http://web.archive.org/web/20110926082037/http://hindini.com/fursatiya/archives/103
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
श्रीलाल शुक्ल-विरल सहजता के मालिक
कल शनिवार को जब दोपहर आफिस से घर आया तो डाक से आया किताब का एक
पैकेट मेरा इंतजार कर रहा था। सोचा शायद देबाशीष ने भेजा होगा। पैकेट खोलते
हुये सोच भी रहा था यार,ये इतनी मोटी किताब कहां से होगी जिन्दगी ई-मेल। शाश्वत धिक्कारबोध भी मुंह बिराने लगा कि नेताओं की तरह घोषणा तो कर दिये अभी तक किताबें भेजी नहीं। लेकिन जब सिमसिम खुला तो मजा बढ़ गया। धिक्कारबोध भी भाग गया जैसे सिपाही को देखकर बिना हफ्ता दिये चोरी करने वाला भागता है।
किताब हमारे पसंदीदा लेखक श्रीलाल शुक्ल के ८१ वें जन्मदिन के पर दिल्ली में आयोजित अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित हुई थी-श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन। प्रसंशकों के संस्मरण,लेख,श्रीलाल शुक्लजी लेख, आत्मकथ्य ,साक्षात्कार तथा तमाम फोटुओं से युक्त ५६३ पेज की यह किताब संग्रहणीय है। मेरा भी एक लेख इस संग्रह में है लिहाजा हमें भी एक प्रति भेजी गई। कल जब से किताब मिली तबसे इसे उलट-पुलट रहे हैं।
श्रीलालजी का जन्मदिन साल के अंतिम दिन पड़ता है। करीब ७-८ साल पहले मैं साल के आखिरी दिनों में लखनऊ में ही था। जहां रुका था वहीं पास में श्रीलालजी रहते हैं। पता था ही पास में ,पहुंच गये मिलने। मय कैमेरा। कुछ देर बातें हुईं। वही जो आमतौर पर लेखक तथा प्रशंसक के बीच होती हैं। चलते समय फोटो खींचा तो बोले- इसकी कापी हमें जरूर भेजियेगा। शाहजहांपुर वापस पहुंचकर याद आया कि जिस दिन मुलाकात हुई थी उस दिन तो उनका जन्मदिन था। फोटो के साथ जन्मदिन की शुभकामनायें भी भेजीं-बिलेटड।
तबसे जब भी लखनऊ गया श्रीलालजी से जरूर मिला। कभी-कभी मुझे यह भी लगता कि उनसे मिलकर मैं उन्हें तंग ही तो करता हूं। क्या हक है मुझे एक बुजुर्ग को परेशान करने का!लेकिन अब इसका क्या किया जाये कि मेरे इन ज्ञानबोध या अपराधबोध को मेरी उनसे मिलने की उत्कंठा हमेशा पटक देती। और यह भी कि जितनी देर मैं उनके सानिध्य में रहता मुझे लगता कि मैं भी क्या फिजूल की बातें सोचता हूं। ये बुजुर्गवार तो हमसे मिलकर प्रसन्न हो रहे हैं।
इसी तरह का वाकया ढाई साल पहले हुआ। इन्द्र अवस्थी भारत आये थे-आवारगी करने। हम मौरावां से लखनऊ गये। वहां पहले राज्यपाल विष्णुकान्त शाष्त्री जी से मिले। उनके इन्द्र के परिवार के पारिवारिक सम्बंध थे। शाष्त्रीजी ने हमारे बच्चों से कहा-कवितायें सुनाओ। बच्चों ने जब सुनायी तो खुश हुये। अपने पेन निकाल कर दिया-आशीर्वाद स्वरूप। शाष्त्री से मुलाकात के बाद अवस्थी बोले-चलो शुकुल जी से मिला जाये। हमने फोने किया तो पता चला कि वे विश्व हिंदी सम्मेलन में जाने के
लिये अगले दिन फ्लाइट पकड़ने के लिये सामान सजा रहे थे।हमारे फोन करने पर जिस तरह की विवशता तथा व्यस्तता श्रीलाल जी फोन पर दिखाई उससे तो लगा कि शायद मुलाकात सम्भव न हो। लेकिन उस आपाधापी में भी उनसे मुलाकात हुई।हम लौटे तो यह महसूस कर रहे थे कि उनकी तैयारी में विघ्न पड़ा लेकिन वे बार-बार यही कह रहे थे-अफसोस कि बातचीत के लिये समय न मिल पाया लेकिन अगली बार आइये तब इत्मिनान से बात करेंगें।
अब जब भी जाता हूं तो वे अवस्थी के हाल-चाल जरूर पूछते हैं-आपके अमेरिका वाले अवस्थीजी कैसे हैं?
श्रीलालजी से मुलाकात करते समय यह बिल्कुल नहीं आभास होता कि हम किसी बहुत बड़े लेखक से मिल रहे हैं। सहज होकर बात करते हैं। कहीं से अपनी विद्वता का आतंक जमाने का कोई प्रयास नहीं दिखता। यह उनका बड़प्पन है कि बोलने-लिखने में यथासम्भव अपनी महानता झाड़ के किनारे रखने के बाद ही बात शुरू करते हैं। बोलने-लिखने में कभी अपनी डींगे नहीं हांकते। जब कोई ज्यादा तारीफ करने लगता है तब वे जितनी जल्दी हो सकता है प्रसंग बदलने का प्रयास करते हैं। रागदराबारी के बारे में अक्सर कहते हैं -अरे वो तो मेरा बदमाशी का लेखन है।
जिस रागदरबारी को वो अपना बदमासी का लेखन बताते हैं उसको लिखने में उनको ६-७ साल लगे। तीन बार लिखा गया । बाद में जब शासन से प्रकासन की अनुमति मिलने में देर लगी तो सोचा कि नौकरी छोड़ देंगे। अज्ञेयजी के माध्यम से दिनमान में संपादक होने की बात तय हो गयीं तो (श्रीलालजी ने हंसते हुये बताया) थोड़ा नक्शेबाजी की जाये। सरकार के सचिव को प्रकाशन की अनुमति में अनावश्यक विलम्ब को लेकर व्यंग्यात्मक पत्र लिखा। शायद इसी का परिणाम हुआ कि तुरंत अनुमति मिल गई।नौकरी बची रही।बाद में साहित्य अकादमी का पुरुस्कार भी मिला इस पर।
अभी पिछले साल जब श्रीलालजी तफशील से यह नक्शेबाजी का किस्सा सुना रहे थे तथा हंसते जा रहे थे तो लग रहा था कि कोई बच्चा अपनी शरारतों के किस्से सुना रहा हो।
श्रीलालजी बतियाते हुये खुलकर हंसते हैं। कपटरहित,निर्मल हंसी। नामवरसिंह जी ने अमृत महोत्सव पर अपने व्याख्यान में इसी हंसी का का उल्लेख करते हुये कहा-वह हंसी बहुत कुछ कहती है,फिर भी अपने में रहती है।”
जिस दिन दिल्ली में अमृत महोत्सव में कार्यक्रम हुआ उसके अगले दिन लखनऊ में ही था मैं। उसी दिन उनका जन्मदिन भी था।कार्यक्रम एक दिन पहले ही संपन्न हो गया था। शाम को जब मैं उनसे मिलने गया तो तमाम मित्र-परिवारजन थे। दिल्ली के किस्से चल रहे थे। बताया गया कि समारोह में मुख्यमंत्री शीलादीक्षित भी आ गईं। उनके आने की सूचना नहीं थी पहले। लेकिन उनको बोलने का मौका नहीं मिला। कार्यक्रम साहित्यिक -सांस्कृतिक ही रहा। राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होने पाया।
श्रीलाल जी के अमृत महोत्सव के अवसर पर जो किताब निकली है उसमें जाहिर है कि उन पर प्रशंसात्मक लेख ही हैं।उनके घर में जब लोग किताब उलट-पलट रहे थे तो अपने खास अंदाज में वे बोले-मुझे नहीं लगता कि इन प्रशंसात्मक लेखों के लिये मुझे ज्यादा अपराधबोध महसूस करने की जरूरत है।
अपने लिखने के बारे में वे लिखते है-
स्मरण शक्ति गजब की है। पचास-साठ साल पहले की घटनायें ऐसे बयान करते हैं तफसील से कि लगता है अभी की घटना सुना रहे हैं। एक बार मैंने जब इसके लिये उनकी तारीफ की तो वे बोले -याददाश्त का तो ऐसा है कि मैं पचास साल पुरानी बात तो बिना भटके याद कर सकता हूं लेकिन अक्सर सर पर चश्मा लगाये हुये उसे खोजते हुये पूरा दिन भी बरबाद कर देता हूं।
श्रीलालजी की तमाम खाशियतों में एक यह भी है कि वे व्यर्थ के विवादों में अपना समय तथा ऊर्जा बरबाद करने को निहायत वाहियात-बेवकूफी का काम मानते हैं। रागदरबारी के लिखे जाने के करीब तीस साल बाद हिंदी लेखक मुद्राराक्षस ने रागदरबारी में तमाम खामियां बताते हुये इसे ग्रामीण परिवेश का उपन्यास मानने से इंकार किया। तीखी भाषा में लिखी इस अतथ्यात्मक आलोचना का खंडन करने के लिये जब श्रीलाल जी के प्रशंसको-मित्रों ने उन्हें उकसाया तो वे बोले-मैं इस वर्डी डुएल में नहीं पड़ना चाहता। मुद्राराक्षस को भी लोग जानते हैं मुझे भी।
यह बात जब मैंने आज दुबारा पढ़ी तो लगा कि हम कैसे जरा-जरा सी बात पर उचकते रहते हैं। जहां मौका मिला नहीं राशन-पानी लेकर विरोधी पर पिल पढ़ने लो अपनी बहादुरी मानते हैं। कभी-कभी इसी बहादुरी के लालच में शब्द युद्ध में अगले को पटकने की वीरता का लालीपाप चूसते हुये अपने तयशुदा कार्यक्रम से सफलता पूर्वक मीलों दूर चले जाते हैं।
श्रीलालजी की कुछ स्थापनायें एकदम नयी दृष्टि देती हैं। उनका मानना है कि देश का ज्यादातर हिस्सा ग्रामीण परिवेश से जुड़ा है लिहाजा मैला आंचल,रागदरबारी,आधा-गांव आदि उपन्यास मुख्य धारा के उपन्यास माने जाने चाहिये। जबकि अंधेर बंद कमरे आदिशहरी परिवेश के उपन्यास बहुत छोटे तबके का सच बताते हैं लिहाजा वे आंचलिक माने जाने जाने चाहिये।
श्रीलालजी के बारे में बहुत सी बाते हैं जो उनके संपर्क में आने पर ही महसूस होती हैं। नये लोगों के लिये उनके पास सदैव आशीर्वाद ,मुक्तकंठ तारीफ रहती है। अपने सम्बंधों में निहायत सहज हैं। अपनी कमियां छिपाते नहीं।
बकौल रवीन्द्र कालिया-कई बार तो इस हद तक उदार हो जायेंगे कि कहेंगे-प्रत्येक लेखक को एक मिस्ट्रेस रखनी चाहिये,किसी पर्वतीय क्षेत्र में लेखन की सुविधा होनी चाहिये।यह क्या कि पसीना बहे जा रहा है और आप झक मार रहे हैं।
श्रीलाल जी के जानने वाले बताते हैं कि वे अपने पत्नी के जितने समर्पित श्रीलालजी रहे वैसा उदाहरण उन्होंने दूसरा नहीं देखा। दोनों एक दूसरे के पूरक थे। आदर्शजीवन साथी।
जब श्रीलालजी की पत्नी श्रीमती गिरिजादेवी अस्वस्थ हुयीं तो श्रीलालजी ने बच्चों की तरह खुद उनकी पूरी देखभाल की। रात-रातभर जागकर सेवा करना। आना-जान बंद कर दिया। पीना-पिलाना बंद। रात को तो इतने चौकन्ने रहते कि जरा सा आहट या संकेत हो तो फौरन उठ खड़े होते। ऐसा पत्नीव्रत निभाया की मिसाल बन गई।
उसी बीमारी के समय के बारे में लिखते हुये कालिया जी ने लिखा है-
किताब हमारे पसंदीदा लेखक श्रीलाल शुक्ल के ८१ वें जन्मदिन के पर दिल्ली में आयोजित अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित हुई थी-श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन। प्रसंशकों के संस्मरण,लेख,श्रीलाल शुक्लजी लेख, आत्मकथ्य ,साक्षात्कार तथा तमाम फोटुओं से युक्त ५६३ पेज की यह किताब संग्रहणीय है। मेरा भी एक लेख इस संग्रह में है लिहाजा हमें भी एक प्रति भेजी गई। कल जब से किताब मिली तबसे इसे उलट-पुलट रहे हैं।
श्रीलालजी का जन्मदिन साल के अंतिम दिन पड़ता है। करीब ७-८ साल पहले मैं साल के आखिरी दिनों में लखनऊ में ही था। जहां रुका था वहीं पास में श्रीलालजी रहते हैं। पता था ही पास में ,पहुंच गये मिलने। मय कैमेरा। कुछ देर बातें हुईं। वही जो आमतौर पर लेखक तथा प्रशंसक के बीच होती हैं। चलते समय फोटो खींचा तो बोले- इसकी कापी हमें जरूर भेजियेगा। शाहजहांपुर वापस पहुंचकर याद आया कि जिस दिन मुलाकात हुई थी उस दिन तो उनका जन्मदिन था। फोटो के साथ जन्मदिन की शुभकामनायें भी भेजीं-बिलेटड।
तबसे जब भी लखनऊ गया श्रीलालजी से जरूर मिला। कभी-कभी मुझे यह भी लगता कि उनसे मिलकर मैं उन्हें तंग ही तो करता हूं। क्या हक है मुझे एक बुजुर्ग को परेशान करने का!लेकिन अब इसका क्या किया जाये कि मेरे इन ज्ञानबोध या अपराधबोध को मेरी उनसे मिलने की उत्कंठा हमेशा पटक देती। और यह भी कि जितनी देर मैं उनके सानिध्य में रहता मुझे लगता कि मैं भी क्या फिजूल की बातें सोचता हूं। ये बुजुर्गवार तो हमसे मिलकर प्रसन्न हो रहे हैं।
इसी तरह का वाकया ढाई साल पहले हुआ। इन्द्र अवस्थी भारत आये थे-आवारगी करने। हम मौरावां से लखनऊ गये। वहां पहले राज्यपाल विष्णुकान्त शाष्त्री जी से मिले। उनके इन्द्र के परिवार के पारिवारिक सम्बंध थे। शाष्त्रीजी ने हमारे बच्चों से कहा-कवितायें सुनाओ। बच्चों ने जब सुनायी तो खुश हुये। अपने पेन निकाल कर दिया-आशीर्वाद स्वरूप। शाष्त्री से मुलाकात के बाद अवस्थी बोले-चलो शुकुल जी से मिला जाये। हमने फोने किया तो पता चला कि वे विश्व हिंदी सम्मेलन में जाने के
लिये अगले दिन फ्लाइट पकड़ने के लिये सामान सजा रहे थे।हमारे फोन करने पर जिस तरह की विवशता तथा व्यस्तता श्रीलाल जी फोन पर दिखाई उससे तो लगा कि शायद मुलाकात सम्भव न हो। लेकिन उस आपाधापी में भी उनसे मुलाकात हुई।हम लौटे तो यह महसूस कर रहे थे कि उनकी तैयारी में विघ्न पड़ा लेकिन वे बार-बार यही कह रहे थे-अफसोस कि बातचीत के लिये समय न मिल पाया लेकिन अगली बार आइये तब इत्मिनान से बात करेंगें।
अब जब भी जाता हूं तो वे अवस्थी के हाल-चाल जरूर पूछते हैं-आपके अमेरिका वाले अवस्थीजी कैसे हैं?
श्रीलालजी से मुलाकात करते समय यह बिल्कुल नहीं आभास होता कि हम किसी बहुत बड़े लेखक से मिल रहे हैं। सहज होकर बात करते हैं। कहीं से अपनी विद्वता का आतंक जमाने का कोई प्रयास नहीं दिखता। यह उनका बड़प्पन है कि बोलने-लिखने में यथासम्भव अपनी महानता झाड़ के किनारे रखने के बाद ही बात शुरू करते हैं। बोलने-लिखने में कभी अपनी डींगे नहीं हांकते। जब कोई ज्यादा तारीफ करने लगता है तब वे जितनी जल्दी हो सकता है प्रसंग बदलने का प्रयास करते हैं। रागदराबारी के बारे में अक्सर कहते हैं -अरे वो तो मेरा बदमाशी का लेखन है।
जिस रागदरबारी को वो अपना बदमासी का लेखन बताते हैं उसको लिखने में उनको ६-७ साल लगे। तीन बार लिखा गया । बाद में जब शासन से प्रकासन की अनुमति मिलने में देर लगी तो सोचा कि नौकरी छोड़ देंगे। अज्ञेयजी के माध्यम से दिनमान में संपादक होने की बात तय हो गयीं तो (श्रीलालजी ने हंसते हुये बताया) थोड़ा नक्शेबाजी की जाये। सरकार के सचिव को प्रकाशन की अनुमति में अनावश्यक विलम्ब को लेकर व्यंग्यात्मक पत्र लिखा। शायद इसी का परिणाम हुआ कि तुरंत अनुमति मिल गई।नौकरी बची रही।बाद में साहित्य अकादमी का पुरुस्कार भी मिला इस पर।
अभी पिछले साल जब श्रीलालजी तफशील से यह नक्शेबाजी का किस्सा सुना रहे थे तथा हंसते जा रहे थे तो लग रहा था कि कोई बच्चा अपनी शरारतों के किस्से सुना रहा हो।
श्रीलालजी बतियाते हुये खुलकर हंसते हैं। कपटरहित,निर्मल हंसी। नामवरसिंह जी ने अमृत महोत्सव पर अपने व्याख्यान में इसी हंसी का का उल्लेख करते हुये कहा-वह हंसी बहुत कुछ कहती है,फिर भी अपने में रहती है।”
जिस दिन दिल्ली में अमृत महोत्सव में कार्यक्रम हुआ उसके अगले दिन लखनऊ में ही था मैं। उसी दिन उनका जन्मदिन भी था।कार्यक्रम एक दिन पहले ही संपन्न हो गया था। शाम को जब मैं उनसे मिलने गया तो तमाम मित्र-परिवारजन थे। दिल्ली के किस्से चल रहे थे। बताया गया कि समारोह में मुख्यमंत्री शीलादीक्षित भी आ गईं। उनके आने की सूचना नहीं थी पहले। लेकिन उनको बोलने का मौका नहीं मिला। कार्यक्रम साहित्यिक -सांस्कृतिक ही रहा। राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होने पाया।
श्रीलाल जी के अमृत महोत्सव के अवसर पर जो किताब निकली है उसमें जाहिर है कि उन पर प्रशंसात्मक लेख ही हैं।उनके घर में जब लोग किताब उलट-पलट रहे थे तो अपने खास अंदाज में वे बोले-मुझे नहीं लगता कि इन प्रशंसात्मक लेखों के लिये मुझे ज्यादा अपराधबोध महसूस करने की जरूरत है।
अपने लिखने के बारे में वे लिखते है-
नदी के किनारे जो मल्लाह रहते हैं उनके बच्चे होश सँभालने के पहले ही नदी में तैरना शुरू कर देते हैं। अपने परिवार के बुजुर्ग लेखकों की नकल में मैंने भी बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया। चौदह-पन्द्रह साल की उम्र तक मैं एक महाकाव्य (अधूरा),दो लघु उपन्यास(पूरे),कुछ नाटक और कई कहानियां लिख चुका था। नये लेखकों को सिखाने के लिये उपन्यास लेखन की कला पर एक ग्रन्थ भी लिखना शुरू किया था,पर वह दो अध्यायों बाद ही बैठ गया। वह साहित्य जितनी आसानी से लिखा गया ,उतनी ही आसानी से गायब भी हुआ। गाँव के जिस घर में मेरी किताबें और कागज -पत्तर रहते थे ,उसमें पड़ोस का एक लड़का चाचा की सेवा के बहाने आया करता था।उसे किताबें पढ़ने और चुराने का शौक था। इसीलिये धीरे-धीरे मेरी किताबों के साथ मेरी पांडुलिपियां भी लखनऊ के कबाडि़यों के हाथ पहुंच गयीं।बी.ए. तक आते-आते मैंने और दो उपन्यास लिखे,तीन कविता संग्रह दो साल पहले ही तैयार हो चुके थे।वे भी लखनऊ के कबाडियों के हाथ पड़कर पडो़सी लड़के के लिये दूध जलेबी में बदल गये।एक तरह से यह अच्छा ही हुआ,क्योंकि पूर्ण वयस्क होकर जब मैने नये सिरे से लिखना शुरू किया तो मेरी स्लेट बिल्कुल साफ थी। मैं अतीत का खुमार ढोने वाला कोई ऐरा-गैरा लेखन न था,मैं एक पुख्ता की ताजा प्रतिभा के विस्फोट की तरह साहित्य के चौराहों पर प्रकट हुआ ,यह और बात है कि यह सोचने में काफ़ी वक्त लगा कि कहां से किधर की सड़क पकड़ी जाये।श्रीलाल जी अपने बारे में बात करते समय सदैव ‘लो प्रोफाइल अटीट्यूड’ बनाये रहते हैं। भाषण देते समय भी सहज शुरुआत का अंदाज अक्सर यही रहता है- जो सार गर्भित बातें कहनी थीं वे मुझसे पहले के लोग कह चुके हैं। मेरे पास आपकी तकलीफ बढ़ाने के लिये और कोई नयी बात नहीं है फिर भी….।अब इस फिर भी के बाद जब वे मूड में आते हैं तो समय का पता नहीं चलता। हर विषय का उनका ज्ञान चमत्कृत करने वाला है।
स्मरण शक्ति गजब की है। पचास-साठ साल पहले की घटनायें ऐसे बयान करते हैं तफसील से कि लगता है अभी की घटना सुना रहे हैं। एक बार मैंने जब इसके लिये उनकी तारीफ की तो वे बोले -याददाश्त का तो ऐसा है कि मैं पचास साल पुरानी बात तो बिना भटके याद कर सकता हूं लेकिन अक्सर सर पर चश्मा लगाये हुये उसे खोजते हुये पूरा दिन भी बरबाद कर देता हूं।
श्रीलालजी की तमाम खाशियतों में एक यह भी है कि वे व्यर्थ के विवादों में अपना समय तथा ऊर्जा बरबाद करने को निहायत वाहियात-बेवकूफी का काम मानते हैं। रागदरबारी के लिखे जाने के करीब तीस साल बाद हिंदी लेखक मुद्राराक्षस ने रागदरबारी में तमाम खामियां बताते हुये इसे ग्रामीण परिवेश का उपन्यास मानने से इंकार किया। तीखी भाषा में लिखी इस अतथ्यात्मक आलोचना का खंडन करने के लिये जब श्रीलाल जी के प्रशंसको-मित्रों ने उन्हें उकसाया तो वे बोले-मैं इस वर्डी डुएल में नहीं पड़ना चाहता। मुद्राराक्षस को भी लोग जानते हैं मुझे भी।
यह बात जब मैंने आज दुबारा पढ़ी तो लगा कि हम कैसे जरा-जरा सी बात पर उचकते रहते हैं। जहां मौका मिला नहीं राशन-पानी लेकर विरोधी पर पिल पढ़ने लो अपनी बहादुरी मानते हैं। कभी-कभी इसी बहादुरी के लालच में शब्द युद्ध में अगले को पटकने की वीरता का लालीपाप चूसते हुये अपने तयशुदा कार्यक्रम से सफलता पूर्वक मीलों दूर चले जाते हैं।
श्रीलालजी की कुछ स्थापनायें एकदम नयी दृष्टि देती हैं। उनका मानना है कि देश का ज्यादातर हिस्सा ग्रामीण परिवेश से जुड़ा है लिहाजा मैला आंचल,रागदरबारी,आधा-गांव आदि उपन्यास मुख्य धारा के उपन्यास माने जाने चाहिये। जबकि अंधेर बंद कमरे आदिशहरी परिवेश के उपन्यास बहुत छोटे तबके का सच बताते हैं लिहाजा वे आंचलिक माने जाने जाने चाहिये।
श्रीलालजी के बारे में बहुत सी बाते हैं जो उनके संपर्क में आने पर ही महसूस होती हैं। नये लोगों के लिये उनके पास सदैव आशीर्वाद ,मुक्तकंठ तारीफ रहती है। अपने सम्बंधों में निहायत सहज हैं। अपनी कमियां छिपाते नहीं।
बकौल रवीन्द्र कालिया-कई बार तो इस हद तक उदार हो जायेंगे कि कहेंगे-प्रत्येक लेखक को एक मिस्ट्रेस रखनी चाहिये,किसी पर्वतीय क्षेत्र में लेखन की सुविधा होनी चाहिये।यह क्या कि पसीना बहे जा रहा है और आप झक मार रहे हैं।
श्रीलाल जी के जानने वाले बताते हैं कि वे अपने पत्नी के जितने समर्पित श्रीलालजी रहे वैसा उदाहरण उन्होंने दूसरा नहीं देखा। दोनों एक दूसरे के पूरक थे। आदर्शजीवन साथी।
जब श्रीलालजी की पत्नी श्रीमती गिरिजादेवी अस्वस्थ हुयीं तो श्रीलालजी ने बच्चों की तरह खुद उनकी पूरी देखभाल की। रात-रातभर जागकर सेवा करना। आना-जान बंद कर दिया। पीना-पिलाना बंद। रात को तो इतने चौकन्ने रहते कि जरा सा आहट या संकेत हो तो फौरन उठ खड़े होते। ऐसा पत्नीव्रत निभाया की मिसाल बन गई।
उसी बीमारी के समय के बारे में लिखते हुये कालिया जी ने लिखा है-
एक दिन मैं उनके यहां पहुंचा तो बोले-”रवीन्द्र तुमने बहुत अच्छा किया जो चले आये”। वह कुछ देर रुक कर बोले,”तुम्हारे आने से बहुत राहत मिली है,कुछ हो जाना चाहिये।”लोग श्रीलाल जी के लेखन में न जाने क्या-क्या पाते हैं।मैं उसमें अपने दफ्तर ,घर-परिवार,समाज की विसंगतियों का पोस्टपार्टम देखता हूं। श्रीलालजी से हमारे लिये उस बुजुर्ग की तरह हैं जिनसे कभी भी मुलाकात होने पर उनका सबसे पहला प्रयास यही होता है कि लगे कि हम अपने किसी हमउम्र साथी से बात कर रहे हैं। मैं कामना करता हूं कि आगे आने वाले समय वर्षों में वे स्वस्थ-सक्रिय-प्रसन्न रहें।उनका आशीष हमें वर्षों तक मिलता रहे। हम वर्षों तक उनके सानिध्य में उदात्तता को प्राप्त होते रहें।
उन्होंने जेब से पर्स निकाला। सौ -सौ के कुछ नोट रमेश को देते हुये बोले,”एक जिन ले आओ और अमुक रेश्तरां से खाना पैक करा लाओ।”
रमेश पैसा लेने में संकोच कर रहे थे,”मैं ले आता हूं।”"नहीं,नहीं”,श्रीलाल जी ने उसकी जेब में रुपये ठूंस दिये और खाने का मीनू बताने लगे।अखिलेश और रमेश रवाना हो गये।श्रीलाल जी बाहर गिरिजा जी के साथ पास जाकर बैठ गये। मैं उपाध्याय से बतियाता रहा।
“आज कुछ ज्यादा ही परेशान हैं।” उपाध्यायजी ने बताया,”इधर महीनों से ,जब से गिरिजा जी की यह हालत है,मदिरापान से परहेज ही रखते रहे।आज जाने क्या चक्कर हो रहा है।”
रमेश,अखिलेश लौटे तो श्रीलालजी उनके साथ ही भीतर आये।पानी ,ग्लास और बर्फ की व्यवस्था हुयी।नीबूं काटे गये।श्रीलालजी बोतल खोलकर रमेश को थमा दी,”डालो।”
हम लोगों ने ग्लास टकराये और सत्र शुरू हो गया,”उपाध्याय कुछ सुनाओ।”
उपाध्यायजी अतीत में चले गये। पुराने संस्मरण सुनाने लगे। गांव ,देहात और श्रीलालजी से संबंधों का एक सिलसिला। एक ताबील सफर। कोई भी बात जम नहीं रही थी- न साहित्य ,न राजनीति,न नायिका भेद।श्रीलालजी बीच-बीच में उठकर बाहर जाते और गिरिजाजी को देखकर लौट आते।कमरे में जैसे गिरिजाजी की बीमारी के बादल घिर आये थे।या कोहरा छा गया था।सिवाय ‘जिन’के कुछ भी आगे नहीं बढ़ रहा था।तूफान के पहले की खामोशी व्याप्त थी।जिन कब तले से लग गयी पता ही
न चला।
अचानक जैसेहम तूफान में घिर गये।सहसा श्रीलालजी ने गिलास खाली किया और फफककर रोने लगे। किसी की भी हिम्मत न हुई की श्रीलालजी से मुखातिब होता।यह सम्भव ही न था।वह उठे और जाकर बेडरूम में लेट गये। मैं सहमा-सहमा पीछे गया।तब तक उन्होंने सर तक रजाई ओढ़ ली थी। लग रहा था तकिया तर हो रहा है।
मेज पर खाना लगा था।श्रीलाल जी की पसंद का मीनू। मगर एक कौर भी निगलना मुहाल था।महफिल उखड़ चुकी थी।
बाहर धूप में गिरिजा जी उसी करवट लेटी थीं।चेहरे पर कोई शिकवा ,कोई शिकायत नहीं। एकदम जैसे कोई शिशु निर्विकार लेटा हो। दोनों नर्सें वैसेही तैनात थीं।हम लोग उपाध्यायजीसे विदा लेकर बस अड्डे की तरफ चल दिये।
Posted in संस्मरण | 24 Responses
प्रत्यक्षा
बहुत बढ़िया संस्मरण लिखा है। मैं भी श्रीलाल शुक्ल जी का प्रशंसक हूँ। ग्रामीण परिवेश के उपन्यासों के बारे में उनकी बात बिल्कुल सत्य है। अभी भी भारत की अधिकांश जनता गाँवों में ही रहती है। आज कल हिन्दी या अंग्रेज़ी में जो भी लिखा जा रहा है, आंचलिक है। अरुन्धती राय या रोहिन्तन मिश्त्री या ऐसे ही और अंग्रेज़ी में लिखने वाले लोग जो लिख रहे हैं, आंचलिक ही है। उसका दायरा बहुत छोटा है।
आप यह लेख लिखने का मन तो बना ही चुके थे, मेरे अनुरोध पर इतनी जल्दी लिखने के लिए धन्यवाद. जैसा उस दिन कहा आपके ब्लाग के जरिए हम तो बोतल मे गँगा पी रहे हैं यहाँ विदेश मे बैठे बैठे. मजा आ गया
तो लिख ही डालें
प्रत्यक्षा
आशीष
सुनील
itna achcha lekhan maine aaj tak nahi dekha ye main vishvas ke saath kah raha hun