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Tuesday, November 03, 2020

तख्त-ए- हज्जाम और किराये पर साइकिल की दुकान

 


इधर-उधर टहलते हुए स्टेशन की तरफ बढ़ गए। एक शटर बन्द दुकान के बाहर एक हज्जाम अपना सैलून सजा रहे थे। लकड़ी की कुर्सी। कटोरी में पानी। साबुन और दीगर हिसाब। सुबह हो गयी। दुकान सज गयी।
हमारे देखते-देखते एक ग्राहक आकर बैठ गए - तख्त-ए-हज्जाम पर। ग्राहक खुदा का नूर होता है। ग्राहक भगवान होता है। हज्जाम जी ग्राहक को कुर्सी पर बैठाकर साबुन लगाने लगे।
दुकान के सामने फुटपाथ पर सैलून है। दुकान खुलने पर कैसे चलता है ? - हमने पूछा।
दुकान बंद रहती है। खुलती नहीं। एक दुकान बंद होने पर उसके सामने दूसरी दुकान खुल जाती है। दुकानों का सिलसिला चलता रहता है। यह बात हर तरह की दुकान पर लागू होती है -हज्जाम की हो या बजाजे की। धर्म, राजनीति की दूकानों पर भी यह बात लागू होती है। समय के साथ पुरानी दुकान बढ़ जाती है, नई खुल जाती है।
कित्ते पैसे में हजामत बन जाती है? -चलते-चलते बेवकूफी का सवाल पूछ लिया मैंने।
"सब टोले-मोहल्ले के लोग हैं। अपने-अपने हिसाब से दे देते हैं। कोई दस, कोई बीस।" -कुर्सी पर बैठे ग्राहक ने बताया।
आज के समय में भी टोले-मोहल्ले की बात कहने वाले हैं।
आगे गली में एक जगह खूब सारी साइकल इकट्ठा थीं। हमारे देखते-देखते एक आदमी ने एक साइकिल की गद्दी पर हाथ मारकर साइकिल की सुस्ती झाड़ी। नाम और समय लिखाया और उचककर गद्दीनसीन होकर चला गया।
पता चला यह किराए की साइकिल का ठीहा है। 20 रुपये रोज पर किराए की साइकिल मिलती है। महीने की 600 रुपये। हमको कालेज के दिन का किराया याद आया। 30 पैसे घण्टे साइकिल मिलती थी किराये पर। आठ घण्टे के 2रुपये 40 पैसे हुए। 39-40 साल पहले की बात। मतलब साइकिल का किराया लगभग दस गुना बढ़ा है।
अंदर दुकान में तमाम साइकल अपने किराये पर जाने के इंतजार में जमा थीं। गुमसुम सी साइकिलें। मन किया कि सब साइकिलों को एक साइकिल सवार मुहैया करा दें। साइकलें चहकती हुई अपने सवार के साथ टुनटुनाती हुई सड़क पर मस्ती करें। लेकिन मन करने से क्या होता है?
मन की बात को वहीं स्थगित मतलब विर्सजित करके हम अपनी साइकिल स्टार्ट करके चल दिये।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221050986517800

Wednesday, May 24, 2017

फ़ुटपाथ, सड़क के किनारे आम आदमी के रैन बसेरे हैं






आज सबेरे सूरज भाई राजा बेटा की तरह आसमान पर बिराजे हुये थे। साहब लोगों के राउंड के समय स्टॉफ़ मुंडी फ़ाइल में घुसा देते हैं। उसी तरह एकदम अनुशासित ओढ लिया सूरज भाई ने। थोड़ी शराफ़त भी पोत ली।
बाहर निकले। हैंडल दायीं तरफ़ घुमाया आज। घुमाया क्या घूम गया अपने आप। आजकल दांये घूमने में ही बरक्कत है। बायीं तरफ़ रहने में बवाल है। कोई जरूरी नहीं कल को सड़क पर भी दायें चलने का आदेश आ लागू हो जाये।
घर के पास की दरगाह पर एक मोटरसाइकिल रुकी। एक आदमी डाउनलोड हुआ। खरामा-खरामा चलते हुये दरगाह में बिना ’मे आई कम इन सर’ बोले घुस गया। गेट पर बैठे भिखारी उसको अन्दर जाते हुये देखता रहा। इसके बाद सड़क ताकने लगा।
मोड़ के आगे एक महिला तेज-तेज चलती हुई आती दिखी। उसको सड़क पर मन्दिर दिखा। चप्पल नाली के किनारे उतारकर उसने वहीं से काली माता को प्रणाम किया। फ़िर चप्पल पहनकर चल दी।
सड़क के दोनों तरफ़ रिक्शेवाले, टेम्पोवाले अपने-अपने वाहनों पर सोते दिखे। जो कोई गद्दी को सिरहाना बनाये तो कोई पिछली सीट पर गुड़ी-मुड़ी होकर। एक आदमी बैटरी रिक्शे की छत को चरपैया बनाये सो रहा था। जगह-जगह चाय-बिस्कुट की दुकाने खुली हुई थीं। जग गये लोग वहां बैठे चाय पी रहे थे। नये दिन को गुडमार्निंग कर रहे थे।
कुछ बच्चियां जल्दी-जल्दी बतियाते हुये सड़क पर चली जा रही थीं। लगता है घर से बाहर बतियाने के निकली हैं। घर पहुंचने से पहले अपनी सब बातें कर लेना चाहती हों।
चौराहे से आगे घंटाघर की तरफ़ बढे। एक जगह सड़क के किनारे तमाम सीवर लाइनें रखी हुईं थी। कुछ लोग उन सीवर लाइनों के सिंहासन पर बैठे थे। पास ही कुर्सी पर ’गुम्मा (कुर्सी) हेयर कटिंग सैलून’ पर लोग हजामत बनवा रहे थे। फ़ोटो खैंचने पर बुजुर्गवार के साथ वाले ने कहा:
-अखबार में फ़ोटो देखेंगे तब योगीजी इनको बुलायेंगे।
मसालामुखी बुजुर्गवार मुस्कराते हुये सुनते रहे। बोलते तो मसाला निकलजाता। पास ही थोड़ा ऊपर बरामदे में लोग सोये हुये थे। हमने पूछा -’ये रैन बसेरा है क्या’?
’अरे ये रैनबसेरा नहीं है। ये सब चोरकट हैं।’- साथ वाले ने कहा। ऊपर खड़े लोगों ने सुनते हुये भी इसको अनसुना किया। बुरा नहीं माना।
आगे एक ट्रक से कोम्हड़ा उतर रहा था। पास ही एक दुकान पर खुले में रखे पेठे से चिपकी हुई तमाम मक्खियां भिनभिनाती हुई गुडमार्निंग कर रहीं थी।
घंटाघर चौराहा एकदम्म गुलजार था। एक चाय की दुकान के सामने बुजुर्गवार अखबार बेंच-बांच रहे थे। चाय की दुकान वाले ने बताया कि दुकाने 1932 की हैं। वह वहां 1995 से दुकान चला रहा है। बगल वाला भटूरे बनाते हुये कमेंट्री करता रहा:
’जब चुनाव होते हैं। कोई दौरा होता है तब दुकानें बन्द कर दी जाती हैं। सरकार की जो मर्जी आये करे। सब कुछ तो सरकार ही करती है न। सड़क बनती है तो घर गिरा दिया जाता है कि नहीं। आप क्या करोगे- ’हल्ला मचाओगे, कोर्ट-कचहरी करोगे। सालों लडोगे तो पांच हजार मुआवजा थमा दिया जाता है कि नहीं। वही हाल यहां का भी है।’
चाय की दुकान वाले से मजे लेते हुये बोला-’ इनकी बीबी पुलिस में है। उसकी ड्रेस बनवानी पड़ती है इनकों। न बनवायें तो डंडा खायें। डंडे में बहुत ताकत होती है।’
प्लास्टिक के ग्लास में छह रुपये की चाय कुल्हड़ में पीने पर 12 रुपये की पड़ी।
लौटते में एक जगह ताजी सब्जी दिखी। खरीद लिये। 15 रुपये किलो तरोई। 20 रुपये किलो पालक। 20 रुपये किलो चुकन्दर। तय किया कि अब घर से निकलेंगे तो झोला लेकर।
लौटते हुये जगह-जगह लोग सोते-ऊंघते-जगे-अधजगे दिखे। सामुदायिक शौचालय, सामूहिक स्नानागार भी। मंदिरों के सामने की सड़क पर मांगने वाले ऐसे बैठे थे जैसे घर के आंगन में बैठे हों। एक बच्चा-बैल चेहरे और सींग पर गेंदे की बासी मालायें धारण करे अपने मालिक को मांगने में सहायता करता दिखा।
सागर मार्केट के पास एक मोबाइल रिपेयर की दुकान पर एक आदमी सोता हुआ दिखा। सुबह होने पर दुकान खुल जायेगी। भीड़ बढ जायेगी। बाजार गुलजार हो जायेगा।
काउंटर पर लिखा था -’फ़ोटोकापी डाउनलोडिंग होती है।’ हमको लगा कि हम समाज के समाज-आदमी के पतन से बेकार-बेफ़ालतू हलकान हैं। हमको समझना चाहिये कि समाज-आदमी पतित नहीं हो रहा है। वास्तव में वह डाउनलोड हो रहा है। तकनीक का समाज के विकास में उपयोग किया जाना चाहिये। आदमी को पतित नहीं डाउनलोड होता बताया जाना चाहिये। पतन से लगता है कुछ गड़बड़ हो रहा है। डाउनलोड होने से उन्नति का एहसास होता है। एक बार फ़िर लगा कि तकनीक के सहारे विकास कितना आसान काम है।
फ़ूलबाग के सामने सड़क पर तमाम पैकेट का दूघ बेचने वाले दिखे। कुछ महिलायें भी थीं। आगे ओईएफ़ के पास सड़क किनारे रैनबसेरा बना था। वहां कोई आदमी बसेरा करता नहीं दिखा। सच तो यह है कि फ़ुटपाथ, सड़क के किनारे आम आदमी के रैन बसेरे हैं। दुकानों के बाहर सोते हुये लोग दुकानों के मुफ़्तिया चौकीदार हैं। शायद इन्हीं से शहर गुलजार है।
घर लौटकर आये तो सोचा शायद सुबह-सुबह सब्जी लाने पर शाबासी मिलेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उल्टे पालक लाने पर उलाहना मिला-’ पालक घर में पहले ही बहुत है। बेकार ले आये।’ हम यही सोचकर चुप हो गये कि दुनिया में भलाई का जमाना नहीं।
सामने बगीचे में बन्दर चिंचियाते हुये, किकियाते हुये जो पेड़-पौधा हाथ लगा उसको नोचते-उखाड़ते हुये अपनी सुबह गुलजार कर रहे हैं। भगाने पर थोड़ा दूर जाने पर वापस घुड़कते हैं। फ़िर भी ये सब किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं से कम अराजक हैं। आदमी के मुकाबले बन्दर बहुत कम डाउनलोडित हुये हैं।
सुबह हो गयी। अब चला जाये दफ़्तर ! आप मजे कीजिये और कुछ धरा नहीं है दुनिया में।
शब्द संख्या -925

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Tuesday, January 17, 2012

घर से बाहर जाता आदमी

http://web.archive.org/web/20140419155812/http://hindini.com/fursatiya/archives/2557

घर से बाहर जाता आदमी

घर से बाहर जाता आदमी
घर लौटने के बारे में सोचता है।

घर से निकलते समय
याद आते हैं तमाम अधूरे छूटे काम
सोचता है एकाध दिन और मिलता
तो पूरा कर लेता ये भी और वो भी।

तमाम योजनायें बनाता है मन में
सब कुछ एक आदर्श योजना जैसी बातें।

घर से बाहर जाता आदमी
सोचता है बच्चे को नियमित पढ़ने को कहेगा
रोज पूछेगा क्या किया बेटा आज दिन में
क्या पढ़ा क्या लिखा!
वो सोचता है बाहर रहकर फ़िर से
पढाई करेगा ताकि बच्चे को
पढ़ा सके जब कभी वापस घर जाये।

घर से बाहर जाता आदमी
तमाम ऐसे-ऐसे काम करने की सोचता है
जो घर में रहते हुये कभी सोचे ही नहीं उसने।

बहुत भला सा आदमी हो जाता है
घर से बाहर जाता आदमी!

घर से निकलता आदमी
देखता है
बच्चे का अचानक समझदार हो जाना
उसका जिद छोड़कर फ़ौरन सहमत हो जाना
कुछ ही क्षणों में उसका अचानक बड़ा हो जाना।

घर से बाहर निकलता आदमी
एस.एम.एस. करता है पत्नी को-
किसी बात की चिंता मत करना
हमेशा मुस्कराती रहना!

बच्चे को लिखता है-
मम्मी को तंग मत करना
उनका ख्याल रखना!

घर से बाहर निकलता आदमी
सोचता है मन में
पत्नी को रोज एक खत लिखेगा
जिसमें होगा दिन भर का सारा मोटा महीन हिसाब
किससे मिला, क्या किया और किससे बातें की।

और वो सब तमाम बातें
जो साथ रहने पर स्थगित होती रहीं
यह सोचते हुये कि
साथ ही तो हैं
कभी कर लेंगे तफ़सील से।

घर से बाहर जाता आदमी
घरवालों की
वो सब शिकायतें दूर करने की सोचता है
जिनको घर में रहते हुये
कभी शिकायत समझा ही नहीं उसने।

सोचता है कि बाहर रहने के दौरान
मां की तबियत पूछेगा
दिन में कम से कम एक बार।

समय से पहले भेज देगा दवाईयां
जो हफ़्तों लाना टालता रहा
साथ रहते हुये।

सोचता है कि
दोस्तों को फ़ोन करेगा
बतायेगा नयी जगह के बारे में
और यह भी उनकी याद आती है अक्सर।

घर से बाहर जाता आदमी
घर लौटने के बारे में सोचता है।
इस कविता को सुनने के लिये नीचे क्लिकियाइये:
समय: 2.58 मिनट
रिकार्ड किया: 27.10.13
रिकार्ड सटाया:27.10.13
शहर: जबलपुर
आवाज: अनूप शुक्ल

54 responses to “घर से बाहर जाता आदमी”

  1. सतीश चन्द्र सत्यार्थी
    कविता अच्छी है..
    सुनने में पढ़ने से ज्यादा आनंद आया..
    सतीश चन्द्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल कैसे दिखें
  2. arvind mishra
    चलिए गनीमत यही कि तरन्नुम में नहीं है :-)
    arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..चिनहट का चना सचमुच लोहे का चना बन गया था :-) (सेवा संस्मरण -8)
  3. पेड़ों से विदा होती पत्तियां