Monday, January 30, 2023

किताबों के बीच कुछ घंटे



 
नई जगह से सनीवेल पब्लिक लाइब्रेरी पास ही थी। करीब दस मिनट की दूरी। रास्ता सीधा। नाश्ता करके निकल लिए लाइब्रेरी।
रास्ते मे घर, मकान , सड़क के अलावा स्कूल भी मिले। एक स्कूल पब्लिक स्कूल था। चौराहे के एक कोने पर।
सुरक्षा के लिहाज से स्कूल लोहे की सरियों से ढंका था। बच्चे मैदान मे खेल रहे थे। उनकी देखभाल के लिए स्कूल की टीचर आसपास घूम रहीं थीं।
आगे एक और स्कूल दिखा। छोटे से मकान में। सजा हुआ था स्कूल। बाहर ही बच्चों के लिए काम के रजिस्टर भी रखे थे। हमने स्कूल देखने के लिए आफिस मे बात की। उन लोगों ने कहा –‘स्कूल देखने के लिए पहले से अनुमति लेनी होती है। आपने कोई अनुमति नहीं ली है इसलिए आपको हम स्कूल दिखा नहीं सकते।‘
हम आगे बढ़ गए। एक छुटके से घर मे इतने प्यारे अंदाज से वेलकम लिखा था। मन किया चले ही जाएँ घंटी बजाकर। स्वागत के लिए प्रस्तुत होकर करें- ‘बढ़िया चाय पिलाओ।‘ लेकिन पता था यह वेलकम लिखने के लिए है, अमल के लिए नहीं।
लाइब्रेरी के पास पहुंचकर खोजने के बहाने इधर-उधर टहलते रहे। कई लोगों से रास्ता पूछा। कई लोगों से बतियाए। एक घर के बाहर लाइब्रेरी से संबंधित कोई सूचना का कागज चिपका था। हमको लगा यही लाइब्रेरी है। खड़े हो गए वहीं। तब तक कोई अंदर से निकला। पूछा तो उसने बताया –‘लाइब्रेरी बगल मे है।‘
बगल मे पहुंचे तो बड़े से अहाते के बाहर तमाम लोग धूप मे पढ़ी कुर्सियों पर बैठे किताबें पढ़ रहे थे। एक महिला अपनी छोटी बच्ची को किताब के चित्र दिखाती हुई पढ़ा रही थी। कुछ लोग खाते-पीते हुए किताबों मे रमे हुए थे। लाइब्रेरी के बाहर ही एक किताब पढ़ते हुए आदमी की मूर्ति लगी हुई थी। मूर्ति मे आदमी बैठा हुआ हाथ मे बड़ा पाव टाइप का सैंडविच हाथ में लिए किताब पढ़ने मे मशगूल था। मूर्ति का आदमी मजदूर लग रहा था जो अपने काम के दौरान खाते हुए पढ़ाई कर रहा था। बहुत आकर्षक मूर्ति।
लाइब्रेरी के अंदर घुसते ही एक रैक पर कबाड़ के बने हुए कुछ सामान लगे हुए थे। वहाँ दिए विवरण के अनुसार मशहूर इंजीनियर सिड सिडेंसटीन (Sid Seidenstein) अपने रिटायरमेंट के बाद कबाड़ से कलाकृतियाँ बनाने का काम किया। अंग्रेजी में इसके लिए शब्द है –Bricolage जिसका मतलब है उपलब्ध सामग्री से निर्माण।
सिड करीब नब्बे साल की उम्र तक काम करते रहे (24 सितंबर, 1932 से -20 जुलाई 2022)। इन कलाकृतियों को बनाने की शुरुआत की कहानी बताते हुए सिड की पत्नी का ने बताया :
“एक दिन हम लोगों ने मार्डन आर्ट की शुरुआत का विज्ञापन देखा। विज्ञापन देखकर उन्होंने कहा:” ज्यादातर मार्डन आर्ट देखकर ऐसा लगता है जैसे कबाड़ को एक जगह रख दिया गया हो। मुझे लगता है कि मैं आम तौर पर फेंक दी जाने वाली सामान्य चीजों से बढ़िया कलाकृतियाँ बना सकता हूँ।“
इसके बाद सिड ने अपने गैराज में पुरानी चीजें इकट्ठा करके उनसे कलाकृतियाँ बनाने का काम शुरू किया। धीरे-धीरे यह काम बढ़ता गया। दोस्तों ने अपने पास की तमाम प्रयोग की हुई चीजें सिड को देनी शुरू कीं और सिड ने तमाम कलाकृतियाँ बनाई।
वहाँ लगे नोटिस के अनुसार अगर किसी को कोई कलाकृति पसंद आती है तो वो उसे अपने साथ ले जा सकता था- मुफ़्त में। यह भी लिखा था कि अगर कोई कलाकृति टूट जाती है तो उसे गोंद से जोड़ ले। उन कलाकृतियों में कुछ पुरानी फ़्लापी से बनाई गई थीं, कुछ पुराने तारों से और तरह-तरह के कबाड़ से। हमने कोई कलाकृति वहाँ से ली नहीं। सोचा यह यहीं अच्छी हैं। हम ले जाएंगे तो अच्छी-खासी कलाकृति को कबाड़ मे ही बदल देंगे।
सिड की कलाकृतियाँ देखकर मुझे चंडीगढ़ में बना राक गार्डन याद आया। स्व. नेकचन्द जैन जी ने अपने वर्षों की अथक मेहनत से तमाम कबाड़ से इस उद्यान को खूबसूरत बनाया था।
सिड की कलाकृतियाँ देखने के बाद हमने लाइब्रेरी देखी। बहुत बड़ी है लाइब्रेरी। तमाम भाषाओं की किताबें वहाँ मौजूद थीं। जगह –जगह लोगों के पढ़ने के इंतजाम के लिए कुर्सियाँ, कंप्यूटर और अन्य सुविधाएं मौजूद थीं। रिसर्च वाले सेक्शन में फोटोकापी की सुविधा भी मौजद थी।
जगह-जगह किताबों से संबंधित उद्धरण भी लगे हुए थे। एक जगह लिखा था –‘There is no such word as a dirty word. Nor is there a word so powerful, that it’s going to send the listener to the lake of fire upon hearing it’ –Frank Zappa ( गंदा शब्द जैसी कोई चीज नहीं होती। न ही कोई शब्द इतना शक्तिशाली होता है कि सुनने वाले को आग की झील में फेंक दे –फ्रेंक जप्पा )।
किताबों पर प्रतिबंध से संबंधित एक उद्धरण इस तरह था- ‘Banning books give us silence when we need speech. It closes our ears when we need to listen. It makes us blind when we need sight- Stephen Chossky (किताबों पर प्रतिबंध लगाने हमको आवाज की आवश्यकता के समय मौन मिलता है। जब हमको सुनने की जरूरत होती है तब हमारे कान बंद हो जाते हैं। दृष्टि की आवश्यकता के समय दृष्टिहीन हो जाते हैं- स्टीफेन चास्की)
तमाम तरह की किताबें देखते हुए उनको उलट-पलट कर देखा। कोई अंश देखकर लगा इसे पढ़ना चाहिए। उसी समय ऋतिक रोशन की पिक्चर ध्यान आई जिसमें वह किताब को हाथ में लेते ही पूरी पढ़ लेता है। लगा काश ऐसी शक्ति होती। लेकिन फिर लगा कि ऐसी शक्ति होने से किताब को मजे लेकर पढ़ने का सुख नहीं मिलता। हर चीज के दूसरे पहलू भी होते हैं।
आर्टिस्ट कैसे बने (Be the Artist) में समय प्रबंधन की महत्ता बताते हुए लिखा था –‘अपने समय की हिफाजत इस तरह करो जैसे अपने बटुए की करते हो।‘ हमको लगा कि यह बात तो सही है लेकिन बटुआ और समय की हिफाजत करना अभी तक सीख कहाँ पाए।
लाइब्रेरी में जगह-जगह लोग पढ़ते हुए दिखे। पूरी लाइब्रेरी घूमने पर हिन्दी की कोई किताब नहीं दिखी। हमने काउंटर पर मौजूद लाइब्रेरियन से पूछा तो वह खुद चलकर उस हिस्से मे ले गई जहां रैक में हिन्दी की किताबें लगी हुईं थीं। हिन्दी व्यंग्य की किताबें खोजीं तो केवल आलोक पुराणिक Alok Puranik जी की दो किताबें – ‘नेता बनाम आलू’ और ‘लव पर डिकाउंट’ दिखीं। इसके अलावा लतीफ़ घोंघी की किताब- ‘मेरे मौत के बाद’ , नीरज व्यास की –‘नेता चिड़िया घर में’, कैलाश चंद्र की –‘नंगों का लज्जा प्रस्ताव’ एक हास्य व्यंग्य का गुलदस्ता मौजूद था। इन किताबों के साथ कुछ और प्रमुख किताबों के अलावा व्रत कथाओं और पूजा-पाठ से संबंधित किताबें काफी दिखीं।
हिंदी व्यंग्य के खलीफा लोग शायद इस बात को नोट करें और अपनी किताबों के प्रचार-प्रसार के लिए कमर कसें।
लाइब्रेरियन से बातचीत के बाद जानकारी मिली कि इस लाइब्रेरी को देखभाल के लिए पंद्रह लाइब्रेरियन मौजूद रहते हैं।
लौटते समय सस्ते में बिकने वाली किताबें भी देखीं। तरह-तरह की किताबें देखकर मन ललचाया कि ले लें। लेकिन फिर ली नहीं। एक किताब का शीर्षक था –Encyclopedia of Horrifica’ पलटते हुए देखा इसमें तमाम डरावने किस्सों के बारे में जानकारी दी गई थी।
लाइब्रेरी के एक हिस्से में लाइब्रेरियन को कम्यूटर ट्रेनिंग की व्यवस्था दिखी। क्लास चालू थी। सीखने वालों में फास्टर सिटी लाइब्रेरी की जेमा भी दिखी।
लाइब्रेरी में कुछ घंटे बिताकर लौटते हुए लगा कि काश ऐसी व्यवस्थित लाइब्रेरी अपने यहाँ भी होतीं। लेकिन लगने और सोचने से कुछ होता होता तो बात ही क्या थी! सिर्फ सोचने से कुछ नहीं होता। करने से होता है। अपने यहाँ मौजूद लाइब्रेरी चलती रहें, बंद न हों यही बहुत है।

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Sunday, January 29, 2023

अमेरिका में घर बदलाई

 


पिछले दिनों बेटे ने घर बदला। अपने साथी के साथ दो साल फॉस्टर सिटी में रहने के बाद नया घर सनीवेल में लिया। नया घर दोनों के ऑफिस से पास पड़ता है। अगल-बगल मार्केट है। यह मुख्य कारण रहा नए घर में आने का।
शिफ्टिंग के लिए सुबह-सुबह दो लोग आये। ट्रक और शिफ्टिंग के लिए ट्राली साथ में। आते ही जुट गए। किचन का सामान, कपड़े और बाकी घरेलू सामान हम लोग पहले ही डब्बों में रख चुके थे। सिर्फ बड़ा सामान जैसे बेड, टीवी, सोफा आदि खोलना और पैक करना और लादना बाकी रह गया था।
शिफ्टिंग करने वाले लोगों ने पैक किया हुआ सारा सामान हाथ ट्राली में लादकर लिफ्ट से नीचे उतारा। ट्रक में चढ़ाया। ट्रक का डाला हाइड्रॉलिकली ऑपरेटेड था। सड़क के बराबर रखा डाला बटन दबाते ही ऊपर उठकर ट्रक के बराबर आ जाता। वो लोग ट्राली में सामान लिए-लिए डाले पर खड़े होते। बटन दबाते ही डाला ऊपर उठता। वो ट्राली का सामान ट्रक में सरका कर अगला सामान लादने चल देते।
दोनों शिफ्टिंग वाले चीनी थे। न उनको अंग्रेजी समझ में आती न हम चीनी बूझते। लेकिन काम दोनों को पता था। चालू था।
टीवी खोलने से पहले शिफ्ट करने वाले ने कुछ कहा। चीनी में। हमको समझ नहीं आया। कुछ देर अंग्रेजी और चीनी में कुश्ती होने के बाद भी बात पल्ले नहीं पड़ी। अचानक उनमें से एक ने झटके से जेब में हाथ डाला। मोबाइल निकाला। उसमें कुछ टाइप किया। टाइप किया हुआ मसौदा चीनी में था। समझ नहीं आया। उसने गूगल ट्रांसलिट्रेशन पर टाइप किया हुआ मसौदा चिपकाया और ट्रांसलेट का बटन दबाया। अंग्रेजी में लिखा हुआ आया -'टीवी आन करके चेक करवा लो।' वह टीवी पैक करने के पहले देखना चाहता था कि टीवी ठीक है कि नहीं। कहीं ऐसा न हो, कंडम टीवी ले जा रहे हों और वहां जाकर कहें -'शिफ्टिंग में टीवी खराब हो गया।'
बेड जो कि बड़ा लगता था , नट बोल्ट पर लगा था। पांच मिनट में खुल गया। घर का सारा सामान ढाई - तीन घण्टे में पैक होकर लद गया। वो लोग नई जगह का पता लेकर चल दिये। आधे घण्टे में 38 किलोमीटर दूर घर नई जगह पर पहुंच गए।
पहुंचते ही सारा सामान उतार कर सोफ़ा, बेड, टीवी लगाकर उन लोगों काम निपटा दिया। सारा काम शुरू से लेकर खत्म होने तक साढ़े पांच घण्टे में निपट गया। इन साढ़े पांच घण्टे में उन लोगों ने न कुछ खाया न पिया। पानी तक नहीं पिया। बस काम में लगे रहे। यह इस तरह का पहला अनुभव था हमारा।
शिफ्टिंग का भुगतान घण्टे की दर से हुआ। शिफ्टिंग चार्जेज 100 डॉलर प्रति घण्टे था। उसके ऊपर 10 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति घण्टा टिप के। साढ़े पांच घण्टे की दो लोगों की टिप हुई 110 डॉलर। इस तरह लेबर चार्ज हुआ 660 डॉलर। 45 डॉलर ट्रक का किराया। 20 डॉलर की और टिप कुल मिलाकर साढ़े पांच घण्टे के 725 डॉलर लगे (59100 रुपये)।
सवाल यह कि घर बदलने में जब इतना पैसा लगता है तो घर का किराया कितना होता होगा। अमेरिका (कैलीफोर्निया) में घर बहुत मंहगे हैं। दो कमरे , किचन, ड्राइंग रूम वाले घर के किराए 3 से 4 लाख रुपये महीने हैं। इस इलाके में ज़्यादतर नौकरी करने वाले लोग रहते हैं। सबसे ज्यादा ख़र्च घर के किराए पर लगता है। घर खरीदने की बात सोचना तो लोगों के लिए बहुत दिनों तक सपना ही रहता है।
सामान उतारने के बाद दोनों लोग चले गए। हम लोगों ने जुटकर रात तक सब सामान जमा लिया। एक दिन में घर बदलने और लगाने का यह नया और अनूठा अनुभव था।
नये घर के सामने ही बहुत बड़ा रिहायशी कॉम्प्लेक्स बन रहा था। मज़दूर लोग हेलमेट लगाये काम कर रहे थे। शाम के पाँच बजते ही काम बंद हो गया। ऊँची क्रेन पर अमेरिका का झंडा पहरा रहा था। हमको अपना राष्ट्र ध्वज याद आ रहा था। याद आ रहा था श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ जी का झंडा गीत-
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

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Tuesday, January 24, 2023

लाइब्रेरी में थ्री डी प्रिंटिंग



एक दिन घर के पास घूमते हुए एक लाइब्रेरी दिखी। शहर की पब्लिक लाइब्रेरी फ़ास्टर सिटी पब्लिक लाइब्रेरी। घर से 1.1 मील (1.77 किलोमीटर) दूर। नक़्शे के हिसाब से 22 मिनट की दूरी। कल देखने गए लाइब्रेरी।
दोपहर के बाद गए थे लाइब्रेरी। टहलते-टहले चार बजे क़रीब पहुँचे। रास्ते में कोई आता-जाता मिला नहीं। जो मिले भी वे सब अपने में मशगूल।
लाइब्रेरी के अहाते के ज़मीन के पत्थरों में कई प्रसिद्ध लेखकों के नाम खड़े थे। लाइब्रेरी के दरवाज़े के सामने पत्थर पर अंग्रेज़ी में लिखा था:
“Books are keys to wisdom's treasure;
Books are gates to lands of pleasure;
Books are paths that upward lead;
Books are friends. Come, let us read.”
― *Emilie Poulsson
(पुस्तकें ज्ञान के खजाने की कुंजी हैं; पुस्तकें सुख की भूमि का द्वार हैं; किताबें वो रास्ते हैं जो ऊपर की ओर ले जाती हैं; किताबें दोस्त हैं, आइए, पढ़ते हैं।)
किताबों की बारे में एमली पालसन की यह कविता पढ़ने के पहले ही अपन की किताबों से दोस्ती हैं और मानते हैं कि किताबें तमाम अलाय-बलाय से बचाती हैं।
जिस पत्थर पर यह कविता लिखी थी उसका फ़ोटो लेते समय पैर का जूता फ़ोटो में आ रहा था। हमने जीभ दाँतो के नीचे दबाकर पैर पीछे किया और फ़ोटो खींचा। फ़ोटो खींचने के बाद आगे बढ़े।
लाइब्रेरी का दरवाज़ा स्वचालित है। पास पहुँचते ही खुल गया। घुसते ही गेट की बायीं तरफ़ लाइब्रेरी से सम्बंधित तमाम नोटिस लगी थी। एक नोटिस में आत्मकथा लिखना सिखाने की सूचना थी। आभासी माध्यम से। कोई अनुभव नहीं। ग्रुप से जुड़ो। लिखना सीखो। नोटिस पुरानी थी लेकिन लिखना सिखाने के लिए लाइब्रेरी प्रयास करती हैं यह पता चला।
लाइब्रेरी में घुसते ही सैनिटाइज़र और मास्क रखे थे। कोरोना से बचाव के उपाय। ज़्यादातर लोग हाथ साफ़ करके ही लाइब्रेरी में घुस रहे थे।
लाइब्रेरी में घुसते ही एक कमरे में डिसकाउंट पर मिलने वाली किताबें रखीं थी। कई रैक्स में पूरी कमरा भर किताबें। किताबें पलट-पलट कर देखते रहे कुछ देर। एक किताब The Orphan Collector पलटते हुए एक पन्ने पर लिखा दिखा :
This is America, they need to learn our language or go back wherever they came from.
(यह अमेरिका है । उनको हमारी भाषा सीखनी पड़ेगी नहीं तो जहां से आए हैं वहाँ लौट जाएँ)
अमेरिका के बारे में लिखा यह वाक्य किसी भी जगह के बारे में सही है। जहां रहें उसके तौर-तरीक़े सीखना ज़रूरी है।
तमाम किताबें पलटते हुए बिल गेट्स की लिखी एक किताब -The speed of thought भी दिखी। 16.96 डालर की मूल दाम की किताब 2 डालर की मिल रही थी। किताब के पन्ने पलटते हुए उसे लेने का मन किया। हमने काउंटर पर भुगतान का करने के बारे में पूछा। पता चला -‘वहीं क्यू आर कोड से मोबाइल एप से आनलाइन भुगतान कर दीजिए।’ हमारे पास अमेरिका में मोबाइल एप से भुगतान करने की सुविधा नहीं थे। हमने पूछा -‘गूगल पे से हो जाएगा यहाँ भुगतान?’
बताया गया-‘नहीं। गूगल पे यहाँ नहीं चलता। नक़द भुगतान कर सकते हैं।’
नक़द भुगतान में मेरे पास एक डालर का नोट और खूब सारी रेज़गारी थी। मुझे पता नहीं था कि सारी रेज़गारी मिलकार एक डालर से कम से थी या ज़्यादा। हमने अपनी समस्या बताई। काउंटर पर मौजूद लाइब्रेरियन ने मुस्कराते हुए कहा -‘आप किताब ले जाइए। कल भुगतान कर दीजिएगा। खुद न आ पाएँ तो किसी से भेज दीजिएगा।’
पैसे भुगतान की समस्या पर कुछ और सवाल-जबाब हुए तो लाइब्रेरियन ने कहा -‘आप किताब ले जाइए। पैसे के बारे में चिंता न करें।’
लेकिन हमको मुफ़्त में किताब ले जाना जमा नहीं। हमने मेहनत करके सारी रेज़गारी जमा की। कुल मिलाकर दो डालर से अधिक ही होंगे। काउंटर पर दिए। उसने लिए नहीं। बोली -‘वहीं बक्से में डाल दीजिए। किताब ले लीजिए।’
हमने पैसे डाल दिए। लाइब्रेरियन ने न किताब देखी। न पैसे गिने। किताब पाकर हमारी ख़ुशी से से खुश हो गयी।
बाद में पता चला कि डिस्काउंट में मिलने वाली किताबें वो किताबें हैं जिनको लोग लाइब्रेरी को दान दे देते हैं। लाइब्रेरी वाले उनको बेंचकर लाइब्रेरी के लिए नई किताबें ख़रीदते हैं।
किताब लेकर हमने पूरी लाइब्रेरी घुमी। तमाम लोग पढ़ रहे थे। बच्चों के सेक्सन में किताबों के साथ, डीवीडी और कम्प्यूटर वग़ैरह भी थे। कुर्सियों के साथ सोफ़े भी लगे थे। बच्चे अपने अभिभावकों के साथ पढ़ रहे थे। कुछ बच्चे फ़र्श पर बैठे कलरिंग कर रहे थे।
दूसरी तरफ़ बड़े लोगों की किताबें थीं। हज़ारों की संख्या में होंगी किताबें। जगह-जगह कम्प्यूटर भी लगे थे। लोग उन पर लाग इन किए हुए पढ़ रहे थे।
लौटकर फिर काउंटर पर आए। लाइब्रेरियन से हमने पूछा -‘यहाँ का फ़ोटो ले सकते हैं?’
उसने कहा -‘यह पब्लिक प्लेस है। आप फ़ोटो ले सकते हैं। लेकिन किसी को एतराज हो तो उसका फ़ोटो न लें।’
हमने लाइब्रेरी के फ़ोटो लिए। लाइब्रेरियन का भी। फ़ोटो लेने से पहले पूछने पर मुस्कराते हुए लाइब्रेरियन ने कहा -‘आप ले सकते हैं। वैसे मुझे पोज देना पसंद नहीं।’
बातचीत का सिलसिला शूरु हुआ तो पता चला कि लाइब्रेरियन जेना मूलतः सिंगापुर की है। 2008 से लाइब्रेरी में काम कर रही हैं। कई जगह तबादले होते हुए यहाँ आईं। लाइब्रेरी का काम पसंद है इसीलिए यहाँ पढ़ाई की और नौकरी भी। जेना (Jenna) नाम है। जेना के सर के कुछ बाल हरे थे। शायद रंगाए होंगे। हर रंग पसंद होगा। साथ खड़ी महिला से दोस्ताना अन्दाज़ में बतियाते हुए जेना किताबें इशू करती रही। हमसे भी बात करती रहती। बाद में पता चला साथ वाली महिला लाइब्रेरी इंस्पेक्शन के लिए आई है। मूलतः सिंगापुर की रहने वाली है। उसके बैज पर नाम लिखा था -नूरी।
लाइब्रेरी के काउंटर के पास ही छुटकी सी थ्री डी प्रिंटिंग मशीन रखी थी। थ्री डी प्रिंटिंग जटिलतम पार्ट्स के उत्पादन की आधुनिक तकनीक है। इसकी सहायता से किसी भी आकार का पार्ट बनाया जा सकता है। इस तकनीक की जानकारी देने के विचार से यह छोटी मशीन वहाँ रखी थी। कई तरह के आकृतियाँ बनाकर लोग समझ सकते हैं कि थ्री डी प्रिंटिंग कैसे होती है। लोग अलग-अलग तरह की आकृतियाँ बना रहे थे। सब कुछ मुफ़्त था।
हमने भी एक थ्री डी आकृति बनाई। अपने नाम के पहले अक्षर A को प्रिंट किया। प्रिंटिंग विकल्प चुनते ही मशीन काम पर लग गयी। प्लेटफ़ार्म ऊपर उठा। सेवईं की तरह का प्लास्टिक का धागा मशीन से निकला और प्रिंटिंग होनी लगी। दस मिनट क़रीब मशीन का हेडर इधर-उधर हिलता-डुलता रहा और आकृति बनती रही। आख़िर में A बन गया। हमने वहीं मौजूद चाकू की सहायता से उसको निकाला। जेना को दिखाया। वो मुस्कराते हुए बोली -‘अच्छा बना है। इट्स गुड।’
हमने पूछा -‘इसे मैं ले जा सकता हूँ?’
जेना बोली -‘हाँ। ये आपका है। आप ले जा सकते हैं।’
इस बीच लाइब्रेरी का समय समाप्त हो रहा था। बीस मिनट पहले उन्होंने माइक पर लोगों को बताया कि लाइब्रेरी बंद होने में बीस मिनट बचे हैं। दस मिनट पहले भी घोषणा की। पाँच बजे लाइब्रेरी बंद होने लगी। और लोगों के साथ हम भी बाहर निकल आए।
लाइब्रेरी में एक घंटा गुज़ारकर महसूस हुआ कि यहाँ बच्चों को पढ़ने के लिए उत्साहित करने का अच्छा माहौल है। लोग लाइब्रेरी आते हैं। बैठकर पढ़ते हैं। रखरखाव बहुत अच्छा है।
लाइब्रेरी की संख्या खोजते हुए नेट पर देखा तो पता चला अमेरिका में कुल 117,341 लाइब्रेरी हैं। इसके मुक़ाबले भारत में 54,856 पब्लिक लाइब्रेरी हैं। दुनिया भर में कुल 2600000 (26 लाख) लाइब्रेरी हैं।
संख्या की बात से ज़्यादा ज़रूरी बात लाइब्रेरी का रखरखाव है। अपने यहाँ लाइब्रेरियों के रखरखाव और सुविधाओं पर बहुत कुछ किये जाने की गुंजाइश है।
लौटते हुए शाम को गयी थी। सूरज भाई भी अपनी लाइब्रेरी बंद करके जाने वाले थे। जाते हुए मुस्कराते हुए बोले -‘कुछ पढ़ाई-वढ़ाई भी किया करो। ख़ाली लाइब्रेरी घूमने से कुछ नहीं होता।’
सूरज भाई मज़े लेने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते।
हम सूरज भाई को बाय बोलकर घर आ गए।

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Monday, January 23, 2023

अमेरिका में ख़रीदारी



अमेरिका में ख़रीदारी भी एक बवाल है। घर में कोई भी सामान काम हो, भागो दुकान। दुकान दूर हो तो निकालो कार। कार न हो तो इंसान बेकार।
संयोग से यहाँ बगल में ही एक छुटका शापिंग माल है। रोज़मर्रा की ज़रूरत का सामान सब्ज़ी, दूध वग़ैरह मिल जाता है। दूध की इतनी क़िस्में कि देखकर ताज्जुब हो कि इतनी तरह का दूध भी मिलता है। अंडे के इतने प्रकार कि छाँटना मुश्किल कि लेना क्या है। माल चाइनीज़ है। अधिकतर सामान चीन, ताइवान से आया दिखता है। लिखाई भी चीनी।
मॉल में घुसते ही लगता है कि किसी बड़ी फ्रिज में आ गए। ठंडा सा माहौल। घुसते ही लगता है कि निकलना है। अधिकतर लोग एहतियातन मास्क लगाए रहते हैं।
मॉल में दूध भले मिल जाए लेकिन ब्रेड सब अंडे वाली। ब्रेड लेने के लिए एक मील दूर भारतीय दुकान जाना पड़ता है- ‘इंडियन कैश एंड कैरी।’ रोज़मर्रा की ज़रूरत का अधिकतर सामान यहाँ मिल जाता है। भारतीय गाने भी बजते रहते हैं। एक दिन ख़रीदारी करके चलने लगे तो गाना बज रहा था -‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं।’ हमने सोचा हमसे ही कहा जा रहा है। रुक जाएँ। रुक भी गए कुछ सामान देखने के बहाने। लेकिन अगला गाना बजा -‘सैंया दिन में आना जी, आकर फिर न जाना जी।’ हम लगा हमको फूटाने के लिए ही बजा है गाना। बहुत टहल लिए। अब निकल लो। हम निकल लिए।
काम करने वाले भी शायद भारतीय हैं। रोहित, राहुल जैसे नाम सुनाई पड़ते हैं काउंटर पर। अंग्रेज़ी अलबत्ता उनकी भी गोल होकर अमेरिकन हो गयी है।
बग़ल के मॉल में अदरख बड़ी-बड़ी मिलती है। पहलवान टाइप। तंदुरुस्त। हाथ की उँगलियों से दोगुनी मोटी। रसभरी। शायद मेक्सिकन अदरख हो। घर में लोगों को तन्वंगी अदरख ही पसंद है। वह इंडियन स्टोर में ही मिलती है। ख़त्म हो गयी तो निकल लिए लेने के लिए भारतीय स्टोर। सोचा टहलना भी हो जाएगा।
रात हो गयी थी। लेकिन सड़क पर उजाला था। गाड़ियाँ तेज़ी सी भागी चली आ रहीं थीं। लेकिन ख़तरा नहीं। सड़क पर सिर्फ़ गाड़ियाँ ही चलती हैं। बहुत हुआ तो मोटरसाइकिल दिखी कहीं-कहीं। इंसान के चलने के लिए फुटपाथ है। साइकिल लेन है कहीं-कहीं। अपने यहाँ सड़क पर इंसान, साइकिल, गाड़ी, घोड़ा, टेम्पो, स्कूटी, मोपेड, स्कूटर, मोटरसाइकिल, गाय, कुत्ता सब कुछ एक साथ चालते हैं। सड़के वसुधैव कुटुम्बकम का जीवंत इश्तहार लगती हैं। लेकिन यहाँ अमेरिका में यह घालमेल नहीं दिखता।
पैदल चलने वाला सड़क पार करने के लिए सड़क किनारे खंभे पर लगा बटन दबा दे तो गाड़ियाँ रुक जाती हैं। आप सड़क पर आ गए तो गाड़ी वाला बिना गरियाए आपके लिए रुक जाएगा। कुछ दिन तो हम कोई गाड़ी न होने पर लाल निशान होने पर भी सड़क पार करते रहे। लेकिन जब पता चला कि पैदल के लिए सिग्नल होता है तो बटन दबाकर, सिग्नल होने पर ही सड़क पार करने लगे। उसमें भी एक बार लफड़ा हुआ। हमने एक बार बटन दबाया। इंतज़ार करने लगे कि सिग्नल होगा तब पार करेंगे। सिग्नल हुआ ही नहीं। इंतज़ार करते रहे। हमें लगा कि यहाँ भी सब ऐसे ही है मामला। लेकिन फिर देखा कि लंबवत सड़क की गाड़ियाँ रुक गयीं थीं।पता चला कि हमने ग़लत खंभे का बटन दबा दिया था। शर्माकर अपनी सड़क की तरफ़ का बटन दबाया और पार हुए।
घर से दुकान तक जाने के रास्ते में कभी-कभी दोस्तों को फ़ोन भी कर लेते हैं। पैकेज डलवाए हैं। महीने भर में खर्च हो जाएगा। फ़्री में काहे जाने दें। ऐसे में जिन दोस्तों से भारत में रहते हुए नहीं बतियाए उनसे भी यहाँ से हेलो, हाय करते रहे। फ़ोन करके सबसे पहले यह ज़रूर बताते थे -‘आजकल अमेरिका में हैं। वहीं से फ़ोन कर रहे हैं। अभी यहाँ रात है। क्या हाल है?’
सामान ज़्यादातर यहाँ पैकेट में ही मिलता है। सब्ज़ी, फल जैसी फुटकर चीजें खरीदने पर उनके पास ही पालिथीन की व्यवस्था रहती है। रोलर में लिपटी रहती है मोमिया । निकालो। जो सामान लेना हो उसको पालिथीन में रख लो। काउंटर पर बिलिंग करवाओ। भुगतान करो। बिलिंग और भुगतान के बीच काउंटर पर मौजूद इंसान पूछ लेगा -‘कैरी बैग चाहिए?’
ज़्यादातर लोग कैरी बैग अपने साथ लेकर आते हैं। मना कर देते हैं।
हर सामान के लिए अलग पालीथीन। हर चीज़ पालिथीन में। कूड़ा-करकट भी पालिथीन में। अमेरिका में पालीथीन का उपयोग बहुत अधिक होता है। आबादी के लिहाज़ से सबसे अधिक। एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका दुनिया के प्लास्टिक कचरे का 17% अकेले अमेरिका पैदा करता है जबकि अमेरिका की आबादी दुनिया की आबादी की 4% है। सबको पता है कि प्लास्टिक कचरा दुनिया के लिए नुक़सानदेह है। लेकिन दुनिया भर में इसकी खपत बढ़ती जा रही है। पर्यावरण की चिंता भी साथ-साथ हो रही है। बात ज़्यादा, अमल कम।
सबसे कम पॉलीथिन प्रयोग करने वाले देशों में नार्वे का नाम है।
एक दिन दुकान में देखा कि भारतीय सामान के साथ पाकिस्तानी और बंगलादेशी सामान अग़ल-बग़ल रखे थे। धड़ल्ले से बिक भी रहे थे। और कहीं होता तो सामानों में मारपीट हो जाती। जुलूस निकल जाते। हाय-हाय, ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद हो जाता। चैनलों पर प्राइमटाईम बहसें भी हो जातीं। लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं। सारे देशों के सामान आपस में गलबहियाँ करते हुए मोहब्बत भरे नग़मे सुन रहे थे।
मुझे याद आया ट्रम्प साहब अमेरिका और मेक्सिको के बीच दीवार बनवाने की कह रहे थे ताकि वहां के लोग यहां न आ सके। कई जगह यहाँ मेक्सिको का माल धड़ल्ले से बिकता दिखा।
आदमी और सामान में अंतर होता है। जहां आदमी नहीं पहुंच पाता , बाजार वहां भी पहुंच जाता है।
बांगलादेशी खजूर का गुड़ 10.99 डालर (890 रुपए) का बिक रहा था। किलो भर का होगा वजन। पता किया जाए अपने यहाँ क्या भाव है गुड़।
सामान लेकर बिलिंग कराने के लिए काउंटर पर आए। एक मिनट में बिलिंग हो गयी। सामान को मशीन के सामने से गुज़ारा, कम्प्यूटर पर आ गया। टोटल भी हो गया। भुगतान करते समय याद आया कि माल रोड वाली दुकान से सामान लेते हैं तो वो भाई जी जिस मेकेनिकल बिलिंग रजिस्टर से फटाफट टोटल करते हैं उसमें हैंडल लगा है। नेट की सूचना के हिसाब से 1920 की है मशीन। विंटेज मशीन है अब। 2023 में एक सदी पुरानी मशीन से काम चल रहा है कानपुर की अच्छी, चलती दुकान में। धड़ल्ले से चल रहा है।
दुकान से निकलने से पहले याद आया कि स्क्राच ब्राइट भी कहा गया था लाने को। मिला नहीं कहीं देखने पर। बरतन धोने -रगड़ने के लिए चाहिए। घरों में जूना कहते थे इसे घराने के सामान को। हमने झिझकते हुए पूछा। हमारे बोलने, उसके सुनने और फिर समझने की अंग्रेज़ी में मतभेद होने के चलते मलतब बहुत गड्ड-मड्ड हो गया। बालक काउंटर छोड़कर हमको एक जगह ले गया और दिखाया सामान। सामान बिम बार था। हमने फिर समझाया तो उसने मुझे बरतन वाले काउंटर पर लाकर खड़ा कर दिया। वहाँ स्क्राच ब्राइट मौजूद था। ख़रीदकर निकल आए।

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Saturday, January 21, 2023

अमेरिका में एक चमकीली सुबह



कल सुबह टहलने निकले। धूप खिली हुई थी। बहुत ख़ूबसूरत धूप। हर तरफ़ इफ़रात में पसरी। एकदम विश्वसुंदरी सरीखी। अभी यहाँ क्या हर जगह धूप मुफ़्त है। कल को पता नहीं कि धूप भुगतान पर मिलने लगे। वैसे घुमा के बिकती तो है ही। जिन इलाक़ों में हवा और धूप का गठबंधन अच्छा होता है वहाँ मकान मंहगे हो जाते हैं।
फुटपाथ पर एक आदमी घास बराबर कर रहा था। सड़क पार करके उसके पास गए। किसी का फ़ोन आया था उसके पास। घास काटना स्थगित करके बतियाने लगा। बात करके फिर घास बराबर करने लगा। फुटपाथ से एक इंच क़रीब उठी थी घास। उसको बिजली से चलने वाली मशीन से ट्रिम कर रहा था।
हमने बात करने की कोशिश की। उसका उसको अंग्रेज़ी आती नहीं थी। बताया -‘स्पेनिश।’ उसको स्पेनिश ही आती थी। हमारा हाथ क्या पूरा जामा स्पेनिश में तंग था। बात इशारों में होने लगी। दोनों को एक-दूसरे के इशारे समझ नहीं आ रहे थे लेकिन बातचीत चलती रही- ‘लगातार लड़ते-भिड़ते रहने वाले पड़ोसी देशों की शांति वार्ताओं सरीखी।’ आख़िर में हमने इशारे से कहा उसको घास काटने के लिए कहा और उसका वीडियो बनाने का इशारा किया। शायद इस बात को वह समझ गया और मशीन स्टार्ट करने लगा।
कंधे में रखी मशीन को उसने जनरेटर की तरह स्टार्ट किया। तीन-चार बार डोरी खींचने पर मशीन घर्र-घर्र करके स्टार्ट हो गयी। वह फुटपाथ के किनारे लगी घास को मशीन को बराबर करने लगा। ज़रा सी देर में ही उसने क़रीब सौ मीटर घास बराबर कर दी। उसके वीडियो दिखाया तो खुश हो गया। थम्पस अप वाले अन्दाज़ में अंगूठा दिखाया और अपना काम करने लगा। हम आगे बढ़ गए।
जितने बड़े हिस्से की घास वह आदमी अकेले बराबर कर रहा था उतने के लिए अपने यहाँ कई लोग लगते हैं। हाथ से लोहे की पत्ती की तलवार इधर-उधर करके घास काटते रहते हैं। थोड़ी देर में थक जाते हैं। बैठ जाते हैं। मेहनत के काम में थकान स्वाभाविक बात है। कई जगह हाथ की जगह बिजली या पेट्रोल से चलने वाले उपकरण ख़रीदे भी जाते हैं लेकिन कुछ समय बाद कबाड़ में शामिल हो जाते हैं। मज़दूर सस्ते में उपलब्ध हैं तो तेल का पैसा कौन खर्च करे।
एक बुजुर्ग महिला अपने छुटकू से कुत्ते को लेकर जाती दिखी। बग़ल से गुजरते हुए गुडमार्निंग हुआ। बात करने की गरज से हमने कहा -‘बहुत प्यारा कुत्ता है। क्या उमर है इसकी?’
उन्होंने बताया -‘अठारह महीने।’
हमने पूछा -‘क्या इसे ट्रेन करने निकली हैं?’
वो बोली -‘काश मैं ऐसा कर सकती। इसको ट्रेनिंग देने के लिए ट्रेनिंग सेंटर भेजना पड़ेगा।’
इस संक्षिप्त बातचीत के बाद वह जाने लगीं। हमने पूछा -‘आपका फ़ोटो ले लें?’
उन्होंने कहा -‘ले लो। कोई समस्या नहीं।’
जब तक हम मोबाइल निकालकर कैमरा आन करते तब तक उनका इरादा बदल गया। फ़ोटो लेने की अनुमति निरस्त कर दी। बोली -‘ छोड़ दीजिए। मत लीजिए फ़ोटो।’
हमने छोड़ दिया। जाओ तुम भी क्या याद रखोगी। लेकिन कौन याद रखता है।
आगे घास पर एक सफ़ेद बगुला टाइप पक्षी तसली से घास पर टहल रहा था। ऐसे जैसे फ़ोटो शूट कर रहा हो।
सड़क और घास पर बिखरे पत्तों को साफ़ करने के लिए एक आदमी लगा हुआ था। पीठ पर मशीन और हाथ में तेल की बोतल थामे वह अपनी मशीन के मुँह से पत्तियाँ उड़ाता जा रहा था। उसको भी स्पेनिश ही आती थी। हमको एक-दूसरे का बोला कुछ समझ नहीं आया। लेकिन फ़ोटो खींचने की बात पल्ले पड़ गयी।
बाद में पता चला कि यहाँ मज़दूरी का काम करने वाले ज़्यादातर लोग मेक्सिको से आते हैं। उनमें से अधिकतर स्पेनिश ही समझ पाते हैं।
एक और कुत्ता टहलाती महिला का कुत्ता ढाई साल का निकला । उनको भी लगता है क़ि उनको कुत्ते की ट्रेनिंग की ज़रूरत है। फ़ोटो के लिए पोज देने के लिए कुछ पल रुकीं लेकिन मेरा नामुराद मोबाइल खुलने के लिए कोड माँगने लगा। जब तक कोड बताते तब तक कुत्ता ज़ंजीर खींच कर उनको आगे ले गया। वे चल दीं।
सड़क के बीच कुछ लोग लकड़ी का बुरादा टाइप डालते दिखे। यहाँ पेड़ों के चारों तरफ़ ज़्यादातर जगह लकड़ी की छीलन पड़ी देखी। इसीलिए धूल नहीं दिखती पेड़ों के पास। मेहनत करते लोग आपस में बतिया रहे थे। लगा भोजपुरी बोल रहे हैं। लगा छपरा, बलिया के होंगे। लेकिन पास पहुँचकर पता लगा कि वे कुछ और ही बोल रहे थे। उनसे पूछने की हिम्मत भी नहीं हुई। वे हमको देखते रहे। हम भी उनको काम करते देखते रहे। फिर आगे बढ़ गए।
आगे फुटपाथ पर जाने इक्का-दुक्का लोग दिखे। बगलिया के निकल गए। किसी ने हमारी तरफ़ देखकर मुस्करा दिया तो हमने भी ‘पलट-मुस्कान’ मार दी। चलते रहे आगे।
आगे एक स्कूल दिखा। फ़ोस्टर सिटी का प्राइमरी स्कूल। स्कूल के सामने अमेरिका का झंडा फहरा रहा था। चारों तरफ़ कारें खड़ीं थी। हिंदुस्तान के स्कूलों की तरह कहीं चाट वाला, चूरन वाला , भेलपूरी वाला नहीं दिखा। एकदम साफ़-सुथरा स्कूल।
स्कूल के बाहर कोई दिखा नहीं। दूर एक आदमी सफ़ाई कर रहा था। स्कूल का गेट बंद था। बग़ल में आफिस था। हम स्कूल के आफिस में डरते-डरते घुसे। वहाँ एक खूबसूरत महिला कम्यूटर के आगे बैठी कुछ काम कर रही थी।
हमने अपनी अंग्रेज़ी को यथासंभव मुलायम बनाते हुए पूछा -‘क्या मैं यह स्कूल देख सकता हूँ?’
वो बोली -‘क्या आपका बच्चा यहाँ पढ़ता है?’
हम बताए -‘नहीं। बस मैं ऐसे ही बग़ल से गुजर रहा था । मन किया स्कूल देखने का। इसलिए पूछा।’
महिला ने कहा -‘हमको अफ़सोस है लेकिन स्कूल देखने की अनुमति नहीं है किसी को।’
हमने कहा -‘इसमें अफ़सोस की क्या बात। ठीक है।’
शक्ल और बातचीत करते हुए हमको लगा महिला भारत से हैं। पूछा तो पता चला -‘ भारत में उत्तर प्रदेश (डालमिया नगर) की है। 22 साल पहले आई थी। अब यहीं है पति साफ़्टवेयर इंजीनियर हैं। बेटा हाईस्कूल में पढ़ता है। 17 साल का है।’
फिर तो खड़े-खड़े तमाम बातें हुई। दो-तीन मिनट में खूब हिंदी बोल ली दोनों ने। अंग्रेज़ी बेचारी किनारे खड़ी रही।
हमने पूछा -‘कितने दिन बाद हिंदी में बात हुई?’
वो बोली -‘बहुत दिन बाद। बहुत अच्छा लगा।’
हमने पूछा -‘बेटा हिंदी में बात कर लेता है?’
वो बोली -‘समझ लेता है। बोल नहीं पाता।’
इतनी बात दरवाज़े पर खड़े-खड़े हुई। दरवाज़ा आधा खुला किए हम बतियाते रहे। अपने यहाँ बाहर से आकर कोई इतनी बात करता तो कहते -‘आओ बैठो। चाय पीकर जाना।’
कहते क्या मंगा लिए होते और ज़बरियन बैठा लिये होते कहते हुए -‘ऐसे कैसे चले जाएँगी बिना चाय पिए। इत्ती दूर से आए हैं। चाय तो पीनी ही पड़ेगी।
लेकिन यहाँ का चलन ही अलग है। काम के आगे और कुछ नहीं देखते लोग। सबसे पहले काम। हम बाहर आ गए। आफिस का फ़ोटो खींचने से भी मना कर दिया कहते हुए - ‘स्कूल का फ़ोटो बाहर से लेना हो तो ले लो।’
बाहर निकलकर स्कूल का फ़ोटो लिया। आगे एक पार्क था। बहुत सुंदर पार्क। बच्चों के झूले। टेनिस कोर्ट। फुटबाल का मैदान। मैदान में घास। फ़ुटबाल के गोल पोस्ट के पास एक बच्चा अपने पिता के साथ कुछ देर फ़ुटबाल खेलता रहा। पैर से इधर-उधर करता रहा कुछ देर। इस बीच बच्चे की माँ भी गई। सब फोटोबाज़ी करने लगे। बच्चा फ़ुटबाल को पैर के नीचे रखकर खड़ा हो गया जैसे पुराने जमाने राजा-महाराजा शेर का शिकार करके उसकी गर्दन पर पैर रखकर फ़ोटो खिंचाते थे। फ़ोटो खिंचाकर वो लोग कार में बैठकर चले गए।
मैदान में एक बुजुर्ग अपने नाती/पोते के साथ खेल रहा था। बच्चा ठुनकते हुए इधर-उधर टहल रहा था। बुजुर्ग उसके पीछे-पीछे लुढ़कते हुए चल रहे थे। बग़ल में तमाम सफ़ेद बतख़ अपने बच्चों के साथ फुदकती हुई टहल रहीं थी।
कुछ देर पार्क में टहलने के बाद हम बाहर आ गए। आगे फुटपाथ पर एक महिला अपने बच्चे को आगे गोद में एक बैग में कंगारू की तरह लटकाए साथ में कुत्ते की ज़ंजीर थामे टहल रही थी। वो बच्चे और कुत्ते दोनों को पुचकारते हुए धूप में टहलते हुए जा रही थी।
आगे एक जगह मनोरंजन केंद्र दिखा। हम घुस गए उसमें। कई तरह की गतिविधियों की सूचनाएँ लगी थी वहाँ। फ़ोटो प्रदर्शनी, मिट्टी की कलाकारी और भी न जाने क्या-क्या।
एक बड़े हालनुमा कमरे में तमाम लोग मिट्टी का काम कर रहे थे। एक बुज़ुर्गवार एक बाल्टी में बने रखे रंग में ब्रश डुबाकर एक मिट्टी का पात्र रंग रहे थे। एक लड़की अपने बर्तन एक बड़े बर्तन में रखे मोम में रख रही थी। गरम करने की व्यवस्था भी थी उसे। पता चला वैक्सिंग कर रही है बर्तन की। हमने बुजुर्ग से पूछकर फ़ोटो खींची। देखकर बोले -‘ बहुत अच्छी नहीं आई।’ हमने फिर ली। दिखाई। मुस्कराए। अपने काम में जुट गए।
आगे हाल में कुछ लोग अलग-अलग डिज़ाइन के मिट्टी के बर्तन और आकृतियाँ बना रहे थे। एक मशीन से मिट्टी की मोटी सेवईं सरीखी निकाली। ब्रश से उसको आकृति बनाने लगी।
एक महिला स्टील की चाक पर कुल्हड़ जैसा बर्तन बना रही थी। उसकी फ़ोटो और वीडियो बनाया तो बग़ल की महिला जो दिखने में जापानी लग रही थी, बोली -‘ये इंडिया की मैगजीन में छपेगा तुम्हारा फ़ोटो।’ उसके इतना कहने के बाद सब खिलखिलाकर हंसने लगे।
बाद में पता चला चला कि ये सभी यहाँ मिट्टी का काम सीखने आते हैं। हाबी के रूप में। हफ़्ते में एक दिन सिखाने के एक सत्र के अलग-अलग कोर्स के हिसाब से फ़ीस पड़ती है।100 से 300 डालर तक।
उन लोगों को मिट्टी का काम सीखते देखकर लगा कि नया काम शौक़िया सीखने का कितना चलन है यहाँ। हर उमर के लोग थे वहाँ। नई उमर से वरिष्ठ नागरिक की उमर के लोग। पूरे मन से सीखते हुए लोग। अपने यहाँ इस तरह नयी चीजें सीखने का चलन कम है। नई चीजें सीखने की ललक इंसान को चैतन्य और युवा बनाए रखती है। यह जानते हुए भी हम लोग कहाँ कुछ नया सीखते हैं। तमाम चीजें सीखने की लिस्ट बनाते रहते हैं लेकिन अमल में कम ला पाते हैं!
अमेरिका आए थे तो सोचा था कि यहाँ एक महीने में उर्दू के अक्षर लिखना सीख लेंगे लेकिन अभी तक एक-दो बार ही अभ्यास कर पाए।
मनोरंजन केंद्र में थोड़ी देर टहलने के बाद हम बाहर निकलकर टहलते हुए वापस आ गए। धूप अभी भी खिली हुई थी। चमकदार धूप। एक चमकीली सुबह थी यह।

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Thursday, January 19, 2023

कम्प्यूटर एक्सपर्ट टैक्सी ड्राइवर



सैनफ्रांसिसको हवाई अड्डे पर पूछते-पूछते हम अराइवल पर पहुँचे। उड़ान आने की सूचना बोर्ड पर चमक रही थी। जहाज़ समय से लैंड कर गया। अब हम बैगेज प्वाइंट पर पहुँचकर दीदी का इंतज़ार करने लगे। उनके आने पर हम बाहर के लिए निकले। गेट नंबर 2-3 के सामने ही टैक्सी प्वाइंट था। टैक्सी प्वाइंट पर पहुँचकर टैक्सी बुक करने के लिए हमने एप खोला। टैक्सी के लिए बुकिंग करते समय पूछा गया -‘किस प्वाइंट पर टैक्सी चाहिए A, B, C या D पर?’ हमने आसपास देखा तो कहीं पर A,B,C या D नज़र नहीं आया। हम समझ गए कि हम ग़लत जगह पर खड़े हैं।
हम फिर अंदर गए। यहाँ के हवाई अड्डे की ख़ास बात है कि इनमें चेक इन प्वाइंट या फिर बैगेज कलेक्शन तक बिना किसी टिकट के जाने की अनुमति होती है। किसी बस स्टैंड की तरह। अपने यहाँ हवाई अड्डे पर बिना टिकट घुसने को नहीं मिलता। वही जा सकता है जिसको हवाई यात्रा करनी हो।
अंदर जाकर पूछा तो बता चला कि एप आधारित टैक्सी प्वाइंट जहां हम खोज रहे थे वहाँ से काफ़ी दूर, क़रीब आधा किलोमीटर की दूरी पर है। मंज़िल भी अलग। एस्केलेटर से पहले नीचे गए फिर लिफ़्ट से ऊपर। बहुत बड़ा है सैनफ्रांसिसको हवाई अड्डा। एकदम भूलभुलैया सरीखा। अंग्रेज़ी न आती हो तो भटकते रहो या फिर इशारे से बात करो।
इसके बाद टैक्सी बुक की। प्वाइंट B पर खड़े हो गए। शेड बना था। बारिश हो रही थी हल्की। स्टील के मोटे पाइप पर रैक्सीन का कवर टिका हुआ था। हवा तेज चल रही थी। आसमान में बादल छाए थे। भीड़ बिलकुल नहीं थी। टैक्सी आने तक हमने आसपास का सारा नजारा देखा। नीचे गाड़ियाँ तरतीब से खड़ी थीं। उसके भी नीचे गाड़ियाँ एक सुरंग जैसी ओपनिंग से निकलकर सड़क पर भागती दिख रहीं थीं। सुरंग से निकलकर सड़क पर भागती गाड़ियों को देखकर लग रहा था मानो किसी कांजी हाउस से जानवर निकलकर भाग रहे हों।
कुछ ही देर में हमारी गाड़ी आ गयी। ड्राइवर का नाम था डेविस। गाड़ी -होंडा एकार्ड हाईब्रिड। गाड़ी रुकते ही ड्राइवर साहब ने अपनी सीट से उतरकर डिक्की खोली। हमारा सामान रखा और गाड़ी स्टार्ट करके चल दिए।
गाड़ी स्टार्ट होते ही हमारी बातें भी स्टार्ट हो गईं। ड्राइवर साहब भी हमारी तरह बतरसिया हैं । बतियाते रहे। बताया कि गाड़ी वो शौक़िया चलाते हैं। शौक़िया मतलब मन किया तो चला लिया। उमर 60 साल है। 57 साल के थे तब तक खूब काम किया। कम्प्यूटर से सम्बंधित कंपनियों में काम किया। एप्पल, गूगल आदि में। 57 साल बाद काम छोड़ दिया। रिटायरमेंट ले लिया। अब शौक़िया काम करते हैं।
परिवार के बारे में बताते हुए डेविस जी ने बताया -‘पत्नी रहीं नहीं। जब डेविस 55 के थे तब पत्नी का निधन पैंक्रियास कैंसर से हो गया। कोई संतान है नहीं। अकेले रहते हैं। खाना बाहर ही खाते हैं। तीनों टाईम। खाना बनाने में मज़ा नहीं आता डेविस को ।’
‘दुबारा कोई और जीवन साथी खोजने के बारे में नहीं सोचा?’ पूछने पर बोले -‘अभी तक तो नहीं सोचा। ऐसा कुछ ज़रूरत लगती नहीं मुझे।’
डेविस के साथ उनका कुत्ता भी रहता है। उसे बहुत पसंद करते हैं। खुश हैं उसके साथ। समय मज़े से कट जाता है।
भारत के बारे में डेविस की बड़ी अच्छी यादें हैं। बताया कि काम के दिनों में अक्सर भारत ज़ाया करते थे। बंगलोर, मुंबई, दिल्ली। दो-दो हफ़्ते के लिए जाते थे। भारत के लोगों की गर्मजोशी, हल्ला-गुल्ला और लोगों का आपस में हंसी-मज़ाक़ करना डेविस को बहुत अच्छा लगता था। ख़ूबसूरत यादें हैं भारत की डेविस के ज़ेहन में।
डेविस से बात करते हुए मुझे लगा कि कम्प्यूटर फ़ील्ड का एक्सपर्ट अपने मन से नौकरी छोड़कर गाड़ी चला रहा है। ख़ुशी-ख़ुशी अपनी सवारी के लिए गाड़ी की डिक्की खोल रहा है और बिना किसी अकड़ के मज़े के लिए काम करते हुए गाड़ी चला रहा है। अपने यहाँ कोई इतने सफल कैरियर वाला इंसान ऐसे सहज रूप में इस तरह काम करना शायद ही पसंद करे। करे भी तो दूसरे लोग उसको टोंक-टोंक कर हलकान कर दे। यह यहाँ इसलिए सम्भव है कि यहाँ काम का महत्व है, कोई काम छोटा नहीं माना जाता।
अपने यहाँ काम के सिलसिले में सामंतशाही का असर बाक़ी है।किसी अच्छी मानी जाने वाली पोस्ट से रिटायर हुआ आदमी कोई मेहनत का काम करने की सोच नहीं पाता। करना तो दूर की बात। इसीलिए रिटायर होने के बाद लोग बोर होकर अकबर इलाहाबादी का शेर सही साबित करने में पूरी ताक़त लगा देते है :
हम क्या कहें अहबाब (दोस्त) क्या कार-ए-नुमायाँ (उल्लेखनीय काम) कर गए,
बीए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए।
जाते समय जिस यात्रा में 13 मिनट लगे थे और किराया लगा था 16.83 डालर उसी दूरी लौटते समय तय करने में 20 मिनट लगे और किराया लगा -30.99 डालर। जितना समय ज़्यादा लगा उसी हिसाब से पैसे लगे। लौटते समय दफ़्तर का था। उस समय सड़क पर ट्रैफ़िक भी बढ़ गया था।
अपने टीहे पर पहुँचकर विदा होने से पहले डेविस के साथ फ़ोटो ली। ख़ुशी -ख़ुशी फ़ोटो खिंचाकर गाड़ी स्टार्ट करके चले गए डेविस।
शाम घूमने निकले तो सूरज भाई विदा होने के मूड में थे। विदा होते समय सूरज भाई को काले बादलों ने घेर रखा था। सूरज भाई के आसपास के आसमान को छोड़कर अधिकतर आसमान काला-भूरा था। जिन बादलों की सुबह सूरज भाई के पास तक खड़े होने की हिम्मत नहीं हो रही थी उन्हीं के खान-दान के बादल सूरज भाई से एकदम सटे हुए इंतज़ार कर रहे थे कि सूरज भाई के विदा होते ही उनकी जगह पर वे क़ब्ज़ा कर लें।
सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही लगी थी। गाड़ियाँ तेज़ी से भाग रहीं थी। लोग घर वापस लौट रहे थे।
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