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…एक घंटे की हवाई यात्रा
By फ़ुरसतिया on June 15, 2010
दिल्ली से
की उड़ान सबेरे दस बजे थी। हम गेस्ट हाउस से आराम से चले ताकि हवाई अड्डे
पहुंचते हुये हड़बड़ा सकें। इस हड़बड़काल में हमें अपने बगल से गुजरता हर
व्यक्ति अपना रकीब सा लगा जो हमसे आगे निकलकर हमें यात्रा वंचित करना चाहता
है। चेकइन होते ही हड़बड़ी विदा होने लगी। इसके बाद जब पता लगा उड़ान में डेढ़
घंटे की देरी है,हमारे चेहरे पंचशील बिखर गया।
मनोज कुमार साथ में जा रहे थे। उनसे काम भर की ब्लॉग चर्चा करने के बाद उनका लोटपोट खोला गया। वह पट्ठा खुल के नहीं दिया। कभी ये एरर कभी वो एरर। शायद टंकी पर चढ़ा हुआ था। पता चला बाद में देहरादून पहुंचते ही अपने आप चलने लगा। हमारे साथ की चीजें भी हमारी तरह सुविधाओं की आदी हो जाती हैं। अपनी मर्जी से ही चलती हैं।
हवाई जहाज जब पधारा तो हम उसमें विराजने के लिये चले। जहाज को देखने से लगा कि काफ़ी अनुभवी विमान है। छोटा सा । उड़ने के पहले की उसकी आवाजें सुनकर समझ तो नहीं पाये लेकिन अंदाजे से लगा कि जहाज शायद कह रहा हो- कित्ता हलकान करोगे हमको। कुछ तो हमारी बुढौती का लिहाज करो। जहाज के रंग-रूप,चाल-ढ़ाल, हाल-समाचार देखकर लगा जैसे किसी बड़े रूट ने अपनी उतरन इस छोटे रूट को दे दी हो। दिल्ली-देहरादून हालांकि दोनों राजधानी हैं लेकिन यात्रियों और देहरादून के हवाई अड्डे के लिहाज से शायद इस रूट के नसीब में उतरन-जहाज ही लिखे हों।
बकौल शरद जोशी एयर होस्टेस को देखने के पैसे टिकट में ही शामिल होते हैं। हमने भुगतान किये पैसों का उपयोग जहाज में घुसते ही करना शुरू कर दिया। सीट उनके काफ़ी पास होने की वजह से हम उनको देखने का काम बहुत जल्द खत्म करके उनके कार्य-कलाप देखने में लग गये। सीट बेल्ट बांधने का तरीका बताते समय जहाज के साथ-साथ जब वे लड़खड़ायीं तो हम अपनी सीट से उठंगे से हुये। दूरी और उनके संभल जाने के कारण उनको गिरने से बचाने के तुरंत बाद उनसे थैंक्यू सुनने की हसरत मन के डस्टबिन में फ़ेंककर हम सीट बेल्ट बांधने लगे।
हवाई जहाज उड़ते ही नाश्ता बंटने लगा। एक घंटे की यात्रा में उड़ने, उतरने, सीट बेल्ट बांधने, खोलने, इलेक्ट्रानिक उपकरण स्विच आन-ऑफ़ करने की हिदायतें देते हुये फ़टाफ़ट नाश्ता कराती एयर होस्टेस हमें किसी नर्सरी स्कूल की मैडमें लगें जो अपने हवाई किंडर गार्डन के बच्चों को मुस्कराते हुये सहेजती,संभालती रहती हैं।
एक यात्री डेढ़ घंटे हवाई जहाज का एयरपोर्ट पर इंतजार करता,हवाई जहाज में चढ़ते ही आंख मूंदकर अखबार बांचता रहा, जहाज उड़ने तक बेहरकत चुप बैठा रहा। एयरहोस्टेस ने जैसे ही नाश्ते की ट्राली फ़र्श पर टिकाई वह यात्री अचानक हरकत में आ गया। हरकत में आते ही एक्सक्यूज मीं बोलकर ट्वॉलेट की तरफ़ जाने के लिये कमरकस ली। एयरहोस्टेस ने कसमसाकर मुस्कराते हुये इधर-उधर होकर उसे जाने दिया। लौटने पर उससे ज्यादा मुस्कराकर कसमसाते हुये उसे वापस अपनी सीट तक पहुंचने दिया। यात्री ने उनको थैंक्यू बोलकर उनकी मुस्कान और अपनी नाश्ते की प्लेट ग्रहण की और खिड़की के बाहर का आसमान निहारने लगा।
जहाज के बाहर का आसमान खिला-खिला, खुला-खुला सा था। जहाज बादलों के ऊपर आ गया था। हवाई यात्रा करने वाले लोगों को बादल रुई के गोले, फ़ाहे, पहाड़ से लगते रहते हैं। लेकिन मुझे अपनी पहली ही यात्रा से बादलों को देखकर ऐसा लगा जैसे किसी ने बहुत बड़े टब में हजारों बाल्टी पानी में सैकडों बोरी सर्फ़ उड़ेलकर हिला दिया हो। बादल मुझे सर्फ़ के झाग से लगते हैं। एक बारगी तो यह भी लगा कि घर के तमाम धुलनशील कपड़े साथ में लेते आते। सर्फ़ के बादलों में डुबोये रहते। उतरकर पानी में हिलाकर निचोड़ लेते।
ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान कम होता जाता है। आजकल हर जगह तापमान कम करने की बात पर हल्ला मचा हुआ है। सारी दुनिया के लोग धरती का तापमान कम करने के लिये गर्म हो रहे हैं। अपने साथ धरती को भी गर्मा रहे हैं। ऊंचाई पर तापमान कम होने की बात ने एकबार फ़िर मेरे दिमाग में तमाम अटपटे विचार फ़ुदकने लगे। मुझे लगा कि:
नाश्ता निपटाने के बाद प्लेटें समेटकर एयरहोस्टेस हमारे सामने की सीट पर आंख मूंदकर बैठ गयी। लेकिन तुरंत किसी ने पानी प्लीज कहकर उनको उठा दिया। इसके बाद किसी ने उनसे नेपकिन प्लीज भी मांग ली। हम उनसे हिन्दी का अखबार प्लीज जहाज उड़ने से पहले मांग चुके थे। अपनी हड़बड़ी पर एकबार फ़िर गुस्सा आया। उस समय हड़बड़ी न करते तो इस समय पच्चीस हजार फ़ीट की ऊंचाई पर हिन्दी पेपर प्लीज कहने के सुख लूटते।
हमको इस बीच यह भी लगा कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा एक्सक्यूज मी,सॉरी,थैंक्यू हवाई यात्राओं में बोला जाता होगा। अगर ये न बोला जाये तो हवाई यात्रायें गूंगी-बहरी हो जायें।
इस बीच के बीच में हमने देखा कि एयरहोस्टेस के पीछे काकपिट की तरफ़ खुलने वाला दरवाजा बिना एक्सक्यूज मी कहे अंदर की तरफ़ खुल गया। दरवाजे के पीछे निवाड़ देखकर लगा कि कोई ढीली खटिया भी हवाई जहाज में लदी है। मैडम ने आहिस्ते से दुलराते हुये दरवाजे को बंद किया। दरवाजा बदमाश था,फ़िर खुल गया। मैडम ने फ़िर तेज दुलार के साथ उसे बंद किया। वह बेशरम फ़िर खुल गया। मैडम ने इस बार कस के झटके के साथ उसे बंद किया और देर तक पकड़े रहीं। जैसे कोई टीचर किसी शैतान बच्चे का कान देर तक पकड़े, ऐंठे रहती हैं। काफ़ी देर बाद उन्होंने आहिस्ते से उसे छोड़ा। छोड़ने के बाद कुछ देर तक दरवाजा शरीफ़ बना रहा। मैडम ने दो-तीन सुकून की सांसे तक ले डालीं। लेकिन चौथी सांस लेने के पहले ही दरवाजे का चौखट से गठबंधन सैद्धांतिक आधार पर फ़िर टूट गया। दरवाजा नठिया एकबार फ़िर खुल गया। मैडम उसको लंगर के प्रसाद की तरह हाथ में थामें कुछ सोचने लगीं। तक तक कुछ ही देर में हम देहरादून हवाई अड्डे पर उतरने वाले हैं की जहाजवाणी सुनकर मैडम ने जो सांस ली शायद उसे ही चैन की सांस कहा जाता होगा।
आसपास पहाड़ से घिरे देहरादून हवाई अड्डे को देखकर लगा कि शायद यह सोचा गया हो कि यहां पक्की सड़क बनाने के पहले देख लिया जाये कि अड्डा चलता भी है कि नहीं। हवाई अड्डे पर जिस तरह हमारा सामान कन्वेयरबेल्ट की जगह पर एअरपोर्ट कुली के सर पर लदकर आया और फ़र्श पर पटक दिया गया उससे एकबारगी लगा कि शायद हम रेल से आये हैं और किसी प्लेटफ़ार्म खड़े हैं। लेकिन जब कुली ने सामान लाने के पैसे नहीं मांगे तब हमें विश्वास हो गया कि यात्रा उड़नखटोले से ही हुई है।
हवाई अड्डे पर उतरने के बाद हम देहरादून की तरफ़ गम्यमान हुये।
मनोज कुमार साथ में जा रहे थे। उनसे काम भर की ब्लॉग चर्चा करने के बाद उनका लोटपोट खोला गया। वह पट्ठा खुल के नहीं दिया। कभी ये एरर कभी वो एरर। शायद टंकी पर चढ़ा हुआ था। पता चला बाद में देहरादून पहुंचते ही अपने आप चलने लगा। हमारे साथ की चीजें भी हमारी तरह सुविधाओं की आदी हो जाती हैं। अपनी मर्जी से ही चलती हैं।
हवाई जहाज जब पधारा तो हम उसमें विराजने के लिये चले। जहाज को देखने से लगा कि काफ़ी अनुभवी विमान है। छोटा सा । उड़ने के पहले की उसकी आवाजें सुनकर समझ तो नहीं पाये लेकिन अंदाजे से लगा कि जहाज शायद कह रहा हो- कित्ता हलकान करोगे हमको। कुछ तो हमारी बुढौती का लिहाज करो। जहाज के रंग-रूप,चाल-ढ़ाल, हाल-समाचार देखकर लगा जैसे किसी बड़े रूट ने अपनी उतरन इस छोटे रूट को दे दी हो। दिल्ली-देहरादून हालांकि दोनों राजधानी हैं लेकिन यात्रियों और देहरादून के हवाई अड्डे के लिहाज से शायद इस रूट के नसीब में उतरन-जहाज ही लिखे हों।
बकौल शरद जोशी एयर होस्टेस को देखने के पैसे टिकट में ही शामिल होते हैं। हमने भुगतान किये पैसों का उपयोग जहाज में घुसते ही करना शुरू कर दिया। सीट उनके काफ़ी पास होने की वजह से हम उनको देखने का काम बहुत जल्द खत्म करके उनके कार्य-कलाप देखने में लग गये। सीट बेल्ट बांधने का तरीका बताते समय जहाज के साथ-साथ जब वे लड़खड़ायीं तो हम अपनी सीट से उठंगे से हुये। दूरी और उनके संभल जाने के कारण उनको गिरने से बचाने के तुरंत बाद उनसे थैंक्यू सुनने की हसरत मन के डस्टबिन में फ़ेंककर हम सीट बेल्ट बांधने लगे।
हवाई जहाज उड़ते ही नाश्ता बंटने लगा। एक घंटे की यात्रा में उड़ने, उतरने, सीट बेल्ट बांधने, खोलने, इलेक्ट्रानिक उपकरण स्विच आन-ऑफ़ करने की हिदायतें देते हुये फ़टाफ़ट नाश्ता कराती एयर होस्टेस हमें किसी नर्सरी स्कूल की मैडमें लगें जो अपने हवाई किंडर गार्डन के बच्चों को मुस्कराते हुये सहेजती,संभालती रहती हैं।
एक यात्री डेढ़ घंटे हवाई जहाज का एयरपोर्ट पर इंतजार करता,हवाई जहाज में चढ़ते ही आंख मूंदकर अखबार बांचता रहा, जहाज उड़ने तक बेहरकत चुप बैठा रहा। एयरहोस्टेस ने जैसे ही नाश्ते की ट्राली फ़र्श पर टिकाई वह यात्री अचानक हरकत में आ गया। हरकत में आते ही एक्सक्यूज मीं बोलकर ट्वॉलेट की तरफ़ जाने के लिये कमरकस ली। एयरहोस्टेस ने कसमसाकर मुस्कराते हुये इधर-उधर होकर उसे जाने दिया। लौटने पर उससे ज्यादा मुस्कराकर कसमसाते हुये उसे वापस अपनी सीट तक पहुंचने दिया। यात्री ने उनको थैंक्यू बोलकर उनकी मुस्कान और अपनी नाश्ते की प्लेट ग्रहण की और खिड़की के बाहर का आसमान निहारने लगा।
जहाज के बाहर का आसमान खिला-खिला, खुला-खुला सा था। जहाज बादलों के ऊपर आ गया था। हवाई यात्रा करने वाले लोगों को बादल रुई के गोले, फ़ाहे, पहाड़ से लगते रहते हैं। लेकिन मुझे अपनी पहली ही यात्रा से बादलों को देखकर ऐसा लगा जैसे किसी ने बहुत बड़े टब में हजारों बाल्टी पानी में सैकडों बोरी सर्फ़ उड़ेलकर हिला दिया हो। बादल मुझे सर्फ़ के झाग से लगते हैं। एक बारगी तो यह भी लगा कि घर के तमाम धुलनशील कपड़े साथ में लेते आते। सर्फ़ के बादलों में डुबोये रहते। उतरकर पानी में हिलाकर निचोड़ लेते।
ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान कम होता जाता है। आजकल हर जगह तापमान कम करने की बात पर हल्ला मचा हुआ है। सारी दुनिया के लोग धरती का तापमान कम करने के लिये गर्म हो रहे हैं। अपने साथ धरती को भी गर्मा रहे हैं। ऊंचाई पर तापमान कम होने की बात ने एकबार फ़िर मेरे दिमाग में तमाम अटपटे विचार फ़ुदकने लगे। मुझे लगा कि:
- बिजली की कमी के चलते गर्माते लोगों को खुले हवाई जहाज में घुमाकर उनको कुछ राहत पहुंचाई जा सकती।
- दुनिया भर सारे कोल्ड स्टोरेज 20-25 हजार फ़ीट की ऊंचाई पर टांग दिये जायें। कोल्ड स्टोरेज की जगह पर कब्जा करके माल-साल और फ़ार्महाउस जैसी अन्य बुनियादी आवश्यकताओं के निर्माण करा दिये जायें।
- अपनी ऊंचाई से ज्यादा ऊंचे फ़्रिज रखने वाले लोग भी हवाई ऊंचाइयों पर अपना सामान रख सकते हैं। जब जरूरत हुई इशारा किया, सामान अवतरित हो गया।
- कार्यस्थल पर वातानुकूलित माहौल प्रदान करने वालों को काम करते समय हवाईयात्रा पर भेज दिया जाये। दिन में एकाध घंटे के लिये ऐसा करना कोई ज्यादा खर्चीला काम न होगा। रोज-रोज काम पर जाते रहने से वे सॉरी, थैंक्यू, एक्स्क्यूज मी के इत्ते आदी हो जायेंगे कि जिन्दाबाद-मुर्दाबाद सुनकर उसका मतलब समझने के लिये ट्रान्सलेटर प्लीज कहने लगेंगे।
- मिजाज से गर्म और ब्लडप्रेसर के आदती लोगों उनका पारा ऊपर उठने पर हवा में घुमाया जाये। जैसे ही उनका मिजाज और दबाब नीचे आये , उनको नीचे उतार दिया जाये।
नाश्ता निपटाने के बाद प्लेटें समेटकर एयरहोस्टेस हमारे सामने की सीट पर आंख मूंदकर बैठ गयी। लेकिन तुरंत किसी ने पानी प्लीज कहकर उनको उठा दिया। इसके बाद किसी ने उनसे नेपकिन प्लीज भी मांग ली। हम उनसे हिन्दी का अखबार प्लीज जहाज उड़ने से पहले मांग चुके थे। अपनी हड़बड़ी पर एकबार फ़िर गुस्सा आया। उस समय हड़बड़ी न करते तो इस समय पच्चीस हजार फ़ीट की ऊंचाई पर हिन्दी पेपर प्लीज कहने के सुख लूटते।
हमको इस बीच यह भी लगा कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा एक्सक्यूज मी,सॉरी,थैंक्यू हवाई यात्राओं में बोला जाता होगा। अगर ये न बोला जाये तो हवाई यात्रायें गूंगी-बहरी हो जायें।
इस बीच के बीच में हमने देखा कि एयरहोस्टेस के पीछे काकपिट की तरफ़ खुलने वाला दरवाजा बिना एक्सक्यूज मी कहे अंदर की तरफ़ खुल गया। दरवाजे के पीछे निवाड़ देखकर लगा कि कोई ढीली खटिया भी हवाई जहाज में लदी है। मैडम ने आहिस्ते से दुलराते हुये दरवाजे को बंद किया। दरवाजा बदमाश था,फ़िर खुल गया। मैडम ने फ़िर तेज दुलार के साथ उसे बंद किया। वह बेशरम फ़िर खुल गया। मैडम ने इस बार कस के झटके के साथ उसे बंद किया और देर तक पकड़े रहीं। जैसे कोई टीचर किसी शैतान बच्चे का कान देर तक पकड़े, ऐंठे रहती हैं। काफ़ी देर बाद उन्होंने आहिस्ते से उसे छोड़ा। छोड़ने के बाद कुछ देर तक दरवाजा शरीफ़ बना रहा। मैडम ने दो-तीन सुकून की सांसे तक ले डालीं। लेकिन चौथी सांस लेने के पहले ही दरवाजे का चौखट से गठबंधन सैद्धांतिक आधार पर फ़िर टूट गया। दरवाजा नठिया एकबार फ़िर खुल गया। मैडम उसको लंगर के प्रसाद की तरह हाथ में थामें कुछ सोचने लगीं। तक तक कुछ ही देर में हम देहरादून हवाई अड्डे पर उतरने वाले हैं की जहाजवाणी सुनकर मैडम ने जो सांस ली शायद उसे ही चैन की सांस कहा जाता होगा।
आसपास पहाड़ से घिरे देहरादून हवाई अड्डे को देखकर लगा कि शायद यह सोचा गया हो कि यहां पक्की सड़क बनाने के पहले देख लिया जाये कि अड्डा चलता भी है कि नहीं। हवाई अड्डे पर जिस तरह हमारा सामान कन्वेयरबेल्ट की जगह पर एअरपोर्ट कुली के सर पर लदकर आया और फ़र्श पर पटक दिया गया उससे एकबारगी लगा कि शायद हम रेल से आये हैं और किसी प्लेटफ़ार्म खड़े हैं। लेकिन जब कुली ने सामान लाने के पैसे नहीं मांगे तब हमें विश्वास हो गया कि यात्रा उड़नखटोले से ही हुई है।
हवाई अड्डे पर उतरने के बाद हम देहरादून की तरफ़ गम्यमान हुये।
Posted in बस यूं ही, संस्मरण | 51 Responses
आपकी हवाई यात्रा के विवरण ने हमें तो आनंद दिया ही, किसी परिचारिका ने पढ़ा होगा तो वो भी खिल उठी होगी! लोगों के हिंदी अखबार प्लीज़ मांगने पर मन ही मन गाली देती होती- घर पर चाहे अखबार में मूंगफली खाते हों, हवाई जहाज में चढ़कर उसी एक घंटे में सारा ज्ञानवर्धन कर लेना चाहते हैं.
और लिखते रहिये ‘प्लीज़’- हम जैसे नौसिखिये लेखक भी संभवतः कुछ सबक ले सकें.