Thursday, March 31, 2016

रण्डी की कदर हिजड़ों ने खो दी

चेन्नई के भोपाली ड्राइवर संस्कारधानी में
आज बहुत दिन बाद साइकिल स्टार्ट हुई। जैसे मार्च के महीने में लोग राज्य सरकारों में बाबू लोग कोटेशन, बिल, बाउचर तैयार करके रखते हैं और ग्रांट आते ही पूरी हिल्ले लगा देते हैं वैसे ही हमारी साईकल पैडल मारते ही फ़रफ़रा के चल दी।

मेस के बाहर कुत्ता मिला। कान फ़ड़फ़ड़ाकर बायीं टांग से पीठ खुलाई और सड़क पर दुलकी चाल से टहलने लगा। जब उसने अपनी पीठ खुजाने के लिये टांग उठाई तो मुझे लगा कि मुझे सलाम करने के टांग उठा रहा है। यह गलतफ़हमी तमाम लोगों को होती है। धिक्कार मुद्रा में उठे हाथ को समर्थन में उठे हाथ प्रचारित करके झांसेबाजी करते हैं।

एक आदमी सर ऊंचा करके आसमान की तरफ़ देख रहा था। मुझे लगा शायद कोई ऊंची बात सोचने की कोशिश में है। लेकिन बाद में पता चला कि वह कनेर के पेड़ से कनेर का फ़ूल तोड़ने के उचकने के लिये सही जगह खोज रहा था।

बाहर पुलिया पर दायीं पुलिया (जिसको हम बुर्जुआ पुलिया कहते हैं) पर एक बुजुर्ग आरामफ़र्मा थे। बायीं तरफ़ की सर्वहारा पुलिया पर तीन बच्चे टहलने के बीच बैठे थे। एक लड़का कान में मोबाइल तार (ईयर प्लग) घुसाये कुछ सुनते हुये दोस्तों को कुछ और सुना रहा था। मोबाइल चलने के साथ पावरबैंक से चार्ज भी हो रहा था।

चाय की दुकान पर तीन ड्राइवर बैठे चाय पी रहे थे। दो मद्रास से और एक कोटा से था। चाय के साथ बीड़ी पीते हुये आपस में बतियाते भी जा रहे थे। सुलगती हई बीड़ी उलटी करके हथेली में ऐसे छिपा रखी थी ड्राइवरों ने जैसे राजनीतिक पार्टियां विधान सभाओं में शक्ति परीक्षण के पहले अपने विधायक छिपाकर रखती हैं।

मद्रास वाला ड्राइवर के बातचीत में पेले (पहले), के रे हैं (कह रहे हैं) बोलने से लग रहा था कि भोपाली है। बाद में उसने बताया भी कि वह भोपाल का रहने वाला है। चेन्नई से तीन दिन पहले चला था। रात पहुंचा जबलपुर। रेडिएटर की फैन बेल्ट टूट गयी वर्ना कल ही पहुँच गए होते जबलपुर।

चेन्नई में बहुत दिन हुए रहते तो तमिल कुछ सीख गये होंगे? हमने पूछा।


सब तरफ सूरज भाई का जलवा है
अरे कुछ न सीखे। माचिस की डिबिया की खड़खड़ाहट जैसी बोली। पल्ले न पड़ती। वे सब समझ लेते हैं हमारी बात। इसलिए काम चलता है।

उधर की बोली न समझने के चलते कभी परेशानी होती होगी। कोई धोखा हुआ क्या कभी? पूछने पर बोले- हमको तो आजतक कोई धोखा नहीं हुआ। वहां का आदमी बढ़िया है। धोखेबाज नहीं।

सड़क की बात चली। बोले उधर की सड़क सब बहुत बढ़िया। मलाई जैसी। इधर की चौपट। नागपुर से जबलपुर में बारह बज गए आने में। उधर सड़क खराब होने पर फ़ौरन बनती है। इधर की तरह नहीं कि लटकी रहे।
टोल टैक्स 1500 रूपये से ऊपर का ठुक गया। कोटा वाला बोला- 'हमारे आने-जाने के 7000 रूपये हो जाएंगे।'
पहले ओवरलोड करके ले जाते थे गाड़ी। अब नहीं। 16 टन की गाड़ी है तो एक टन माल कम ही लादते हैं। 50 किलो भी कहीं ज्यादा पकड़ गए तो पांच हजार का चालान फाड़ते हैं। मगरमच्छ की तरह मुंह फाड़ते हैं बहन.....।

पहले दायें-बाएं करके निकल लेते थे। अब हर जगह आरटीओ चेकिंग नाका लगा दिया है। ट्रक ड्राइविंग पहले अच्छा काम था। लेकिन आजकल हाल खराब हैं। कोई ड्राइविंग में आना नहीं चाहता। नए ड्राइवरों और नए नियमों पर अपनी राय बताते हुए बोले:

रण्डी की कदर हिजड़ों ने खो दी
हिजड़ों की कमर लौंडों ने खो दी।

आजकल के लौंडे हिजड़ों से ज्यादा कमर मटकाते हैं।

बीड़ी पीने का तर्क देते हुए बोले- 'नींद से बचने के लिए पीते हैं। इसके बिना गुजारा नहीं।' हमने पूछा -'फिर दारु भी पीते होगे।' बोले -'दारु नहीं पीते। गांजा पीते हैं। दारू में ऐंठता है आदमी। कोई बोला -बे। दारु के नशे में आदमी बोलता है-क्या है बे! बवाल हो जाता है इतने में। गांजा में कोई गाली भी दे तो आदमी प्यार से बोलता है। गांजा दिलखुश नशा है।'

'पर गांजा तो बैन है।पुलिस पकड़ती होगी।' मैंने कहा।

'अरे काहे का बैन। पुलिस खुद बिकवाती है। पकड़े तो सौ रूपये का नोट दो और एक्सीलेटर दबाओ। आगे बढ़ो। सब कानून ऐसे ही चलते हैं। पैसे से सेटल होते हैं।'- ड्राइवर ने बताया।

लौटते हुए अगर भोपाल का माल मिल गया तो घर हो लेंगे। नहीं तो सीधे चेन्नई निकल लेंगे। कुछ पता नहीं कब घर जाएंगे। वैसे पंद्रह दिन में एक चक्कर लग जाता है घर का। लड़का भी ट्रक चलाता है।

उनको छोड़कर हम वापस लौटे। सब तरफ सूरज भाई ने पूरी रोशनी की ग्रांट फैला रखी थी। पेड़, पत्ती, फूल, सड़क, झाडी, दीवार सब तरफ धूप ही धूप। जितनी मन आये खर्च लो। एक महिला सड़क पर जा रही थी। उसकी परछाई उसके कद से कई गुना लंबी होकर सड़क पर पसरी थी।

सुबह हो गयी थी। मार्च महीने के आखिरी दिन की सुबह। कैलेंडर का सबसे लंबा दिन होता है मार्च महीने का आखिरी दिन। हफ़्तों पसरा रहता है। है न ?
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अरे 31 मार्च जी,आओ, आओ

अरे 31 मार्च जी,आओ, आओ,
मजे करो, पसरो, मुस्काओ।

सबसे लम्बे दिन हो जी तुम,
हफ़्तों पसरे रहते हो जी तुम।

अप्रैल की भी कुर्सी रहते छेंके,
कैसे निष्ठुर, निर्मम हो जी तुम।

सबसे ज्यादा तुम ग्रांट पचाते,
सबसे ज्यादा काम दिखाते तुम।

सबसे ज्यादा भौकाली हो तुम,
बाबुओं की ईद, दीवाली हो तुम।

ट्रैजरी के आंखों के तारे हो तुम
एकाऊंट्स के राजदुलारे हो तुम।

सब दिन इतना काम अगर हो,
देश उछल के सबसे आगे तुम।

लेकिन ऐसा होगा कैसे जी,
लगते केवल फ़र्जी हो तुम।

अप्रैल फ़ूल बनाते जी तुम,
इधर-उधर करवाते जी तुम।

खैर चलो तुम मौज करो जी,
हम भी चलते सैर को हैं जी।

-कट्टा कानपुरी

Monday, March 28, 2016

नर नारी

होली की छुट्टियों में यह उपन्यास पढ़ा। बहुत दिन तक पढ़ना स्थगित करने के बाद। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को केंद्र में रखकर रोचक लिखा उपन्यास।

एक पुरुष शारीरिक रूप से अक्षम होता है पर उसकी पत्नी को बाँझ का तमगा मिलता है। एक पति अपनी पत्नी को अपने कब्जे में रखने को ही मर्दानगी मानता है। अपनी कमजोरी के लिए भी अपरोक्ष कारण पत्नी को मानता है।

मजेदार अनुभव रहा इसे पढ़ना। अब फिर से खूब पढ़ना जारी रखने का मन है।


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युवा किरण "झुलसबबुला" हो गयी

आज अभी कमरे के बाहर निकलकर बरामदे में आये तो देखा सबेरा हो सा गया है. लान पर पसरी घास के रजिस्टर पर धूप ने अपने दस्तखत करके अपनी हाजिरी लगा दी है.

हाजिरी लगाने के बाद किरणें इधर- उधर टहलने निकल गई. कुछ किरणें पेड़ों पर चढ़कर इधर-उधर का नजारा देखने लगीं जैसे स्टेडियम के बाहर की छतों पर चढ़ कर लोग मैच देखते हैं.

पेड़ पर एक पत्ते ने किरणों को देखकर छेड़खानी सी करते हुए धीरे से कहा-क्या जम रही हो जी! अगल-बगल के पत्ते भी बेशर्मी से खी खी करने लगे. इस पर एक युवा किरण "झुलसबबुला" हो गयी. उसने अपनी सहेली हवा के साथ मिलकर उस पत्ते को इत्ती जोर से झकझोरा कि वो पेड़ से टूटकर नीचे गिरा और इधर-उधर करवटें लेते हुए तड़पने लगा.हर कोई उस पत्ते को अपने से दूर धकेलकर उससे अपना कोई संबन्ध न होने का दिखावा करते दिखा.

किरण ने फिर पेड़ से पत्तों की शिकायत की.पेड़ ने भी मौका अच्छा जानकार दो-चार ठरकी मनचले पत्तों को अपने से अलग कर दिया जैसे राजनीतिक पार्टियाँ पकड़े जाने पर अपने गुर्गों को पार्टी से निष्काषित करके अपने पाक-साफ होंने का एलान करती हैं.

कुछ किरणें पानी के टैंक में घुसकर जलक्रीड़ा करने लगीं. उनको खेलते देखकर आसपास के फूल-पौधे मुस्कराते हुए तालियाँ सरीखी बजाने लगे.

इत्ते में सूरज भाई भी दिख गए.जैसे एयरपोर्ट पर अगवानी के लिए अमला न मौजूद होने पर दौरे पर निकला बड़ा अफसर भन्नाता हुआ दीखता है वैसे ही वे मुआयना करते दिख रहे थे. सड़क पर लोग सूरज के तेवर से बेखबर आवाजाही में लगे हुए दिख रहे थे.

हमने थोड़ा सहमने का नाटक करते हुए सूरज भाई को बुलाया- "आइये भाई! चाय ठंडी हो रही है."

सूरज भाई ने भी मुस्कराते हुए कहा-" आते हैं आप शुरू करो"

हम चाय की चुस्की लेते हुए सूरज भाई को आते देख रहें है. सुबह हो ही गयी. आप मजे करो. मी अभी आता हूँ.

Tuesday, March 22, 2016

तुम्हें जीवन की डोर से बांध लिया है

फुटरेस्ट पर खड़े होकर बतियाते हुए बालक
सबेरे निकले साइकिल स्टार्ट करके तो पुलिया पर एक भाई अपना बदन तोड़ते दिखे। गरदन बड़ी दूर तक और देर तक घुमाई। ऐसा लगा मानो दिली तमन्ना गरदन धड़ से जुदा करके शरीर की सरकार अस्थिर करने की हो।

गरदन से फ़ुरसत हुये तो कमर पर हमला किया। इतनी घुमाई कमर मानो खोपड़ी पीछे करने का इरादा पक्का कर किया हो। पर अब शरीर के अंग कोई पार्टी के विधायक तो होते नहीं जो एक शरीर छोड़कर दूसरे में शामिल हो जायें। इसलिये बहुत कोशिश करने पर भाई साहब का शरीर एकजुट बना रहा।


सुबह की शाखा के स्वयंसेवक
एक महिला टहलते हुये बड़ी तेजी से हाथ हिलाते हुये जा रही थी। उसके हाथ कुछ छोटे से थे। ऐसा लगा कि तेज हाथ हिलाकर वह उनको कुछ लंबा करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन हाथ उतने ही लम्बे बने रहे।
अभी सूरज भाई निकले नहीं थे लेकिन आसमान पर उजाला पसरा हुआ उनके आने की उद्घोषणा कर रहा था। सभी दिशाओं पर किरणों की सर्चलाईट मारते हुये बार-बार घोषणा सी कर रहा था -’हम सबके प्यारे जगतहृदय सम्राट सूरज भाई बस अभी पधारने ही वाले हैं।’

पक्षी चहचहाते हुये सूरज भाई का इंतजार कर रहे थे। कुछ तो गुस्से में चिंचियाते हुये भी दिख रहे थे मानो कह रहे हों--’ जल्दी आओ यार, देखकर फ़िर निकलें कुछ दाना-पानी खोजने के लिये।’


सेना का सामान लेकर जाती हुई मालगाड़ी
दीपा से मिलने गये आये। उसके पापा टमाटर काटकर सब्जी बनाने की तैयारी कर रहे थे। आसपास के कमाई करने के लिये आये लोग वापस अपने घरों को लौट गये थे। जाते समय ईंधन की बची हुई लकड़ी दीपा के पापा को दे गये थे। दीपा को जो किताबें कविता, कहानी की लाये थे उनमें से कुछ कवितायें उसने याद की हुई थीं। सुनाई भी हमको।

हमने पूछा- ’कैसे याद की?तुमको तो ठीक से पढ़ना आता नहीं।’

’मैडम ने पढकर सुनाई। हमने चीटिंग करके याद कर ली।’- दीपा ने बताया।

शोभापुर क्रासिंग बन्द थी। एक डम्पर का ड्राइवर बगल में रुके मोटरसाईकल वाले को बता रहा था कि चौराहे पर पुलिस वाले ने उससे 100 रुपये वसूल लिये। यह कहकर कि नो इंट्री लग गयी है। ड्राइवर को पता है कि नो इंट्री का समय नहीं हुआ था लेकिन अगर वह बहस करता तो डम्पर दिन भर के लिये थाने में खड़ा कर लेता पुलिस वाला इसलिये 100 रुपये थमा दिये पुलिस वाले को।


सूरज भाई का जलवा सब जगह है
नई दुनिया अखबार में खबर छपी है- ’प्रदेश में होगी सबसे स्मार्ट पुलिसिंग, ’वार रूम’ से सभी जिलों की निगरानी’। मतलब कोई वाहन इंट्री शुल्क चुकाये बिना अंदर नहीं घुसेगा शहर के।

ट्रेन आने में देर हुई तो मोटरसाईकल सवार बच्चा ड्राइवर सीट के फ़ुटरेस्ट पर खड़े होकर बतियाने लगा। उसकी टी शर्ट और पैंट में अलगाव हो गया। अंगप्रदर्शन टाइप होने लगा। होली का मौका होता तो कोई उसकी पैंट नीचे खींचकर ’बुरा न मानों होली है’ कहते हुये फ़ूट लेता।

देखते-देखते बच्चा ड्राइवर की तरफ़ का दरवज्जा खोलकर अंदर बैठकर बतियाने लगा। जब ट्रेन निकली तो नीचे उतरा। उसकी फ़ोटो उसको दिखाई तो बडी तेज हंसा। इसके बाद वह मोटरसाईकिल और अपन अपनी साईकल स्टार्ट करके आगे बढ़ गये।

व्हीकल मोड़ की तरफ़ जाते हुये शाखा पर चार लोग दिखे। साइकिल सड़क पर खड़ी करके उनसे बतियाये। तीन बच्चे और एक युवा थे शाखा में। बच्चे कह रहे- ’आज भैय़ा जी देर से आये।’ कक्षा 6, 8 और 9 में पढ़ते हैं बच्चे। हमने कहा - कक्षा 7 का कोई बच्चा नहीं। हम 7 में पढ़ने लगते हैं ताकि क्रम बन जाये। सब हंसने लगे।
बच्चों के नाम पूछे तो बच्चों ने सावधान मुद्रा में खड़े होकर बताये। हर्ष राजभर, निखिल दुबे और एक नाम बिसर गया। भाई जी निखिल परस्ते 2008 में जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज से पढाई करके फ़िलहाल मध्य प्रदेश पावर कारपोरेशन में काम करते हैं।

सुबह 630 से 730 तक का समय है शाखा का। झंडा वंदन,सूर्य नमस्कार, योग आदि के बाद फ़ुटबाल खेलने का प्लान था। हमने पूछा- ’आप लोगों की तो ड्रेस बदल गयी। पर आप अभी तक हाफ़ पैंट में हैं। इस पर निखिल ने बताया कि अभी आधिकारिक तौर पर नहीं बदली ड्रेस। जब बदलेगी तब पहनेगे।

हमने पूछा- ’आप दो चार ही लोग दिखते हैं शाखा में। कितने लोग जुड़े हैं इस शाखा से?’

15-20 लोग जुड़े हैं। लोगों की जाब लग गयी कहीं बाहर इसलिये कम हो गये लोग लेकिन आते रहते हैं कभी-कभी। -निखिल ने जानकारी दी।

”कोई आर्थिक सहायता भी मिलती है किसी से शाखा लगाने के लिये’- मैंने पूछा।

’ सब कुछ स्वयंसेवक को ही करना होता है। कोई सहायता नहीं मिलती कहीं से।’ निखिल ने बताया।

चलते हुये फ़ोटो खींची। झंडा निखिल के ठीक पीछे था। एक बच्चे ने मजे लेते हुये कहा- ’ ये भैया जी की टोपी है।’

चाय की दुकान पर एक आदमी अकड़ा सा बैठा चाय पी रहा था। हम भी सिकुड़कर उसके बगल में बैठ गये। चुपचाप चाय पीते रहे। बगल में रेल की पटरी पर एक मालगाड़ी खड़ी थी।खमरिया फैक्ट्री से 84 एम एम बम लेकर जा रही थी। 70 साल पुरानी रेललाइन से दो डब्बे पटरी से उतर गए। रेल लाइन की मरम्मत के बाद आगे बढ़ेगी गाड़ी।

लौटते हुये देखा कि शाखा में एक और जुड़कर कुल पांच लोग हो गये थे। आपस में फ़ुटबाल खेल रहे है।

झील के पास जाकर देखा सूरज भाई अपनी किरणों को फ़ैलाये पूरे तालाब पर अपना कब्जा कर लिये थे। ऊपर और नीचे दोनों जगह चमक रहे थे। सुबह हो गयी थी।

गाना बज रहा है:
’तुम्हें जीवन की डोर से बांध लिया है
तेरे जुल्मों सितम सर आंखों पर।’

Monday, March 21, 2016

मेरा प्यार भी तू है, ये बहार भी तू है

गेट नंबर 3 की तरफ जाते हुये रघुवर दयाल
सुबह जगे तो बाहर चिडियों के चहचहाने  की आवाज आ रही थी। पहले तो लगा भारत माता की जय बोल रहीं हैं । पर फिर लगा कि चिडियां शिकायत कर रहीं थीं कि कल कोई कविता तक नहीं लगाई ’गौरैया दिवस’ पर। हम बाहर आये तो देखा बड़ी चिडिया ’गुडमार्निंग’ कर रही थी । शायद मुस्करा भी रही हो। चोंच दूर होने के चलते देख नहीं पाये कि मुस्कराने से उसके गाल पर कोई गढ्ढा पड़ा कि नहीं।

कल गौरैया दिवस पर हमने चावल के कुछ दाने टैरेस पर फ़ैला दिया। सोचा कि दाना बिखेरते ही गौरैया चींचीं करते आयेगी और चावल चुगने लगेगी। लेकिन अभी तक किसी चोंच ने चावल चुगा नहीं है। चावल चिडियों के इंतजार में टेरेस पर पलक पांवड़े सा पसरा हुआ है।

चावल के ऊपर टेलिविजन केबल का तार सतह से कुछ ऊपर उठा लटका हुआ है। उस पर आती-जाती चींटियां किसी हाई वे पर तेज गति से आती-जाती कारों सरीखी दिख रहीं हैं। कभी कोई चींटी सामने से आती किसी दूसरी चींटी के सामने आ जाती तो दोनों पल भर के लिये ठिठक जातीं और फ़िर तेजी से आगे, अपने-अपने रास्ते मुस्कराते हुये चल देतीं।

टहलने निकले तो मिसिर जी पुलिया पर अपने साथी के साथ बैठे थे। उनसे बतियाते हुये देखा कि एक कार ड्राइवर ने कार का दरवाजा खोला। इसके बाद अपने मुंह का मसाला सड़क को सप्रेम भेंट करके स्वच्छता अभियान में अपना विनम्र योगदान देकर दरवाजा बन्द किया और तेजी से आगे चला गया। ड्राइवर के मुंह से निकले मसाले की पीक सड़क पर असहाय, लावारिश पड़ी रही।


माता के आने से आँख चली गयीं
मुंह से सड़क पर गिरने से ’मसाला-पीक’ की हड्डी-पसली बराबर हो गयी होगी। क्या पता वह मारे दर्द के कराह भी रही हो। लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़ी जैसे दूर-दराज के इलाकों में होने वाली अनगिनत जघन्य हत्याओं, अपराधों की चीख हमको सुनाई नहीं पड़ती क्योंकि मीडिया का माइक और कैमरा वहां तक पहुंच नहीं पाता।
चाय की दुकान पर एक बुजुर्ग महिला मिली। उनका बेटा अनुकंपा के आधार पर नौकरी करता है। नौकरी मिलने के बाद बिगड़ गया। नशा-पत्ती करता है। अब बुजुर्ग महिला मात्र अपनी पेंशन के सहारे गुजर करती है। एक आदमी ने अपनी राय बताई- ’अनुकम्पा के आधार पर जिन लड़कों को नौकरी मिलती है उनमें से अधिकांश दारू-गांजा के चक्कर में पढकर बरबाद हो जाते हैं। अचानक 20-25 हजार रुपये मिलने लगते हैं तो पगला जाते हैं। औरतों को ही नौकरी करनी चाहिये आदमी के मरने पर। कम से कम परिवार तो चलता रहता है।’

बात हो रही थी कि मंदिर की तरफ़ से डगरते हुये 'दृष्टि-दिव्यांग' रघुवर दयाल डगरते हुये आये। हाथ-पैर के साथ बोलते हुये मुंह के जबड़े भी हिल रहे थे बुरी तरह। चाय वाले ने बताया कि ये माताराम (जो कल मिलीं थीं) के पति हैं। हमने पूछा कि आज माताराम किधर चली गयीं? बोले-’वे आज जीआईएफ़ चलीं गयीं। वहां मांगेगी।’
आंखें कैसी चली गयीं पूछने पर बोले-’ बड़ी माता निकली थीं। पांच साल की उमर में। आंखें नहीं रहीं।जिस बीमारी के कारण आँख चली गयी उसके लिए भी इतनी इज्जत से सम्बोधन -बड़ी माता ।’

साठ से ऊपर की उमर के आदमी की आंख चली जायें पांच साल की उमर से तो उसने उस उमर तक जो देखा होगा वही उसकी स्मृतियों में बसा होगा। पता नहीं क्या देखा होगा आखिरी समय? पेड़, पौधे, पत्ती, धूप, सड़क, तालाब, पानी, अंधेरा, उजाला, किसी का चेहरा या फ़िर कुछ और। जो भी देखा होगा आंख न रहने के पहले वही-वही फ़िर-फ़िर यादों में आता होगा।

हम जो लोग आंख वाले हैं, दुनिया देख सकते हैं, आमतौर पर यह महसूस नहीं कर पाते होंगे कि जिनके आंख नहीं हैं वे कितनी बड़ी नियामत से वंचित हैं। हमको उनके मुकाबले जो मिला है वह अनमोल है।

रघुवर दयाल नाम है बुजुर्ग का। मातारानी का नाम है बुढिया बाई। उस समय बुजुर्गों ने दोनों की शादी करा दी कि कम से कम दोनों के लिये संगसाथ तो हो जायेगा। कल बीस रुपये कमाये रघुवरदयाल ने। हमने सिक्का दिया तो टटोलकर बताया -एक रुपया है। इसके बाद लपकते हुये गेट नंबर 3 की तरफ़ चल दिये रघुवरदयाल।
दूर ट्रेन पटरी पर धडधड़ाती हुई चली जा रही थी। बगल में टेसू का पेड़ हिलते हुये रेल को टाटा कर रहा था। ट्रेन मुस्कराती हुई चली जा रही थी। सीटी बजाती हुई। हल्ला मचाती हुई। सोये हुये लोगों को जगाती हुई।

सूरज भाई किरणों की पिचकारी से उजाला चारो तरफ़ फ़ैलाते हुये लगता है होली की तैयारी में लगे हुये हैं। पत्तियों पर फ़िर-फ़िर धूप मल रहे हैं। पत्तियां हिल-डुलकर मुस्कराती हुई मना सा करती हुई धूप अपने चेहरे पर धारण करते हुये चहक रही है।

बगीचे में धूप में खिलते हुये एक कली शायद किसी भौंरे को सुनाते हुये गाना गा रही है:

’मेरा प्यार भी तू है, ये बहार भी तू है
तू ही नज़रों में जान-ए-तमन्ना, तू ही नज़ारों में
तू ही तो मेरा नील गगन है, प्यार से रोशन आँख उठाये
और घटा के रूप में तू है, काँधे पे मेरे सर को झुकाये
मुझ पे लटें बिखराये।’
लगता है सुबह हो गयी। नहीं क्या?
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Sunday, March 20, 2016

एक चाय और ले आएं साहब

'प्रभु -पहले बड़ी रौनक थी फैक्ट्री में'
प्रभु
आज चाय की दुकान पर मिल गए प्रभु। 69 साल के हैं। वीएफजे से रिटायर। बात शुरू होते ही किस्से सुनाने लगे।

'हमारे परदादा और उनके साथ के लोग 1904 में हमीरपुर से जबलपुर आये थे। पैदल । उस समय ट्रेन तो चलती नहीं थी। छह महीना लगा था। हमारा बाप यहीं मैदान में पैदा हुआ था। उसके हफ्ते भर बाद उसकी माँ मर गई। कोई महामारी फैली थी उन दिनों। यहीं मैदान में दफना दिया गया था उसको।

साथ ने बकरियां भी लाये थे परदादा। मटके में बकरी का दूध इकट्ठा करके यहीं जंगल में लकड़ियाँ जलाकर गरम करके बाप को रुई के फाहे से पिलाते बाप को। जी गया बाप। 93 साल की उमर तक पेंशन खाकर मरा।
घर के सब भाई नौकरी पर हैं। बहने भी। पत्नी कई साल पहले गुजर गयीं। कंचनपुर में रहते हैं अभी। चार बच्चे थे। दो मर गए। दो बचे हैं। प्राइवेट काम करते हैं।

'बीबी मरी तो फिर दुबारा शादी क्यों नहीं की। कर लेते अपनी जैसी स्थिति की औरत से। दोनों को साथी मिल जाता'- हमने कहा।

अरे मन था। लेकिन लौंडे छोटे थे। घर वालों ने सपोर्ट नहीं किया नहीं तो कर लेते। अब लौंडे बड़े हो गए हैं। साले, सुनते नहीं। सब अपने में मस्त हैं।

जब कोई जुगाड़ नहीं हुआ तो क्या करते? शहर में इधर-उधर चले जाते थे। काम चला लेते थे।

'तुम भी अपने बाप की नहीं सुनते होंगे जब बड़े हो गए हो गए होंगे।'- हमने कहा।

अरे नहीं। हम लोग बहुत इज्जत करते थे बाप की। आज के लौंडे सुनते नहीं। -'प्रभु उवाच।

'इसी मैदान में बाप पैदा हुआ था हमारा'
प्रभु
फैक्ट्री के किस्से सुनाये। एक पुराने अधिकारी का नाम लेकर बोले-'साहब किसी से दबते नहीं थे। जीएम से भी भिड़ जाते थे। पीकर आते थे। दफ्तर में भी चढ़ा लेते थे। लेकिन गरीब आदमी का नुकसान नहीं करते थे।  फोरमैन को टाइट किये रहते थे। आकर सुबह इंस्पेक्शन करते थे। फिर बोलते थे- 'प्रभु चाय बनाओ। ब्लैक टी लाओ। ये लाओ। वो लाओ। हम उनके बंगले गए थे जहाँ रिटायरमेंट के बाद रह रहे। बड़ा बंगला है।'

फैक्ट्री के और किस्से सुनाते हुए बोले-' पहले बहुत रौनक थी साहब यहाँ। 14-15 हजार आदमी काम करते थे। एकदम चांदनी चौक जैसा माहौल। शक्तिमान, जोंगा, निशान धकाधक बनते थे।'

इस बीच किसी से पता चला कि हम फैक्ट्री में साहब हैं तो बोले -'एक चाय और ले आएं साहब?'
हमने मना किया। बोले -'हम फैक्ट्री में साहब लोगों के लिए चाय बनाने का काम करते थे।'


फैक्ट्री से जुड़े पुराने लोगों के किस्से बिना कोतवाल सिंह की कहानी सुनाये पूरे नहीँ होते। कोतवाल साहब  का किस्सा सुनाया प्रभु ने- ' कोतवाल साहब  सिम्पल आदमी थे। इंग्लैण्ड रिटर्न थे लेकिन लगते नहीं थे जीएम। एक दिन कंजड़ बस्ती में चले गए। कच्ची पीते रहे। नशे में धुत। पुलिस वालों ने पकड़कर अंदर कर दिया। जब पता चला जीआईएफ के जीएम हैं तो जीप से उनके बंगले छुड़वाया। टेरर था उनका। चार-चार कट्टा बीड़ी दिन में फूंक जाते थे।'

फिर से अपने हमारे बारे में पूछा। आप यूपीएससी क्रास करके आये हैं। हमारे साहब एम एस सी गोल्ड मेडलिस्ट थे। ये रैले साइकिल अब भी आ रही है। अभी आपकी कितनी सर्विस बकाया है? हमने बताया -'आठ साल।' तो फिर बोले-'एक चाय और ले आयें साहब!'

अपने बारे में बताया। हम रोज पचास किलोमीटर साईकल चलाते हैं। हमुमान मन्दिर में अगरबत्ती खोंसते हैं। पाट बाबा में जलाते हैं। रास्ते में जितने भी मन्दिर मिलते हैं सबमें अगरबत्ती खोंस देते हैं। 3 घण्टा चलती है। साईकल में धरे झोले से अगरबत्ती निकाल कर दिखाई भी प्रभु ने। बड़ी सी।

चाय पीकर लौट आये। प्रभु भी चले गए। फैक्ट्री आज ओवर टाइम पर चल रही है। लोग आने लगे थे। भीख मांगने वाली बुढ़िया एक बच्ची के साथ लपकती हुई गेट नम्बर 3 की तरफ चली जा रही थी। बच्ची एक लकड़ी पकड़े हुए थी। उसका दूसरा सिरा बुढ़िया के हाथ में था। बच्ची शायद नातिन है बुढ़िया की। वह भी देख/सीख रही होगी कि भीख कैसे मांगती हैं दादी।

मिसिर जी जगदम्बिका प्रसाद के साथ जाते दिखे। हमने चाय के लिए ऑफर दिया तो बोले-'अभी दवाई खाना है जाकर। फिर कुछ और खाएंगे।'

सूरज भाई पूरे जलवे के साथ खिले हुए हैं आसमान में। सुबह हो गयी।

Saturday, March 19, 2016

आदमी उसी को तो गरियाता है जिससे उसका कुछ रिश्ता

आजकल किसी को गरिया दो लोग बड़ी जल्दी बुरा मान जाते हैं। किसी रसूख वाले को गरियाना तो और आफ़त का काम है। पता नहीं कौन कब बुरा मान जाये और मुफ़्त का रहना, खाना, पीना होने लगे। यहां तक कि अपने अजीज को भी गरियाना मुश्किल हो गया है।

पिछले दिनों फ़िराक साहब और चोर का किस्सा काफ़ी लोगों ने पसंद किया। काफ़ी लोगों ने उसे साझा किया। इसी सिलसिले में फ़िराक साहब से जुड़ा एक किस्सा और यहां पेश है।

फ़िराक साहब मुंहफ़ट टाइप के इंसान थे। जो मन आता कह देते, जिसको मन आता गरिया देते। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दुनियादार आदमी नहीं थे वे। मौके की नजाकत के हिसाब से समझदारी भी दिखाते थे।
फ़िराक साहब ने अपने मुंहफ़ट स्वभाव के चलते इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर अमरनाथ झा के बारे में भी कुछ कहा होगा। फ़िराक साहब और अमरनाथ झा जी सहपाठी रहे थे। फ़िराक साहब के विरोधियों ने अमरनाथ झा तक इसकी खबर नमक मिर्च लगाकर पहुंचाई होगी।

जब यह बात फ़िराक साहब को पता चली तो वे अमरनाथ झा से मिलने उनके बंगले गये। शाम को झा साहब के बंगले पर दरबार टाइप लगता। लोग उनसे मिलने आते थे। फ़िराक साहब भी पहुंचे। अपनी बारी का इंतजार करने लगे।

जब फ़िराक साहब का नम्बर आया तो अन्दर जाने के पहले उन्होंने बाल बिखेर लिये और कपड़े अस्त-व्यस्त कर लिये।

अन्दर पहुंचे तो फ़िराक साहब का हु्लिया देखकर झा साहब ने टोंका-’ फ़िराक, जरा सलीके से रहा करो।’

इस पर फ़िराक साहब बोले-’ अमरू तुम्हारे मां-बाप ने तुमको तमीज से रहना सिखाया। मेरे मां-बाप जाहिल , गंवार थे। उन्होंने मुझे कभी यह सब सिखाया ही नहीं तो तमीज कहां से आती मेरे पास सलीके से रहने की।’
इस पर झा साहब ने फ़िराक साहब को टोंका-’ फ़िराक अपने मां-बाप को इस तरह गाली देना ठीक नहीं। इस बात का ख्याल रखना चाहिये तुमको।’

यह सुनते ही फ़िराक साहब बोले-’ अमरू आदमी उसी को तो गरियाता है जिससे उसका कुछ रिश्ता होता है, अपनापा होता है। मैं अपने बाप को नहीं गरियाऊंगा, मां को नहीं कोसूंगा, दोस्तों को नहीं गरियाऊंगा तुमको नहीं गरियाऊंगा तो किसको गरियाऊंगा तो किसको गरियाऊंगा।’

अमरनाथ झा बोले-’ओके, ओके फ़िराक। मैं तुम्हारी बात समझ गया (आई गाट योर प्वाइंट)।

फ़िराक साहब वापस चले आये।

(यह किस्सा ममता कालिया जी ने तद्भव पत्रिका में अपने संस्मरण ’कितने शहरों में कितनी बार’ में बताया था। किताब कानपुर में घर में है। मैंने इसे याद से लिखा इसलिये शब्द इधर हो गये होंगे लेकिन भाव वही है।)
नोट: इस पोस्ट की तरकीब को वे लोग अपने बचाव के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं जिनकी किसी पोस्ट प आहत होकर कोई उन पर केस कर दे। वे कहते सकते हैं -’ हम आपको अपना मानते हैं भाई। अब जब किसी अपने को नहीं गरियायेंगे तो किसको गरियायेंगे।

सैंया दिल में आना जी

अहा , क्या नजारे हैं सुबह के। सूरज भाई दसो दिशाओं में धूप फ़ैला रहे हैं। मार्च के महीने में जैसे सरकारें धड़ाधड़ ग्रांट बांटती हैं सरकारी महकमों में इस हिदायत के साथ कि इसी महीने खर्च नहीं किया तो समझ लेना। लगता है सूरज भाई भी मार्च वाले मूड में आ गये हैं।

एक-एक पत्ती को खुद देख रहे हैं कि उसके पास धूप पहुंची कि नहीं! फ़ूल अभी खिला नहीं कि धर दिये करोड़ो फ़ोटान धूप के उसके ऊपर। फ़ूल बेचारा धूप के बोझ से दोहरा हुआ मुस्कराने की कोशिश में दुबला हुआ जा रहा है। मुस्कराना मजबुरी है भाई। तितली भी बैठी है न धूप के साथ। दोनों के संयुक्त बोझ को हिल-डुलकर किसी तरह निबाहने की कोशिश कर रहा है दुष्यन्त कुमार का शेर दोहराते हुये:
’ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सज़दे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।’
लेकिन देखने वाले तो वाले समझ रहे हैं कि मस्ती में झूम रहा है। अधिक से अधिक यह गाना गा लेते होंगे फ़ूल के समर्थन में:
’खिलते हैं गुल यहां हैं
खिलकर बिखरने को खिलते हैं गुल यहां’
लेकिन एफ़-एम पर गाना ये वाला बज रहा है:
’चोरी चोरी कोई आये
चुपके-चुपके , सबसे छिपके
ख्वाब कई दे जाये।’
खैर ख्वाब क्या देता कोई जब जग गये और निकल लिये साइकल पर। पुलिया पर बिन्देश्वरी प्रसाद मिश्रा जी के इंतजार में बैठे थे। मिश्रजी मंदिर तक गये थे। एक बुढिया पुलिया के आगे डगर-डगर करती चलती जा रही थी।शायद मंदिर की मंगताई पूरी हो गयी हो उसकी।
चाय की दुकान पर गाना बज रहा था:
’सैंया दिल में आना जी,
आकर फ़िर न जाना जी।’

हमको लगा ये कौन बुला रहा है भाई और किसको बुला रहा है। लेकिन बहुत देर तक कोई कहीं आता जाता नहीं दिखा तो समझ गये ये सब ऐसे ही है।कम से कम मेरे लिए तो नहीं गा रहा है कोई यह गाना।

लेकिन मन किया कि कभी फ़ुरसत में गूगल मैप में देखेंगे कि जबलपुर से दिल की दूरी कितनी है। अगर साइकिल से जाने की सोचे कोई तो कितना समय लगेगा पहुंचने में।

एक महिला साइकिल से आती दिखी। साइकिल सड़क पर खडी करके वह पास की पान की दुकान पर खड़ी होकर कुछ खरीदने लगी। हम उसकी ’एवन’ साइकिल के पास खड़े देखते रहे। आगे बास्केट और पीछे करियर पर प्लास्टिक क्रेट बंधा रखा था।

पता चला कि वह सब्जी बेचने का काम करती है। दमोह नाका जा रही है सब्जी खरीदने। कल अस्सी रुपये पसेरी (पांच किलो) के हिसाब से एक पसेरी सब्जी खरीदी थी और लगभग खरीद के बराबर मुनाफ़ा मिलाकर बेंच दी। उसका आदमी विक्टोरिया में काम करता है।

इस बीच पुलिया पर मिली महिला डगरती हुयी चाय की दुकान पर पहुंच गयी थी। चाय वाले ने उसको चाय दी। वह सड़क किनारे ही बैठकर पीने लगी।

बचपन में जब एक-दो साल की थी तब माता (चेचक) के कारण आंख चली गयी थी। गेट नंबर 6 पर मांगती है। मंदिर भी गयी थी लेकिन वहां भीड़ बहुत है और हल्ला-गुल्ला भी। कोई अगर दस रुपया दे जाये तो सबके साथ बांटना पड़ता है। लड़ाई झगड़ा भी करती हैं। गेट नंबर 6 पर भले ही कुछ कम मिले लेकिन सुकून है मांगने में।
आदमी क्या करता है पूछने पर बताया - ’वे भी गेट के ही भरोसे हैं। मतलब वे भी गेट पर ही मांगने का काम करते हैं।’

बाद में पता चला कि उसके आदमी की भी दोनों आंखें नहीं हैं। ’दृष्टि दिव्यांग’ है वो भी। कुछ दिन पहले तक इसके लिये शब्द था - ’दृष्टि बाधित’। उसके भी पहले अंधा कहने का चलन था। शब्द बदल गये पुकारने के लेकिन इस सच्चाई में कोई फ़र्क नहीं पड़ा कि जीने के लिये उनका जीवन मांगने पर ही निर्भर है। जो मिलता है मांगने से उसी से राशन, तेल, लकड़ी खरीदकर जिन्दगी चलती है।

एक लड़का और एक लड़की है। दोनों की शादी हो गयी है। लड़का ट्रैक्टर चलाता है। कमाता है लेकिन बुढई-बुढवे के लिये भीख का ही आसरा है।

लौटते में मिश्रा जी और बिन्देश्वरी प्रसाद लौटते हुये मिले।मिसिर जी बोले -’ गेट का ताला लगाकर आये थे। बच्चे अभी सो रहे होंगे। सब आराम से उठते हैं।’

लेकिन हम तो कब के उठ गये भाई। 'लाओ चाय पिलाओ कहते हुये' सूरज भाई कमरे में घुस आये। हम दोनों बतियाते हुये साथ में चाय पी रहे हैं। साथ में गाना सुनते हुए:

ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आँखें
इन्हें देखकर जी रहे हैं सभी।

आइये आपको भी चाय पीनी हो तो।

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Friday, March 18, 2016

देखिये जरा आप भी


कल जीसीएफ और वीएफजे के साथियों के साथ साइकिल से खमरिया तक गए। Sagwal Pradeep अपने कैमरे से हमें सड़क पर साइकल चलाते पकड़ा। बेटे Anany की बात मानते हुए फेसबुक पर पोस्ट किया जा रहा है। देखिये जरा आप भी।





https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10207570649477799&set=a.3154374571759.141820.1037033614&type=3&theater

आयुध निर्माणी दिवस

आज आयुध निर्माणी दिवस है। आज के ही दिन सन 1802 में पहली आयुध निर्माणी , गन एन्ड शेल फैक्ट्री काशीपुर की स्थापना हुई थी। मतलब 214 वां जन्मदिन है आज हमारी निर्माणियों का।

आज सुबह की शुरुआत प्रभात फेरी से हुई। फैक्ट्री के गेट नंबर 1 से शुरू करके पूरी फैक्ट्री इस्टेट घूमते हुए गेट नंबर 6 तक पहुँचे। आप भी देखिये कुछ झलकियाँ।

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Thursday, March 17, 2016

मच्चर बहुत हैं जबलपुर में

साथ चाय पीते हुए पोज देते बच्चे
आज सुबह मौसम बहुत खुशनुमा सा था। हल्की ठंडी हवा चल रही थी। मन किया कि बहुत देर तक साइकिल पर टहलते रहें। हवा का मजा लेते रहे हैं।

निकले तो सोचा व्हीकल मोड़ तक जायेंगे। पर फिर 'जोंगा तिराहे' से गाड़ी घुमा ली। फ़ैक्ट्री के गेट नंबर 6 के सामने एक जोंगा जीप का माडल रखा है। पहले बनती थी फ़ैक्ट्री में यह जीप।

पांच-सात बच्चे सड़क पर फ़ूलों की कैचम-कैच कर रहे थे। एक दूसरे की तरफ़ फ़ेंकते, कैच करते, फ़िर फ़ेंकते। कभी-कभी फ़ूल जमीन पर गिर जाता था। कमल का फ़ूल जमीन पर गिरता होगा तो चोट तो लगती होगी न उसको। फ़ूल को चोट की बात से विनोद श्रीवास्तव जी की पंक्तियां याद आ गयीं:
धर्म छोटे-बड़े नहीं होते,
जानते तो लड़े नहीं होते,
चोट तो फ़ूल से भी लगती है
सिर्फ़ पत्थर कड़े नहीं होते।
यह कविता तो अभी याद आई। उस समय बच्चे जब एक-दूसरे की तरफ़ फ़ूल फ़ेंक रहे थे तब यह कविता याद रही थी:
’मुझे फूल मत मारो
मैं अबला बाला वियोगिनी कुछ तो दया विचारो।’

ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे
मैथिलीशरण गुप्त जी की यह रचना याद करते हुये परसाई जी का एक लेख याद आया जिसमें वे मैथिलीशरण गुप्त से मजे लेते हुये कुछ इस तरह लिखते हैं-’ चिरगांव में कोई मैथिलीशरण गुप्त जी से मिलने जाता था तो पहले उससे पूछा जाता- ’हिन्दी का सबसे अच्छा कवि कौन है?' मिलने के लिये उसी को अन्दर बुलाया जाता जो जबाब में मैथिली शरण गुप्त का नाम लेता।’

राष्ट्रकवि की परंपरा अब राष्ट्रसेवकों में पसर रही है। लोगों को लगता हैं कि देश में राष्ट्रसेवा का ठेका उनके ही नाम एलाट हुआ है। उनके अलावा कोई और देश सेवा का काम करते दिखता है तो लोग मार-पीट-गाली-गलौज पर उतर आते हैं। गाली-गलौज भी तभी करते हैं जब दूरी के कारण मारपीट संभव नहीं होती ।


तमिलनाडू के ड्राइवर जबलपुर में चाय पीते हुए
मिसिर जी और बिन्देश्वरी प्रसाद टहलते हुये मिल गये। हाल-चाल लिये-दिये गये। आगे बढे।
 
चाय की दुकान पर पांच बच्चे सुबह की सैर करते हुये मिले। दो बड़े, तीन छोटे। उन लोगों ने चाय का आर्डर दिया। बड़े बच्चों के लिये दो फ़ुल और छोटे बच्चों के लिये दो में तीन।

बच्चों से बतियाये। पूछा पहाड़ा आता है? वो भी मजे लेते हुये बोला-’हां आता है। 11 से 2 तक।’ हमने कहा -'अच्छा एक का सुनाओ।'

वह बोला - ’एक का नहीं आता।’



हमने कहा -’ क्या यार तुम सात में पढते हो और 19 का पहाड़ा नहीं आता। एक बच्चे ने सुनाना शुरु किया पानी पर चढकर। उन्नीस एकम उन्नीस, उन्नीस दूना अठारह।


मच्छर के कारण सो नहीँ पाये आँख लाल
दूसरे बच्चे ने हंसते हुये खुद सुनाना शुरु किया। उन्नीस पंचे तक ठीक सुनाया। इसके बाद गड़बड़ा गया। हमने सोचा शिक्षा व्यवस्था पर कुछ डायलाग मार दें पर मटिया दें। शिक्षा मतलब पहाड़े रटना ही नहीं होता।
बच्चों को जितने बार फोटो दिखाई उनमें से एक ने लपककर पैर छुए। शायद आदत है उसकी यह। लपककर पैर छूना।

दो ड्राइवर मिले वहीं। बंगलौर के पास होसुर से सामान लेकर आये हैं। पांच दिन लगे आने में। कन्नड, तमिल और काम भर की हिन्दी जानते हैं। रात को ढाई बजे पहुंचे। बोले-’ मच्चर बहुत हैं जबलपुर में। सो नहीं पाये।’ आंखे लाल दिख रहीं थी।

हमने पूछा-'कभी जबलपुर घूमे भी हो?'

बोला-'घूमे नहीँ। पचासों बार आये जबलपुर। लेकिन कभी शहर नहीं घूमे। आये, सामान उतारा चले गये।'
लौटते में देखा सूरज भाई आसमान पर छाये हुये थे। हमने कहा- जलवा है गुरु तुम्हारा ही दुनिया में। वे मुस्कराये। मुस्कराये तो और हसीन लगने लगे। सुबह हो गयी अब काम से लगा जाये।

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Wednesday, March 16, 2016

मैडम फ़टाफ़ट पढ़ाती हैं

पहाड़ पर टेसू के पेड़
आज निकलने में कुछ देर हो गयी। जब साइकिल स्टार्ट की तब सड़क चलने लगी थी। लोग तेजी से लौट रहे थे। हमारे आगे कुछ बुजुर्ग खरामा-खरामा टहलते हुये जा रहे थे। सब फ़ुल पैंट पहने हुये थे। कल से पता नहीं जिस किसी को देखते हैं तो पहली निगाह पैंट पर जाती है।

सड़क पर मेरी परछाई मुझसे बड़ी होकर दिख रही थी। साइकिल इतनी बड़ी कि उसके पहिये पूरी सड़क की चौड़ाई को पार करके पेड़ तक पहुंच गयी थी। सूरज जब उगता है या अस्त होता है तो लोगों को परछाई को इसी तरह बढ़ा चढ़ाकर दिखाता है। कोई जब आपकी ज्यादा तारीफ़ करे तो समझ लेना चाहिये अगला या तो नौसिखिया है या खत्तम हो गया है।

शोभापुर रेलवे क्रासिंग के पार पहाड़ पर टेसू के पेड़ दूसरे पेड़ों के साथ मजे से झूम रहे थे। सुबह की हवा और सुगन्ध का नाश्ता करने के बाद सूरज की किरणों की मिठाई खाकर उनके चेहरे पर तृप्ति का भाव पसरा हुआ था। पत्तियां तक चिकनाई हुई थीं।


दीपा किताब पढ़ रही है
दीपा से मिलने गये आज। उसके लिये नेशनल बुक ट्र्स्ट की दो किताबें लाये थे। छोटी-छोटी कविताओं और कहानी की चित्रकथायें। किताबें दीं तो खड़े-खड़े पढ़ती रही। हमने पढ़ने को कहा तो ठीक से पढ़ नहीं पाई। अच्छर चीन्हती नहीं। हमने कहा - ’मिलाकर पढ़ा करो। धीरे-धीरे।’ बोली-’ मैडम फ़टाफ़ट पढ़ाती हैं। समझ में नहीं आता।’

पास के मजदूर सुबह का खाना बना रहे थे। उनके दो साथी वापस चले गये हैं। चार हफ़्ते रहने के बाद। ये लोग होली के बाद जायेंगे। सुबह का खाना बना रहे थे ये लोग। अरहर की दाल बना रहे थे। भात इसके बाद पकायेंगे।
अरहर की दाल गांव से लाये हैं अपने साथ। वहां 300 रुपये पसेरी मिलती है खड़ी अरहर। मतलब 60 रुपये किलो। खुद उगाते हैं लोग इसलिये इस भाव मिल जाती है।

पिछले दिनों अरहर की मंहगाई पर अनेकों व्यंग्य लेख लिख मारे लोगों ने। लेकिन कैसे पैदा होती है, क्यों मंहगी होती है यह शायद पता नहीं होगा लोगों को। यह भी सही है जिन्होंने अरहर की मंहगाई पर लेख लिखे होंगे उनमें से शायद किसी के यहां अरहर बनना , कम से कम मंहगाई के कारण, बंद नहीं हुआ होगा।


सुबह का खाना बनाते कामगार
महेश नाम बताया कामगार ने। 25 साल उमर है। आठवीं पास है। आठ साल पहले शादी हुई। दो बच्चे हैं। छह साल और चार साल के। पत्नी गांव में रहती हैं। बच्चों और पापा, मम्मी आदि के साथ। कोई नशा नहीं करते। दांत सूरज की रोशनी में चमक रहे थे। साथ के लोग भी महेश की तरह ही दो-दो बच्चे वाले हैं। उनके ही हम उम्र।
हम महेश से कहते हैं कि दीपा को पढ़ा दिया करो। वे बोले- ’यह एक कान से सुनती है, दूसरे से निकाल देती है।’ दीपा कहती है-’ ये लोग काम पर जाते हैं। पढ़ायेंगे कब?’ वे कहते हैं-’ शाम को तो लौट आते हैं।’ तय हुआ कि शाम को पढाई होगी।

हम महेश से पूछना चाहते हैं कि उसकी हाबी क्या है? पूछते हैं कि खाली समय में क्या करते हो? वह कहता है-’ खाली समय रहता कहां है? सुबह खाना बनाते हैं। दिन में काम करते हैं। लौटकर फ़िर खाना। रात हो जाती है सो जाते हैं। फ़िर वही दिनचर्या।’

बहुत अलग नहीं है यह जिन्दगी भी अकबर इलाहाबादी के इस शेर से:
बीए किया ,नौकर हुये
पेंशन मिली और मर गये।

स्कूल जाते बच्चे
लौटते में क्रासिंग बन्द मिली। मेरे पीछे एक आटो में केन्द्रीय विद्यालय के बच्चे स्कूल जाने के लिये बैठे थे। आठ बच्चे एक आटो में। सबसे आगे वाले बच्चे से पूछा तो बोला- ’सिक्थ बी में पढ़ते हैं।’ हमने पूछा-’ सब लोग ६ में पढ़ते हो? ’नहीं मैं फ़ोर्थ में पढ़ती हूं’- पीछे से बच्ची ने जल्दी से कहा। उसको शायद डर लगा कि कहीं हड़बड़ी में उसकी क्लास न बदल जाये।

बच्चों के इम्तहान हैं। नौ बजे से। हमने कहा-’ अभी तो साढे सात ही बजे हैं। क्या करोगे इतनी जल्दी जाकर? वो बोले-खेलेंगे। प्रेयर होगी।

हमने पूछा - कौन सी प्रेयर होती है?

वो बोले-’इतनी शक्ति हमें देना दाता।’

पीछे एक बड़ा बच्चा ऊंघता हुसा था बैठा था। अनमना सा। हमने पूछा- ’क्या नींद आ रही है? बहुत पढे क्या?’
वह कुछ बोला नहीं। बस हल्के से मुस्करा दिया।

सिक्स्थ बी वाले बच्चे ने बताया - ’भैया ऐसे ही रहते हैं। चुप। बहुत कम बोलते हैं।’

हमने कहा-’ तो तुम लोग बोला करो! ’

वो बोला-’ बोलते हैं। लेकिन भैया बोलते ही नहीं।’

द्सवीं में पढ़ता है बच्चा। चुप रहता है। क्या कारण है यह उसके साथ के ही लोग समझ सकते हैं। लेकिन अभी भी उसका चेहरा मेरी आंखों के सामने आ रहा है। चुप। थोड़ा उदास। बहुत उदासीन।

सड़क पर एक आदमी अपने छोटे बच्चे को साइकिल के कैरियर पर बैठाये स्कूल भेजने जा रहा था। बच्चा दोनों तरफ़ पैर किये बैठा था।

एक बच्चा हरक्युलिस साइकिल पर पैडल मारता चला रहा था। कक्षा 6 में पढ़ता है। एक साल से आ रहा है साइकिल पर। आगे डोलची और डंडा रहित साइकिल मतलब बच्ची साइकिल मानी जाती है। हमने पूछा- ’दीदी की है साइकिल?’

’नहीं मेरी मम्मी की है।’ बच्चे ने बताया। यह भी कि वे हाउस वाइफ़ हैं। कहीं काम नहीं करतीं।

सूरज भाई के साथ चाय पीते हुये पोस्ट पूरी कर रहे हैं। सुबह हो गयी।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207548618127029

Tuesday, March 15, 2016

भई आते जाते रहा करो

चक्कू गरदन पर लगाने पर भी भारतमाता की जय न बोलने वाली बात सेे ’फ़िराक गोरखपुरी’ के बारे में यह संस्मरण याद आ गया। पढिये! मजा आयेगा।  

"एक बार फिराक साहब के घर में चोर घुस आया. फिराक साब बैंक रोड पर विश्वविद्यालय के मकान में रहते थे. ऐसा लगता था उन मकानों की बनावट चोरों की सहूलियत के लिए ही हुयी थी, वहां आएदिन चोरियाँ होतीं. फिराक साब को रात में ठीक से नींद नहीं आती थी. आहट से वे जाग गये. चोर इस जगार के लिए तैयार नहीं था.
उसने अपने साफे में से चाकू निकाल कर फिराक के आगे घुमाया. फिराक बोले, “तुम चोरी करने आये हो या कत्ल करने. पहले मेरी बात सुन लो.”

चोर ने कहा, “फालतू बात नहीं, माल कहाँ रखा है?”

फिराक बोले, “पहले चक्कू तो हटाओ, तभी तो बताऊंगा.”

फ़िर उन्होंने अपने नौकर पन्ना को आवाज़ दी, “अरे भई पन्ना उठो, देखो मेहमान आये हैं, चाय वाय बनाओ.”
पन्ना नींद में बड़बडाता हुआ उठा, “ये न सोते हैं न सोने देते हैं.”

चोर अब तक काफी शर्मिंदा हो चुका था. घर में एक की जगह दो आदमियों को देखकर उसका हौसला भी पस्त हो गया. वह जाने को हुआ तो फिराक ने कहा, ” दिन निकाल जाए तब जाना, आधी रात में कहाँ हलकान होगे.” चोर को चाय पिलाई गई. फिराक जायज़ा लेने लगे कि इस काम में कितनी कमाई हो जाती है, बाल बच्चों का गुज़ारा होता है कि नहीं. पुलिस कितना हिस्सा लेती है और अब तक कै बार पकड़े गये.

चोर आया था पिछवाड़े से लेकिन फिराक साहब ने उसे सामने के दरवाजे से रवाना किया यह कहते हुए, “अब जान पहचान हो गई है भई आते जाते रहा करो.”

रहोगे पाजामा ही

सुबह की सड़क
सबेरे कमरे से बाहर निकले तो लगा बारिश हो रही थी। लेकिन ध्यान से देखा तो कोहरा गिर रहा था। मतलब कुदरत भी अब ’डाक्टर्ड’ नजारे पेश करने लगी है। ध्यान से न देखो तो धोखा हो सकता है।

हमको बाहर निकला देख पक्षी अलग-अलग अंदाज में चहचहाने लगे। ऐसे लगा जैसे कोई ताजा व्यंग्य रचना फ़ेसबुक पर पोस्ट करो तो साथी लोग अलग-अलग प्रतिक्रिया दे रहे हों। बढिया, भौत बढिया, कलम तोड़ से लेकर इसमें व्यंग्य कहां है, सरोकार नदारद, ये तो सपाटबयानी है तक की प्रतिक्रियायें मानो पक्षी दे रहे हों -हमको ताजा व्यंग्य रचना मानकर।

एक चिडिया तो हमको देखकर बहुत जोर से चिंचियाती हुई हंस सी रही थी। लगता है वो हमको आज ’घुट्टन्ना’ की जगह पूरे पायजामा में देखकर मजे ले रही हो और कह रही हो- नकलची कहीं के। कुछ भी पहनो- रहोगे पाजामा ही।

एक आदमी पुलिया के पास सर झुकाये हाथ में ’टहलुआ डंडा’ लिये चला जा रहा था। लगता है देहरादून में घोड़े की पिटाई के लिये जबलपुर में शर्मिन्दगी व्यक्त कर रहा हो।


सूरज भाई अपने डुप्लीकेट के साथ
सड़क पर पहुंचकर देखा कि एक आदमी सूरज की तरफ़ मुंह किये हाथ जोड़े खड़ा था। जैसे मंत्री लोग बाबा लोगों के सामने जाकर नमस्कार मुद्रा खड़े हो जाते हैं उसी तरह चुपचाप खड़ा था। सूरज भाई प्रसाद रूप में उसको गर्मी प्रदान कर दे रहे थे।

सूरज और उस आदमी के बीच ऊर्जा का आदान प्रदान होते देख मुझे बड़ी बात नहीं कल को सूरज से गर्मी लेने पर कोई सरकार ’से्स’ लागू कर दे। जलकर, मलकर की तरह कोई ’धूपकर’ लागू हो जाये। हर आदमी सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में रहेगा और महीने के अंत में उसका ’धूपकर’ का बिल उसके पास पहुंच जायेगा। पहली बार लागू होने पर वापस ले लिया जायेगा लेकिन फ़िर बाद में फ़िर क्या पता लागू होकर ही रहे। फ़िर अगली पीढी को बताते हुये लोग कहेंगे - ’जब हम बच्चे थे तब धूप मुफ़्त में मिलती थी। जितनी मन आये उतनी सेंक लो। कोई टोंकता नहीं था।’

तालाब पर सूरज भाई एकदम जमकर गदर किये हुये थे। खिलकर चमक रहे थे। पानी भी उनकी संगत में ऐसे चमक रहा था जैसे किसी नेता के बगल में सटकर सेल्फ़ी लेते उसके चेले-चपाटे चहकते हैं। पेड़ चुपचाप जनता की तरह सर झुकाये सारा गदर होते देख रहे थे।


खटखट होटल पर जलेबी बनने लगी
पंकज टी स्टाल पर सुशीला मिली। आज परदेशी नहीं दिखे। सुशीला ने बताया कि कल किसी मोटरसाइकिल वाले ने उसे टक्कर मार दी। जमीन पर गिर गईं वो। वो भाग गया। आसपास के दुकान वालों ने उठाया। उसको गरियाया। दर्द है। रेंगते हुये आई हैं घर से। साथ के परदेशी चले गये हैं कहीं। बोली- ’दस-बीस रुपया मिल जईहैं तो कौनौ गोली लै ल्याब।’ हमने सोचा चाय पीकर जाते समय कुछ पैसे देते हुये जायेंगे। लेकिन वह पहले उठकर धीरे-धीरे चली गयी। उसको शायद लगा होगा -’इसके पास बतियाकर समय नष्ट करने से अच्छा जीसीएफ़ चला जाये मांगने। फ़ैक्ट्री शुरु होने वाली है।’

सामने भट्टी पर जलेबी छान रहा था दुकान वाला। बने हुये पोहे से भाप उड़ रही थी। होटल का नाम देखा - ’खट-खट होटल।’ दुकान वाले ने कहा - ’अच्छा आया है।’ हमने कहा-’ आओ तुम्हारे साथ लेते हैं।’ वह कपड़े के छन्ने में मैदा भरकर जलेबी बनाने लगा और हमने उसका फ़ोटो लिया। फ़ोटो लेते समय उधर से सूरज भाई भी कढाई में घुस के बैठ गये। हमने कहा- ’क्या करते हो भाई, जल जाओेगे।’ वे बड़ी तेज हंसने लगे। बोले- ’पता है न हमारी सतह का तापमान 6000 डिग्री होता है। ये तेल तो सौ डिग्री के अल्ले-पल्ले होगा।

दुकान वाले ने बताया कि उसकी दुकान सन 1980 से चल रही है। 2200 रुपया किराया है। जलेबी आजकल 100 रुपया किलो है। बच्चों ने नाम रख लिया खट-खट होटल क्योंकि खटर-पटर होती रहती थी यहां। हमको लगा कि अच्छा हुआ कि हमारे पूर्वज अपने देश का नाम पहले ही हिन्दुस्तान या फ़िर भारत रख गये। आज रखा जाता तो न जाने किस नाम पर सहमति हो पाती।


टेसू के फूल
रास्ते के एक जगह शाखा लगी हुई थी। दो लोग हाफ खाकी पेंट में और एक बालक भूरी फुल पैन्ट में था। चौथा आदमी एकदम अलग ड्रेस में था। आपस में चुहल करते हुए वे बतिया रहे थे।

लौटते में देखा टेसू के फ़ूल खिले हुये थे पेड़ पर। बगल में बेशरम के बैगनी फ़ूल भी खिले हुये थे शान से। दोनों बिना एक-दूसरे को गरियाये मजे से झूम रहे थे।

कुछ दूर रेल की पटरी पर रेलगाड़ी भन्नाती हुई चली जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि उसको किसी ने बेमन से पटरी पर दौड़ा दिया हो और वह यात्रियों को लादकर चल दी हो। आलोक धन्वा की कविता याद करते हुये हम वापस लौट आये:
हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो माँ के घर की ओर जाती है.
सीटी बजाती हुई.
धुआँ उड़ाती हुई
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दैनिक हिन्दुस्तान में 19.03.2016

Monday, March 14, 2016

कौन है जो सपनों में आया

सूरज भाई पूरी झील पर खिले हुए हैं
सुबह सडक पर जब निकले तो एक साइकिल सवार मोबाइल पर गाना सुनते जा रहा था। गीत के बोल नहीं सुनाई देर रहे थे मुझे लेकिन सड़क लगता है गाना सुनते हुये इठला रही थी। पेड़, पौधे, पत्ते गीत के साथ डांस कर रहे थे।

सड़क पर बिन्देश्वरी प्रसाद मिल गये। पुलिया की तरफ़ चले जा रहे थे। हमसे पूछे मिश्र जी मिले क्या उधर? हम बोले -नहीं। शायद आकर चले गये हों। हमने पूछा- आइये चाय पिलायें। वे बोले-’हम चाय नहीं पीते जबसे डायबिटीज हुई है। पीते भी हैं तो घर में पीते हैं, बिना शक्कर की।’

चाय की दुकान पर गाना बज रहा है-
’रामपुर का वासी हूं मैं लक्ष्मण मेरा नाम
सीधी-साधी, बोली मेरी सीधा-साधा काम’


सड़क पर एक मोटर साइकिल वाला हाथ छोड़कर मफ़लर बांध रहा था। हैंडल सीधा बना रहा। आटो पायलट मुद्रा में चलती रही फटफटिया। बीच में कहीं गढ्ढा पड़ जाता तो प्लास्टर आफ़ पेरिस की खपत का इंतजाम हो जाता।

गाना बजने लगा:
’कौन है जो सपनों में आया
कौन है जो दिल में समाया
लो झुक गया आसमां भी
इश्क मेरा रंग लाया।’


 
अख़बार बांचता हुआ आम आदमी
अब बताइये सपना आप देख रहे हैं, दिल में कोई आपके समाया है, इश्क आपका रंग लाया और आप पूछ रहे हैं। हद्द है यार ! सुबह-सुबह क्या हसीन मजाक कर रहे हैं। जरा सा चूक जाए कोई तो दिल में कुछ कुछ होने लगे।
चाय की दुकान पर खड़े-खड़े देखा एक मोपेड पर कई बड़े थैलों में एक सवार पान मसाला लादे चला जा रहा था। दुकानों पर सप्लाई करेगा। लोग पुडिया फाड़कर मुंह ऊपर करके डाल लेंगे और चल देंगे। उनमें से न जाने कितनों को कैंसर होगा। पान मसाले वाले अमीर होते जायेंगे। खाने वाले लुटते, मरते रहेंगे। अभी कानपुर में पता चला एक पान मसाले वाले के यहां इनकम टैक्स का छापा पड़ा। पचास करोड़ पेनाल्टी देने को राजी हुये। इनकम टैक्स वाले और मांग निकाल रहे हैं। हो जायेगा समझौता।

इस बीच दोनों में परिचय निकल रहे होंगे:
’तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई
यूं हीं नहीं दिल लुभाता कोई’


एक बच्ची मोपेड पर एक छोटे बच्चे और एक बुजुर्ग को बैठाये चली जा रही थी। आगे एक बड़ा थैला भी रखे थी। जिम्मेदार है बच्ची। कल ’दैनिक भाष्कर’ में पढी एक खबर याद आ गयी। एक बच्ची ने नौ साल की उमर से अखबार बांटने का काम किया। पढाई साथ-साथ। तीन स्कूलों ने देरी से आने के कारण उसको स्कूल से निकाल दिया। चौथे ने उसको देरी से आने की अनुमति दी। अब वह 23 की हो गयी है। पढाई पूरी करके काम कर रही है और अपने जैसी स्थिति वाले लोगों को सहायता और सहयोग करती है।

झील की तरफ़ जाते हुये देखा सूरज भाई आसमान में छाये हुये थे। झील के पानी में सूरज भाई पूरे कबीले के साथ नहा रहे थे। पूरा तालाब उजला-उजला, खिला-खिला सा दिख रहा था। एक बच्चा किनारे उकडू बैठे मोबाइल पर कुछ खुट-खुट कर रहा था।

लौटते में देखा कि एक आदमी गुमटी के पास बैठा अखबार पढ रहा था। अखबार में विजय माल्या बयान पढ़कर सोच रहा होगा कि ये है दबंग आदमी। डंके की चोट पर कह रहा है-'अभी भारत वापस नहीँ आऊंगा, अभी माहौल मेरे खिलाफ है।'

जैसे भी हैं, हम सुंदर हैं
सामने सामुदायिक भवन के बोर्ड से ’भ’ गायब हो गया है। लिखा है- ’सामुदायिक वन’। इस स्थिति को हम पिछले तीन साल से देख रहे हैं। और लोग भी देख रहे होंगे। लेकिन वन को भवन बनाने की इंतजाम नहीं हुआ।
लौटकर अखबार में सांवली महिलाओं द्वारा शुरु किया गये ’अनफ़ेयर लवली अभियान’ के बारे में खबर पहले पेज पर देखी। खूबसूरती पर गोरे लोगों के एकछत्र कब्जे के खिलाफ़ अभियान है यह अभियान। वीरेन्द्र आस्तिक की कविता याद आ गयी:

हम न हिमालय की ऊंचाई,
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे. हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं
हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है.
हम जमीन पर ही रहते हैं
अंबर पास चला आता है.

अम्बर और सागर तो नहीं आये अभी तक लेकिन शायद कविता पढकर सूरज भाई धड़धडाते हुये कमरे में धंस आये। साथ बैठकर चाय पी रहे हैं हमारे साथ। आप भी आइये पीना हो तो।
 
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Sunday, March 13, 2016

मठाधीश और सम्पन्न साधु तो भोगी होते हैं

प्रश्न: संन्यास लेकर जो मठाधीश , महंत, या धर्म के उपदेशक हो जाते हैं क्या उनकी इच्छायें वास्तव में मर जाती हैं?
-नरसिंहपुर से विजय बहादुर

उत्तर: मेरा ख्याल है, जब तक कोई ऐसा कार्य या ऐसा चिन्तन या ऐसा कर्म न हो जो आदमी की चेतना को पूरी तरह डुबा ले और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को उठने न दे तब तक संन्यास लेने या मठाधीश हो जाने से आदमी की तृष्णा नहीं जाती। सेक्स और भूख पर विजय पाना सबसे कठिन है। आमतौर पर साधारण संन्यासी भोजन-लोलुप और स्त्री-लोलुप होते हैं। ये बड़े दयनीय भी कभी-कभी लगते हैं। दमन से आदमी दुखी होता है। मठाधीश और सम्पन्न साधु तो भोगी होते हैं। मैंने भी कई स्वामियों को रबड़ी पीते देखा
है।


रायपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार देशबन्धु में ’पूछो परसाई से’ श्रंखला के अंतर्गत 12 अक्टूबर, 1986 को प्रकाशित।

Saturday, March 12, 2016

अपना काम करने का सपना


मोहम्मद कलीम पुलिया पर
’ये है हमारा मशीन का स्केच ! ये मोटर है! ये जाली ! यहां से दाना फ़ाइनली निकलेगे।’ - कलीम एक कागज में स्केच बनाकर हमको समझा रहे थे।

हुआ यह कि दो दिन पहले पुलिया पर सोते हुये कलीम मिले। साइकिल पर बक्सा, पेटी के कुंडी वगैरह रिपेयर करने का सामान लदा था। कुछ साइकिल के हैंडल पर, बाकी कैरियर की पेटी पर। कब्जा, पेटी रिपेयर का ही काम करते हैं कलीम। कभी काम मिलता है, कभी नहीं मिलता। परसों की ही कुल कमाई 100 रुपये हुई थी।
हमने ऐसे ही रायबहादुर की तरह कहा- ’ इस धन्धे में काम रोज नहीं मिलता तो कोई दूसरा काम क्यों नहीं कर लेते।’

कलीम बोले-’ काम तो करना चाहता हूं। अपना काम। लेकिन पूंजी का जुगाड़ ही नहीं हो पा रहा।’

हमने कहा -’ क्या काम करने की सोच रहे हो? कितना पैसा चाहिये उस काम में?’

उन्होंने बताया-’ हम पोल्ट्री फ़ार्म, सुअर पालने वालों के लिये दाना बनाना का काम करना चाहते हैं। 50-60 हजार लगेंगे इस काम में। काम से और लोगों को भी रोजगार मिलेगा।’

विस्तार से अपनी योजना के बारे में बताते हुये बोले कलीम-’ परियट नदी के पास सैंकडों डेयरी हैं। हजारों जानवर हैं वहां। रोज कोई न कोई मरता है। उसका गोश्त बेकार जाता है। हम उस मरे हुये जानवर के गोश्त से मुर्गियों और सुअरों के लिये दाना (चारा ) बनाने वाली मशीन बनायेंगे। इससे हम चार लोगों को रोजगार भी देंगे। हमारा बहुत दिन से सपना है यह काम करने का लेकिन पैसे के कारण पूरा नहीं हो पा रहा है।’

हमने कहा- ’ तो बैंक से पैसा लोन लेकर सपना पूरा करो न्! शुरु करो काम।’


अपना काम करने का सपना है कलीम का
बैंक में लोन कैसे मिलेगा? कौन देगा ? यह बात कह ही रहे थे कलीम तब तक हमारे एक परिचित हमको खोजते हुये आये। एक किताब कूरियर से आयी थी। किताब आर्डर करते समय मैं अपना मोबाइल नंबर लिखना भूल गया था सो कूरियर वाला मुझे खोज रहा था। उनसे पूछा उसने मेरे बारे में तो मुझे पुलिया पर खड़े देखकर वे कूरियर वाले को मेरे पास ले आये।

मैंने उनसे कहा -’ये जरा इनकी कुछ सहायाता कर सकते हो बैंक से लोन दिलाने में तो करो।’

उन्होंने कहा - ’हां हम पूरी कोशिश करेंगे। इसके बाद साढे तीन बजे अपने सब कागज लेकर बैंक आने की बात तय हुई कलीम और मेरे परिचित की।’

मैं फ़ैक्ट्री पहुंचा तो कुछ देर में फ़ोन आया कलीम का कि वे बैंक में इंतजार कर रहे हैं। हमने अपने परिचित को फ़ोन किया तो वे पहुंचे बैंक। इस बीच मैंने बैंक मैनेजर से लोन के बारे में जानकारी ली तो पता चला कि ’मुद्रा लोन’ मिलता है 50 हजार से 10 लाख तक। लेकिन इस साल का लक्ष्य पूरा हो गया है। अप्रैल मई में मिल सकता है अगर उनका खाता बैंक में हो।

शाम को पता चला कि लोन मिल जायेगा लेकिन उसके लिये पैन कार्ड होना जरूरी है। आधार कार्ड, वोटर आई डी है कलीम के पास। पैन कार्ड जैसे ही मिलेगा लोन मिल जायेगा। अब मैंने पैन कार्ड की जानकारी नेट से ली। अब कलीम के लिये पैन कार्ड का इंतजाम करना है।

इस बीच मैंने कलीम से पूछा कि तुम्हारा बैंक में खाता है ? बोले - है! जीरो बैलेंस वाला खाता है। हमने पूछा - किस बैंक में है? बोले - ’बैंक का नाम याद नहीं पर किताब घर में धरी है।’ हमने कहा - ’नाम देखकर बताओ।’
कुछ देर में कलीम का फ़ोन आया। बोले- ’ सटक बैंक में खाता है।’ हमने कहा - ’ये सटक बैंक कौन सी नयी खुल गयी। स्पेलिंग पढकर बताओ।’


ये है कलीम की मशीन का स्केच
पता चला कि उनका खाता स्टेट बैंक में है। जिसे वो सटक बैंक कह रहे थे।

इस बीच हमने कहा -’ तुम गोश्त से दाना बनाने की मशीन कैसे बनाओगे?’

कलीम बोले-’ हम खुद बनायेंगे। हम मिस्त्री हैं। पुरानी मोटर उठा लेंगे। सब कर लेंगे। बस पैसे का जुगाड़ हो जाये।’

हमने कहा-’ अच्छा स्केच बनाकर बताना कैसे बनाओगे मशीन।’ कलीम बोले- ’दिखायेगे।’

हमने सोचा स्केच की बात कही है। एकाध दिन बाद कभी आयेंगे। लेकिन कल दोपहर लंच के बाद फ़ैक्ट्री जाते समय देखा कि कलीम भाई स्केच लिये हाजिर थे। हमको एक-एक चीज विस्तार से समझाने लगे।

हमने कहा - ’ स्केच तो मुझे नहीं पता वैसा ही है जैसा तुम मशीन बनाने की सोच रहे हो। लेकिन जितनी शिद्धत से तुम इस काम के बारे में सोच रहे तो इसको पूरा होने से कोई रोक नहीं सकता।’

कलीम बोेले-’ यह मेरा बहुत दिनों का सपना था। आपका सहयोग मिलेगा तो अब लगता है यह पूरा भी हो जायेगा। इससे लोगों को रोजगार भी मिलेगा। लोन भी मैं साल भर में चुका दूंगा।’

हमने कहा - ’तुम्हारा सपना पूरा होगा तो मुझे बहुत खुशी होेगी।’

और विस्तार से बात करने पर बताया कलीम ने कि मशीन तो 20 हजार में बन जायेगी लेकिन बाकी का हिसाब-किताब करने में, दुकान बनाने के लिये 30-40 हजार और चाहिए। दुकान नहीं होगी तो कौन आयेगा मेरे यहां से दाना खरीदने।

कल मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुये सलिल जी ने 'मुद्रा लोन' का जिक्र किया। उनसे और जानकारी लेकर ये लोन कलीम भाई को दिलवाने की कोशिश करेंगे। देखते हैं कितना सफ़ल होते हैं उनका सपना पूरा करने में।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207515572180901

Friday, March 11, 2016

बुजुर्ग आदमी अकेलेपन का शिकार होता है

सुबह आज थोड़ा देर से उठे। सोचा आज मटिया दें साइकिलिंग। लेकिन फ़िर निकल ही गये। सोचा चाहे दो पैडल मारें, लेकिन मारना चाहिये।

पुलिया के पास बिन्देश्वरी प्रसाद टहलते हुये वापस जा रहे थे। हमने पूछा - अकेले?

वो बोले - ’हां, मिश्रा जी आ नहीं रहे तीन दिन से। शायद घर चले गये।’

हम बोले- ’परसों तो आप लोग साथ दिखे थे।’

वो बोले- ’परसों नहीं उसके पहले मिले थे।’

बुजुर्ग आदमी अकेलेपन का शिकार होता है। एक दिन साथी नहीं मिलता तो हुड़कने लगता है।

चाय की दुकान पर बहस प्राइवेट स्कूलों की लूट पर हो रही थी। बहस क्या एकतरफ़ा रोना रोया जा रहा था।
यह रोना शाश्वत होता जा रहा है। सरकारी स्कूल बन्द हो रहे हैं। जबकि देश को शिक्षित और साक्षर बनाने के लिये ऐसे स्कूल खूब सारे होने चाहिये। बच्चे प्राइवेट स्कूलों में फ़ीस न भर पाने के कारण जा ही नहीं पाते।
हमको आर्ट आफ़ लिविंग वाले गुरु जी का चार साल पुराना बयान याद आया। उन्होने बयान जारी किया था- "सरकारी स्कूलों में पढ़ाई से नक्सलवाद को बढ़ावा मिलता है। सरकारी स्कूल बन्द करके उनकी जगह निजी स्कूल खोलने चाहिये।"

( पोस्ट का लिंक - http://fursatiya.blogspot.in/2012/03/blog-post_21.html )
ऐसी उत्तम सोच वाले गुरुजी 35 लाख लोगों को आर्ट आफ़ लिविंग सिखायेंगे। पर्यावरण का चूना लगाते हुये।

फ़ैक्ट्री गेट के पास एक आदमी बीडी का धुंआ फ़ूंकते हुये मिला। धुंआ ऐसे निकलकर भाग रहा था जैसे माल्या जी भारतीय बैंकों का पैसा हिल्ले लगाकर फ़ूट रहे हों।

लौटते में मिश्रा जी मिले। वे बोले- ’बिन्देश्वरी प्रसाद नहीं मिले आज। लगता है देर हो गयी। हम उनको बताये कि वे तो आपको खोज रहे थे।’

पुराने जमाने के लोग हैं ये बुजुर्गवार। आजकल के लोग अगर टहलने निकलें तो पुलिया पर पहुंचने पर न मिलें तो फ़ोनिया लें।

फ़िर मिश्रा जी ने बताया कि दो दिन उनकी तबियत गड़बड़ हो गयी तो निकले नहीं टहलने। कमर दर्द था।
सूरज भाई एकदम छाये हुये थे आसमान पर। बहुमत वाली सरकार के प्रधानमंत्री की तरह पूरे आसमान पर उनका नियंत्रण दिख रहा था। हर तरफ़ उजाले के स्वयंसेवक पसरे हुये थे उनके। फ़ूल, पत्ती, कली, फ़ुनगी, कोने, अतरे, कंगूरे, अटारी, गली, मोहल्ले, जल-थल-नभ जिधर देखो उधर सूरज भाई के स्वयंसेवक तैनात थे। जैसे कोई सरकार हर महत्वपूर्ण पद पर अपने जाति, विचारधारा के लोगों को बैठाना ही सरकार की सफ़लता की गारन्टी मानती है वैसे ही सूरज भाई ने भी आते ही हर जगह अपने उजाले के कमांडो बैठा दिये।

हद तो तब हो गयी जब सूरज भाई ने हमारे चाय के थरमस के ऊपर भी उजाले का एक छुटभैया बैठा दिया। हमने उनकी बाल सुलभ शासन वृत्ति पर हंसते हुये थरमस का ढक्कन खोला। चाय कप में डालते हुये देखा कि उजाला चाय में भी घुस गया। लगता है पेट में भी जाकर वहां भी कुर्सी डालकर बैठेगा।

चाय पीते हुये जब मैंने सूरज भाई से यह बात कही तो वो हंसते हुये बोले- ’अरे नहीं, जिसकी फ़ितरत उछलने-कूदने की होती है वो एक जगह बैठता नहीं। पेट में उछलता-कूदता रहेगा। जहां कोई रास्ता दिखेगा वो बाहर भी जायेगा।’

मन किया कि कहें कि निकलते ही कहीं आर्ट आफ गुरु वाले एंजाइम के चपेटे में आ गए तो खाद बनकर रह जायेंगे आपके उजाला भाई। लेकिन कहे नहीं। कोई हमारा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तो है नहीँ जो उसका चरित्र हनन करें, उसकी खिल्ली उड़ायें। यह सब तो राजनीति में होता है। बल्कि सच कहें तो अब बस यही सब तो होता है। राजनितिक सवालों के जबाब देते हुए व्यक्तिगत हमले किये जाते हैं। बड़े सवालों के जबाब में चिरकुट तर्क दिए जाते हैं। ताली पीटने के लिए बाल गोपाल/स्वयं सेवक/ कामरेड लोग होते ही हैं जो कहते भी हैं-'क्या करारा जबाब दिया है।'

चाय पीते हुये बतियाते हुये सूरज भाई कब आसमान पर चले गये पता ही नहीं चला।
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Thursday, March 10, 2016

टेसू के फ़ूल जमीन का श्रंगार कर रहे हैं

झील के पानी में छप्प-छैयां करते सूरज भाई
मेस से बाहर निकलते ही पक्षी बड़ी जोर से चिंचियाते दिखे। ऐसे जैसे ’विजय माल्या’ जी के विदेश निकल लेने पर बैंक हल्ला मचा रहे हों। आसमान में भी धुयें की एक लकीर दिखी। बड़ी तेजी से दूर से भागती हुई। हमको फ़िर माल्या जी याद आये। मतलब हाल यह समझिये कि जिसमें देखो उसमें ’माल्या-मूरत’ ही दिख रही थी- ’देश का पैसा लेकर भागता अमीर।’

सड़क पर एक परिवार टहल रहा था। देखते-देखते बच्चा आगे दौड़ने लगा। जमीन पर धप्प-धप्प करते जूते रखता। पीछे उसका पिता भागने लगा। कुछ दूर आगे जाकर पिता ने बच्चे को पिछाड़ दिया। बच्चा पलटकर भागने लगा। पिता फ़िर पलटकर बच्चे को पकड़ने की मुद्रा में उसके पीछे भागने लगा। बच्चे की मां पिता-पुत्र के ’मार्निंग-कौतुक’ को देखते एक समचाल से टहलती रही। गरदन थोड़ा बायीं तरफ़ किये हुये।

दिहाड़ी कमाने निकला कुम्हार
एक सरदार जी आंखों में धूप वाला चश्मा लगाये कोई भजन गाते हुये टहलते जा रहे थे। एक महिला और टहल रही थी। बहुत धीरे-धीरे। लग रहा था उसको गरदन में कोई तकलीफ़ है। पैर में भी। शायद मन में भी।
एक आदमी ठेले पर कुछ घड़े रखे बेंचने के लिये ले जा रहा था। लालमाटी जायेगा। एक घड़ा 70 रुपये का। बताया कि सब बिक जाते हैं घड़े। पहले महिलायें भी घड़े बेचने जाते दिखीं थीं। पर वे घड़े अपने सर पर ढोकर ले जातीं थीं। लेकिन आदमी लोग सर पर ढोकर बेंचने जाते नहीं दिखें। दोनों के काम करने की सुविधाओं में अंतर है। लैंगिग भेदभाव। एक ही काम के लिये महिला को सर पर ज्यादा बोझ ढोना होता है।


परदेशी और सुशीला चाय की दुकान पर
सूरज भाई तालाब में उतरकर नहा रहे थे। किरणों के साथ मिलकर पानी में ’छप्प-छैंया’ करते हुये सूरज भाई प्रमुदित और किलकित से दिख रहे थे। हमने कहा -’तालाब का पानी गन्दा करने के जुर्म में तुम पर भी जुर्माना ठुक जायेगा समझ लो सूरज भाई।’

इस पर सूरज भाई बड़ी तेज खिलखिलाकर हंसे। सब दिशायें भी उनके साथ हंस पड़ीं। इसके बाद उन्होंने मुस्कराते हुये अपनी शाश्वत धमकी दी-’ हम भी फ़िर अपनी ऊष्मा का शुरुआत से लेकर आजतक का बिल भेज देंगे। सदियों तक चुकाते नहीं बनेंगे।’ हम उनको मुस्कराते हुये पानी में नहाता छोड़कर चले आये।


दीपा पानी भर लाई
पंकज टी स्टाल पर काफ़ी दिन बाद जाना हुआ। एक बुजुर्ग आदमी और बुजुर्ग महिला साथ बैठे चाय पी रहे थे। जमीन पर। आदमी ने बताया कि साथ की महिला उसकी बहन हैं। बाद में पता चला सगी बहन नहीं- बहन सरीखी हैं। अपनी तरफ़ से बताया ताकि हम उनको पति-पत्नी न समझ लें।

पति-पत्नी समझा जाना समझ लो कितना खराब समझा जाता है। :)

दोनों रीवां के रहने वाले हैं। दोनों के जीवन साथी खत्म हो गये। बच्चे नहीं हैं। मांगते-खाते हैं। जीसीएफ़ के सामने बैठते हैं। दस-बीस-तीस रुपये मिल जाते हैं। उसी से गुजर बसर खाना-पीना हो जाता है।


सुबह की रसोई बनाते कामगार
परदेशी नाम है आदमी का। उमर साठ के ऊपर होगी। औरत के पेट में ट्यूमर था। दस साल पहले गुजर गयी। महिला का नाम सुशीला है। उनका पति सालों पहले गुजर गया। खून छरछराता था। एक ही जगह रहते हैं दोनों। खाना अलग-अलग बनाते हैं। पंकज ने बताया कभी -कभी चाय पिला देते हैं दोनों को। हमने भी चाय भर के पैसे दिये दोनों को और अपना काम खत्म समझा।

वहीं तीन लड़के चाय पीते हुये एक ही सिगरेट से बारी-बारी से सुट्टा लगा रहे थे। सरकार ने सिगरेट मंहगी करके युवा शक्ति को एक जुट होने का मौका दिया है।

दीपा से मिलने गये। उसके पापा ने कुंडम से आये कुछ लोगों को अपने ठीहे के पास बनाने-खाने की जगह दे दी। मतलब बुला लिया कि आओ बनाओ-खाओ। सबका अकेलापन दूर होगा।

कुंडम से आये लोग सुबह का खाना बना रहे थे। लकड़ी साथ लाये हैं। होली तक रुकेंगे। घर में सब लोग हैं। मां-पिता-बच्चे-पत्नी और परिवार। अभी वहां कोई काम नहीं तो यहां चले आये। 250 रुपये रोज के मिलते हैं।


बटलोई में आटा मांढ़ा जा रहा है
एक आदमी बटलोई में आटा मांड़ रहा था। दूसरा शीशे में खुद को निहार रहा था। हमने पूछा -’घर में भी खाना बनाते हो ऐसे कभी? ’ वो बोले- ’घर में बाई है न! बोई बनाती है। पर जब जरूरत पड़ती है तो बनाते भी हैं।’

दीपा पानी भरकर आ गयी। सर पर अल्युमिनियम की पतीली में पानी भरे। आज उसकी छुट्टी है। उसके पापा ने उसको नहाने के लिये चिल्लते हुये कहा। वह चुपचाप अंदर चली गयी। हमने उसके पापा से कहा-’ ऐसे चिल्लाया मत करो भाई। प्रेम से बोला करो।’ वह बोला- ’ प्रेम से बोलते हैं तो यह हमको बेवकूफ़ समझती है। बात नहीं मानती।’ कहने का मन हुआा (लेकिन कहा नहीं)-’ बेवकूफ़ तो हो ही तुम जो ऐसा समझते हो। प्रेम से बोलो तो बच्ची ज्यादा अच्छे से काम करेगी।’


टेसू के फूल जमीन का श्रंगार करते हुए
लौटते हुये क्रासिंग बन्द मिली। ट्रेन धड़धड़ाते हुये निकली। ओवरब्रिज के पास टेसू के पेड़ से फ़ूल नीचे झरे हुये पड़े थे। बहुत खूबसूरत लग रहे थे। अनायास पुष्प की अभिलाषा कविता याद आ गयी:

’मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फ़ेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ पर जायें वीर अनेक”
चलिये। चला जाये। कर्तव्य पथ डट जाया जाये। कविता याद करते हुये:
’वह शक्ति हमें दो दयानिधे
कर्तव्य मार्ग पर डट जावें’
मल्लब अगर कोई कर्तव्य मार्ग पर नहीं डटा है और कोई उसको टोंकता है तो अगला तसल्ली से कह सकता है -"क्या करें भाई! दयानिधे से शक्ति की ग्रांट आई ही नहीं! कैसे डट जायें कर्तव्य मार्ग पर? शक्ति की ग्रांट आये तभी तो डटें।" ये दयानिधे हमारे खिलाफ़ षडयन्त्र कर रहे हैं  :)


सूरज भाई सुबह से कर्तव्यमार्ग पर डटे हुये हैं और हमको बहानेबाजी करता देखकर मुस्करा रहे हैं। सुबह हो ही गयी।
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