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ब्लागजगत -आप इत्ता हलकान क्यों हैं जी?
By फ़ुरसतिया on May 30, 2008
कल अखिलेशजी के बारे में लिखा। उनकी कहानी चिट्ठी मैंने पहले इसी
ब्लाग में पोस्ट में की थी लेकिन पता नहीं क्या लफ़ड़ा हुआ कि बिला गयी। सो
इसे दुबारा प्रकाशित करने की कोशिश की। लेकिन कहानी मुई पोस्ट नहीं हुयी इस
ब्लाग पर। न जाने क्या लफ़डा है। फ़िर इसे अपने पुराने ब्लाग पर पोस्ट किया। आप इसे वहां बांचें। कहानी मजेदार है। सबको अपने कालेज के दिन याद आ जायेंगे।
तद्भव पत्रिका आप यहां बांच सकते हैं।
ब्लागजगत में बड़ा हल्ला है कि बड़ी खराब हालत है यहां। जैसे सत्यनारायण जी की कथा बांची जाती है वैसे किसी न किसी ब्लाग में कोई न कोई ब्लागर दुखी होते हुये कहता है-हाय राम यहां भी इतनी गंदगी। कुछ लोग तो यहां से बिस्तरा समेटने की बात भी कहते रहते हैं। मतलब कि वो कहा जाता है न! -इस शहर में हर शक्स परेशान सा है।
आप देखें कि केवल दो ठो ब्लाग पर सनसनी हवा चलती है। वे दो ब्लागर भी ब्लागर नहीं , कम्पोजीटर हैं ज्यादा सही होगा कहना सनसनी लपेटर हैं। अपना खुद बहुत कम लिखते हैं। दूसरे के लिखे पर सनसनी लपेट के पेश करते हैं। उनसे इतने हलकान क्यों हैं जी?
ब्लाग की स्तरीयता पर काफ़ी लोग सवाल उठाते हैं। ब्लाग पर स्तरीय लेखन नहीं हो रहा है। ऐसे ब्लाग नहीं हैं जिनको पढ़ने का मन करे। इस बारे में क्या कहा जाये!
हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी महोदय ने अपने विदाई भाषण में कहा- मैंने प्रयास किया कि जो काम मैं खुद नहीं सकता उसको दूसरा अगर न कर पाये तो उसे नालायक न समझूं। स्तरीय लेखन के अभाव के लिये हलकान होने वाले भाई लोग आगे बढ़कर नजीर पेश करें और बतायें कि देखो ऐसे लिखा जाता है।
ब्लाग जैसा मैं मानता हूं -सहज अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। इसमें घर-परिवार के लोग, आसपास के लोग और आम लोग अपने जौहर दिखलाते हैं। तो वे तो वैसा ही लिखेंगे जैसा उनको आता होगा। धीरे-धीरे कौन जाने इनमें से ही कोई आगे चलकर ऐसा रचनाकार बने जिसके बारे में बताते हुये आप रस्क करें कि ये तो हमारे समय के ब्लागर हैं।
उदाहरण के लिये सौम्या का ब्लाग देखिये। ये बच्ची कक्षा नौ में पढ़ती है। इसके ब्लाग में अपने घर परिवार की बातें हैं। आंधी आना, गेहूं बटोरना आदि। इसमें ऐसा कौन सा कालजयी लेखन है? लेकिन मुझे बहुत अच्छा लगता है, तमाम लोगों को लगता होगा। कौन जानता है कल को यही बिटिया प्रख्यात हस्ती बने जिसमें इसकी इन अभिव्यक्तियों का भी योगदान हो।
मेरा मानना है कि ब्लागजगत के निकृष्ट और सनसनीकारक लेखन से हलकान से परेशान होने की बजाये ऐसे आसपास के सहज लेखन का लुत्फ़ उठाया जाये। जो बात मन को छू जाये उसको प्रोत्साहित करें। यह समझें कि उसका सर्वश्रेष्ठ अभी आना बाकी है।
जब हम ब्लागिंग में घुसे थे तब कुल जमा पचीस तीस लोग थे। महीने में अधिक से अधिक चार-पांच पोस्ट लिखते थे। पहली पोस्ट में कुल इत्ता लिख पाये थे – अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है । बाद में साथियों के उकसावे पर इतना लिखने लगे कि लंबी पोस्टों का मतलब ही फ़ुरसतिया पोस्ट हो गया। जब ब्लाग जगत में सक्रिय-असक्रिय ब्लागों की संख्या नब्बे से सौ के बीच बढ़ रही थी तब हम लोग हर पल नये बनते ब्लाग के इंतजार में टकटकी लगाये रहते थे और सांस रोके ब्लाग संख्या के सौ तक जाने का इंतजार करते रहे। शायद महीने भर लगे होंगे ब्लाग संख्या को सौ का आंकड़ा छूने में। देबाशीष उछल पड़े थे और इसकी सूचना पर दी थी अस्सी, नब्बे पूरे सौ।
आज प्रतिदिन बीस से पचीस ब्लाग जुड़ रहे हैं हिंदी ब्लाग जगत में। आलोक /चिट्ठाजगत के माध्यम से इसकी खबर मिलती है। अफ़सोस भी होता है कि सबका उत्साह वर्धन नहीं कर पाते नियमित। लेकिन मेरा अपना अनुभव है कि नये लिखना शुरू करने वालों को किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिये। ब्लाग संकलकों की तो बिल्कुल ही नहीं।
अगर नये साथी अपने बारे में लोगों को बताना चाहते हैं तो सबसे सुगम उपाय है दूसरों के ब्लाग पर जाकर अपनी टिप्पणी छोड़ने का। इससे सुगम और मुफ़ीद उपाय कोई नहीं पाठक, टिप्पणी और अटेंशन पाने का।
मेरा कहना सिर्फ़ इतना है कि ब्लाग जगत के चंद चिरकुटों से हलकान से होने की बजाय आप इसके सौंदर्य को देखें। इसके धांसू च फ़ांसू , फ़ड़कते और तुतलाते लेखन पर लहालोट हों। कामा, फ़ुलस्टाप की गलतियों के बावजूद इसकी सहजता की तारीफ़ करें। यह सहजता आजकल का दुर्लभ गुण है। जिससे सहज होने को कहो वो और असहज हो जाता है। सहज साधना बहुत मुश्किल है।
आप खराब लोगों से दुखी होकर और उसका रोना रोकर अपनी और अपनी आसपास के दूसरे अच्छे लोगों की अच्छाईयां की उपेक्षा कर रहे होते हैं।
ऐसा तो नको करें जी।
तद्भव पत्रिका आप यहां बांच सकते हैं।
ब्लागजगत में बड़ा हल्ला है कि बड़ी खराब हालत है यहां। जैसे सत्यनारायण जी की कथा बांची जाती है वैसे किसी न किसी ब्लाग में कोई न कोई ब्लागर दुखी होते हुये कहता है-हाय राम यहां भी इतनी गंदगी। कुछ लोग तो यहां से बिस्तरा समेटने की बात भी कहते रहते हैं। मतलब कि वो कहा जाता है न! -इस शहर में हर शक्स परेशान सा है।
आप देखें कि केवल दो ठो ब्लाग पर सनसनी हवा चलती है। वे दो ब्लागर भी ब्लागर नहीं , कम्पोजीटर हैं ज्यादा सही होगा कहना सनसनी लपेटर हैं। अपना खुद बहुत कम लिखते हैं। दूसरे के लिखे पर सनसनी लपेट के पेश करते हैं। उनसे इतने हलकान क्यों हैं जी?
ब्लाग की स्तरीयता पर काफ़ी लोग सवाल उठाते हैं। ब्लाग पर स्तरीय लेखन नहीं हो रहा है। ऐसे ब्लाग नहीं हैं जिनको पढ़ने का मन करे। इस बारे में क्या कहा जाये!
हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी महोदय ने अपने विदाई भाषण में कहा- मैंने प्रयास किया कि जो काम मैं खुद नहीं सकता उसको दूसरा अगर न कर पाये तो उसे नालायक न समझूं। स्तरीय लेखन के अभाव के लिये हलकान होने वाले भाई लोग आगे बढ़कर नजीर पेश करें और बतायें कि देखो ऐसे लिखा जाता है।
ब्लाग जैसा मैं मानता हूं -सहज अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। इसमें घर-परिवार के लोग, आसपास के लोग और आम लोग अपने जौहर दिखलाते हैं। तो वे तो वैसा ही लिखेंगे जैसा उनको आता होगा। धीरे-धीरे कौन जाने इनमें से ही कोई आगे चलकर ऐसा रचनाकार बने जिसके बारे में बताते हुये आप रस्क करें कि ये तो हमारे समय के ब्लागर हैं।
उदाहरण के लिये सौम्या का ब्लाग देखिये। ये बच्ची कक्षा नौ में पढ़ती है। इसके ब्लाग में अपने घर परिवार की बातें हैं। आंधी आना, गेहूं बटोरना आदि। इसमें ऐसा कौन सा कालजयी लेखन है? लेकिन मुझे बहुत अच्छा लगता है, तमाम लोगों को लगता होगा। कौन जानता है कल को यही बिटिया प्रख्यात हस्ती बने जिसमें इसकी इन अभिव्यक्तियों का भी योगदान हो।
मेरा मानना है कि ब्लागजगत के निकृष्ट और सनसनीकारक लेखन से हलकान से परेशान होने की बजाये ऐसे आसपास के सहज लेखन का लुत्फ़ उठाया जाये। जो बात मन को छू जाये उसको प्रोत्साहित करें। यह समझें कि उसका सर्वश्रेष्ठ अभी आना बाकी है।
जब हम ब्लागिंग में घुसे थे तब कुल जमा पचीस तीस लोग थे। महीने में अधिक से अधिक चार-पांच पोस्ट लिखते थे। पहली पोस्ट में कुल इत्ता लिख पाये थे – अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है । बाद में साथियों के उकसावे पर इतना लिखने लगे कि लंबी पोस्टों का मतलब ही फ़ुरसतिया पोस्ट हो गया। जब ब्लाग जगत में सक्रिय-असक्रिय ब्लागों की संख्या नब्बे से सौ के बीच बढ़ रही थी तब हम लोग हर पल नये बनते ब्लाग के इंतजार में टकटकी लगाये रहते थे और सांस रोके ब्लाग संख्या के सौ तक जाने का इंतजार करते रहे। शायद महीने भर लगे होंगे ब्लाग संख्या को सौ का आंकड़ा छूने में। देबाशीष उछल पड़े थे और इसकी सूचना पर दी थी अस्सी, नब्बे पूरे सौ।
आज प्रतिदिन बीस से पचीस ब्लाग जुड़ रहे हैं हिंदी ब्लाग जगत में। आलोक /चिट्ठाजगत के माध्यम से इसकी खबर मिलती है। अफ़सोस भी होता है कि सबका उत्साह वर्धन नहीं कर पाते नियमित। लेकिन मेरा अपना अनुभव है कि नये लिखना शुरू करने वालों को किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिये। ब्लाग संकलकों की तो बिल्कुल ही नहीं।
अगर नये साथी अपने बारे में लोगों को बताना चाहते हैं तो सबसे सुगम उपाय है दूसरों के ब्लाग पर जाकर अपनी टिप्पणी छोड़ने का। इससे सुगम और मुफ़ीद उपाय कोई नहीं पाठक, टिप्पणी और अटेंशन पाने का।
मेरा कहना सिर्फ़ इतना है कि ब्लाग जगत के चंद चिरकुटों से हलकान से होने की बजाय आप इसके सौंदर्य को देखें। इसके धांसू च फ़ांसू , फ़ड़कते और तुतलाते लेखन पर लहालोट हों। कामा, फ़ुलस्टाप की गलतियों के बावजूद इसकी सहजता की तारीफ़ करें। यह सहजता आजकल का दुर्लभ गुण है। जिससे सहज होने को कहो वो और असहज हो जाता है। सहज साधना बहुत मुश्किल है।
आप खराब लोगों से दुखी होकर और उसका रोना रोकर अपनी और अपनी आसपास के दूसरे अच्छे लोगों की अच्छाईयां की उपेक्षा कर रहे होते हैं।
ऐसा तो नको करें जी।
Posted in बस यूं ही | 22 Responses
और भी बहुत कुछ है.
कुछ ना समझो ऐसे तो आप नादान नही हो साब जी.
और फ़िर जैसे वे हैं वैसे ही ये भी तो हैं.
सनसनी लपेटर – कतई पसन्द आया आपका नामकरण। वास्तव में यह लपेटर चिट्ठों की दुनिया का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। शायद अन्तर्जाल पर वह अपनी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हों।
बिला गयी – मतलब बिल में घुस गई, गायब हो गई?
हलकान यानी क्या?
अग्रिम शुक्रिया।
2. धांसू च फांसू लेखन पर लहालोट जरूर हो रहे हैं ।
3. मुझे समझ में नहीं आता कि ब्लॉग जगत को लेकर लोग इत्ते चिंतित क्यो हैं ।
4. अरे जब हाफ पैन्ट पहनने की उम्र में बच्चा सायकिल चलाना सीखता है तभी से क्या आप इस बात के लिए चिंतित हो जाते हैं कि आगे चलकर वो कार को भी अईसे ही जगह जगह टकराएगा ।
हंय । थोड़े कहे को बहुत समझिये । टेलीग्राम को चिट्ठी समझिये । फुरसतिया पोस्ट पर फुरसतिया टिप्पणी कईसे दें । ऐसा तो नको करेंगे जी ।
हम क्यों गला फाड़ फाड़ कर मीडिया के अन्य माध्यम
की तरह मौज़ूदा गंदगी देखें और दिखायें ?
वहाँ से ऊब कर यहाँ आते हैं, गंदगी पसंद प्रजातियाँ
भले वहाँ लोट लगा रही हों, इनकी उपेक्षा किया जाना
ही एक सभ्य प्रतिकार होगा ।
हम सृजन का दंभ लेकर यहाँ आते हैं, समीक्षा करने तो
कत्तई नहीं । पहले तो मैं भी भड़का था, लेकिन अब…
सब ठीक है जी !
हलकान होने का टैम किसके पास है जी। लहालोटीकरण से ही फुरसत ना है, बाकी आईपीएल मैचों ने परेशान कर रखा है। इ
पन क्या है न कि कभी-कभी जब सोचने जैसी गलती हो जाती है तो यही सोच आ जाती है कि आखिर क्यों इतना फ़्रस्ट्रेशन दिखता है लोगों में।
खैर, बात बस यही है कि जहां इंसान होगा वहां इंसानी फितरत तो रहेगी ही!!
इसीलिए हम थोड़ा हलकानियत करके हलके होने की कोशिश कर रहे थे..आगे से नहीं होंगे हलकान…वैसे सनसनी लपेटर शब्द बहुत धाँसू लगा…:-)
यह मार्के की बात कही.
बात दुरस्त है. बिना अनुभव के कला का कोई भी छेत्र संभव नहीं. ब्लाग लेखन इस दौर की कला की एक विधा है. और तय है लगातार अभ्यास और जीवन के अनुभव से ही कलात्मक सौन्दर्य को हांसिल किया जा सकता है