Thursday, December 28, 2023

पांडिचेरी में चहलकदमी



पांडिचेरी में रहने का ठिकाने का जुगाड़ हो गया तो तसल्ली हुई । समुद्र की तरफ वाले कमरे के यहाँ एक हजार रुपये अतिरिक्त लगे थे। हमें लगा कि जो लोग समुद्र के किनारे रहते हैं वो साल भर में तीन लाख पैसठ हजार तो बचा ही लेते हैं।
इसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि समुद्र तट के किनारे बसे लोग दूर बसे लोगों के मुक़ाबले अमीर होते हैं।
अपने रहने के इंतजाम के बाद ड्राइवर के लिए जुगाड़ किया गया। होटल में कोई इंतजाम नहीं था। पास ही गाडी रखने और रुकने का इंतजाम बताया ड्राइवर ने। अगले दिन मिलने की कहकर चला गया ड्राइवर।
बालकनी से समुद्र साफ़, एक दम नजदीक दिखता था। लोग किनारे की बेंचो, पत्थरों पर बैठे समुद्र की लहरों को उठते-गिरते , किनारे तक आते , किनारे से टकरा कर लौट जाते देख रहे थे। हमने भी देखा। हमको लगा समुद्र की लहरें उत्साह और उमंग से किनारे की तरफ आती हैं । ऐसे लगता है मानों लहरें किनारे से गहन आलिंगन के लिए व्याकुल होकर भागती चली आ रहीं हैं। लौटते समय वह उत्साह नहीं दिखा लहरों में। ऐसे लौटती दिखीं मानो बेमन से वापस जा रही हों। मिलन और विछोह का अंतर दिखा लहरों के आने -जाने में।
कुछ देर आराम करने के बाद खाना खाने निकले। पास ही स्थित उडुपी होटल बंद हो चुका था। थोड़ा और आगे एक रेस्टोरेंट , जिसका नाम होटल वाली बालिका ने बताया था, खुला था। पहली मंजिल पर मौजूद भोजनालय में लंचार्थियो की भीड़ थी । एक किनारे की मेज पर जगह मिली। बैठकर आर्डर दिया। बालक मोबाइल में आर्डर नोट करके चला गया। जबतक वह वापिस आया , हम अगल-बगल के और सामने मनचले समुद्र के नज़ारे देखते रहे।
आसपास अधिकतर लोग अपने मोबाइल में डूबते-तैरते-उतराते दिखे। बगल वाली टेबल वालों के साथ छोटे बच्चे थे। उन्होंने आते ही मोबाइल में वीडियो लगाकर बच्चे को थमा दिया। बच्चे मोबाइल में और वो लोग अपने में मशगूल हो गए। आने-वाले समय में मोबाइल दादी-नानी की भूमिका निभायेंगे।
खाना खाकर होटल लौटे। कुछ देर आराम फर्माने के बाद घुमने निकले। अधिकतर घूमने की जगहें, जिनका जिक्र इधर-उधर दिखा, आसपास ही , एक-दो किलोमीटर के दायरे में थीं। पैदल ही निकले। समुद्र की लहरों और आते-जाते लोगों को देखते हुए।
सड़कें लोगों, गाडियों और सड़क किनारे ठेलियों से भरी-पूरी थीं। दोनों किनारे गाड़ियों , सामान के ठेलों की लाइन। दूर-दूर तक ऐसा कोई हिस्सा नहीं दिखा सड़क का जिसके दोनों किनारों पर गाड़ियां , ठेले न खड़ी हों। सड़क के बीच में थोड़ी जगह गाड़ियों और लोगों के आने-जाने के लिए भी छोडी गयी थी। इतनी भीड़ के बावजूद कहीं कोई अफरा-तफरी, हल्ला-गुल्ला या हडबडी नहीं दिखी। लगता है सब यहाँ शान्ति के साथ ही आये हैं।
सबसे पहले अरविन्द आश्रम देखने की बात तय हुई। रास्ते में मिलने वाले भारती पार्क , म्यूजियम, रोम्या रैला लाइब्रेरी, आर्ट गैलरी से कहते गए –‘आते अभी लौटकर, कहीं जाना नहीं, इन्तजार करना।‘
अरविन्द आश्रम में अन्दर जाने के पहले जूते-चप्पल बाहर ही उतारने थे। आश्रम के सामने फुटपाथ पर मुफ्त जूते-चप्पल रखने की व्यवस्था थी। एक बुजुर्ग महिला निर्लिप्त जिम्मेदारी वाले भाव से लोगों के जूते रैक में रखकर टोकन देती । लौटने पर टोकन के हिसाब से जूते-चप्पल वापस लौटा देती।
कहीं कोई साम्य नहीं लेकिन वहां जूते-चप्पल रखने की व्यवस्था देखकर मुझे शरीर-आत्मा-यमदूत के सुने किस्से याद आये। क्या पता यमदूत इसी शरीर को आत्मा से अलग करते हुए आत्मा को एक टोकन थमाते हों। अगले जन्म में आत्मा अपने टोकन के हिसाब से शरीर धारण करके नया जीवन शुरु करती हो।
अन्दर आश्रम में फोटो लेना मना था। घुसते समय सबके मोबाइल बंद करा दिए गए। अन्दर लोग अरविंद जी और माँ मीरा की समाधि पास शान्ति से बैठे थे। समाधि पर ताजे फूल सजे हुए थे। कुछ देर वहां बैठने के बाद हम लोग बाहर आ गए।
बाहर आकर हमने अपने जूते -चप्पल वापस लिए और लौट लिए। रास्ते में अरविंदो आश्रम पोस्ट आफिस दिखा । पोस्ट ऑफिस के बाहर सूचना लिखी थी -'यह डाकघर महिला डाक कर्मचारियों द्वारा संचालित है।'
शाम होने के कारण डाकघर बंद हो चुका था। बाहर एक लड़की मोबाइल पर कुछ देख रही थी। वहीं चौराहे के नुक्कड़ पर एक महिला नारियल पानी बेंच रही थी। मन किया नारियल पानी पिया जाए। लेकिन फिर बिना पिये आगे बढ़ गए।
आगे म्यूजियम , लाइब्रेरी और आर्ट गैलरी देखी। म्यूजियम में मूर्तियाँ , सिक्के, कलाकृतियाँ , फर्नीचर, पुराने जमाने के वाहन और तमाम चीजें रखीं थीं। बाहर रखी मूर्तियों के साथ लोग फोटो खिंचा रहे थे। म्यूजियम का टिकट दस रुपये था।
म्यूजियम से बाहर बगल आर्ट गैलरी में कुछ पेंटिंग्स लगी थी। पेंटर के फोटो बाहर लगे थे। अंदर घुसकर पेंटिंग्स देखते हुए एक का फोटो भी ले लिए। गेट पर बैठे आदमी ने टोंका -'डोंट टेक फोटो।' हम थम गये। पेंटिंग्स बिक्री के लिए भी उपलब्ध थीं। हमने दाम नहीं पूछे। देखकर ही लौट आये।
बगल की रोम्यां रैला लाइब्रेरी में लोग लम्बी मेज के दोनों तरफ बैठे अखबार पढ़ रहे थे। ज्यादातर अखबार तमिल के थे। हमने वहां बैठकर फोटो खिंचाया।हमको फोटो खिंचाते देखकर सामने वाले ने हमारी तरफ अंग्रेजी का अखबार सरका दिया। उसको पता लग गया होगा कि अपन तमिल नहीं जानते।
किताबों की तरफ वाले सेक्शन ने नीचे तमिल की ही किताबें थीं। ऊपर गए तो अंग्रेजी और हिंदी के अलावा और भाषाओं की किताबें भी दिखीं। हिंदी की ढेर सारी किताबें थीं। एक किताब नामवर सिंह जी से बातचीत की थी। किताब पलटते हुए जो पन्ना खुला उसमें एक जबाब में नामवर जी ने बताया था कि उनके गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी जी मुक्तिबोध जी की कविता को पसंद नहीं करते थे। उस समय तय किया था कि यह किताब मंगवाएँगे।
लाइब्रेरी से वापस आते हुए वहां मौजूद लोगों से पूछा-'लाइब्रेरी कितनी पुरानी है।' सबने एक दूसरे की तरफ देखा। इधर-उधर देखते हुए एक ने दराज से एक किताबिया निकालकर हमको थमा दी। मतलब इसमें लिखा है लाइब्रेरी के बारे में। पढ़ लो।
पढ़ने पर पता चला कि पांडिचेरी में, जहां करीब तीन शताब्दियों तक फ्रांसीसियों का शासन रहा, लाइब्रेरी मूवमेंट की शुरुआत 1827 में हुई। पब्लिक लाइब्रेरी होने के बावजूद शुरुआत में इसमें केवल यूरोपीय लोगों को आने की अनुमति थी। सन 1850 में यहां किताबों की संख्या 6500 थी। आज की तारीख में करीब 334865 किताबें हैं। करीब 35000 लोग लाइब्रेरी के सदस्य हैं। साल भर में करीब 2 लाख किताबें पढ़ने के लिए इशू की जाती हैं। औसतन करीब एक हजार लोग लाइब्रेरी की सुविधा का उपयोग करते हैं।
1966 में रोम्यां रैला जी की जन्मशताब्दी के मौके पर लाइब्रेरी का नामकरण उनके नाम पर किया गया।
लाइब्रेरी से बाहर निकल कर हम वापस लौटे। शाम को सड़क और गुलजार हो गयी थी। समुद्र किनारे लोग चहलकदमी करते हुए टहल रहे थे। तमाम लोग समुद्र की लहरों को देखते हुए फोटोबाजी कर रहे थे।
अपन भी टहलते हुए एक चट्टान पर बैठ गए और समुद्र और जनसमुद्र दर्शन में जुट गए।

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Wednesday, December 27, 2023

पांडिचेरी की ओर



पिछले दिनों महाबलिपुरम और पांडिचेरी जाना हुआ। पांडिचेरी इसके पहले चालीस साल पहले आये थे। इलाहाबाद से कन्याकुमारी तक साइकिल यात्रा के दौरान अगस्त , 1983 के दूसरे हफ्ते । एक दिन रुके थे। अरविंद आश्रम और समुद्र तट की बहुत धुंधली यादें थीं पिछली यात्रा की।
पिछली बार पांडिचेरी से चेन्नई की तरफ आये थे। इस बार महाबलिपुरम से पांडिचेरी जाना हुआ। पांडिचेरी को पुदुचेरी और कहीं-कहीं पोंडी भी लिखा देखा।
पांडिचेरी में रुकने के लिए होटल बुक नहीं कराया था। सोचा वहीं देखेंगे। चलने के एक दिन पहले आनलाइन बुकिंग की बात सोची तो लोगों ने बताया कि वहां सब होटल भरे हैं। कहीं कोई जगह नहीं है। हमने सोचा कि अब समय आ गया बुकिंग कराने का। यात्राओं में रोमांच लाने का यह भी एक तरीका है कि इंतजाम में देरी की जाए ताकि परेशानी आये और फिर उस परेशानी को हल करने की कोशिश की जाए।
आनलाइन बुकिंग की कोशिश की तो तमाम होटल में जगह दिखी। लगभग हर जगह एक ही कमरा बाकी दिखा रहा था। शायद हमारे लिए ही बचा रखा था। कमरे का किराया हजार-पन्द्रह सौ से लेकर पचीस-तीस हजार तक बताया जा रहा था।
बहरहाल एक कमरा बुक करा लिया । फ्रेंच कालोनी में एक विला था। कमरे के फोटो भी ठीक-ठीक ही दिख रहे थे। बुकिंग के कोई पैसे एडवांस में नहीं देने पड़े थे । सोचा अगर अच्छा नहीं होगा तो दूसरा खोजेंगे होटल।
महाबलीपुरम से पांडिचेरी की दूसरी लगभग 95 किलोमीटर है। कानपुर से लखनऊ की दूरी के बराबर। बढ़िया सड़क। सड़क के दोनों तरफ आबादी, गाँव , खेत । सबको देखते हुए पांडिचेरी की तरफ बढे। सड़क किनारे दीवारों पर इश्तहार। ज्यादातर तमिल में। कहीं-कहीं अंग्रेज़ी भी दिख जाती।
रास्ते में एक जगह चाय पी गयी। काउंटर पर मौजूद महिला तमिल ही जानती थी। लेकिन चाय लेने और पैसे देने में कोई अड़चन नहीं आई। पैसे की भाषा सबकी सबको फ़ौरन समझ में आ जाती है। दस रुपये की एक चाय । भुगतान गूगल पे से किया। आजकल पूरे देश में आनलाइन भुगतान की व्यवस्था हो गयी है।
पांडिचेरी पहुंचकर ठहरने की जगह गए। एक घर को होटल में बदल दिया गया था । अँधेरे कमरे । फ़ोटो में जितना अच्छा दिख रहा था होटल , उतना अच्छा दिखा नहीं। पास में स्थित मछली बाजार से ‘मछली गंध’ की मुफ्त व्यवस्था। मन नहीं हुआ रुकने का। दूसरा होटल खोजने निकले।
जिस भी होटल में पता किया वो भरा मिला। लोगों ने बताया कि महीनो पहले से बुकिंग कराते हैं लोग। कोई होटल खाली नहीं मिलेगा।
आसपास तमाम होटल देखने के बाद भी कहीं जगह नहीं मिली। तय किया कि जो बुक किया था उसी में रुक जाते हैं। रात को सोना ही तो है। एक दिन की बात । वापस चल दिए होटल की तरफ। उसको फोन भी कर दिए। आ रहे हैं रुकने के लिए।
लेकिन होटल की तरफ चलते हुए उसके कमरे के हाल याद आये। रुकने का मन नहीं किया। एक बार यह भी सोचा कि शाम तक घूमकर वापस लौट जायें पांडिचेरी से।
एक बार फिर होटल-होटल पूछते फिर। आनलाइन खोजा। एक होटल दिखा। हमने बुक करके पूछा तो बताया गया आ जाओ। खाली है। होटल वाले ने लोकेशन भी भेज दी। हम चल दिए।
होटल की तरफ चलते हुए उसी नाम का एक और होटल दिखा होटल वाले ने लोकेशन भी भेज दी।
होटल की तरफ जाते हुए उसी नाम का एक और होटल दिखा। हम लपके होटल वाले बताया कि एक कमरा खाली है। दाम एक हजार ज्यादा बताये। हमने पूछा इसी नाम का तुम्हारा और होटल भी है ? तो उसने बताया हाँ है ! हमने कहा आते उसको देखकर । उसने कहा- ठीक।
होटल के रास्ते में हमको यही लगता रहा कि कहीं वहां पहुँचने के पहले कमरा उठ न जाए इसलिए हम उससे बतियाते रहे। होटल पहुंचकर तसल्ली हुई कि कमरा अभी उठा नहीं था। काउंटर पर तीन लड़कियाँ थीं। उनमें से दो बाहर से यहाँ काम करने आईं थी। हर सवाल के जबाब फुर्ती से मुस्कराते हुए ' मुझे पता नहीं' कह रहीं थीं। तीसरी लड़की ने लडके को कमरा दिखाने के लिए भेजते हुए बताया -'सी फेसिंग रूम थाउजेंड एक्स्ट्रा।' कुल किराया 7499 रुपये । मतलब दिल्ली या किसी और शहर के फाइव स्टार होटल के एक कमरे के किराए के बराबर !
आखीर में जिस कमरे में सामान रखा गया समुद्र वहां से कुल जमा बीस-तीस मीटर दूर था। समुद्र की लहरें इठलाते हुए हमारा स्वागत कर रहीं थी।
इस बीच उस होटल से फोन भी आ रहा था जिसकी बुकिंग हमने महाबलीपुरम से कराई थी और जहाँ हम आने के लिए कह आये थे। जब हमने उसको बताया कि हम दूसरी जगह रुक गए हैं तो उसने कहा -'आप आनलाइन बुकिंग कैंसल कर दें।' हमने उसकी आज्ञा का पालन किया और कुछ देर में पांडिचेरी दर्शन के लिए निकल लिए।

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Tuesday, November 14, 2023

39 साल पुराना शुभकामना पत्र



दीवाली के मौक़े पर सैकड़ों मित्रों की शुभकामनाएँ मिली। हमने भी भेजीं। कुछेक मित्रों को छोड़कर लगभग सभी ने डिज़ाइनर ग्रीटिंग कार्ड भेजे। एक से एक खूबसूरत चित्र और मनभावन संदेश। कुछ के संदेश बाद में भी मिले। भूल हुए होंगे देना पहले।
हम भी भूल गये होंगे कुछ मित्रों को शुभकामनाएँ देना। ऐसे सभी मित्रों को फिर से दीपावली की शुभकामनाएँ। जिनको लगता है दीपावली तो तो बीत गई उनको बता दें कि हमारी दीवाली नीरज जी वाली है जिसमें वो लिखते हैं :
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
अब अंधेरे के पास कोई जीपीएस तो है नहीं न गूगल मैप जो अंधेरी गली से निकल कर रास्ता खोज लेगा।
ग्रीटिंग कार्ड की बात इसलिए कि आज हमारे कॉलेज के सीनियर Anil Srivastava जी ने दीवाली के मौक़े पर मेरे द्वारा उनको भेजा गये ग्रीटिंग कार्ड की फ़ोटो भेजी। पोस्टकार्ड पर बना हुआ ग्रीटिंग कार्ड। शायद स्केच पेन से बनाया था। दिये का स्केच और साथ में फ़्रॉस्ट की प्रसिद्ध कविता पंक्ति :
Woods are lovely dark and deep
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep.
ये कविता पंक्तियाँ नेहरू जी की पसंदीदा थीं। (संयोग से आज नेहरू जी का जन्मदिन भी है)हमने उस समय क्यों लिखा था याद नहीं। शायद अनिल सर को या ख़ुद की हौसला आफ़ज़ाई के लिए।
यह बात 1984 की दीवाली की है। हम बीई फ़ाइनल ईयर में थे। अनिल सर एमई कर रहे थे। उनके साथ के तमाम दोस्त किसी न किसी नौकरी में जा चुके थे। वे अकेले रह गये थे। पहली बार हम लोग एक ही विंग में रहने के कारण संपर्क में आये थे। देर देर तक बातें -मुलाक़ातें होती थीं। उस समय के साथ के हुबहू बयान करना मुश्किल है। लेकिन आज 39 साल पहले का यह कार्ड देखकर अनगिनत यादों के दरीचे खुल गये। कार्ड देखते ही फ़ौरन फ़ोन मिलाया अनिल सर को तमाम नई पुरानी यादें ताज़ा हुईं।
ग्रीटिंग कार्ड देखकर याद आया किं पहले अपने मित्रों को पत्र लिखने का बहुत शौक़ था मुझे। लंबे-लंबे पत्र लिखते थे। लोग भी जबाब लिखते थे। आज भी मन करता है कभी मित्रों को पत्र लिखें। लेकिन अब शायद पोस्ट कार्ड का चलन भी बंद हो गया।
मित्रों के पतों की जगह उनके फ़ोन नंबरों ने ले ली है।
39 साल पहले भेजा यह ग्रीटिंग कार्ड देखकर लगा कि दो दिन पहले भेजी गई और पाई गई शुभकामनाएँ जो ह्वाट्सऐप या अन्य माध्यमों से आईं -गई वो क्या चालीस साल बाद इसी तरह सुरक्षित रह सकेंगी जैसे यह कार्ड में भेजी शुभकामनाएँ। क्या पता तब तक व्हाटसप और सोशल मीडिया के रूप इतने बदल जायें कि संदेश खोजे न मिलें। पढ़े न जायें।
आगे की बात आगे की देखी जाएगी अभी तो तय किया है कि मित्रों को कभी -कभी पत्र लिखने का सिलसिला फिर से शुरू किया जाये। देखते हैं अमल में कितना आता है। क्या आपको भी पत्र लिखना अच्छा लगता है?

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Friday, November 10, 2023

सोशल मीडिया की रीच

 




अक्सर मित्र लोग अपनी पोस्ट की रीच कम हो जाने की बात करते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया को कोसते हैं। चिंता व्यक्त करते हैं कि पाठक कम हो गए, टिप्पणी नहीं आती, लाइक नहीं मिल रहे।
सहज भाव है यह। पाठक कम होना, टिप्पणी कम मिलना, लाइक कम होना सोशल मीडिया में नियमित लिखने वालों को और कभी-कभी भी लिखने वालों को खराब लगता है।
जहां तक रीच कम होने की बात है तो हमको लगता है कि सोशल मीडिया इसका प्रयोग करने वालों के लिए सोशल है। इसको चलाने वालों के लिए यह कमाई का साधन है। कमाई बढाने के लिए तरह-तरह के जुगाड़ अपनाता है मीडिया। उसको इस बात से मतलब नहीं कि आपकी पोस्ट कितनी अच्छी है, कितनी समाजोपयोगी है। जिस भी तरह की पोस्टों से देखने वाले बढ़ेंगे उनको बढ़ावा देगा।
फेसबुक पर ही पहले मित्रों की तमाम पोस्टें एक के बाद एक दिखती थीं। अब उनकी जगह स्पॉन्सर्ड पोस्ट, विज्ञापन दिखते हैं। सजेस्टेड पोस्ट दिखती हैं। स्पॉन्सर्ड पोस्ट और विज्ञापन से पैसा मिलता है। सजेस्टेड पोस्ट खाता धारक की रुचि पर आधारित होती हैं।
फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया के हाल अब अखबार सरीखे हो गए हैं जिनमें कभी पहले पेज की शुरुआत प्रमुख खबरों से होती थी। उनकी जगह अब पहले, दूसरे, तीसरे पेज तक भी खबरों की हिम्मत नहीं होती जो छप जाएं। पूरे-पूरे पेज विज्ञापनों से भरे हैं। हर जगह बाजार का हल्ला है, समाचार चुपचाप कहीं अंदर छिपा है। बाजार ही आजकल प्रमुख समाचार है।
तो मुझे तो यही लगता है कि हमारी पोस्ट कम पढ़ी जा रही है तो इसका कारण पैसा कमाऊ पोस्टों का हमसे पहले पेश किया जाना है। यही सोशल मीडिया संचालकों के लिए फायदे का आधार है।
कुछ मित्रों का मानना है कि पोस्ट्स को मित्रों को टैग करना इससे मुकाबले का उपाय है। सही है। सौ-पचास मित्रों को टैग करेंगे तो वो हमारी पोस्ट फौरन देख लेंगे। शर्मा-शर्मी टिपिया भी देंगे। लेकिन वह सब मुंह देखी बात होगी।
अपनी हर पोस्ट को टैग करके पढ़वाने की कोशिश ऐसी ही लगती है मुझे मानो किसी ट्रेन को पकड़ने के लिए लपकते इंसान का कुर्ता घसीटकर हम कहें -'ये कविता अभी-कभी लिखे हैं। जरा सुनकर तारीफ तो करिए जरा। ट्रेन फिर पकड़ लीजिएगा।'
मुझे लगता है कि अगर लोग हमारी लिखाई पसंद करते हैं तो वो देर-सबेर पढ़ेंगे ही। अपने दोस्तों को टैग करना मतलब उनका ध्यान जबरियन अपनी तरफ खींचना। यह जबर्दस्ती का मसला कवि सम्मलेन/मुशायरों में कवियों/शायरों की उस अदा की तरह है जिसमें लोग जबरियन श्रोताओं से तवज्जो चाहते हैं, ताली लूटते हैं।
हम अपने जिन मित्रों का लिखा पढ़ना पसंद करते हैं उनको खोज कर पढ़ते हैं। छूट जाता है तो बाद में पढ़ते हैं। कुछ बहुत अच्छा पढ़ने में देर होती है तो अफसोस भी करते हैं कि देर हो गई पढ़ने में।
टिप्पणी/लाइक कम होने का कारण यह भी है कि आजकल नेट पर चमक-दमक और उलझावों का सैलाब आया है। यह दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। रील है, स्टोरी है, फ़ारवर्डेड सन्देश हैं, गुडमार्निंग है, सुप्रभात है। नित नए बनते ग्रुप हैं। आप अच्छे भले बैठे हैं, पता लगा आपको किसी ग्रुप में शामिल कर लिया गया। आप देओ हाज़िरी दिन रात।
लोगों के पास समय की कमी बहुत बड़ा कारण है टिप्पणी, लाइक कम होने का। अपन दिन भर ऑनलाइन भले रहते हों लेकिन लिखने-पढ़ने के लिए हद से हद घण्टे-दो घण्टे मिल पाते हैं। इतने में कुछ ही मित्रों का लिखा पढ़ पाते हैं। बहुत कम पर टिप्पणी कर पाते हैं। टिप्पणी के जबाब तो और भी कम , देना चाहते हुए हुए भी , बहुत कम दे पाते हैं। लाइक अलबत्ता जरूर कर देते हैं दिल वाले निशान के साथ। लाइक।किया मतलब पढ़ लिया।
कहने का मतलब यह कि अपन ऐसा सोचते हैं कि यह मुफ्त की सुविधा है। यह सुविधा कैसी मिलेगी, कितनी मिलेगी यह देने वाले की मर्जी और फायदे से तय होगी। एक बहुत बड़े बाजार में मुफ्त की ठेलिया लगाने का मौका मिलने जैसी बात है(फिलहाल यही सूझ रहा) यह अभिव्यक्ति की सुविधा। इससे यह आशा रखना कि यह हमें मुफ्त में प्रोत्साहित करेगा, खाम ख्याली होगी।
इसलिए मेरा तो यही मानना है कि लिखते-पढ़ते रहें। पढ़ने लायक लिखेंगे तो पाठक जरूर आएंगे। पढ़ेंगे भी देर सबेर।
बहुत ज्यादा तारीफ और लाइक मिलने से यह गलतफहमी भी हो सकती है कि अपन बहुत अच्छे लेखक हैं। इस गलतफहमी बचना बहुत जरूरी है।
यह हमने अपने समझाने के लिए लिखा। हो सकता है आप इससे अलग सोचते हों।

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Tuesday, November 07, 2023

सपने में सैर और किताबों में दीमक



आजकल घूमना-फिरना स्थगित है। सुबह सोचते हैं शाम को निकलेंगे, शाम को बात सुबह पर टल जाती है। बहाने ठोस और तार्किक रहते हैं तो ज्यादा अफसोस नहीं होता। लेकिन लगता तो है कि निठल्ले हो गए एकदम। जाहिल भी लिख देते लेकिन मन नहीं किया। छोड़ दिया।
तर्क ऐसा जुगाड़ है जिससे इंसान अपना बड़ा से बड़ा अपराध सही ठहरा लेता है। लाखों लोगों की हत्याओं को सही ठहराकर चैन से रह लेता है।
जो काम जगते में नहीं किया वो कल सोते में हुआ। सपने में देखा कि कहीं घूमने निकले हैं। पैदल। थक गए तो किसी सवारी की खोज करने लगे। मिली नहीं। चलते रहे। फिर कोई स्कूटर वाला दिखा। उससे लिफ्ट मांगी। कहा -'जहां तक जा रहे हो छोड़ देना।'
स्कूटर की पीछे सीट पर बैठ गए। वो अपने घर ले गया। बोला -'चाय पीकर जाओ।' हम थोड़ी देर रुके लेकिन चाय पी नहीं। चले आये। फिर इधर-उधर टहलते हुए घर आ गए। रास्ते में क्रासिंग भी मिली। बंद थी। कुछ देर बाद खुली। क्रासिंग खुलने पर लोग ऐसे भागे जैसे किसी बक्से में रखी किताबों में लगी हुई दीमक किताबें खोलने पर बिलबिला कर भागती हैं।
किताब में दीमक वाली बात मतलब बिम्ब आने का कारण यह रहा कि परसों देखा कि बक्से में रखी कई किताबों पर दीमकों ने हमला बोल दिया। गत्ते का बक्सा चाट गईं। फिर किताबें भी। कोई किताब आधी, कोई चौथाई। किसी किताब में बस घुसी ही थी लेकिन उनको खाना शुरू नहीं किया था। कुछ किताबों में तो घुसीं भी लेकिन शायद उनको खाने की हिम्मत नहीं हुई।
इससे कहा जा सकता है कि कुछ किताबें इतनी गरिष्ठ या अपठनीय होती हैं कि उनको दीमक तक नहीं खाती। यह भी हो सकता है कि कुछ दीमकें पढ़ी लिखी होती हों और वे किताबों को पढ़कर ही खाती हों। अपठनीय किताबों को छोड़ देती हों।
बहरहाल किताबों को अब धूप दिखा रहे हैं। जितनी बची हैं कोशिश कर रहे हैं उससे ज्यादा न खराब हों। इन किताबों में कुछ मित्रों द्वारा भेंट की हुई किताबें भी थीं। उनकी खुद की लिखी हुई। कुछ तो इतनी जर्जर हो गईं थीं कि उनको जलाना पड़ा। अफसोस और सुकून दोनों एक साथ हुए। अफसोस किताब जलने का, सुकून उनसे मुक्त होने का।
इतना लिखने के बाद सोच रहे हैं कि सपने में स्कूटर पर लिफ्ट देने वाले को धन्यवाद बोलना भूल ही गए थे, चाय के लिए मना करने पर उसकी घरैतिन को कैसा लगा होगा, दीमक के बारे में लिखने से वो बुरा तो नहीं मानेंगी।
पोस्ट के साथ दीमक़ खाई किताबों की फोटो लगाने के लिए फोटो खींचा था लेकिन लगाया नहीं। यह सोचकर कि दीमक़ बिना कपड़े पहने किताब पर सन बाथ टाइप ले रही है, उसकी फोटो लेकर फेसबुक पर पोस्ट करना उनकी निजता का उल्लंघन होगा।
अलबत्ता जूतों के फ़ोटो लगा रहे हैं । यह भी सोच रहे हैं कि सपने में कौन से जूते पहनकर गये थे। आप कुछ अंदाज़ा लगाकर बताएँ।

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Tuesday, October 31, 2023

रागिनी टाइम्स से बातचीत

 यू ट्यूब चैनल रागिनी टाइम्स के माध्यम से Ragini शाहजहाँपुर और आसपास की खबरों की जानकारी देती रहती हैं।रागिनी शाहजहाँपुर की अकेली रजिस्टर्ड महिला पत्रकार हैं। पिछले दिनों मुलाक़ात हुई तो रागिनी ने पत्रकारिता जीवन के अनुभव और संघर्ष के बारे में जानकारी दी। एयरहोस्टेस बनने के सपने के साथ जीवन शुरू करने वाली रागिनी का सपना है कि वो कुछ ऐसा कर जाएँ की लोग उनको याद करें। “किसके जैसा बनना चाहती हैं?” के जबाब में रागिनी ने जो बताया उससे कानपुर के भगवती चरण दीक्षित ‘घोड़ेवाला’ की बात याद आ गई:

चलो न मिटते पदचिह्नो पर,
अपने रस्ते आप बनाओ।
बहरहाल आप सुने बातचीत और बताएँ कैसा लगा बिना किसी तैयारी के लिया गया रागिनी का इंटरव्यू? ठीक लगे तो रागिनी टाइम्स को सब्सक्राइब भी करें। रागिनी को शुभकामनाएँ।

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Thursday, October 19, 2023

तुम बदल गये हो



आज सुबह की चाय धूप में पी। सामने सूरज भाई दिखे। पेड़ पीछे छिपे। लगता है सुंदर कांड पढ़े हैं हाल में। ‘तरु पल्लव माँ रहा लुकाई’ पढ़कर पेड़ के पीछे छिप गये। सोचे होंगे हनुमान जी बन जाएँगे। लेकिन ऐसा कहीं होता है दुनिया में। कौन समझाए। आजकल कैसी को समझाना भी बवाल है।
बहुत बाद मिले थे सूरज भाई। सोचा शिकायत करेंगे। कहेंगे -‘तुम बदल गये हो।You have changed.’
दोस्तों का प्यार जताने का अपना-अपना अन्दाज़ होता है। कोई पूछता है -‘कैसे हो?’कोई कहता है -‘क्या हाल?’ कोई कहता है -‘दिखते नहीं आजकल।’ ये सब आम अन्दाज़ होते हैं। बहुत अपनापे वाले मित्र के अपने ख़ास अन्दाज़ होते हैं। सिग्नेचर स्टाइल। ‘तुम बदल गये हो’ की शिकायत से बात शुरू होने पर लगता है कि कुछ भी नहीं बदला।
कुछ बोले नहीं सूरज भाई। चमकाते रहे धरती को। हमें भी कुछ सूझा नहीं तो बोल दिया -‘स्मार्ट लग रहे हो।’
कुछ न सूझे तो सामने वाले की किसी भी बात की तारीफ़ करके बात शुरू करना सबसे सुरक्षित होता है। तारीफ़ सुनकर पत्थर भी मुलायम हो जाता है। पानी बन जाता है। तारीफ़ ऐसा ब्रहमाष्त्र होता जिसकी मार से बचना असंभव होता है।
सूरज भाई कुछ बोले नहीं। लेकिन देखकर लगा लाज-लाल हो गये हैं। तारीफ़ सुनकर कुछ न बोलना भी एक अदा है। बड़े लोगों की हर हरकत एक अदा होती है। उनकी हर अदा पर उनके अनुयाई मरते हैं। ज़रूरी नहीं कि अदा अच्छी ही हो। लोग तो अपने नायकों की बुरी अदा पर भी मरते हैं। नायक की चिरकुटई पर मरते हैं। झूठ बोलने की अदा पर मरते हैं। उनकी कमीनगी पर मरते हैं।
ऐसा शायद इसलिए होता है कि लोग अपने नायक के माध्यम से अपनी उन इच्छाओं को पूरा होते देखते हैं जो उनकी ख़ुद की होती हैं लेकिन वो ख़ुद कर नहीं पाते। उनका नायक उसको करता है। अपनी इच्छा को नायक के माध्यम से पूरी होते देख वे तड़ से नायक के अनुयायी बन जाते हैं। उसकी अदा पर मर जाते हैं।
सूरज भाई कुछ बोले नहीं। काम से लगे रहे । हमने सोचा कितना ज़िम्मेदारी से काम करते हैं सूरज भाई। ये न हों तो दिन न निकले। नंदन जी कहते भी हैं:
‘जिसे दिन बताये दुनिया , वो तो आग का सफ़र है,
चलता तो सिर्फ़ सूरज है , कोई दूसरा नहीं है ।’
देखते -देखते सूरज भाई ऊपर होते गये। पूरी दुनिया में रोशनी और गरमाहट सप्लाई करने लगे। हमने भी इधर-उधर देखना शुरू किया।
जिस जगह बैठे थे वहाँ से घर के बाहर लॉन में खड़ा पेड़ दिखा। ऐसा लगा कि पेड़ घर के सामने हाथ जोड़कर खड़ा है। सुबह की नमस्ते कर रहा हो। किसी बड़े नेता के चिल्लर चमचे की मुद्रा में उसका पत्ता -पत्ता कह रहा था -‘तुमको जो पसंद हो वही बात करेंगे/तुम दिन को कहो रात तो रात कहेंगे।’
यह गाना जब सुना था तो लगा था कितना लगाव वाला भाव है। लेकिन आज लगा कि लगाव नहीं यह ख़ुद का बचाव है। जैसे राजनीति में पार्टियां व्हिप जारी करती हैं। सब लोग पार्टी लाइन के हिसाब से चलते हैं। अलग हुए तो पार्टी बदर। इसी भाव के घराने का गीत है यह -‘तुमको जो पसंद है वही बात करेंगे।’
घर के सामने झुके खड़े पेड़ को देखकर यह भी लगा मानो आलाकमान के सामने कोई टिकटयाचक विनयवत चुपचाप मौन खड़ा हो। उसके मौन के रोम-रोम से चीत्कार निकल रही हो -‘ तू दयालु दीन हौ, तू दास हौ भिखारी।’
जनसेवा का काम आसान नहीं होता है। ‘एक आग का दरिया है और डूब के जाना है’ घराने का काम होता है।
कुछ देर बाद पेड़ को फिर देखा तो उसकी शक्ल डायनाशोर सरीखी लगी। डायनाशोर तो निपट गये न जाने कितने पहले। अब पेड़ बेचारा खड़ा मकान के सामने विनय पूर्वक अपनी जान की अमान माँग रहा है। उसको लगता होगा कि यह चाहेगा तो वह बचा रहेगा। उसको क्या पता कि मकान तो बना ही बेजान चीजों से है। जबकि वह ख़ुद ज़िंदा है। लेकिन पेड़ को कौन समझाए। डरा हुआ है बेचारा। डरा हुआ जीव तो जो भी सामने दिखता है उसके सामने झुक जाता है। जान की भीख माँगने लगता है। उसको क्या पता कि सामने वाला भी उतना ही निरीह है। कैसी के मोहरे हैं। उसके कातिल तो कहीं और बैठे तमाशा कर रहे हैं।
पेड़ की बात सोचकर हमको दुनिया भर में अपनी ज़िंदगी की जंग लड़ते अनगिनत लोग याद आते हैं। वो न जाने किसके सामने झुककर अपनी ज़िंदगी बचाने की कोशिश में जुटे होंगे। उनके कातिल न जाने कहाँ बैठे उनके क़तल का इंतज़ाम पुख़्ता करते हुये उनके बचाव की योजनाएँ बनाने का दिखावा कर रहे होंगे। शातिर क़ातिलों की यही अदा है।
सुबह सुबह कहाँ क़त्ल और क़ातिलों का ज़िक्र आ गया बातचीत में। सूरज भाई आसमान से मुस्कराते हुए कह रहे हैं -‘ तुमने बेवक़ूफ़ी का दामन मज़बूती से थाम रखा है। अभी तक बदले नहीं ।’

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Wednesday, October 11, 2023

मेरा दिल ये पुकारे आ जा



शाहजहांपुर से वापस लौटने के पहले पंकज से मिलने गए। एक दिन पहले बातचीत के दौरान रागिनी Ragini ने बताया कि पंकज हमको याद करता है। उसी समय सोचा था कि जाने से पहले मिलेंगे पंकज से।
पंकज से मुलाकात कोरोना काल के दौरान हुई थी। गाने के शौकीन पंकज का अपना बैंड था -'शंकर बैंड।' उधार लेकर बैंड बनाया था। कोरोना काल में शादी-ब्याह में बैंड-बाजे बजे नहीं। काम बंद हो गया। कर्जा चुकाने के लिए बैंड के सब आइटम बेचने पड़े। रोजी-रोटी के लिए चाय की दुकान पर आ गए। गाने का शौक बरकरार रहा। जब भी जाते थे चाय पीने, पंकज का गाना जरूर सुनते थे।
कोरोना काल में तमाम लोगों के रोजगार तबाह हुए। होटल वाले, टूरिस्ट, ट्रांसपोर्ट और तमाम काम ठप्प हो गए। लोगों को लोन की किस्तें चुकाने के लिए गाड़ियां बेंचनी पड़ी। तमाम लोगों को लिए कोरोना एक भयावह याद की तरह है। लोग अभी भी उसके सदमे से उबर नहीं पाए हैं।
पंकज से सुबह मिलने के लिए गए। शाहिद रजा Shahid Raza जी को भी साथ ले लिया कहते हुए चलो बाहर चाय पीते हैं। गए जब तो पंकज का चाय का ठेला कहीं दिखा नहीं। हमे लगा शायद उसकी दुकान बंद हो गयी। लौट आये बिना चाय लिए।
शाहजहांपुर से चलते हुए हालांकि देर हो गयी थी लेकिन सोचा कि एक बार देखते हुए जाएं शायद पंकज की दुकान खुल गयी हो।
गए तो देखा दुकान खुली थी। पंकज के पापा थे दुकान पर। अब दुकान ठेले पर नहीं पक्की जगह थी। यह दुकान पहले किराए पर दी थी। किरायेदार का उधार था। वह चुकाकर उससे दुकान खाली करवाई और दुकान शुरू की। दुकान में बैठने की जगह भी थी। कुछ लोग अंदर बैठे चाय पी रहे थे। पीछे दुकान का नाम भी लिखा था -Yes tea.
पंकज ने बताया कि उनकी दुकान अब अच्छी चल रही है। बड़े भगौने में रखे दूध की तरफ इशारा करते हुए बताया -'सब दूध खत्म हो जाता है। शाम को फिर आता है। देर रात , ग्यारह-बारह बजे तक चलती है दुकान।
देर रात दुकान चलने के कारण ही सुबह देर से खुलती है दुकान।
पंकज ने बताया कि अब मम्मी की तबियत ठीक रहती है। बैंड वाले दोस्त जिससे थोड़ा मन-मुटाव था उससे भी फिर से दोस्ती हो गयी है। शादी के लिए मम्मी लड़की देख रही हैं। लड़की कैसी चाहिए पूछनी पर बताया -'जो घर में सबके साथ एडजस्ट करके चल सके।'
दांत कुछ साफ दिखे बालक के। पूछने पर बताया -'अब मसाला खाना बंद कर दिया। ' मुंह खोलकर दिखाया भी। मुंह में अधचुसा कम्पट जीभ की पिच पर पड़ा दिख रहा था।
मसाला खाना बंद कैसे किया ?पूछने पर बताया -'लगता था कि खराब आदत है। आप भी समझाते थे। फिर एक दिन सोचा नहीं खाना है। छोड़ दिया। अब तो महीनों हो गए खाये हुए।'
चलने के पहले गाना सुनाने को कहा। पंकज ने एक क्षण ठहरकर गाना सुनाया -'मेरा दिल ये पुकारे आ जा।' गाना सुनकर लगा कि गाना -गुनगुनाना कम हो गया है पंकज का। रोजी-रोटी की जंग में इंसान अपनी सबसे मनचाही आदत भी भुला देता है। हमने कहा -'गाते रहा करो।'
चलते समय सामने कहीं से आवाज आती सुनाई दी। लगा कोई बुला रहा है। इधर-उधर कोई दिखा नहीं। फिर देखा सड़क पार अपने घर के टेरेस से शुक्ला जी आवाज देकर इशारे कर रहे थे। बुला रहे थे।
शुक्ला जी फैक्ट्री से रिटायर हैं। बोलने-सुनने के मामले में दिव्यांग। लोग बताते हैं कि शाही तबियत के शुक्ला जी खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन दोस्तों को बुलाकर सिगरेट पिलाते थे। अनोखी आदत। पंकज की दुकान पर ही उनसे मुलाकात हुई थी। फिर अकसर होती रही। हमको देखकर सलाम किया। हमने भी नमस्कार किया। थोड़ी देर इशारे-इशारे में बात हुई। सब ठीक-ठाक का आदान-प्रदान हुआ और हम चल दिये कानपुर की तरफ।

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Tuesday, October 10, 2023

कचरा आर्ट से बनी कलाकॄति



सबेरे मार्निंग वाकर समूह के साथियों के साथ चाय पीने के बाद सैफ Saif Aslam Khan में साथ उनकी बनाई कलाकृति देखने गए। उनकी मोटरसाइकिल के पीछे बैठकर।
शाहजहाँपुर आफिसर्स कालोनी की के तिराहे पर बने छुटके पार्क में गांधी जयंती के मौके पर सैफ की डिजाइन की हुई कलाकृति का लोकार्पण हुआ। स्वच्छता ही सेवा अभियान के अंतर्गत छावनी परिषद शाहजहांपुर द्वारा प्लास्टिक की प्रयोग की गई बोतलों को ग्लोब के आकार में जोड़कर इस कलाकॄति का निर्माण किया गया। पुरानी बोतलों से बनाई इस कलाकॄति को 'कचरा आर्ट' नाम दिया गया। प्रयोग की हुई वस्तुओं से बनी कृति को 'कचरा आर्ट' नाम दिया गया। इससे यह भी लगता है कि यह बेकार का काम है। कुछ और बेहतर नाम रखा जा सकता था।
प्लाष्टिक ग्लोब में बोतलें एक गोलाकार जाली से के ऊपर तारों से बंधी थीं। कुल 1032 बोतलों से बना था प्लास्टिक ग्लोब। ग्रीन फ्यूचर कलेक्टिव संस्था और आर्टिस्ट सैफ ने मिलकर इस ग्लोब को बनाया था। प्रदेश के कैबिनेट मंत्री जी ने इसका लोकार्पण किया था। सैफ के नाम से सैफ गायब था। बोर्ड में उनका नाम असलम खान लिखा था। साथ न होते और बताते नहीं तो हम समझ ही न पाते कि इसके बनाने में सैफ की भी कोई भूमिका है। जल्दबाजी में ऐसे नाम गायब होते हैं।
बाद में छावनी बोर्ड के अधिकारियों से बातचीत करने पर पता चला कि प्लास्टिक ग्लोब की कुल लागत तकरीबन 70-75 हजार रुपये आई।
चंडीगढ़ के राकगार्डन की तर्ज पर बनाये इस प्लास्टिक ग्लोब जैसी अनेक योजनाएं हैं सैफ के पास। एक पत्रिका निकलना भी उनकी योजना में शामिल है। उत्साह भी है। लोग सराहना भी करते हैं। लेकिन योजनाओं में अमल के लिए पैसे की दरकार होती है। उसका इंतजाम शाहजहांपुर में रहते मुश्किल है। लेकिन उम्मीद तो है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सैफ शाहजहांपुर आने के पहले दिल्ली में काम करते थे। वहां काम मिल जाता था। आमदनी भी होती थी। शाहजहांपुर में दोनों की किल्लत है। गए साल पिताजी के न रहने से घर संभालने की जिम्मेदारी भी आ गयी है। बहुत कठिनाइयां हैं कला की दुनिया की।
सैफ को अपनी भतीजी को स्कूल छोड़ने के लिए निकलना था। जाने के पहले कुछ फोटो और सेल्फी ली हमने। बाद में स्कूल जाते एक बच्चे को पकड़कर उससे भी फोटो खिंचवाई। इस आस में कि क्या पता कोई फोटो अच्छा आ जाये। बच्चा सेंट पॉल में पढ़ता है। ग्यारह में। चलते-चलते उसने हमारी फोटो खींचकर मोबाइल वापस कर दिया। सैफ अपनी भतीजी की छोड़ने चले गए। अपन पैदल वापस चल दिये।
पैदल वापस आते हुए स्कूल से लाउडस्पीकर पर गाया जाता राष्ट्रगान सुनाई दिया। सुनते ही हम फुटपाथ पर खड़े हो गए। राष्ट्रगान खत्म होने पर आगे बढ़े। आगे बीच सड़क पर दो घोड़े शांत , सावधान मुद्रा में खड़े दिखे। ऐसे जैसे वे भी राष्ट्रगान सुनकर ही सावधान हो गए हों। लेकिन वे बाद में बहुत देर तक उसी मुद्रा में खड़े रहे तो लगा कि वे ऐसे ही निठल्ले खड़े हैं। पोज देने वाली स्टाइल में। उनको देखकर लगा कि जानवर भी इंसानों की तरह अपने निठल्लेपन को अनुशासन बताना सीख गये हैं। संगत का असर ।
हम उनकी बगल से होते हुए निकले, उनकी फोटो खींची तब भी वे ऐसे ही चुपचाप खड़े रहे। इससे लगा कि वे शायद धूप सेंकने के लिए खड़े हो गए हों। टैनिंग के मूड से। उनसे कुछ पूछना ठीक नहीं लगा। किसी की निजता में उल्लंघन क्या करना।
आहिस्ते-आहिस्ते चलते हुए हम मार्निंग वाकर ग्रुप की बेच के बगल से होते हुए वापस गेस्ट हाउस आ गए। अगले दिन फिर गए सुबह तो वहां मिश्र जी ने शेरो-शाइरी भी सुनी गई।

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Sunday, October 08, 2023

प्रोटोकॉल का हल्ला और सुबह की चाय

 



मार्निंग वाकर ग्रूप मतलब ‘सुबह टहलुआ समूह’ के सदस्यों के साथ काफी देर तक बतियाये। गपियाये। कोई भी नया साथी आये उससे नए सिरे से मुलाक़ात। सीतापुर वाले मुंशी जी के बारे में पता चला कि बहुत दिन से दिखे नहीं। चने बेचने वाला बच्चा भी नहीं दिखा।
अपन बेंच नंबर सात वाली फुटपाथ की तरफ थे। सामने की तरफ वाली फुटपाथ पर लगी बेंचों पर लोग बैठे थे। कसरत कर रहे थे। बतिया रहे थे। सड़क पर आते-जाते लोगों को देख रहे थे। बदले में लोग भी उनको देखते हुए गुजर रहे थे। किसी ने कहा भी है –‘आप जो व्यवहार लोगों के साथ करेंगे, लोग भी आपके साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे।‘
कुछ देर बाद तय हुआ कि चाय पी जाए। सबेरे बिना दूध की पी हुई आधी चाय यादों में कसक रही थी। मंदिर के पीछे बनी चाय की दूकान की तरफ जाते हुए तिराहे पर नया खुला ‘भारत ढाबा’ दिखा। लोगों ने बताया कि काफी गुलजार रहता है। लोग आते हैं। बैठते हैं। खाते-पीते हैं। बतियाते हैं। मीटिंग प्वाइंट जैसा कुछ। तिराहे के पास खाली पडी जमीन को जंगले से घेरकर बने ढाबे में मेज-कुर्सी रखी हुई थी। सुबह नहीं खुलता है ढाबा।
ढाबे को देखकर हमको याद आया कि पहले यहां ठेले वाले फल, सब्जी , भुट्टे और तमाम चीजें बेंचा करते थे। अब ढाबा खुल जाने के बाद वे कहाँ खड़े होते होंगे। पहले सुरक्षा कारणों से यहाँ किसी दूकान चलाने की अनुमति देने की बात सोची भी नहीं जाती थी। बदली परिस्थितियों में आमदनी के सभी संभावित मौके भुनाए जाने के समय में जहाँ से भी संभव हो, पैसा आना चाहिए।
चाय की दूकान की तरफ जाते हुए साथ के एक सज्जन ने पूछा –“ढाबे में बैठकर चाय पीने में आपके लिए प्रोटोकाल की कोई समस्या तो नहीं होगी?’
हमने कहा –‘ढाबे में चाय पीने में क्या प्रोटोकाल?’ दोस्तों के साथ ढाबे में बैठकर चाय पीने से भी क्या किसी प्रोटोकाल का उल्लंधन होता है? इंसान के साथ इंसान की मुलाक़ात का भी कोई प्रोटोकाल होता है क्या ?
होता नहीं है लेकिन आधुनिक होते समाज में प्रोटोकाल का हल्ला बड़ी तेजी से बढ़ा है। लोग अपने जनप्रतिनिधियों , बड़े अधिकारियों से सहज रूप में मिल नहीं सकते। यह प्रोटोकाल कभी सुरक्षा कारणों से लगता है और बाकिया पद के चलते। ऊँचे पद के साथ लोगों के यह एहसास होता है कि आम लोगों से मिलने-जुलने से उनके रुतबे में कभी हो जायेगी। अक्सर उनको उनके मातहत अपने साहब को यह एहसास दिलाते हैं कि आम लोगों से मिलने आपका रुआब कम हो जाएगा।
कल भी ऐसा हुआ। शाम को कुछ लोग मिलने आये तो बताया कि वे आ तो पहले गए थे लेकिन दरबान ने बताया कि साहब आराम कर रहे हैं। हमको ताज्जुब हुआ। हम तो दिन भर निठल्ले बैठे थे। न किसी को आने से रोकने के लिए कहा था । न आराम करने की बात । लेकिन मिलने वालों को इन्तजार कराया गया। प्रोटोकाल की महिमा अनंत हैं।
प्रोटोकाल की बात से जावेद अख्तर जी का सुनाया एक संस्मरण याद आया। छात्र जीवन में नेहरु जी उनके संस्थान आये थे। नेहरू जी के विदा होते समय जावेद साहब भागते हुए उनकी कार के फुटरेस्ट पर चढ़ गए और अपनी आटोग्राफ बुक नेहरू जी के सामने करके बोले –‘आटोग्राफ प्लीज।‘ नेहरू जी ने अचकचा कर उनको देखा और उनकी आटोग्राफ बुक में दस्तखत कर दिए। आज के समय दुनिया के किसी भी देश के प्रधानमत्री/राष्ट्रपति से इतनी सुगमता से मिलना और दस्तखत लेने की सोच भी नहीं सकते।
चाय की दूकान चाय आई। ग्लास में दूध की चाय देखकर मन खुश हुआ। खुशी में इजाफा करते हुए पकौड़ियाँ भी आयीं। बतरस के बीच सब चाय और पकौड़ी को आनंद के साथ उदरस्थ किया गया। वहां फोटोग्राफी और विडियोग्राफी भी हुई। वीडियो कमेंट्री के साथ यहाँ लगा है।
चलते समय हमने लपककर चाय के पैसे दे दिए। हिसाब नहीं पूछा इस लिए कि अगर हिसाब पूछेंगे तो फिर पैसे देने से रह जायेंगे। एतराज हुआ भी। चाय वाला भी इधर-उधर ताकता हुआ लेने , न लेने की मुद्रा में खड़ा रहा। हमने जबरियन पैसे उसकी कमीज की ऊपर की जेब में ठूस दिए। जेब में पैसे ठूंसने से नोट थोड़ा भुनभुनाया होगा। थोड़ी सलवटें भी आ गयीं उसके ठूंसे जाने से। उसको अपनी बेइज्जती भी खराब होती लगी होगी कि आज की तारीख में सबसे बड़ा नोट होने के बावजूद उसके साथ सुबह-सुबह इतनी जबरदस्ती हो।
चाय पीने के दौरान दूकान वाले ने बताया कि इसी महीने से किराया बढ़ गया है। पचास रूपया रोज हो गया है। किराए की बढ़ोत्तरी की सूचना देने के साथ ही उसने दूकान की छत से दिखते आसमान को दिखाया। हमने कहा –‘हो जाएगी मरम्मत भी। चिंता न करो।‘ वह कुछ बोला नहीं लेकिन हमारे कहने के बावजूद उसके चेहरे से चिंता के भाव गए नहीं।
चिंता जहाँ भी जाती है, वहां तसल्ली से रहती है। वापस आने की हडबडी नहीं रहती उसको। उसको इस बात की कोई फिकर नहीं रहती कि उसकी रिहायश से किसी को कोई तकलीफ है कि नहीं। चिंता की ख़ासियत है कि वो आती तेज़ी से है लेकिन जाती बहुत धीमे से है।
पैसे देकर अपन दूकान के बाहर आ गए। बाकी पैसे भी –‘चिल्लर धरे रहो’ वाले अंदाज में उससे लिए नहीं।
चाय की दूकान से निकलकर मार्निंग वाकर तो अपने-अपने घरों की तरफ प्रयाण कर गए । अपन सैफ Saif Aslam Khan की मोटर साइकिल पर बैठकर कैंट में पर्यावरण दिवस के मौके पर उनकी बनाई कृति देखने चल दिए ।

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