हमारे पहुँचने तक कुछ लोग ही वहाँ थे। इसके बाद लोग
आहिस्ते-आहिस्ते आए।आते गए। साढ़े तीन बजे तक हाल लगभग पूरा भर गया। कार्यक्रम शुरू हुआ।
कार्यक्रम की शुरुआत में अनीता मिश्रा ने कार्यक्रम से परिचय कराने का काम किया।
अपनी बात शुरू करते हुए अनीता जी ने आदतन, लोगों के मिलने-जुलने के कम होते चलन का ज़िक्र करते हुए , मज़े लिए कि पुराने समय लोग दोस्तों पर मुक़दमे कर दिया करते थे ताकि मुक़दमे की तारीख़ों पर मुलाक़ात होती रहे।
इसके बाद उन्होंने गिरिराज किशोर जी की स्मृति में हुई पहले की व्याख्यानमालाओं के बारे में जानकारी दी।
कानपुर के प्रख्यात कथाकर स्व. गिरिराज किशोर जी की स्मृति में व्याख्यानमाला की शुरुआत 2021 में हुई। पहली व्याख्यानमाला का विषय था –‘अहिंसा और प्रतिपक्ष।‘ 2022 में सम्पन्न व्याख्यानमाला-2 में ‘साहित्य और सिनेमा’ पर बात हुई। 2023 में हुई व्याख्यानमाला-3 में 'लिफ़ाफ़े में कुछ रोशनी भेज दे' विषय के अंतर्गत ' अदबी खतूत पर बातचीत' हुई।
पहली तीनों व्याख्यानमालाएँ मर्चेंट चेम्बर हाउस के सभागार में हुईं। उसमें श्रोताओं की भीड़ से हाल भर जाता। बैठने में असुविधा होती। इसलिए इस बार सभा का आयोजन हरिहरनाथ शास्त्री सभागार में किया गया। कानपुर में टेस्ट मैच होने के चलते ऐसा अनुमान था कि शायद कुछ कम लोग आएं लेकिन हाल पूरा भरा था। बारिश वजह से कल के मैच का निरस्त हो जाना भी कारण रहा होगा।
कार्यक्रम के संचालन के लिए मंच वीएसएसडी कालेज के प्राध्यापक डा आनंद शुक्ल को सौपने के पहले अनीता मिश्रा ने इफ़्तिख़ार आरिफ़ का यह शेर सुनाकर लोगों के मोबाइल बंद करा दिए:
“उमीद-ओ-बाम(आशा-निराशा) के मेहबर (आपाधापी) से हट के देखते हैं,
ज़रा सी देर को दुनिया से कट के देखते हैं।“
मतलब जहां हो वहीं के होकर रहो। इधर-उधर से नाता तोड़ दिया जाए फ़िलहाल।
बातचीत के संचालन की शुरुआत करते हुए डा आनंद शुक्ल ने पिछले 100 वर्षों की उल्लेखनीय घटनाओं का ज़िक्र करते हुए कहा –‘बीसवीं सदी दो महायुद्धों की गवाह है। शमशेर की कविता –‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ के शीर्षक की तरह अनेक घटनाओं ने पिछले 100 वर्षों की प्रगति शीलताओं के निर्माण में अपनी भूमिका अदा की है। इसके निर्माण में रूसी क्रांति, गांधी का आगमन, असहयोग आंदोलन, ख़िलाफ़त आंदोलन जैसी घटनाओं की लम्बी श्रंखला है। प्रगति शील आंदोलन भी इस प्रगति शील चेतना का अहम हिस्सा है।‘
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विषय प्रवर्तन करते हुए प्रियंवद जी |
विषय प्रवर्तन करते हुए वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद जी ने प्रगति शीलता का मतलब साफ़ करते हुए कहा –
‘प्रगति शीलता का मतलब पुनर्जागरण, नवजागरण या रिनेशाँ नही है। नवजागरण या पुनर्जागरण का मतलब तो उस चेतना को फिर से पा लेना हुआ जो कभी हमारे पास थी। बीच में खो गयी और हमने उसे फिर से पा लिया हो। यह प्रगति शीलता नही है।
100 वर्षों की प्रगति शीलताओं से मतलब यह होगा कि पिछले सौ वर्षों में हमने नया कुछ ऐसा पाया जो मनुष्य से मनुष्य को जोड़ता है। समाज को बेहतर बनाता है।‘
प्रियंवद जी ने कहा –‘ 100 वर्षों की प्रगति शीलताओं पर चर्चा अपने में बहुत व्यापक है। मैं हिंदू समाज और मुस्लिम समाज की प्रगति शीलताओं पर चर्चा करूँगा। देश के सामने आज यह बहुत बड़ा मुद्दा है। हमें इस पर बात करनी चाहिए।‘
प्रगति शील चेतना के प्रस्थान बिंदु की पड़ताल करते हुए उन्होंने कहा –‘कोई भी चेतना एकाएक प्रस्फुटित नही होती। इसकी एक प्रक्रिया होती है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को प्रगति शील चेतना का समय माना जाता है। लेकिन मेरी समझ में ऐसा नही था।
इसके और सौ साल पीछे जाएँ तो देखते हैं क़ि ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक ‘लफ़ंगा क्लर्क’ क्लाइव देश पर एक क़ब्ज़ा कर लेता है। देश में राजे-रजवाड़े आपस में अपने-अपने हितों के लिए लड़ रहे थे। यह प्रगति शील चेतना के लक्षण नही थे।'
1857 के संग्राम के बाद दो काम हुए:
पहला –‘मुग़ल शासन का अंत हुआ। विक्टोरिया शासन की शुरुआत हुई।‘
दूसरा-‘ हिंदू और मुसलमान की अलग-अलग धाराएँ बनी।‘
मुस्लिम समाज के प्रमुख प्रगति शील व्यक्तित्वों की चर्चा करते हुए प्रियंवद जी ने कहा –‘ मुस्लिम समाज में सर सैयद अहमद खां, अल्लामा इक़बाल और शुरू के मोहम्मद अली जिन्ना प्रमुख व्यक्ति थे। तीनों में प्रगति शील चेतना थी। लेकिन अफ़सोस कि बाद में तीनों एक घोर अप्रगति शील विचार वाले देश की स्थापना की ज़मीन तैयार करने के कारक बने ।
इक़बाल शुरुआत में कम्युनिस्ट थे। उनकी नज़्में हैं जो ग़रीबों के हिमायत की बात करती हैं। एक नज़्म में वे कहते हैं –‘ऐसे खेत जला दो जो ग़रीबों को रोटी न दे सके।‘ यही इक़बाल आगे चलकर एक इस्लामी राष्ट्र बनाने में सहायक हुए जो अपने में एक घोर अप्रगति शील बात थी।
जिन्ना शुरुआत में राष्ट्रवादी थे। बाद में उन्होंने एक मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना में प्रमुख भूमिका अदा की।
हिंदू समाज के प्रगति शील लोगों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा –‘सावरकर शुरू में अंग्रेज विरोधी थे। राष्ट्रवादी थे। बाद में मुस्लिम विरोधी हो गए।‘
देश में हुए विभिन्न आंदोलनों की वि संगतियो की चर्चा के क्रम में प्रियंवद जी ने ख़िलाफ़त आंदोलन की चर्चा की। उनके अनुसार –‘ 1921 में हिंदुस्तान में हुए ख़िलाफ़त आंदोलन की पहली माँग तुर्की में ख़लीफ़ा राज की बहाली के लिए थी जबकि उसी समय में तुर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में ख़लीफ़ा का राज ख़त्म हो गया था ।
कमाल पाशा ने तुर्की में अपने समाज को सब तरह के बंधनो से आज़ाद कराने के कदम उठाए। पर्दा खतम कर दिया।
गांधी जी ने अपने हिसाब से धर्म को राजनीति से जोड़ा। यह एक ग़लत कदम था।‘
अपनी बात के बीच में प्रियंवद जी ने मुस्लिम समाज के प्रगति शील व्यक्तित्व हमीद दलवई (1932- 1977) का ज़िक्र किया। उन्होंने मुस्लिम समाज में सुधार के तमाम प्रयास किए। 1966 में उन्होंने मुस्लिम समाज में तीन तलाक़ ख़त्म करने और सामान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही। अनेक बुनियादी सवालों को उठाया। दुर्भाग्य यह रहा कि 1977 में 45 साल की उमर में चल बसे।
प्रियंवद जी के विषय प्रवर्तन के बाद पहले वक्ता सलिल मिश्र जी को बुलाने के पहले संचालक आनंद शुक्ल ने जानकारी दी कि प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि के प्रकाशन के सौ वर्ष हो गए हैं। इस उपन्यास के प्रमुख पात्र सूरदास के माध्यम से भारतीय समाज की अंतर्निहित चेतना की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा –‘सूरदास की झोपड़ी जला दी गयी। बच्चा मिठुआ पूछता है –‘दादा अब क्या करोगे? सूरदास कहता है –‘फिर बनाएँगे।‘ वह फिर पूछता है –‘उसके बाद भी जलाई जाएगी तब क्या करोगे? वह कहता है ‘फिर बनाएँगे।‘ आख़िर में सूरदास कहता है –‘हज़ार बार जलाई जाएगी, हज़ार बार बनाएँगे।‘
यह भारतीय समाज की अंतर्निहित चेतना है।
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अपनी बात कहते हुए सलिल मिश्र जी |
सलिल मिश्र जी ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और साम्प्रदायिक राजनीति पर किताबें लिखी हैं। हिस्ट्री आफ इमोशन , इमोशन्स इन पालिटिक्स एंड पालिटिक्स आफ इमोशन्स , साझा अतीत खंडित वर्तमान जैसी विषयों पर उनका काम है। उन्होंने प्रगति शीलता के इतिहास, वर्तमान दुविधा और भविष्य पर अपने विचार रखे।
सलिल मिश्र जी ने प्रगति शीलता के इतिहास पर चर्चा करते हुए कहा:
'प्रगति शीलता हमारा वर्तमान नही है। यह हमारी इच्छा है। एक यूटोपिया है कि हम वहाँ तक पहुँचे।
प्रगति शील विचार एक संकट से गुजर रहा है। यह कोई नई बात नही है। यह संकट हमेशा रहा है।
संकट यह नही है कि इसको जनता का व्यापक समर्थन नही है। प्रगति शील विचारों के समर्थक हमेशा अल्पसंख्यक रहे हैं।
आज का संकट यह है कि लोगों में प्रगति शील विचारों के प्रति आस्था में कमी आई है। कुछ लोग यह सोचने लगे हैं कि इस पतन के लिए कहीं ये विचार ही तो ज़िम्मेदार नही?
प्रगति शील विचारों की पड़ताल प्रगति शील लोग ही करते हैं। हमको इन विचारों को बेहतर तरीक़े से समझने के लिए बाहर से देखना होगा।
ह्यूमन इमेजिनेशन की सीमाओं को लांघ पाना आसान नही है। ह्यूमन इमेजिनेशन का सारा विस्तार और सीमाएँ तत्कालीन सामाजिक स्थितियों पर निर्भर करता है।
प्रगति शीलता अपने मूल विचार का विरोध भी करती है। फ़्रांस की क्रांति के कई तत्वों को रूस की क्रांति ने ख़ारिज कर दिया गया था ।
ईसाई धर्म की धारणा है कि दुनिया के ख़त्म होने पर नई दुनिया बनेगी। यह पहले की दुनिया से बेहतर होगी।
मार्क्स का कहना था –‘दार्शनिकों ने दुनिया को समझा है। ज़रूरत तो इसे बदलने की है।‘
रूस का मार्क्सवाद और के यूरोप के मार्क्सवाद में अलगाव था। रूस के मार्क्सवाद का यूटोपिया ख़त्म हो जाने के बाद वहाँ नयापन ख़त्म हुआ और ऊर्जा में कमी आई।
यूरोप के देश साम्राज्यवादी थे। उसी तरह के उनके विचार थे। वहाँ का मार्क्सवाद भी वहाँ की स्थितियों में फँस के रह गया।
भारत में सनातनी सोच के गांधी की दृष्टि बहुत कुछ मार्क्स के करीब थी।'
प्रगति शीलता की वर्तमान समय दुविधाओं की चर्चा करते हुए सलिल मिश्र जी ने कहा :
'दुविधाएँ नियति हैं। ये परिस्थितियों में ही निहित होती हैं।
किसी भी समाज का बहुत छोटा हिस्सा प्रगति शील होता है। वह समाज के बड़े हिस्से की प्रगति के लिए प्रयास करता है।
किसी भी समाज की प्रगति शीलता के लिए धर्म, परम्परा और सामाजिक ताने-बाने से लड़ना होता है। यह सब समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करते हैं।
प्रगति शीलता के सामने चुनौती (भविष्य) पर बात करते हुए सलिल मिश्र जी ने अकादमिक अन्दाज़ में अपनी बात कहते हुए कहा :
मुझे लगता है आज प्रगति शीलता के सामने सबसे बड़ी चुनौती रूढ़िवाद की है। पुनरुत्थानवाद की है। संकीर्णता की है।
रूढ़िवाद और दक्षिण पंथ का नज़दीकी रिश्ता है।
हर दकियानूस दक्षिण पंथी होता है लेकिन हर ज़रूरी नही कि हर दक्षिण पंथी दकियानूस हो।
परम्पराओं से जितना बड़ा ब्रेक यूरोप में हुआ उतना भारत में नही हुआ।
पिछले दस वर्षों में भारत में रूढ़िवाद और दक्षिण पंथ में सम्बंध कमज़ोर हुआ है।
रूढ़िवाद मानता है कि मानव जीवन की सीमाएँ होती हैं। इनको पहचानना, मानना और उनका अतिक्रमण न करना रूढ़िवाद का उद्धेश्य होता है।
आज दक्षिण पंथ ट्रांसफ़ारमेटिव हो गया है। यह स्थिति प्रगति शीलता के लिए एक चुनौती भी है इसमें एक अवसर भी है।
रूढ़िवाद और दक्षिण पंथ की चुनौती पर अकादमिक चर्चा आज के दक्षिण पंथ के चर्चित जुमले –‘आपदा में अवसर पर’ पर ख़त्म हुई। कैसे इसका मुक़ाबला किया जाना है यह बात श्रोताओं के विवेक पर छोड़कर सलिल मिश्र जी ने अपनी बात ख़त्म की।
अगले वक्ता के रूप में गौहर रजा जी को बुलाते हुए संचालक जी ने जानकारी दी कि वे अपनी गम्भीर बीमारी के बावजूद कार्यक्रम में आए हैं। डा आनंद शुक्ल ने रजा साहब की प्रसिद्द नज़्म ‘सच ज़िंदा है’ के अंश सुनाकर उनको अपनी बात कहने के लिए आमंत्रित किया :
जब सब ये कहें, ख़ामोश रहो
जब सब ये कहें, कुछ भी ना कहो
तब समझो कहना लज़िम है
मैं ज़िंदा हूँ, सच ज़िंदा है,
अल्फ़ाज़ अभी तक ज़िंदा हैं
(पूरी नज़्म
यहाँ सुन सकते हैं)
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अपना वक्तव्य देते हुए गौहर रजा साहब |
गौहर रजा साहब ने अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहा-‘ किसी भी समाज में प्रगति शीलता के लिए सबसे ज़रूरी तत्व बराबरी की भावना है। हमारा समाज धर्म, जाति, भाषा, खान-पान, रहन-सहन आदि के लिहाज़ से एक बंटा हुआ समाज था। इंसान, इंसान बराबर नही हो सकता। सबको बराबर अधिकार नही थे।जाति के आधार पर छुआछूत, ग़ैरबराबरी हमारा उपलब्ध सामाजिक ढाँचा था। मंत्र सुन लेने भर पर कानों में पिघला शीशा डाल देने की सोच हमारे समाज के एक बड़े हिस्से का आदर्श था। कहीं बराबरी का भाव नही था।
हमारे समाज में बराबरी के विचार बाहर से आए। हमारे यहाँ एक तरफ़ तो विदेशी दासता से मुक्ति के लिए स्वतंत्रता आंदोलन है दूसरी तरफ़ समाज के मूल्यों का संघर्ष है।
हमको यह याद रखना चाहिए कि अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संघर्ष नस्लवाद से संघर्ष नही था । गोरी चमड़ी से संघर्ष नही था । यह एक विदेशी ताक़त से संघर्ष था ।
प्रगति शीलता के लिए आवश्यक वैज्ञानिक चेतना हमारे यहाँ विज्ञान से नही बल्कि लेखकों,शायरों से मिली। प्रेमचंद, साहिर, कृष्णचंदर, मंटो आदि अनेक लेखकों/कवियों से मिली। प्रगति शील लेखक संघ के लोगों का वैज्ञानिक चेतना के प्रसार में बहुत बड़ा योगदान है।
गांधी को अहिंसा का रास्ता अपनाने के लिए सीख 1857 के संग्राम की विफलता से मिली। उनको अन्दाज़ हो गया था कि हम हिंसा से उनका मुक़ाबला नही कर सकते। ऐसे लोगों से मुक़ाबले की ताक़त आपस में बराबरी की भावना से ही मिल सकती है। बिना सबको साथ लिए लड़ाई सम्भव नहीं।
वैज्ञानिक चेतना और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष साथ-साथ चलते हैं।
आर एस एस का प्रोपेगंडा है कि जहां-जहां मुस्लिम समाज है वहाँ-वहाँ लोकतंत्र विफल हुआ। सचाई है कि म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल में लोकतंत्र विफल हुआ जबकि वहाँ मुस्लिम समाज नही है। आज इस ग़लत प्रचार से मुक़ाबला करना हमारी बड़ी चुनौती है।
प्रगति शील चेतना के लिए वैज्ञानिक चेतना ज़रूरी है। जब 1956 में जब ‘वैज्ञानिक चेतना’ संविधान में जोड़ा गया था तो नेहरू सरकार पर दो आपत्तियाँ लगाई गयीं थी:
1. आपकी सरकार ने यह काम पहले क्यों नही किया गया था?
2. उस समय कुम्भ मेले में कुछ रूढ़ि वादी अफ़वाहें फैलाई जा रही थीं। यह चर्चा हुई कि यदि संविधान में ‘वैज्ञानिक चेतना’ पहले जुड़ा होता तो शायद यह स्थिति नही बनती।
सोवियत यूनियन के ख़त्म होने के कारण प्रगति शील तबके के विश्वास में कमी आई है। आज धर्म के हिंसक तत्व को बढ़ावा मिला है।
किसी भी समाज में शीर्ष व्यक्ति की सोच और आचरण का प्रभाव उस समाज के लोगों पर पड़ता है। लोग उसके आचरण और व्यवहार से प्रेरणा ग्रहण करके या नक़ल करके उसके अनुसार आचरण का प्रयास करते हैं। नेहरू ने वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की आवश्यकता समझी और उसके लिए कोशिश की। आज स्थिति ऐसी है कि :
-हमारे प्रधानमंत्री डाक्टरों के बीच हमारे पुराने समय में प्लास्टिक सर्जरी की बात करते हैं। यह ताज्जुब की बात है। लेकिन डर लगता है जब डाक्टर लोग उनकी इस बात पर ताली बजाते हैं।
-डर लगता है जब वे नाले की गैस से चाय बनाने की बात करते हैं और लोग ताली बजाते हैं।
-एक जज कहता है कि मोर के आँसुओ से प्रजनन होता है।
ज़िम्मेदार माने जाने पदों पर बैठे लोगों द्वारा इस तरह की बातें लोगों की वैज्ञानिक चेतना पर हमला है। लोगों को अवैज्ञानिक बातें करने के लिए उकसाती हैं। ऐसी बातें आम लोगों को अवैज्ञानिक बातें करने के लिए उकसाती हैं। इनसे समाज प्रतिगामी मूल्य ग्रहण करता है।
आज हम लोग बाबाओं के दौर में आ गए हैं। राजनीति की शुरुआत बाबाओं के आशीर्वाद होती है। यह प्रवृत्ति वैज्ञानिक चेतना के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है।
वैज्ञानिक चेतना से अलगाव के लिए आज शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिगामी काम हो रहे हैं। हाईस्कूल से डार्विन के विकासवाद के बारे में लेख हटा दिया, पीरियाडिक टेबल हटा दी। इसके पीछे शायद सोच यह स्थापित करना हो कि हमारा विकास बंदर से नही हुआ, हम पाँच तत्वों से बने हैं इसके अलावा और तत्वों वाली टेबल की क्या ज़रूरत?
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कार्यक्रम का आनंद लेते हुए सुधी श्रोता |
गौहर रजा साहब ने आगे कहा :
‘ ज़रूरी नही कि सभी धार्मिक लोग अवैज्ञानिक सोच से ग्रस्त हों। पश्चिम के तमाम वैज्ञानिक धार्मिक थे लेकिन उन्होंने अपनी बात कही । धार्मिक रहते हुए भी अवैज्ञानिक स्थापनाओं का विरोध किया। धार्मिक रहते हुए भी वैज्ञानिक चेतना का प्रसार किया।
ग़ैर हिंसक धार्मिक ताक़तों और हिंसक ताक़तों का तकनीक से कोई झगड़ा नही है। ये जो ताक़तें अपने मकसद में सफल होने के लिए धर्म का इस्तेमाल करती हैं उनसे मुक़ाबला करने के लिए धर्म से मुक़ाबला ज़रूरी है।‘
आख़िर में अपनी बात ख़त्म करते हुए गौहर रजा साहब ने आह्वान करते हुए कहा:
‘अपने काम में वैज्ञानिक चेतना लाने की कोशिश नही की तो बड़ा नुक़सान होगा।‘
अपनी बात ख़त्म करने के बाद गौहर रजा जी ने लोगों की फ़रमाइश पर अपनी एक कविता ‘
यह मेरा देश है’ सुनाई। कविता सुनाते हुए गौहर रजा जी कहीं अटके भी लेकिन उनके वाचन से कविता के भाव साफ़ सम्प्रेषित हो रहे थे। कविता
यहाँ क्लिक करके सुन सकते हैं ।
वक्ताओं के तक़रीर के बाद श्रोताओं ने सवाल किए। वक्ताओं ने उनके जबाब भी दिए।
एक श्रोता ने कहा –‘प्रगति शीलता की चर्चा करते हुए किसी वक्ता ने बाबा साहब का ज़िक्र नही किया। जबकि उन्होंने मनुस्मृति जैसी प्रतिगामी किताब का विरोध किया और अनेक प्रगति शील विचार रखे।‘
गौहर रजा जी ने इस बात का जबाब देते हुए कहा-‘ बाबा साहब का देश की प्रगति शीलता में बहुत बड़ा योगदान है। उनका नाम लेने से रह गया। नाम और भी कई छूट गए। हमारी बात को भावना के रूप में ग्रहण किया जाए।
एक सवाल पूछते हुए बात रखी गयी –‘पिछली सदी के केवल दो महायुद्धों की चर्चा जबकि तथाकथित कोल्ड वार के समय में छोटे-छोटे देशों के बीच लगभग 200 युद्ध हुए।‘
इस बात को सही बताते हुए सलिल मिश्र जी ने आगे कहा –‘1857 में अपने यहाँ नेशन की कोई अवधारणा नही थी। उस समय हुए संग्राम को हमारे देश के ही लोगों ने दबाया। दक्षिणपंथ आज हाइपर एक्टिव है। आज प्रगति शीलता को दक्षिण पंथ से बड़ा ख़तरा है।
दक्षिण पंथ को एक स्पेक्ट्रम के रूप में देखा जाना चाहिए । इसके एक सिरे पर यथास्थितिवाद और दूसरे सिरे पर तानाशाही है। यह धर्म का अपने हिसाब से इस्तेमाल करता है।
प्रियमन जी ने शिकायती अन्दाज़ में कहा –‘ प्रियंवद जी ने जो विषय प्रवर्तन किया उसके हिसाब से वक्ताओं ने अपनी बात नही रखी। किसी ने इस बात पर चर्चा नही की कि पिछले सौ साल में प्रगति शील चेतना रही की नही?
इस पर गौहर रजा जी ने कहा –‘हमारे वक्तव्य में हमने लेखकों, कवियों और प्रगति शील संगठन द्वारा प्रगति शील चेतना के प्रसार में किए काम का उल्लेख करते हुए बताया –‘कम्युनिस्ट लोग समाज में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के प्रति आरआरएस की प्रतिगामी सोच के प्रसार के मुक़ाबले ज़्यादा प्रतिबद्ध और सक्रिय थे।‘
श्रोताओं में मौजूद मोहम्मद ख़ालिद ने पूछा –‘मैं ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों का ठेकेदार हूँ। विचारों से नास्तिक हूँ। मैं अपने मज़दूरों के बीच वैज्ञानिक चेतना का कैसे प्रसार कर सकता हूँ?’
उनकी बात का जबाब देते हुए गौहर रजा जी ने कहा-‘ आम तौर पर हम लोग कम पढ़े लिखे लोगों को वैज्ञानिक चेतना से लैस नही मानते। जबकि ऐसा होता नही है। कोई भी व्यक्ति वैज्ञानिक चेतना से शून्य नही होता। आम लोग जो स्कूल नही जाते वे भी वैज्ञानिक चेतना से लैस होते हैं। जबकि बहुत पढ़े-लिखे लोग भी बहुत कम वैज्ञानिक चेतना से युक्त हो सकते हैं।
एक सवाल पूछा गया –‘क्या प्रगति शील विचार बाहर से आया?’
इसका जवाब देते हुए गौहर रजा साहब ने कहा-‘ कुछ भी बाहर से या अंदर से नही आता। तमाम विचार सार्वभौमिक होते हैं। अलग-अलग तरह के विचार फ़ीडर की तर्ज़ पर काम करते हैं। एक समाज के सभी सवाल दूसरे समाज पर जस के तस लागूँ नही किए जा सकते। विचारों की दुनिया बहुत जटिल होती है। हमको अपने समाज के प्रति जागरूक रहते हुए देखना है कि कैसे हम अपने समाज को प्रगति शील बनाएँ।
सवाल - जबाब का सिलसिला और भी चलता लेकिन समय काफ़ी हो चुका था इसलिये बातचीत को विराम दिया डा आनंद शुक्ल ने प्रसिद्ध पोलिस कवियत्री विस्लावा सिम्बोसर्का की कविता पढ़कर जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:
हमारी बीसवीं सदी को दूसरी से बेहतर होना था
लेकिन ऐसा नही हुआ
झूठ से पहले सच को पहुँच जाना चाहिए था
लेकिन ऐसा नही हुआ
उम्मीद पहली सी चुलबुली लड़की नही रही
सबसे भोले सवाल हैं,सबसे ज़रूरी सवाल।
(पूरी कविता यहाँ दूसरे अनुवादक की प्रस्तुत है)
शताब्दी का पतन
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हमारी बीसवीं सदी पहले से बेहतर होनी थी जो अब कभी नहीं होगी
बचे हैं इसके गिनती के साल
डांवांडोल है इसकी चाल
सांसें बची हैं कम.
बहुत चीजें घटी हैं
जो नहीं घटनी चाहिए थीं
और जो होना चाहिए था
नहीं हुआ.
खुशी और बसंत- दूसरी चीजों के बजाय नजदीक आने चाहिए थे.
डर पहाड़ों और घाटियों से दूर भागना चाहिए था!
सच को जीतना था
झूठ के ऊपर.
कुछ एक परेशानियां नहीं आनी थीं
जैसे भूख युद्ध आदि
असहाय लोगों की असहायता का
आदर होना था
विश्वास या कुछ इसी तरह का कुछ और.
जिसने मौज मस्ती का सोचा था संसार में
अब फंसा पड़ा है
बेकार के कामों में.
मूर्खता में मज़ा नहीं
बुद्धिमत्ता में खुशी नहीं
उम्मीद
नौजवान लड़की नहीं है अब हाय.
ईश्वर सोच रहा था अंततः
आदमी अच्छा और मजबूत दोनों है
पर अच्छा और मजबूत
अभी भी दो अलग अलग आदमी हैं.
हम कैसे रहें? किसी ने मुझसे चिट्ठी में पूछा
मैं भी उससे पूछना चाहती थी
वही प्रश्न.
बार-बार, हमेशा की तरह
जैसा कि हमने देखा है
सबसे मुश्किल सवाल
सबसे सीधे होते हैं.
(अनुवाद: हरिमोहन शर्मा)
अंत में संस्था की तरफ़ से खान अहमद फ़ारुक साहब ने धन्यवाद प्रस्ताव पेश किया। वक्ताओं, श्रोताओं के प्रति उनकी उपस्थिति के लिए आभार कहा। खान अहमद फारूक साहब खुद बहुत अच्छे वक्ता हैं और पहले की व्यायाख्यान माला में उनके वक्तव्य को लोगों ने बहुत चाव से चुना था।
गोष्ठी में सारे शहर के लगभग सभी प्रबुद्ध माने जाने वाले लोग उपस्थित थे। गोष्ठी के बाद चायपान करते हुए लोगों के अपने विमर्श शुरू हुए।
आपस के विमर्श ही आगे चलकर सामाजिक विमर्श का ज़रिया बनते हैं।