Sunday, July 31, 2022

खुशियों का बगीचा-निशात बाग



शालीमार बाग देखते हुए काफी टहल लिए थे। शाम भी हो गई थी। मन किया अब बाकी कल देखेंगे लेकिन फिर याद आया कि श्रीनगर में दो ही दिन रुकना है। दो दिन में पूरा श्रीनगर नाप लेना है। देख लेना है। टाइम टेबल बनाकर होमवर्क करने जैसा अंदाज है यह। लेकिन समय की सीमा के चलते करना पढ़ता है।
अगला बाग निशात बाग था। बहुत खूबसूरत, बहुत शानदार। निशात बाग का अर्थ होता है- खुशियों का बगीचा। देखकर सही में मन खुश हो गया। दिल बाग-बाग हो गया।
निशात बाग को सन 1634 में बनवाया मुगल महारानी नूरजहां के बड़े भाई अब्दुल हसन आसफ खां ने बनवाया था। बताते चलें कि इसके पहले 1619 में मुगल बादशाह जहांगीर अपनी बेगम को खुश करने के लिए शालीमार बाग बनवा कर उनको भेंट दे चुके थे। उसकी देखादेखी ही नूरजहां के भाईजान ने निशात बाग बनवाया होगा।
निशात बाग जब बना तब मुगल बादशाह शाहजहाँ गद्दीनशीन थे। बाग को बनवाने वाले अब्दुल हसन रिश्ते में उनके ससुर थे। उनकी बेटी मुमताज महल शाहजहाँ की बेगम थीं। बाग की खूबसूरती से शाहजहाँ बहुत खुश हुए होंगे और उनके मन में तमन्ना रही होगी कि यह खूबसूरत बाग उनके ससुर उनको भेंट कर देंगे। तमन्ना क्या ऐसा सुना जाता है कि शाहजहाँ ने तीन बार इस बात की मंशा जाहीर की। लेकिन उनके ससुर साहब ने ऐसा नहीं किया। बादशाह शाहजहाँ को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने बगीचे में पानी की सप्लाई रुकवा दी। बाग सूखने लगा।
बादशाह शाहजहां द्वारा उनको भेंट न किए जाने पर बाग की पानी की सप्लाई रुकवा देने का काम उसे तरह का है जैसे किसी कालोनी का मेन्टीनेंस देख रहे किसी को परेशान करने की मंशा से किसी के घर की मरम्मत न कराएं पानी रोक दें, बिजली काट दें, सीवर लाइन चोक करवा दें। मनमानी का ये शाही अंदाज सदियों पुराना है।
शाहजहाँ का यह अंदाज उसी तरह का था कि जैसे लड़के वाले लड़की वालों से जिंदगी भर भेंट-उपहार की आशा लगाए रहते हैं। गनीमत है कि निशात बाग भेंट न देने पर मुमताज महल को परेशान करने के किस्से नहीं मिलते। हुए भी होंगे तो उस समय दहेज विरोधी कानून बना नहीं था। महारानी कहाँ एफ़ आई आर दर्ज करवातीं?
पानी की सप्लाई रुक जाने से निशात बाग उजाड़ होने लगा। पानी बादशाह ने रुकवाया था तो बेचारे अब्दुल हसन साहब करते भी क्या ! सुनते हैं एक दिन उदास निशात बाग में एक पेड़ के नीचे लेटे हुए थे। उनको उदास देखकर उनके वफादार नौकर ने शालीमार बाग से निशात बाग आने वाली पानी की सप्लाई खोल दी। पानी की आवाज सुनकर अब्दुल हसन ने घबड़ाकर नौकर से पानी की सप्लाई बन करनें को कहा। उनको डर था कि उनका दामाद बादशाह अपनी हुकूमअदूली से खफा होकर न जाने क्या बवाल करे?
लेकिन जब इस घटना के बारे में बादशाह शाहजहाँ को पता चला तो उसने नौकर और अपने ससुर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। बल्कि निशातबाग की पानी की सप्लाई चालू करवा दी। हो सकता है उनकी बेगम मुमताज महल ने भी कहा हो शाहजहाँ से –‘आपने मेरे पापा के बगीचे की पानी की सप्लाई क्यों रोक दी? फौरन चालू करवाइए उसे?’ उसकी बात मानकर ही शाहजहाँ ने अपना हुकूम वापस ले लिए हो।
अधिकार भाव से संचालित, मन माफिक काम न होने पर, नुकसान पहुंचाने वाले इस भाव से मनुष्य तो क्या देवता भी अछूते नहीं है। व्रत न करने पर पारिवारिक अहित, संपत्ति हरण और फिर व्रत करने पर सब कुछ बहाल हो जाने के किस्से इसकी पुष्टि करते हैं।
बहरहाल जो हुआ हो लेकिन आज के दिन निशात बाग में पानी की सप्लाई चालू है और श्रीनगर का यह सबसे बड़ा बाग मात्र 24 रुपए के टिकट पर आम जनता के देखने के लिए उपलब्ध है।
निशात बाग के पीछे एक झरना बहता है जिसका नाम गोपितीर्थ है। बगीचे में पानी इसी झरने से आता है। बगीचे में फूलों की दुर्लभ प्रजातियाँ , चिनार और सरू के पेड़ हैं। यह बगीचा इस इलाके का सबसे बड़ा सीढ़ीदार उद्यान है।
बगीचे में घुसते ही हर तरफ खूबसूरती ही खूबसूरती दिखी।
हर तरफ हसीन नजारे। सामने डल झील , ऊपर आसमान में सूरज भाई। झील में नावें और सड़क पर कारें तैर रही थीं। सीढ़ीदार बगीचे में जैसे-जैसे आगे (बाग के पीछे की ओर) बढ़ते गए, सामने का नजारा खूबसूरत लगता गया। हर दस बीस कदम आगे बढ़ते हुए लगता इसे भी धर लो कैमरे में, उसका भी वीडियो बना लो। अभी लिखते समय सबको देखते हुए फिर से निशात बाग की खूबसूरती को महसूस कर रहा हूँ।
बगीचे में लोग उसकी खूबसूरती को निहारते और उससे भी अधिक उसके साथ फ़ोटो खिंचाते दिखे। एक महिला अपने बच्चे के साथ सेल्फ़ी ले रही थी। उसे के बगल में दूसरी मोहतरमा दोनों कैमरा पकड़कर फ़ोटो लेते दिखीं। दिखीं। यहाँ भी कश्मीरी ड्रेस के साथ फ़ोटो खिंचाने का इंतजाम था। रास्ते के दोनों तरफ रेलिंग और जंजीर लगी हुई थी ताकि इधर-उधर से बगीचे में जाने की इच्छा रखने वालों से फूल महफूज रहें। परिवार समेत आए लोगों के बच्चे खेलते हुए मजे ले रहे थे।
बाग के सबसे ऊपर के हिस्से में तमाम लोग आराम से बैठे , बतिया रहे थे। कुछ पंजाबी परिवार के लोग खूब जोर-जोर से बातें करते हुए हंस रहे थे। उनमें से कुछ लोग मोबाइल पर कुछ देखता-दिखाता भी जा रहा था। ये मोबाइल आजकल इंसान के साथ अपरिहार्य संगति बन गया है। क्या पता कल को बिना मोबाइल के इंसान को इंसान मानने से ही मना कर दिया जाए। मोबाइल रहित व्यक्ति को ‘मोबाइल दिव्यांग’ घोषित करते हुए उसके लिए कुछ अलग नियम बन जाएँ।
एक आदमी नमाज पढ़ते हुए भी दिखा। सबकी सलामती की दुआ मांग रहा होगा।
वहां दो मुस्लिम लड़कियां बुरके में एक-दूसरे की फ़ोटो खींचती दिखीं। उनको आपस में एक-दूसरे की एक-एक करके फ़ोटो खींचते देखा हमने कहने की सोची –‘लाओ हम तुम्हारा साथ में फ़ोटो खींच दें। लेकिन फिर यह सोचकर कि ऐसा कहने पर वे बच्चियाँ हमको ही न खींच दें , हमने नहीं कहा।
वहीं दो खूबसूरत से लड़के आपस में फ़ोटोबाजी कर रहे थे। उनसे बात करने की मंशा से हमने उनके फ़ोटो उनसे कहकर उनके मोबाइल से खींचे। उनमें से एक बच्चे ने मुझसे कहा –‘लाओ मैं भी आपका फ़ोटो खींच देता हूँ।‘
फ़ोटो खींचने के लिए उसने मुझे एकदम किनारे खड़ा कर दिया। पीछे पूरा निशात बाग, सड़क और सड़क पार का खूबसूरत नजारा और इस खूबसूरती को और खूबसूरत बनाता आसमान था। जिस जगह मुझसे खड़े होने को बच्चे ने कहा उस जगह कीचड़ हो गया था। फिसलने पर दस फुट नीचे गिरने का डर मन में लिए हम खड़े हुए। फिर भी डर गया तो बैठ गए वहीं। बच्चे ने हालांकि कहा भी –‘आप चिन्ता न करें। कुछ नहीं होगा।‘ लेकिन कहना उसका काम , करना(डरना) हमारा काम। हमने डरते हुए फ़ोटो खिंचाया। इसके बाद हमने साथ में भी खिंचाया।
बाद में उस बच्चे से बात हुई। हमने उससे सवाल-जबाब करते हुए मोबाइल उसके सामने किया तो उससे मंजे हुए, अभ्यस्त इंटरव्यू देने वाले की तरह कहा –‘आप पूछो जो पूछना हो! ‘ रैपिड फायर स्टाइल में सवाल-जबाब कुछ इस तरह हुए :-
सवाल : आप क्या करते हैं।
जबाब: मैं ट्रक चलाता हूँ।
सवाल: कब से ट्रक चला रहे हो?
जबाब: चार साल से।
सवाल: लाइसेंस कब मिला?
जबाब: लाइसेंस मिल मुझे 2018 में।
सवाल :पढ़ाई कितने तक की?
जबाब : पढ़ाई टवेल्थ (12 वीं) तक।
सवाल :ट्रक क्यों चलाने लगे?
जबाब : ऐसे ही , शौक था।
सवाल : कहां-कहां ट्रक चलाते हैं ?
जबाब: दिल्ली, दिल्ली जाते हैं।
सवाल: कितने दिन में दिल्ली पहुँच जाते हैं ?
जबाब: दो-तीन लग जाते हैं।
सवाल: यहां कश्मीर में कहां रहते हैं ?
जबाब: यहां मैं रहता हूँ बड़गाम में।
सवाल : आज छुट्टी थी ?
जबाब: हाँ, आज छुट्टी थी इसी लिए आज घूमने आया।
यह कहने के बाद उसने मुझसे कहा –यहां का व्यू दिखाओ। कितना मस्त व्यू आ रहा है कश्मीर का। कहते हुए उसने मेरे मोबाइल का कैमरा सामने की तरफ कर दिया। सामने, नीचे निशात बाग के फव्वारे और सामने खूबसूरत डल झील दिख रही थी। हमने कहा-‘हां बहुत मस्त व्यू आ रहा है कश्मीर का।‘
कश्मीर का व्यू दिखाने के बाद बच्चे ने कैमरा मेरी तरफ करके पूछा-‘कितना अच्छा लगा अंकल आपको यहां?’
हमने कहा –‘बहुत अच्छा लगा।‘
बच्चे ने कहा – ‘बहुत अच्छा लग रहा है न ! मजा आया ! बहुत बढ़िया।‘
इसके बाद उससे कुछ और बातें करके बच्चा अपने दोस्त के साथ चला गया।
बच्चा बहुत खूबसूरत था। बातचीत में आत्मविश्वास और बराबरी का एहसास। व्यवहार में अपनापा। कश्मीर में जगह-जगह मैंने ऐसे बच्चे देखे। दसवीं-बारहवीं तक पढ़ाई किए बच्चे। अधिकतर ड्राइवरी या होटल में काम करने वाले। खूबसूरती ऐसी कि सीधे फिल्मों में हीरो की तरह लांच कर दिए जाएँ।
वहीं पर एक फल वाला फल बेंच रहा था। हमने भाव पूछे तो उसने पहले मुझे एक फल थमा दिया –‘पहले खाकर देखो फिर खरीदना।‘
हमने खाया और पाव भर तौलवा भी लिए। खाते रहे अगले दिन तक एक-एक करके।
लौटते समय बगीचे में दो छोटे बच्चे बगीचे में खेलते दिखे। एक घुटे हुए सर वाला बच्चा दूसरे बच्चे को आगे धकियाते हुए ले जा रहा था। रेल के इंजन और एक डिब्बे की तरह। थोड़ी देर में आगे वाले बच्चे के पैर से जूता निकल गया। बच्चे रुक गए। पीछे वाला बच्चा आगे वाले बच्चे के पाँव में जूता पहनाने लगा। जब तक वह अपना काम पूरा कर सके, बच्चे की मम्मी उसको उठाकर ले गई।
फव्वारे का पानी फिसलापट्टी के झूले पर झूलता सा नीचे बह रहा था। पानी को झूला झूलते हुए फिसलते हुए पानी में मिलना जरूर अच्छा लग रहा होगा। इसीलिए पानी में मिलते हुए किलकिल-किलकिल कर रहा था।
बाहर निकलते हुए फिर से पूरा बाग एक बार भरपूर निगाहों से देखा। दुबारा भी देखा। चलते-चलते फिर से देखा। फ़ोटो लिए, विडियो बनाया और बाहर निकल आए।
बाहर एक बीच की उम्र के बुढ़िया के बाल बेंचते दिखे। बताया कि आई टी आई किए हैं इंस्ट्रूमेंटेशन में। टेलीफोन का हर काम जानते हैं। देखकर बता देंगे क्या खराबी है और ठीक भी कर देंगे। लेकिन जहां काम करते थे वह पैसा समय पर नहीं देता था इसलिए काम छोड़ दिया। अपना काम करते हैं। इसमें आमदनी अनिश्चित है लेकिन काम में किसी के भरोसे तो नहीं।
शाम हो गई थी। सामने डल झील पर नावें इठलाती हुई टहल रहीं थीं। ड्राइवर साहब आ गए थे। हम वापस चल दिए होटल की तरफ!

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Saturday, July 30, 2022

शालीमार बाग –खूबसूरत, आनंददायक बाग



बॉटैनिकल गार्डेन देखने के बाद पास ही स्थित शालीमार बाग देखने गए। खूबसूरत शालीमार बाग श्रीनगर का मुकुट कहलाता है। मुगल बादशाह जहांगीर ने अपनी रानी नूरजहां को खुश करने के लिए जहांगीर ने पुराने बाग को शाही बगीचे में तब्दील करवाकर शालीमार बाग बनवाया। 1619 में। रानी । राजा-महाराजाओं के पास पैसे की कोई कमी तो होती नहीं थी। न उनको गैस सिलेंडर खरीदना होता है न बच्चों की फीस भरनी पड़ती है। इफ़रात में पैसा होता है उनके पास। अपनी रानियों को खुश करने के लिए बाग-बगीचे, महल-चौबारे बनवाते रहते थे।
बगीचे को शाही बगीचे में तब्दील करवाने के बाद नया नाम रखा –फराह बक्श (आनंद प्रदान करने वाला)। बाद में 1630 में मुगल बादशाह शाहजहाँ के गवर्नर जफ़रखान ने इसको और बड़ा करवाया और नाम रखा -फैज बक्श (खूबसूरत)। बाद में भी यह बाग खास लोगों की आरामगाह और तफरीह का अड्डा रहा। गर्मी के दिनों में शहंशाह जहांगीर अपने पूरे लाव-लश्कर समेत अपना टीम- टामड़ा लेकर कश्मीर चले आते थे। यहीं उनका दरबार लगता था। शालीमार बाग में ही उनकी रिहाईश होती थी।
इस बाग में चार स्तर पर बगीचे बने हैं एवं पानी बहता है। इसकी जलापूर्ति निकटवर्ती हरिवन बाग से होती है। सबसे ऊंचे बना बगीचा , जो कि नीचे से दिखाई नहीं देता है, वह हरम की महिलाओं हेतु बना था। यह बगीचा गर्मी और एवं पतझड़ में सर्वोत्तम कहलाता है। इस मौसम में पत्तों का रंग बदलता है एवं अनेकों फूल खिलते हैं।
राजा-महाराजाओं के लिए बनवाया गया बगीचा फिलहाल आम जनता के किए खुला है और शालीमार बाग कहलाता है। इसी की देखा देखी दिल्ली और लाहौर में शालीमार बाग बने। इसे देखने की फीस केवल 24/- है।
बगीचा बहुत खूबसूरत है। बीचो-बीच पानी के फ़ौवारे चलते रहते हैं। आगे से पीछे जाते हुए ऊंचाई बढ़ती जाती है। खूबसूरत बाग की खूबसूरती को देखने और उसके साथ अपनी यादें सँजोने के लिए देश-दुनिया से लोग आते रहते हैं। देश के हर हिस्से के लोग वहाँ दिखे। आपस में बतियाते हुए , फ़ोटो खिचवाते हुए , हँसते-खिलखिलाते , मस्तियाते।
तमाम लोग पानी के पास बैठे बतिया रहे थे। कश्मीरी ड्रेस में फ़ोटो खींचकर तुरंत मुहैया करवाने वाले भी वहां पर्याप्त मात्रा में थे।
बगीचे में खूब सारे सुंदर फूल और पौधे थे। चिनार का पेड़ कश्मीर की खासियत है। वहां एक चिनार का पेड़ दिखा जिसकी उम्र लगभग 365 साल थी। उस पर उसका विवरण लिखा था –
“मैं चिनार हूँ। मैं मुगलों के शालीमार बाग में 365 साल से खड़ा हूँ। मेरे ऊंचाई लगभग 165 फुट है । मेरा बड़ा मुकुट और शानदार शाखाएं हैं। इस शानदार स्थापत्य और प्रेम के प्रतीक का मैं प्राकृतिक गवाह हूँ। लोग मेरे चारों तरफ आराम करते हैं और अपने अनुभव साझा करते हैं जिनको मैं अपनी पत्तियों और शाखाओ में सुरक्षित रखता हूँ। मेरे अलावा भी कश्मीर घाटी में अनेक मजबूत चिनार के पेड़ हैं। अगर आप और चिनार के पेड़ देखना चाहते हैं तो दूसरे मुगल उद्यान में देखें।“
चिनार के पेड़ का यह बयान पढ़ने के बाद हमने तमाम चिनार के पेड़ देखे और 365 साल की उम्र वाले 165 फुटे चिनार को याद किया।
घूमते-घूमते और लोगों को देखते-देखते अपन यहां-वहां टहलते रहे। कुछ लोग फव्वारे के पास जाकर फ़ोटो खिंचा रहे थे। तमाम लोग उस जगह पर फ़ोटोबाजी कर रहे थे जहां कभी मुगल महारानियाँ रहती होंगी। उस समय आम जनता का जहां प्रवेश तक वर्जित रहा होगा वहां आज आम लोग खिलखिलाते हुए फ़ोटो खिंचा रहे थे।
वहीं एक जोड़ा दिखा। नया शादी-शुदा। वे आपस में एक दूसरे के फ़ोटो खींच रहे थे। लड़की अलग-अलग पोज में फ़ोटो खिचा रही थी। लड़का खींच रहा था। कुछ देर में वे सेल्फ़ी मोड में अपने फ़ोटो खींच रहे थे। हमको वहां से गुजरते देख उन्होंने हमसे अपने फ़ोटो खींचने के लिए कहा –“अंकल थोड़ा फ़ोटो ले लेंगे?”
अब अंकल को फ़ोटो लेने में क्या एतराज? उनके तमाम पोज में फ़ोटो लिए। एक-दूसरे के पास आते हुए, दूर जाते हुए , चश्मा लगाकर ,चश्मा उतार कर , गले लगाकर, सर टिकाकर। मतलब पूरी शूटिंग ही हो गई। जब इतना हुआ तो हमने उनसे अनायास कहा –“आपस में एक दूसरे को प्यार करते हुए भी खिंचा लो फ़ोटो।“
हमारी बात सुनते ही या शायद सुनने के पहले ही लड़की ने लड़के का गाल चूम लिया। एक बार चश्मा लगाकर और फिर एक बार बिना चश्मे के। प्रफुल्लित मुख लड़की ने हमको फ़ोटो खींचने के लिए धन्यवाद दिया। हमने धन्यवाद ले लिया और लड़के से कहा –“तुम क्यों पीछे रहो भाई? तुम ही खिंचा लो फ़ोटो।“
लड़के ने भी लड़की को चूमते हुए फ़ोटो खिंचवाया। सिर्फ एक बार। इसके बाद शर्मा गया। झिझकते हुए धन्यवाद कहा और मोबाइल ले लिए।
उस जोड़े के फ़ोटो सेशन में लड़की उत्साही और बिंदास थी। लड़का सकुचाया हुआ और झिझकता रहा। इससे क्या कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है? क्या यह कहा जा सकता है कि लड़के सार्वजनिक रूप में प्रेम प्रदर्शन में शर्मीले होते हैं।
करीब घंटे भर बाग में टहलने के बाद और वहाँ के लोगों और खूबसूरती को देखने के बाद हम बाहर निकल आए।
कश्मीरी गेट के एक दम पास एक बुजुर्ग झालमूढ़ी बेंच रहे थे। नाम बताया इस्लाम। उम्र 75 पार। अगर राजनीति में होते तो मार्गदशक मण्डल में शामिल हो जाते। लेकिन आम लोगों के लिए मार्गदर्शक मण्डल कहां होता है। आम लोगों के लिए जब तक जीना है , कमाना है, काम करना है लागू होता है। मेराज फैजाबादी का शेर है :
‘मुझे थकने नहीं देता ये जरूरत का पहाड़,
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते। “
बेतिया के रहने वाले इस्लाम ने अपने बारे में बताया –“हमको हमारा बड़ा बाप (पिता के बड़े भाई) लेकर आया था। छोटे थे तब। एक पैसा का सिक्का चलता था उस समय। तबसे छह महीने इधर रहते हैं छह महीने उधर बेतिया में। नवंबर में निकल जायेंगे । सर्दी गिरेगी तब। बेतिया में ताला मारा तो इधर आ गया। इधर ताला लगाएगा तो उधर निकल जाएगा। गांव के के बहुत आदमी साहब लेकिन हम अकेले ही रहते हैं। ऐसे तो यहाँ किराये के चार-पाँच हजार लेते हैं लेकिन हम हजार रुपए किराये के कमरे में रहते हैं। छोटा रूम में गुजारा कर रहे हैं।“
परिवार के बारे में पूछने पर बताया-“परिवार तो गुजर गया साहब। बच्चे भी मार गए। बीबी भी मर गया। दो गए भी मार गया। हम ही बच गया हूँ अकेला।“
बात करते हुए इस्लाम ग्राहकों को भी निपटाते जा रहे थे। एक आदमी को चालीस रुपया दाम बताया। उसने तीस रुपए में देने के लिए कहा। उन्होंने पूछा –“तीस रुपया में कितना पत्ता चाहिए? ले लो।“
एक झटके में 25% दाम गिरा दिए इस्लाम में। कोई प्रोफेशल कोर्स किया हुआ मैनेजर होता तो ऐसा करने के पहले हानि-लाभ का घंटों जोड़-घटाना-गुणा-भाग करता।
झालमूढ़ी बनाते हुए इस्लाम अपने सामान की पब्लिसटी भी करते जा रहे थे। एक चम्मच ग्राहक को खिलाते हुए बोले –“ये इस मौसम में इसको डाउन(मुलायम) होना चाहिए लेकिन खा के देखो कुरमुरा है।‘
ग्राहक से पूछते-बताते भी जा रहे थे इस्लाम –“सरसों के तेल में खाएगा कि नीबू? मिर्ची तेज कि हल्का? प्याज पहले तो डाला है।“
किसी ग्राहक के द्वारा झालमूडी के दाम पर सवाल उठाने पर बोले –“साहब गरम पानी मिलता है होटल में 20 रुपए का। इतना दूध होता है इतना चीनी होता है (उसमे तो पेट भी नहीं भरता)। ये (झालमूडी) तो पेट भरने वाला चीज है।
थोड़ी देर और इस्लाम से बतियाकर हम फिर अगले बाग की तरफ बढ़ गए।

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Thursday, July 28, 2022

श्रीनगर का बॉटनिकल गार्डन



दिल्ली से श्रीनगर की फ्लाइट समय पर आई। बैठे और उड़ लिए कश्मीर के लिए। ऊपर उड़ते ही थोड़ा ऊँघने के बाद जब आंख खुली तो जहाज बादलों के बीच उड़ रहा था। बाहर दूर-दूर तक फैले बादल ऐसे लग रहे थे मानो हजारों लीटर पानी में सैकड़ो टन सर्फ घोल दिया हो। उसी से पूरी कायनात का मैल साफ करने का इरादा हो।
जहाज उड़ने के बाद खाने-पीने की सेवा शुरू हुई। चाय ली हमने। 100 रुपये की एक कप। बगल वाले यात्री ने भी ली। और कुछ करने को नहीं था तो बतियाने लगे।
पता चला बगल के यात्री दिल्ली में अपना काम करते है। मुरादाबाद के रहने वाले। बिजनेस के बारे में और इधर-उधर की बातें जल्दी ही खत्म हो गईं। उन्होंने हाथ बढाकर खिड़की से बाहर का फोटो खींचा। हम अपने-अपने में मशगूल हो गए। बातें आगे बढ़ी नहीं। ठहर गयीं। बात शुरू करना और जारी रखना भी कलाकारी की बात है।
कुछ देर में जहाज उतरा। सामान लेकर हम बाहर आये। उतरते ही ड्राइवर का फोन आ गया था। वह हमारा इंतजार कर रहा था।
बाहर निकले तो इधर-उधर ताका। शायद कोई प्लेकार्ड लिए खड़ा हो। लेकिन ऐसा कुछ नहीं। कुछ दूर खड़े शख्स ने मुझे पहचानकर गाड़ी में आने को बोला। हमने नाम पूछा तो वो हमारे ड्राइवर साहब ही थे। नाम मुदासिर।
हमको कैसे पहचान गए पूछने पर उन्होंने मुझे बताया-' आपकी फोटो देखी व्हाट्सअप की प्रोफाइल में।'
एयरपोर्ट से ठहरने की जगह करीब आधे घण्टे की दूरी पर ही थी। रास्ते में जो इमारतें दिखीं वे सब एक या अधिक से अधिक दो मंजिला थीं। अब्दुल्ला परिवार के बंगले, राजा कर्ण सिंह और मुफ़्ती परिवार के घर बाहर से दिखाए । मन किया उनमें से किसी से मिलें। लेकिन आगे बढ़ते गए। किसी से मिलना इतना आसान कहां !
कश्मीर से जुड़े तमाम नेताओं के बारे में मुदासिर का मानना है कि इन लोगों ने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए तमाम जमीन जायदाद बनाई। खुद का भला किया। आम अवाम के भले के लिए कुछ नहीं किया। अलबत्ता कर्ण सिंह जी के लिए अच्छे भाव जाहिर किये उसने।
ड्राइवर मुदासिर की आपबीती भी सुनी। पिता भी ड्राइवर का काम करते थे। 2004 में एक कार एक्सीडेंट में नहीं रहे। माताजी हैं। पत्नी और दो बच्चे है। पढ़ाई इंटर तक ही हो पाई। पत्नी और माता जी के स्वभाव में 36 का आंकड़ा है। दोनों के बीच तालमेल में बहुत मेहनत करनी पड़ती है मुदासिर को। बच्ची का नाम महनूर बताया। बेटे की तबियत नासाज थी उस दिन। बार-बार हाल पूछ रहे थे घर से।
मुदासिर ने अपनी खुद की गाड़ी खरीदी थी। कोरोना में पर्यटक आये नहीं। गाड़ी बिक गयी। खाने-पीने के लाले पड़े थे उन दिनों। कोरोना ने तमाम लोगों का हुलिया बिगड़ा है।
होटल में सामान रखकर घूमने निकले। रास्ते में कृष्णा भोजनालय से खाना लेकर गाड़ी में बैठे-बैठे खाया।
श्रीनगर में खूब सारे गार्डन हैं। बाग बगीचे देखने तमाम लोग आते हैं। शुरुआत बोटानिकल गार्डन से हुई।
बाटनिकल गार्डेन देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी के नाम पर है।
करीब 15000 खूबसूरत सजावटी पौधे हैं और तरह-तरह के ओक के पेड़ हैं गार्डेन में। चार भाग में बंटा है पार्क। जहां पौधे उगाए जाते हैं , रिसर्च वाला भाग , मनोरंजन का हिस्सा और बाटेनिकल गार्डन।
टिकट काउंटर पर भीड़ नहीं थी। 24/- का टिकट। हर बगीचे का टिकट यहां 24 रुपये का ही मिलता है। टिकट लेकर अंदर जाने के पहले काउंटर के पास खड़ी बच्ची से बात की।
बच्ची वहां खड़ी आते-जाते लोगों से कुछ मांगती जा रही थी। सर छुपाए हुए। फ़ोटो खींचने के लिए पूछने पर मुंह छुपा कर मना कर दिया। हमने भी फिर जिद नहीं की। दूर से फोटो पहले ही ले चुके थे।
पता किया तो बच्ची ने बताया मां-बाप कोई नहीं हैं। भाई-बहन हैं छह। दादी हैं। राजस्थान से आई है। यहां ऐसे ही मांगकर गुजारा करते हैं सब लोग। डल झील के पास किराये के कमरे में रहते हैं सब लोग।
अंदर जाकर देखा तो बॉटनिकल गार्डन खूबसूरत हरियाली से युक्त था। झील के पानी ने खूब सारे फव्वारे चल रहे थे। लोग वहां घुमते हुए फोटो खिंचवा रहे थे।
बॉटनिकल गार्डन में एक परिवार के लोग वहां मौजूद फूलों के बारे में ज्ञान का आदान-प्रदान करने लगे। आपस में फूलों के नाम और उसकी खासियत के बारे में इंटरव्यू चलने लगा। एक लड़की ने एक फूल के बारे में देखते हुए बताया -'पढा था इसके बारे में लेकिन अब याद नहीं। बहुत दिन हुए।'
फूल हवा के साथ चुपचाप सर हिलाता रहा। शायद कहना चाह रहा हो -'मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं। इम्तहान होते ही भूल गयी।'
फूल शरीफ होते हैं। उनकी जगह इंसान होता कोई तो शायद कहता -'बेवफा। मतलबी। हरजाई।'
वहां लोग कश्मीरी ड्रेस में फोटो खिंचा रहे थे। हम कुछ देर टहल कर बाहर आ गए।
काउंटर पर खड़ी बच्ची अभी भी वहीं थी। इस बीच एक और बच्ची भी वहां आ गयी थी। दोनों आपस में बातचीत करते हुए आते-जाते लोगों के सामने खड़े होकर मांग रहीं थी।
हम उनको वहीं छोड़कर अगले बगीचे की तरफ बढ़ गए।

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Wednesday, July 27, 2022

वो मेरा दोस्त है



बिलाल के पास कश्मीरी रोल रोटी खाकर आगे बढ़े। वहां से दस कदम पर ही दूध गंगा बह रही थी। झरने की तरह इठलाती, अपने पर इतराती जैसी , पत्थरों के बीच कैट वाक सरीखी करती। नदी का साफ पानी पत्थरों की सीढ़ियों से उतरता हुआ नीचे बह रहा था। ऐसे जैसे पानी में जल्दी से आगे बढ़ाने का कोई कंपटीशन हो रहा हो।
कहीं कोई चट्टान अगर बीच में आ जाती तो पानी थोड़ा अटक जाता। अटकने में हुई देरी की भरपाई करने के लिए चट्टान के बाद पानी इतनी तेज उछल कर आगे भागता। थोड़ी देर पहले अपने से आगे निकल गए पानी के गले मिलकर फिर साथ बहाने लगता।
किनारे का पानी अलबत्ता बिना उछल कूद के तसल्ली से बहता दिखा। किनारे से सटे-सटे, बिना हल्ले-गुल्ले के आहिस्ते से बहता जा रहा था। लगता है उसने पढ़ राखी थी यह कविता:
जहां तुम पहुंचे छलाँगे लगाकर,
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे।
नदी के आसपास का दृश्य बहुत खूबसूरत था। लग रहा था यहीं बैठे रहें। काश कोई ऐसा इंतजाम हो कि रोज इसे देख सकें। लेकिन अगर ऐसा होता तो कुछ दिन में ही हम लोग इसे चौपट कर चुके होते। कूड़ा-करकट से नदी को पाटकार दूध गंगा को ‘गटर गंगा’ में बदल दिए होते। हमने अपनी मंशा वापस ले ली। बेहतर यही है कि नदी हमसे दूर ही रहे। हम उसको कभी-कभी देखने आते रहें।
लोग नदी के आसपास तरह-तरह के फ़ोटो खिंचाकर उसको अपने कैमरे में सँजो रहे थे। कोई पानी के पास बैठकर, कोई नदी के पानी में पांव डालकर , कोई नदी की तरफ देखते हुए, कोई नदी के पास की चट्टानों पर बैठकर, कोई अकेले, कोई जीवन साथी के साथ, कोई समूह में फ़ोटो खिंचा रहा था। पास में बने पुल पर भी खड़े होकर तमाम लोग फ़ोटो बाजी कर रहे थे।
हमने भी तमाम फ़ोटो लिए। वीडियो भी। कभी नदी के एक तरफ से वीडियो बनाते तो कभी दूसरी तरह से। थोड़ी देर बाद लगता कि यह सीन भी पकड़ लें। कैमरे में सँजो लिया सबको। तमाम फ़ोटो हैं लेकिन लगता है सब छलावा है। नकली है। असल तो वही है तो वहाँ छोड़ के आ गए। कैमरे में तो बहुत छोटा हिस्सा आ पाया। पूरा देखने के लिए तो वहीं जाना होगा।
वहीं एक स्कूल के बच्चे पिकनिक पर आए थे। लड़के और लड़कियां दोनों। बाबा सुकूर दीन मेमोरियल स्कूल सोपुर के बच्चे थे। छोटी क्लास से लेकर हाईस्कूल तक के बच्चे मिले वहां। अधिकतर लड़के-लड़कियां अलग-अलग ही समूहों में पिकनिक मनाते दिखे। बच्चों के पास मोबाइल या कैमरे नहीं दिखे। बाद में पता चल मनाही है स्कूल में मोबाइल रखने की। संस्कारी स्कूल होगा। बच्चे बिगड़ न जाएँ इस लिए मोबाइल से परहेज।
स्कूल के बच्चे नदी के पास बैठे मजे ले रहे थे। लोगों को फ़ोटो खींचते देख थोड़ा हसरत भारी निगाहों से उनको देख रहे थे। हो सकता ऐसा न कर रहे हों लेकिन मुझे ऐसा ही लगा। अपने पास बैठे दो बच्चों से, जो कि नदी की तरफ प्यार से देख रहे थे, मैंने पूछा –‘फ़ोटो खिंचवाना है? चलो खींच दें तुम्हारी फ़ोटो।‘
उनमें से एक ने पूछा –‘खींच दोगे? पैसे तो नहीं लोगे?’
हमने कहा –‘हां खींच देंगे। पैसे भी नहीं लेंगे और भेज भी देंगे जिस नंबर पर कहोगे।‘
बच्चे लपककर नदी किनारे आ गए। तरह-तरह के पोज में फ़ोटो खिंचाए। कोई झुककर नदी का पानी पीता हुआ, कोई पानी को अंजुरी में लेते हुए, कोई इधर मुंह करके , कोई उधर मुंह करके। मतलब जीतने बच्चे उससे कई पोज। उनको फ़ोटो दिखाकर हमने उनके चेहरे की खुशी महसूस की। किसी ने दुबारा पोज दिए। हमने भी खूब फ़ोटो खींचे। बच्चों के नाम नोट कर लिए। बाद में उनको फ़ोटो भेजे भी।
कुछ देर तक नदी और उसके आसपास की खूबसूरती देखने और उसको बेदर्दी के साथ कैमरे में ठूँसते रहे। जितना देख पाए और कैमरे में ठूंस पाए उतना किया बाकी दूसरों के देखने के लिए छोड़कर हम वापस लौट लिए ( यह जुमला रवींद्र नाथ त्यागी जी के एक लेख में पढ़ा था तबसे इसे लपक लिया –‘जितना देख पाया देखा , बाकी दूसरों के देखने के लिए छोड़कर आगे बढ़ गए’ यह अच्छा लगे तो त्यागी जी की तारीफ करिएगा। )
लौटते में एक जगह एक भारी बदन वाले एक बुजुर्ग नदी की तरफ आते दिखे। रास्ते में एक जगह थोड़ा ज्यादा उतार है। नदी तक जाने के लिए कंक्रीट का रास्ता बन रहा है तो शटरिंग करके छोड़ा है। नीचे उतरने के लिए करीब डेढ़ फुट नीची जगह है। आम लोगों के लिए एक पटरा लगा है। कुछ लोग सीधे कूद के भी नीचे उतर जाते हैं लेकिन जिनको चलने फिरने मे तकलीफ है वो कैसे उतरें। उनको परेशानी।
बुजुर्गवार शायद अपनी बेटी के साथ से। नीचे उतरने के लिए दायें-बाएं हो रहे थे। तमाम लोगों ने उनको आहिस्ते से सहारा देकर उतारा। बुजुर्गवार ने उतारने के दौरान और नीचे उतरने पर भी बार-बार, लगातार धन्यवाद दिए। दो-चार हमारे हिस्से में भी आए। उनकी बेटी ने भी दिए धन्यवाद लेकिन उतने नहीं। वो शायद लोगों के हिस्से आधे-तिहाई पड़े होंगे। उस समय तो नहीं सोचा लेकिन अब यह सोच रहे हैं कि अगर उस समय बुजुर्गवार अकेले होते , उनके साथ उनकी बेटी न होती तब भी क्या उनको इतने ही लोग सहयोग करते? यह सोचते हुए यह भी लग रहा है कि फुरसत में इंसान खुराफाती बातें ही सोचता है।
लौटते हुए एक ढाबे में चाय पी गई। परवेज से उसके किस्से सुने गए। उसकी शादी होने वाली है। घर वालों ने तय कर दी है। न चाहते हुए भी करनी होगी। अगर नहीं की तो घर वालों की बदनामी होगी। दुनिया में रहने के लिए उसके हिसाब से चलना होगा।
लौटते हुए बारिश हो रही थी। लग रहा था कि भीग जाएंगे। लेकिन कुछ देर बाद पानी बंद हो गया। हमने सोचा हम भी पैदल चले। कुछ देर में हाँफ गए। फिर बैठ गए घोड़े पर।
परवेज ने वादा किया था पहाड़ी गीत सुनाने का। हमने कहा सुनाओ तो उसने शरमाते हुए इनकार कर दिया। बोला –‘हमको अच्छे से आता नहीं गाना।‘
अलबत्ता अपने कुछ दोस्तों से उसने गाने का अनुरोध किया। लेकिन उन्होंने भी मना कर दिया। फिर बाद में परवेज ने रिकार्डिंग न करने की शर्त पर दो-तीन गाने सुनाए। उनके मतलब भी समझाए।
करीब दो घंटे की ट्रिप पूरी करने के पहले परवेज ने कहा –‘कुछ टिप-विप देना हो तो यहीं डे दीजिए। वहाँ सब बंट जाएगा। हमने उसकी बात मान ली। कुछ टिप दी।‘
स्टैंड पर भुगतान किया। दो घंटे के हजार रुपए।
घोड़े पर जाने का आराम तो रहा लेकिन बहुत कुछ देखने से रह गए। सारा ध्यान संतुलन बनाने में ही लगा रहा।
लौटते में एक जगह रुककर फिर फ़ोटोबाजी की। हमारे ड्राइवर ने हमको स्लो मोशन में टहलाते हुए वीडियो बनाया। बाद में उसको देखते हुए कैसा लगा लिखने में लाज आ रही है। आप देखना और बताना। आखिरी फ़ोटो देखिए।
लौटकर सबको फ़ोटो भेजे। उसमें से परवेज , बिलाल और हाजिम का जबाब आया।
हाजिम के तो घर में सबसे बात हुई। हमने उनके पिता को फ़ोटो भेजते हुए बता दिया था। उन्होंने अपने बारे में बताया। वो कारपेंटर हैं। दिहाड़ी पर बढ़ई का काम करते हैं। घर में उनके तीन बच्चे हैं। हासिम सबसे छोटा है। चौथी में पढ़ता है।
फ़ोटो मिलने मिलने पर उन्होंने हाजिम से पूछा –‘फ़ोटो किसने लिए और भेजे?’
हाजिम से उनको बताया-‘ वो मेरा दोस्त है ?’
58 साल की उम्र में 14 साल के हाजिम से दोस्ती सबसे ताजा और खुशनुमा एहसास है।
मुझे अपनी 39 साल पहले की साइकिल से भारत यात्रा के दौरान केरल में एक बुजुर्ग से मुलाकत की बात याद आ गई। उन्होंने हमको खिला-पिलाकर विदा करते हुए कहा था –‘हम तुम्हारे पिता जी के दोस्त हैं?’
हमने उनसे पूछा था –‘कैसे दोस्त हैं? उन्होंने तो हमको बताया नहीं?’
इस पर उन्होंने हमसे कहा था –‘तुम्हारी उम्र के मेरे बेटे हैं। तुम्हारे पिताजी हमारे हम उम्र होंगे। हम उनसे मिले नहीं। लेकिन अगर हम उनको दोस्त मानते हैं तो इसमें तुमको क्या एतराज है?’
बाद में देर रात को घर पहुँचने पर हाजिम का वीडियो काल आया। उसके साथ उसके भाई और चचेरी बहन भी थीं। नेटवर्क धीमा होने के कारण बार-बार कट जाता था। घर में एक ही मोबाइल है। सब उसी से संपर्क करते हैं। बच्चे बातचीत करने के बाद गेम खेलने वाले थे।
बाद में कई बार हाजिम और साथ में उसकी चचेरी बहन से बात हुई। चचेरी बहन मतलब मौसी की लड़की। कुछ दिन के लिए आई है अपनी मौसी के घर। हमने हाजिम की पढ़ाई-लिखाई के बारे में जानकारी ली तो उसकी बहन ने बताया –‘नियमित पढ़ाई करता है हाजिम। पढ़ने में अच्छा है। आप उसका ख्याल रखना। उसकी पढ़ाई में मदद करना प्लीज।‘
हमने कहा – ‘जरूर करेंगे।‘
कह तो दिया। लेकिन क्या कर पाएंगे। कितनी कर पाएंगे यह समय बताएगा। लेकिन कानपुर के प्रिय गीतकार प्रमोद तिवारी का गीत अनायास याद आ रहा है:
‘राहों में रिश्ते बन जाते हैं,
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
(गीत का लिंक कमेन्ट बाक्स में । सुनिए अच्छा लगेगा)

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Tuesday, July 26, 2022

दूधपथरी , नमक की चाय और कश्मीरी रोटी



श्रीनगर का पुराना इलाका घूमने के बाद वापस आए। लौटते हुए दस बज गए थे। नाश्ते का निर्धारित समय पूरा हो गया था लेकिन जामा मस्जिद से फोन कर देने के चलते बचा लिया गया था नाश्ता। होटल में पहुंचे तो कहा- ‘आते हैं नहा-धोकर नाश्ता करने। ‘
किचन वाले ने कहा –‘पहले नाश्ता कर लीजिए फिर बाकी काम करिएगा।किचन बंद हो जाएगा।’
कहावत याद आई –‘पहले पेट पूजा, बाद काम दूजा।‘
नाश्ता करके कमरे में आए। नहा-धोकर तैयार हुए। ड्राइवर आ गए थे तब तक। निकल लिए दूध पथरी के लिए।
दुधपथरी का अर्थ है "दूध की घाटी", और इसके नाम की उत्पत्ति के कई कहानियां हैं। कुछ लोग कहते हैं कि घास के किनारे पर बहने वाली नदी इतनी बहाव से नीचे की ओर गिरती है, कि इसका पानी का बहाव एकदम दूध की तरह है, इसलिए इसे दूध पथरी कहा जाता है।
इसके अलावा एक और कहानी है कि,कश्मीर के एक प्रसिद्ध संत ने एकबार जमीन से पानी निकलाने के लिए प्राथर्ना की, जैसे ही उन्होंने अपनी छड़ी से खोदाई की तो उसमे से दूध की धार बहने लगी।
जहिर है कि यह दूसरी वाली कहानी ज्यादा प्रचलन में है। इसी में ज्यादा चमत्कार है। चमत्कार को हर जगह नमस्कार है।
शहर से करीब 45 किलोमीटेर दूर है दूधपथरी। सड़क काम चौड़ी है। पहाड़ी रास्ता। मजे-मजे चलते हुए आगे बढ़े।
मौसम बढ़िया हो गया। आसमान में बादल- ‘गेट, सेट, गो’ वाले अंदाज में बरसने को तैयार दिख रहे थे। हवा भी उसे अंदाज में माहौल बनने लगी थी। लेकिन धूप और बदली की की कसमकस देर तक चलती रही । कभी बदली ने कब्जा कर लिया माहौल में और कभी धूप ने अपना झण्डा पहरा दिया।
दूधपथरी से थोड़ा पहले कुछ सड़क किनारे कुछ ढाबे टाइप दुकाने दिखीं। जमीन पर दरी, कालीन टाइप बिछी हुई थी बैठने के लिए। तीन-चार दुकाने एक के बाद एक लाइन से। बाद में पता चला कि एक ही परिवार के लोग हैं वे सब। भाई, बहन, भाभी, माता जी , सब लोग पास-पास दुकान लगाए थे।
दुकान में नमकीन चाय और मक्के की रोटी बिक रही थी। नमकीन चाय के बारे में प्रसिद्ध है कि इसके पीने से शरीर में गर्मी बनी रहती है। चाय में शक्कर की जगह नमक मिलाया जाता है। इसी लिए इसको ‘नून चाय’ भी कहते हैं। लेकिन आम चाय की तरह इसको दिन में कई बार नहीं पिया जाता। ज्यादा पीना नुकसान देह हो सकता है।
नमकीन चाय देखाकर याद आई कि हमारी अम्मा कुछ बचपन में चाय में हल्का नामक डाल देती थीं। कोयले की अंगीठी में गरम करके बनाई चाय का दृश्य एकदम सामने आ गया। यादों गति बहुत तेज होती है। फौरन अपने पूरे वजूद के साथ सामने आ जाती हैं। बाद के दिनों में चाय से नमक हट गया हमारे यहाँ। कब और किस तरह –यह याद नहीं।
चाय के लिए बैठ गए। चाय आई। हमारे पीना शुरू करने से पहले दुकान वाली ने अपनी भाषा में ड्राइवर से जो पूछा उसका मतलब यह था –‘ये पी लेंगे?’ मतलब नमकीन चाय पीना हमारे लिए चुनौती हो गई।
बहरहाल हमने चाय ली। पी। साथ में मक्के की एक रोटी भी ड्राइवर ने ले ली थी वहां से। भूख तो लगी नहीं थी क्योंकि नाश्ता ‘चांप’ के चले थे। रहने के साथ नाश्ता मुफ़्त वाली जगहों में लोग नाश्ता इस तरह भरपूर करते हैं कि पेट से भूख का अलार्म शाम के पहले नहीं बजता। भूख न होने के बावजूद, स्वाद महसूस करने के लिए एकाध टुकड़े खाए।
चाय पीते हुए दुकान पर महिला को रोटी पकाते देखा। आटे को गीला करके, हथेली और उंगलियों के सहारे आकार देते हुए , पानी मिलाते हुए बड़ी करते हुए बना रही थी वह रोटी। पूरी बन जाने के बाद रोटी के केंद्र में ऊपर उठे , कूबड़ सरीखे हिस्से को उंगलियों के सहारे निकाल कर अलग कर दिया और उस हिस्से को पानी से मिलाकर बराबर कर दिया। जिस तल्लीनता और तन्मयता से वह रोटी बना रही थी उसे देखकर लगा कोई कलाकार अपनी किसी कृति की रचना कर रहा है। जीवन को बचाए और बनाए रखने के उपक्रम कलाकारों की कृति ही तो होते हैं।
दो चाय, एक रोटी के दाम कुल मिलाकर साठ रुपए हुए। बीस रुपए की चाय , बीस रुपए की रोटी। पैसे देकर हम आगे बढ़े।
थोड़ी देर में ही हम दूधपथरी पहुँच गए। गाड़ी स्टैंड में खड़ी हो गई। आगे के लिए घोड़े का इंतजाम।
घोड़े के दाम वहां लिखे थे 495 रुपए प्रति घंटा। हमने पहले तो ना-नुकुर की घोड़ा लेने में। लेकिन कुछ देर बाद जो सबसे पहले दिखा घोड़े वाला उसको हाँ बोल दी। घोड़े वाले ने सहारा देकर बैठाया हमको। दोनों पैर रकाब में डालकर आगे बढ़े।
हमको घुमाने के ले चलने वाले बच्चे का नाम परवेज था और घोड़े का नाम बादल। परवेज नाम से अपने परिचित सभी परवेज और उनसे जुड़े किस्से अनायास याद आए। यह भी लगा कि यहां अधिकतर घोड़ों के नाम बादल ही होते हैं।
बादल से अनायास रमानाथ अवस्थी जी के गीत का मुखड़ा याद आ गया:
‘बादल भी है , बिजली भी है , पानी भी है सामने,
मेरी प्यास अभी तक वैसी ,जैसी दी थी राम ने।‘
घोड़े पर चढ़े-चढ़े आसपास की खूबसूरती निहारते हुए आगे बढ़े। तमाम लोग पीछे अपने-अपने समूहों में , परिवार, दोस्तों और हमसफ़रों के साथ प्रकृति की खूबसूरती के मजे लेते हुए और उसको अपने कैमरों में कैद कर रहे थे। लोग जल्दी से जल्दी सब कुछ को देखकर और उससे ज्यादा अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहते थे। पिंडारियों की तरह प्रकृति के दृश्यों को लूटकर अपने कैमरे में ठूँसते जा रहे थे लोग। कई बार तो हम लोग ऐसा करते हुए सिर्फ फ़ोटो ही खींचते रहते हैं। देखते भी नहीं।
आगे जाते हुए रास्ते में कुछ घर दिखे। लकड़ी के लट्ठे , पटरों को मिट्टी के साथ जोड़कर बनाई गई झोपड़ियों के बाहर लोग बैठे थे। एक जगह एक बच्ची हमको देखकर कुछ कह रही थी, इशारा कर रही थी। उसके घर वाले , महिलायें ही थीं, कुछ –कुछ कह रहीं थीं। शायद हंस रहीं हो कि देखो ये घोड़े पर घूम रहा है जबकि पैदल घूमता तो और अच्छे से देखता सब कुछ।
कुछ आगे दो महिलायें जाते दिखीं। एक के हाथ में कुल्हाड़ी थी। छोटे बेंट की। वे लपकती हुए , आराम से चली जा रहीं थीं। हमारा भी मन हुआ हम भी उतर जाएँ घोड़े से और पैदल चलें। लेकिन फिर चढ़ाई का सोचकर घोड़े पर ही बैठे रहे।
महिलाओं से ऐसे ही कुछ-कुछ करके बतियाए-‘यहीं रहती हो?’
वे कुछ-कुछ बोली। फिर उन्होंने पूछा –‘अकेले ही घूमने आए हो? फेमिली को नहीं लाए?’
हमारे पास कोई जबाब नहीं था। यही कहा- ‘अगली बार साथ आएंगे।‘
हमने उनका फ़ोटो लेना चाहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया। शायद अकेले आने की सजा दी हो। हमने तय किया – ‘अब जल्द ही परिवार के साथ आना है फिर।‘
रास्ते में बादल, हवा और प्रकृति की मिली जुली दोस्ती के खूबसूरत नजारे दिखे रहे थे। घोड़ों में जाते लोग, फ़ोटो लेते लोग, हँसते-खिलखिलाते लोग। सबको देखते हुए कुछ ही देर में हम दूध गंगा के पास पहुँच गए।
नदी के पास जाने के पहले एक लड़का कश्मीरी रोटी बेंचता दिखा। उससे बात करने के लिहाज से हम उसके पास बैठ गए। उससे एक रोटी बनाने के लिए कहा।
कश्मीरी रोटी मैदा की होती है। रोटी में सब्जी मसाले की तरह भरकर गोल करके खाई जाती है। सब्जी अखरोट और प्याज और मसाले की बनती है। 20 रुपये की एक रोटी। दिन में कभी-कभी पचास-साथ रोटी बिक जाती है।
बिलाल नाम है कश्मीरी रोटी बेंचने वाले लड़के का। 24 साल उम्र है। दो बच्चे हैं। दो छोटे भाई। बहन थी उसकी शादी हो गई।
बिलाल से बात करते हुए उनकी फ़ोटो ली और वीडियो भी बनाया। उनका नंबर भी लिया। बाद में फ़ोटो और वीडियो भेजे भी। बात करना अभी बाकी है।
कश्मीरी रोटी खाने के बाद अपन आगे बढ़ गए। खूबसूरत दूधगंगा इठलाती हुई बहते हुए हमारा इंतजार कर रही थी।

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Monday, July 25, 2022

शाहजहाँपुर से कानपुर



कल शाहजहाँपुर से कानपुर आये। कुल करीब 11 साल मतलब अपनी सेवा का लगभग एक तिहाई हिस्सा शाहजहाँपुर रहे। तमाम सारी यादें हैं।
इन ढाई साल में तमाम लोगों से नए सिरे से मिलना, जुड़ना हुआ। मार्निंग वाकर क्लब और शाहजहाँपुर के साइकिल क्लब परिचय और जुड़ाव इसमें अहम रहा।
मार्निंग वाकर क्लब के डॉक्टर Anil Trehan और Inderjeet Sachdev जी ने कल सुबह ही आने को कहा।कहते हुए -'आपका फेयरवेल करेंगे।
सुबह ही हम नहा-धोकर , राजा बेटा बनकर पहुंच गए मार्निंग वॉकर क्लब के अड्डे पर। रामलीला मैदान के पास तीन बेंचो पर बैठकी और जमावड़ा होता है मार्निंग वाकर क्लब का।
पहुंचे तो तैयारियां चल रहीं थीं। केक भी सजा था। केक पर एक दिन पहले की ली हुई फोटो लगी थी। फोटो में जो टी शर्ट पहने थे उसको देखकर पत्नी जी ने टोंका था -'ठीक कपड़े पहन कर जाया करो। कुछ भी पहनकर चले जाते हो टहलने।'
अब केक पर बनी फ़ोटो तो बदली नहीं जा सकती है। सो उसको वहीं छोड़कर इधर-उधर टहलने लगे। इधर तैयारियां हो रहीं थीं।
थोड़ी दूर बेंच पर कचहरी के दीक्षित जी सीतापुर वाले बैठे दिखे। उनके पास गए।बतियाये। दीक्षित 75 के करीब हो रहे। अब भी बिना चश्मा के अखबार पढ़ लेते हैं।
बातचीत के बाद दीक्षित जी के साथ सेल्फी ली गयी और फोटो भी। उनके पास हमारा फोन नम्बर नहीं था। हमारे पास उनका भी नहीं था। फोन नम्बर आदान-प्रदान हुआ। दीक्षित जी के पास नोकिया का पुराना वाला मोबाइल है। इस मोबाइल में को एक बार चार्ज कर लें तो दो-दिन तक तो चलता ही रहता है क्योंकि यह सिर्फ बात करने के लिए प्रयोग होता है।
आजकल के स्मार्ट फोन में तो इतने फीचर हैं कि दो-तीन घण्टे में बैटरी खलास हो जाती है। जबकि पुराने नोकिया के फोन खूब चल जाते हैं।।इससे यह सीख मिलती है कि ऊर्जा बचानी है तो फोकस्ड होकर काम करना चाहिए। जितने ज्यादा झंझट उतने ज्यादा बबाल।
थोड़ी देर में मार्निंग वाकर क्लब से बुलावा आ गया। खूब माला-फूल , गुलदस्ता दिए गए। पुष्पवर्षा भी हुई। हर आने वाला माला पहना रहा था। मिठाई भी खिलाई गयी। केक काटा। खाया-खिलाया गया।
तारीफ पर तारीफ हुई। हम शरमाये से सुनते रहे। लगा कि क्या सही में इतनी तारीफ के काबिल हैं।
बाद में भी जो लोग आए वे भी माला-गुलदस्ता देते रहे। सिलसिला चलता रहा। फ़ोटो होते रहे। वहीं ग्रीन टी भी आ गई। मजेदार, खुशनुमा माहौल।
शेरो शायरी भी खूब हुई। सुनील मिश्रा जी ने मीर का शेर सुनाकर शुरुआत की:
वो आये बज्म में इतना तो मीर ने देखा,
फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी न रही।
दो सौ साल पहले लिखा था मीर ने यह शेर। न जाने कितने लोगों ने अलग-अलग मौके पर इस शेर को पढ़ा-सुना होगा। अपने-अपने हिसाब से इसको प्रयोग किया होगा।
इससे लगा कि कोई कायदे का शेर अगर चलन में आ जाये तो कितनी दूर तक और देर तक चलता है। कितनों के मुंह से होता हुआ कितने दिलों तक पहुंचता है। अद्भुत है यह अनुभव।
दूसरा शेर पढ़ा मिश्रा जी ने:
दिल के आईने में है तस्वीरे यार की,
जब चाहा गर्दन झुकाई देख ली यार की।
बाद इसके गुनगुनाकर पढा:
तुझे भूल जामा पहना जाना मुमकिन नहीं
तेरी याद न आये ऐसा कोई दिन नहीं।
लोगो की बातचीत के बीच मिश्रा जी के शेर चलते रहे:
अगला शेर पढ़ा उन्होंने:
तुझको दिल से भुलाने की कसम खाई थी,
पहले से भी ज्यादा तेरी याद आई थी।
शेर चलते रहे। अगला शेर आया;
'तसव्वुर भी भला मैं तेरी जुदाई का मैं कैसे करूँ'
इसके आगे रिकार्ड करूँ तब तक मार्निंग वाकर साईकिल क्लब के डॉ विकास खुराना ने हमको रिकार्डिंग से रोक दिया कि आप रहन दो। हम कर रहे रिकार्ड। भेज देंगें।
नजर वो है जो कोनों मकां के पार हो जाये,
जिस कातिल पे निकले उसी कातिल पे वार हो जाये।
तसव्वुर भी भला तेरी जुदाई का मैं कैसे करूँ,
तुझको किस्मत की लकीरों से चुराया है मैंने।
शेरो-शायरी के बीच बातचीत भी चलती रही इजहार-ए-मोहब्बत भी। विदा करते समय उदारता भी आ जाती है। लगभग सबने अच्छी-अच्छी बातें कहीं मेरे लिए। विकास भारती ने मेरा वक्तव्य रिकार्ड किया शाहजहाँपुर की यादों के बारे में।
हमारे सुबह की साइकिलिंग के साथी Arif Khan आरिफ खान ने एक नोट मुझे भेंट किया जिसने 786 लिखा है। मैंने भेंट स्वीकार करके अपनी अमानत उनके ही पास रख दी ताकि यह खास रुपया सुरक्षित रहे। अब जब भी शाहजहाँपुर जाना होगा, अपनी अमानत का मुआयना कर लेंगे। यहाँ लिख दिया ताकि सनद रहे।
इस बीच फैक्ट्री के साथी योगेंद्र कुमार भी आ गये और सचान जी भी। सचान जी शाहजहाँपुर के बच्चों को बॉलीबाल सिखाते हैं। बॉलीबाल के खिलाड़ी और कोच के रूप में उनकी सेवाएं अनमोल हैं। ऐसे अनगिनत लोग चुपचाप समाज की बेहतरी में अपना योगदान देते रहते हैं। समाज ऐसे ही लोगों से बेहतर बनता है।
मार्निंग वाकर क्लब के साथियों से फिर-फिर मिलते हुए विदा हुए। योगेन्द्र कुमार घर तक आये। साथ चाय पी। तमाम यादों को फिर से ताजा किया गया।
दोपहर की निकलने के पहले रागिनी का सन्देश आया। वो हमारा इंटरव्यू करना चाहती थीं। रागिनी शाहजहाँपुर की एक मात्र रजिस्टर्ड पत्रकार हैं। अपना यूट्यूब चैनल चलाती हैं। हमारी सुबह की साइकिलिंग की साथी भी रहीं हैं।
समय बहुत कम होने के बावजूद बातचीत हुई। वहीं मार्निंग वाकर क्लब की बेंच पर। कुछ सवाल-जबाब। वो रागिनी के चैनल में आएंगे।
सवाल-जबाब में रागिनी ने इफरा का जिक्र किया। इफरा का एक वीडियो हमने साझा किया था। उसमें इफरा अपने पिता के कंधे पर बैठी उसका सर सहला रही थी। बेटी दिवस का मौका था।
संयोग से इफरा का जिक्र आते ही इफरा के पापा का फोन आ गया। उनको मेरे तबादले के बारे में पता चल गया था। इफरा मुझसे मिलना चाहती थी।
इफरा को भी वहीं बुला लिया गया। उसका भी इंटरव्यू हुआ। वो पोस्ट भी हो गया रागिनी टाइम्स में।
फैक्ट्री में मैन्युफैक्चरिंग का काम करने वाले नबील भी आये मिलने। उन्होंने भी बहुत अच्छी-अच्छी बातें कहीं मेरे लिए।
बाद में रागिनी से उनके काम के बारे में और उससे जुड़ी परेशानियों के बारे में बातें हुईं। घर भी आईं और हमारी श्रीमती जी से मुलाकात हुई उनकी। बातचीत के दौरान पता चला कि हमारी श्रीमती जी रागिनी के पिता को बहुत अच्छे से जानती हैं। उनके सेंटर में ही काम करते हैं। दोनों में खूब बातें हुईं।
दोपहर बाद निकलना था। न चाहते हुए भी। जाने के पहले फैक्ट्री के साथी ऋषि बाबू आये मिलने। श्रीमती जी ने तिलक लगाकर विदा किया। पुराने समय ने युध्द पर जाते समय रानियां अपने पतियों को तिलक लगाकर विदा करती थी , कुछ-कुछ उसी तरह।
हमारी बंगले में काम करने वाले सब लोग थे विदा करने के लिए। मंजू ने विदाई की शुभकामनाएं देते हुए प्यारा कार्ड बनाया था। ये वो लोग हैं जिनको बहुत लिखना-पढ़ना नहीं आता। लेकिन शुभकामनाएं लिखत-पढ़त की मोहताज नहीं होती।
रास्ते में हमारे साथी रहे गौड़ साहब से मुलाक़ात हुई। उनकी दुकान में सफीपुर में। शाहजहांपुर आते-जाते गौर साहब से मुलाकात जरूर होती है। लस्सी का खर्च उनके मत्थे पड़ता है। रिटायर होने के बाद कपड़े की दुकान किये हैं। जीवन दर्शन मुफ्त बांटते हैं-'नौकरीं में फालतू की अकड़ में कुछ रखा नहीं है। जितना सहज रह सकें रहना चाहिए।'
गौर साहब ने हमारे सामान का मुआयना करके सन्तोष जाहिर किया कि साइकिल साथ आ रही है।
कल शाम को वापस अपने शहर आ गए। शहर जहां पले-बढ़े, पढ़ाई हुई। जीवन और नौकरी की शुरुआत हुई। जीवन का सबसे अधिक समय यहीं गुजरा।
जिस शहर ने बचपन बीता, बड़े हुए , तमाम दोस्त हैं, अनगिनत यादें हैं उस शहर से फिर से जुड़ना अद्भुत अनुभव है।
नौकरी के चलते तीसरी बार वापस आये हैं शहर। आने वाला समय कैसा गुजरेगा यह आगे पता चलेगा। लेकिन शहर में आते ही कहने का मन होता है: झाड़े रहो कलक्टरगंज। 💕

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