Friday, May 31, 2024

ईमानदार आदमी बेवकूफ होता है


आज सुबह नींद खुली साढ़े तीन बजे। मतलब तब जब ब्राह्ममुहूर्त भी ड्यूटी पर हाजिर नहीं हुआ था। कई लिखाई-पढ़ाई के काम याद आए। उनको याद करके फिर पलट के सो गए। सोचा थोड़ा और सो लिया जाए फिर उठा जाएगा।मतलब नींद की 'एक बाइट' और ले ली जाए।
थोड़ा सोने के बाद नींद खुली तो पांच बज गए थे। मतलब नींद की 'एक बाइट डेढ़' घण्टे की हुई।
'नींद की बाइट' भी हर एक के लिए अलग-अलग होती है। किसी की घण्टे भर की, किसी की पांच मिनट की। जितनी देर में घण्टे भर की 'नींद की बाइट' वाला एक बाइट लेता है उतनी देर में पांच मिनट की बाइट वाला दर्जन भर बाइट ले लेता होगा। कभी-कभी घण्टे भर की नींद की बाइट वाला इंसान भी पांच-पांच मिनट की नींद की बाइट ले लेता होगा।
यह तो बात हुई नींद की। उनके क्या हाल होते होंगे जिनको नींद नहीं आती या कम आती है। उनकी भी क्या 'उनींदे' की 'अनींद' की बाइट होती होगी?
जगने के बाद टहलने निकले। सड़क पर इक्का-दुक्का लोग टहल रहे थे। पंछी हल्ला मचा रहे थे। क्या पता कह रहे हों हमारा नाम लेते हुए -'निकल लिया, निकल लिया आज भी टहलने निकल लिया।'
सामने से एक महिला बीच सड़क पर टहलती आ रही थी। हाथ में छुटका तौलिया लिए थी। शायद पसीना पोंछने के लिए। पसीना अभी आया नहीं था लेकिन महिला तौलिया चेहरे पर घुमाती जा रही थी। शायद पसीना सुखाने की नेट प्रैक्टिस कर रही हो। यह भी हो सकता है सम्भावित पसीने को धमका रही हो-'ख़बरदार, जैसे ही निकले, सुखा दिए जाओगे।'
एक दूसरी महिला टहलते हुए बगल से गुजरी तो दिखा की उसके कान में ईयरप्लग ठुंसा था और वह कोई प्रवचन टाइप सुन रही थी। बगल से गुजरते हुए प्रवचन के बोल मेरे भी कानों में जबरियन धंस गए। प्रवचनिया कह रहा था-'काम, क्रोध, मद, लोभ से बचकर रहना चाहिए।' महिला जब यह सुन रही थी तब वह इन सभी तथाकथित विकारों से एकदम मुक्त थी।
कोई इंसान जब काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकारों से मुक्त हो तब उसको उनसे बचने के लिए कहा जाए तो सहज रूप से इनके बारे में जो सोचेगा।
आगे के पार्क के बाहर पुलिया पर बैठे कुछ लोग अपने शरीर को टेढ़ा-मेढ़ा करते हुए बतिया भी रहे थे। एक की आवाज सुनाई पड़ी -'ईमनदार आदमी को कमजोर समझते हैं। सब समझते हैं कि ईमनदार आदमी बेवकूफ होता है। पहले ऐसा नहीं होता था।' 'ईमानदार' को 'ईमनदार' कहते हुये पूरे आत्मविश्वास से ईमानदारी को बेवकूफी का सीधा कनेक्शन करवा रहे थे।
अगले ने भी कुछ कहा होगा। हम सुन नहीं पाए। हमको बस यही दिखा कि वह अपने पेट को कपड़े की तरह निचोड़ते हुए कसरतिया रहा था।
वहीं सामने के पार्क में कुछ महिलाएं भी बच्चों के साथ हाथ और पेट घुमाते हुए कसरत कर रहीं थीं।
आगे एक आदमी अपनी दोनों चप्पल हाथ में लिए आता दिखा। हमें लगा शायद किसी नागवार गुजरती बात पर बिना समय बर्बाद किये चप्पलियाने के इरादे से वह चप्पल हाथ में लिए था। लेकिन बात करने पर पता चला कि उसको डॉक्टरों ने नंगे पैर चलने के लिए बोला है। उसकी मजबूरी को हम उसकी मजबूती समझ लिए थे।
चौराहे पर एक 'स्लिमिंग सेंटर' वाले अपना होर्डिंग लगाए खड़े थे। पतला होने की तरकीब बताने के लिए। कोर्स करवाने के लिए। एक आदमी ने अपना पुराना फोटो दिखाया जिसमें वह काफी स्वस्थ दिख रहा था। अभी वह 'स्लिम-ट्रिम' टाइप दिख रहा था। बताया कि ये थे ये हो गए हैं। हमको बोला -'खाली टहलने से नहीं होगा। खानपान ठीक करना होगा।'
अपन आगे बढ़ गए। हड़बड़ी में वजन नहीं कम करना। फैट बुरा मान जाएगा। आहिस्ते से कम करेंगे। फुसलाते हुए। इतने दिन साथ दिया उसने मेरा। अब हम उसको झटके से दफा कर दें। ऐसे बेवफा हम हरगिज नहीं।
लौटते हुए एक रेलिंग पर कुछ बच्चे बैठे दिखे। कल भी दिखे थे लेकिन कल बात नहीं हुई थी। आज पास खड़े होकर बात की। पता चला कि स्कूल के घरों में रहते हैं। टहलने आये हैं तो आराम करने के लिए बैठ गए रेलिंग पर।
रेलिंग पर बैठना बच्चों के थकने से ज्यादा बतियाने की मंशा से रहा होगा। तसल्ली से बतिया रहे थे वे। एक बच्चा अपना मोबाइल में कोई वाल पेपर छांट रहा था। हमने सबको रेलिंग पर बिठाकर फोटो खींचा। दिखाकर कहा -'इसे बना लो वाल पेपर। बच्चे मेरी बात पर हंसने लगे। हमको लगा कि देश में हमारा जिक्र करते हुए इस बात पर बहस न छिड़ जाए कि एक और भी नमूना है देश में जिस पर लोग हंसते हैं।
एक बच्ची के हाथ में एक छोटा पक्षी दुबका सा बैठा था। बच्चों ने उसे रास्ते से उठाया था। पक्षी की पीठ में हल्का सा घाव था। उसकी हड्डियां दिख रहीं थीं। शायद किसी बड़े पक्षी ने उस पर हमला किया होगा। बच्ची कह रही थी-'इसे घर ले जाएंगे। इलाज करेंगे।'
बच्चों से बात करने के बाद घर लौट आये। हमको पुलिया पर बैठे आदमी की बात याद आ रही है-'ईमानदार आदमी बेवकूफ होता है।'
क्या सच में ऐसा होता है?

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Tuesday, May 28, 2024

मुस्कान अभी तक टैक्स फ्री है

  


सबेरे-सबेरे टहलते हुए बड़े रोचक नजारे दिखते हैं। दिखते तो हर समय हैं लेकिन टहलने का काम आमतौर पर सुबह होता है तो उसी समय दिखते हैं।
सुबह टहलने निकले तो सामने से एक जोड़ा आता दिखा। उनके अंदाज-ए-टहलाई से लगा कि मियां-बीबी रहे होंगे। साथ-साथ टहलते हुए भी दोनों के बीच इतनी दूरी थी कि उनके बीच से एक पूरा परिवार निकल जाए। कोरोना काल की टहलाई कर थे। दूरी अलबत्ता दो की जगह चार से भी ज्यादा गज हो गयी थी।
दूसरे जोड़े ने अगल-बगल की दूरी को आगे-पीछे की दूरी में बदल दिया था। पति आगे, पत्नी पीछे। अनुगामिनी सी। ऐसा नहीं कि मियां की स्पीड तेज हो, बीबी की धीमी। दोनों समान गति से एक दूसरे से समान दूरी बनाए टहल रहे थे।
एक आदमी कुत्तों के साथ टहल रहा था। कुत्ते उसके इशारे पर जीभ निकाले इधर-उधर मुंह करते टहल रहे थे। कुत्ते उछल-कूद करते हुए अपनी मर्जी से टहलने का नाटक कर रहे थे लेकिन चल आदमी के पीछे ही रहे थे। कुत्तों की हरकतें किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के इशारे पर चलती सरकारों सरीखी लग रही थीं जो नाटक भले अपनी जनता के भलाई का करें लेकिन नीतियां उन कम्पनियों की अनुमति से ही बनाती हैं जिनके चंदे से वे सत्ता में आईं हैं।
सरकारें भी एहसान फरामोश होने से परहेज करती हैं।
टहलते हुए नहर किनारे चले गए। जगह-जगह छठ पूजा की शुभकामनाओं के होर्डिंग लगे थे जिनको विधायक निधि से बनवाया गया था। ताकतवर जनप्रतिनिधियों की शुभकामनाओं की इतनी भरमार देखकर लगा कि इंच दर इंच पसरी शुभकामनाओं के बावजूद कैसे इतना अशुभ होता रहता है। लगता है शुभकामनाओं में मिलावट है। कौन जांच करवाए।
नहर के पानी का बहाव हमारे विपरीत था। हमारी सोच में तमाम दिनों से नहर के पानी का बहाव जिधर अंकित है, वास्तव में पानी उसकी उल्टी तरफ बहता है। जब भी पानी देखते हैं , बहाव की दिशा दिमाग में दुरुस्त करते हैं। लेकिन अगली बार फिर लगता है कि पानी उल्टी तरफ बह रहा है। दिमाग में नहर के पानी की दिशा 'सेव' नहीं होती।
यह बात देश-दुनिया पर भी लागू होती है। दुनिया चाहे जिधर जा रही हो लेकिन लोग उसको अपनी सोची हुई दिशा में जाते ही देखते हैं। दुनिया की तमाम आबादी इसी तरह 'दिशा मण्डूक' होती है। ऐसे लोग अपनी सोच के कुतुबनुमें तोड़कर अपने नायक के पास धर देते हैं यह सोचते हुए कि हम क्यों सोचने का काम करें। जो करेगा यही करेगा, इसको नायक बना लिया, हमारा काम खत्म। उनको पता नहीं होता कि उनका नायक भी अपनी अक़्क़ल का क़ुतुबनुमा किसी और के पास रखकर आया है।
थोड़ी दूर तक पक्की सड़क के बाद कच्ची जमीन और पगडण्डी शुरू हो गयी। लगा किसी जंगल में आ गए। दाईं तरफ एक आदमी उकड़ू बैठा अपने सामने मोबाइल का पर्दा लगाए निपटने में तल्लीन था। उसकी साइकिल बगल में खड़ी थी। सामने पनकी पावर हाउस की चिमनी धुंआ उगल रही थी।
लौटते में एक जगह कुछ लोग खड़े दिखे। हम उनके बगल से होते हुए अंदर हो गए। देखा सड़क किनारे तरण ताल बना था। पानी अलबत्ता नहीं था। आधे में घास उगी थी, आधा सूखा था तरण ताल। सूखे सीमेन्ट वाले हिस्से में कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे।
तरण ताल के किनारे कुछ लोग , जिनमें अधिकांश बुजुर्ग थे, बाबा रामदेव घराने की एक्सरसाइज करने में जुटे थे। एक बुजुर्ग अपने पेट को इतनी तेजी से घुमा रहे थे कि हमको डर लगा कहीं उनके पेट की चूड़ियां न खुल जाएं।
बगल में शाखा का झंडा लगा था। किसी ने कहा कि झण्डा उतारने की जिम्मेदारी जिसकी है वह तो दौरे पर गया है।बुजुर्ग लोग ही दिखे वहाँ। लगता है इस वाली शाखा में युवा लोग कम आते हैं।
झंडे की बात आगे बढ़ी तो किसी ने कहा -'हमारा समर्थन नहीं चाहिए अब उनको।' बात और भी आगे बढ़ी। कुछ हंसने लगे तो कुछ बतियाने। उनकी बातें सुनते हुए लगा कि सोशल मीडिया में चलने वाली बहसें हमारे आस-पास भी कितनी तेजी से पसरती हैं।
रास्ते में तमाम जान-पहचान के लोग मिले। कई लोगों ने नमस्ते किया। हमने भी किया। कई लोगों के नाम हमको नहीं पता। पूछने की हिम्मत भी नहीं होती। डर लगता है कि अगला सोचेगा कि पचीसों नमस्ते डकारने के बाद अब नाम पूछ रहा है।
सड़क किनारे आदमी तेजी से टहलते हुए अचानक उल्टे चलने लगा। ऐसा लगा जैसे कोई विकास की बात करता हुआ नेता अचानक कहे-'प्यारे देश वासियों, मैं आपको स्वर्णिम अतीत में ले चलता हूँ। जो मजा वहाँ है वो यहाँ नहीं मिलेगा।' हमारे देखते-देखते वह आदमी फिर पलट गया और सीधे चलने लगा।
लोग अपने नेताओं से कितना कुछ सीखते हैं।
आगे एक महिला सड़क के बीच के डिवाइडर पर बैठी दूसरी महिला से बतिया रही थी जो कि डिवाइडर के नीचे सड़क पर बेतकुल्फ़ी से फसक्का मारकर बैठी थी। सड़क से गुजरते वाहन उससे बचते हुए निकलते जा रहे थे।
एक बच्ची सड़क पर रनिंग करती जा रही थी। धीरे-धीरे। एक आदमी उसके बगल में साइकिल चलाते हुए उसको कुछ निर्देश दे रहा था। बच्ची उसके निर्देशों को चुपचाप सुनते हुए दौड़ती जा रही थी। क्या पता कल को किसी अखबार में बच्ची इंटरव्यू देते हुए कहे-'मैंने अपने दौड़ने का अभ्यास अर्मापुर में किया था। रोज दौड़ती थी मैं।'
लौटते हुए सूरज भाई आसमान से मुस्कराते हुए गुडमार्निंग कर रहे थे। उनकी देखादेखी सड़क किनारे के अमलताश और गुलमोहर भी सुप्रभात करने लगे। हमने भी कर दिया। दोनों मुस्कराने लगे।
सबकी मुस्कान को याद करके अपन भी मुस्करा रहे हैं। मुस्कान अभी तक टैक्स फ्री है। आप भी मुस्करा लीजिए।

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Monday, May 27, 2024

लक्ष्मीनारायण मंदिर, कल्पवृक्ष, बेतवा नदी और छतरियां



ओरछा के महल देखते हुए दोपहर हो गयी थी । धूप तेज । बाहर निकलकर हम उधर गए जिधर हमारी गाडी खडी थी । हमारे ड्राइवर संजय धूप में गाडी खडी किये हमारा इन्तजार कर रहे थे । हमने उनको साथ लिया और आगे बढे । अब ऑटो हमारा पायलट वाहन था और हम अपनी गाडी में ।
राममंदिर के सामने गन्ने के रस वाला दिखा । दस रुपये का छोटा ग्लास । बीस का बड़ा । गाडी रोककर गन्ने का रस पिया । गर्मी में ठंडा गन्ने का रस पीकर तृप्त हुए । मजा आया ।
थोड़ी दूर पर ही लक्ष्मी नारायण मंदिर था । पवन हमको मंदिर के पास छोड़कर अपना ऑटो लेकर अपनी दूसरी सवारी को किले तक छोड़ने चले गए । अपन मंदिर देखने लगे ।
लक्ष्मी नारायण मंदिर 1622 ई. में वीरसिंह देव ने बनवाया था। पूरे देश में यह इकलौता मंदिर है जिसका निर्माण तत्कालीन विद्वानों द्वारा श्रीयंत्र के आकार में उल्लू की चोंच को दर्शाते हुए किया गया है। इस मंदिर की मान्यता है कि दीपावली के दिन इस सिद्ध मंदिर में दीपक जलाकर मां लक्ष्मी की पूजा करने से वह प्रसन्न होती हैं। 1983 में मंदिर में स्थापित मूर्तियों को चोरों ने चुरा लिया था। तब से आज तक मंदिर के गर्भगृह का सिंहासन सूना पड़ा है।
कहते हैं कि मंदिर से मूर्तियां चोरी होने के कुछ समय बाद ही लक्ष्मी नारायण की प्रतिमाएं बरामद कर ली थी, लेकिन मूर्तियां खंडित होने के चलते दोबारा स्थापित नहीं हो सकीं।
इस मंदिर में सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के चित्र बने हुए हैं। चित्रों के चटकीले रंग इतने जीवंत लगते हैं। जैसे वह हाल ही में बने हों। मंदिर में झांसी की लड़ाई के दृश्य और भगवान कृष्ण की आकृतियां बनी हैं।
मंदिर से बाहर आते हुए जैसे ही हम गाडी में बैठे वैसे ही मंदिर दर्शन करके निकलने वाले एक परिवार के मुखिया ने हमने अनुरोध किया कि हम उनको , जहां तक जा रहे हों वहां तक छोड़ दें। धूप तेज थी। कोई सवारी थी नहीं। अपन ने उनको गाडी में बैठाया और बस स्टैंड तक छोड़ दिया। रास्ते में बतियाते हुए उनके बारे में जाना।
पता चला कि परिवार सूरत से आया था ओरछा दर्शन को। मेवों का व्यापार करते हैं वो। काजू, किसमिस, अखरोट आदि खरीदना, बेंचना। पांच मिनट के लगभग लगे इनको बस स्टैंड तक छोड़ने में। इतने में ही ढेर सारे धन्यवाद और सूरत आने और उनके घर ठहरने का निमंत्रण मिल गया। देखिये कब जाना होता है सूरत।
लक्ष्मी नारायण मंदिर देखने के बाद कल्पवृक्ष देखने गए। शहर के बाहर स्थित यह पेड़ लगभग पांच सौ साल पुराना बताया जाता है। कहते हैं कि इसके नीचे खड़े होकर जो मुराद मानो पूरी होती है। इसे मनोकामना पेड़ भी कहा जाता है। पेड़ दो हिस्सों में है। लगभग एकरूप हैं दोनों हिस्से। एक का कोई भी हिस्सा हिलाओ तो दूसरा हिस्सा भी हिलता है। पवन ने हिलाकर भी दिखाया।
हमने पूछा पवन से कि तुमने भी कोई मनोकामना की होगी इस पेड़ के नीचे। बोले –‘की थी लेकिन अभी पूरी नहीं हुई है।‘ हमने पूछा क्या थी मनोकामना ? तो बोले –‘बताई थोड़ी जाती है मनोकामना। बताने से पूरी नहीं होती।'
इस बीच पवन ने अपने बारे में बताया कि वे गुजरात में एक जगह खाना बनाने का काम करते थे। कोरोना काल में सब ठप्प हो गया। घर वापस आना पड़ा। यहाँ भी कोई काम नहीं था शुरू में । फिर ऑटो चलाना शुरू किया। दिन में दो टूर तक मिल जाते हैं लोकल के। उसी से काम चलता है। कभी-कभी नहीं भी मिलता है काम। लेकिन ठीक है।
मनोकामना वृक्ष देखने के बाद अपन बेतवा तट की तरफ बढे। बेतवा नदी के पास ही छतरियां बनी हुईं थी। पवन हमको बेतवा किनारे छोड़कर चले गए।
बेतवा नदी में लोग नहा रहे थे। अपन का भी मन हुआ नहाने का। पानी में उतरकर खड़े हो गए। गाडी से अटैची मंगवाई। उसमे कपडे थे। लेकिन तौलिया नहीं थी। सोचा कि नहाने के बाद कपडे कैसे बदलेंगे। तमाम तरकीबें सोचते रहे लेकिन कोई उपाय सूझा नहीं। यह भी सोचा कि कहीं आड़ में खड़े होकर बदल लेंगे कपडे, गाडी में बदल लेंगे। लेकिन संकोच ने हमला कर दिया। हम संकोच-घायल हो गये। पानी के अन्दर उतरकर नहाए नहीं। लोगों को मस्ती से नहाते देखते रहे।
नहाए भले नही लेकिन काफी देर तक बेतवा के पानी में घुटने तक भीगे खड़े रहे। पानी में तमाम लोग नहाते रहे हैं। पानी में कई टूटी हुई चूड़ियाँ और इसी तरह के श्रृंगार के सामान दिख रहे थे। लोग वहां नहा रहे थे, मोटर वोट में लोग बेतवा दर्शन कर रहे थे। अपन पानी में खड़े-खड़े सबको देखते हुए आनंदित होते रहे।
बेतवा नदी से निकलकर बाहर आये और वहां पास ही बनी छतरियां देखी। ओरछा के राजाओं के स्मारक उनके वैभव की कहानी कहते हैं। शानदार इमारतों में कोई रहता नहीं लेकिन राजाओं की कहानी किस्से चलते रहते हैं इसी बहाने।
लौटते समय गाडी में बैठे तो देखा कि सीट पर तौलिया लगी थी। आगे भी तौलिया। जिस तौलिया के न होने के कारण बेतवा नहान से वंचित रह गए वे तो अनेक थीं गाडी में। लेकिन अपन केवल अपनी अटैची ही देखते रह गए। ऐसी ही संकुचित खोज के कारण जीवन में अनगिनत चीजों से अपन वंचित रह जाते हैं।
लेकिन बेतवा अभी कहीं गयी नहीं है। फिर जायेंगे और जी भरकर नहायेंगे बेतवा में।
लौटते समय रास्ते एक एक जगह चाय पी। वहां एक मोटर साइकिल वाले ने बताया कि उसका लाइसेंस नहीं है। इस चक्कर में पिछले सालों में वह दसियों हजार घूस/नजराने के रूप में दे चुका है पुलिस वालों को। पुलिस वाले कभी कोल्डड्रिंक मंगा लेते हैं, कभी पानी की बोतल , कभी कोई और सामान। हमने पूछा तो लाइसेंस बनवा काहे नहीं लेते? पता चला कि उसका घर गोरखपुर में हैं। पता वहां का है। जब जाएगा तब बनवाएगा।
हमको लगा कि बताओ भला एक लाइसेंस न होने के चलते कोई हजारों रुपये हलाक करा सकता है। लेकिन हमारे सोचने से क्या होता है? दुनिया में न जाने कितने काम होते हैं जिनके बारे में अपन सोच भी नहीं सकते। सोचते भी नहीं। लेकिन वे हुए चले जा रहे हैं धड़ल्ले से। बिना हमसे पूछे। क्या कर सकते हैं अपन। कुछ भी तो नहीं।

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Sunday, May 26, 2024

ओरछा के महलों में कुछ देर



ओरछा के राम मंदिर और चतुर्भज मंदिर दर्शन के बाद वहाँ के महल देखने के लिए आगे बढ़े। धूप तेज हो गयी थी। सड़क किनारे की दुकाने खुलने लगी थीं। दुकानदार ग्राहकों का इंतज़ार करने लगे थे। गर्मी के चलते वातावरण अलसाया सा लग रहा था। पास ही थे इसलिए पैदल ही चल दिए। सोचा महल देखने के बाद गाड़ी बुला लेंगे। फिर बाक़ी का ओरछा घूमेंगे।
महलों वाले इलाक़े में पहुँचने पर रास्ते में कई आटो महल की तरफ़ जाने वाले रास्ते में खड़े दिखे। हम कुछ सोचें तबतक एक आटो वाले ने हमको लपक लिया। आटो चालक बालक पवन ने हमसे कहा -'ओरछा के सारे स्थल घुमा देंगे। चार सौ रुपए लगेंगे।' हमको पवन का प्रस्ताव बुरा नहीं लगा। हम लपक के आटो पर चढ़ लिए।
आगे बढ़ने पर हमने अपने ड्राइवर संजय को फ़ोन किया और कहा -'तुम भी आ जाओ। गाड़ी यहीं महल के पास खड़ी कर दो। साथ में घूम लो ओरछा।' पर संजय को मेरा प्रस्ताव कुछ जंचा नहीं। बोले -'हम यहीं हैं। गाड़ी पर। आप घूम के आइए।'
अपन पवन के साथ महल की तरफ़ बढ़े। शुरुआत में ही एक जगह टिकट मिल रही थी। ओरछा के सभी पर्यटन स्थल के लिए प्रवेश पत्र। (शायद )पचास रुपए की थी टिकट। पैसे पवन ने अपने पास से दिए। हमारे देने के लिए हो गए चार सौ पचास रुपए।
महलों के प्रांगण में तीन महल अग़ल-बग़ल बने हुए हैं। जहांगीर महल, शीश महल और राजमहल। सबसे पहले अपन जहांगीर महल को देखने के लिए आगे बढ़े।
महल के प्रवेश द्वार पर ही पर्यटन विभाग के लोग बैठे थे। जहांगीर महल की तरह ऊँधती मुद्रा में। टिकट देखकर अंदर जाने दिया और फिर ऊँधने लगे।
जहांगीर महल का निर्माण बुंदेला राजा बीर सिंह देव ने मुग़ल बादशाह जहांगीर के ओरछा आगमन के समय उनके सम्मान में करवाया था। सत्रहवीं शताब्दी में बनवाए गए इस तीन मंज़िला इमारत में कुल २३६ कमरे हैं जिनमें १३६ भूमिगत हैं। जहांगीर महल को हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में भी मान्यता मिली। महल के कमरों में पेंटिंग्स के अवशेष दिखते हैं। अधिकतर चित्र रामायण महाभारत की कथाओं के लगते हैं। जब बना होगा महल तो कितना खूबसूरत और आकर्षक रहा होगा।
जहांगीर महल देखकर लगा कि पुराने जमाने में राजा महाराजाओं के सम्मान में कितना खर्च होता था। वर्षों की अवधि में बना होगा जहांगीर महल उसकी अगवानी के लिए। खर्च की परम्परा आज भी जारी है। किसी मंत्री के दौरे में रातों-रात सड़क और दीगर निर्माण रातों-रात हो जाते हैं। अधिकतर मंत्री-संतरी भी पुराने जमाने के राजे-महाराजे की तरह ही महसूस करते हैं।
जहाँगीर महल से निकलकर बाहर लगी पानी की मशीन से पानी पीकर बगल में ही बने शीशमहल का बाहर से ही दीदार किया। इस महल का निर्माण सन् 1706 में ओरछा के महाराज उद्देत सिंह ने करवाया था जो अन्यंत बलशाली एवं वीर थे। कहते हैं कि तत्कालीन मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ने इनकी वीरता से प्रभावित होकर अपनी तलवार इन्हें भेंट की थी जो आज भी ओरछा राज्य के शस्त्रालय में रखी हुई है। शीशमहल का निर्माण वास्तव में एक अतिथि गृह के रूप में करवाया गया था। विभिन्न रंगों के कांच जड़ित होने के कारण ही इसका नाम शीशमहल रखा गया था। इस महल में शाही एवं अन्य कीमती सामान लगा हुआ था जो धीरे-धीरे गायब होता गया। महल के अन्दर भव्य विशाल कक्ष एवं स्नानगृह आदि उस समय के राजाओं की विलासिता के परिचायक हैं।
आजकल शीश महल का देखरेख मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग करता है। अपन को यहाँ रहना तो था नहीं सो इसे बाहर से ही देखते हुए बगल में स्थित ओरछा के राजमहल की तरफ बढ़ गए।
अपने प्राचीन वैभव का निरंतर बखान करता हुआ ओरछा का विशाल राजमहल एक मिसाल है। इस ऐतिहासिक महल का निर्माण भी महाराज वीरसिंह जू देव ने सन् 1616 ई. में करवाया था। महल के प्रवेश द्वार पर अनमने भाव से टिकट देखने वालों के अलावा अन्दर लगभग सन्नाटा था। राजमहल के अलग-अलग भाग के बाहर आडियो लिंक के माध्यम इमारतों का परिचय दिया गया था। आडियो लिंक स्कैन करके मोबाइल में खोलकर इमारत का विवरण सुनते हुए आप महल भ्रमण कर सकते हैं।
कुछ आडियो लिंक खुर्ची हुई होने के कारण डाउनलोड नहीं हुई। राजमहल के अलग-अलग हिस्से घूमते हुए उनके किस्से सुने। जनानखाना, नहानघर, निपटानघर , रनिवास , पूजाघर , नौकरों के रहने की जगह और तमाम रिहायशी इलाके देखे । अधिकतररिहायशी कमरों की छतों, दीवारों पर हिन्दू धर्म की कथाओं से जुड़े चित्र बने हुए थे । पुराने हो जाने के चलते चित्रों का रंग फीका पड़ गया था लेकिन अंदाज लगता था कि जब बने होंगे चित्र तो कितने खूबसूरत लगते होंगे । अफसोस कि इस शानदार महल और चित्र बनाने वालों के नाम का कहीं कुछ पता नहीं चलता ।
चतुर्भज मंदिर बनवाने वाली रानी जी की इच्छा थी उनके महल के कमरे के झरोखे से मूर्ति के दर्शन हो सकें। रानी के महल के कमरे के खिड़की से देखने पर सामने स्थित चतुर्भज मंदिर की मूर्ति साफ़ दिखती है। अलबत्ता कैमरे की नजर से जब मूर्ति देखने की कोशिश की तो फोटो आया नहीं।
उस समय के नहानघर और निपटानघर भी देखने को मिले। निपटानघर तो आजकल इन्डियन स्टाइल के खुले में बने शौचालय सरीखे बने थे। पहली मंजिल पर बने इन शौचालयों की सफाई उस समय के कामगार करते होंगे। शौचालयों की यह व्यवस्था शहरों में तो पिछ्ली सदी के आखिर तक रही। नहाने के साझा नहानघर सरीखे बने थे। उनमें पानी जमा करके लोग नहाने होंगे।
महल की बनावट इस तरह की थी कि हवा का आवागमन सुचारू रहे। एक संकरे से रास्ते से ऊपर की तरफ जाते हुए हवा सरसराती हुई आती महसूस हुई। कितने कुशल रहे होंगे इसको बनाने वाले कारीगर जिनके बारे में आज कुछ पता नहीं।
राजमहल से बाहर निकलकर हम आगे की तरफ आये। पवन को फोन किया तो पता चला कि वो किसी दूसरे टूरिस्ट को ओरछा दर्शन करा रहे हैं। थोड़ी देर में आएंगे।
समय का उपयोग करने के लिए अपन सामने से अन्दर घुसे। यह हिस्सा देखने से रह गया था। सामने से दीवाने आम दिखा। दीवाने आम में आम जनता आती होगी। राजा-महाराजा उनकी फ़रियाद सुनते होंगे। मौके-मूड के हिसाब से निर्णय लेते होंगे।
हमने जब देखा दीवाने आम तब वह राजा के रूप में तो कोई नहीं था। अलबत्ता फरियादी वाली जगह पर दो कुत्ते ऊँघ रहे थे। शायद उनकी यही मांग रही होगी कि जहाँपनाह हमको इस विकट गर्मी में यहाँ से निकाला न जाए। चुपचाप पड़े रहने दिया जाए। उनके तसल्ली से पड़े रहने के अंदाज से लग रहा था कि उनकी फ़रियाद दीवाने आम ने मंजूर कर ली थी।
दीवाने आम से बाहर आकर अपन इधर-उधर घूमते हुए अपने ऑटो ड्राइवर पवन का इन्तजार कर रहे थे कि हमको देखकर किसी ने पूछा –“क्या आप अनूप जी हैं?” पता चला कि सवाल करने वाली हमारी श्रीमती जी की सहेली और हमारी फेसबुक मित्र Hina Srivastava जी हैं। हिना जी उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। उनके गाये एक गीत को 16 लाख लोग देख चुके हैं। वे अपने परिवार के साथ ओरछा घूमने आई थीं। कानपुर में रहने वाले फेसबुक मित्रों की पहली मुलाक़ात ओरछा में हुई। शायद इसी को संयोग कहते हैं।
किले से बाहर निकलते हुए गुजरात से ओरछा दर्शन करने आये एक परिवार के लोगों के अनुरोध पर हमने उनका फोटो खीचा। बाद में मेहनताने के रूप में उन्होंने हमको भी अपने साथ खडा करके फोटो खिंचवाया। इसके बाद वे अन्दर की तरफ चले गए। अपन बाहर निकल आये। पवन अपने ऑटो के साथ हमारा इन्तजार कर रहे थे।
(राममंदिर और चतुर्भुज मंदिर से सम्बद्ध पोस्ट कमेंट बॉक्स में )

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Saturday, May 25, 2024

रिटायरमेंट के बाद



25 दिन हो गए सरकारी सेवा से रिटायर हुए । तमाम काम सोचे थे करने के लिए कि ये करेंगे, वो करेंगे। बस एक बार रिटायर भर हो जाएँ। सारे के सारे काम, सिवाय निठल्लेगीरी के, उलाहना दे रहे हैं कि हम पर अमल नहीं हुआ, हमारे साथ 'इरादाखिलाफ़ी' हुई। कोई-कोई तो यह भी कह रहा है कि तुम भी बदल गए। हमें तुम से ये उम्मीद नहीं थी।
काम जो सोचे थे उनमें से एक था घूमने का। सोचा तो यह था कि रिटायर होते ही कहीं घूमने निकल जाएँगे। भूटान, बांगलादेश, श्रीलंका, यूरोप मतलब कहीं भी। देश में भी तमाम जगहें हमारे घूमने की लिस्ट में हैं। लेकिन कहीं निकलना हुआ नहीं। इस मामले में नूर साहब के शेर बहुत सहारा देते हैं :
मैं रोज़ मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था,
मगर सफ़र न कभी एख्तियार (शुरू) करता था।
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैं ज़िंदगी पर बहुत ऐतबार (भरोसा) करता था।
पिछले दिनों मेरा बेटा अपने कजाकिस्तान गया था। वहाँ के किस्से, फ़ोटो, विडीयो लगाए अपने यहाँ तो किया कि फ़ौरन निकल लें। पहुँच जाएँ कजाकिस्तान। घूमें आसपास। बग़ल में समरकंद है जहां से बाबर आए थे। लेकिन फिर आलस्य ने और बगलिया के रोक लिया। सोचा जाएँगे तसल्ली से। कौन समरकंद और कजाकिस्तान कहीं भागे जा रहे हैं।
पढ़ने के लिए तमाम किताबें सोची थीं कि एक-एक कर पढ़ी जाएँगी। अभी तक शुरुआत नहीं हुई है। रिटायरमेंट पर तमाम दोस्तों ने किताबें भेंट की हैं। कुछ पहले की पढ़ी, कुछ नई, कुछ पसंदीदा।कुछ मित्रों ने मुझे रामायण, गीता भी भेंट की। कई प्रतियाँ हों गयीं। उन दोस्तों की शायद सलाह यही होगी कि लोक की बात ख़त्म हयी, अब परलोक सुधारने के प्रयास किया जाए।
इरादा यह भी थी कि उर्दू और स्पेनिश सीखेंगे। उर्दू सीखने की तमन्ना तो वर्षों से है। तमाम बार अलिफ, बे, ते लिखना सीखा भी लेकिन फिर छूट गया अभ्यास। स्पेनिश सीखने का चस्का पिछले साल तब लगा था जब मारखेज साहब की 'एकांत के सौ वर्ष' पढ़ी। डूओलिंगो एप से कई दिन स्पेनिश का अभ्यास भी किया। लेकिन बाद में वह भी ठहर गया। डुओलिंगो एप काफ़ी दिन तक हमारी बेवफ़ाई के संदेशे भेजता रहा। बाद में आजिज़ आकर वह भी शांत हो गया। दोनों इरादों पर से धूल झाड़कर अमली जामा पहनाने का विचार है अब।
लिखाई-पढ़ाई के तमाम छूटे हुए काम तय किए थे पूरे करने के लिए। अमेरिकी यात्रा के संस्मरण पर किताब 'कनपुरिया कोलंबस' फ़ाइनल कई बार चुके हैं । अब बस छपानी है। अलावा इसके कश्मीर, लेह-लद्धाख और दीगर घुमक्कड़ी के किस्से छाँटकर/लिखकर छपाने का इरादा है। 'व्यंग्य की जुगलबंदी' के सिलसिले में लिखे गए तमाम दोस्तों के लेख भी छाँटकर प्रकाशित करने का मन बनता है अक्सर। सबको इकट्ठा करना भी बड़ा काम है। देखते हैं कितना हो पाता है। किताब छपाने के तमाम हसीन लफड़े होते हैं। उनसे गुजरना भी रोचक अनुभव होता है।
अपने सेवाकाल के अनुभव भी लिखने के मन है। जिन लोगों के साथ काम किया उनके बारे में लिखने का विचार है। इस विचार पर अमल करने में हिचक भी है। पता नहीं कौन अपनी 'तारीफ़' पर ख़फ़ा हो जाए।
समाज सेवा में भी कुछ योगदान करने का मन है। कैसे कर पाते हैं, कितना कर पाते हैं -समय बताएगा।
सरकारी सेवा से रिटायर भले हो गए हैं लेकिन जड़त्व के नियम के हिसाब से सेवा की मन:स्थिति से अलगाव पाने में समय लगेगा। विनोद जी Vinod Srivastava की कविता याद आती है:
जैसे तुम सोच रहे साथी ,
वैसे आज़ाद नहीं हैं हम
पिंजड़े जैसी इस दुनिया में
पंछी जैसा ही रहना है
भरपेट मिले दाना-पानी
लेकिन मन ही मन दहना है।
जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे संवाद नहीं हैं हम
जैसे तुम सोच रहे साथी
वैसे आज़ाद नाहीं हैं हम।
सरकारी सेवा में 36 साल बिताने के बाद पिंजड़ा खुल गया है लेकिन आदतन अभी भी मन उसी हिसाब से बना हुआ है। सोच के स्तर पर उससे मुक्त होने में कुछ समय लगेगा।
लेकिन यह तय है कि सेवाकाल पूरा करने की बहुत ख़ुशी है। आने वाले समय में तमाम नए काम काम करने की तमन्ना है। ज़िंदगी जितनी हसीन अभी तक रही, आगे की उससे भी खूबसूरत होगी ऐसा मुझे लगता है।
रिटायरमेंट के मौक़े पर हुई विदाई पार्टी के विडियो हमने यूट्यूब पर अपलोड किए हैं। इनमें हमारे कुछ मित्रों के और हमारे परिवार के लोगों और अपन के भी उद्गार हैं। जिन साथियों को देखने का मन हो वो कमेंट में दिए लिंक पर जाकर देख सकते हैं।

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Sunday, May 19, 2024

हमारे पास किताबें हैं



पिछले दिनों कई किताबें खरीदीं। पुरानी जो खरीद लिस्ट में थीं वो और नई जिनके बारे में पता चला। एक के बाद एक किताबें आई। उनको खोला गया। उल्टा-पलटा गया। कुछ को पढा भी गया। आधा-अधूरा। फिर रख दिया गया तसल्ली से पढ़ने के लिए।
तसल्ली से पढ़े जाने के इंतजार में तमाम तमाम किताबें अधपढी , अनपढी हैं। इनमें से कई क्लासिक की श्रेणी में आती हैं। उनको पढ़ने के मौके का इंतजार करते हुए न जाने कितने दिन , महीने और साल भी बीत गए। लेकिन लगता है कि पढ़ ही लेंगे। तसल्ली से।
पिछले दिनों जबलपुर गए तो वहां से भी तमाम किताबें ले आये। परसाई पर केंद्रित कांतिकुमार जैन जी के संस्मरण 'तुम्हारा परसाई' पहले पढ़ चुके थे लेकिन वहां दिखी तो खरीद ली। इसके अलावा परसाई जी की जीवनी 'काल के कपाल पर हस्ताक्षर' , ज्ञानरंजन जी की कई किताबें, उनको लिखे पत्रों के संकलन जिनका सम्पादन प्रियंवद जी ने किया है, स्वदेश दीपक जी की किताब 'जिन मांडू नहीं देखा' और दीगर किताबों के अलावा और कई किताबें खरीदीं।
किताबें खरीदते समय भी एहसास होता है कि पता नहीं इनको कब पढ़ पाएंगे, पहले की भी किताबें पढ़नी हैं। लेकिन जब किताब सामने दिखती है तो लगता है खरीद ही लो। पता नहीं बाद में मिले न मिले।
किताब पढ़ने वाले सभी लोगों के साथ लगभग ऐसा ही होता होगा। अपने पास कभी किताबें नहीं मिलती थीं, अब किताबें ही किताबें हैं लेकिन उनको पढ़ना नहीं हो पाता।
दो दिन पहले भी कुछ किताबें खरीदीं। किसी पोस्ट में चे गवारा की ' मोटर साईकिल डायरी' फ़िल्म का जिक्र पढा। फ़िल्म खोजी तो मिली नहीं। फिर सोचा किताब भी तो है। किताब ही ली जाए। आर्डर करने बैठे तो एक के बाद एक कई किताबें आर्डर कर दीं।
इस बार जो किताबें आर्डर की उनमें सबसे पहले आई गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की कहानियों की किताब ‘नदी झूठ नहीं बोलती ‘ बच्चों के लिए लिखी छोटी-छोटी कहानियां। पहले भी गिरिजा जी ने अपनी दो किताबें भेजी थीं। घर बदलने के क्रम में वे किताबों के बक्से में ही रह गईं अब तक। अब नए घर में खुलेगा बक्सा तब पढ़ी जाएंगी किताबें।
कल आई Pramod Singh जी की किताब 'बेहयाई के बहत्तर दिन।' प्रमोद जी किताब में चीन के किस्से हैं। देखना है ब्लाग में लिखे किस्सों से किताब के किस्से कितना अलग हैं। प्रमोद जी आसानी से समझ में आने वाली बात को अच्छी लिखाई मानने से परहेज टाइप करते हैं। उसकी झलक उनके लिखाई में भी दिखती है।
पिछले दिनों प्रमोद जी हमारे घर आये। किताबों की जामा तलाशी ली। मुझे लगा पूछेंगे की हमारी किताब दिखाओ। उन्होंने पूछा नहीं। पुण्य मिलेगा उनको।
'बेहयाई के बहत्तर दिन ' के साथ आई चे गवारा की किताब' मोटर साइकिल डायरी'। इसकी भूमिका चे गवारा की बिटिया ने लिखी है। हमारी हम उम्र है। किताब में नक्शा बना है चे ग्वारा के मोटरसाइकिल टूर का। मन किया लेटिन अमेरिका जाएं और किसी की मोटरसाइकल मय ड्राइवर किराए पर लें और वह रास्ता तय करें जिस रास्ते चे ग्वारा गए थे। लेकिन मन करना और होता है, सही में करना और।
आज अनिल यादव की किताब 'कीड़ा जड़ी' आई। संग में चे ग्वारा की 'मोटरसाइकिल डायरी' भी। लगता है गलती से दोबारा आर्डर हो गयी। लेकिन अच्छा ही लगा। भेंट में देने के लिए रहेगी पास में। 'कीड़ाजड़ी' भी शायद मेरे पहले से है। एक भेंट भी कर चुके हैं किताब प्रेमी की । मेरे पास जो है वो किताबों के बीच कहीं छिपी होगी। दूसरी भी रहेगी। काम आएगी।
आज दूसरी खेप में आई शिवमूर्ति जी की किताब 'अगम बहै दरियाव'। किताब का परिचय लिखा है -'आपातकाल से लेकर उदारीकरण के बाद तक करीब चार दशकों में फैली ऐसी दस्तावेजी और करुण महागाथा जिसमें किसान जीवन अपनी सम्पूर्णता में सामने आता है। किताब की कई लोगों ने तारीफ की थी। कुछ दिन पहले Vineet Kumar ने अपनी पोस्ट में जिक्र किया था। याद आया तो फिर मन किया ले ही ली जाए।
आज जब पढ़ना शुरू किया तो लगा कि पढ़ते रहें तो हफ्ते भर में पढ़ लेंगे। देखते हैं।
पिछले दिनों असगर वजाहत की किताब 'उम्र भर सफर में रहा' पढ़ी। इसके अलावा नीरजा चौधरी जी की किताब 'how prime ministers decide' का पहला अध्याय पढ़ा था। इसमें इंदिरा गांधी जी द्वारा आपातकाल लगाने से लेकर हटाने तक के किस्से विस्तार से बताए गए है। दूसरे प्रधानमंत्रियों के किस्से पढ़ने हैं अभी।
नीरजा जी की किताब का जिक्र अखबार में या कहीं और पढ़ा था। इसके बाद पुण्य प्रसून बाजपेयी जी की लाइब्रेरी में रखी दिखी। उसई समय सोचा था कि यह किताब लेनी है। संयोग से रिटायरमेंट के समय दफ्तर के साथियों ने भेंट देने के लिए किताबों की पसंद पूछी तो हमने यह किताब और दूसरी मार्खेज की Love in the time of Cholera' बताई थी। साथियों ने खोजकर किताब हमको विदाई समारोह में भेंट की।
Love in the time of Cholera पहले भी कहीं से डाउनलोड की थी लेकिन पढ़ नहीं पाए थे। गए दिनों Prabhat Ranjan जी ने संगत में Anjum Sharma जी से बातचीत में जिक्र किया कि 'कसप' लिखने के पहले मनोहरश्याम जोशी जी ने यह उपन्यास पढ़ा था। इसका किस्सा सुनकर हमारे मन में यह किताब पढ़ने की इच्छा हुई। किताब तो मिल हुई। देखते हैं कब तक पढ़ पाते हैं।
रिटायरमेंट के मौके पर तमाम उपहारों के साथ किताबें खूब मिलीं। Nirupma दीदी ने ने बहुत पहले ही रघुवीर सहाय रचनावली देने की लिए कहा था। वह मिली। इसके अलावा और भी कई मित्रों ने कई किताबें भेंट कीं। इन किताबों में रामचरित मानस, गीता की की भी कई प्रतियां हैं।
एक मित्र ने जावेद अख्तर की जीवनी Jadunama भेंट की। बहुत बढ़िया आर्ट पेपर में छपी किताब। हमने किताब का हर कोना छान मारा उसमें कहीं भेंट देने वाले का नाम नहीं लिखा। पता चलता तो स्पेशल धन्यवाद देते।
हमारे घर में हमको सबसे कीमती चीजें किताबें लगती हैं। पढ़ भले न पाए लेकिन लगता है कि हैं तो पास में। कभी न कभी पढ़ ही लेंगे। दीवार पिक्चर में शशि कपूर जिस तरह अमिताभ बच्चन से कहते हैं -'हमारे पास मां है।' हमसे कोई अगर कहे -'हमारे फलाना है, ढिमाका है, तुम्हारे पास क्या है?'
इस सवाल के जवाब में हम यही कहेंगे -'हमारे पास किताबें हैं।'
किताबों के बारे में इतनी बातें करने का कारण यह रहा कि आज Jagadishwar Chaturvedi जी की पोस्ट पढ़कर जानकारी हुई कि आज राष्ट्रीय पठन दिवस है। खोजने पर पता चला कि भारत में हर साल 19 जून के दिन राष्ट्रीय पठन दिवस मनाया जाता है. पुस्तकालय आंदोलन के जनक कहे जाने वाले पुथुवायिल नारायण पणिकर के सम्मान में हर साल 19 जून के दिन राष्ट्रीय पठन दिवस मनाया जाता है।
आज जबकि किताबें पढ़ने का चलन कम होता जा रहा है तब कोशिश करें कि किताबें पढ़ते रहें और उनकी चर्चा करते रहें। इससे पढ़ने का चलन कुछ तो बनेगा।

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