Saturday, September 21, 2019

'घुमक्कड़ी की दिहाड़ी' को वर्ष 2018 का गुलाब राय सर्जना पुरस्कार


मेरी किताब 'घुमक्कड़ी की दिहाड़ी' को उप्र हिंदी संस्थान द्वारा वर्ष 2018 के गुलाब राय सर्जना पुरस्कार के लिए चयनित होने की सूचना मिली। इस पर 40000/- का इनाम मिलेगा। यह पुरस्कार निबन्ध विधा में है।

इसके पहले मेरी किताब 'सूरज की मिस्ड कॉल' पर वर्ष 2017 का 75000/- सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' सम्मान मिला था।
इनाम की सूचना सबसे पहले हमारे Dayanand Pandey जी ने दी। उनका सादर आभार। दयानन्द जी को पिछले वर्ष हिंदी सहित्य संस्थान का 2 लाख रुपये का सम्मान मिला था।
किताब में पिछले कुछ सालों में कानपुर की घुमक्कड़ी के किस्से हैं। घुमक्कड़ी से पाया अनुभव ही इस घुमक्कड़ी की कमाई है। इसीलिए हमारी किताब का नाम रखने वाले और हमारी किताबों के स्थाई भूमिका लेखक व्यंग्य पंडित Alok Puranik ने इसका नाम तय किया था 'घुमक्कड़ी की दिहाड़ी।'
नाम तय करने के साथ ही भूमिका भी लिखी है आलोक जी ने और बताया थाकि अनूप शुक्ल को वो वृत्तान्तकार किस लिए मानते हैं।
किताब समर्पित है अपने बचपन से बड़े होने तक के कनपुरिया संगी-साथी Sharad Prakash Agarwal , Jaidev Mukherjee संतोष बाजपेई, Vikas Telang , Ajay Tiwari, राजीव मिश्र, अनिल श्रीवास्तव , लक्ष्मी बाजपेयी, ब्रजेश शुक्ल और Rakesh Dwivedi को जिनके साथ जिया समय अपन की जिंदगी की सबसे बड़ी नियामतों में से एक है।
किताब रुझान प्रकाशन से आई है। शुक्रिया किताब के प्रकाशक Kush Vaishnav का जिन्होंने हमारी किताबें छापना शुरू करके हमको लेखक बना दिया।
इस सम्मान में हमारे सबसे बड़ा योगदान हमारे पाठकों का है जो हमारे लिखे को बांचते हैं और हमेशा उत्साह बढाते हैं। उनके प्रोत्साहन के बगैर न कोई किताब सम्भव थी न कोई इनाम। सभी पाठक संगी-साथियों को मन से आभार।

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Saturday, September 14, 2019

हिन्दी दिवस के कुछ अनुभवों से


१. सितम्बर का महीना देश में हिन्दी का महीना होता है। हिन्दी नहीं, राजभाषा का। देश भर में राजभाषा माह, पखवाड़ा, सप्ताह, दिवस मनाया जाता है। श्रद्धा और औकात के हिसाब से। क्या पता कल को राजभाषा घंटा, मिनट या फ़िर सेकेंड भी मनाया जाने लगे।
२. एक दक्षिण भारतीय ने बताया कि -पहले उनको लगता था हिन्दी कविता में हर पांचवी लाइन के बाद वाह-वाह बोला जाता है।
३. एक कवि ने अपनी किसी कविता में ’कड़ी’ शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने उसको ’कढ़ी’ समझकर ग्रहण किया और कल्पना करते रहे कि क्या स्वादिष्ट कल्पना है।
४.आज अगर नेता, पुलिस पर कविता लिखना बैंन हो जाये तो आधे हास्य कवि या तो बेरोजगार हो जायें।
५.आपातकाल में तमाम लोगों ने इस तरह की कवितायें लिखीं जिनके व्यापारियों के खातों की तरह दो मतलब होते थे। एक जो सारी जनता समझती थी दूसरा वह जिसे सिर्फ़ वे समझते थे। अपना मतलब उन्होंने दुनिया भर को आपातकाल के बाद बताया और अपने लिये क्रांतिकारी कवि का तमगा गढ़कर खुदै ग्रहण कल्लिया।
६. एक कवि सम्मेलन में वीर रस के कुछ कवियों ने पाकिस्तान कोी गरियाया। पाकिस्तान को गरियाते हुये एक ने तो इत्ती जोर से कविता पढ़ी कि मुझे लगा कि अगर पाकिस्तान कहीं उसको सुन लेता तो एकाध फ़ुट अफ़गानिस्तान की तरफ़ सरक जाता।
७. पाकिस्तान में भी हिन्दुस्तान के विरोध में वीर रस की कवितायें लिखीं और चिल्लाई जाती होंगी। सोचता हूं कि क्या ही अच्छा हो कि दोनों देश की वीर रस की कविताओं की ऊर्जा को मिलाकर अगर कोई टरबाइन चल सकता तो इत्ती बिजली बनती कि अमेरिका चौंधिया जाता। ऐसा हो सकता है। दोनों देशों के वीर रस के कवि जिस माइक से कविता पाठ करें उसके आवाज बक्से के आगे टरबाइन फ़िट कर दी जाये। इधर कविता शुरू हो उधर टरबाइन के ब्लेड घर्र-घर्र करके चलने लगें और दनादन बिजली उत्पादन होने लगे। बिजली के तारों पर सूखते कपड़े जलकर खाक हो जायें। हर तरफ़ रोशनी से लोगों की आंखें चमक जायें।
८.हिन्दी लिख-पढ़ लेने वाले लोग हिन्दी दिवस के मौके पर पंडितजी टाइप हो जाते हैं। उनके हिन्दी मंत्र पढ़े बिना किसी कोई फ़ाइल स्वाहा नहीं होती। काम ठहर जाता है। हिन्दी का जुलूस निकल जाने का इंतजार करती हैं फ़ाइलें। हिन्दी सप्ताह बीते तब वे आगे बढ़ें।
९. हिन्दी दिवस के दिन साहब लोग हिन्दी का ककहरा जानने वालों को बुलाकर पूछते हैं- पांडे जी अप्रूव्ड को हिन्दी में क्या लिखते हैं? स्वीकृत या अनुमोदित? ’स’ कौन सा ’पूरा या आधा’ , ’पेट कटा वाला’ या सरौता वाला?
१०. काव्य प्रतियोगिताओं में लोग हिन्दी का गुणगान करने लगते हैं। छाती भी पीटते हैं। हिन्दी को माता बताते हैं। एक प्रतियोगिता में दस में से आठ कवियों ने हिन्दी को मां बताया। हमें लगा कि इत्ते बच्चे पैदा किये इसी लिये तो नही दुर्दशा है हिन्दी की?
११. कवि आमतौर पर विचारधारा से मुक्ति पाकर ही मंच तक पहुंचता है। किसी विचारधारा से बंधकर रहने से गति कम हो जाती है। मंच पर पहुंचा कवि हर तरह की विचारधारा जेब में रखता है। जैसा श्रोता और इनाम बांटने वाला होता है वैसी विचारधारा पेश कर देता है।
१२. कोई-कोई कवि जब देखता है कि श्रोताओं का मन उससे उचट गया तो वो चुटकुले सुनाने लगता है। वैसे आजकल के ज्यादातर कवि अधिकतर तो चुटकुले ही सुनाते हैं। बीच-बीच में कविता ठेल देते हैं। श्रोता चुटकुला समझकर ताली बजा देते हैं तो अगला समझता है- कविता जम गयी।
१३. विदेश घूमकर आये कवि का कवितापाठ थोड़ा लम्बा हो जाता है। वो कविता के पहले, बीच में, किनारे, दायें, बायें अपने विदेश में कविता पाठ के किस्से सुनाना नहीं भूलता। सौ लोगों के खचाखच भरे हाल में काव्यपाठ के संस्मरण सालों सुनाता है। फ़िर मुंह बाये , जम्हुआये श्रोताओं की गफ़लत का फ़ायदा उठाकर अपनी सालों पुरानी कविता को -अभी ताजी, खास इस मौके पर लिखी कविता बताकर झिला देता है।
१४. कोई-कोई कवि किसी बड़े कवि के नाम का रुतबा दिखाता है। दद्दा ने कहा था- कि बेटा तुम और कुछ भी न लिखो तब भी तुम्हारा नाम अमर कवियों में लिखा जायेगा। कुछ कवि अपने दद्दाओं की बात इत्ती सच्ची मानते हैं कि उसके बाद कविता लिखना बंद कर देते हैं। जैसे आखिरी प्रमोशन पाते ही अफ़सर अपनी कलम तोड़ देते हैं।
१५. बिहार से रीसेंटली अभी एक मेरे फ्रेंड के फादर-इन-ला आये हुए थे, बताने लगे - 'एजुकेसन का कंडीसन भर्स से एकदम भर्स्ट हो गया है. पटना इनुभस्टी में सेसनै बिहाइंड चल रहा है टू टू थ्री ईयर्स. कम्प्लीट सिस्टमे आउट-आफ-आर्डर है. मिनिस्टर लोग का फेमिली तो आउट-आफ-स्टेटे स्टडी करता है. लेकिन पब्लिक रन कर रहा है इंगलिश स्कूल के पीछे. रूरल एरिया में भी ट्रैभेल कीजिये, देखियेगा इंगलिस स्कूल का इनाउगुरेसन कोई पोलिटिकल लीडर कर रहा है सीजर से रिबन कट करके.किसी को स्टेट का इंफ्रास्ट्रक्चरवा का भरी नहीं, आलमोस्ट निल 🙂 ( १५ नम्बर रिटेन by Indra Awasthi)

Thursday, September 12, 2019

बस निकल लो गुरु आगे जो होगा देखा जाएगा



लेह से भारत के आखिरी गांव थांग तक के रास्ते में कई बाइकर्स मिले। मोटरसाइकिल पर धड़धड़ाते जाते। खरदुंगला पास पर भी कई टोलियां मिलीं। उनमें कुछ लड़कियां भी थीं। इन बाइकर्स को देखकर लगा कि यही असल जिंदगी यही है, घूमना। यायावरी, घुमक्कड़ी। बाकी तो सब ऐं-वैं ही है।

जो बाइकर्स मिले थांग में वे कोलकता से आये थे। उनमें से एक कोल इंडिया में काम करते थे। दूसरे किसी प्राइवेट फर्म में और तीसरे अभी नौकरी के चक्कर से बचे थे। कुछ और साथी भी साथ में आये थे। लेकिन एक का गाजियाबाद के पास कहीं एक्सीडेंट हो गया था तो वो लौट गए वापस।
काफी समय तक उनके यात्रा के अनुभव सुने। उनके खर्च के बारे में जानकारी ली। अपनी बचत के पैसे ख़र्च करके यात्रा कर रहे थे ये बाइकर्स। मुझे अपनी साइकिल यात्रा की याद आई। बिहार में एक जगह एक दरोगा जी ने हमको अपने पास के सारे पैसे खर्चे के लिए दे दिए थे। उसको याद करके भावुक हो गए अपन। मुझे लगा कि दरोगा जी के वे पैसे हमारे पास जमा हैं। उधार हैं। हमने तुरन्त लगभग जबरदस्ती उन बाइकर्स में से एक को कुछ पैसे ख़र्च के लिए दिए।


मेरे पैसे देने से उनके खर्चे नहीं पूरे होने वाले। लेकिन 35 साल पहले का एक अच्छा अनुभव मेरे मन मे कल के अनुभव की तरह सुरक्षित था। उसने मुझे मजबूर सा किया कि हम भी वैसा ही करें। जो प्रेम मिला मुझे वह आगे बढ़ाएं।किसी के साथ कि अच्छाइयां कभी बेकार नहीं जाती। वे आगे और कई गुना खूबसूरत होकर निखरती हैं।
उन बाइकर्स से विदा होकर हम वापस लौटे। वे रास्ते में कई बार मिले। जितनी बार मिले, हमने तय किया कि दुनिया घूमनी है एक दिन। अब वह दिन कब आएगा यह तो पता नहीं लेकिन यह यकीन है कि एक दिन आएगा जरूर।


जब भी ऐसे घुमक्कड़ों को देखते हैं तो मन करता है कि अपन भी निकल लें। याद आता है कि कालेज के दिनों में कैसे निकल लिए थे, बिना कुछ आगा-पीछा सोचे। तीन महीने साइकिल चलाई। इलाहाबाद से कन्याकुमारी तक हो आये। 35 से भी पहले की कहानी है यह। लेकिन लगता है कल की बात है। मन करता है कि फिर निकल लें। पूरी दुनिया घूमने। लेकिन दुनिया के इतने लफड़े कि बस सोच कर ही रह जाते हैं। स्व. शायर वाली असी के शेर याद आते है:
मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था
मगर सफ़र न कभी एख़्तियार (शुरू)करता था।
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैँ जिंदगी पे बहुत एतबार (भरोसा)करता था।
तमाम उम्र सच पूछिये तो मुझ पर
न खुल सका कि मैं क्या कारोबार करता था।
मुझे जबाब की मोहलत कभी न मिल पायी
सवाल मुझसे कोई बार-बार करता था।
लौटकर लेह में देखा कि वहां मोटरसाइकल किराये पर भी मिलती हैं। यात्रा के शौकीन लोग वहां से किराये पर लेकर टहलने निकल सकते हैं। आप का भी मन कर रहा हो तो बस निकल लो गुरु बाकी जो होगा देखा जाएगा।

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मंडी हाउस की चाय और व्यंग्य का महाउपन्यास

 


आज दिल्ली में Subhash Chander जी से मिलना हुआ। जगह मंडी हाउस। व्यंग्य के प्रकांड पंडित सुभाष जी के लिए सितम्बर का महीना ' सहालग' का महीना होता है। कहीं मुख्य अतिथि तो कहीं विशिष्ट वक्ता। कहीं विषय प्रवर्तक तो कहीं उपसंहार कर्ता। पूरे महीने कहीं से आ रहे होते हैं या कहीं जा रहे होते हैं।

आज भी जब बात हुई तो गुड़गांव से आ रहे थे, मेट्रो सेंटर जा रहे थे। इसी 'कार्यक्रम ब्रेक' में मंडी हाउस पधार कर मुलाकात भी अंजाम कर डाली। चलते समय बताया कि गाड़ी उठा के निकल लिए हैं। आधे घण्टे में पहुंचते हैं। जो लोग सुभाष जी को हल्के में लेते हैं उनको समझना चाहिए जो व्यंग्यकार, आलोचक 300 किलो की गाड़ी उठाकर निकल लेता है उसका जलवा कितना वजनदार होगा।
मंडी हाउस में चाय पीते हुए दोस्तों से मिलना सुलभ होता है। यहां चाय चरचा के दौरान कई किताबों के मसौदे तय हुए। पिछली बार कमलेश पांडेय जी Kamlesh Pandey, आलोक पुराणिक जी Alok Puranik के साथ बतियाते हुए तीनों की एक-एक किताब फाइनल हुई थी। इस बार दोनों लोग गोल हो गए। मजबूरन हमको अकेले अपनी किताब फाइनल करनी पड़ी। बाद में सुभाष जी से हमने पूछा -'आप 49 किताबों पर कब तक अटके रहेंगे। पचासा कब लगेगा। इस पर सुभाष जी ने बताया कि पचास नहीं सीधे 51 किताबों पर पहुंचेंगे। मतलब उनकी दो किताबें आएंगी इस साल।
सुभाष जी ने आते ही चाय-समोसे आर्डर किये। हमने पैसे देने का नाटक किया। जिसे सुभाष जी ने सीनियारिटी का रोब दिखाते हुए मना कर दिया। बोले -'ये तो नहीं चलेगा यहां।' ये वरिष्ठ लोग अपने आगे किसी की चलने नहीं देते।
मौके का फायदा उठाते हुए हमने सुभाष जी से व्यंग्य के इतिहास के अगले संस्करण में अपने लिए थोड़ी ज्यादा जगह, थोड़ी ज्यादा स्याही और थोड़ी तारीफ की गुंजाइश निकालने की बात की। इस बात को वरिष्ठ आलोचक महोदय ने गर्म समोसे को मुंह में ठंडा करने की कोशिश करते हुये हवा में फूंक मारकर उड़ा दिया। बड़े कठकरेजी होते हैं आजकल के आलोचक।
इस बीच सन्तोष संतोष त्रिवेदी जी को फोन किया। पता चला मास्टर साहब कोई इम्तहान ले रहे थे। शायद किसी को नकल कराकर फेल कराने का इन्तजाम कर रहे थे।हमने पूछा -'आजकल कोई लफड़ा क्यों नहीं कर रहे। बड़ी बदनामी हो रही है। इमेज चौपट हो जाएगी।' इस पर मास्टर साहब ने भुनभुनाते हुए कहा -'सारा बवाल हम ही करेंगे क्या जी? बाकी लोग भी अपनी जिम्मेदारी निभाएं। हमारे भरोसे ही न रहें। '
आलोक पुराणिक जी भी किसी मीटिंग में होंगे, बात नहीं हुई। अलबत्ता कमलेश पांडेय जी जरूर बताएं कि वो अहमदाबाद में हैं। रमेश तिवारी जी से बात नहीं हो पाई।

आधे घण्टे की यात्रा करके आये सुभाष जी से दस मिनट की मुलाकात हुई । इस बीच उन्होंने अपने दो अधूरे उपन्यासों का हवाला दिया। झटके में 30-35 पेज लिखे गए। फिर थम गए। फोन पर बातचीत में Shashi Pandey जी ने भी अपने उपन्यास के दस पेज के बाद ठहराव की बात बताई। Arvind Tiwari जी भी एक उपन्यास में ठहरे हुए हैं। गरज यह कि हिंदी व्यंग्य में जिस भी लेखक से बात की जाए तो पता चलता है कि उसका कोई उपन्यास कहीं ठहरा हुआ है। इस लिहाज से यह भी माना जा सकता है कि सच्चा व्यंग्य लेखक वही है जिसका कम से कम एक उपन्यास ठहरा हुआ है। उसी कड़ी में यह तय किया जा सकता है कि जिसके सबसे ज्यादा अधूरे उपन्यास हैं वह उतना बड़ा लेखक।
क्या ही अच्छा हो कि इन सब आधे-अधूरे, ठहरे-ठिठके उपन्यासों को मिलाकर एक महाउपन्यास तैयार किया जाए - व्यंग्य की महापंचायत की तरह। इसके प्रकाशन के बाद उसकी जमकर तारीफ करी जाए। इसे अपने ढंग का अनूठा उपन्यास बताते हुये कुछ इनाम झपट लिए जाएं। हो सकता है कोई कहे कि यह उपन्यास किस कोने से से है, समझ में नहीं आता। इसका जबाब यह होगा कि इस उपन्यास का सहयोगी लेखक होने के पहले तक हमको भी यही लगता था लेकिन अब समझ में आया कि यह अपने समय से बहुत आगे का उपन्यास है। इस पीढ़ी को नहीं , अगली पीढ़ी को समझ में आएगा।
चाय की दुकान के बाहर एक बुढ़िया डस्टबिन से पन्नियां बीन रही थी। ऐसे जैसे अपन कभी-कभी अपने कुछ व्यंग्य लेखों से पंच-छंटाई करते हैं।डस्ट बिन के बाहर आकर पन्नियां साफ और शरीफ हो गई थीं। दुकान वाला शायद उनको वापस ले जाने के लिए मोलभाव कर रहा था।
इस बीच हमारे ड्रॉइवर साहब ने भी खाना खाया। चाय के लिए पूछा तो बोले -' हम चाय नहीं पीते। शाम वाली गरम चाय पीते हैं।' रोज 100 रुपये का पउवा ठिकाने लगा देते हैं। कल 1000 खर्च हो गए दोस्तों के साथ। परिवार गांव में है। बातचीत के दौरान शादी के पहले के अपने संसर्ग के किस्से निस्संग भाव से बताए। उनको सुनते हुये मैं सोच रहा था कि जिससे संसर्ग हुए क्या वे भी इतनी ही सहजता से किसी अजनबी को अपने किस्से सुना सकती हैं।
यह बात लिखते हुये आइडिया आया कि इसी बात पर दस-पन्द्रह पन्ने घसीट दिए जाएं। कुछ नहीं तो कम से कम अपना भी एक ठहरा हुआ उपन्यास तो हो जाएगा। नाम आलोक पुराणिक तय कर ही देंगे। भूमिका किससे लिखवाई जाए यह तय होते ही अटका देंगे उपन्यास।
चौराहे पर एक लड़का छोटी बच्ची के साथ कुछ करतब दिखाते हुए कुछ मांगने की कोशिश कर रहा था। ड्रॉइवर ने उनको देखकर कहा -'कुछ काम सीखना चाहिए इसको। छह महीने में ड्राइवरी ही सीख जाता। मांगने से तो अच्छा कुछ काम करना।'
हमारा कहने का मन हुआ कि जब देश-दुनिया के तमाम कर्ण धार करतबों के सहारे अपना जलवा कायम किये हैं तो उस बालक को क्या समझाना। लेकिन हमने कुछ कहा नहीं। इस बेफालतू की सोच का टेंटुआ दबाकर उसको निपटा दिया। बाहर आती तो बबाल ही मचता।
देखते-देखते ट्रेन चल दी। दिल्ली पीछे छूट गयी। दिल्ली के किस्से भी।

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Tuesday, September 10, 2019

जो कुछ मिलना है अपनी क्षमताओं से, अपने संघर्ष से और अपने धैर्य से ही मिलना है -आलोक पुराणिक



[इंसान के व्यक्तित्व निर्माण में उसके बचपन का बड़ा हाथ होता है। आलोक पुराणिक के साथ भी अलग नहीं हुआ। कम उमर में पिता के न रहने पर बकौल आलोक पुराणिक ही

’ बचपन यूं कहें कि बहुत आरामदेह नहीं बीता, आठ साल की उम्र में पिता को खो देने के बाद एक झटके से मेच्योर्टी आ गयी है। एकदम से बहुत बड़ा हो गया। लोगों की बातों और कर्मों के फर्कों को बहुत जल्दी समझने लगा।’
आज के सवाल-जबाब की कड़ी में आलोक पुराणिक के बचपन से जुड़ी कई यादें जिनसे उनकी मानसिन बनावट के ताने-बाना का पता चलता है।]
सवाल 1: बचपन की कैसी यादें है आपके मन मे। क्या खास याद आता है बचपन का?
जवाब: बचपन आगरा का है, आगरा ब्रज क्षेत्र का का बहुत खास शहर है। जमुना किनारे वेदांत मंदिर के अहाते में घर था, उसी घर में पिताजी ने आखिरी सांसें ली थीं। बाद में अतिक्रमण अभियान में वह घर ढहा दिया गया, मंदिर बचा रह गया। बंदों की रिहाईश खत्म हो गयी, भगवान के घर की चिंता भरपूर रखी गयी। जमुना किनारे आगरा एत्माद्दौला मकबरे के इस पार घर था। व्यंग्य जो मेरे अंदर है, वह आगरा के संस्कार की वजह है। टेढ़ा देखना, आगरा के कुछ मुहल्ले हैं-भैंरो नाला, पथवारी, बेलनगंज( बेलनगंज लैनगऊशाला में तो आठ वर्ष की उम्र से 20 वर्ष की उम्र तक रहा) इन मुहल्लों में आम बातचीत में व्यंग्य रहता है। ब्रज की धरती एक तरह से व्यंग्य का संस्कार देती है। दिल्ली आने के दस साल बाद मुझे पता चला कि मेरे अंदर व्यंग्य भी है और वह आगरा की देन है। बचपन यूं कहें कि बहुत आरामदेह नहीं बीता, आठ साल की उम्र में पिता को खो देने के बाद एक झटके से मेच्योर्टी आ गयी है। एकदम से बहुत बड़ा हो गया। लोगों की बातों और कर्मों के फर्कों को बहुत जल्दी समझने लगा।
सवाल 2: पिता को बचपन में खो दिया आपने। उनसे जुड़ी यादें कैसी हैं आपके मन में।
जवाब: पिता बैंक में थे, मेरी मां को पिता की जगह नौकरी मिली बैंक में, पर बहुत देर से। आर्थिक संकट थे। मां मेरी बहुत जिद्दी, दबंग हैं। उन्होने अपने पिता से सहायता लेने की जगह उन्होने बुनाई की मशीन पर काम करना शुरु किया। स्वेटर बुनती थीं मां मशीन पर धड़ाधड़, कुछेक महीने में बहुत एक्सपर्ट हो गयीं। जिद्दी थीं किसी की नहीं सुनती थी। अब भी नहीं सुनतीं। मैं मोटे तौर पर अब भी मां के अलावा किसी से नहीं डरता। मां से बहुत डरता हूं, कभी भी शराब पीने की हिम्मत नहीं हुई, सिर्फ इसलिए कि मां ने पूछ लिया -ये क्या हो रहा है, तो क्या जवाब दूंगा। मेरे अंदर एक हद तक मां का यह गुण आ गया है कि बहुत जिद्दी हूं। संघर्ष की ज्यादा बात करना मुझे अश्लील जैसा लगता है, अबे जो किया अपने लिया किया, काहे बताना दूसरों को कि ये किया वो किया। संक्षेप में कक्षा ग्यारह से ट्यूशन पढ़ाना शुरु कर दिया और फिर जिंदगी की गाड़ी चल निकली। जो कुछ मिलना है अपनी क्षमताओं से, अपने संघर्ष से और अपने धैर्य से ही मिलना है-यह बात आठ-दस साल की उम्र में समझ में आ गयी थी। पिता मेरे अपने ढंग के अलग व्यक्ति थे। मेरी उम्र के आठ साल का साथ तक का साथ रहा, पर जो समझा यही पता लगा कि अलग रंग-ढंग था। सेना से रिटायर होकर बैंक ज्वाइन किया बैंक की नौकरी के साथ बांसुरी बजाते थे, वायलिन बजाते थे और उन्होने एक प्रयोग करके एक पानी का ईजाद किया था, जिसे लगाकर कई लोगों का एग्जीमा ठीक हो जाता था। बहुधंधी व्यक्ति थे, कुछ कुछ बेचैन आत्मा जैसे, पर रचनात्मकता के गहरे तत्व थे, विकट संवेदनशील थे। मां बताती हैं कि एक बार परिवार के साथ एक फिल्म देखने गये, मैं, बड़ी बहन मां साथ थीं। मैंने शायद रोना-धोना मचाया फिल्म में, उन्होने गुस्से में मुझे चांटा मारा, बाद में वह उस चांटे को लेकर इतने नाराज हो गये खुद से कि कभी भी फिल्म ना देखने का फैसला किया। और फिर कभी फिल्म देखी ही नहीं। अलग थे वह, खालिस बैंककर्मी नहीं थे।
सवाल 3: आप अपने स्वास्थ्य के प्रति काम भर के जागरुक रहे। फिर आपके वजन ने शतक के पास पहुंचने की जुर्रत कैसे की ?
जवाब: 2009 में एक विकट बीमारी से घिरा मैं, इतनी विकट कि उस दौर में मैंने अपने सामान्य होकर जीवित रहने की उम्मीद छोड़ दी थी। आलस्य, बीमारी का असर उस सबके चलते वजन बढ़ता चला गया।
सवाल 4: आपके साल भर में 25-30 किलो वजन कैसे कम किया?
जवाब: एक दिन फैसला कर लिया कि अब यह नहीं चलेगा। मेरे परिचय की एक बहुत काबिल डाइटिशियन हैं रुपाली कर्जगीर, उन्होने मुझे गाइड किया, योग और घूमना, वजन कम हो गया। मूल बात फैसले की होती है, एक बार फैसला कर लो, तो सब हो जाता है। खान-पान का ध्यान में अब लगातार रखता हूं। वजन कम करना आसान है, वजन को कम बनाये रखना बहुत मुश्किल काम है।
सवाल 5: आपके पिता के न रहने पर आपके जीवन में क्या बदलाव आए?
जवाब: बहुत अजीब सी बात कह रहा हूं कि पिताविहीन बच्चे ज्यादा तेजी से मेच्योर हो जाते हैं। मेच्योर्टी यह आ जाती है कि बेट्टे कोई बेकअप नहीं है। प्लान बी है ही नहीं। जहां कूदो सोच समझकर कूदो। बचानेवाला कोई नहीं है। एक छाता सा हट जाता है सिर पे। धूप, बारिश सीधे आ रही है आप तक, सीधी बारिश और धूप परेशान करती है, पर पर पर वही आपको दूसरों के मुकाबले मजबूत भी बना देती है। जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी है-यह भाव आते ही जिंदगी के फैसले लेने में गुणात्मक परिवर्तन आ जाता है। मैं मां औऱ बड़ी बहन, ये तीन मेंबर, घऱ में बचे, थोड़े बहुत इधर उधऱ के विचलनों के बाद मैं बहुत जिम्मेदार बालक हो गया। पैसे की वैल्यू और रिश्तेदारों का अर्थ, इंसानी दोगलापन, इंसानी टुच्चापन थोड़ा जल्दी समझ में आ गया।
सवाल 6: दिन में बहुत समय आप लेखन, गजियाबाद दिल्ली आवागमन और अध्यापन में गुजार देते हैं। परिवार के लिए समय बहुत कम मिलता होगा। हड़काये नहीं जाते ?
जवाब: मेरे घरवाले बहुत सहयोगी हैं, पर मैं आपको बता दूं- दोनों बेटियों को जहां जब मेरी जरुरत है, मैं हमेशा हूं। पत्नी और मां की शिकायतें छोटी मोटी तो हो सकती हैं, पर आम तौर पर मैं एक जिम्मेदार पति और बाप और बेटा हूं। टाइम मैनेजमेंट की बात है। हर चीज के लिए वक्त निकाला जा सकता है, अगर बेकार की चीजों में वक्त जाया ना किया जाये।
सवाल 7: घर के काम काज में भी कुछ हाथ बटा पाते हैं ?
जवाब-जी नहीं अभी घर के कामकाज में मेरा रोल कोई नहीं है। भविष्य में घर के कामकाज में अपने योगदान को लेकर कुछ य़ोजनाएं हैं।

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सन्तोष की सांस

 कल घर से निकलते समय हमने अपनी गाड़ी का मुखड़ा देखा। दफ़्तर से लौटते समय एक आटो अनजान तरीके से मेरी गाड़ी को रगड़ता चला गया था कुछ ऐसे जैसे भीड़ भरी बसों में मर्दाने लोग जनानी सवारियों पर हाथ/बदन साफ़ करते चलते हैं। मेरी गाड़ी सही सलामत थी। मैंने ईश्वर को लाख-लाख शुक्रिया दिया। लेकिन फ़िर याद आया कि शुक्रिया तो खुदा को दिया जाता है। ईश्वर तो धन्यवाद ग्रहण करते हैं। भन्ना न गये हों कहीं धन्यवाद की जगह शुक्रिया देखकर। हमने फ़ौरन ईश्वर को डेढ-डेढ लाख धन्यवाद रवाना किया और अनुरोध किया कि हमारे शुक्रिया वापस कर दें ताकि हम उनको खुदा के हवाले कर दें। लेकिन शुक्रिया वापस आया नहीं। जमा हो गया होगा कहीं गुप्त खाते में ईश्वर के। बहुत गड़बड़झाला है ऊपर वाले के यहां।

जब निकले तो तीन बच्चियां स्कूल जाते दिखीं। कन्धे पर हाथ धरे बतियाती, खिलखिलाती चली जा रही थीं। उत्फ़ुल्ल, उमंग भरी बच्चियों को स्कूल जाते देखकर मन खुश हो गया।
ओएफ़सी फ़ैक्ट्री के बाहर सड़क पर बैठी महिला की बिटिया उसके जुयें बीन रही थी। महिला टांग फ़ैलाये बैठी थी। उसका छुटका बच्चा उसकी पीठ से सटा इधर-उधर ताक रहा था। महिला जिस तरह बैठी थी आराम से उससे लग रहा था कि अपने आंगन में बैठी है । सड़क उसका आंगन ही तो हो गया है।
बगल में तमाम छुटपुट सामान बेचने वाले अलग-अलग कम्पनियों का छाता लगाये धूप से बचते हुये अपना बिक्री-बोहनी में जुटे थे। जिस कम्पनी का छाता था सामान सबका उस कम्पनी से अलग था। उसई तरह जैसे किसी पार्टी द्वारा दिये लैपटाप पर चलने वाले सोसल मीडिया के सहारे विरोधी पार्टी उसको चुनाव में पटक देती है।
आगे एक बुजुर्गवार बीच सड़क को अपना बाथरूम बनाये हर-हर गंगे कर रहे थे। पीछे मंदिर था, उसके पीछे फ़ुटपाथ। मतलब सड़क पर भगवान के भक्त कब्जा किये धर्म का प्रचार करने में जुटे हुये थे। धर्म का धंधे से सहज जुड़ाव धर्म के प्रसार में सुविधाजनक होता है।
ध्यान से देखा तो हर पन्द्रह-बीस कदम पर एक मंदिरनुमा अतिक्रमण सड़क पर दिखा। धार्मिक स्थल आजकल कमाई के स्थाई और कम खर्चे में लगाये जाने वाले धंधे बन गये हैं। क्या पता है कल को फ़लाने क्या करते हैं ? का जबाब लोग देना शुरु करें-" उनका अपना मंदिर है। अंधाधुंध कमाई है। दरोगा खुद वहां पूजा करता है। सोचते हैं हम भी गली के मुहाने पर एक मंदिर डाल लें।"
घर से निकलने में जरा देर हो गयी थी कल इसलिये जरा स्पीड से चल रहे थे। आगे वाली हर गाड़ी को दायें- बायें से ओवरटेक करते हुये निकलते जा रहे थे। कोई पैदल सवारी दिखती तो डर लगता कि कहीं उसको बीच से ओवरटेक करने का मन न हो जाये। यह सवारी का असर भी बहुत बुरा होता है। जितना आदमी उन पर चढता है उससे ज्यादा वे आदमी के सर पर सवार हो जाती हैं।
क्रासिंग भी खुली मिली जबकि हमने इसके लिये रेलवे मिनिस्टर को ट्विट भी नहीं किया था। एक ट्रक आगे इतना धीमे चल रहा था मानो सामने जयमाल के लिये कोई वाहन इंतजार कर रहा हो उसका। उसके बगल में एक खड़खड़ा वाला अपने घोड़े को उचकाता हुआ चला जा रहा। उसी खड़खड़े पर पीछे एक लड़का हाथ में थामे स्मार्टफ़ोन में मुंडी घुसाये चला जा रहा था। दुलकी चाल से जाते घोड़े को हमने हार्नियाया तो भड़ककर पहले थोड़ा बीच में फ़िर ज्यादा किनारे हो गया। हम फ़ुर्र से आगे निकल लिये।
आगे पंकज बाजपेयी जी को देखकर हार्नियाये तो वे निपटान मुद्रा से उठकर खड़े हो गये। खिड़की खोलकर हाथ मिलाया। बोले-" जार्डन वाले लोग आये हैं। बच्चे खा जाते हैं। जयप्रकाश मिश्रा के बेटे को ले गये थे। कोहली के आदमी हैं। झकरकटी पुल के नीचे पकड़े गये हैं। कोई गन्दी चीज दे तो खाना नहीं।"
इसी तरह की बाते करते हैं बाजपेयी जी। एक दूसरे से संबद्ध-असंबद्ध। लेकिन भागते-दौड़ते बस दुआ सलाम ही हो पाती है। कभी तसल्ली से मिलने की प्रयास किया जायेगा। उनसे नमस्ते करते हम जो निकले तो सीधे दिहाड़ीखाने की चौखट पर ही रुके। समय से पांच मिनट पहले पहुंचने पर जो सांस ली उसे लोग संतोष की सांस कहते हैं।
फ़िलहाल इतना ही। शेष अगली पोस्ट में। 🙂
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Tuesday, September 03, 2019

भारत के आखिरी गांव तक

 


हुन्डर से अगला पड़ाव था भारत का आखिरी गांव । पहले यह तुरतक था। लेकिन 1971 की लड़ाई के बाद थांग भारत का आखिरी गांव हो गया।
गेस्ट हाउस सुबह निकले। रास्ते में सेना और बॉर्डर रोड आर्गनाइजेशन के कैम्प दिखे। कुछ स्कूल भी। ये स्कूल सेना की मदद से चलाए जाते हैं। कुछ स्कूलों में बच्चे कक्षाओं के बाहर खेल रहे थे। मस्तिया रहे थे।
रास्ते में जगह-जगह पहाड़ से उतरते झरने मिले। हर झरना अपने में अनूठा। मस्तियाता। पानी ठुमकते हुए , इठलाते हुए नीचे उतरता चला जा रहा था। प्रदूषण रहित एकदम सफेद पानी। झरने के पत्थर पानी को थोड़ा रोकते। लेकिन पानी मुस्कराकर पत्थर को बगलियाते हुए आगे बढ़ता जाता।
अपन हर झरने के पास रुककर उनको देखते। उनके साथ वीडियो बनाते। इसके बाद देरी की बात सोचते हुए आगे बढ़ते। ड्राइवर लखपा ने भी कई जगह हमारी फोटो लीं।

जगह-जगह बने छोटे-छोटे पुल देखकर लगता था कि इतनी दुर्गम जगहों पर पुल बनाना कितना कठिन रहा होगा। लेकिन पुल बने। देखकर यही लगा :
कुछ कर गुजरने के लिए
मौसम नहीं मन चाहिए।
आगे सड़क कुछ सपाट हुई। गाड़ी थोड़ा सरपट हुई। बगल में सड़क के साथ श्योक नदी भी सरपट भागती साथ चल रही थी। उसका पानी कुछ मटमैला हो गया था। शायद पहाड़ की मिट्टी मिलकर। नदी में पानी बढ़ता गया। नदी का आकार भी। लोगों ने बताया कि यह नदी पाकिस्तान जाती है। वहाँ के लोग इसके पानी से प्यास बुझाते होंगे, सिंचाई करते होंगे।
रास्ते में जगह-जगह बाइकर्स मिले। हेलमेट लगाए, धड़धड़ाते हुए सड़क से गुजरते। कुछ के हेलमेट में कैमरा भी लगा था। मोटरसाइकिल चलाते हुए वीडियो बनाने के लिए।

आगे सीमा पास का गांव पड़ा। लोग सड़क किनारे खेतों में काम करते दिखे। कोई बैठा हुआ। कोई बतियाता हुआ। एक जगह बच्चे स्कूल से आते दिखे। सड़क किनारे जाते कुछ लोगों के फोटो हमने चलती गाड़ी से लिये। कुछ बच्चियां घास के गट्ठर सर पर लादे आ रहीं थी। हमने उनके फ़ोटो लेने की कोशिश की तो उन्होंने घास के गट्ठर को कैमरे के सामने कर दिया या फिर पीठ कैमरे की तरफ कर दी।
सीमा के गांव पर हमारे परमिट जांचे गए। परमिट कई जगह देखे गए। लखपा ने कई कापियां करा रखी थीं परमिट की। जहां मांगी जाती निकाल कर थमा देते।
तुर्तक गांव में एक जगह कुछ बच्चे सड़क किनारे छोटे तालाब में नहाते दिखे। एक महिला सड़क किनारे लगे नल से अपने बच्चे को नहला रही थी। हमने उससे बात करनी चाही। वह मुस्करा कर बच्चे को नहलाने में लगी रही। लेकिन मुस्कान का आदान प्रदान अपने आप में सबसे बेहतरीन गुफ्तगू होती है। उसने फोटो लेने से टोंका नहीं।


तुर्तक में सेना की चौकी है। वहां सेना के लोग दूरबीन की सहायता से आसपास को चोटियों के बारे में बता रहे थे। यह चोटी हिंदुस्तान की है वह पाकिस्तान की। यहां पर पहले पाकिस्तान का कब्जा था। वह ऊंचाई पर बंकर है। ऊपर पहुंचने में दो-तीन दिन लगते हैं। स्थानीय लोगों की सहायता के बिना सेना का काम चलना मुश्किल। सेना के सहयोग के बिना स्थानीय लोगों की जिंदगी दुश्वार। दोनों एक दूसरे के सहयोगी।
सीमा के आखिरी गांव थांग का किस्सा वहां लोगों ने सुनाया। पहले यह गांव पाकिस्तान में था। थांग और पहारू गांव जुड़वा गांव थे। 1971 की लड़ाई में थांग गांव पर हिन्दुस्तान का कब्जा हुआ। पहारू गांव पाकिस्तान में रह गया। दोनों गांव में रहने वाले लोग बिछुड़ गए। पति पत्नी अलग हो गए, बाप बेटे अलग हो गए। एक ही परिवार के साथ में रहने वाले लोग दो अलग देशों में रहने को मजबूर हो हो गए। मजबूरी का आलम यह कि अलग -अलग देशों में रहने वाले एक ही परिवार के लोग एक दूसरे को देख सकते थे लेकिन मिल नहीं सकते। कुछ लोग जो भारत की तरफ से अपने परिवार से मिलने पाकिस्तान के कब्जे वाले गांव में पहुंचे उनको जासूस समझकर गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया गया।

रमानाथ अवस्थी जी ने विभाजन की त्रासदी पर एक कविता पढ़ी थी। उसकी पंक्तिया हैं:
धरती तो बंट जाएगी लेकिन
उस नील गगन का क्या होगा
हम तुम ऐसे बिछुड़ेंगे तो
फिर महामिलन का क्या होगा।
क्या हाल हुए होंगे उन इन गांवों में रहने वाले लोगों के एक गांव से दूसरे गांव सहज रूप में गए होगे। लेकिन 16-17 दिसम्बर को इस तरह अलग हुए कि मिलना तक सम्भव न हुआ।
हाल यह कि मिनटों की दूरी पर दूसरे देश के परिजन से मिलने कुछ लोग हफ़्तों की यात्रा करके वीसा के जरिये उस पार पहुंचे । मुलाकात करके आये। लोगों ने बताया कि उधर की सेना का रवैया उनके इलाके में रह रहे लोगों के साथ इतना दोस्ताना नहीं जितना इस तरह की फौज का।

सीमा चौकी पर कुछ ढाबे बने हुए है। सबमें चाय, मैगी , चाउ मीन जैसे खाने के सामान। दुकानें थांग गांव के लोगों हैं। उनमें आपस में ग्राहकों को कब्जियाने की कोई ललक नहीं। बल्कि जिस दुकान में हम रुके उसके मालिक ने ही हमको बताया - 'उस दुकान में खा लीजिये। उम्दा है।' हम उनकी सहजता के मुरीद हो गए और हमने कहा हम तो जो होगा यहीं खाएंगे ।
अब्दुल कादिर नाम था उस युवा का। उसने अपने गांव और आसपास के बारे में तमाम जानकारियां दीं। यह भी की कारगिल की लड़ाई के समय यहां एक तोप का गोला गिरा था जिससे एक खच्चर मर गया। और कोई नुकसान नहीं हुआ।
अब्दुल कादिर ने बताया कि जरूरत का सब सामान सेना के सहयोग से मिलता है। दुकानें मार्च से सितम्बर तक ही चलती है। बाकी सीजन बन्द। हर तरफ बर्फ की दुकान चलती है उस दौरान।
अब्दुल कादिर के ढाबे में तिरंगा फहरा रहा था। हमने साथ में फोटो लिए। दुकान पर दूसरे यात्री आ गए थे। कादिर उनको निपटाने में लग गए।
लौटते हुए फिर कैमरे के मुंह खुल गए। जो भी दृश्य जरा सा भी अलग दिखा उसको झपट कर कैद कर लिया। डाल लिया कैमरे की मेमोरी में । अब जब देख रहे हैं तो वो सारे क्षण फिर से जीवित हो उठे हैं।
लौटते हुए एक जगह सड़क खुदती हुई दिखी। केबल पड़ रहे थे। जियो के केबल। शायद मोबाइल के लिए। पूरी दुनिया मुट्ठी में करने के लिए।
प्रकृति यह सब देखकर मुस्करा रही थी। सूरज भाई भी हंस रहे थे। हम भी सबको मजे से देखते हुए गेस्ट हॉउस लौट आये।

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