Tuesday, April 18, 2023

निकट का लोकार्पण और कहानी पाठ



कल साहित्यिक पत्रिका ‘निकट’ के बैनर तले कथा गोष्ठी का आयोजन हुआ। वरिष्ठ कथाकार और और निकट के संपादक कृष्ण बिहारी के आत्मीय अनुरोध पर शहर के प्रमुख साहित्यकार आयोजन में आये और आख़िर तक बने रहे।
कथा गोष्ठी में लखनऊ से आए वरिष्ठ कथाकार नवनीत मिश्र जी और कानपुर की सक्रिय रचनाकार अनीतामिश्रा ने कहानी पाठ किया। कहानी पाठ के बाद प्रसिद्ध कवि आलोचक पंकज चतुर्वेदी , वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद जी , राजेंद्र राव जी और अमरीक सिंह दीप जी ने कहानियों पर चर्चा की। कार्यक्रम का प्रभावी संचालन वरिष्ठ रचनाकार डा राकेश शुक्ल जी ने किया।
कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए कृष्ण बिहारी जी ने हमसे अनुरोध कम आदेश ज़्यादा देते हुए कहा था -‘पंडित जी, आपसे एक अनुरोध कर रहा हूँ। मना मत करियेगा।आपको कार्यक्रम की अध्यक्षता करनी है।’
हमको ‘पंडित जी’ कहने वाले कृष्ण बिहारी जी अकेले हैं। उनके अनुरोध को मना करना आसान नहीं होता। हमने कई तर्क दिये कि मुख्य अतिथि किसी समर्थ रचनाकार को बनाइए। लेकिन बिहारी जी माने नहीं। उन्होंने हमारी किताबों के हवाले देते और यह कहते हुए कि आर्मापुर में कार्यक्रम होने के नाते आप मुख्य अतिथि के सर्वथा उपयुक्त पात्र हैं। बिहारी जी का अनुरोध इसी तरह का था जैसे किसी जमाने में बुजुर्ग लोग अपने बच्चों की शादी अपनी मर्ज़ी से कहीं तय कर देते थे और बच्चों को बिना कोई सवाल किए मंडप में बैठना पड़ता था।
कार्यक्रम लगभग समय पर ही शुरू हुआ। निकट के 34 वें अंक का विमोचन हुआ। हिन्दी की प्रसिद्ध रचनाओं मूलतः उपन्यासों पर चर्चा है। बिहारी जी बिना किसी के सहयोग के लगातार पत्रिका निकाल रहे हैं। यह उनके साहित्यिक लगाव और सात्विक ज़िद का परिचायक है।
अनीता मिश्रा ने अपने कहानी ‘ड्रामा क्वीन’ का पाठ किया। ग्रामीण परिवेश में एक स्त्री पर उसके पति और परिवेश द्वारा उपेक्षा और अत्याचार की कहानी का प्रभावी पाठ किया। तीन-चार साल पहले भी इस कहानी का पाठ सुना था। उस समय कहानी सुनकर जो प्रतिक्रिया मेरी थी , कल दुबारा कहानी सुनने के बाद विचार उससे अलग थे। समय के साथ रचनाओं के बारे में विचार बदलते हैं।
अर्चना मिश्रा के कहानी पाठ के बाद नवनीत मिश्र जी ने कहानी ‘क़ैद’ का पाठ किया। पिंजरे में बंद तोते की कहानी के बहाने समाज और उसमें भी प्रमुख रूप में स्त्री की स्थिति का विस्तार से वर्णन किया। उनका रचना पाठ इतना प्रभावी था कि आधे घंटे से भी अधिक समय तक चले उनके रचनापाठ को श्रोताओं ने पूरे मनोयोग से सुना।
कहानी पाठ के बाद कहानियों पर चर्चा हुई। दोनों कहानियों में स्त्रियाँ अपने जीवन साथी के द्वारा सताई जाती हैं। आख़िर में धर्मात्माओं द्वारा उनका शोषण होता है।
कहानियों पर बात करते हुए पंकज चतुर्वेदी जी ने रघुवीर सहाय की कविता ‘पढ़िए गीता,बनिये सीता’ का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी समाज के लिए यह दुखद है कि वर्षों पहले स्त्रियों की त्रासदी पर लिखी कविता आज भी प्रासंगिक बनी रहे।
प्रियंवद जी ने कहा -‘दोनों कहानियाँ पराजय की कहानियां हैं।’ कहानी के पात्रों में अपनी त्रासदी से मुक्त होने की कोई छटपटाहट नहीं है। बेहतरीन शिल्प, संवाद, कहानी पाठ के बावजूद ऐसा लगता है कि कहानी में कुछ बदलाव की कोशिश होती तो बेहतर लगता।’
राजेंद्र राव जी कानपुर में युवा कहानीकारों की कमी की बात करते हुए कहा -‘आजकल कानपुर में पचास से कम उम्र के कहानी लेखक बहुत कम हैं।’ उन्होंने अनीता मिश्रा की कहानी ड्रामा क्वीन के प्रकाशित होने की कहानी भी साझा की। कहानियों पर बात करते हुए उन्होंने कहा -‘दुख इंसान के जीवन का अपरिहार्य हिस्सा है।’
अमरीक सिंह दीप जी ने कहानियों पर अपनी बात कहते हुए कहा -‘इंसान प्रकृति का सबसे क्रूर जानवर है।’
कृष्ण बिहारी जी ने अपनी बात कहते निकट के प्रकाशन के अनुभव साझा किए। निकट के 34 अंक , बिना किसी सांस्थानिक सहयोग के निकालना अपने में बहुत चुनौतीपूर्ण अनुभव रहा लेकिन मित्रों के सहयोग से निकट निरंतर निकल रही है। बिहारी जी ने निकट निकालते रहने के अपने संकल्प को दोहराते हुए कहा -‘जब तक मैं ज़िंदा हूँ , निकट निकलती रहेगी।’
मित्रों से मिलने वाले सहयोग की चर्चा का ज़िक्र करते हुए बिहारी जी ने बताया -‘जब मैं निकट निकाल रहा था तब लोगों ने कहा था कि सब लोग कहानी देंगे लेकिन प्रियंवद जी नहीं देंगे। लेकिन उन्होंने निकट के लिए कहानियाँ दीं।’
मुख्य अतिथि के रूप में अपनी बात कहते हुए अनूप शुक्ल ने कहा -‘दोनों कहानियों में कहानी के पात्र आख़िर में शोषण के लिए धार्मिक सत्ता की गिरफ़्त में आते हैं। लेकिन ऐसा इसलिए होता है क्योंकि समाज का तानाबाना ऐसा है। समाज धर्म से पहले है।

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Tuesday, April 11, 2023

स्पेनिश और एकाकीपन के सौ वर्ष

 


आज सुबह स्पेनिश के कुछ शब्द सीखे। dualingo मोबाइल एप से। शब्द बार-बार भूल रहे थे, लेकिन एप बिना झल्लाये फिर से सिखाता जा रहा था। सिखाने वाले को मोबाइल एप जैसा धैर्यवान होना चाहिए। जिसने यह एप बनाया वह भाषाओं और मानव व्यवहार का कितना जानकार होगा।
स्पेनिश सीखने के पीछे कोई खास कारण नहीं। संयोग यह कि पिछले महीने गैबरियल गार्सिया मारखेज का प्रसिद्ध उपन्यास 'एकांत के सौ साल' पढ़ा। उपन्यास की कथात्मकता, भाषा और विवरण इतना प्रभावित हुआ कि मारखेज के बारे में कहीं भी कोई जानकारी मिलती , उसको लपककर पढ़ते।
इसी सिलसिले में मारखेज से उनके मित्र की बातचीत के संकलन वाली किताब 'अमरूद की महक' भी पढ़ी। संयोग से इसी समय इस भाषाई एप Duolingo की जानकारी हुई। विदेशी भाषाओं में पहला विकल्प स्पेनिश का दिखा। उसी को सीखना शुरू कर दिया। अब तक 25-30 शब्द सीख चुके हैं। कुछ भूल भी गए। लेकिन का सिखाने का तरीका इतना रुचिकर है कि आगे भी सीखने का मन बनता है।
'एकांत के सौ साल' उपन्यास हमने पहली बार 92-93 में खरीदा था। अंग्रेजी में। one hundred years in solitude । उस समय धूम मची थी इस उपन्यास की।
खरीद तो लिया और सरसरी तौर पर पढ़ भी लिया लेकिन अंग्रेजी में होने और बिना शब्दकोश के पढ़ने के चलते उतना रस नहीं आया जितना उपन्यास का नाम था। उन दिनों बिना शब्दकोश के पढ़ते थे और जिन शब्दों के अर्थ नहीं आते थे उनके अर्थ अंदाज से लगाते थे। कई बार मतलब कुछ और होता था लेकिन हम समझते कुछ और होंगे। पढ़ने की हड़बड़ी में ऐसा होता था। कहने को पढ़ लिए लेकिन पूरा मजा नहीं आता था।
सोचा था दुबारा पढ़ेंगे उपन्यास लेकिन एक दिन हमारे घर हमारे साथी अरविंद मिश्र आये। किताब देखकर ले गए यह कहते हुए कि हम भी पढ़ेंगे। हमने दे दी।
करीब महीने भर बाद हमने किताब के बारे में पूछा तो वो बोले -'वो हमसे चचा ले गए हैं। कह रहे थे पहले हम पढ़ेंगे।'
अरविंद जी के चचा मतलब हृदयेश जी। हृदयेश जी शाहजहांपुर के प्रसिद्द कहानीकार, उपन्यासकार थे। कचहरी में काम करते थे। भारतीय न्यायतंत्र पर लिखा उपन्यास 'सफेद घोड़ा काला सवार' अद्भुत उपन्यास है। इसमें कचहरी के अनुभवों, किस्सों के रोचक विवरण भी हैं।
बहुत पहले पढ़े इस उपन्यास का एक किस्सा याद आ रहा है। उसके अनुसार एक जज साहब को ऊंचा सुनाई देता था। कान में सुनने की मशीन लगाकर बहस सुनते थे। एक दिन मशीन , शायद बैटरी के चलते, कुछ खराब हो गयी। जज साहब को बहस ठीक से सुनाई नहीं दे रही थी। लेकिन कह नहीं पाए। बहस चलती रही। जज साहब बिना सुने सुनते रहे। बहस के अंत में फैसला भी सुना दिया।
आजकल जब किसी अधिकारी या अदालत का कोई निर्णय असंगत लगता है तो मुझे अनायास हृदयेश जी द्वारा लिखा यह किस्सा याद आता है।
बहरहाल बात हो रही थी किताब की। काफी दिन अरविंद जी से तकादा करते रहे किताब का। वो कहते रहे, चचा ने अभी लौटाई नहीं।
बाद में तकादे की अवधि बढ़ती गयी। आखिर में बताया अरविंद जी ने कि लगता है चचा भूल गए। एक दिन बताया -'चचा कह रहे थे कि किताब उन्होंने वापस कर दी।'
लब्बोलुआब यह कि अंग्रेजी की किताब इधर-उधर हो गयी। किताबों की यह सहज गति है। किसी मित्र को दी हुई किताब सही सलामत वापस आ जाये तो सौभाग्य समझना चाहिए।
इधर hundred years in solitude का हिंदी अनुवाद आया तो उसको खरीदा। न सिर्फ खरीदा बल्कि 10-15 दिन में लगकर पढ़ भी लिया। अनुवाद दिल्ली विश्वविद्यालय की मनीषा तनेजा जी ने किया है। पांच साल में किया अनुवाद छपने में करीब बीस साल लग गए।
किताब राजकमल प्रकाशन से छपी है -एकाकीपन के सौ वर्ष । आनलाइन है। 438 पेज की किताब के दाम 499 रुपये हैं। मंगाकर पढ़िए, अच्छा लगेगा।
किताब का अनुवाद बहुत सहज और आसानी से समझ में आने वाला है। पाद टिप्पणियों में विभिन्न शब्दों और परंपराओं के अर्थ समझाए गए हैं। इससे उपन्यास के परिवेश को समझना आसान और रुचिकर हो जाता है।
किताब एक बार पढ़ चुके हैं लेकिन फिर पढ़नी है। अब समझिए कि one hundred years in solitude की लिखाई सन 1965 में शुरू हुई थी। 1967 में पूरी हुई मतलब आज से 56 साल पहले। 1982 में इसे नोबल पुरस्कार मिला और इसे हम पढ़ पा रहे हैं आज 2023 में। समय के कितने अंतराल होते हैं इस कायनात में।
बात शुरू हुई थी स्पेनिश सीखने से। जब किताब छपी थी तब कम्प्यूटर और मोबाइल और एप का कोई चलन नहीं था। कोई सोचता भी नहीं होगा कि हम इस तरह स्पेनिश सीखेंगे। लेकिन ऐसा हो रहा है। स्पेनिश सीखने के बहाने उन समाजों के बारे में सीख सकेंगे जहां स्पेनिश बोली जाती है।

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Monday, April 10, 2023

इतवार की सड़कबाजी

 



कल दोपहर कुछ सामान लेने के लिए बाजार जाना हुआ। सामान की लिस्ट एक प्लेटफ़ॉर्म टिकट के पीछे लिख कर बग़ल में रख ली। चलने के पहले अधूरी लिखी पोस्ट पूरी करने लगे। प्लेटफ़ॉर्म टिकट को शायद बुरा लग गया। वह पंखे की हवा के सहारे उड़कर बिस्तर के नीचे दुबक गई। उसको निकाल के फिर बगल में रखा और फिर पोस्ट लिखने लगे।
पोस्ट लिखने के बाद चलते समय सामान की लिस्ट खोजी। टिकट नदारद थी। लगता है उसको क़ायदे से बुरा लग गया। उसके स्वाभिमान के स्तर को देखकर लगा कि उसकी बेइज्जती सहन करने का अभ्यास नहीं है। कहीं नौकरी न करने के ये साइड इफ़ेक्ट मतलब किनारे के प्रभाव हैं।
बहरहाल, सामान की लिस्ट दूसरे कागज में बनाई। पर्स लिया और चल दिए। चलते हुए पर्स में देखा तो रुपये बहुत कम थे। कोई नहीं एटीएमकार्ड और मोबाइल साथ थे। सोचा पैसा निकाल लेंगे। गूगल पे कर देंगे। आजकल दस-बीस रुपये के भुगतान भी गूगल पे हो जाते हैं।
पैसा निकालने के लिए रास्ते में जितने भी एटीएम मिले, बंद मिले। हर बंद एटीएम पर लगता, आगे कोई खुला मिलेगा। एक जगह मिल भी गया एटीएम खुला लेकिन वहाँ मशीन ख़राब थी।
चलते हुए सोचा अब गूगल पे से या कार्ड से भुगतान ही करना होगा। आजकल यह सुविधा तो हर जगह होती है।
इस बीच देखा बग़ल में रखा मोबाइल गरम होकर बंद हो गया। चलते हुए प्रभात रंजन जी की Prabhat Ranjan आवारा मसीहा पर बातचीत सुन रहे थे वह भी सुनाई देनी बंद हो गई। स्क्रीन पर सूचना लिखी थी -‘ गर्मी के कारण मोबाइल बंद हो गया है।’
इससे एहसास हुआ कि गर्मी कितनी ख़राब चीज है। ज़्यादा गर्म नहीं होना चाहिए। सिस्टम बैठ जाता है।
मोबाइल बंद हो गया लेकिन भरोसा था कि भुगतान के समय तक ठीक हो जाएगा। हुआ भी ऐसा ही। भुगतान के समय से पहले ही मोबाइल होश में आ गया। मानो गहरी नींद से जगा हो। मोबाइल ने हमारे विश्वास की रक्षा की।
लौटते समय ट्रांसपोर्ट नगर से टाटमिल चौराहे की तरफ़ आने वाले ओवरब्रिज से आए। देखा की बीच सड़क पर डिवाइडर बना हुआ है, लोहे की बारीकेटिंग का। अधिकतर गाड़ियाँ सड़क की दायीं ओर जा रही थीं। मतलब कानपुर की सड़क पर अमेरिका का क़ानून चल रहा था। लेकिन हम बायें ही चले। हमेशा चलते हैं। सड़क के क़ानून का पालन करते हैं।
क़ानून पालन का फल यह मिला कि एक बार बायें मुड़े तो बायें ही बने रहे। सड़क ने हमको मजबूरन वामपंथी बना दिया। हमको टाटमिल चौराहे से दायें मुड़ना था लेकिन चौराहे पर बैरिकेटिंग थी। जो लोग सड़क के नियम के हिसाब से ग़लत मुड़े थे वो ही चौराहे से दायें आगे जा पाये थे। क़ानून के हिसाब से चलने का नुक़सान हुआ।
हमको ट्रैफ़िक विभाग पर ग़ुस्सा आया कि कम से कम बैरिकेटिंग के पास लिख देना चाहिए था कि स्टेशन की तरफ़ जाने वाले दायीं तरफ़ से जायें। लेकिन ज़्यादा ग़ुस्सा करने से हमारे दिमाग़ का स्क्रीन भी मोबाइल की तरह उड़ जाएगा यह सोचकर शांत हो गये। बायीं तरफ़ ही आगे बढ़ते रहे।
आगे टाटमिल चौराहा, फिर पुल पार करके दायीं तरफ़ आए। इसके बाद बांस मंडी चौराहे से अनायास बायें मुड़ गये। पिछले हफ़्ते हुई आगज़नी में यहाँ सैकड़ों दुकाने जल गयीं थीं। करोड़ों का नुक़सान हुआ। उस समय देखने आए थे तो रास्ता बंद था। कल खुला देखा तो अनायास उधर ही घूम गये।
कुछ दूर आगे ही जली हुई दुकानें दिखीं। धुएँ के निशान इमारतों में दिख रहे थे। दुकानों में सन्नाटा था। कुछ कुत्ते अलबत्ता वहाँ टहल रहे थे। सामने कुछ पुलिस वाले तैनात थे। कुछ मोबाइल देखते , कुछ सुरती ठोंकते , बतियाते हुए दिख रहे थे। जिन दुकानों पर कभी चहल-पहल रहती होगी वे सब सन्नाटे में डूबी थीं।
जली हुई दुकानों की सामने की पट्टी पर सड़क पर चाय की दुकान थी। नाम लिखा था -‘राम जाने टी स्टाल।’ पहले सोचा वहाँ रुककर चाय पी जाए लेकिन फिर मन नहीं किया। लौट लिए।
लौटे तो घंटाघर चौराहे से नरोना चौराहे की तरफ़ वाले रास्ते से। आराम-आराम से , ख़रामा-खरामा। चौराहे पर जब मुड़ने लगे तो सामने ट्रेफ़िक पुलिस के सिपाही जी अपने मोबाइल को दोनों हाथों में बंदूक़ की तरह थामे दिखे। बाद में पता लगा वो मेरी कार की फ़ोटो ले रहे थे। हमको कारण समझ में नहीं आया। हमने सीट बेल्ट लगा रखी थी। स्पीड ज़्यादा नहीं थी। इंडिकेटर भी दिया था मुड़ने से पहले। फिर काहे की फ़ोटो।
ट्रेफ़िक पुलिस के सिपाही जी ने हमारी फ़ोटो भले खींची लेकिन रोका नहीं। हम भी घूम गये चौराहे से। मुड़ते समय हमने सुना भाई साहब कह रहे थे -‘वन वे में इधर से क्यों आ रहे हो?’
हमको ताज्जुब हुआ कि कहीं लिखा नहीं रास्ते ने एकल मार्ग। लिखा भी होगा तो इस तरह कि कहीं आते-जाते किसी को दिख न जाये।
यातायात व्यवस्थित रखने की मंशा से कभी भी कोई भी रास्ता एकल मार्ग या पथ परिवर्तन हो जाता है। आप जिस सड़क पर रोज़ आते-जाते हैं , पता चला अचानक उससे अलग किसी सड़क पर चलने के लिये सूचना लग जाती है।
लौटते हुए शुक्लगंज ओवरब्रिज के नीचे गन्ने का रस पिया। 20 रुपये ग्लास। भुगतान गूगल पे से किया। भुगतान करते हुए पूछा -‘सलाहुद्दीन किसका नाम है?’ गन्ना पेरते लड़के ने अपनी तरफ़ इशारा किया -‘मेरा नाम है।’ और कुछ बात हुई नहीं उससे। वह अपने अगले ग्राहक , एक रिक्शावाले के लिए , रस निकालने के लिए गन्ना छाँटने लगा था। हम घर आ गये।
बहरहाल यह तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है। इतवार की सड़कबाज़ी के क़िस्से। फ़िलहाल तो नया हफ़्ता शुरू हो रहा है। चकाचक शुरुआत के लिए शुभकामनाएँ।

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Sunday, April 09, 2023

इन दिनों आप क्या पढ़ रहे हैं ?

 



फ़ेसबुक करते ही पूछता है आप क्या सोच रहे हैं ?
अपन हाल ही में पढ़ी हुई किताब ‘अमरूद की महक’ के बारे में सोच रहे हैं। इस किताब में मशहूर लेखक गैबरियल गार्सिया मारकेज और उनके मित्र प्लिनियो आपूले मेंदोज़ा के बीच संवाद हैं। विविध विषयों पर हुई बातचीत का स्पैनिश से हिन्दी में अनुवाद किया है समीर रावल में।
मारखेज की इस बातचीत को पढ़ना रोचक अनुभव रहा। पढ़ते समय मन किया था कि कुछ रोचक जवाब नोट करके फ़ेसबुक पर पोस्ट करेंगे। लेकिन किताब पढ़ने में इस कदर मशगूल हुए नोट करना भूल गये। कुछ रोचक संवाद जो फ़ौरन मिल गये दोबारा खोजने में वो यहाँ पेश हैं :
*इतिहास हर हाल में दिखाता है कि शक्तिशाली जन एक क़िस्म की सेक्स उन्मत्तता से पीड़ित रहते हैं।
*स्त्रियाँ जाति की व्यवस्था को लोहे जैसी पकड़ से सम्भाले रहती हैं। जबकि पुरुष संसार में उन सभी अनगिनत पागलपंतियों में डूबे रहते हैं जिससे इतिहास आगे बढ़ता है ।
*हम सब अपने ख़ुद के पूर्वाग्रहों के बंदी हैं। परिकाल्पनिक मानसिकता वाले आदमी की तरह मैं मानता हूँ कि काम-संबंधी आजादी की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। लेकिन असल ज़िंदगी में मैं अपनी कैथोलिक पढ़ाई और अपने बुरजुआ समाज के पूर्वाग्रहों से नहीं भाग सकता, और हम सब की तरह विरोधाभासी मूल्यों की कृपा पर हूँ।
* स्त्रियाँ संसार को एक जगह स्थित रखती हैं ताकि वो असंतुलित न रहे, जबकि आदमी इतिहास को धक्का देने की कोशिश करते हैं। अंत में ये सवाल उठता है कि दोनों में से कौन सी चीज कम संवेदनशील है।
*एक साहित्यिक काम में हम हमेशा अकेले होते हैं। जैसे सागर के बीच भटका हुआ व्यक्ति। हाँ, यह दुनिया का सबसे एकांतवादी पेशा है। कोई भी किसी लिखने वाले को जो वो लिख रहा होता है उसमें मदद नहीं कर सकता।
फ़िलहाल इतने ही। बाक़ी फिर कभी।
किताब पढ़ते हुए स्पैनिश सीखने का मन बना तो आनलाइन टूल भी डाउनलोड कर लिया-Duolingo. इसमें बांग्ला के साथ कई विदेशी भाषाएँ सीखने की सुविधा है। यह अलग बात है कि अभी तक एक भी शब्द सीखे नहीं स्पैनिश का।
बहरहाल यह तो हुई हमारी पढ़ाई की बात। आप बताइए कि इन दिनों आप कौन सी किताब पढ़ रहे हैं या पिछले दिनों कौन सी किताब पढ़ी या आने वाले समय में कौन सी किताब पढ़ने का मन है।
प्रश्न का जवाब देना आवश्यक नहीं है। लेकिन मन करे तो बताइए कि क्या पढ़ रहे हैं आप ?

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Thursday, April 06, 2023

प्रसिद्धि सच्चाई के भाव को बाधित करती है

 



‘एकांत के सौ साल’ Hundred years of solitude गैबरियल गार्सिया मार्केज की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक मानी जाती है। पिछली सदी की बेहतरीन किताबों में से एक। लेकिन ख़ुद लेखक अपनी इस किताब को अपनी सबसे बेहतरीन किताब नहीं मानते थे।
एक बातचीत में हुए सवाल-जबाब के अंश :
सवाल :हैरानी की बात है: आप कभी भी एकाकीपन के सौ साल को अपने बेहतरीन किताबों में नहीं गिनते जिसे आलोचक सर्वश्रेष्ठ कहते हैं?
जवाब :हाँ, मुझे है। ये किताब मेरे जीवन को हिलाकर रख देने की कगार पर थी। इसको प्रकाशित करवाने के बाद कुछ भी जैसा नहीं रहा।
सवाल : क्यों ?
जवाब : क्योंकि प्रसिद्धी सच्चाई के भाव को बाधक करती है,शायद सत्ता जितना ही, और इसके अलावा ये निजी ज़िंदगी पर एक सतत ख़तरा है। दुर्भाग्यवश जो इससे पीड़ित हैं उनके अलावा इस बात को कोई नहीं मानता।
- गैबरियल गार्सिया मारकेज और प्लिनियो आपुले मेंदोज़ा के बीच संवाद की किताब ‘अमरूद की महक’ से

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Sunday, April 02, 2023

इश्क से बेहतर चाय है


कल पहली अप्रैल थी। दिन भर किसी ने बेवकूफ नहीं बताया। बहुत बुरा लगा। शाम को सड़क पर आ गए। शायद कुछ बोहनी हो जाये बेवकूफी की।
सड़क पर आते ही ऑटो रिक्शा, ई-रिक्शा दिखे। एक ई-रिक्शा को हाथ दिया। फौरन रुक गया। जलवा देखकर मन खुश हो गया। फौरन बैठ गए।
ई-रिक्शा में एक सवारी ड्राइवर के बगल में बैठी थी। दूसरी पीछे की सीट पर। हम उसके सामने वाली सीट पर बैठ गए। सात सवारी वाले ई-रिक्शा में कुल जमा तीन सवारी। फिर भी रिक्शा वाला बिना शिकायत चला रहा था रिक्शा।
पीछे बैठी बच्ची हिजाब पहने थी। चेहरे में केवल आंख दिख रही थी। हाथ में मोबाइल और कोई किताब टाइप की चीज। शायद पढ़ने जा रही हो।
ऑटो से दीवारों पर लिखे नारे दिखे। नारों में सफाई पर जोर था। अधिकतर नारों में दीवार के आसपास पेशाब न करने का आह्वान था। लिखा था :
'यहां पेशाब करना सख्त मना है। पकड़े जाने पर सफाई स्वयं करनी होगी।'
दीवार के आसपास की गंदगी देखकर लगा कि सख्त मनाही के बावजूद लोग वहां हल्के हो रहे हैं। पकड़ने वाले कोई तैनात नहीं थे लिहाजा सफाई का काम स्थगित था।
एक इश्तहार में तो और कड़ी चेतावनी लिखी थी:
'इस बंगले के सामने कहीं भी मूतने वाले के 20 जूते मारे जाएंगे।'
जिस दीवार पर यह चेतावनी लिखी थी उसके आसपास का इलाका और इमारत देखकर लगा कि लिखने वाले 'बंगले' के पहले 'भूत' लिखना भूल गया होगा। दीवार के आसपास की जमीन पूरी गीली थी। इससे लगा कि लोगों ने सजा की धमकी से बुरा मानकर और उसकी परवाह न करते जमकर पेशाब की है।
सजा के रूप में केवल जूतों का प्रावधान देखकर लगा कि नारा लिखने वाला पितृ सत्तात्मक भावना से ग्रसित होगा। ऐसा न होता तो जूते के साथ चप्पल भी लिख देता।
आगे एक देशी शराब की दुकान के पते में बदलाव का बैनर लगा हुआ था। दुकान बमुश्किल 20 कदम आगे ही गयी थी लेकिन उसकी भी सूचना के लिए बैनर देखकर लगा कि दारू की दुकान वाले लोग अपने ग्राहकों का कितना ख्याल रखते हैं।
दुकान भी आगे ही दिखी। लिखा था -'देशी शराब एसी में बैठकर पिये।' 'एसी में देशी' की लयात्मकता बरबस ग्राहक को आकर्षित करती होगी। गर्मी के मौसम में कुछ लोग तो गर्मी से निजात पाने को पीने के आ जाते होंगे।
चौराहे को पार करने पर सागर मार्केट की सड़क पर आ गए। वाहनों के चलने के लिए बनी सड़क दुकानदारों, ठेलिया वालों, पार्किंग वालों के कब्जे के चलते सिकुड़ गयी थी। दया करके थोड़ी जगह लोगों ने वाहनों के लिए भी छोड़ दी थी। उस सिकुड़ी हुई जगह से वाहन सहमे हुए, आहिस्ते-आहिस्ते निकल रहे थे।
बीच सड़क से थोड़ा पीछे एक ठेलिया पर हींग युक्त स्पेशल पानी के बतासे बिक रहे थे। बोर्ड पर दुकान वाले का नाम प्रो. संजय अग्रवाल लिखा था। प्रो. का मतलब प्रोपराइटर होता है। मालिक। हम अपनी अज्ञानता के चलते बहुत दिन तक इसका मतलब प्रोफेसर समझते रहे। आज भी जहां भी प्रो लिखा देखते हैं, सबसे पहले प्रोफेसर ही याद आता है।
यह प्रो. को प्रोफेसर समझने वाली बात अज्ञानता के चलते थी। लेकिन आजकल जिस तरह तमाम उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को शिक्षा के क्षेत्र में नौकरी नहीं मिल रही, पीएचडी किये लोग बेकार बैठे हैं, वे दिहाड़ी के लिए काम मिलने के लिए भी हलकान हैं उसे देखकर तो लगता है कि तमाम पीएचडी धारी लोग ठेलिया लगाने के बारे में ही सोचते होंगे। अमल में भले न ला पाते होंगे क्योंकि अपने यहां शिक्षा इंसान को मेहनत के काम करने में झिझक पैदा कर देती। जेहनी काबिलियत दुनियावी रूप से नाकाबिल बनाती है।
सड़क से गुजरते हुए बगल की बनारसी टी स्टाल में घुस गए। दुकान वीरान थी। कुल जमा तीन ग्राहक थे। जब खुली थी तो काफी भीड़ थी। लेकिन मेट्रो के लिए व्यवस्था के चलते सामने की सड़क बन्द है। दो साल कोरोना में चले गए, फिर मेट्रो के कारण बंदी। 2024 तक मेट्रो के पूरे होने के आसार हैं तब शायद इसके भी दिन बहुरें।
शहर में दो जगह बनारसी टी स्टाल है। यह तीसरा देखकर पूछा हमने -'क्या यह उन्हीं लोगों की है दुकान?'
'नहीं। वो दुकानें दो भाइयों की है। यह अलग है। उनके नाम बनारसी टी स्टॉल है। यह न्यू बनारसी टी स्टॉल है। रजिस्ट्रेशन है।' - दुकानदार ने बताया।
'उन लोगों ने एतराज नहीं किया कि उनसे मिलता जुलता नाम रख लिया?'- हमने पूछा।
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'एतराज क्या करेंगे? हमारा इस नाम से रजिस्ट्रेशन है। वे आये थे देखने। लेकिन देखकर लौट गए। हमारा नाम अलग है।' -दुकान वाले ने बताया।
"'बनारसी टी स्टॉल' की बजाय 'कनपुरिया टी स्टॉल' रखते तो और जमता।" -हमने कहा।
हमारी इस बात का जो जबाब दिया उसका मतलब यही निकलता था कि हमारी दुकान का नाम हम अपनी मर्जी का रखेंगे। तुमको रखना है तो खोल लो अपनी दुकान।
चाय की दुकान पर चाय से सम्बंधित कई सूक्ति वाक्य युक्त छोटे-छोटे फ़ोटो फ्रेम में लगे हैं। कुछ ये रहे:
-सुनो , एक राय है, इश्क से बेहतर चाय है 😍
-गर्मी बढ़ने पर जो चाय छोड़ दे
वो किसी की भी छोड़ सकता है।
-कहाँ सुकून हो hug में
जो मिलता है एक चाय कप में
-चाय दूसरी ऐसी चीज है, जिससे आंखे खुलती हैं
धोखा अभी भी पहले नम्बर पर है।
-कानून में एक ऐसी धारा बना दी जाए
जो चाय न पिये उसे सजा दी जाए।
-सच्चे प्यार की अब हम तुमको क्या मिसाल दें
45 डिग्री में भी हम चाय पीते हैं।
-काफी वाले तो सिर्फ फ्लर्ट करते हैं
कभी इश्क करना हो तो चाय वालों से मिलना
-चाय में गिरे बिस्कुट और नजरों से गिरे इंसान
की पहले जैसी अहमियत नहीं रहती
-खुशी में चाय , गम में चाय
चाय के बाद चाय एंड आई लव चाय
चाय के अलावा एक सूक्ति वाक्य जिंदगी और पैसे से जुड़ा था
-'पैसे भले आप मरने के बाद ऊपर नहीं लेकर जाओ, पर जब तक आप नीचे रहोगे, यह आपको बहुत ऊपर लेकर जाएगा।
सूक्ति वाक्य कुछ देवनागरी में लिखे थे। कुछ रोमन में। हमने पूछा -'ये सब हिंदी में क्यों नहीं लिखे?'
उसने बताया कि -'इसलिए कि हमारी अंग्रेजी कमजोर है।' हमे लगा अंग्रेजी से बदला लेने के लिए उसने ऐसा किया लेकिन आगे उसने कहा -' हिंदी उससे भी ज्यादा कमजोर है।' यह सुनकर हमको लगा कि उसका दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है।
इस बीच कोई मांगने वाला आ गया। दुकान वाले ने कहा -'पैसे नहीं देंगे। चाय पी लो।'
कुछ देर बाद एक और आ गया । उसको उसने चाय के लिए भी नहीं पूछा। उसके जाने के बाद बोला -'आठ चाय हो गई सुबह से। दस तक पिला देते हैं। हमको अपना खर्चा भी देखना है।'
चाय पीने के बाद भुगतान के लिए गूगल पे चक्कर लगाता रहा। करीब दस मिनट लग गए बीस रुपये के भुगतान में। पांच सौ रुपये का नोट था पास में। लेकिन बीस रुपये के लिए पांच सौ का नोट तुड़ाना कुछ ऐसा जैसे .....। अब जैसे के बाद बहुत उपमाएं आईं दिमाग में लेकिन हम लिख नहीं रहे। आप खुद समझ जाओ। मन करे तो समझी हुई बात हमको भी बताओ। देखें हम और आप कितना एक जैसा और कितना अलग सोचते हैं।
चाय की दुकान से निकलकर वापस लौटते हुए मल्टीलेबल क्रासिंग के सामने की दीवार पर लगे हुए छोटे-छोटे गमले दिखे। पूरी दीवार पर लगे गमलों में पानी के लिए पतले पाइप और आगे छुटका फव्वारा। अगर यह व्यवस्था काम करती तो पूरी दीवार हरियाली से भरपूर दिखती। लेकिन देखभाल के अभाव में और लापरवाही के कारण सबकुछ उजाड़ सा हो गया है। यह देखकर फिर से लगा कि किसी भी व्यवस्था को अव्यवस्था में बदलने में हमारी काबिलियत का कोई जबाब नहीं।
व्यवस्था को अव्यवस्था में बदलने की काबिलियत की बात लिखते हुए डॉ आंबेडकर की संविधान के बारे में कही हुई बात याद आ गयी। आपको पता ही होगी। लिखने से क्या फायदा। डर भी है कि किसी को बुरा न लग जाये।
घर के पास ओवरब्रिज के पास दो बच्चियां गले में हाथ डाले जाती दिखीं। बच्चियां उछल-कूद करती हुई जा रहीं थी। ओवरब्रिज की दीवार पर उचककर चढ़ने की कोशिश भी की। इसके बाद वो सड़क पर डांस करते हुए ,इठलाते-इतराते चली गईं।
हम भी टहलते हुए घर लौट आये। अभी चाय पीते हुए लिखते हुए फिर याद आ रहा है -सुनो, एक राय है, इश्क से बेहतर चाय है।

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