सुबह दफ़्तर के लिये निकले। लगा कुछ छूट सा गया है। असुरक्षित सा महसूस हुआ। दस कदम चलने के बाद याद आया। मोबाइल चार्जिंग में ही लगा रह गया था। ’इस्स’ कहते हुये सर पर हल्की चपत लगाई। वापस लपके। मोबाइल जेब में धरा। सुरक्षा का एहसास मोबाइल के साथ ही, एक के साथ एक फ़्री वाले अंदाज में, आ गया।
मोबाइल का छूट जाना मतलब असुरक्षित सा हो जाना है। बिना मोबाइल आदमी ’जल बिन मीन’ सा हो जाता है। ऐसा लगता है बिना जिरह-बख्तर के पानीपत की लड़ाई में उतार दिये गये। बिना मोबाइल के कलयुगी इंसान की गत वही होती है जो महाभारत में बिना गांडीव के अर्जुन की होती होगी। ’लक्स कोजी’ बनियाइन का विज्ञापन आता है-’अपना लक पहन के चलो।’ बनियाइन पर भले लागू न हो लेकिन मोबाइल पर फ़ुल लागू होता है लक वाला फ़ंडा। कहीं के लिये निकलो, मोबाइल साथ ले के चलो। मोबाइल साथ में, लक आपके हाथ में।
दफ़्तर पहुंचकर राउंड के लिये निकले। सुबह-सुबह राउंड लेने से मातहत और अफ़सर दोनों को दिन भर निठल्ले रहने की छूट मिल जाती है। अफ़सर का आत्मविश्वास एवरेस्ट पर पहुंच जाता है तो मातहत का भी कंचनजंघा से नीचे तो नहीं रहता है। राउंड करते हुये अफ़सर को निपटाकर मातहत दिन भर की बला टल जाने का सुकून पाता है।
एक जगह तेजी से राउंड निपटाकर दूसरी जगह को लपकते हुये चश्मा जेब से निकालकर माथे पर लगाने की सोची। लेकिन जेब में चश्मा मिला नहीं। सर टटोला वहां भी विराजमान नहीं था चश्मा। जेब और माथे दोनों जगह चश्मा न मिलने का एहसास होते ही सामने साफ़ दिखता आदमी धुंधला दिखने लगा। सामने से आती गाड़ियों के आकार बदल गये। मतलब साफ़ था। दिमाग ने आंखों से चुगली कर दी थी -’ तुम बिना चश्मे के हो। साफ़ देखना बन्द करो।’ फ़लत: आंखें ’वर्क टु रूल’ के अनुसार काम करने लगीं। थोड़ी देर पहले साफ़ दिखने वाली चीजें धुंधला गयीं।
दिमाग की यह हरकत उसी तरह की थी जिस तरह अपराध करते कोई पकड़ा जाता है लेकिन असल अपराधी कोई और होता है। दंगा कराने वाले शांति का संदेश देते हुये अपने आदमियों को जल्दी से जल्दी बवाल फ़ैलाने के लिये आदेश देते हैं। चश्मा न होने पर आंख कुछ देर तक बदस्तूर अपनी ड्य़ूटी बजाती रही। लेकिन जैसे ही दिमाग ने उसको हड़काया -“ बिना चश्में के तुम साफ़ देख रही हो। पकड़ जाओगी।“ सुनते ही आंखों ने सकपकाकर साफ़ देखना बन्द कर दिया होगा।
बहरहाल, धुंधला देखते ही दौरा पूरा किया। आंखों को असहयोग के लिये मन किया हड़का दें। लेकिन सोचा -’ उस बेचारी की भी क्या गलती। जैसा हाईकमान बोलेगा वैसा ही तो करेगी। आंख कोई सांसद/विधायक तो है नहीं जो अंतरात्मा की आवाज के नाम पर मनमानी करे।’ इसलिये छोड़ दिया।
दफ़्तर पहुंचते ही अर्दली को चश्मा खोजने पर लगा दिया। फ़ाइल टटोलने लगे। दराज झांकने लगे। जमीन की पैमाइश भी कर डाली। फ़टाफ़ट खोजाई के बाद चश्मा मिला नहीं। शक हुआ कि जहां पहली बार राउंड पर गये थे वहां ही छूटा होगा चश्मा। और जा कहां सकता है?
अर्दली को बताया गया कि साहब सुबह राउंड पर चश्माविहीन थे। मतलब लोग राउंड करते अफ़सर के पहनावे पर निगाह रखते हैं। इसके बाद जिसने राउंड पर निकलते समय देखा था वह दिख गया। उसने भी कहा -’राउंड पर निकलने समय आप चश्मा नहीं लगाये थे।’ बाद में दफ़तर में घुसते हुये नमस्ते करने वाले ने भी बयान जारी किया कि दफ़तर बिना चश्मे के आये थे। बहुमत ने यह साबित कर दिया कि हम दफ़्तर बिना चश्मे के आये थे। सुकून हुआ कि चश्में की ही खोज हो रही हैं पतलून की नहीं। वरना कौन जानता है कि उसके बिना भी दफ़तर आने के बयान जारी हो जाते। बैठे-बिठाये कलयुगी आर्किमिडीज बन जाते।
दफ़तर से निराश होकर हमने घर पर आसरा किया। शायद घर में ही भूल गये हों। जितने कोने-अतरे हैं उससे दोगुने-तीन गुने में सघन तलाशी अभियान चलाया गया। फ़र्श पर छिपकली की तरह लेटकर बिस्तर के नीचे तलाशा गया। लेकिन चश्मा मुआ लोकतंत्र में शिष्टाचार की तरह नदारद ही दिखा। लगा कि हो न हो दफ़्तर में ही छूट गया हो।
लौटकर दफ़्तर-दफ़तर खोये चश्मे की खोज शुरू हुई। जिस भी मेज पर चश्मा दिखता लगता वह मेरा ही है। बिना चश्मे के होने के कारण यह धारणा बनाने में आसानी भी हुई। दूरी के कारण हमको हर मेज पर धरा चश्मा अपना लगता। चश्मे की तरफ़ हाथ बढाते हुये मेज पर बैठने वाले को ’चोर’ भले ने मान रहे थे लेकिन चोर से कम भी मानने का मन नहीं हो रहा था। लेकिन अफ़सोस यही कि चश्मा पास से देखते ही इस धारणा पर टिक नहीं पाते। चश्मा उसी का निकलता और हमें मजबूरन उसको शरीफ़ ही मानना पड़ता।
शाम तक पूरी कायनात में हल्ला मच गया कि हमारा चश्मा मिल नहीं रहा है। लेकिन अफ़सोस कि हमारे अलावा कोई इससे परेशान नहीं दिखा। परेशान तो सच कहें अपन भी नहीं थे क्योंकि चश्मे के साथ भी कोई बहुत साफ़ नहीं दिखता था क्योंकि चश्मा पुराना था और इस बीच हमारी नजर और गड़बड़ा गयी थी। लेकिन फ़िर भी चश्में के रहते थोड़ा सुकून का एहसास था जैसे लोकतंत्र में बावजूद अधोषित तानाशाही के जम्हूरियत का एहसास, भले ही कहने को हो, बना रहता है।
अब सड़क पर कार चलाते भी एहसास तगड़ा होता गया कि चश्मा विहीन हैं अपन। हर सामने आती गाड़ी देखकर लगता कि इसको भी पता है अपन को साफ़ दिखता नहीं। ठेलने के इरादे से आ रही है सामने से। लेकिन गाड़ी बिना ठोंके बगल से निकल जाती तो लगता कि वह मुझे सिर्फ़ धमका कर निकल गयी।
घर में आते तो लगता दफ़तर में खोया है। दफ़तर में सोचते घर में गुम हुआ। बीच में कार की तलाशी तो आते-जाते होती ही रहती।
मन किया कि हर जगह इस्तहार लगवा दें -’चश्में बेटे लौट आओ। तुम्हारे बिना आंखे सूनी हैं। नाक को तुम्हारी कमी खल रही है। तुम्हारे बिना चेहरे की रौनक दफ़ा हो गयी है। जल्दी आ जाओ।’ लेकिन चश्मे की भाषा ही नहीं पता थी तो इश्तहार कैसे छपवाते। डर यह भी लग रहा था कि इधर इश्तहार छपवायें, उधर चश्मा मिल जाये। बेफ़ालतू में पैसे बरबाद होंगे।
ऐसे ही होते करते दिन निकलते गये। लगा कि अब चश्मा रहा नहीं हमारे बीच। इस बीच एक मीटिंग की खबर आई। लगा चश्मा जरूरी है। नया बनवाया जाये। लौटते में पहुंच गये चश्मे की दुकान।
दुकान पर ’सेल्स महिला’ ने तरह-तरह के चश्मे दिखाने शुरु किये। हमने कहा अभी कामचलाऊ फ़्रेम दिखाओ। बाकी अच्छा मतलब मंहगा बीबी-बच्चे के साथ आकर पसंद करेंगे।
इस सीधी सी बात से साफ़ हो जाता है कि अपन खुद के खुद मंहगी चीजें खरीदने से बचते हैं। कामचलाऊ से ही काम चलाते हैं। दूसरी बात यह भी कि अपन को खुद की पसंद पर भरोसा नहीं। तीसरी बात यह कि ..। अब छोडिये तीसरी बात ! बात बढाने से क्या फ़ायदा। निकलेगी तो चश्मे से बहुत दूर निकल जायेगी।
चश्मे का फ़्रेम तय करते हुये हम अपने खोये चश्मे के जैसा ही फ़्रेम खोजते रहे। ऐसा नहीं कि उसमें हम बहुत हसीन लगते हों। या बहुत साफ़ दिखता हो उसमें। लेकिन जिसके साथ रह चुके उसकी आदत पड जाती है न। उससे बहुत ज्यादा अलग सोचना मुश्किल होता है। अगर आज देश के लिये कोई नयी व्यवस्था चुनने के लिये कहे तो जो चुनी जायेगी उसमें कमोवेश इत्ती ही अराजकता, इत्ती ही अनुशासनहीनता, इतना ही भ्रष्टाचार, इतनी ही भाई-भतीजावाद, ऐसा ही जातिवाद , समप्रदायवाद होगा। इससे अलग होगा तो हम शायद असहज रहें।
जल्दी ही अपने खोये चश्मे के फ़्रेम जैसा ही फ़्रेम मिल गया। बनावट, रंग और दीगर चीजों से ज्यादा उसकी कीमत पुराने चश्मे के अल्ले-पल्ले थी। इससे मुझे और कन्फ़र्म हुआ कि उस जैसा ही चश्मा है। यह बात अलग कि पुरानी फ़्रेम हमने दिल्ली से लिया था और यह दुकान कानपुर की थी।
जो फ़्रेम मैंने तय किया वह दुकान के सबसे सस्ते फ़्रेमों में था। बिक्री महिला ने हमको उससे अच्छे फ़्रेम दिखाने और उनको पसंद करने के लिये बहुत उकसाया लेकिन हम अपने निर्णय पर अडिग रहे। अपनी त्वरित निर्णय क्षमता पर हमें गर्व टाइप भी हुआ। अपने तय किये फ़्रेम से अलग उसने जो भी फ़्रेम दिखाया वह उससे मंहगा था लिहाजा हमें अच्छा नहीं लगा।
हमारे द्वारा सबसे सस्ता फ़्रेम करने को ’सेल्स महिला’ ने चुनौती के रूप में लिया। चश्मे में एंटी ग्लेयरिंग, पास और दूर के लिये अलग ग्लास तय करने की पेशकश की। हमने सबको ठुकराते हुये नजर टेस्टिंग के लिये अपनी आंखे हाजिर कर दीं।
नजर टेस्ट कराना भी बवाल है। हर बार ग्लास लगाते हुये पूछती यह अच्छा कि यह। यह अच्छा कि वह। वो तो कहो कि नजर टेस्ट कराने में पावर के हिसाब से दाम नहीं बढते। वर्ना हो सकता है कि अपन सबसे सस्ते वाले ग्लास के लिये हां बोलकर चश्मा तौलवा लेते, भले ही दिखने के उसमें देखने से बेहतर बिना उसके देखना होता।
बहरहाल, शाम को चश्मा लेने गये। लगाते ही दुनिया और खूबसूरत लगने लगी। टेस्ट करने वाली महिला भी। मन किया एक बार फ़िर चश्मा टेस्ट करवायें। लेकिन उसको घर जाने की जल्दी थी।
दुकान पर ही पता चला कि जिस दुकान से चश्मा बनवाया है वह साठ साल पुरानी है। उसके 84 साल की उमर के मालिक से भी मुलाकात हुई। चश्मा और अच्छा लगने लगा।
अब हाल यह है कि नये चश्मे के साथ नया सरदर्द मुफ़्त में मिल गया है। बीच-बीच में तारे टाइप नजर आने लगे हैं। लगता है चश्में में गूगल अर्थ फ़िट कर दिया हो जो बिना इंटरनेट के तारे-सितारे दिखा रहा है। चश्मा खरीदने में त्वरित निर्णय लेने में भले सफ़ल रहे हों लेकिन हफ़्ता भर बाद भी यह तय नहीं कर पा रहे कि गड़बड़ कहां हुई? चश्में की पावर तय करने में या चश्में के साथ सेटिंग में।
कई बार दुकान के सामने से निकल चुके हैं लेकिन अंदर जाने का मन नहीं हुआ। डर लग रहा है कि कहीं ग्लास बदलने की बात न उठ जाये। पैसे खर्च होने से बचाने की चाहत हमें इस नये चश्में के प्रति मोहब्बत पैदा हो गयी है।
पुराना चश्मा भी फ़िर से याद आ रहा है। गाने का मन हो रहा है- ’आ लौट के आजा मेरे मीत रे, तुझे मेरी आंखें बुलाती हैं।’