Monday, October 28, 2024

पंकज बाजपेयी से मुलाक़ात

कल शहर गए। कुछ काम से। वैसे शहर जाना भी के बड़ा काम है आजकल। चलने से पहले सोचना पड़ता है -किधर से जाएँ? सड़क पर वाहनों की भीड़। कारें ही कारें,  आटो ही आटो, ई रिक्शे ही ई रिक्शे। हर सवारी दूसरी से हलकान। कार वाले ई रिक्शों से परेशान कि कहीं भी घुसे चले जाते हैं। बड़ी-बड़ी कारें, आटो और ई रिक्शों से अपने शील की रक्षा करते हुए चलती हैं। उनको डर है कोई रिक्शा उनको 'बैड टच' करते हुए न निकल जाए। पुरानी गाड़ियाँ अलबत्ता बिंदास चलती हैं। वे राणा सांगा हो गयी हैं -' जहां इत्ते लगे हैं वहाँ एक घाव और सही।' 

ई रिक्शे वाले सोचते होंगे -इत्ती बड़ी गाड़ी में अकेला इंसान जा रहा है। इससे अच्छा तो हमारे साथ ही चलता। हमको सवारी मिलती। उसके पैसे बचते।

आज के दिन शहर में सड़क पर चलना भी एक युद्द में भाग लेने जैसा है। न जाने कौन गली में जाम मिल जाए। न जाने कौन सड़क पर ट्रैफ़िक डायवर्जन मिल जाए। कल तक आने-जाने वाली सड़क एकल मार्ग हो जाए। कुछ कहना मुश्किल। 

बड़े शहरों में आज ट्रैफ़िक के हाल हैं उसको देखते हुए बड़ी बात नहीं कि आने वाले दिनों में घर से निकलते हुए लोगों की आरती करके, टीका लगाकर विदा करने लगे जैसे पुराने जमाने में युद्ध पर जाने वाले योद्धाओं को लोग घर वाले विदा करते थे। सड़क पर चलना युद्ध लड़ने से कम जोखिम का काम नहीं है। 

रास्ते में पंकज बाजपेयी के ठीहे के पास से निकले। पहली बार जब मिले थे पंकज तो सड़क के बीच डिवाइडर पर बैठे मिले थे। ऐसे जैसे देशी कमोड पर बैठे हों। आते-जाते कई दिन देखने के बाद उत्सुकता हुई। बातचीत शुरू हुई। उनके बारे में किस्से सुने। अब तो कई वर्षों की दोस्ती हो चुकी है। फिर भी हर मुलाक़ात में कोई न कोई नयी बात पता चलती है। 

इस बीच सड़क के डिवाइडर भी डिवाइड हो गया है। बीच में लोहे के सरियों की जाली लग गयी है। अब डिवाइडर पर बैठना सम्भव नहीं। पंकज बाजपेयी का  बैठने का ठीहा छिन गया है।  अब पंकज बाजपेयी राजनीति में तो है नहीं जो इसके ख़िलाफ़ आंदोलन करने लगें। वो कोई वोटबैंक तो है नहीं।  अकेले की कौन सुनता है। 

सड़क के  डिवाइडर पर लोहे की सरियों  और सड़क किनारे लोहे की चद्दरों की खड़ी दीवार देखकर मुझे लगता है यह किसी लोहे के व्यापारी का माल खपाने के लिहाज़ से किया गया काम है। सड़क किनारे लोहे की चद्दर से सड़क आजकल के राजनीतिज्ञों की तरह सिकुड़ गयी है। 

जाते समय तो पंकज दिखे नहीं अलबत्ता लौटते समय अपने ठीहे के पास सड़क किनारे खड़े दिखे। उनके बग़ल में गाड़ी खड़ी करके आवाज़ लगाई तो लपककर आए और हाथ तिरछे करके चरण स्पर्श का इशारा किया। बात और शिकायत एक साथ शुरू हो गयी। पंकज की बातचीत एकदम स्वतःस्फूर्त , बेसिरपैर की रहती है। एक वाक्य का दूसरे से कोई सम्बंध नहीं। ईरान के फ़ौरन बाद तूरान, आयें के फ़ौरन बाद दाएँ मुड़ जाती है उनकी बतकही। उनकी बात सुनकर उसका मतलब निकालना मुश्किल रहता है। ऐसे लगता है उनके मुँह में कोई रिकार्डर फ़िट है जो उलजलूल बातें उगलता रहता है। ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। ऐसे जैसे सामने लाखों का हुजूम हो और उसको सम्बोधित कर रहे हों। मज़े की बात उनको इस बेसिर पैर की हांकने के लिए  किसी माइक या टेलिप्रामप्टर की ज़रूरत नहीं होती। 

कल उनके डायलाग जो मुझे याद रह गए वो इस तरह हैं:

-गवाही देनी है खन्ना के केस में। दिल्ली चले जाना।

-कोहली  भाग गया। उसका मर्ड़र केस ख़त्म हो गया। जिस लड़की के साथ उसने ग़लत काम किया था उसकी शादी हो गयी।

-मम्मी जी के पास चले जाना। उनसे बात हो गयी है। 

-जलाने के लिए नोट दे जाना आज। हम तुमको सर्टिफिकेट दे देंगे। 

-गाड़ी में परफ़्यूम लगवा लेना। बढ़िया ख़ुशबू आती है। 

-कचहरी में मुक़दमा चल रहा है रामलाल का। उसको सजा हो जाएगी अगले हफ़्ते।

इसी तरह की और भी एक के बाद दूसरी बात। लेकिन पंकज की बात में हिंदू-मुसलमान नहीं आता। किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं। दिमाग़ फिर गया है लोग पागल कहते हैं लेकिन किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं। कोई कह सकता है -'पागल है इसीलिए किसी के  किसी के प्रति कोई घृणा नहीं है। आज तो बिना घृणा के काम ही नहीं चलता समाज का।'

आगे बात करते हुए उन्होंने पूछा -'माल नहीं लाए इस बार भी?'

'माल' मतलब -'जलेबी, दही, समोसा।'

हमने कहा -'घर से नहीं लाए। लेकिन यहीं दिला देंगे।'

वो बोले -'देता नहीं है नीरज। तुम पिछली बार कह गए थे फिर भी नहीं दिया।'

नीरज वहीं पंकज के ठीहे के सामने, अनवरगंज की तरफ़ जाने वाली सड़क के नुक्कड़ की मिठाई की दुकान पर काम करने वाले लड़के का नाम है। हमने उससे पूछा तो हंसते हुए बताया उसने -'अपने लिए लेते हैं रहते हैं पंकज सामान। रोज़ सौ-दो सौ रुपए खर्च करते हैं।' 

ये सौ-दो सौ रुपए पंकज से मिलने वाले लोग देते उनको देते रहते हैं। हमारी मुलाक़ात तो अब कभी-कभी ही होती है। लेकिन कई नियमित  मिलने वाले हैं जो उनको 'जेबखर्च' टाइप देते रहते हैं। 'जेबखर्च' टाइप इसलिए कि पंकज आम लोगों से माँगते नहीं। उन  लोगों से जो उनसे बात करते हैं हक़ से लेते हैं। लपककर मिलते हैं। पैसे लेते हैं लेकिन रिरियाते नहीं। दैन्य भाव नहीं है। इठलाहट है उनके माँगने में। ठुनककर माँगते हैं -' सौ रुपए देना अबकी बार। नहीं सौ ही लेंगे। पचास नहीं। बीस नहीं।' 

नीरज की शिकायत की तो मैंने नीरज को कुछ पैसे दिए। कहा -'जो मिठाई ये कहें दे देना।' 

पंकज ने मिठाई की दुकान के काउंटर पर रखी एक मिठाई की तरफ़ इशारा करते हुए कहा -'ये लेंगे।' इसके अलावा एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल 'माउंटेन ड़्यु' की फ़रमाइश की। हमने कहा -'ले लेना। पैसे हमने दे दिए हैं नीरज को।'

इसके बाद चाय पीने के इसरार किया पंकज ने। हम गए चाय की दुकान पर। मामा की चाय की दुकान। वहाँ से चाय लेकर फिर मिठाई की दुकान के सामने आ गए सड़क पर। बात करने लगे। 

हमने कहा -'पंकज तुम चलो हमारे साथ। हमारे घर रहो चलकर।'

बोले -'हम कानपुर में नहीं रहेंगे। यहाँ पालूशन बहुत है।'

हमने पूछा -'फिर कहाँ रहोगे ?'

बोले -'बम्बई में। वहाँ हमारा घर है। तुमको भी ले चलेगें। चलना।'

हमने कहा ठीक। अब चलते हैं। पंकज ने फिर पैसे की ज़िद की। कुछ देर इत्ते नहीं इत्ते वाली तकरार होती रही। पंकज बच्चों की तरह ठुनकने भी लगे। उनके ऐसा करते हुए साथ साल के इंसान के चेहरे पर एक छोटा बच्चा सवारी करता दिखा। आख़िर में उनकी बात मान कर उनको जेब खर्च दिया। 

पैसे मिलने के बाद पंकज हमको फ़ौरन विदा करने वाले अन्दाज़ में आ गए। बोले -'सेफ़्टी बेल्ट लगा लेना। सड़क पर भीड़ बहुत है। जल्दी जाओ। खाना खा लेना। गंदी चीज़ मत खाना।'

पहले हम सोचते थे कि पंकज का इलाज करवाया जाना चाहिए। अब सोचते हैं -'ये ऐसे ही ठीक हैं। कम से कम ज़िंदगी बसर तो कर रहे हैं। इलाज के बाद कहीं ठीक हो गए तो जिएँगे कैसे ?'

आपका क्या सोचना है इस बारे में ?




Saturday, October 26, 2024

शरद जोशी के पंच -19

 1. किसी सामाजिक समस्या पर कोर्ट यदि मानवीय दृष्टिकोण अपना ले,  तो संसद उसमें संसोधन लाकर, ऐसे अच्छे काम करने से रोक सकती है।

2. आजकल बैंक लूटना अंगूर के गुच्छे तोड़ने की तरह सरल हो गया है। यदि किसी बच्चे को पड़ोसी के बाग से अमरूद चुराने का अनुभव हो तो वह अपनी प्रतिभा का उचित विकास कर एक दिन पड़ोस का बैंक लूट सकता है।

3.  हमारे देश में कौन नेता  है ,जिसकी राजनीतिक  आत्मा में मार्कोस नहीं पैठा है? मंत्री या मुख्यमंत्री-पद, अदना सरकारी निगम या सरकारी कमेटी की सदस्यता छोड़ते पीड़ा होती है। ऐन-केन कुर्सी पर अड़े ही रहते हैं। अवधि ख़त्म हो गई ,तो सोचते हैं, एक्सटेंशन मिल जाए। लगे हैं जोड़-तोड़ बिठाने।

4. आज़ादी के बाद से आज तक कुर्सी छोड़ना तो अपवाद ही है। असल क़िस्सा कुर्सी का तो कुर्सी से चिपका रहने का है। गहराई में न जाओ , इस गंदे तालाब को सतह से ही देखो। किटाने उखड़े हुए प्रधानमंत्री, गवर्नर, और मंत्री तैर रहे हैं।  सड़ रहे हैं, मगर अंदर से पद की पिपासा भभक रही है। हे ईश्वर , कुर्सी दे ! बड़ी न दे , तो छोटी दे, पर हे भगवान कुर्सी दे! 

5. आजकल तो बड़ा संन्यासी भी वही माना जाता है , जो किसी पद पर बैठा हो। राजनीतिक पार्टियों में मुग़ल साम्राज्य की आत्मा वास करती है। बिना हटाए कोई हटता ही नहीं। 

6. बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना एक राष्ट्रीय कला है। आपको इसके लिए पहले  निस्संगता और ततस्थता की मुद्रा अपनानी पड़ती है। 

7. ईमानदार, तटस्थ  और सही प्रतिक्रिया इस देश में नायाब है। बजट के बाद जब देश-हित  की बात कही जा सकती है तब भी पार्टी-हित की बात कही जाएगी। चमचागिरी या थोथा विरोध दोनों में से कोई एक होगा।

8. सत्ताधारियों का नियम रहा है कि गुड़ न दे तो गुड़-सी बात तो कर। अब एक नेता और कुछ न दे तो आश्वासन तो दे ही सकता है। लोग उसी से काम चला लेंगे। इतने साल से चला ही रहे हैं। जैसे कोई नेता अपने भाषण में समाजवाद का आश्वासन दे तो उस पर यह बोझ नहीं डाला जाना चाहिए कि वह समाजवाद लाए भी।

9. बड़ों के बच्चे बड़े पदों पर पहुँचते हैं, तो कैसे पहुँचते हैं? बचपन से उनके लिए सच्चे-झूठे प्रमाण-पत्र जोड़े जाते हैं। 

10. वे लोग बड़े सुखी होते हैं जिन्हें जीवन में कभी बड़े पद नहीं मिले। वे बड़ा पद छूटने के दर्द से नहीं गुजरे। पता नहीं बयान से परे है यह पीड़ा। सब कुछ छूटता है। कुर्सी ,टेबल, सोफ़ा ही नहीं, बंगला ,कार भी। यह भी शायद इतना बड़ा दर्द न हो, पर अधिकार और प्रभाव हाथ से जाता है। प्रभाव , जिससे आप मार्क्स बढ़वा सकते हैं, रिश्तेदार को क़र्ज़ दिलवा सकते हैं और अपने प्रिय को पद्मश्री। राम जाने ,इस प्रभाव का दायरा और दबदबा कहाँ तक फैला रहता है ? बिना कुर्सी पर बैठे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। 

Friday, October 25, 2024

हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं- रमानाथ अवस्थी

 हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।

हमने लोगों को ध्यान से देखा 
सबके चेहरे में दर्द की रेखा ।
कोई खुलकर मिला नहीं हमसे 
मौत के मेघ हर नज़र में हैं।

हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।


मौत के सौदागर नहीं डरते 
कहते हैं देश बाँट दो फिर से।
राजा से कह दो होशियार रहे 
इनकी आँखें उसी के घर में हैं।

हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।


हम मुसाफ़िर हैं हमें जाना है 
जाते-जाते तुम्हें बताना है।
जंगली लोग हंस रहे हम पर 
वैसे तो हम सभी नगर में हैं।


हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।



शोर में डूबे हुए सन्नाटे 
पूजा के घर में भजन के घाटे।
रोज़ ही क़त्ल हो रहा है अमृत 
हम अमृत पुत्र सब जहर में हैं।


हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।

कोई कुछ भी कहे नहीं सुनिए 
रास्ता आप अपना खुद चुनिए।
ख़त्म होगी नहीं कहीं पर जो 
हम उसी प्यार की डगर में हैं।

हम तो हर वक्त ही सफ़र में हैं 
इस समय  आपके शहर में हैं ।

-रमानाथ अवस्थी 


गीत  यहाँ पर सुना जा सकता है । 





शरद जोशी के पंच -18

 1. राजनीति में फँसे आदमी की दुर्दशा साहित्य में फँसे आदमी से अधिक होती है। 

2. नेतागीरी का पूरा धंधा विचित्र सहकारी स्तर पर , एक-दूसरे पर आधारित , जिसे परम हिंदी में अन्योन्याश्रित कहते हैं, चलता है। पहले नहीं था ,मगर आजकल तो है ही। बड़ा नेतृत्व छोटे नेतृत्व पर टिका रहता है और छोटा नेतृत्व बड़े नेतृत्व पर। दोनों मिलकर समाज और देश को एक क़िस्म के नेतृत्व की हवा में बांधे रहते हैं। जड़ें दोनों की नहीं हैं ,पर वे किसी तरह एक-दूसरे पर टिके हैं।

3. गहराई से सोचा जाए तो पब्लिक अयोग्य और अविश्वसनीय व्यक्तियों को नेता मान जैसे-तैसे प्रजातंत्र क़ायम रखे है और सौभाग्य है कि उनमें कुछ अच्छे भी हैं।

4. एक बार आप राजनीति में फँस गए तो कारवाँ के साथ कुत्ते की तरह दुम हिलाते, दबाते, घिसटते, थकते, चलने के अलावा कोई ज़िंदगी नहीं रह जाती।

5. प्रदूषण  को लेकर हमारी जो नीति और कार्य-प्रणाली है , साम्प्रदायिक मनमुटाव दूर करने के मामले में भी वही है। मतलब, हवा में थोड़े-बहुत जहर का घुलना हमें अनुचित नहीं लगता। उसे हम सहज-स्वाभाविक मान टाल देते हैं। 

6. हर शहर में एक-दो कारख़ाने हवा में जहर घोलते हैं, व्यवस्था  सहर्ष और सगर्व उन्हें ऐसा करने देती है। पर्यावरण विभाग को चिंता तब सताती है ,जब ज़हर अच्छा-ख़ासा घुल चुका होता है। हमारे देश में नालियों को नियमित करने की व्यवस्था है, नदियों को साफ़ करने की नहीं। नदी को हम शुद्ध-पवित्र मानकर चलते हैं।

7. यह चिंता तो सभी धर्मगुरुओं और भक्तों को रहती है कि  चढ़ावा ज़्यादा चढ़े और धार्मिक कोष में वृद्धि हो। मगर उसके लिए बैंक लूट लेना, दुकानों या घरों में घुस कर नक़दी या ज़ेवर बटोरना, धर्म की सेवा के नए आयाम हैं , जो इन्हीं वर्षों में विकसित हुए हैं।

 8. जो कुछ होना है, वह हो चुका होता है ,तब खबर के साथ एक पुछल्ला , एक जुमला या एक वाक्यांश हमेशा रहेगा कि स्थिति नियंत्रण में है।

9.  किसी ने पूछा कि  स्थितियाँ कहाँ हैं ? तो वह यदि अफ़सर हुआ तो कहेगा , नियंत्रण में हैं। नियंत्रण एक हास्टल है स्थितियों का। स्थितियाँ बाहर जाती हैं, जैसे गर्ल्स हास्टल की लड़कियाँ घूमने निकलें और वापस लौट आती हैं। उन्हें नियंत्रण में ही रहना है। दिन-दिन में नियंत्रण से बाहर गईं। रात तक लौट आईं। जैसे ही कर्फ़्यू लगा, स्थिति नियंत्रण में आ गई। कहाँ जाती? कर्फ़्यू में घूम-फिर तो सकती नहीं थीं।

10. लूटपाट ,हत्या, घमकियाँ, आतंक, भय, दंगे, चोरी ,तस्करी, डकैती, बलात्कार, मारपीट, लाठी, गोली, गिरफ़्तारी, ज़मानत, फ़ायर होने आदि खबरों में यह कितने सुकून और हौसला देने वाली बात है क़ि स्थिति नियंत्रण में है, मामले की सरगर्मी से जाँच हो रही है और कड़ा कदम उठने वाला है। सच कहा जाए तो आज भारतीय नागरिक इन वाक्यांशों , इन जुमलों के सहारे ही साँस ले रहा है। 


Thursday, October 24, 2024

बेईमान क्यों हो जाती है नौकरशाही?

 बेईमान क्यों हो जाती है नौकरशाही?

यह शीर्षक है उस किताब का जिसे उत्तर प्रदेश में सेवा के अधिकारी रहे डा. हरदेव सिंह जी ने लिखा था। उन्होंने अपनी सरकारी सेवाओं के विविध अनुभवों का ज़िक्र करते हुए नौकरशाही के बेईमान हो जाने के कारणों की पड़ताल की थी। सरकारी सेवा में आने से पहले हरदेव सिंह जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र की पढ़ाई की थी इसलिए उनके विवरणों में दर्शन के आधार पर व्याख्याएँ भी थीं।

इस किताब का ज़िक्र स्माल आर्मस फ़ैक्ट्री में हमारे महाप्रबंधक रहे Suresh Yadav जी ने किया था। उन्होंने बताया था कि फ़ील्ड गन फ़ैक्ट्री में पोस्टिंग के दौरान उन्होंने वहाँ के राजभाषा विभाग में उपलब्ध यह किताब पढ़ी थे।

मैंने किताब की खोज तो बाज़ार में मिली नहीं। किताब वाणी प्रकाशन से छपी थी। फ़ील्ड गन फ़ैक्ट्री के राजभाषा विभाग से किताब पढ़ने के लिए मँगवाई। किताब में जगह-जगह कई प्रसंगों को अंडरलाइन किया गया था। Suresh Yadav सर ने किताब पढ़ते हुए ऐसा किया था।

किताब इतनी अच्छी लगी थी मुझे कि उसको लौटाने के पहले मैंने उसको फोटोकापी करा के रख ली थी- बाद में पढ़ने के लिए। अभी वह किताब मेरे घर में ही कहीं किताबों के बीच है। कहाँ है खोजना है उसे।

नौकरशाही के बेईमान होने के कई कारणों का ज़िक्र करते हुए हरदेव सिंह जी ने एक कारण पारिवारिक भी बताया था। उनका मानना था कि सिविल सेवाओं में आम तौर पर गरीब, मध्यम वर्गीय घरों के प्रतिभाशाली, मेहनती बच्चे आते हैं। जैसे ही उनका चयन इन सिविल सेवाओं में होता हैं, उनको सम्पन्न, ऊँचे पदों पर तैनात लोग अपनी बेटियों के लिए चुन लेते हैं। अपनी बेटियों की शादी उनसे करा देते हैं।

नौकरशाही में काम करने के दौरान अधिकारियों को जनहित में कई अप्रिय फ़ैसले लेने पड़ते हैं। अक्सर उन फ़ैसलों से सत्ता के हित प्रभावित होते हैं। ऐसे में अधिकारियों को कई तरह से प्रताड़ित करना अब आम बात हो गयी है। उनका तबादला, प्रतिकूल प्रविष्टि और अन्य तमाम साज़िशें होती हैं। पहले ऐसे अधिकारियों को उनके वरिष्ठ अधिकारी बचाते थे। बदलते हालत में वे भी इसी खेल में शामिल हो गए हैं।

हरदेव सिंह जी का मानना है कि अधिकारी स्वयं तो इन अभावों, कष्ट साध्य जीवन जीने के आदी होने के कारण ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों का आसानी से मुक़ाबला कर सकता है लेकिन उनका परिवार जिसको अपने बचपन और बाद में आराम तलबी के जीवन की आदत पढ़ चुकी होती है ये कष्ट झेलने की आदत नहीं होती। अधिकारी अपने परिवार को परेशान नहीं देख पाते। इस परेशानी से बचने के लिए वे ऐसे निर्णय लेने से बचते हैं जिनके कारण उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही की आशंका हो और उनका परिवार कष्ट झेले ।

अधिकारियों की इस तरह की प्रताड़नाओं के अनेक उदाहरण हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरागांधी जी के ख़िलाफ़ निर्णय सुनाने वाले जस्टिस खन्ना को आगे पदोन्नत नहीं किया गया। ऐसा सुनने में आता है कि उन्होंने फ़ैसला सुनाने वाले दिन अपनी पत्नी से कहा था -'आज मैं यह फ़ैसला सुनाने जा रहा हूँ, अब मेरा आगे प्रमोशन नहीं होगा।' उनका परिवार उनके साथ था।

आज तमाम न्यायाधीशों के लोगों के नाम किसी को भले याद न हों लेकिन जस्टिस खन्ना का नाम आदर से लिया जाता है। एक ऐसा न्यायाधीश जिसमें तत्कालीन सत्ता के ख़िलाफ़ फ़ैसला लेने की हिम्मत थी।

हरदेव सिंह जी ने जब यह किताब लिखी थी तब उनके सामने उदाहरण के लिए केवल परिवार ही था। वे मानते थे कि परिवार के लोगों के कारण अधिकारी अपने उसूलों से समझौता करते हैं।

गए वर्षों में इसमें परिवार के साथ स्वयं अधिकारी भी शामिल हो गए हैं। उनको अपने सेवा काल के साथ सेवा के बाद भी आरामतलब जिंदगी का लालच हो गया है। इसीलिए सर्वोच्च पदों पर पहुँचने के बाद वे रिटायर होने के बाद भी कोई अच्छा माना जाने वाला पद पाने के लिए सत्ता की चापलूसी करते हैं। उसके हिसाब से निर्णय लेते हैं। काम करते हैं। ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि भविष्य में उनको, बावजूद तमाम प्रतिभा और ज्ञान के, एक अवसरवादी, चापलूस अधिकारी के रूप में ही याद किया जाएगा।

अपने 36 साल के सेवाकाल में मैंने ऐसे तमाम लोगों को देखा जो व्यक्तिगत तौर स्वयं बहुत अच्छे, ईमानदार अधिकारी थे लेकिन अक्सर ग़लत बात का विरोध करने से बचते रहे ताकि उनके आगे की राह में रोड़े न आएँ। दुनियावी सफलताएँ तमाम बलिदान भी माँगती हैं।

पिछले दिनों अपने न्यायाधीश महोदय के बाबरी मस्जिद के निर्णय के समय ईश्वर की शरण में जाने वाला बयान और उस पर जस्टिस काटजू जी का मत सुना तो किताब में वर्णित यह प्रसंग याद आया। जस्टिस काटजू ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा -' भगवान वाली बात सही नहीं है। फ़ैसले के पीछे न्यायाधीश महोदय का करियरिस्ट होना है।' ( माननीय जस्टिस काटजू साहब की बातचीत की कड़ी टिप्पणी में है)।

आज दुनिया एक बाज़ार में तब्दील हो चुकी है। इंसान भी आइटम में बदलता जा रहा है। उसको भी अपनी क़ीमत चाहिए - जितनी मिल जाए, जितने में निकल जाए। कानपुर के गीतकार 'अंसार कंबरी' कहते हैं:

'अब तो बाज़ार में आ गए 'कंबरी'
अपनी क़ीमत को और हम कम क्या करें?'

ऐसे विकट समय भी तमाम ऐसे लोग हैं सब जगह जो बिकने से इंकार करते हैं। अपने उसूलों से समझौता नहीं करते। इसकी क़ीमत भी चुकाते हैं।

ऐसे लोगों से ही दुनिया ख़ूबसूरत बनी हुई है।

Wednesday, October 23, 2024

ज़रा बच कर रहो बे

 जो दिखाई देता है सबको, वो सब सच मत कहो बे, 

बड़ा बवाल समय है चल रहा , ज़रा बच कर रहो बे। 


उकसा रहे हैं आज जो तुमको , कल वही फँसा देंगे ,

लीडरों, हुक्मरानों से, दूर का रिश्ता ही भला है बे  ।


 धमकाता रहता  है  हरदम ही  ,दीगर अवाम को 

बड़ा  कमसिन दिमाग़ , बुज़दिल रहनुमा मिला है बे ।


-कट्टा कानपुरी 





शरद जोशी के पंच -17

 1. नेताओं के सामने दो विकल्प हैं। या तो आप उनसे पार्टी मज़बूत करा  लो या सरकार। वे दोनों एक साथ मज़बूत नहीं कर सकते।

2. पद्मश्री पर शहद लगाकर चाटा जाए तो शहद बड़ा फ़ायदा करता है। पद्मश्री के बहाने शहद चाटने में आ जाएगा। 

3. कुछ लोग इस योग्य हो जाते हैं कि पद्मश्री के अलावा किसी योग्य नहीं रहते। 

4. ख़ुशी की बात यह है कि पद्मश्री के बाद आदमी किसी काम का नहीं रहता और पद्मश्री उसे किसी काम का नहीं रखती। बल्कि उसे के पद्मश्री इस बात के लिए मिलनी चाहिए कि उसने पद्मश्री मिलने के बाद कुछ नहीं किया।

5. सहन करें क्योंकि सहन करने के अलावा हम क्या कर सकते हैं ? हम सहनशीलता के नमूने हैं। जिन्हें कुछ करना चाहिए, वे सहनशीलता के और बड़े नमूने हैं। हमारी रीढ़ पूरी तरह झुकी हुई कितनी खूबसूरत लगती है।

6. महंगाई एक ऐसी आग है जिसके बुझने का डर बना रहता है। वातावरण में ऊष्मा बनाए रखने के लिए सरकार और व्यापारी निरंतर उसकी आँच उकसाते रहते हैं। वस्तु का सम्मान बनाए रखने के लिए लगातार कोशिशें जारी रहती हैं। अभाव बना रहे ,तो भाव बने रहते हैं।

7. महंगाई से आदमी को अपनी औक़ात का पता चलता है। आदमी जितना ऊँचा है, महंगाई उससे ऊँची रहती है। 

8. अधिकांश लोग जब अपनी आर्थिक ऊँचाई से महंगाई की ऊँचाई नापते हैं, उन्हें लगता है कि वे ताड़ के वृक्ष के नीचे खड़े हैं।

9. आज़ादी के बाद एक अद्भुत आर्थिक संसार विकसित हुआ है। आदमी वस्तुओं को देखता है और ठिठका हुआ खड़ा रहता है। अधिकांश भारतवासियों के पास केवल सड़क पर चलने के अधिकार हैं। उनके दुकानों में घुसने के अधिकार समाप्त हो गए हैं।

10. पेट्रोल के दाम बढ़ने से टैक्सी का भाड़ा बढ़ा। गरीब तो टैक्सी में बैठता नहीं। देश में असली गरीब के पास तो लोकल ट्रेन या बस में चलने के भी पैसे नहीं। सब्ज़ी महँगी होगी। गरीब सब्ज़ी खाता ही नहीं। गरीब आदमी को इस हालत में पहुँचा दिया गया है कि उसका मंहगाई से संबंध ही नहीं रहा। 


अदालती फ़ैसले

 प्रसिद्ध कथाकार हृदयेश जी शाहजहांपुर की अदालत में काम करते थे। अदालत के अनुभव के आधार पर उनका लिखा उपन्यास 'सफ़ेद घोड़ा काला सवार' भारतीय न्याय व्यवस्था पर लिखा और उसकी पोलपट्टी खोलने वाला अद्भुत उपन्यास है। इस उपन्यास में छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से अपने देश की अदालतों में हो रहे न्याय के प्रहसन पर सटीक कटाक्ष किए गए हैं।

भारतीय न्याय व्यवस्था का परिचय पाने के लिए यह उपन्यास पढ़ना बहुत सहयोगी है। बहुत रोचक उपन्यास है यह।
उपन्यास के एक अंश में एक जज साहब का क़िस्सा मज़ेदार है। जज साहब को ऊँचा सुनाई देता था। वे सुनने की मशीन (हियरिंग एड) का उपयोग करके अदालती कार्यवाही करते थे। दलीलें सुनते थे। फ़ैसला देते थे।
एक बार एक मुक़दमे की फ़ाइनल सुनवाई के दिन उनकी सुनने की मशीन की बैटरी कमजोर हो गयी या शायद तार हिल गया। उनके सुनने में व्यवधान हुआ। कभी सुनाई देता, कभी घरघराहट होती और कभी एकदम सुनाई देना बंद हो जाता। जज साहब किसी को ज़ाहिर नहीं होने देते कि उनको ठीक से सुनाई नहीं दे रहा है। वे पूरा मुक़दमा बिना ठीक से सुने अपने हिसाब से फ़ैसला सुना देते हैं। शायद में सिक्का उछाला होगा। शायद अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर फ़ैसला दिया हो।
बहुत दिन पढ़े इस उपन्यास का यह हिस्सा कल अचानक याद आया जब भारत के मुख्य न्यायाधीश महोदय ने ज़िक्र किया कि बाबरी मस्जिद वाला फ़ैसला करने के लिए वे भगवान की शरण में गए।
इससे यह भी अंदाज़ा लगा कि चाहे अदालत चाहे छोटी हो या बड़ी , न्यायमूर्तियों के फ़ैसले लेने के अन्दाज़ एक जैसे होते हैं।
इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व जज जस्टिस काटजू की राय टिप्प्पणी में।

Monday, October 21, 2024

शरद जोशी के पंच -16

 1. अधिकांश भारतवासियों के लिए अब एक जगह से दूसरी जगह, एक चलता-फिरता प्रधानमंत्री ही राष्ट्र-गर्व का मामला रह गया है। उसे देखते रहिए और सीना फुलाए रहिए कि हमारा भी एक देश है।

2. सोचने वाले सौभाग्य से ,गहराई से नहीं सोचते अन्यथा पागल हो जाएँ कि देश में पहले क्या मज़बूत होना चाहिए। उनमें अधिकांश अपनी पार्टी मज़बूत करने में और पार्टी से ज़्यादा कुर्सी मज़बूत करने में लगे रहते हैं। उनका जीवन -दर्शन यह है हमारी पार्टी चुनाव में जीतती रहे और हम पद पर बने रहें तो समझिए , सब मज़बूत है।

3. बड़ी जल्दी हमें इस देश को एक प्लेटफ़ार्म मान लेना होगा, जहां हर नागरिक को अपने इरादों की रेल पकड़ने का हक़ है। जितने यात्री समूह ,उतनी मंज़िलें। कोई ब्राउन सुगर बेच रहा है , कोई रैली निकाल रहा है, कोई बम बना रहा है। सबके अपने धार्मिक इरादे हैं। और देश की सरकार न हुई एक धंधा करने वाली औरत हुई कि चूँकि उसे वोट लेने हैं , यश बटोरना है, कुर्सी पक्की रखनी  है ,प्रगतिशील कहलाने की मजबूरी में सहिष्णु रहना है , सब कुछ सहन कर रही है। 

4.  बड़ों के प्रेम-प्रसंग अधिक देर तक छिपे नहीं रहते या बड़े देशों के सुरक्षा के रहस्य दूसरे बड़े देशों को फ़ौरन लीक हो जाते हैं। लीक इसलिए होते हैं, क्योंकि जो लीक हो सकता है वह अवश्य लीक होता है। 

5. हिंदू धर्म के प्रभाव का क्षितिज चाहे दिन-प्रतिदिन सिमट रहा हो ,पर हिंदू धर्म के महंत, मठाधीश स्वामियों के प्रभाव का क्षितिज भारतीय सीमा से कहीं आगे है। किसी भी गुरु से पूछो तो वह कहेगा कि ईमानदार चेले और समर्पित चेलियां भारत में आजकल मिलते कहाँ हैं?

6. शिक्षा एक ऐसी  बिगड़ी मोटर है, जिसके उन हिस्सों को भी सुधारना या बदलना है , जो नए लगे हैं। और न सिर्फ़ मोटर बल्कि ड्राइवर में भी सुधार करना है, बल्कि हो सके तो ड्राइवर भी बदलना है। 

7. अजीब गाड़ी है शिक्षा की, इसमें सब कुछ बदला जाना है। टूटी-फूटी इमारत फ़र्नीचर, पाठ्यक्रम, पढ़ाने की शैली , पढ़ाने की भाषा, पढ़ाने वाले, सामने खेलने का मैदान ,प्राप्त सुविधाएँ, दोपहर का नाश्ता ,टंकी का ख़राब पानी, बल्कि कुछ शिक्षकों और हेडमास्टरों से पूछो तो वे अपने छात्र बदलना चाहेंगे।

8. छिपाने के कौशल में हम भारतवासी संसार के देशों से कहीं आगे हैं। एक अभिनेत्री दूसरी अभिनेत्री से अपने प्रेम की जलन छिपाती है। एक कांग्रेसी दूसरे कांग्रेसी से अपना कुर्सी प्राप्त करने का इरादा छिपाता है। हीरो अपना प्रेम छिपाता है, सुंदरियाँ अपने को अधिकांश छिपा जाती हैं। 

9. हमारे देश में अधिकांश लोगों की प्रतिभा कुछ न कुछ छिपाने में लगी रहती है। कुछ लड़कियाँ अपनी कविताओं को छिपाकर रखती हैं, जैसे वे प्रेम पत्र हों, जिनके लिखे जाने से पहले उनके छिपाए जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। 

10. भारतीय प्रेमी-प्रेमिका की दूसरे से शादी हो जाती है, वे अपने मन की बात व्यक्त कर ही नहीं पाते। पति-पत्नी एक-दूसरे को चाहते हैं यह बात भी मोहल्ले वालों को सारे जीवन पता नहीं चल पाती। वे सोचते हैं कि बाल-बच्चेदार हैं तो चाहते ही होंगे। 


Saturday, October 19, 2024

शरद जोशी के पंच -15

 1. सुरक्षा गरीब देश का अधिकार है, जिसे क़ायम रखने के लिए अमेरिका सबको लड़ने के लिए ज़रूरत-बे-ज़रूरत शस्त्र देता है। 

2. किसी देश के नेता और वहाँ की सरकार अपने को असुरक्षित मानना स्वीकार न करे तो गरीब देशों के सुरक्षा हितों को सही गहराई में समझने वाला अमेरिका सी.आई.ए. स्तर से प्रयत्न कर वहाँ  की सरकार उलट देता है और एक ऐसी सरकार या डिक्टेटरशिप उत्पन्न करता है जो अपने गरीब देश के सुरक्षा हितों को प्राथमिकता दे, अमेरिका से शास्त्र माँगने लगती है।

3. जब चंदा बढ़ने लगता है ,तो उसे धंधे में लगाना पड़ता है। 

4.वाणिज्य करने वाले बड़े चतुर , व्यावहारिक  समझे जाते हैं। इसका मतलब है, लक्ष्मी सरस्वती के बेटों पर कृपा न करती हो, पर सरस्वती लक्ष्मी के बेटों पर कृपा करती है।

5.समाज सेवी जहां कम्बल बाँट गए, स्थानीय नेता वहाँ से वोट ले गया और पुलिस वाला वहाँ से हफ़्ता ले गया। अपराध अपनी जगह क़ायम रहा। झोपड़ी बनी रही।

6. बड़े लोगों में मनोवैज्ञानिक विकृतियाँ होना कोई आश्चर्य नहीं। 

7. मोहल्ले में जो पैसा फूंक दीपावली मंगलमय नहीं बनाता ,लोग उसे  थोड़ी हिक़ारत की नज़र से मुस्कराकर देखते हैं। औरतें ज़ेवरों से लदी हैं, पूरा राष्ट्र ज़ेवरों से लदा मिठाई खा रहा है। कोई दीपावली के दिन हमें देखकर नहीं कह सकता कि हमारे बदन में प्रोटीन और विटामिन की कमी है।

8. ऊँचे और पुख़्ता भवन बिना चोरी की कमाई के नहीं बनते। भवन का आधा हिस्सा सफ़ेद कमाई से बना हो, पर बाक़ी आधा बिना काली कमाई के पूरा नहीं होता। 

9. बड़ा घर बनाने वाला बड़ी चोरी करता है और छोटा घर बनाने वाला छोटी चोरी। 

10. इस देश में जो भी जल्दी सोकर उठता है ,वह  स्वयं को नैतिक दूसरों से अधिक बलवान मानता है। 

Tuesday, October 15, 2024

ब्लिंकइट मतलब -पलक झपकते

घर का  सामान आमतौर पर हम ही लाते हैं। बाज़ार पास है। टहलते हुए चले जाते हैं। ले आते हैं। काफ़ी सामान कैंटीन से भी आ जाता है। जो सामान यहाँ नही मिलता उसके लिए मॉल चले जाते हैं। घर का सामान आनलाइन नहीं ही मंगाते हैं। 

 दो दिन पहले चना और कुछ और सामान लाना था। हमने जाने में कुछ देर की। तब तक बेटे का फ़ोन आ गया। बातचीत में उसको पता चला कि ये सामान लाना है तो उसने कहा -'अभी आर्डर कर देते हैं। दस मिनट में आ जाएगा।' 

खाने-पीने का सामान, केक वग़ैरह बच्चे पहले भी मंगाते रहे हैं आनलाइन आर्डर करके। लेकिन दाल-चना परचून की दुकान वाली चीजें नहीं मंगाई गयीं थी अब तक। 

बच्चे ने सामान आर्डर कर दिया। 'ब्लिंकइट' एप से। लिंक हमको दे दिया। बताया दस मिनट में आ जाएगा सामान। दस मिनट में सामान घर आ जाना एप के नाम को ही सार्थक करता लगा। 'ब्लिंकइट' मतलब -पलक झपकते।

दस मिनट से कुछ पहले ही डिलीवरी बालक का फ़ोन आ गया। वह मेरे घर से क़रीब दो किलोमीटर दूर था। फ़ोन किया तो मैंने उसको रास्ता बताया। वह आया तो मैंने उससे पूछा -' पता तो यहाँ का दिया था। दो किलोमीटर दूर कैसे पहुँच गए?'

बालक ने बताया कि लोकेशन वहीं की दिखा रहा था। इसीलिए वहाँ पहुँच गए। 

बालक से ब्लिंकइट के काम करने के तरीक़े के बारे में पूछा तो पता चला -'पास ही आवास-विकास में बड़ा स्टोर है। आर्डर मिलते ही डिलीवरी बालक सामान लेकर लपकते हैं पहुँचाने के लिए। दस मिनट में डिलीवर हो जाता है। दस मिनट में नहीं डिलीवर होता है सामान तो कारण बताना पड़ता है। 

बालक की मोटरसाइकिल पर ढेर धूल जमी थी। हमने कहा -'साफ़ रखा करो।' तो बोला बालक -'समय ही नहीं मिलता।'

समय न मिलने की कहानी बताते हुए बोला बालक -'काम बहुत करना पड़ता है। सुबह से शाम तक डिलिवेरी करते हैं। कम्पनी वाले पैसा बचाने के लिए लड़के कम रखते हैं। 

सामान देकर बालक चला गया। हमको एक नई सामान सेवा की जानकारी हुई।

शाम को एक और सामान का आर्डर किया बेटे ने। सुबह यह रह गया था। सामान देने के लिए आया बालक फिर दो किलोमीटर दूर था। पता यहाँ का था लेकिन लोकेशन दो किलोमीटर दूर की। डिलीवरी बालक ने कहा -'लोकेशन यहाँ की ही है। आपके घर कैसे आएँ?' 

हमने रास्ता समझाया। लेकिन बालक अपनी परेशानी बताता रहा। उसकी समस्या यह भी थी या सही समझे तो यह ही थी कि दो किलोमीटर अतिरिक्त चलने में हुए तेल का भुगतान कौन करेगा? 

हमने कहा -'आ जाओ। देख लेंगे।'

बालक आया। सामान लेने के बाद हमने पूछा -'पता तो यहीं का है। तुम क्या वहाँ डिलीवर कर देते जहां लोकेशन के हिसाब पहुँचे थे ?'

उसने कहा -'आपकी बात सही है लेकिन हमको भुगतान लोकेशन के हिसाब से होता है। लोकेशन से अलग डिलीवरी करने पर तेल का पैसा अपने पास से लगता  है। '

पता चला कि बेटे ने चूँकि बाहर से आर्डर किया था सामान इसलिए लोकेशन और पते में अंतर था। अगर हम करते घर से आर्डर तो लोकेशन और पता एक रहता। 

बेटे ने चार सौ किलोमीटर दूर से किया था आर्डर। चार सौ किलोमीटर दूर से आर्डर करने पर लोकेशन और पते में दो किलोमीटर का अंतर आया। मतलब ब्लिंकइट एप में  0.5% की शुद्धता से दूरी का हिसाब करता है। 

बालक ने बताया कि वह यह काम करते हुए पढ़ाई भी करता है। कुछ कंपटीशन की तैयारी भी कर रहा है। उसकी बहन भी नर्सिंग का कोर्स कर रही है। दोनों साथ रहते हैं। संघर्ष है लेकिन मेहनत जारी है। 

आर्डर के हिसाब से एक डिलिवरी के लिए बालक को तीस रुपए मिलने थे। हमने आपने वायदे के मुताबिक़ उसे दे दिए। वह चला गया। 

बालक के जाने के बाद हम काफ़ी देर से इस बारे में सोचते रहे कि आज हर काम के लिए सेवाएँ उपलब्ध हैं। आप पैसा खर्च कीजिए हर सुविधा आपके पास हाज़िर है। पैसे के ज़ोर पर लोग अपनी सरकार तक बनवा ले रहे हैं। एक से एक बदमाश लोग मसीहा बने बैठे हैं इधर-उधर के पैसे के बल पर। 

लेकिन वो लोग क्या करें जिनके पास पैसे नहीं हैं? जिनके लिए ज़िंदगी जीना ही मुहाल है वे कौन सी सेवा लें? काश कोई ऐसा एप होता जो लोगों की न्यूनतम ज़रूरतों का इंतज़ाम करने में सहायक होता। 

लेकिन हमारे सिर्फ़ सोचने से क्या होता है ? दुनिया तो अपने चलन के हिसाब चलती है।




Sunday, October 13, 2024

शरद जोशी के पंच -14

 1. हमारे प्रजातांत्रिक देश में एक बड़ी सुविधा है कि आप महात्मा गांधी से सहमत होकर सत्तारूढ़ पार्थी चला सकते हैं और इसी महात्मा गांधी से सहमत होकर विरोधी दल बना सकते हैं। 

2. मुझे बीड़ी पीता आदमी एक खादी पहने व्यक्ति से ज़्यादा गांधीवादी लगता है। इसमें भारतीय आत्मनिर्भरता है। बीड़ी की टेक्नोलाजी और पैकिंग, जिसे हम बंडल कहते हैं, भारत में परम्परा से विकसित टेक्नोलाजी है।

3. भ्रष्टाचार से परिचय बाल्यकाल में हो जाता है। जन्म लेते ही बच्चे को पता लग जाता है कि नर्स को कुछ लिए-दिए बिना उसकी सफलता से जचकी नहीं हो पाती। 

4.  पिछले वर्षों में व्यवस्था में मनुष्य के जीवन की सारी सुविधाएँ कम करते और छीनते हुए बाज़ार उपभोक्ता सामग्री से पाट दिया है। रिटायर्ड अफ़सर भी चैन से नहीं बैठता। वह प्राइवेट पार्टी के चक्कर काटता, चंद रुपयों के लिए सरकारी रहस्य बेचता, अपने पुराने प्रभाव को भुनाते हुए टेंडर मंज़ूर करवाता फिरता है। नौकरियाँ तलासता रहता है ,ताकि जीवन की सुरक्षा बनी रहे और जीवन की और ऐश की सामग्रियाँ ख़रीदी जा सकें। 

5.  जगह और परिस्थितियाँ पक्ष में हों ,तो शासन करने वाला हद दर्जा नीच हो सकता है।

6. जिसमें ख़रीदने की ताक़त होती है, उसका कभी कुछ नही बिगड़ता। 

7. संसार के सभी देश एक कोण से दुकान होते हैं। 

8. लू चली तो लोग मरे, ठंड बढ़ी तो लोग मरे, बाढ़ आयी तो कुछ डूब गए, तूफ़ान आया और इतनी मौतें हुई, प्रकृति संबंधी हर सूचना इस देश में मृत्यु की सूचना है। 

9. हमारे देश में हेलिकाप्टर का यही महत्व है कि बाढ़ का तांडव देखा जाए। पानी जब जमा हो जाए तब उस पर आंसू बरसाकर पानी का स्तर और उठाया जाए। 

10. सड़क से लेकर जंगल तक हमने आदमी को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। किसी के मरने से हमें कमी महसूस नहीं होती। हमारे देश के बड़े लोग शायद उसे माल्थस के सिद्धांत के अनुसार ज़रूरी और सही मानते होंगे। 

11. सरकार यह मानकर चलती है कि मौसमी मौतें तो होंगी। जब सब कुछ नष्ट होने के साथ मौतें भी होंगी, तब हम भोजन के पैकेट गिराएँगे। जीवित को बचाने के लिए नहीं, मृतकों का श्राद्ध करने के लिए। हमारी यह संवेदना है, यही संस्कृति है। 

एक युवा के साथ कुछ देर

दो दिन पहले शहर में कहीं जाना था। शाम का समय। एक मांगलिक कार्यक्रम में। पहले सोचा अपनी गाड़ी से जाएँ। लेकिन फिर शहर में गाड़ी खड़ी करने की समस्या और दीगर बातें सोचकर तय किया कि ओला से चले जाएँ।
गाड़ी बुक की। तीन बार। तीनों बार ड्राइवर बोला -'आपकी लोकेशन से दूर हैं। कुछ पैसे राइड के अलावा दें तो आएँ।' हमने राइड कैंसल कर दी।
ये ओला/उबर/रैपिडो वाली गाड़ियाँ बुक होती हैं तो गाड़ी वालों को पैसा वहीं से मिलता जहां से सवारी उठाते हैं। सवारी तक पहुँचने की दूरी उनको अपने खर्चे पर तय करनी होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि पाँच किलोमीटर की दूरी के लिए पाँच से ज़्यादा किलोमीटर तय करना होता है। ड्राइवर मना कर देता है या ज़्यादा पैसे माँगता है। कम्पनियों को इसका इलाज करना चाहिए कुछ।
बहरहाल राइड कैंसल करने के बाद तय किया अपनी गाड़ी से ही चलते हैं। निकल ही रहे थे क़ि फ़ोन आया -'कहाँ आना है? किस जगह है घर आपका?'
पता चला कि हमारे राइड कैंसल करने के बाद भी अगली गाड़ी बुक हो गयी। पता नही कैसे? जबकि हमने बुकिंग से मना किया था।
ख़ैर हम इंतज़ार कर रहे थे गाड़ी। नक़्शे पर गाड़ी आती दिखी। पास आ गयी। लेकिन कहीं कोई कार दिखी नहीं। हमने फ़ोन किया तो पास आ गए दुपहिया वाहन का ड्राइवर बोला -'आ गए। चलिए।'
हमारे लिए ताज्जुब की बात थी। अपनी समझ में हमने कार की बुकिंग की थी। वो भी करके कैंसल कर दी थी। ये दुपहिया कहाँ से बुक हो गयी?
'हो जाती है जब आप कोई भी गाड़ी का विकल्प क्लिक करते हैं।'-हेलमेट लगाते हुए दुपहिया सवार बोला।
बहरहाल हम बमुश्किल तमाम बैठे पीछे। सीट काफ़ी ऊँची लगी। पैर घुमा के बैठने में लगा कि जाँघ का जोड़ हिल गया। शायद इसीलिए महिलाएँ एक तरफ़ ही पैर करके बैठती हैं दुपहिया गाड़ियों में।
दुपहिया चालक बालक ही था। बताया कि दादानगर में एक कम्पनी काम करता है। एकाउंटेंट का। बीकाम किया है। शाम को कुछ देर गाड़ी भी चला लेता है। अक्सर दादानगर से कल्याणपुर घर जाते हुए बीच की सवारी उठा लेता है। कभी घर से भी निकल जाता है गाड़ी लेकर। महीने में पाँच-सात हज़ार कमाई हो जाती है इससे। उसको शेयर मार्केट में लगा देता है। पैसा कमाता है, पैसा बचाता है।
एक कम्पनी के शेयर के बारे में बताया। पंद्रह हज़ार में शेयर ख़रीदे थे। सत्रह हज़ार का फ़ायदा हुआ। वो फ़ायदा निकाल लिया हमने। फिर ख़रीद लिए दूसरे शेयर। अपने पैसे निकाल लिए। अब पड़े रहेंगे। कुछ न कुछ देंगे ही फ़ायदा।
हमें लगा कि शायद Vivek Rastogi की पोस्ट्स पढ़ते हुए ज्ञान लेता रहता होगा।
शादी अभी नही हुई है। कह रहा था -'अभी कुछ कमाई कर लें। फिर शादी भी हो जाएगी।'
बालक ने बताया -'काम की कमी नहीं है आज भी। लड़के करते नहीं। वो घर बैठे आराम का पैसा चाहते हैं। लगी-लगाई नौकरी चाहते हैं सब जिसमें कोई मेहनत न करनी पड़े। बस पैसा मिलता रहे, चाहे कम मिले।'
अपने भाई के बारे में भी बताया -' वो कुछ करता नहीं। बस टाईम बरबाद करता रहता है।'
ऐसे तमाम लोग मेरी जानकारी में भी हैं जो किसी बड़े काम लायक़ काबिल नहीं लगते लेकिन कोई दूसरा काम करना नहीं चाहते। हाथ में आए काम से बढ़िया काम की तलाश में निठल्ले बैठे हैं। सालों से। लेकिन सामने दिखने वाले काम को शुरू नही करते।
गंतव्य पर पहुँचने पर बिल आया 41 रुपए। सात किलोमीटर दूरी तय की थी 41 रुपए में। हमें याद आया कि कार के 150 से ऊपर दिखा रहा था। सौ रुपए बचे। नया अनुभव हुआ सो अलग।
बालक ने हमको छोड़ा उस समय रात के क़रीब साढ़े नौ बज रहे थे। उसके काम का समय सुबह ग्यारह से शाम चार बजे तक का है। मतलब लगभग दस बजे सुबह से रात दस तक काम में जुटा रहता है बालक।
आज के समय शहरों में तमाम युवा ऐसी ज़िंदगी जी रहे हैं। दिन भर काम। मैं यह सोच रहा था कि ज़िंदगी की सबसे चमकदार उमर में उनके मनोरंजन और आनंद के मौक़े एकदम सिमट गए हैं। सामाजिकता की गुंजाइश कम से कम होती जा रही है। युवाओं के ऐसी ज़िंदगी कितनी सुकूनदेह है ?

Saturday, October 12, 2024

शरद जोशी के पंच -13

 1.   भारत व्यवस्थित रूप से अव्यवस्थित देश है। यहाँ आप जहां-जहां व्यवस्था देखेंगे,वहीं-वहीं अव्यवस्था उतनी अधिक देखेंगे। आप निश्चित नहीं कर पाएँगे कि आप जो देख रहे हैं ,उसमें व्यवस्था क्या है और अव्यवस्था कितनी है।

2.  जहां बिना हड़ताल का डर बताए मज़दूरों को मंहगाई-भत्ता न देना रिवाज बन गया है, जहां मध्यम तबके के कर्मचारी कभी इज्जत नहीं पाते और जहां मैनेजमेंट कभी मानवीय दृष्टि से नहीं देखता ,वहाँ आप जापान छोड़ कोरिया के बराबर नहीं पहुँच सकते। 

3. शिकायत की जाती है कि भारतवासी से पूरी तरह काम लेना कठिन है। पर कोई भारतवासी पूरी शक्ति से अपना श्रेष्ठ दे सके इसका बुनियादी इंतज़ाम भी नहीं है।  

4. इस देश में मज़दूर को मजूरी करना आता हो या नहीं ,अफ़सर को अफ़सरी करना ख़ूब आता है। और इस अफ़सर में मानवीय तत्व का नितांत अभाव है।

5. इसे देश में बड़े पायेदार नेताओं की दो ही दुर्दशाएँ हैं। वे केंद्र में रहकर अपने राज्य के नाम पर रोते-झींकते रहें या राज्य के मुख्यमंत्री बन केंद्र के चरण पखारते रहें। 

6. अधिक दहेज देना अपनी बहन या अपनी बेटी को अपने जीवन से सदा के लिए काट देने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। 

7. प्राचीनकाल में लड़कियाँ ब्याह देने के बाद भारतीय बाप वानप्रस्थ आश्रम में पड़ा संन्यास आश्रम के बारे में सोचने लगता था। कारण स्पष्ट है, नंगे को फ़क़ीर बनने की प्रेरणा आसानी से मिलती है। 

8. महानगर का अर्थ गगनचुंबी इमारतें होता है, झोपड़ी नहीं। अमीरों को नौकर चाहिए पर नौकरों को घर दिए जाएँ ,यह मुनाफ़ों के अर्थशास्त्र के अनुकूल नहीं। ज़मीन की क़ीमत आदमी से ज़्यादा है। इमारत की क़ीमत इंसानियत से ज़्यादा है। 

9. बम्बई बिल्डरों, मालिकों और धंधेबाज़ों का शहर है। हर कार्यालय उसकी एजेंसी है। रईसों का स्वार्थ जब व्यक्त होता है ,वह नगर की सुंदरता की बात करता है। वह नगर के पाप कम करने का जेहाद नहीं छेड़ता, वह नगर की सुंदरता की लड़ाई छेड़ता है। 

10. जब सब बरबाद हो चुकेगा ,तब नेता अपने बिलों से निकलेंगे, दुःख-दर्द सुनेंगे, जुल्म पर आश्चर्य करेंगे। आश्वासन देंगे। तब राजनीति चालू होगी। गरीबों की सहानुभूतियां  बटोरी जाएँगी ताकि वोटों की फसल उस मैदान से भी काटी जा सके ,जहां कभी झोंपड़े थे। 



Friday, October 11, 2024

दशहरा मेला दिन में

 सबेरे टहलने निकले। गेट के बाहर तीन गाएँ 'अनमन धरना मुद्रा' में बैठी ऊँघ सी रहीं थी। रात भर वहीं बैठी, सोयीं होंगी। गोबर के तीन-चार 'छोत' इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि गायों का कोई अलग शौचालय नहीं होता। जहां बैठ गयीं, वहीं निपट लीं। उनको हटाने की कोशिश की। दो तो तुरंत उठकर चल दीं। तीसरी वहीं बैठी रही। उसको बगलिया के सड़क पर आ गए। गायों को डिस्टर्ब करने में ख़तरा बढ़ गया है आजकल। क्या पता कई जानवर सोचते हों -'अगले जनम मोहे गईया ही कीजो।'

सड़क पर भी जगह-जगह पड़े गोबर के ढेर पढ़े थे। गायें निपटी होंगी रात में या सुबह।
पार्क में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। कुछ बच्चे भागते हुए मैदान पर विकेट लगाने के बाद टीम सेलेक्ट करते दिखे। एक सड़क पर कुत्ते भौंकते दिखे। उनकी बात समझ में नही आ रही थी। उनको भौंकते देख मुझे टीवी चैनलों की तीखी बहस याद आ गयी। कुत्तों की भाषा मुझे नहीं आती कि वे किस बात की चर्चा कर रहे थे लेकिन यह तो अनुमान लगाया जा सकता है कि वे हालिया विधानसभा चुनाव के बारे में चर्चा नही कर रहे थे। न ही ईरान-इज़रायल, रूस-यूक्रेन लड़ाई के बारे में चिंतित थे। इन इंसानी चोचलों से निर्लिप्त वे भौंकने में लगे थे। अपन रास्ता बदलकर, दूसरी सड़क से निकलकर आगे बढ़ गए।
आर्मापुर थाने के सामने सड़क पर हमको ठोकर लगी। गिरते-गिरते बचे। गिरने से बच जाने का सुकून मन में लिए-लिए पीछे मुड़कर देखा। कांकरीट की सड़क पर हो गए गड्ढे में सरिया निकली हुई थी। उसी में पैर फँसा था। गिरते-गिरते बचे। आज मेले का दिन है। सरिया कटने तक दो-चार लोग ज़रूर यहाँ लड़खड़ाएँगे। गिरेंगे।
सड़क पर मोबाइल देखते हुए चलने में ये खतरे तो होते ही हैं।
आर्मापुर बाज़ार से होते हुए रामलीला मैदान गए। पूरे मैदान में प्लास्टिक की पन्नियाँ, काग़ज़, ख़ाली पैकेट दिख रहे थे। जिन लोगों ने मेले में दुकाने लगायी हैं उनमें से कुछ लोग मैदान में दिख रहे थे। एक महिला चाय पीते हुए चाय के ग्लास से अपने गाल सेंकते हुए सामने बैठे आदमी से बतियाते हुए मेले के किस्से सुना रही थी।
रामलीला मंच के सामने एक महिला ज़मीन पर बैठी हुई इधर-उधर देख रही थी। उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे उसके अग़ल-बग़ल सो रहे थे। मेले में खिलौने बेचने आयी थे वह। बताया -'कल बहुत कम खिलौने बिके।' रावतपुर के पास से आयी है वह सपरिवार मेले में खिलौने बेचने। छोटे खिलौने। हमारी बातचीत सुनकर उसके बदल में सोए उसके आदमी की नींद खुल गयी। रज़ाई से मुँह निकालकर उसने अपने होने की घोषणा की। हम आगे बढ़ गए।
मैदान में लगी अधिकतर दुकाने बंद थीं। एक तरफ़ रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले टुकड़ों में रखे थे। उनको जोड़कर पुतले बनाए जा रहे हैं। पुतलों के हिस्से के अग़ल-बग़ल बैठे-खड़े लोग आपस में बतिया रहे थे।
मेले में लगी एक चाट के दुकान में बारे में बताते हुए एक ने कहा -'वह अपनी दुकान हटा रहा है। बता रहा था कि दस हज़ार का सामान लाया था। एक हज़ार की बिक्री नहीं हुई दो दिन में। इससे ज़्यादा तो अपनी चाट की ठेलिया में कमा लेता है।'
हमने कहा -'आज शायद मेले में भीड़ बढ़ेगी। लोग आएँगे। आज छुट्टी है दशहरे की। बिक्री बढ़ेगी। '
'अरे उसने दुकान समेट ली अपनी। जा रहा है लेकर अपना टीम-टामड़ा।' -दुकान की तरफ़ देखते हुए एक आदमी बोला।
अधबने पुतलों के टुकड़े इधर-उधर पड़े हुए थे। दो सिर अग़ल-बग़ल रखे थे। पुतलों के शरीर के बाक़ी हिस्से , हाथ-पैर इधर-उधर रखे थे।
वहाँ मौजूद लोग पुतला बनाने वालों की चर्चा कर रहे थे। बताया -' जहूर बनाते थे यहाँ के पुतले। सालों तक वही बनाते रहे। इसके बाद उनके लड़के ने बनाए।'
इस बार पुतले बनाने का काम मुस्तकीम को मिला है। पचास साल से बना रहे हैं दशहरा में दहन के लिए पुतले। पुतले बनाने का काम अपने गुरु बाबू खां आतिशबाज से सीखा। पहले वे केवल पुतलों की टाँगे बनाते थे। गुरु जी के न रहने पर पुतला बनाने लगे। सचेंडी में रहते हैं। वहाँ चप्पल-जूते की दुकान है। साल भर दुकान चलाते हैं। दशहरा में पुतला बनाते हैं।
मुस्तकीम ने बताया -' बीस जगह पुतले बनाने का काम मिला है शहर में। आज शाम तक दस -बारह बन जाएँगे। बाक़ी कल तक सब खड़े हो जाएँगे।'
पुतलों के ढाँचे बांस की खपच्चियों के बने हैं। ढाँचे के ऊपर धोती का कपड़ा (पतला मारकीन का कपड़ा) चढ़ाते हैं। उसके ऊपर सफ़ेद काग़ज़ फिर रंगीन पुतले वाला काग़ज़। बारिश के पानी की बूँदों के चलते पुतले मटमैले हो गए हैं। उनको पेट्रोल से पोंछ कर चमका दिया जाएगा।
पुतले के धड़ में बांस की खपच्ची बाहर तक निकली है। निकली हुई खपच्ची के सहारे उसको लुढ़काकर इधर-उधर किया जा रहा है।
इस बीच चाय आ गयी। काम स्थगित करके वे पन्नी में लाई हुई चाय को छोटे-छोटे कप में डालकर वहीं बैठकर पीने लगे। उन लोगों ने हमको भी चाय पीने का निमंत्रण दिया लेकिन हमने मना कर दिया। वे चाय पीते हुए अलग -अलग जगह के पुतलों की चर्चा करने लगे । ककवन , सचेंडी, आज़मगढ़, शाहजहाँपुर। एक ने कहा -'आज़मगढ़ का पुतला सबसे बड़ा बनता है।' दूसरे ने कहा -'शाहजहाँपुर का पुतला सबसे बड़ा बनता है- हमने दस साल बनाया है।'
हमने भी शाहजहाँपुर के पुतले के पक्ष में वोट दे दिया और वहाँ का पुतला सबसे बड़ा हो गया। शाहजहाँपुर में 1992 से 2001 तक रहने के दौरान वहाँ की रामलीला की अनगिनत यादें हैं। बाद में 2019 से 2022 तक वहाँ रहे ज़रूर लेकिन कोरोना के चलते मेला नही लग पाया।
पुतले वाली जगह से आगे बढ़कर एक जगह कुछ बच्चे एक कूदने वाले झूले पर कूदते दिखे। चार-पाँच बच्चे कूदते हुए आपस में बतिया रहे थे। हमको फ़ोटो लेते देखकर मेरा मोबाइल देखने लगे। एक ने पूछा -' आइफ़ोन है चच्चा - देख लें?' हमने कहा -'देख लो।' दो-तीन बच्चों ने मेरे मोबाइल देखा।
उनको मोबाइल दिखाते हुए सबसे पहले ,बिना बताए जो विचार मेरे दिमाग़ में घुसा उसने कहा -'कहीं बच्चा मेरा मोबाइल फ़ोन लेकर भाग न जाए।' हमने अपने दिमाग़ को डपट दिया। दिमाग़ बेचारा सहम गया। बोला -'अरे हम तो बता रहे हैं, दुनिया में ऐसा होता है।' हम फिर डपट दिया दिमाग़ को -'चुप रहो । शट अप ।'
बेचारा दिमाग़ सहमकर चुप हो गया।
बच्चे ने मोबाइल देखते हुए दाम पूछा। हमने बताया -'हमको पता नहीं।हमारे बेटे ने लाकर दिया है।'
एक बच्चे ने बताया -बीस हज़ार का होगा। हमारे मोहल्ले में एक जन लाए हैं।'
बच्चे फिर उछलने में तल्लीन हो गए। वो पूरे पैसे और समय की क़ीमत वसूल कर रहे थे।
पता चला बच्चे रावतपुर से आए हैं मेला घूमने। सबने अपने-अपने नाम बताये -'आलोक, रिंकूँ , साहिल, सौरभ।' बाद में उछलते हुए बच्चों ने अपने नाम बदल दिए। कुछ देर में फिर बताया -'हमारे नाम ये नहीं , ये हैं।' हमने उनके नए नाम भी बिना याद किए स्वीकार कर लिए।
बच्चों ने बताया कि वे रावतपुर गाँव से आए हैं। 25 रुपए मिले हैं घर से मेले में घूमने के। दस रुपए झूले वाला लेगा। बाक़ी के पैसे कुछ खाया-पिया जाएगा।
बच्चों ने यह भी बताया कि वे शाम को यहाँ ग़ुब्बारे बेचने भी आते हैं। कल पचास -सौ रुपए के ग़ुब्बारे बेचे।
हम चलने लगे तो झूले पर कूदते हुए बच्चों ने पूछा -'चच्चु यहाँ पानी का नल कहाँ है ? नहाना है। गर्मी लग रही है।'
हमने नल के बारे में बता दिया और चल दिए। आगे एक चाय की दुकान वाला बता रहा था कि उसकी भी बिक्री बहुत कम हुई कल। मेले में भीड़ आयी नहीं। चाय वाले की ठेलिया पर उसकी बच्ची सोयी थी। शायद पत्नी भी। वहीं एक छोटी चप्पल पड़ी थी।बच्ची की चप्पल है। उस चप्पल की जोड़ीदार चप्पल मेले में कहीं खो गयी है। चप्पल बेकार हो गयी।
उस छुटकी चप्पल को देखकर मुझे नर्मदा बांध के निर्माण में डूब जाने वाले गाँव 'हरसूद' के लोगों के विस्थापन की याद आई। लोग जब गाँव छोड़कर जा रहे थे तो इसी तरह छूट गए सामानों की रिपोटिंग करते हुए विजय मनोहर तिवारी ने किताब लिखी थी - 'हरसूद -30 जून।' (विनय मनोहर तिवारी से हुई बातचीत का लिंक )
बिछुड़ी हुई चप्पल मेले के किसी कोने में अकेले गुमसुम अपनी जोड़ीदार चप्पल की याद में गुम होगी। क्या पता किसी को मिल ही जाए और चप्पलें भी मेले में बिछुड़े भाई-बहनों की तरह कभी मिल जाएँ।
दुकान से आगे बढ़कर मेले से निकलकर अपन घर की तरफ़ चल दिए।






Thursday, October 10, 2024

शरद जोशी के पंच -12


1. क्रिकेट या टेनिस में सफलताएँ खिलाड़ी को कमजोर और पत्रिकाओं को मज़बूत बनाती हैं। पत्रिका का एक अंक उम्मीद लगाता है, दूसरा उसी निराशा का विश्लेषण करता है।

2. इस देश में सभी काम श्रीगणेश की कृपा से आरम्भ हो जाते हैं। संस्थाएँ ज़ोर-शोर से खुल जाती हैं, चाहे बाद में निकम्मी और ढोंगी साबित हो जाएँ। आंदोलन आरम्भ होते हैं, जिसके सदस्य कुछ दिनों बाद आपस में लड़ने लगते हैं। प्रवत्तियाँ जल्दी ही दुष्प्रवत्ति में बदल जाती है।

3. इस देश को श्रीगणेश के अतिरिक्त दो देवताओं की ज़रूरत है। एक ऐसा देवता, जिसकी कृपा से आरम्भ हुआ काम ठीक से चलता रहे, बना रहे, सम्भला रहे। और दूसरा देवता हमें चाहिए समापन के लिए। जिसकी कृपा से बेकार और पुरानी चीजें ख़त्म हो जाएँ।

4. भारतीय बाज़ारों का नजारा यह है कि यहाँ सस्ती चीजें रईस ग्राहकों का इंतज़ार करती हैं और मंहगी चीजें गरीब ग्राहकों का। हथकरघे की साड़ी की ग्राहक इंपाला में आती है और टेरीकाट,नायलोन की ग्राहक बेचारी पैदल या बस में।

5. हमारे देश में यही होता है। योजनाएँ बनाती रहती हैं, काम नही होता। होता है तो देर से होता है, और योजना का काम तो निश्चित ही देर से होता है।

6. वास्तव में इस देश की सबसे कठिन और सबसे बड़ी योजना तो योजना बनाने की योजना है। जब योजना पूरी हो जाती है तो, सबको काम पूरा करने का संतोष मिल जाता है, बल्कि उसके बाद काम करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।

7. हर योजना के दो लक्ष्य होते हैं। एक आर्थिक लक्ष्य और दूसरा भौतिक लक्ष्य। आर्थिक लक्ष्य पूरे हो हाते हैं, भौतिक लक्ष्य अधूरे रह जाते हैं। नींव खुद जाती है, खम्भे खड़े हो छत का इंतज़ार करते हैं। छत लग जाती है, तब रंग रोगन के लिए स्वीकृति नहीं मिलती। योजना का बड़ा लक्ष्य है काम करने वालों को वेतन और भत्ता देना। उसके बाद वास्तविक काम के लिए रुपया नही बचता, क्योंकि योजना-व्यय में कटौती हो जाती है।

8. जब भी बाढ़ आती है,केंद्र से बयान आते हैं। इतने वर्षों से ये बयान ही चट्टान की तरह खादे बाढ़ को रोक रहे हैं। बयान यह है कि बाढ़ की समस्या के दूरगामी और स्थायी उपाय किए जाने चाहिए।

9. इस देश में प्रांत समस्यायों से चमक में आते हैं और केंद्र बयानों से। भगवान दोनों को बराबर मौक़ा देता है।

10. लोगों का स्वभाव है कि जब तक उन्हें दांत का दर्द नहीं होता वे पेट-दर्द की शिकायत करते रहते हैं। इसलिए पेट-दर्द की समस्या का हल दाँत का दर्द हो गया है।


रतन टाटा के अनमोल बोल

 कल देश के जाने-माने परोपकारी उद्योगपति रतनटाटा का 86 वर्ष की अवस्था में निधन लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। स्व. रतन टाटा को विनम्र श्रद्धांजलि। 

रतन टाटा के अनमोल बोल :

1.  हम लोग इंसान हैं कोई कम्प्यूटर नहीं, जीवन का मज़ा लीजिए इसे हमेशा गम्भीर मत बनाइए।

2. जीवन में आगे बढ़ने के लिए उतार-चढ़ाव बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ईसीजी में एक सीधी रेखा का मतलब है कि हम जीवित नहीं हैं।

3. हम सभी के पास समान प्रतिभा नहीं है,लेकिन हम सब के पास समान अवसर हैं अपनी प्रतिभा को विकसित करने के लिए।

4. 'सत्ता' और 'धन' मेरे दो प्रमुख सिद्धांत नहीं हैं।

5. अगर आप तेज चलना चाहते हैं , तो अकेले चलिए लेकिन अगर आप दूर तक चलना चाहते हैं तो ,साथ-साथ चलें।

6.  अगर लोग आप पर पत्थर मारते हैं तो उन पत्थर का उपयोग अपना महल बनाने में करें। 

7. अच्छी पढ़ाई करने वाले और कड़ी मेहनत करने वाले अपने दोस्तों को कभी मत चिढ़ाओ। एक समय ऐसा आएगा कि तुम्हें उनके नीचे भी काम करना पड़ सकता है।

8. मैं सही फ़ैसले लेने में विश्वास नही करता। फ़ैसला लेता हूँ और फिर उसे सही साबित कर देता हूँ।

9. जिस दिन मैं उड़ान भरने में सक्षम नहीं हूँ , वो मेरे लिए एक दुखद दिन होगा।

10. टीवी जीवन का असली नहीं होता और ज़िंदगी टीवी सीरियल नहीं होती। असल जीवन में आराम नहीं होता ,सिर्फ़ और सिर्फ़ काम होता है।

11.  अपना जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहता है , इसकी आदत डाल लो। 

-हिंदी दैनिक हिंदुस्तान से साभार 

Wednesday, October 09, 2024

शरद जोशी के पंच -11


1. इस देश में समझदारी के कदम उठाने के लिए व्यवस्था दुर्घटना का इंतज़ार करती है।
2. पर्यावरण-पर्यावरण रोने से पर्यावरण ठीक नहीं होगा। गैस-गैस चिल्लाने से गैसें कम नहीं होंगी। सत्ता के बाप में हिम्मत नहीं कि वह कोई कारख़ाना एक जगह से दूसरी जगह हटा सके, सिफ़ारिशों पर अमल करा सके, कड़ा कदम उठा सके, जो कारख़ानेदार की मंशा के विपरीत हो। आजकल उद्योगों की लल्लो-चप्पो करने के दिन हैं।
3. विकास का अर्थ इस देश में होता है सुखी वर्ग को और अधिक सुविधाएँ प्रदान करना।
4. विकास के काम अड़ंगे डालना राष्ट्रीयता के विरुद्ध है। अत: देश का प्रमुख नारा हुआ 'ठेकेदारों को कमाने दो, गरीबों का हित उसी में है।
5. सारे आचारों में भ्रष्टाचार इस देश में सबसे सुरक्षित है। वह दुबककर काम करने के बाद सीना उठाकर चलता है।
6. भ्रष्टाचार हमारे यहाँ एक सम्मानित आधार है। काफ़ी लोग उसे व्यवहार मानते हैं। ऊपरी कमाई करना व्यावहारिकता मानी जाती है। भ्रष्ट व्यक्ति की प्रशंसा में कहा जाता है कि आदमी प्रैक्टिकल है।
7. भ्रष्टाचार इस देश में उल्टी गंगा है। वह समुद्र से पानी बटोरकर हिमालय तक पहुँचाती है। एक इंस्पेक्टर जब सौ रुपए लेता है तो वह शान से कहता है,मैं अकेला नही खाता। ऊपर वालों को भी खिलाना होता है।
8. भ्रष्टाचार निजी कौशल पर आधारित एक सामुदायिक कर्म है।
9. इस देश में भ्रष्टाचार छत पर चढ़कर वायलिन बजाता है। लोग उसकी लय से मोहित रहते हैं। उसे दाद देते हैं।
10. भ्रष्टाचार एक पत्थर है। दिन-रात यह देश उस पत्थर को हाथ में ले सिर पर ठोंकता रहता है और दर्द से कराहता-अफ़सोस करता रहता है। तो आप उसका क्या कर पाए? धीरे-धीरे यह दर्द मीठी गुदगुदी बन गया है। हम इसे रोकने में अपने को कहीं से असमर्थ पाते हैं।

https://www.facebook.com/share/p/ouQF2iJ89S7Ap8vd/

फ़ेसबुक की सामुदायिक भावना

 कुछ दिन पहले एक लम्बी पोस्ट लिखी थी। एक बातचीत का विवरण देते हुए रपट लिखी थी

पोस्ट में मेहनत से फ़ोटो लगाए थे। उनके कैप्शन थे। वीडियो थे। लिखने में क़रीब चार- पाँच घंटे लगे थे। फ़ोटो लगाने, कैप्शन लिखने में भी आधा घंटा क़रीब लगा। संबंधित लोगों को टैग करने में भी समय लगा।
फ़ेसबुक ने पोस्ट कुछ देर बाद हटा दी। यह कहते हुए कि पोस्ट फ़ेसबुक की कम्यूनिटी भावना के विपरीत है।
कुछ देर बाद फिर पोस्ट की। फिर वही लिखते हुए पोस्ट हटा दी फ़ेसबुक ने।
हमने कुछ मित्रों से कारण पूछा। पोस्ट पढ़ चुकी Bhavna ने सुझाया कि पोस्ट में उपयोग किए शब्द 'प्रगतिशील' से फ़ेसबुक का हाज़मा ख़राब हुआ लगता है। 'प्रगति' और 'शील' को अलग-अलग करके देखिए। हमने किया। सब जगह 'प्रगति' शब्द को 'शील' शब्द से अलग कर दिया। दोनों के बीच गैप दे दिया। क़रीब 18 जगह 'प्रगति' और 'शील' में सम्बंध विच्छेद करना पड़ा।
इसके बाद पोस्ट प्रकाशित की तो फ़ेसबुक ने कोई एतराज नही किया। पोस्ट प्रकाशित हो गयी।
शायद सोशल मीडिया में 'प्रगति' बिना ' शील' से अलगाव के सम्भव नहीं।
यह नमूना है फ़ेसबुक के पोस्ट प्रकाशन पर नियंत्रण करने का। और भी पोस्ट्स इसी तरह से नियंत्रित की जाती होंगी। जिनकी पोस्ट नियमित हटाई जाती होंगी उनकी काट भी वे उसी तरह खोजते होंगे।
इसी सिलसिले में याद आया कि रवींद्र कालिया जी के उपन्यास 'खुद सही सलामत है' में एक महिला पात्र मल्लाही गालियाँ देती है। अपने पात्र से सीधे-सीधे गालियाँ दिलाने में कालिया जी का परहेज़ रहा होगा या नया प्रयोग पर उस पात्र का चित्रण करते हुए कालिया जी ने उसकी गालियों में अक्षरों का क्रम उलट दिया है।
'प्रगति' और 'शील' से शुरू हुई बात 'मल्लाही गालियों' तक पहुँच गयी। फ़ेसबुक जो कराए।

Sunday, October 06, 2024

शरद जोशी के पंच -10



1. जिस देश की हर नदी, हर तालाब गंदा है, वहाँ के हर छात्रों के लिए पता नही यह जानकारी कितनी उपयोगी है कि पानी आक्सीजन और हाइड्रोजन से बनता है। वह सारा जीवन इन तत्वों को हर गिलास में तलाशता रहेगा। उसे बदले में कीड़े और कचरा ही नज़र आएगा।
2. हमारे देश में बच्चा पतला होता है , उसका बस्ता भारी होता है। कुली-मज़दूरों का देश है हमारा। भार उठाने का अनुभव बचपन से होना चाहिए।
3. इस देश के दोहरे दुर्भाग्य हैं। एक तो यह कि जो बहादुर कहलाते हैं वे हत्याएँ करने लगे हैं। और दूसरा दुर्भाग्य यह है कि जो हत्याएँ करते हैं, वे अपने को बहादुर समझने लगे हैं।
4. हमारा दुर्भाग्य यह है कि स्वयं को वीर समझने वाले हत्या में वीरता समझने लगे हैं।
5. इस देश में कहीं-कहीं वीर रस बरसों सड़कर हत्या रस बन गया है।
6. भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता का एक रहस्य यह भी है कि इसने सट्टे और जुए की ऊँचाई प्राप्त कर ली है।
7. आदमी की ज़िंदगी इस देश में यों है कि बचपन में स्कूल में एडमिशन के लिए परेशान, जवानी में नौकरी के लिए और बुढ़ापे में पेंशन के लिए।
8. नौकरी का मिलना एडमिशन से ज़्यादा कठिन है। मिल गई तो लोग सर्विस करते हुए मर गए। तब न मरे तो पेंशन के काग़ज़ मिलने से पहले मर गए। जीवन को श्रेष्ठ और सफल तब माना जाता है, जब आदमी पेंशन लेकर पेंशन खाकर मरे।
9. बड़ी सभ्यता-प्रधान, संस्कृति-प्रधान, गाँव के प्रधान से प्रधानमंत्री तक इस कुर्सी-प्रधान देश की एक प्रधान बात यह है कि बड़े-बूढ़ों की इज्जत करने पर ज़ोर दिया जाता है। मगर इज्जत की नहीं जाती।
10. जो शख़्स एक सरकारी दफ़्तर में पूरी ज़िंदगी खप गया,वह जब रिटायर होता है,तब समस्या की तरह होता है। अर्थात् घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर तक ही महीनों लुढ़कता-घिसटता रहता है, मगर पेंशन के काग़ज़ नही बन पाते।
11. सरकारी व्यवस्था में पैसा जमा करने के सारे दरवाज़े बहुत चौड़े हैं, इंतज़ाम चिकना है। देते से पहुँचते देर नही लगती। मगर जब सरकार से लेना हो तो कितने कील, काँटे, तार, जाली, छन्नी, बंद-खुली खिड़की से आपका हाथ नोट हाथ में लेकर बाहर निकल पाता है। और अक्सर तो निकल ही नही पाता, वहीं फँसा रहता है। जब बाएँ हाथ से कुछ देते हैं तब दाँया हाथ कुछ लेकर बाहर निकल पाता है।

Saturday, October 05, 2024

शरद जोशी के पंच -9



1. जीने का दर्शन दूसरे की मृत्यु हो गया है। हमें हर क़िस्म के समाचार पढ़ने और सुनने के लिए तैयार रहना है, जब तक हम स्वयं समाचार न बन जाएँ। जंगल काट गए हैं,जानवर नही हैं शिकार के लिए,पर शस्त्र हैं,इसलिए पूरा देश जंगल हो गया है। आदमी,आदमी का शिकार कर रहा है। मार रहा है।
2. एक छोटे शहर और महानगर बम्बई में एक बड़ा अंतर यह है कि यहाँ काम होने के बाद कोई किसी को नही पूछता। आज जिस गायक,खिलाड़ी या अभिनेता के पीछे बम्बई वाले पागलों की तरह दौड़ते हैं, वे बुझ जाने के बाद कहाँ किस हाल में ज़िंदगी काट रहे हैं,इसका किसी को पता नही रहता है, न फ़िक्र।
3. व्यावसायिक नगर इस मामले में बड़े निर्मम होते हैं। वहाँ आत्मीयता के सारे प्रदर्शन अस्थायी होते हैं। आज अपनी गरज का मारा जो लाँच देता है, वह कल पानी के गिलास के लिए भी नही पूछता।
4. यदि आप पुलिस को आतंकवादी से निपटने का काम सौंप दें तो वे पूरी तौर पर भिड़ जाएँगे। और जिससे भी भिड़ेंगे उसे मंज़ूर करना पड़ेगा कि वह आतंकवादी है। यह काम इतने ज़ोर-शोर से होगा कि हर तीसरा नागरिक आतंकवादी लगने लगेगा और पुलिस के डर से ऐसा दुम दबाए रहेगा कि सारा आतंकवाद भूल जाए। थाने में जब भी कोई पिटता सुनाई दे,समझिए आतंकवादी है।
5. जिस व्यवसायी को एक चढ़ा हुआ भाव लेने की आदत पड़ जाती है वह इस या उस बहाने वही भाव बनाए रखता है।
6. मंत्री के कक्ष में विधायक न्याय की लड़ाई में संघर्षरत हैं अर्थात वे किसी बलात्कारी या भ्रष्टाचारी को बचाने में लगे हैं। वे यथार्थ को समझ रहे हैं अर्थात किसी ठेकेदार या सप्लायर द्वारा वर्णित तथ्यों को समझ रहे हैं। वे प्रश्नकाल में सवाल पूछ रहे हैं अर्थात किसी व्यावसायिक कम्पनी के स्वार्थों की रक्षा कर रहे हैं।
7. हमारे देश की एक सांस्कृतिक ख़ूबसूरती बरसों से यह है कि हम समस्यायों को घटना के रूप में लेते हैं। इससे शासन व्यवस्था को सुविधा रहती है और जिस पर गुजराती है,वह भी प्रभु-इच्छा मान उसे थोड़ा दुखी हो सहन कर लेता है।
8. समस्यायें बनी रहती हैं और घटनायें भूल दी जाती हैं। इसलिए सरकार कभी घटना को समस्या नही बनने देती। हर साल बाढ़ में लोग डूबते हैं, बलात्कार होते रहते हैं, पुराने या नए मकान ढहते हैं और हमारी व्यवस्था उसे भूलती हुई फिर उस घटना की खबर पढ़ने का इंतज़ाम करती है।
9. कुछ लोगों का कहना है कि जो आदिवासी है,वह आदिवासी बना रहे इसी में उसका कल्याण है। कुछ का ख़्याल है कि बेचारा कब तक आदिम अवस्था में पड़ा सड़ता रहेगा, कुछ भी करके हमें इसे आधुनिक बनाया जाए। मज़ेदार बात यह है कि दोनों हालात में हमें आदिवासी के लिए करना क्या है, कोई नही जानता।
10. क्षेत्र का कल्याण आदिवासी का कल्याण नहीं होता। पक्की सड़कें आदिवासियों को कहीं नही ले जातीं। हाँ, शहरी बुराइयाँ और शोषण का प्रपंच उन तक ज़रूर पहुँच जाता है।
11. देश में हर व्यक्ति के पास आदिवासी कल्याण की निजी योजना है। इस सबसे घबराकर आदिवासी सोचता होगा कि मुझे मेरी झोपड़ी और मेरी मुर्गियों को हमारे हाल पर छोड़ दीजिए, इसी में हमारा कल्याण है।