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Monday, November 04, 2019

 



हुन्डर से हम लोग सुबह निकल लिए थे, समय पर। दोपहर होते-होते पेंगोंग झील के किनारे पहुंच गए। झील का पानी एकदम साफ। गोरा-चिट्टा-पारदर्शी।

'थ्री इडियट' पिक्चर के पहले इस झील के बारे में कम ही लोग जानते होंगे। पिक्चर हिट होने के बाद झील देखने बहुतायत में आने लगे लोग। पिक्चर से जुड़ी झील और स्कूल प्रसिद्ध हो गये। पिक्चर में स्कूल और झील पास-पास दिखाये गए हैं। असलियत में स्कूल और झील के बीच कई घण्टों की दूरी है। सिनेमा हकीकत को अपने हिसाब से दिखाता है। इतना जोड़तोड़ तो चलता है।
झील के किनारे लोग समुद्र तट वाले अंदाज में बैठे थे। लेकिन कोई उस अंदाज में नहा नहीं रहा था । पानी बहुत ठंडा था। लोग फोटुबाजी में जुटे थे। आते ही कैमरे दगने लगे। फोटो, वीडियोओ बनने लगे। हमने भी कंजूसी नहीं की।
थ्री इडियट पिक्चर में नायिका करीना कपूर स्कूटी पर बैठकर हीरो से मिलने आती है और उसको जबरियन चूमकर लम्बी नाक को चूमने में बाधा की बात को बेबुनियाद बताती है । उसी तरह के सैकड़ों स्कूटी झील के किनारे रखे हुए हैं। सबके नम्बर एक। उस पर बैठकर फोटो खिंचवाकर लोग नायिका - सुख लूटते दिखे। शहर होता तो शायद बोर्ड भी लगा होता। 50/- खर्चिये, करीना कपूर बनिये।
वहीं पर पिक्चर में दिखाए तीन प्लास्टिक के स्टूल भी धरे थे । लोग उनपर बैठकर फ़ोटो खिंचाते हुए 'इडियट' होने का धड़ल्ले से एहसास कर रहे थे।
झील किनारे याक भी थे। कमजोर,मरियल, थके-थके याक पर सवारी करते हुए लोग फोटो खिंचाने में जुटे हुए थे। बेजुबान याक बेचारे चुपचाप किसी लोकतंत्र की जनता सरीखे चुपचाप अपने ऊपर चढ़कर फोटो खिंचाते लोगों को निरीह आंखों से देख रहे थे। लोग उनकी पीठ पर जनसेवकों की तरह धड़ल्ले से सवारी करते हुए खुश हो रहे थे। याक का मालिक कारपोरेट की तरह कमाई में जुटा हुआ था।
हमने भी देखा देखी याक पर सवारी की। चढ़ते ही याक कसमसाया। मन किया उतर जाएं। लेकिन मन की बात आजकल सुनता कौन है ? चढ़ ही गये टेढ़े-मेढ़े होकर। फ़ोटो खिंचाकर उतर आये। अपराधबोध के साथ। कमजोर याक पर सवार होने के अपराध बोध को इस तर्क के साथ दबा दिया -'हमारे पहले इतने लोग और भी तो चढ़ चुके हैं इन पर।' वैसे भी सामूहिक रूप से किया अपराध , अपराध नहीं माना जाता है।
झील के किनारे आसपास के गांवों के लोग आकर स्कूटी, स्टूल, याक, मोती-मनका और होटल के व्यवसाय के सहारे रोजगार करते हैं। 'थ्री इडियट' पिक्चर के वाद कमाई के अवसर बढ़े हैं यहां।
कुछ लोग वहां जमीन पर बैठे कोई खेल खेल रहे थे। शायद जुआ जैसा। हमने वीडियो बनाने की कोशिश की तो उसमें से एक ने कुछ कहा । मतलब तो हम न समझ सके लेकिन अंदाज लगाया कि शायद नाराज हो रहा है विडियोबाजी से। हमने बन्द कर दी रिकार्डिंग।
झील किनारे लोगों के रुकने के लिए टेंट लगे हुए थे। टेंट में बिस्तर, बगल में अस्थाई शौचालय की व्यवस्था थी। हम लोग रात को रुकने के विचार से ही आये थे। लेकिन कई टेंट देखने के व्यवस्था जमी नहीं तो पहले अनमने मन से फिर अंततः मजबूती से लेह के लिए लौट पढ़े।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10218006202840111

ढपली वाला ढपली बजा




पैंगोंग से लेह वापस लौटने के निर्णय के बाद हम वहां चाय पीने को रुके। चाय की दुकान पर एक स्थानीय महिला से बातचीत करने लगे। पास के गांव में रहने वाली महिला ने बताया कि यहां पर्यटक आते हैं। उनको देखने , मिलने चली आती है। अच्छा लगता है उसे।
हम लोगों से बात करते-करते उसने गाना शुरू कर दिया। जुलु-जुलु कहते हुए शुरू किया। जुलु-जुलु लद्दाख की तरफ का अभिवादन है। राम-राम सरीखा शायद। हम दोनों को गाना सुनाया उसने, यह कहते हुए कि इन दोनों को मैं एक गाना सुनाएगा। गाने के बोल थे - 'ढपली वाला ढपली बजा।'
गाने को अपने हिसाब से तोड़ते-मरोड़ते-लहराते हुए पूरे मन से सुनाया महिला ने।
एक और गाना सुनाया उसने। बात की। मन खुश हो गया। चलते हुए हमने कुछ देना चाहा उसे। उसने पहले तो लिया नहीं । जिद करने पर लिया भी तो लेकर सब कुछ हमारे ड्रॉइवर लखपा को दे दिया कहते हुए -' ये तुम्हारे लिए।' और भी कुछ कहा स्तानीय बोली में। लेकिन हम उसे समझ नहीं पाए। लेकिन हमारे ड्रॉइवर को उस महिला से कुछ लिया नहीं। उसकी भेंट उसके ही पास रहने दी। हम चल दिए।
लौटते हुए महिला द्वारा उसको दिए पैसे बिना गिने हुए ड्रॉइवर को देने की पेशकश और ड्रॉइवर द्वारा भी उसे बिना किसी हिचक के उसको लेने से मना करने की बात याद करते रहे। स्थानीय लोग आर्थिक रूप से उतने मजबूत भले न हों लेकिन लालच से ग्रस्त नहीं हैं।
वापसी यात्रा में एक बार फिर बर्फ के रास्ते से गुजरते हुये आये। एक जगह एक गाड़ी खराब होकर खड़ी थी। लेह से आने वाले मैकेनिक का इंतजार कर रही थी।
एक जगह सड़क पर अवरोध था। उसको हटाने का काम हो रहा था। इतनी ऊंचाई पर इतना जटिल काम। बीच-बीच में सड़क बर्फ के पानी से कट गई थी।
बर्फ का दर्रा चारों तरफ से बर्फ से ढंका हुआ था। आते समय ख़र-दुंग-ला दर्रा मिला था। लौटते हुए चांग-ला दर्रा। इस दर्रे की सड़क को भी दुनिया की सबसे ऊंची सड़क बताते हुये बोर्ड लगे थे। शायद खर-दुंग-ला दर्रा और चांग-ला दर्रा एक ही घराने के दर्रे हों। लिहाजा दोनों के पास सबसे ऊंची सड़क के पास होने का खिताब हो।
दर्रे के आगे-पीछे के पहाड़ भी सफेद चादर ओढ़े हुये थे। दर्रा पार करने के बाद पहाड़ खत्म हुए। सभी जगहों से गुजरते हुए हम छोटे-छोटे वीडियो बनाते गए ताकि सनद रहे। वीडियो के लिंक नीचे पोस्ट में देखिये।
लौटते हुये सूरज भाई साथ रहे। गुनगुनाते हुये आहिस्ते-आहिस्ते हमको वापस जाते देखते रहे। जगह बहते पानी के सोते भी किल-किल करते हुये टाटा-बॉय-बॉय करते रहे।
धीरे - धीरे सड़क समतल होती गयी। शाम होते -होते हम लेह वापस पहुंच गए।
1.https://www.facebook.com/anup.shukla.14/videos/10218007827600729/?t=5 ढपली वाला ढपली बजा वीडियो
2.https://www.facebook.com/anup.shukla.14/videos/10218007823200619/?t=4 चांग-ला दर्रे पर वीडियो
3. https://www.facebook.com/anup.shukla.14/videos/10218007832040840/?t=4 रास्ते की सड़क का वीडियो
4. https://www.facebook.com/anup.shukla.14/videos/10218007820400549/?t=3 रास्ते की एक और सड़क का वीडियो

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10218007905322672

Saturday, October 05, 2019

बर्फ़ सड़क खा जाती है

भारत के आखिरी गांव थांग से लौटते हुये शाम हो गयी थी। तसल्ली से आराम किये। गेस्ट हाउस में खान-पान का चौकस इंतजामा। मौसम खुशनुमा।

हुंडर में फ़ोन बन्द था। घर में सबको पहले ही बता दिया था - फ़ोन नहीं मिलेगा। जब कभी बहुत जरूरत हुई तो ड्राइवर के फ़ोन से बात कर ली।
हमारे एक अजीज दोस्त से लेह में फ़ोन बात हुई थी। उसने कहा -’सुना है पहाडों पर आसमान में तारे नहीं दिखते। देखकर बताना ऐसा है क्या?’
रात में निकले देखने आसमान। तारे नदारद। कोना-कोना देख लिया। कोई तारा नहीं दिखा। शायद यह उसी दिन की बात हो। लेकिन यह बात पक्के तौर पर कहना मुश्किल कि पहाड़ों पर आसमान में तारे नहीं दिखते।



सुबह पैंगोंग लेक जाना तय था। ड्राइवर ने जल्दी निकल लेने की बात कही। देर होने पर सूरज की रोशनी में बर्फ़ पिघलकर सड़क खा जाती है। रास्ता रुक सकता है। पानी के बहाव से सडक कट जाने की बात तो सुनी थी। लेकिन पिघली हुई बर्फ़ द्वारा सड़क खा जाने की बात पहली बार सुनी। रास्ते में कई जगह देखा भी। पिघली हुई बर्फ़ सड़क खा गई थी। बगल के रास्ते से पत्थरों के बीच से आगे निकले।
रास्ते में कई जगह झरने, नदियां मिलीं। पहाड़ से निकलती नदियां पहाड़ का सहारा लेते हुये धड़ल्ले से बह रही थीं। पहाड़ की दीवार के सहारे नीचे उतरती नदी ऐसी लग रही थी मानों वह कायनात से छुपन-छुपाई खेल रही हो।
जगह-जगह बाइकर्स मिले। हेलमेट धारी बाइकर्स की टोली सड़क पर धड़धड़ाती हुई चलती। जहां सड़क कट गयी थी वहां जैसे पत्थरों के खेत से गुजरते हुये आगे बढे। गिट्टियों के ऊपर गाड़ी हिचकियां जैसी लेती हुई चल रही थी।

रास्ते में कई जगह ढाबे मिले। चयास लगी। लेकिन ड्राइवर जल्दी से जल्दी सारी सड़क नाप लेना चाहता था। किसी अवरोध के आने के पहले वह पैंगोंग पहुंच जाना चाहता था। इसलिये चाय कि इच्छा दुरबुक तक दबानी पड़ी।
दुरबुक पैंगोंग के पहले का बड़ा कस्बा है। चौड़ी सड़क के दोनों ओर ढाबे। मैगी और चाय का सेवन किया गया। इस इलाके में खास तरह की नमकीन चाय मिलती है। उल्टी वगैरह में फ़ायदेमन्द। दुकान महिलायें चलाती हैं। स्मार्ट फ़ोन धारी स्मार्ट महिलायें। सेवा प्रदान करते के बाद मोबाइल में व्यस्त हो जातीं। फ़टाफ़ट सेवा। खुशनुमा एहसास। पहुंचते ही ड्राइवर उनसे स्थानीय बोली में गपियाने लगा। उसकी चाय-नाश्ते के पैसे लेने से मना कर दिया दुकानदारों ने।
दुरबुक से आगे बढने पर याक दिखने लगे। कहीं-कहीं खच्चर-गधे भी दिखे। अकेले चरते हुये गधे अपने में मस्त दिखे। वैसे भी गधे अपने में ही मस्त रहते हैं।
एक जगह गाड़ियां रुकीं थी। हम भी रुक गये। सड़क से थोड़ी दूर मिट्टी के टीलों में बने खोह में नेवले टाइप के जीव दिख रहे थे। लोग उनकी फ़ोटो ले रहे थे। वीडियो बना रहा थे। हम भी जुट गये। मुरमुथ नाम बताया इस जीव का। ये जीव अपने खोह के बाहर ऐसे बैठे हुये थे जैसे कोई अपने घर के बाहर सड़क पर चारपइया डालकर धूप सेंक रहा हो।

मुरमुथ दर्शन के बाद हम लोग पैंगोंग झील की तरफ़ बढे। कुछ देर में पहुंच भी गये वहां। भारत, तिब्बत और चीन के बीच पसरी हुई लेक झील लगभग 134 किमी लम्बी है। जाड़े में झील जम जाती है। झील का पानी एकदम साफ़ । सर्फ़ एक्सेल से धुला हुआ सा। अपनी खूबसूरती का एहसास था शायद पानी को। इसीलिये वह इठलाते हुये झील में लहरा रहा था।
पैंगोंग झील को पहले शायद लेह-लद्दाख को कम लोग जानते थे। थ्री ईडियट फ़िल्म के आखिरी दृश्य इस झील के किनारे फ़िल्माये जाने के बाद झील धुंआधार पापुलर हो गयी। पर्यटकों की संख्या बढ गयी। आसपास के गावों के लोगों का रोजगार बढा । एक लोकप्रिय किताब, एक पापुलर फ़िल्म लोगों की रोजी-रोटी का अवसर भी पैदा कर सकती है।
झील तो वैसी ही बल्कि ज्यादा कहीं बहुत ज्यादा खूबसूरत दिखी जैसी पिक्चर में थी अलबत्ता फ़िल्म में दिखाया गया रैंचों स्कूल इस जगह से सैंकडों किमी दूर लेह में है। फ़िल्म में लेह का स्कूल उठाकर पैंगोंग में धर दिया गया है। लेकिन यह कोई नई बात नहीं। फ़िल्मों में ऐसा तो होता ही है।
लेकिन इन सब बवालों में पड़े बिना हम पैंगोंग झील की खूबसूरती निहारने में जुट गये। आप भी देखिए हमारी निगाह से।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217747603775296

Thursday, September 12, 2019

बस निकल लो गुरु आगे जो होगा देखा जाएगा



लेह से भारत के आखिरी गांव थांग तक के रास्ते में कई बाइकर्स मिले। मोटरसाइकिल पर धड़धड़ाते जाते। खरदुंगला पास पर भी कई टोलियां मिलीं। उनमें कुछ लड़कियां भी थीं। इन बाइकर्स को देखकर लगा कि यही असल जिंदगी यही है, घूमना। यायावरी, घुमक्कड़ी। बाकी तो सब ऐं-वैं ही है।

जो बाइकर्स मिले थांग में वे कोलकता से आये थे। उनमें से एक कोल इंडिया में काम करते थे। दूसरे किसी प्राइवेट फर्म में और तीसरे अभी नौकरी के चक्कर से बचे थे। कुछ और साथी भी साथ में आये थे। लेकिन एक का गाजियाबाद के पास कहीं एक्सीडेंट हो गया था तो वो लौट गए वापस।
काफी समय तक उनके यात्रा के अनुभव सुने। उनके खर्च के बारे में जानकारी ली। अपनी बचत के पैसे ख़र्च करके यात्रा कर रहे थे ये बाइकर्स। मुझे अपनी साइकिल यात्रा की याद आई। बिहार में एक जगह एक दरोगा जी ने हमको अपने पास के सारे पैसे खर्चे के लिए दे दिए थे। उसको याद करके भावुक हो गए अपन। मुझे लगा कि दरोगा जी के वे पैसे हमारे पास जमा हैं। उधार हैं। हमने तुरन्त लगभग जबरदस्ती उन बाइकर्स में से एक को कुछ पैसे ख़र्च के लिए दिए।


मेरे पैसे देने से उनके खर्चे नहीं पूरे होने वाले। लेकिन 35 साल पहले का एक अच्छा अनुभव मेरे मन मे कल के अनुभव की तरह सुरक्षित था। उसने मुझे मजबूर सा किया कि हम भी वैसा ही करें। जो प्रेम मिला मुझे वह आगे बढ़ाएं।किसी के साथ कि अच्छाइयां कभी बेकार नहीं जाती। वे आगे और कई गुना खूबसूरत होकर निखरती हैं।
उन बाइकर्स से विदा होकर हम वापस लौटे। वे रास्ते में कई बार मिले। जितनी बार मिले, हमने तय किया कि दुनिया घूमनी है एक दिन। अब वह दिन कब आएगा यह तो पता नहीं लेकिन यह यकीन है कि एक दिन आएगा जरूर।


जब भी ऐसे घुमक्कड़ों को देखते हैं तो मन करता है कि अपन भी निकल लें। याद आता है कि कालेज के दिनों में कैसे निकल लिए थे, बिना कुछ आगा-पीछा सोचे। तीन महीने साइकिल चलाई। इलाहाबाद से कन्याकुमारी तक हो आये। 35 से भी पहले की कहानी है यह। लेकिन लगता है कल की बात है। मन करता है कि फिर निकल लें। पूरी दुनिया घूमने। लेकिन दुनिया के इतने लफड़े कि बस सोच कर ही रह जाते हैं। स्व. शायर वाली असी के शेर याद आते है:
मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था
मगर सफ़र न कभी एख़्तियार (शुरू)करता था।
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैँ जिंदगी पे बहुत एतबार (भरोसा)करता था।
तमाम उम्र सच पूछिये तो मुझ पर
न खुल सका कि मैं क्या कारोबार करता था।
मुझे जबाब की मोहलत कभी न मिल पायी
सवाल मुझसे कोई बार-बार करता था।
लौटकर लेह में देखा कि वहां मोटरसाइकल किराये पर भी मिलती हैं। यात्रा के शौकीन लोग वहां से किराये पर लेकर टहलने निकल सकते हैं। आप का भी मन कर रहा हो तो बस निकल लो गुरु बाकी जो होगा देखा जाएगा।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217582714773174

Tuesday, September 03, 2019

भारत के आखिरी गांव तक

 


हुन्डर से अगला पड़ाव था भारत का आखिरी गांव । पहले यह तुरतक था। लेकिन 1971 की लड़ाई के बाद थांग भारत का आखिरी गांव हो गया।
गेस्ट हाउस सुबह निकले। रास्ते में सेना और बॉर्डर रोड आर्गनाइजेशन के कैम्प दिखे। कुछ स्कूल भी। ये स्कूल सेना की मदद से चलाए जाते हैं। कुछ स्कूलों में बच्चे कक्षाओं के बाहर खेल रहे थे। मस्तिया रहे थे।
रास्ते में जगह-जगह पहाड़ से उतरते झरने मिले। हर झरना अपने में अनूठा। मस्तियाता। पानी ठुमकते हुए , इठलाते हुए नीचे उतरता चला जा रहा था। प्रदूषण रहित एकदम सफेद पानी। झरने के पत्थर पानी को थोड़ा रोकते। लेकिन पानी मुस्कराकर पत्थर को बगलियाते हुए आगे बढ़ता जाता।
अपन हर झरने के पास रुककर उनको देखते। उनके साथ वीडियो बनाते। इसके बाद देरी की बात सोचते हुए आगे बढ़ते। ड्राइवर लखपा ने भी कई जगह हमारी फोटो लीं।

जगह-जगह बने छोटे-छोटे पुल देखकर लगता था कि इतनी दुर्गम जगहों पर पुल बनाना कितना कठिन रहा होगा। लेकिन पुल बने। देखकर यही लगा :
कुछ कर गुजरने के लिए
मौसम नहीं मन चाहिए।
आगे सड़क कुछ सपाट हुई। गाड़ी थोड़ा सरपट हुई। बगल में सड़क के साथ श्योक नदी भी सरपट भागती साथ चल रही थी। उसका पानी कुछ मटमैला हो गया था। शायद पहाड़ की मिट्टी मिलकर। नदी में पानी बढ़ता गया। नदी का आकार भी। लोगों ने बताया कि यह नदी पाकिस्तान जाती है। वहाँ के लोग इसके पानी से प्यास बुझाते होंगे, सिंचाई करते होंगे।
रास्ते में जगह-जगह बाइकर्स मिले। हेलमेट लगाए, धड़धड़ाते हुए सड़क से गुजरते। कुछ के हेलमेट में कैमरा भी लगा था। मोटरसाइकिल चलाते हुए वीडियो बनाने के लिए।

आगे सीमा पास का गांव पड़ा। लोग सड़क किनारे खेतों में काम करते दिखे। कोई बैठा हुआ। कोई बतियाता हुआ। एक जगह बच्चे स्कूल से आते दिखे। सड़क किनारे जाते कुछ लोगों के फोटो हमने चलती गाड़ी से लिये। कुछ बच्चियां घास के गट्ठर सर पर लादे आ रहीं थी। हमने उनके फ़ोटो लेने की कोशिश की तो उन्होंने घास के गट्ठर को कैमरे के सामने कर दिया या फिर पीठ कैमरे की तरफ कर दी।
सीमा के गांव पर हमारे परमिट जांचे गए। परमिट कई जगह देखे गए। लखपा ने कई कापियां करा रखी थीं परमिट की। जहां मांगी जाती निकाल कर थमा देते।
तुर्तक गांव में एक जगह कुछ बच्चे सड़क किनारे छोटे तालाब में नहाते दिखे। एक महिला सड़क किनारे लगे नल से अपने बच्चे को नहला रही थी। हमने उससे बात करनी चाही। वह मुस्करा कर बच्चे को नहलाने में लगी रही। लेकिन मुस्कान का आदान प्रदान अपने आप में सबसे बेहतरीन गुफ्तगू होती है। उसने फोटो लेने से टोंका नहीं।


तुर्तक में सेना की चौकी है। वहां सेना के लोग दूरबीन की सहायता से आसपास को चोटियों के बारे में बता रहे थे। यह चोटी हिंदुस्तान की है वह पाकिस्तान की। यहां पर पहले पाकिस्तान का कब्जा था। वह ऊंचाई पर बंकर है। ऊपर पहुंचने में दो-तीन दिन लगते हैं। स्थानीय लोगों की सहायता के बिना सेना का काम चलना मुश्किल। सेना के सहयोग के बिना स्थानीय लोगों की जिंदगी दुश्वार। दोनों एक दूसरे के सहयोगी।
सीमा के आखिरी गांव थांग का किस्सा वहां लोगों ने सुनाया। पहले यह गांव पाकिस्तान में था। थांग और पहारू गांव जुड़वा गांव थे। 1971 की लड़ाई में थांग गांव पर हिन्दुस्तान का कब्जा हुआ। पहारू गांव पाकिस्तान में रह गया। दोनों गांव में रहने वाले लोग बिछुड़ गए। पति पत्नी अलग हो गए, बाप बेटे अलग हो गए। एक ही परिवार के साथ में रहने वाले लोग दो अलग देशों में रहने को मजबूर हो हो गए। मजबूरी का आलम यह कि अलग -अलग देशों में रहने वाले एक ही परिवार के लोग एक दूसरे को देख सकते थे लेकिन मिल नहीं सकते। कुछ लोग जो भारत की तरफ से अपने परिवार से मिलने पाकिस्तान के कब्जे वाले गांव में पहुंचे उनको जासूस समझकर गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया गया।

रमानाथ अवस्थी जी ने विभाजन की त्रासदी पर एक कविता पढ़ी थी। उसकी पंक्तिया हैं:
धरती तो बंट जाएगी लेकिन
उस नील गगन का क्या होगा
हम तुम ऐसे बिछुड़ेंगे तो
फिर महामिलन का क्या होगा।
क्या हाल हुए होंगे उन इन गांवों में रहने वाले लोगों के एक गांव से दूसरे गांव सहज रूप में गए होगे। लेकिन 16-17 दिसम्बर को इस तरह अलग हुए कि मिलना तक सम्भव न हुआ।
हाल यह कि मिनटों की दूरी पर दूसरे देश के परिजन से मिलने कुछ लोग हफ़्तों की यात्रा करके वीसा के जरिये उस पार पहुंचे । मुलाकात करके आये। लोगों ने बताया कि उधर की सेना का रवैया उनके इलाके में रह रहे लोगों के साथ इतना दोस्ताना नहीं जितना इस तरह की फौज का।

सीमा चौकी पर कुछ ढाबे बने हुए है। सबमें चाय, मैगी , चाउ मीन जैसे खाने के सामान। दुकानें थांग गांव के लोगों हैं। उनमें आपस में ग्राहकों को कब्जियाने की कोई ललक नहीं। बल्कि जिस दुकान में हम रुके उसके मालिक ने ही हमको बताया - 'उस दुकान में खा लीजिये। उम्दा है।' हम उनकी सहजता के मुरीद हो गए और हमने कहा हम तो जो होगा यहीं खाएंगे ।
अब्दुल कादिर नाम था उस युवा का। उसने अपने गांव और आसपास के बारे में तमाम जानकारियां दीं। यह भी की कारगिल की लड़ाई के समय यहां एक तोप का गोला गिरा था जिससे एक खच्चर मर गया। और कोई नुकसान नहीं हुआ।
अब्दुल कादिर ने बताया कि जरूरत का सब सामान सेना के सहयोग से मिलता है। दुकानें मार्च से सितम्बर तक ही चलती है। बाकी सीजन बन्द। हर तरफ बर्फ की दुकान चलती है उस दौरान।
अब्दुल कादिर के ढाबे में तिरंगा फहरा रहा था। हमने साथ में फोटो लिए। दुकान पर दूसरे यात्री आ गए थे। कादिर उनको निपटाने में लग गए।
लौटते हुए फिर कैमरे के मुंह खुल गए। जो भी दृश्य जरा सा भी अलग दिखा उसको झपट कर कैद कर लिया। डाल लिया कैमरे की मेमोरी में । अब जब देख रहे हैं तो वो सारे क्षण फिर से जीवित हो उठे हैं।
लौटते हुए एक जगह सड़क खुदती हुई दिखी। केबल पड़ रहे थे। जियो के केबल। शायद मोबाइल के लिए। पूरी दुनिया मुट्ठी में करने के लिए।
प्रकृति यह सब देखकर मुस्करा रही थी। सूरज भाई भी हंस रहे थे। हम भी सबको मजे से देखते हुए गेस्ट हॉउस लौट आये।

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Thursday, August 29, 2019

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


कल हमने लेह-लद्दाख सीरीज में एक नौजवान का जिक्र किया । हुन्डर के पास रेत की टीलों के पास एक नदी बहती है। पांच- छह मीटर चौड़ी। उसको फांदकर पार करने की चुनौती उछाल दी किसी ने।
तमाम तमाशबीनों और मोबाईलधारियों के बीच एक युवा ने चुनौती स्वीकार की और कमीज उतार कर छलांग लगाई। एकदम किनारे पानी में गिरा। एक बार गिरा साफ पार नहीं हो पाया तो दुबारा फिर कोशिश की। दुबारा फिर वहीं गिरा।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/videos/10217488976949787/
इसके बाद उसने कोशिश नहीं की। उसकी कोशिश देखकर अच्छा लगा। वह पार नहीं हो पाया लेकिन कोशिश की उसने। और कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
कल वीडियो लगा नहीं पाया। लेकिन किसी ने टोंका भी नहीं। वैसे भी लोग लम्बी पोस्ट्स जिसमें फोटो लगीं हों , देखी ही जाती हैं। पढ़ी कम जाती हैं।
देखिये ये वीडियो।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217489002190418

Wednesday, August 28, 2019

रेत के टीले और बहती नदी



पिछली पोस्ट में फोन के बंद होने की बात बताई । दोस्तों ने पूछा -फोन का क्या हुआ। हुआ यह कि हमने कई बार फोन को दबाया, सहलाया, पुचकारा। वह चला नहीं। फिर निराश होकर उसको धर दिया। सुबह उठे तो आदतन उसको फिर आन किया। ताज्जुब कि वह चला और लाल अक्षरों में वार्निंग देने लगा - बैटरी बहुत कमजोर है। मतलब फोन की सांस वापस आ गयी। फ़ौरन चार्जिंग पर लगाया। थोड़ी देर में टनाटन चलने लगा। यह पोस्ट भी उसी फोन से लिख रहे।


हुन्डर पहुंचकर शाम को पास ही स्थित रेत के टीले देखने गए। नुब्रा घाटी पर इस जगह पता नहीं कैसे रेत आई होगी। रेत आई तो ऊंट भी आये। हो सकता है पहले ऊंट आये हों। उनके लिए रेत का इंतजाम किया हो कुदरत ने।


यहां के ऊंट खास तरह के होते हैं। दो कूबड़ वाले। शायद पृकृति ने एक के साथ एक फ्री वाली योजना में इन ऊँटो को बनाया हो। चूंकि ऊंट अलग तरह के तो उनको रखने का इंतजाम भी अलग किया होगा। वरना क्या पता रेगिस्तान में एक कूबड़ वाले ऊंट इनको चिढ़ा-चिढ़ाकर हलकान कर देते। क्या पता उनकी चिढ़ से आजिज आकर कोई ऊंट अपना एक कूबड़ कटवा देता।या फिर एक ऊंट वाले इलाके में कोई 'कूबड़ कटवा' अपना आतंक मचा देता। ' कूबड़ कटवे' को एक कूबड़ वाले ऊंट सम्मानित करते।

नकटों के शहर में जिंदा रहने के लिए नाक कटाकर जीना पड़ता है।
बहरहाल इस जगह अनेक लोग ऊंट की सवारी कर रहे थे। 200-300 रुपये में एक चक्कर। समय के हिसाब से रेट। ऊंट बेचारे बहुत दुबले-पतले दिख रहे थे। निरीह, बेबस। शायद भर पेट खाने को न मिलता हो। दिहाड़ी के मजदूरों के ठेकेदार जिस तरह उनको न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देते ऐसे ही लगता है ऊंटों को भी न्यूनतम भोजन नहीं मिलता। खत्तम होते अनुदान वाली संस्थाओं जैसे खत्तम होते लगे ऊंट। उन पर दया आई। सवारी करने का मन नहीं हुआ।

सवारी भले न की हो लेकिन उनके साथ फोटो खूब खिंचाई। अगल में, बगल में, आगे खड़े होकर, पीछे से। मने कोई कोना नहीं छोड़ा मुफ्तिया फोटो का। अनन्य ने फोटो खींची ऊंट के काफिले की। और भी।
एक ऊंटनी को जरा सा अवकाश मिला तो वह काफिले से किनारे आकर खड़ी हो गयी। उसका बच्चा भागता हुआ आया और उसके थन में मुंह अड़ा दिया। ऊंटनी वात्सल्य भाव से बच्चे को दूध पिलाती रही। जुगाली करती हुई। अब ऊँटो के कार्यस्थल पर कोई अलग से पालनाघर तो होते नहीं ।

तमाम लोग वहां फोटो खिंचवाने को आतुर थे। घर परिवार वाले जबरियन आत्मीय और कुछ तो रोमान्टिक भी होते पाए गए। मेरे सामने अपने जोड़ीदार को झिड़ककर हड़काने वाली महिला उसी के साथ फ़ोटो खिंचाते हुए इतना मुलायम मुद्रा में हो गयी कि कोई फ़ोटो देखता तो कहता -'लवली कपल। मेड फार इच अदर।'


वहीं एक नदी बह रही थी। पांच - छह मीटर या कुछ और ज्यादा ही चौड़ी। किसी ने उसको भागकर फांदने का चैलेंज उछाल दिया। एक लड़के ने अपनी शर्ट उतारी और भागते हुए छलांग लगाई। आधे मीटर पहले पानी में गिरा छपाक। पार नहीं कर पाया। लेकिन कोशिश की। उकसाने पर दुबारा उसने कोशिश की। फिर कुछ दूरी से किनारा चूक गया। भीग गया। लेकिन उसका हौसला देखकर खुशी हुई। असफल होने की पूरी आशंका के बावजूद उसने कोशिश की यह कितनी अच्छी बात है। आजकल हम लोग तो असफल होने के डर से कोई काम शुरू ही नहीं करते। उसका वीडियो देखिये अच्छा लगेगा।


तमाम देर आसपास के नजारे देखते हुए वापस लौट आये। अगले दिन हमको आगे जाना था। भारत के आखिरी गांव।

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Tuesday, August 27, 2019

खरदुंग ला से हुन्डर



खरदुंग ला में दुनिया की सबसे ऊंची सड़क पर हम करीब दो घंटे रहे। मन तो कर रहा था कि कुछ देर और रहें लेकिन आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे थे । हम आगे बढे। हमारी आगे की मंजिल नुब्रा घाटी में हुन्डर थी।
खरदुंग ला तक हमारा फ़ोन टनाटन काम कर रहा था। एयरटेल का पोस्ट पेड कनेक्शन। प्रि पेड फ़ोन यहां काम नहीं करते। पोस्ट पेड में भी बीएसएनएल के फ़ोन यहां काम करते हैं। बाकी मिल गये तो मिल गये वर्ना नेटवर्क इच्छा। अभी तक हमारा फ़ोन घरवालों के फ़ोन के मुकाबले वीआईपी बना हुआ था। लेकिन खरदुंग ला से आगे बढते ही न जाने क्या हुआ कि हमारा फ़ोन ’शान्त’ हो गया। स्क्रीन गोल।

कई बार स्टार्ट, रिस्टार्ट करने के बावजूद फ़ोन की स्क्रीन काली ही बनी रही। कुछ दिन पहले ही खरीदे गये प्ल्स 7 फ़ोन की बोलती बन्द। हमें लगा खरदुंग ला की ऊंचाई में सांस फ़ूल गयी होगी, ठंड से हाल बेहाल हो गये होंगे -कुछ देर में गर्माहट से ठीक हो जायेगा। लेकिन फ़ोन एक बार रूठा तो रूठा ही रहा।
इधर फ़ोन बन्द हुआ उधर आशंकाओं की फ़ौज ने हमारे दिमाग में सर्जिकल स्ट्राइक कर दी। फ़ोन बन्द होने से संबंधित तमाम आशंकायें हमारे दिमाग में बिना अनुमति लिये घुस गयीं। लगा कि किसी ने हमारा खाता हैक कर लिया होगा। इधर फ़ोन बन्द हुआ उधर हमारे खाते से नेटबैंकिग से पैसे विदा हो रहे होंगे, कोई हमारे क्रेडिट कार्ड से अपने लिये ऐश के सामान खरीद रहा होगा। इन आशंकाओं को जितना भी परे धकेलते वे उतने ही आजिजी से वापस आकर दिमाग में पसरती जातीं।


आशंकाओं की अंतिम विदा तब हुई जब हमने हुन्डर में पहुंचते ही वहां जम्मू कश्मीर बैंक के एटीएम अपने खाते के बैलेन्स को चेक किया। खाते के पैसे यथावत खाते में शरीफ़ बच्चों की तरह मौजूद थे।
तेजी से आधुनिक और जटिल होती जा रही दुनिया में किस तरह की चिंतायें दिमाग में कब्जा करती हैं इसका अंदाज खरदुंग ला से लेकर हुन्डर तक की यात्रा में एहसास हुआ। जिन सुविधाओं ने हमारा जीवन आसान टाइप किया है वही साथ में नयी तरह की चिंतायें भी लायीं हैं। सुविधा के साथ चिंता भी मुफ़्त में।
खाते में पैसे सुरक्षित होने की चिंता जब विदा हुई तो अपना चार्ज दूसरी चिंता को दे गयी। पैसे की चिंता से हटकर अब चिंता इस बात की होने लगी कि फ़ोन कैसे ठीक होगा। कन्हैयालाल बाजपेयी जी कविता पंक्तियां याद आईं:
संबंध सभी ने तोड़े लेकिन,
पीड़ा ने कभी नहीं तोड़े।
सब हाथ जोड़कर चले गये,
चिंता ने कभी नहीं जोड़े॥

चिंता एक के साथ एक फ़्री वाले अंदाज में आती हैं इसका एहसास तब हुआ शर्ट की जेब में रखा मोबाइल जेब से निकलकर जमीन पर गिर पड़ा। उसके गिरने के अंदाज से लगा मानो बारबार दबाने के बावजूद सेवा न दे पाने की शर्म के चलते उसने जेब से कूद कर आत्महत्या की कोशिश की हो। जमीन पर गिरने से मोबाइल के माथे पर गुलम्मा पड़ गया। हमने प्यार से सहलाते हुये पुचकार कर मोबाइल को जेब में रखा। इसके बाद उसको दबाया नहीं। मोबाइल चुपचाप पड़ा रहा जेब में।
खरदुंग ला से हुन्डर के रास्ते में दिस्किट बौद्ध स्थल पड़ा। एक पहाड़ी पर बुद्ध की ऊंची प्रतिमा करीब 32 मीटर है। कई दर्शक यहां इसे देखने आ रहे थे। हमने भी देखा। वहीं पर ब्रिटेन से आये एक बुजुर्ग दम्पत्ति से मुलाकात हुई। नजारा और मूर्ति देखकर उनका कहना था - अद्भुत। इसके अलावा फ़्रांस से आये एक मोटर साइकिल सवार से भी बतकही हुई। अपनी सहेली के साथ फ़्रास से भारत घूमने आये करीब 35 साल के जवान ने बताया कि वो हर साल भारत घूमने आता है। लेह लद्दाख के इस हिस्से के बारे में उसका कहना था कि दुनिया में इतनी खूबसूरत जगह कोई और नहीं।



हम सोचने लगे कि यार बताओ एक ये आदमी है जो हर साल लेह लद्दाख घूमने आता है, वह भी मोटरसाइकिल से और एक हम हैं जो पचास पार होने के बाद पहली बार आ पाये। सोचने के अलावा और किया भी क्या जा सकता था।
हुन्डर में बार्डर रोड के गेस्ट हाउस में रुके। रुकने की व्यवस्था हमारे दोस्त अंकुर ने की थी। वे पहले यहां काम कर चुके थे। गेस्ट हाउस में काम करने वाले लोग उनकी याद कर रहे थे।
गेस्ट हाउस के आसपास की पहाड़ियों पर शाम उतर आई थी। सामने की पहाड़ी पर बनी आकृतियां ऐसी लग रही थीं मानो कोई मियां बीबी किसी बात पर भन्ना कर एक दूसरी के उल्टी तरफ़ सर करके लेट गये हों। पत्थर दिल जोड़े में से कोई किसी को मनाने की कोशिश भी नहीं कर रहा था। लेटे थे चुपचाप। पहाड़ पर मौन पसरा था। मन किया उनको अंसार कम्बरी की कविता सुनायें:
पढ सको तो मेरे मन की भाषा पढो,
मौन रहने से अच्छा है , झुंझला पडो।
लेकिन फ़िर छोड़ दिये। पत्थरों को कविता क्या सुनाना।
कुछ देर बाद हम लोग पास में स्थित रेत के टीलों को देखने गये। उसका किस्सा अलग से। लौटकर फ़िर इंगलैंड-न्यूजीलैंड के बीच का मैच देर रात तक देखते रहे। हमारी सहानुभूति और समर्थन शुरुआत से ही न्यूजीलैंड के साथ रहा। आखिर में जब वह हारा तो हम दुखी होकर सो गये। उठे तो सुबह हो गयी थी।

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Monday, August 26, 2019

दुनिया की सबसे ऊंची सड़क पर



लेह में आने के अगले दिन नुब्रा घाटी के लिये निकलना था। ड्राइवर लखपा ने सुबह जल्दी चलने की बात कही। हमने हां भर ली। लेकिन निकलते हुये देर हो ही गयी। तसल्ली से नाश्ता करते हुये निकले।

जहां हम रुके थे उसके आसपास सेना के कई संस्थान थे। एक यूनिट के बाहर तिरंगा फ़हरा रहा था। सेना की गाड़ियों की आवाजाही हो रही थी। इन सबको देखते हुये हम आगे बढे।
लेह से निकलने कुछ देर बाद तक तो सड़कें सीधी रहीं। इसके बाद बल खाने लगीं। चक्करदार चढाईयां। अगल में पहाड़। बगल में पहाड़। नीचे घाटियां। थोड़ी-थोड़ी दूर पर आबादी। इन सबके ऊपर पूरा खुला आसमान जिसमें सूरज भाई पूरा ’रोशनी कवरेज’ देते हुये साथ में।

रास्ते में कुछ स्कूल दिखे। बच्चे स्कूल के मैदान में खेलते। सभी स्कूल सेना की यूनिटों के सहयोग से चलते हैं। इतनी कठिन परिस्थिति में सेना के सहयोग के बिना सहज जीवन मुश्किल। सेना को भी स्थानीय लोगों का पूरा सहयोग मिलता है।
जैसे-जैसे ऊंचाई बढती गयी , पहाड़ बर्फ़ से ढकते गये। बर्फ़ पहाड़ों के कुछ हिस्सों को ढके हुये उनको सफ़ेद बना रही थी। बर्फ़ का हिस्सा नीचे से गलते हुये पानी में बदलता जा रहा। पानी जहां जगह मिली वहां से नीचे बहता जा रहा था। कहीं पहाड़ के किनारे से, कहीं बीच सड़क से, कहीं दोनों तरह से। बीच सड़क से गुजरते हुये पानी सड़क के हिस्से को भी अपने साथ लेती जा रही थी - ’चल मेरी गुइय़ां’ कहते हुये। जगह-जगह सड़क उखड़ गयी थी।

बर्फ़ को देखने के लिये शायद बादल भी उतावले थे। जगह-जगह उमड़ते हुये बर्फ़ के ऊपर टहल रहे थे। सूरज भाई भी रोशनी की सर्चलाइट मारते हुये सबको चमकाते हुये सब पर निगाह रखे थे।
लेह से करीब 35 किमी दूर और लगभग 2 किमी की ऊंचाई पर जगह का नाम है -खरदुंग-ला । खरदुंग-ला दर्रा की सड़क दुनिया की सबसे ऊंची सड़क है जहां गाड़ियां चलती हैं। दुनिया भर के मोटर साइकिलिस्ट यहां चलना एक उपलब्धि मानते हैं।
खरदुंग-ला में पहाड़ चारो तरफ़ बर्फ़ से ढंके थे। यात्रियों के जत्थे के जत्थे अकेले , परिवार सहित यहां आने की यादें सुरक्षित रखने के लिये तरह-तरह से फ़ोटो खिंचा रहे थे। कोई सेल्फ़ी ले रहा था, कोई ग्रुप फ़ोटो। वहीं पर ’बार्डर रोड आर्गनाइजेशन’ की तरफ़ से यह सूचना देते हुये खम्भा लगा है कि यह सड़क दुनिया की सबसे ऊंची सड़क है। उस खम्भे के पास खड़े होकर फ़ोटो खिंचवाने की लोगों में होड़ लगी थी। जिस तरह विवाह मंडप में दूल्हे-दुल्हन के साथ बराती-जनाती फ़ोटो खिंचाने का इन्तजार करते हैं उसी अदा में लोग बारी-बारी फ़ोटो खिंचा रहे थे। खम्भा एक फ़ोटो खिंचाने वाले अनेक। अलग-अलग मुद्रा में फ़ोटो खिंचाने की ललक में उसी खम्भे के पास इकट्ठा थे।

कुछ लोगों ने तो पहाड़ पर चढकर फ़ोटो खिंचाई। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने बर्फ़ पर लेटकर भी यादें कैमरे में कैद की। सभी जी भरकर इन क्षणों को समेट लेना चाहते थे। पता नहीं फ़िर कभी आना हो या न हो !
खम्भे की तरफ़ जाते हुये कुछ लोग बर्फ़ में फ़िसल गये। कुछ रपट गये फ़िर संभल गये। कुछ हुये धड़ाम भी। अपन ने भी मौका मिलने पर फ़ोटोबाजी की। इस बीच आसपास की बर्फ़ से ढंकी चोटियों के नजारे भी जी भर के देखे। देखने में कोई शुल्क और जीएसटी तो लगी नहीं थी। माले मुफ़्त -दिले बेरहम। सारी चोटियां बार-बार देखीं, कई बार देखीं।

वहीं पर एक चाय की दुकान थी। वहां से चाय पी गयी। इतनी ऊंचाई पर भी चाय के दाम मात्र 40 रुपये। बड़ी कागज की ग्लास में चाय दी चाय वाले ने। दो चाय के साथ तीसरा ग्लास मुफ़्त में। यहां शहर में किसी माल में इतनी चाय डेढ सौ से कम में न दे कोई, ग्लास अलग से देने की तो बात भूल ही जाइये।
उसी जगह सेना के ट्रुक भी चलते दिखे। सभी वाहन निर्माणी जबलपुर के बने। इनमें से कुछ जरूर तब के बने होंगे जब हम वाहन निर्माणी जबलपुर में थे। देखकर बहुत अच्छा लगा। देश भर में जहां भी सेना की कोई भी यूनिट है वहां वाहन निर्माणी जबलपुर के ट्रक हैं।
खरदुंग-ला पर तमाम मोटर साइकिल वाले भी जमा थे। वे लेह से लद्दाख घूमने निकले थे। कोई अकेले , कोई समूह में। कुछ समूहों में लड़कियां भी दिखीं। लगा कि यार जिंदगी और जवानी जो है सो यही है। बाकी तो सब बेफ़ालतू की बाते हैं। वहीं खड़े-खड़े तय किया कि एक यात्रा तो इस इलाके की मोटरसाइकिल से भी करनी है। अब तय करने को तो कर लिया, अब देखिये इस पर अमल कब होता है।
इस बीच पानी भी बरसने लगा। हमारे ड्राइवर ने हमसे आगे चलने के लिये कहा। हम उनकी बात मानकर कुछ देर में आगे चल दिये। आगे की मंजिल नुब्रा घाटी थी।

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