपना कार्ड लेकर एटीएम की लाइन में लग जायेंगे। टीचर बाहर कुर्सी पर बैठा-बैठा उनको सबक सिखाता रहेगा। जब नम्बर आ गया तो बच्चे अपना पिन दबाकर एटीएम बैलेन्स चेककर वापस लौट जायेंगे। जिनका पाठ पूरा नहीं हुआ होगा वे फ़िर से लाइन में लग जायेंगे।

६. लाइन में लगे-लगे अंग्रेजी सिखाने वाले एटीएम अंग्रेजी लर्निंग सेंटर चलन में आ सकते हैं। लाइन में लगते की सूचना मोबाइल से भेजते ही पिज्जा की तर्ज पर लोग अंग्रेजी ’डिलिवरी बालक’ निकल पड़ेंगे। उधर आदमी लाइन में लगा इधर अंग्रेजी की ड्रिप लगी। लाइन से बाहर आने तक दो-चार अंग्रेजी के शब्द तो सीख ही जायेगा।

७. एटीएम कवि भी चलन में आयेंगे। जिस भी कवि की कविता मुकम्मल हुई वह मुकर्रर, इरशाद की आश में किसी एटीएम की तरफ़ चल देगा। जहां पैसा जल्दी निकलता है वहां ’एटीएम आशु कवि’ और देरी वाले एटीएम पर ’एटीएम प्रबन्ध कवि’ पहुंचेंगे। मोबाइल एटीएम पर ’वनलाइनर’ लिखने वालों की लाइन मिलेगी।

८. आगे चलकर नायक-नायिका ए.टी.एम. के दरवाजे पर भिड़ जायेंगे और अन्धे हो दिखता नहीं, गुस्से में बड़ी हसीन लग रही हो से शुरू करके एक-दूजे के लिये होने का सफ़र तय किया जायेगा। इसे ए.टी.एम. प्यार के नाम से जाना जायेगा और साहित्य में इस तरह की कहानियों, कविताओं,लेखों को ए.टी.एम. युग का साहित्य माना जायेगा।

९. एटीएम पर खड़े लोगों को इनाम भी शुरु हो सकते हैं। एटीएम रत्न, एटीएम भूषण, एटीएम श्री की शुरुआत हो सकती है। एटीएम पर लगे-लगे दुनिया से निकल लेने वालों को ’एटीएम शहीद’ की उपाधि से विभूषित किया जा सकता है। क्या पता कोई शायरान अंदाज में जाते हुये कहकर जाये:

कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों
अब तुम्हारे हवाले ये एटीएम साथियों।

१०. एटीएम पर रोजगार के नये अवसर उपलब्ध होंगे। चाय, पान, खोमचे वाले लाइन के बाहर और जेबकतरे लाइन में लगे हुये अपनी दिहाड़ी कमायेंगे। शहरों में जाम के लिये ’जेबकतरे- उस्तादों’ का स्टेशन , बस अड्डे जाना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में वे घर के पास के ही एटीएम पर जेब काटना सिखा सकते हैं।

११. ए.टी.एम. के उपयोग से आप एक नयी शब्दावली का चलन होगा। नये मुहावरे गढ़ सकते हैं। कोई अपने बास को कोसते हुये कह सकता है- हमारा बास हमको ए.टी.एम. समझता है, जब मन आता है ए.टी.एम. कार्ड की तरह हुकुम ठूंस कर काम निकाल लेता है।
१२. भविष्यफ़ल बांचने वाले लोगों की भाषा में एटीएम शब्दावली घुसपैठ करेगी। वे कहेंगे- ’आज सौ के नोट निकलने का संयोग है। आपके एटीएम पिन चोरी का खतरा है संभलकर रहें। परिश्रम करेंगे लेकिन नंबर आते-आते पैसा खत्म हो जायेगा। भाग्य तगड़ा है आपकी लाइन में आगे लगे आदमी का कार्ड खराब होने के चलते पैसा नहीं निकल पायेगा और आखिरी दो हजार का नोट आपको ही मिलेगा। कोई महिला ’प्लीज, हमको पहले निकाल लेने दीजिये कहकर, एटीएम का आखिरी नोट निकाल ले जायेगी और आप भले आदमी का तमगा और महिला का ’थैंक्यू भाई साहब’ लेकर एटीएम दर एटीएम भटकते फ़िरेंगे।

१३. समय के साथ कागजी मुद्रा चलन से बाहर से होती जायेगी। ऐसे में ए.टी.एम. युग का अवसान होगा। तब ए.टी.एम. कम्पनियां अपनी ए.टी.एम. खोखों को दूसरे काम के लिये इस्तेमाल करने लगेगीं। सुलभ शौचालय की तर्ज पर सम्भव है सुलभ शीतालय चालू हो जायें जहां लोग घंटे-आधे घंटे के लिये अपनी शरीर और जेब की गर्मी निकाल सकें।

इतने व्यवहारिक उपयोग हमने अपने अनुभव से बताये। अब आप भी कुछ अपने अनुभव साझा करिये। तब तक हम जरा पास के एटीएम तक होकर आते हैं। क्या पता पैसा आया हो वहां। उसके आगे भी क्या पता उसमें से पैसे भी निकल आयें। लेकिन सबसे बड़ा क्या पता तो ये होगा कि ’क्या पता निकलें पैसों में कुछ नोट सौ के भी हों।’

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Friday, November 18, 2016

पैसा सिर्फ़ पैसा है जिन्दगी थोड़ी है।



आर्मापुर से निकलते हुये नजर अपने-आप यूको बैंक के एटीएम के बाहर लगी लाइन पर जाती है। सुबह आठ बजे ही 25-30 आदमी लग लिये थे। सबसे आगे खड़े लोग चैनल से चिपककर ऐसे खड़े थे जैसे दीवार पर छिपकली। मन किया गाड़ी रोककर अपन भी लाइन में लग जायें। बैंक खुलते ही आधे घंटे में नम्बर तो आ ही जायेगा। लेकिन फ़िर लगे नहीं। एक दिन की छुट्टी लेकर 2000 रुपया निकालने लायक स्थिति अभी आई नहीं।
ओ एफ़ सी के पास मांगने वाली महिला अब फ़िर वापस आ गयी है। बीच में वह कहीं चली गयी थी शायद ! टाटमिल चौराहे पर गाड़ी रुकते ही साफ़ करने के लिये लपकने वाले लोग भी अब फ़िर दिखने लगे हैं। इसका नोटबंदी और छोटे नोट की उपलब्धता से कोई संबंध है कि नहीं -पता नहीं।
जरीब चौकी के आगे के तीन-चार एटीएम पूरी तसल्ली से गुलजार हैं। लोग धूप खाते, बतियाते, अखबार बांचते, इधर-उधर बेमतलब ताकते लाइन में लगे हुये हैं। लाइन सड़क तक आकर अपने-आप किसी न किसी आकार में मुड-तुड़कर फ़िर एटीएम की तरफ़ पलट जाती है। एटीएम की आकर्षण शक्ति जबरदस्त है। लोगों को अपनी तरफ़ खींच लेता है।
दफ़्तर पहुंचते ही नोटबंदी के अनगिनत किस्से सुनने को मिलते हैं। ज्यादातर सुने-सुनाये। लेकिन सहज लगते हैं। लोग कहते मिलते हैं:
1. पांच सौ का नोट चार सौ में और हजार का नोट आठ सौ में धड़ल्ले से चल रहा है।
2. उसने अपने सब मजदूरों को छह-छह महीने की तन्ख्वाह एडवांस में बांट दी। सब पांच सौ-हजार के नोट निकाल दिये।
3. नौ लाख की गाड़ी अभी कल लाये हैं हमारे पड़ोसी। सब हजार-पांच सौ के नोट। सब चल रहे हैं।
4. जनधन वाले सब खाते पर 500/1000 के नोट से भरे जा रहे हैं।
5. हफ़्ते भर में सब ठीक हो जायेगा।
6. अरे अभी महीनों लगेगा हाल ठीक होने में। दो-चार दिन ऐसे ही रहा तो बवाल होगा कहीं। अभी ही 40 आदमी मर चुके हैं लाइन में लगे-लगे।
7. अब देखना प्रेस में शादी के कार्ड छपवाने वाले भीड़ लगायेंगे। कार्ड दिखाकर ढाई लाख निकालकर शादी की तारीख आगे बढ़वा देंगे।
इसी तरह की और बातें दिन भर सुनते रहते हैं। जैसे कभी रामजी वन-वन भटकते हुये खग-मृग-मधुकर से सीता के बारे में पूछते फ़िरे थे वैसे ही पैसा निकालने वाला इंसान एटीएम-दर-एटीएम भटक रहे हैं। जिधर लाइन छोटी दिखी लग लिया। मिल गया पैसा तो ठीक नहीं तो अगली में लग लिया। जिसका पैसा नहीं निकला वह याद करता है--’असफ़लता बताती है कि सफ़लता का प्रयत्न पूरे मन से नहीं किया गया’ इसके बाद फ़िर पुरे मन से दूसरी लाइन में लग जाता है।
जिसका पैसा निकल आता है उसके चेहरे पर वीरता के भाव अपने-आप लपक के बैठ जाता है। घर वाले बलैया लेते हैं। यार-दोस्त पार्टी की मांग करते हैं। एटीएम से पैसा निकालना सबसे बड़ा पुरुषार्थ हो गया हो गया।
काले धन की नकेल कसने के लिये उठाये गये कदम धड़ल्ले से नये तरह का काला धन बना रहे हैं। पांच सौ का कागज का टुकड़ा चार सौ रुपये में चल रहा है। कोई बताये कि इसमें काला धन सौ का हुआ कि पांच सौ का? बंद नोटों से खरीदी गयी नौ लाख की गाड़ी मोटरवाले के पास काले धन के रूप में मानी जायेगी कि सफ़ेद धन की।
लगता है काले धन से खुद को सफ़ेद करने के लिये जगह-जगह पार्लर लगा रखे हैं। सबमें धड़ल्ले से काम हो रहा है। काला धन मुस्करा रहा है। सफ़ेद धन कराह रहा है। उसका काम बढ गया है। कई बार इधर से उधर होते-होते उसका पोर-पोर दर्द कर रहा है। हड्डी-पसली एक हो रही है।
जिसका हजार का नोट आठ सौ में चल जाता है उसके चेहरे ख़ुशी देखकर उस बाप की याद आती है जिनका शर्तिया फेल होने वाला बच्चा 80% नम्बर पाकर सम्मान सहित उत्तीर्ण होता है।
इस सबसे बेखबर हमारे पंकज बाजपेयी जी हैं। वे अपनी जगह पर खड़े रोज मिलते हैं। कहते रहते हैं-’ कोहली को पकड़वाइये। वह रैकेट चला रहा है। गलत काम कर रहा है। कनाडा से लोग आये हुये हैं।’
हम चलते हैं दफ़्तर। तब तक आप मजे करिये। लाइन में लगें हों तो पानी की बोतल ले जाना मत भूलिये। धक्का मुक्का मत करिये। पैसा सिर्फ़ पैसा है जिन्दगी थोड़ी है। मिल जायेगा देर-सबेर। ठीक न !

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Tuesday, November 15, 2016

हाल तो बेहाल हैं ही

दफ्तर जाते हुए देखा यूको बैंक के एटीएम के बाहर लाइन लगी है। एटीमएम अभी खुला नहीं है। एटीम से शुरू हुई लाइन सड़क तक पहुंच गयी है।
रास्ते में कई जगह एटीम की लाइनें दिखीं। कोई अंगेजी के आई (I) की तरह,कोई एल (L) के आकार में। कहीं-कहीं एल मुड़कर यू (U) या फिर एस ( S ) नहीं तो (Z) के आकार में बदल गयीं लाइनें भी दिखीं। क्षण-क्षण रूप बदलती लाइनें भगवान की लीला की तरह दिखीं। अंग्रेजी सिखाने वाले स्कूल अपने बच्चों को इन लाइनों को दिखाते तो बच्चे अंग्रेजी के अक्षर फ़ौरन पहचान कर फर्राटे से गलत अंग्रेजी बोलना सीख जाते।
सुबह का समय था सो लोग तसल्ली से लाइन में लगे हुए थे। धूप गुनगुनी थी। लोग मुफ़्त की विटामिन डी लेते हुए एटीएम खुलने का इंतजार कर रहे थे जिस तरह अपने देश की धर्मभीरु जनता किसी अवतार का इंतजार करती है कि वह अवतार लेकर आये तो उनके कष्ट कम हों।
दफ़्तर में सुबह से ही लोग बाहर जाने के लिए परेशान दिखे। लोगों के घरों में पैसा नहीं है। एटीएम में जाकर लाइन लगाएंगे। क्या पता पैसा मिल जाए। खबर यह थी कि पास के एटीएम में पैसा है। देर हुई तो ख़त्म हो जायेगा। बाहर जाने की अनुमति मिलने में देरी के साथ उनकी चिंता और गुस्सा बढ़ता जा रहा था। जिसको जाने की अनुमति मिली वह उसको देखकर अंदाज लगाया जा सकता था कि तरकश से तीर और बन्दूक से गोली निकलते हुए कैसे निकलती है।
जो पैसे निकाल पाये एटीएम से उनके चेहरे पर विजेता का गर्व पसरा हुआ था। क्या पता शाम को घर जाकर गाना भी गायें हों:
हम लाएं एटीएम से नोट निकालकर
पैसे को खर्च करना बच्चों संभालकर।
जिनके पैसे नहीं निकल पाये वे दुख चेहरे पर पोते दूसरे एटीएम की तरफ बढ़ गए और लाइन में लग गए।
आराम तलबी के लिए बदनाम बैंक वाले बेचारे दिन रात जुटे हैं नोट बदलने, जमा करने में, नकदी देने में। सुबह से देर रात तक काम करते हुए।लोग अपनी परेशानियों में ही इतने व्यस्त हैं कि इनकी मेहनत की अनदेखी करते हुए अपनी ही कठिनाइयों का भोंपू बजाये जा रहे हैं।
टेलीविजन पर पैसे के लिए मारपीट, लाइन में लगने के चलते मौत और इसीतरह की खबरें आ रहीं हैं। ऐसा लगा रहा है जैसे पूरा देश भयंकर परेशानी से जूझ रहा है। कई फुटकर दुकानदारों की आमदनी एकदम ठप्प हो गयी है। लेकिन लोगों में उतना आक्रोश नहीं जितना विपक्षी दलों के नेताओं की आवाज में है। नेता जनता की आवाज को कई गुना बढाकर बोलता है।
कल पुस्तक मेले में भी गए। पता चला पुस्तक मेला फ्लॉप हो गया। राजकमल प्रकाशन को छोड़कर किसी के पास इलेक्ट्रानिक भुगतान की व्यवस्था नहीँ थी। बाकी जगह किताबें केवल देखकर और राजकमल से खरीदकर वापस लौट लिए।
एक बेकरी से कुछ सामान लेना था। उसके पास भी इलेक्ट्रानिक भुगतान की व्यवस्था नहीं थी। लाखों की बिक्री है महीने की। लेकिन ई पेमेंट की सुविधा नहीं। बिल भी नहीं देते लेते। टैक्स चोरी के अलावा दूसरे और भी कारण होंगे। ऐसा ही गड्डमड्ड समाज है अपन का।
जो ठेकेदार फैक्ट्री का काम करते है ठेके पर उसके पास अपने कामगारों को देने के लिए पैसे नहीं हैं। 100 लोग काम करते होंगे , 300 रूपये रोज भी धर ली जाए मजदूरी तो हफ्ते की दो लाख रूपये से ऊपर के नोट चाहिए उसको। नकद भुगतान ही होता है ज्यादातर। रूपये न निकल पाने के चलते काम ठप्प भले न हो लेकिन हाल तो बेहाल हैं ही।
एटीएम से फटाफट पैसे निकलने की आदत हो गयी है अपन को। घर में पैसे नहीं रखते लोग। कभी वो दिन भी थे जब आधा दिन तक लगता था रुपये निकालने में।
कुछ दिन वैसा ही सही।
बैंक के लोगों से बात होती है तो उनका कहना है कि जल्दी ही स्थिति सामान्य होगी। कुछ दिन लगेंगे बस।
फ़िलहाल तो इंतजार है कि जल्द ही नोट संक्रमण का यह समय जल्दी समय जल्दी विदा हो। नए-नवेले नोट आएं और हालात को ठीक बनाएं। इस बीच कमखर्च करके काम चलायें।
आप मजे करिये। तब तक हम दफ़्तर होकर आएं।

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