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“स्मृतियों में रूस “- एक पाठक की नजर से
By फ़ुरसतिया on March 30, 2012
पिछली बार कानपुर जाने के लिये गाड़ी में बैठे। चित्रकूट एक्सप्रेस खुली आठ चालीस पर। इधर गाड़ी खुली उधर शिखा वार्ष्णेय की किताब “स्मृतियों में रूस”!
शुरु पन्ने से आखिर तक पहुंचने पर टाइम देखा तो मोबाइल नौ बजकर पैंतालीस
मिनट बता रहा था। पूरे पचपन पन्ने एक घंटा पांच मिनट में बांच गये।
किताब खतम करते ही प्रतिक्रिया के लिये मुझे सबसे पहले याद आया मुन्ना भाई एम.बी.बी.बी.एस. में सर्किट का डायलाग- अरे भाई ये कमरा तो शुरु होते ही खतम हो गया।
किताब के बारे में भी मुझे यही लगा कि किताब तो शुरु होते ही खतम हो गयी।
यह बात किताब के रोचक होने का स्पष्ट प्रमाण है। किताब के बारे में और कोई बात भले कोई कहे लेकिन यह पक्की है कि लिखने की शैली रोचक है। पढ़ने वाला अगर पेंसिल लेकर गलती पकड़ने के लिये प्रूफ़रीडर की तरह गरदन झुकाये नहीं बैठा तो वह इसकी रोचकता के हमले से घायल हुये बिना नहीं रह सकता। यही मेरी समझ में इस संस्मरणिका ( कम लिखे इसलिये यही कहना ही ठीक है न! ) की जान है। बाकी तो बड़े लोगों की बाते हैं।
सच पूछिये तो शिखा जी के अब तक के लेखन का सबसे उम्दा हिस्सा मुझे वही लगता है जिसमें उन्होंने अपने संस्मरण लिखे हैं। रूस के संस्मरणों के अलावा लंदन में रहने हुये भी उनके कुछ बहुत अच्छे संस्मरण मैंने पढ़े हैं । इन संस्मरणों में लंदन की वे तस्वीरे भी हैं जिनके बारे में आम लोग नहीं लिखते।
शिखा जी से अपना परिचय एक ब्लॉगर के नाते ही है। हमारे देखते-देखते उन्होंने उन्होंने अपने रूस प्रवास के संस्मरण लिखने शुरु किये। वे अपन को बेइंतहा पसंद आये। किताब में शामिल लगभग सभी लेख पहले ही बांच भी रखे थे पोस्ट में। खूब तारीफ़ भी उन पोस्टों की। क्या करते अगला संस्मरण पढ़ने का लालच जो था।
खुदा झूठ न बुलाये इसी झांसे में उनकी तमाम कवितायें भी बांच गये। न केवल बांची बल्कि उम्दा/बेहतरीन/बहुत अच्छा भी कह गये उनके बारे में – यह सोचते हुये कि ये निकल जायेंगी तो फ़िर संस्मरण/लेख भी आयेंगे।
जब किताब छपी तो हल्ला हुआ कि यहां मिलेगी। वहां मिलेगी। लेकिन कहीं न मिली। वो भला हो अपने आशीष बाबू का कि उन्होंने मुझे जबलपुर किताब भेज दी कोरियर से। आगे का किस्सा हम शुरु करते ही बता चुके हैं।
किताब की तारीफ़ में बहुत लोग बहुत कुछ कह चुके हैं। चकाचक समीक्षायें कर चुके हैं। अपनी विहंगम दृष्टि डाल चुके हैं। उनमें नया जोड़ने का कुछ है नही। खंडन करने की हिम्मत नहीं। अब वित्त वर्ष खतम होते-होते क्या नया खाता खोलना। भाई लोगों ने कहा -बुराई भी लिखोगे तो कौन कोई सुपारी दिये बैठा है कि बुराई लिखे तो निपटा देगा। लेकिन अपन का मानना है कि लोग सुपारी क्या -कत्था,चूना, तम्बाकू तक लिये हमेशा तैयार रहते हैं। मौका मिला नहीं कि लाल हो जाते हैं। कर देते हैं। अब यह लाल शर्म के मारे है या गुस्से के मारे या किसी और के मारे यह अंदर की बात है।
न मैं कोई समीक्षक हूं न वे कोई जमी-जमाई लेखिका कि मेरा यह इस तरह लिखना जरूरी हो कि -लेखिका ने ये नयी जमीन तोड़ी है/ यहां वे चूकी हैं/ये बात उनको इस तरह नहीं उस तरह लिखनी चाहिये। आदि-इत्यादि। बल्कि सच कहूं तो ब्लॉगजगत से जुड़े होने के चलते शिखाजी की किताब के बारे में मेरे विचार उसी तरह के हैं जैसे घर-परिवार के लोग कुछ भी करते हैं वो अच्छा लगता है।
जैसा कि लिखा कि किताब की सबसे बड़ी ताकत इसकी रोचक शैली है। इसकी पठनीयता है। पढ़ते समय एकाध जगह (कुछ मुहावरे) छोड़कर कहीं अटकन भी नहीं हुई। सरपट पढ़ा ले गयी किताब अपने को। किताब के रोचक अंशों के बारे में कई मित्रों ने लिखा है। उनको दोहराने के बजाय मैं उनका लिंक आखिरी में दे दूंगा।
शिखाजी ने अपने 1990 से 1996 के रूस प्रवास के किस्से इस किताब में लिखे हैं। रूसी जीवन की कई झलकियां हैं किताब में। रूस के अपनी यादें उन्होंने पन्द्रह साल बाद माउसबद्ध की हैं। ऐसे में कई यादें दायें-बायें हो जाती हैं। केवल प्रमुख घटनायें याद रह जाती हैं। वह भी उस रूप में जिस रूप में लिखने वाले को याद रहीं।
संस्मरण लेखक स्मृतियों के बहाने अपने बारे में भी बताता चलता है। शिखाजी किताब पढ़ने के बाद उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलू जो उन्होंने खुद बताये हैं:
फोटो ब्लैक एंड व्हाइट हैं। देखने से लगता है रंगीन होते तो अच्छा लगते। क्या पता अगले संस्मरण में रंगीन छपें तो हम कहें इससे अच्छा तो काले-सफ़ेद ही सही।
छपाई चकाचक है। कवर पेज सबसे खूबसूरत है। प्रूफ़ के बारे में बताया कि किताब इत्ती रोचक है कि कहीं कुछ गलती दिखी नहीं। यह तक नहीं दिखा उस दिन कि विषय सूची में क्रम संख्या 12 दो बार छप गया है।
इस किताब पर लिखना कई दिन से उधार था। आज लिखा ही गया इस साल का लिखाई का टारगेट पूरा।
शिखाजी को इस पहली किताब के लिये खूब सारी बधाई। बकौल कैलाश वुधवार- ईमानदार संस्मरण। लम्बी नाक वाली ब्लॉगर लेखिका को आगे कई किताबें छपने के लिये ढेर सारी मंगलकामनायें।
2. किताब के बारे में लिखी गयी कुछ समीक्षायें-1 ,2 3, 4, 5, 6 ,7, 8, 9, 10
3. पुस्तक के प्रकाशक हैं- ’डायमंड पब्लिकेशन’ मूल्य है — 300 /रूपये
4. किताब मंगाने के लिये यहां क्लिक करें।
किताब खतम करते ही प्रतिक्रिया के लिये मुझे सबसे पहले याद आया मुन्ना भाई एम.बी.बी.बी.एस. में सर्किट का डायलाग- अरे भाई ये कमरा तो शुरु होते ही खतम हो गया।
किताब के बारे में भी मुझे यही लगा कि किताब तो शुरु होते ही खतम हो गयी।
यह बात किताब के रोचक होने का स्पष्ट प्रमाण है। किताब के बारे में और कोई बात भले कोई कहे लेकिन यह पक्की है कि लिखने की शैली रोचक है। पढ़ने वाला अगर पेंसिल लेकर गलती पकड़ने के लिये प्रूफ़रीडर की तरह गरदन झुकाये नहीं बैठा तो वह इसकी रोचकता के हमले से घायल हुये बिना नहीं रह सकता। यही मेरी समझ में इस संस्मरणिका ( कम लिखे इसलिये यही कहना ही ठीक है न! ) की जान है। बाकी तो बड़े लोगों की बाते हैं।
सच पूछिये तो शिखा जी के अब तक के लेखन का सबसे उम्दा हिस्सा मुझे वही लगता है जिसमें उन्होंने अपने संस्मरण लिखे हैं। रूस के संस्मरणों के अलावा लंदन में रहने हुये भी उनके कुछ बहुत अच्छे संस्मरण मैंने पढ़े हैं । इन संस्मरणों में लंदन की वे तस्वीरे भी हैं जिनके बारे में आम लोग नहीं लिखते।
शिखा जी से अपना परिचय एक ब्लॉगर के नाते ही है। हमारे देखते-देखते उन्होंने उन्होंने अपने रूस प्रवास के संस्मरण लिखने शुरु किये। वे अपन को बेइंतहा पसंद आये। किताब में शामिल लगभग सभी लेख पहले ही बांच भी रखे थे पोस्ट में। खूब तारीफ़ भी उन पोस्टों की। क्या करते अगला संस्मरण पढ़ने का लालच जो था।
खुदा झूठ न बुलाये इसी झांसे में उनकी तमाम कवितायें भी बांच गये। न केवल बांची बल्कि उम्दा/बेहतरीन/बहुत अच्छा भी कह गये उनके बारे में – यह सोचते हुये कि ये निकल जायेंगी तो फ़िर संस्मरण/लेख भी आयेंगे।
जब किताब छपी तो हल्ला हुआ कि यहां मिलेगी। वहां मिलेगी। लेकिन कहीं न मिली। वो भला हो अपने आशीष बाबू का कि उन्होंने मुझे जबलपुर किताब भेज दी कोरियर से। आगे का किस्सा हम शुरु करते ही बता चुके हैं।
किताब की तारीफ़ में बहुत लोग बहुत कुछ कह चुके हैं। चकाचक समीक्षायें कर चुके हैं। अपनी विहंगम दृष्टि डाल चुके हैं। उनमें नया जोड़ने का कुछ है नही। खंडन करने की हिम्मत नहीं। अब वित्त वर्ष खतम होते-होते क्या नया खाता खोलना। भाई लोगों ने कहा -बुराई भी लिखोगे तो कौन कोई सुपारी दिये बैठा है कि बुराई लिखे तो निपटा देगा। लेकिन अपन का मानना है कि लोग सुपारी क्या -कत्था,चूना, तम्बाकू तक लिये हमेशा तैयार रहते हैं। मौका मिला नहीं कि लाल हो जाते हैं। कर देते हैं। अब यह लाल शर्म के मारे है या गुस्से के मारे या किसी और के मारे यह अंदर की बात है।
न मैं कोई समीक्षक हूं न वे कोई जमी-जमाई लेखिका कि मेरा यह इस तरह लिखना जरूरी हो कि -लेखिका ने ये नयी जमीन तोड़ी है/ यहां वे चूकी हैं/ये बात उनको इस तरह नहीं उस तरह लिखनी चाहिये। आदि-इत्यादि। बल्कि सच कहूं तो ब्लॉगजगत से जुड़े होने के चलते शिखाजी की किताब के बारे में मेरे विचार उसी तरह के हैं जैसे घर-परिवार के लोग कुछ भी करते हैं वो अच्छा लगता है।
जैसा कि लिखा कि किताब की सबसे बड़ी ताकत इसकी रोचक शैली है। इसकी पठनीयता है। पढ़ते समय एकाध जगह (कुछ मुहावरे) छोड़कर कहीं अटकन भी नहीं हुई। सरपट पढ़ा ले गयी किताब अपने को। किताब के रोचक अंशों के बारे में कई मित्रों ने लिखा है। उनको दोहराने के बजाय मैं उनका लिंक आखिरी में दे दूंगा।
शिखाजी ने अपने 1990 से 1996 के रूस प्रवास के किस्से इस किताब में लिखे हैं। रूसी जीवन की कई झलकियां हैं किताब में। रूस के अपनी यादें उन्होंने पन्द्रह साल बाद माउसबद्ध की हैं। ऐसे में कई यादें दायें-बायें हो जाती हैं। केवल प्रमुख घटनायें याद रह जाती हैं। वह भी उस रूप में जिस रूप में लिखने वाले को याद रहीं।
संस्मरण लेखक स्मृतियों के बहाने अपने बारे में भी बताता चलता है। शिखाजी किताब पढ़ने के बाद उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलू जो उन्होंने खुद बताये हैं:
- लम्बी नाक वाली : अपने को लम्बी नाक वाला बताते हुये शिखाजी ने लिखा है- परेशानी हम जैसी लड़कियों की थी जिन्हे सारे काम खुद करने का शौक था और नाक इतनी लम्बी कि किसी से मदद की गुहार करना अपनी शान के खिलाफ़ लगता था (पेज 22) , हम जैसे कुछ लम्बी नाक वाले मजबूरी में ही घर से जरूरत के लायक ही पैसे मंगाया करते थे (पेज 57) यह पढ़ने के बाद अपन ने सोचा कि जब कभी शिखाजी के बारे में लिखना होगा तो उसका शीर्षक रखेंगे- शिखा वार्ष्णेय- लम्बी नाक वाली ब्लॉगर।
- मेहनती/हिम्मती/दृढ़संकल्पवान: कई मौकों पर यह बात संस्मरण में आई है- मैंने सोचा कि जब तक पैसे हैं कोशिश करते हैं, नहीं तो वापस चले जायेंगे। आपका दाना-पानी जहां जब तक बदा है, उससे कोई पार नहीं पा सकता है।( पेज 27)
- परिस्थिति के हिसाब से चलना: ….पर हम 4-5 लोगों को कहीं पनाह न मिली। कोई चारा न देख हमने अपना सामान ट्रेन स्टेशन के लाकरूम में रख दिया और वहीं स्टेशन की बेंच पर डेरा डाल दिया। अब रोज सुबह उठते ही स्टेशन पर हाथ मुंह धोते और अपने आयोजकों से मिलते। (पेज 26)
- समझदार/व्यवहारकुशल: किताब के आखिरी अध्याय में यह किस्सा है। तमाम मेहनत के बावजूद जब टीचर 4 नम्बर से अधिक देने को राजी नहीं होती तो वे ” मुझे पता है 5 नंबर कैसे मिलते हैं और अब मैं वैसी ही ले लूंगी” (पेज 73) कहकर दनदनाते हुये निकल गई कमरे से। और लोगों की तरह बाजार से जाकर एक खूबसूरत सा तोहफ़ा खरीदा और लेकर पहुंच गई उस टीचर के पास परीक्षा देने। बाद में टीचर ने तैयारी के आधार पर 5 नंबर दिये और वे विश्वविद्यालय में शिखाजी ने टाप किया। इस संस्मरण शिखाजी के पढ़ाई वाले दिनों के व्यक्तित्व के उस पहलू की झलक दिखलाता है जहां तमाम मेहनत के बाद साध्य और साधन की पवित्रता के चोचले में पड़ने की बजाय यह सीख मिलती है उनको – अपना हक किसी को मिलता नहीं , मांगना पड़ता है और मांगने पर भी न मिले तो छीनना पड़ता है।
फोटो ब्लैक एंड व्हाइट हैं। देखने से लगता है रंगीन होते तो अच्छा लगते। क्या पता अगले संस्मरण में रंगीन छपें तो हम कहें इससे अच्छा तो काले-सफ़ेद ही सही।
छपाई चकाचक है। कवर पेज सबसे खूबसूरत है। प्रूफ़ के बारे में बताया कि किताब इत्ती रोचक है कि कहीं कुछ गलती दिखी नहीं। यह तक नहीं दिखा उस दिन कि विषय सूची में क्रम संख्या 12 दो बार छप गया है।
इस किताब पर लिखना कई दिन से उधार था। आज लिखा ही गया इस साल का लिखाई का टारगेट पूरा।
शिखाजी को इस पहली किताब के लिये खूब सारी बधाई। बकौल कैलाश वुधवार- ईमानदार संस्मरण। लम्बी नाक वाली ब्लॉगर लेखिका को आगे कई किताबें छपने के लिये ढेर सारी मंगलकामनायें।
ये भी देख लें:
1. कैलाश वुधवार जी का संस्मरण के अवसर पर दिया गया वक्तव्य2. किताब के बारे में लिखी गयी कुछ समीक्षायें-1 ,2 3, 4, 5, 6 ,7, 8, 9, 10
3. पुस्तक के प्रकाशक हैं- ’डायमंड पब्लिकेशन’ मूल्य है — 300 /रूपये
4. किताब मंगाने के लिये यहां क्लिक करें।
Posted in बस यूं ही | 42 Responses
sushma की हालिया प्रविष्टी..कथा सिर्फ कहवैया की गुनने की सीमा हैं
इसके बाद लिंक और विवरण भी जोड़ दिया आपके लिये।
अब ये कोई समीक्षा तो है नहीं, सो प्रशंसा करना ही ठीक था
अपुन ने तो पढी नहीं किताब , तो बड़े बोल भी क्या बोलना?
२. ब्लॉग लिखना और पुस्तक का प्रकाशन आर्थिक कार्य कब से मान लिए आपने सुकुल जी, जो २०११-१२ के वर्षांत से पूर्व “निपटा” दिया!!
३. बाकी तो आप जो लिखे हैं वह चकाचक है… कई विचार तो एक्सिडेंटली टकरा भी रहे हैं..
४. आपके ब्लॉग-एंसाइक्लोपीडिया में हमारे लिंक को भी स्थान प्राप्त हुआ.. मोगैम्बो खुश हुआ!!
सलिल वर्मा की हालिया प्रविष्टी..सम्बोधि के क्षण
कुछ विचार हमारे तरफ से भी रहने दें………उधार रहा………………
प्रणाम.
आर्थिक कार्य नहीं लेकिन सोचा मार्चै में निपटा लिया जाये मामला।
विचार एक्सीडेंटली टकरा गये अच्छा ही है। गर्मजोशी के लिये विचार का टकराना भी जरूरी है।
ब्लाग पोस्ट आपकी शानदार है सो अपने आप आ गयी यहां उसमें हमारा कौनौ दोष नहीं है।
बाकी संकज झा की बात पर गौर किया जाये।
sangeeta swarup की हालिया प्रविष्टी..स्याह चादर
शिखा जी की कवितायें और संस्मरण उनकी खासियत है ..उनका एक्स्परटायिज है,इन विधाओं में यहाँ ब्लागरों में वे बेमिसाल हैं …व्यंग पर भी उनकी पकड़ कही कहीं बहुत सटीक है …उनकी रचनाओं को मैं कभी भी उड़ती निगाह से नहीं पढ़ पाता,यह उनकी रचनओं की श्रेष्ठता है, मेरा गुण नहीं ….आप भी जल भुन रहे होंगे कि आपके स्पेस में मैं अनाधिकार उनकी प्रशंसा किये जा रहा हूँ …अतः मुल्तवी ..
संस्मरणिका =वाह क्या अभिनव श्रेणी सोची है …सचमुच…
अच्छी लगी यह समीक्षिका !
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..चिर यौवन और अमरता की हमारी ललक(पुराण कथाओं में झलकता है भविष्य-2)
संस्मरणिका शायद समीर लाल के उपान्यासिका के चलते याद आया।
शुक्रिया।
शिखाजी का लिखने का अंदाज़ रोचक लगता है,जैसा उन्होंने नाक के लंबी होने को लेकर बताया है.मेरे हिसाब से संस्मरण-सामग्री छोटी होने से पठनीयता बढ़ जायेगी.बड़ी और मोटी किताबें ज़्यादातर अंग्रेजी में पढ़ी जाती हैं.
उम्मीद है कि आगे शिखाजी कविताओं पर ज़्यादा ध्यान फोकस करेंगी !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..कइसे दिन फिरिहैं ?
कवितायें आप बांचिये शिखाजी की। अपन तो उनको बस देखकर टिपिया देते हैं बस्स!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..नकल की तैयारी
नाक से याद आया ‘नाक उपन्यास’ …………….. १६/१७ साल में पढ़ा था…………..ज्यादा कुछ याद नहीं…….
अब आगे के लिंक पढ़ते हैं ………….
आभार च प्रणाम.
पी.एस……”बतर्ज़ दाग अछे हैं”……………जबलपुर अच्छा है…….
एनीवे, इस बात से मैं भी सहमत हूँ की कीमत थोड़ी ज्यादा है किताब की लेकिन फिर भी एक बेहतरीन किताब है, लिखा तो मैंने भी था अपने ब्लॉग पर किताब के बारे में..और आपने पढ़ा भी है उसे(आपकी टिपण्णी इस बात की गवाह है :P)
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..फितरत …
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
–
अन्तर्राष्ट्रीय मूर्खता दिवस की अग्रिम बधायी स्वीकार करें!
संस्मरण रचना वर्तमान को एक दिशा, पहचान और संस्कार देती है। हमारा वर्तमान तात्कालिकता वाला होता है, एक आयामी होता है, इसमें सूचनाओं की प्रधानता होती है! हम यदि अतीत की प्रतिमा पर पड़ी धूल को झाड़कर उन्हें बार-बार पहचानने योग्य बना दें – तो “स्मृतियों में रूस” जैसा एक सार्थक संस्मरण तैयार हो सकता है।
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..साधना की चार अवस्थाएं
अब तो खरीद कर ही पढ़ेंगे…
नाक का जो सवाल है…
जय हिंद…
Khushdeep Sehgal की हालिया प्रविष्टी..‘हेट स्टोरी’ के प्रोमोज़ पर चल गई कैंची…खुशदीप
बढ़िया चर्चा के लिए आपका आभार !
शुक्रिया।
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..आलू कोई मसाला नहीं होता….
लाल धागे वाले और दारूवाले के बाद लम्बी नाक वाली… …
५५ पन्ने ही हैं किताब में ? दाम ३०० ५५ पन्ने का ही … … एकदम जनविरोधी किस्म का महँगा किताब है भाई , अगर ऐसा हो।
५५ पन्ने ६५ मिनट! क्या रफ्तार है! कहीं किताब की छपाई २४ फांट आकार में तो नहीं! बड़ी तेज पढते हैं जी।
टिप्पणी थोड़ा कटु नहीं न हो गयी! हो तो माफ करिएगा हुजूर!
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..भगतसिंह के चौदह दस्तावेज