किसी किताब को पढ़कर उस पर जैसा महसूस कर रहे हों वैसा ही लिखना मुश्किल काम है। यह मुश्किल तब और बढ़ा जाती है जब लेखक से परिचय हो।सोचा जाता है कि इत्मिनान से लिखेंगे। कोई पहलू छूट न जाए। इसी इत्मिनान और तसल्ली के चक्कर में मित्रों की पढी हुई कई किताबों पर लिखना नहीं हो पाया। लगता है तसल्ली का बहुत इन्तजार करना भी ठीक नहीं होता।
मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ कि व्यंग्य लेखन की दुनिया इतनी छोटी होते हुए भी अपने समय के ही लेखकों और उनकी रचनाओं से कितना कम परिचय है अपना। यह तब है जब अपन व्यंग्य की दुनिया के तमाम लोगों से जुड़े हुए हैं। फिर आम जनता इनके बारे में क्या जानती होगी। वह तो भला हो सोशल मीडिया का जिसके चलते कई लेखकों से परिचय हो सका। अरविन्द तिवारी जी भी ऐसे लोगों में ख़ास हैं।
'शेष अगले अंक में' के बारे में पता चलते ही आर्डर किया। समय पर आ भी गया। जबसे आया यह उपन्यास तबसे लगातार साथ रहा मेरे। घर में आते ही दो-चार पन्ने पढ़ते, फिर धर देते। रोचकता इतनी कि लगता अगर एक बार में नहीं पढ़ा तो मजा कम हो जाएगा। जो किताबें अच्छी लगती हैं उनको पढ़ते हुए जितना अच्छा लगता है डर भी कम नहीं लगता कि एकबार जब पूरी पढ़ ली तो इसके बाद क्या पढ़ेंगे। खुदा झूठ न बुलवाये इसी मासूम डर के चलते कई बेहतरीन किताबें अब तक अधपढी, अनपढी रह गयी हैं।
'शेष अगले अंक में' की संगत शुरू हुई पिछले महीने की आठ तारीख से। कलकत्ता गए तो साथ ले गए। जमीन से दस हजार मीटर की ऊंचाई पर पढ़ना शुरू किया। हवाई जहाज की खिड़की से सटाकर फोटो लिया। उतरते समय कलकत्ता शहर की रौशनी से सटाकर फोटो खींचा। मतलब खूब मन लगाकर पढ़ा। दफतर आते-जाते भी साथ आता-जाता रहा यह उपन्यास।
शुरुआत में तो रोचकता की गिरफ्त में आकर जल्दी-जल्दी पढ़ते चले गए। फिर जब आखिर तक पहुंचने लगे तो लगा कि इसके 'पंचवाक्य' पर निशान लगाने चाहिए ताकि उनको पोस्ट किया जा सके। अब दुबारा पढ़ते हुए वह काम कर रहे हैं। तब तक आइये आपको जरा हड़बड़ी वाले अंदाज में ही बता दिया जाए उपन्यास के बारे में।
'शेष अगले अंक में' एक छोटे कस्बे नागौर अखबारी दुनिया के किस्से के बहाने अपने समाज की पड़ताल करने वाला उपन्यास है। छोटे कस्बाई अख़बारों में कैसी खबरें छपती हैं, कैसे पत्रकार होते हैं, कैसे ब्लैकमेलिंग करते हैं अख़बार वाले और कैसे अख़बारों में प्रतिद्वन्दिता होती है इसका बड़ा रोचक अंदाज में चित्रण किया है अरविन्द जी ने। आलोक पुराणिक ने जब इस उपन्यास की समीक्षा लिखी थी तब इसको मीडिया के छात्रों के पढ़ने के लिए जरुरी उपन्यास बताया था।
जनसम्पर्क अधिकारी प्रशांत कुमार शर्मा जिनको गैस की बीमारी है और जिनको अपने को कवि कहलाने की हसरत है के नागौर आने और नागौर छोड़ने के बीच के समय का आख्यान है इस उपन्यास में।
कन्हैयालाल स्नातक का अख़बार 'प्रदेश समाचार' और राम अकेला का 'तलवार' इस उपन्यास के दो प्रमुख स्तम्भ हैं। किस्से-कथानक नागौर, जयपुर आदि घूमते-फिरते हुए इन स्तंभों के आसपास आते रहते हैं। दोनों अख़बारों के संपादक समान रूप से न सही किन्तु नशे को बहुत महत्व देते थे। विरोधी अख़बार होने के चलते दोनों के नशे भी अलग थे। कन्हैयालाल स्नातक शराब के आदी थे जबकि राम अकेला को भांग खाने का शौक था।
अरविन्द जी ने यह उपन्यास अपने अनुभवों की जमीन पर कल्पना के बीज छिड़ककर लिखा है। शुरुआत में अपने कवि सम्मलेनों से जुड़े अनुभव बड़े रोचक अंदाज में लिखे हैं अरविन्द जी ने। इनको पढ़ते हुए 'खोया पानी' के मुशायरे के किस्से याद आये। इन कवियों के लिए इंतजाम का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि -"कवि सम्मेलन में किसी तरह का कोई व्यवधान न हो , इसलिए कवियों को सिर्फ एक बार पानी पिलाने की अनुमति दी गई।"
कवि कैसे थे इसका मुजाहिरा इस बात से लगाया जा सकता है :
" वीर रस के कवियों में एक अखिल भारतीय स्तर के स्थानीय कवि थे धुंआधार। इन दिनों वे पैरोल पर छूटे थे। एम.एल.ए. बनने के सब्जबाग दिखाकर उनके समधी ने उन्हें मूर्तिचोरी के षड्यंत्र में शामिल करके जेल पहुंचाने का राष्ट्रभक्ति पूर्ण कार्य किया था, ताकि जेल में रहकर वे किसी महाकाव्य की रचना कर सकें।"
अनेक मजेदार किस्से हैं जिनके छटाएं उपन्यास में बिखरी हैं। के के गोस्वामी की बवासीर का बियर की खाली बोतल से शौच जाने का इलाज रोचक तरीके से चित्रित किया गया है।
मनीष, पुष्पकुमार और पीआरओ प्रशांतकुमार की जगजाहिर दोस्ती के किस्से हों या फिर रामअकेला के संपादकीय लिखने का कौशल, पुष्पकुमार द्वारा कुंवारे रहने, नौकरी छोड़ने की जिद से होते हुए चुनाव के समय में किसी प्रत्याशी के पक्ष में हवा बहाने के चलाने के चलते पिटने और उसके बाद उनको सुरक्षा गार्ड मिलने का किस्सा हो ये सब बड़े रोचक अंदाज में बयान किये गए हैं।
वीरांगना पत्रकार मिस आरती अकेली महिला पात्र हैं इस उपन्यास में। अब यह अरविन्द जी ने अपने को शरीफ जताने के लिये किया या रागदरबारी( जिसमें बेला एकमात्र महिला पात्र हैं) से प्रभावित होने के चलते किया यह पूछना बाकी है उनसे।
चुनाव के समय पत्रकार कैसे रिपोर्टिंग करते हैं यह के के गोस्वामी के चुनाव और फिर उनके राज्यमंत्री बनने के किस्से में है। एक ही बिल्डिंग के कई उद्घाटन, पानी की टँकी का गिरना जैसे किस्से लोकतंत्र में किस तरह आम हैं यह बखूबी दिखाया है तिवारी जी ने। और तो और उपन्यास आगे बढ़ा तो पुष्पकुमार का विवाह भी करा दिया गया और उनसे दुश्मनी निभाने के लिए उनकी पत्नी का तबादला भी उनके पास ही करा दिया मनीषकुमार और तेजपाल ने।
उपन्यास जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे-वैसे सच्ची पत्रकारिता के दर्शन होते जाते हैं।इसी सिलसिले में नागौर के विख्यात और कुख्यात कवि धुंआधार कहते हैं -"उजड्डता से व्यक्ति गुंडा बनता है। गुंडई काले धंधे करवाती है। काले धंधे से धन उपजता है और धन से अख़बार निकलता है। अख़बार निकालने से व्यक्ति को सुख प्राप्त होता है।"
'शेष अगले अंक में' इसी अख़बार निकालने की प्रक्रिया में अपने -अपने सुख तलाशते कई तरह के किस्से हैं। ज्यादातर किस्से सच्ची घटनाओं पर हैं। उपन्यास पढ़ते हुये उन किस्सों की जानकरी भी अरविन्द जी से होते रहने उपन्यास और रोचक लगा। ऐसा ही एक किस्सा पत्रकार दीनदयाल पत्रकार का है जिनकी साईकल रिपेयरिंग की दुकान थी। जब वे एस.पी. से कवि सम्मेलन के लिए चन्दा लेने जाते हैं और डीएम उनसे खफा हो जाते हैं उसका बड़ा मजेदार चित्रण किया है अरविन्द जी ने :
"जी मैं प्रदेश समाचार का संवाददाता हूँ।
इतना कहने पर भी एस पी ने उन्हें बैठने के लिए नहीं कहा।
कोई बात नहीं , आप काम बताइये।
एस पी साहब का यह वाक्य सुनकर दीनदयाल को लगा कि जिसे वे पंक्चर सोचकर जोड़ने की कोशिश कर रहे थे, वह तो लंबा चौड़ा 'बर्स्ट' है। बिना ट्यूब पकाये ठीक नहीं हो सकता। वे बर्स्ट जोड़ने में जुट गए।"
इसी तरह के तमाम रोचक प्रकरण हैं इस उपन्यास में । जिनका लुत्फ़ इसको खुद पूरा पढ़ने पर ही उठाया जा सकता है।
उपन्यास के कुछ रोचक अंश यानि कि पंचवाक्य मल्लब धाँसू संवाद:
1.संवेदना तो उनके हृदय में कूट-कूटकर भरी थी, जैसे उनके फ्रिज में शराब और बीयर की बोतलें भरीं थीँ।
2.हमारे देश की हुकूमत गधे की तर्ज पर काम करती है। जब तक समस्या विकराल रूप न धारण कर ले तब तक उसके समाधान के लिए हमारे देश की सरकार लात नहीं उठाती।
3. कविता लिखने के लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है इसलिए आरती से इश्क करना उसकी मजबूरी थी।
4. चुनाव प्रचार उस ऊंचाई पर जा पहुंचा था जिस ऊंचाई पर पहुंचकर अक्सर प्रेमी-प्रेमिका या तो विवाह कर लेते हैं या फिर साथ-साथ आत्महत्या।
5. इस देश में आजादी के बाद जितने भी नेता गरीबों के मसीहा सिद्ध हुए , वे अपने पेशे में असफल होने के कारण ही हुए हैं।
6. नगर पालिका में घोटाला नहीं तो नगरपालिका कैसी।
7. भारतीय लोकतंत्र की विशेषता है कि किंगमेकर को भी किंग जैसा सम्मान मिल जाता है।
8. बिना उद्घाटन के राजनीति अधूरी है और बिना राजनीति के उद्घाटन दुर्लभ घटना है।
9. इस देश की राजभाषा जो है , वह पुलिस के डंडे से निकलती है। डंडे की भाषा उत्तर में भी समझी जाती , दक्षिण में भी। पूरब में भी और पश्चिम में भी। इसदेश में पुलिस न होती तो हम कैसे साबित करते , कि देश कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है।
10. जो पत्रकार पत्रकारिता में धुरन्धर हो जाता है, वह अपने से कनिष्ठ पत्रकारों को घास नहीं डालता।
11. राज्य सभा को संसद का पिछवाड़ा कहते हैं।
कुल मिलाकर एक रोचक, पठनीय और चर्चनीय उपन्यास है -शेष अगले अंक में। इसका पढ़ा जाना खासकर व्यंग्य के नए लेखकों के लिए जरुरी है ताकि अपने हलके से जुड़े व्यंग्य उपन्यास लिखने का मन बना सकें। दूसरी बात इसलिए भी इसका पढ़ना इसलिए भी जरुरी है ताकि उनको अंदाज हो सके जिस व्यंग्य में उपन्यास न लिखे जाने का स्यापा किया जाता है वहीँ कैसे एक बेहतरीन उपन्यास चर्चा में नहीं आता। ऐसा साजिशन होता है या अनजाने में यह अलग से चर्चा का विषय है।
'शेष अगले अंक में' पढ़ने के बाद अपनी कही बात दोहराने का मन है । इसको पढ़ने के बाद एक अच्छे उपन्यास को पढ़ने का आनन्द तो मिला ही साथ ही यह भी अंदाज हुआ कि व्यंग्य में जिन लोगों , किताबों का हल्ला है उससे भी इतर बहुत कुछ लिखा गया है जो उनसे कमतर नहीं जिसका हल्ला है। उसको भी पढना चाहिये। यह एहसास बनाने के लिये अरविन्द जी के उपन्यास की फिर से शानदार भूमिका रही।
अरविन्द तिवारी जी को उनके इस बेहतरीन उपन्यास के लिए बधाई। अब उनके कवि सम्मेलनों पर केंद्रित अगले उपन्यास -'लिफ़ाफ़े में कविता' (नामकारण बजरिये -आलोक पुराणिक) का इंतजार है।