Monday, January 30, 2006

श्रीलाल शुक्ल-विरल सहजता के मालिक

http://web.archive.org/web/20110926082037/http://hindini.com/fursatiya/archives/103

श्रीलाल शुक्ल-विरल सहजता के मालिक

कल शनिवार को जब दोपहर आफिस से घर आया तो डाक से आया किताब का एक पैकेट मेरा इंतजार कर रहा था। सोचा शायद देबाशीष ने भेजा होगा। पैकेट खोलते हुये सोच भी रहा था यार,ये इतनी मोटी किताब कहां से होगी जिन्दगी ई-मेल। शाश्वत धिक्कारबोध भी मुंह बिराने लगा कि नेताओं की तरह घोषणा तो कर दिये अभी तक किताबें भेजी नहीं। लेकिन जब सिमसिम खुला तो मजा बढ़ गया। धिक्कारबोध भी भाग गया जैसे सिपाही को देखकर बिना हफ्ता दिये चोरी करने वाला भागता है।
किताब हमारे पसंदीदा लेखक श्रीलाल शुक्ल के ८१ वें जन्मदिन के पर दिल्ली में आयोजित अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित हुई थी-श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन। प्रसंशकों के संस्मरण,लेख,श्रीलाल शुक्लजी लेख, आत्मकथ्य ,साक्षात्कार तथा तमाम फोटुओं से युक्त ५६३ पेज की यह किताब संग्रहणीय है। मेरा भी एक लेख इस संग्रह में है लिहाजा हमें भी एक प्रति भेजी गई। कल जब से किताब मिली तबसे इसे उलट-पुलट रहे हैं।
श्रीलालजी का जन्मदिन साल के अंतिम दिन पड़ता है। करीब ७-८ साल पहले मैं साल के आखिरी दिनों में लखनऊ में ही था। जहां रुका था वहीं पास में श्रीलालजी रहते हैं। पता था ही पास में ,पहुंच गये मिलने। मय कैमेरा। कुछ देर बातें हुईं। वही जो आमतौर पर लेखक तथा प्रशंसक के बीच होती हैं। चलते समय फोटो खींचा तो बोले- इसकी कापी हमें जरूर भेजियेगा। शाहजहांपुर वापस पहुंचकर याद आया कि जिस दिन मुलाकात हुई थी उस दिन तो उनका जन्मदिन था। फोटो के साथ जन्मदिन की शुभकामनायें भी भेजीं-बिलेटड।

श्रीलाल शुक्ल
तबसे जब भी लखनऊ गया श्रीलालजी से जरूर मिला। कभी-कभी मुझे यह भी लगता कि उनसे मिलकर मैं उन्हें तंग ही तो करता हूं। क्या हक है मुझे एक बुजुर्ग को परेशान करने का!लेकिन अब इसका क्या किया जाये कि मेरे इन ज्ञानबोध या अपराधबोध को मेरी उनसे मिलने की उत्कंठा हमेशा पटक देती। और यह भी कि जितनी देर मैं उनके सानिध्य में रहता मुझे लगता कि मैं भी क्या फिजूल की बातें सोचता हूं। ये बुजुर्गवार तो हमसे मिलकर प्रसन्न हो रहे हैं।
इसी तरह का वाकया ढाई साल पहले हुआ। इन्द्र अवस्थी भारत आये थे-आवारगी करने। हम मौरावां से लखनऊ गये। वहां पहले राज्यपाल विष्णुकान्त शाष्त्री जी से मिले। उनके इन्द्र के परिवार के पारिवारिक सम्बंध थे। शाष्त्रीजी ने हमारे बच्चों से कहा-कवितायें सुनाओ। बच्चों ने जब सुनायी तो खुश हुये। अपने पेन निकाल कर दिया-आशीर्वाद स्वरूप। शाष्त्री से मुलाकात के बाद अवस्थी बोले-चलो शुकुल जी से मिला जाये। हमने फोने किया तो पता चला कि वे विश्व हिंदी सम्मेलन में जाने के
लिये अगले दिन फ्लाइट पकड़ने के लिये सामान सजा रहे थे।हमारे फोन करने पर जिस तरह की विवशता तथा व्यस्तता श्रीलाल जी फोन पर दिखाई उससे तो लगा कि शायद मुलाकात सम्भव न हो। लेकिन उस आपाधापी में भी उनसे मुलाकात हुई।हम लौटे तो यह महसूस कर रहे थे कि उनकी तैयारी में विघ्न पड़ा लेकिन वे बार-बार यही कह रहे थे-अफसोस कि बातचीत के लिये समय न मिल पाया लेकिन अगली बार आइये तब इत्मिनान से बात करेंगें।
अब जब भी जाता हूं तो वे अवस्थी के हाल-चाल जरूर पूछते हैं-आपके अमेरिका वाले अवस्थीजी कैसे हैं?
श्रीलालजी से मुलाकात करते समय यह बिल्कुल नहीं आभास होता कि हम किसी बहुत बड़े लेखक से मिल रहे हैं। सहज होकर बात करते हैं। कहीं से अपनी विद्वता का आतंक जमाने का कोई प्रयास नहीं दिखता। यह उनका बड़प्पन है कि बोलने-लिखने में यथासम्भव अपनी महानता झाड़ के किनारे रखने के बाद ही बात शुरू करते हैं। बोलने-लिखने में कभी अपनी डींगे नहीं हांकते। जब कोई ज्यादा तारीफ करने लगता है तब वे जितनी जल्दी हो सकता है प्रसंग बदलने का प्रयास करते हैं। रागदराबारी के बारे में अक्सर कहते हैं -अरे वो तो मेरा बदमाशी का लेखन है।

लेख का ड्राफ्ट
जिस रागदरबारी को वो अपना बदमासी का लेखन बताते हैं उसको लिखने में उनको ६-७ साल लगे। तीन बार लिखा गया । बाद में जब शासन से प्रकासन की अनुमति मिलने में देर लगी तो सोचा कि नौकरी छोड़ देंगे। अज्ञेयजी के माध्यम से दिनमान में संपादक होने की बात तय हो गयीं तो (श्रीलालजी ने हंसते हुये बताया) थोड़ा नक्शेबाजी की जाये। सरकार के सचिव को प्रकाशन की अनुमति में अनावश्यक विलम्ब को लेकर व्यंग्यात्मक पत्र लिखा। शायद इसी का परिणाम हुआ कि तुरंत अनुमति मिल गई।नौकरी बची रही।बाद में साहित्य अकादमी का पुरुस्कार भी मिला इस पर।
अभी पिछले साल जब श्रीलालजी तफशील से यह नक्शेबाजी का किस्सा सुना रहे थे तथा हंसते जा रहे थे तो लग रहा था कि कोई बच्चा अपनी शरारतों के किस्से सुना रहा हो।
श्रीलालजी बतियाते हुये खुलकर हंसते हैं। कपटरहित,निर्मल हंसी। नामवरसिंह जी ने अमृत महोत्सव पर अपने व्याख्यान में इसी हंसी का का उल्लेख करते हुये कहा-वह हंसी बहुत कुछ कहती है,फिर भी अपने में रहती है।”
जिस दिन दिल्ली में अमृत महोत्सव में कार्यक्रम हुआ उसके अगले दिन लखनऊ में ही था मैं। उसी दिन उनका जन्मदिन भी था।कार्यक्रम एक दिन पहले ही संपन्न हो गया था। शाम को जब मैं उनसे मिलने गया तो तमाम मित्र-परिवारजन थे। दिल्ली के किस्से चल रहे थे। बताया गया कि समारोह में मुख्यमंत्री शीलादीक्षित भी आ गईं। उनके आने की सूचना नहीं थी पहले। लेकिन उनको बोलने का मौका नहीं मिला। कार्यक्रम साहित्यिक -सांस्कृतिक ही रहा। राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होने पाया।
श्रीलाल शुक्ल का घर
श्रीलाल जी के अमृत महोत्सव के अवसर पर जो किताब निकली है उसमें जाहिर है कि उन पर प्रशंसात्मक लेख ही हैं।उनके घर में जब लोग किताब उलट-पलट रहे थे तो अपने खास अंदाज में वे बोले-मुझे नहीं लगता कि इन प्रशंसात्मक लेखों के लिये मुझे ज्यादा अपराधबोध महसूस करने की जरूरत है।
अपने लिखने के बारे में वे लिखते है-

नदी के किनारे जो मल्लाह रहते हैं उनके बच्चे होश सँभालने के पहले ही नदी में तैरना शुरू कर देते हैं। अपने परिवार के बुजुर्ग लेखकों की नकल में मैंने भी बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया। चौदह-पन्द्रह साल की उम्र तक मैं एक महाकाव्य (अधूरा),दो लघु उपन्यास(पूरे),कुछ नाटक और कई कहानियां लिख चुका था। नये लेखकों को सिखाने के लिये उपन्यास लेखन की कला पर एक ग्रन्थ भी लिखना शुरू किया था,पर वह दो अध्यायों बाद ही बैठ गया। वह साहित्य जितनी आसानी से लिखा गया ,उतनी ही आसानी से गायब भी हुआ। गाँव के जिस घर में मेरी किताबें और कागज -पत्तर रहते थे ,उसमें पड़ोस का एक लड़का चाचा की सेवा के बहाने आया करता था।उसे किताबें पढ़ने और चुराने का शौक था। इसीलिये धीरे-धीरे मेरी किताबों के साथ मेरी पांडुलिपियां भी लखनऊ के कबाडि़यों के हाथ पहुंच गयीं।बी.ए. तक आते-आते मैंने और दो उपन्यास लिखे,तीन कविता संग्रह दो साल पहले ही तैयार हो चुके थे।वे भी लखनऊ के कबाडियों के हाथ पड़कर पडो़सी लड़के के लिये दूध जलेबी में बदल गये।एक तरह से यह अच्छा ही हुआ,क्योंकि पूर्ण वयस्क होकर जब मैने नये सिरे से लिखना शुरू किया तो मेरी स्लेट बिल्कुल साफ थी। मैं अतीत का खुमार ढोने वाला कोई ऐरा-गैरा लेखन न था,मैं एक पुख्ता की ताजा प्रतिभा के विस्फोट की तरह साहित्य के चौराहों पर प्रकट हुआ ,यह और बात है कि यह सोचने में काफ़ी वक्त लगा कि कहां से किधर की सड़क पकड़ी जाये।
श्रीलाल जी अपने बारे में बात करते समय सदैव ‘लो प्रोफाइल अटीट्यूड’ बनाये रहते हैं। भाषण देते समय भी सहज शुरुआत का अंदाज अक्सर यही रहता है- जो सार गर्भित बातें कहनी थीं वे मुझसे पहले के लोग कह चुके हैं। मेरे पास आपकी तकलीफ बढ़ाने के लिये और कोई नयी बात नहीं है फिर भी….।अब इस फिर भी के बाद जब वे मूड में आते हैं तो समय का पता नहीं चलता। हर विषय का उनका ज्ञान चमत्कृत करने वाला है।
स्मरण शक्ति गजब की है। पचास-साठ साल पहले की घटनायें ऐसे बयान करते हैं तफसील से कि लगता है अभी की घटना सुना रहे हैं। एक बार मैंने जब इसके लिये उनकी तारीफ की तो वे बोले -याददाश्त का तो ऐसा है कि मैं पचास साल पुरानी बात तो बिना भटके याद कर सकता हूं लेकिन अक्सर सर पर चश्मा लगाये हुये उसे खोजते हुये पूरा दिन भी बरबाद कर देता हूं।
श्रीलालजी की तमाम खाशियतों में एक यह भी है कि वे व्यर्थ के विवादों में अपना समय तथा ऊर्जा बरबाद करने को निहायत वाहियात-बेवकूफी का काम मानते हैं। रागदरबारी के लिखे जाने के करीब तीस साल बाद हिंदी लेखक मुद्राराक्षस ने रागदरबारी में तमाम खामियां बताते हुये इसे ग्रामीण परिवेश का उपन्यास मानने से इंकार किया। तीखी भाषा में लिखी इस अतथ्यात्मक आलोचना का खंडन करने के लिये जब श्रीलाल जी के प्रशंसको-मित्रों ने उन्हें उकसाया तो वे बोले-मैं इस वर्डी डुएल में नहीं पड़ना चाहता। मुद्राराक्षस को भी लोग जानते हैं मुझे भी।
यह बात जब मैंने आज दुबारा पढ़ी तो लगा कि हम कैसे जरा-जरा सी बात पर उचकते रहते हैं। जहां मौका मिला नहीं राशन-पानी लेकर विरोधी पर पिल पढ़ने लो अपनी बहादुरी मानते हैं। कभी-कभी इसी बहादुरी के लालच में शब्द युद्ध में अगले को पटकने की वीरता का लालीपाप चूसते हुये अपने तयशुदा कार्यक्रम से सफलता पूर्वक मीलों दूर चले जाते हैं।
श्रीलालजी की कुछ स्थापनायें एकदम नयी दृष्टि देती हैं। उनका मानना है कि देश का ज्यादातर हिस्सा ग्रामीण परिवेश से जुड़ा है लिहाजा मैला आंचल,रागदरबारी,आधा-गांव आदि उपन्यास मुख्य धारा के उपन्यास माने जाने चाहिये। जबकि अंधेर बंद कमरे आदिशहरी परिवेश के उपन्यास बहुत छोटे तबके का सच बताते हैं लिहाजा वे आंचलिक माने जाने जाने चाहिये।
श्रीलालजी के बारे में बहुत सी बाते हैं जो उनके संपर्क में आने पर ही महसूस होती हैं। नये लोगों के लिये उनके पास सदैव आशीर्वाद ,मुक्तकंठ तारीफ रहती है। अपने सम्बंधों में निहायत सहज हैं। अपनी कमियां छिपाते नहीं।
बकौल रवीन्द्र कालिया-कई बार तो इस हद तक उदार हो जायेंगे कि कहेंगे-प्रत्येक लेखक को एक मिस्ट्रेस रखनी चाहिये,किसी पर्वतीय क्षेत्र में लेखन की सुविधा होनी चाहिये।यह क्या कि पसीना बहे जा रहा है और आप झक मार रहे हैं।
श्रीलाल जी के जानने वाले बताते हैं कि वे अपने पत्नी के जितने समर्पित श्रीलालजी रहे वैसा उदाहरण उन्होंने दूसरा नहीं देखा। दोनों एक दूसरे के पूरक थे। आदर्शजीवन साथी।
जब श्रीलालजी की पत्नी श्रीमती गिरिजादेवी अस्वस्थ हुयीं तो श्रीलालजी ने बच्चों की तरह खुद उनकी पूरी देखभाल की। रात-रातभर जागकर सेवा करना। आना-जान बंद कर दिया। पीना-पिलाना बंद। रात को तो इतने चौकन्ने रहते कि जरा सा आहट या संकेत हो तो फौरन उठ खड़े होते। ऐसा पत्नीव्रत निभाया की मिसाल बन गई।
उसी बीमारी के समय के बारे में लिखते हुये कालिया जी ने लिखा है-
एक दिन मैं उनके यहां पहुंचा तो बोले-”रवीन्द्र तुमने बहुत अच्छा किया जो चले आये”। वह कुछ देर रुक कर बोले,”तुम्हारे आने से बहुत राहत मिली है,कुछ हो जाना चाहिये।”
उन्होंने जेब से पर्स निकाला। सौ -सौ के कुछ नोट रमेश को देते हुये बोले,”एक जिन ले आओ और अमुक रेश्तरां से खाना पैक करा लाओ।”
रमेश पैसा लेने में संकोच कर रहे थे,”मैं ले आता हूं।”"नहीं,नहीं”,श्रीलाल जी ने उसकी जेब में रुपये ठूंस दिये और खाने का मीनू बताने लगे।अखिलेश और रमेश रवाना हो गये।श्रीलाल जी बाहर गिरिजा जी के साथ पास जाकर बैठ गये। मैं उपाध्याय से बतियाता रहा।
“आज कुछ ज्यादा ही परेशान हैं।” उपाध्यायजी ने बताया,”इधर महीनों से ,जब से गिरिजा जी की यह हालत है,मदिरापान से परहेज ही रखते रहे।आज जाने क्या चक्कर हो रहा है।”
रमेश,अखिलेश लौटे तो श्रीलालजी उनके साथ ही भीतर आये।पानी ,ग्लास और बर्फ की व्यवस्था हुयी।नीबूं काटे गये।श्रीलालजी बोतल खोलकर रमेश को थमा दी,”डालो।”
हम लोगों ने ग्लास टकराये और सत्र शुरू हो गया,”उपाध्याय कुछ सुनाओ।”
उपाध्यायजी अतीत में चले गये। पुराने संस्मरण सुनाने लगे। गांव ,देहात और श्रीलालजी से संबंधों का एक सिलसिला। एक ताबील सफर। कोई भी बात जम नहीं रही थी- न साहित्य ,न राजनीति,न नायिका भेद।श्रीलालजी बीच-बीच में उठकर बाहर जाते और गिरिजाजी को देखकर लौट आते।कमरे में जैसे गिरिजाजी की बीमारी के बादल घिर आये थे।या कोहरा छा गया था।सिवाय ‘जिन’के कुछ भी आगे नहीं बढ़ रहा था।तूफान के पहले की खामोशी व्याप्त थी।जिन कब तले से लग गयी पता ही
न चला।
अचानक जैसेहम तूफान में घिर गये।सहसा श्रीलालजी ने गिलास खाली किया और फफककर रोने लगे। किसी की भी हिम्मत न हुई की श्रीलालजी से मुखातिब होता।यह सम्भव ही न था।वह उठे और जाकर बेडरूम में लेट गये। मैं सहमा-सहमा पीछे गया।तब तक उन्होंने सर तक रजाई ओढ़ ली थी। लग रहा था तकिया तर हो रहा है।
मेज पर खाना लगा था।श्रीलाल जी की पसंद का मीनू। मगर एक कौर भी निगलना मुहाल था।महफिल उखड़ चुकी थी।
बाहर धूप में गिरिजा जी उसी करवट लेटी थीं।चेहरे पर कोई शिकवा ,कोई शिकायत नहीं। एकदम जैसे कोई शिशु निर्विकार लेटा हो। दोनों नर्सें वैसेही तैनात थीं।हम लोग उपाध्यायजीसे विदा लेकर बस अड्डे की तरफ चल दिये।
लोग श्रीलाल जी के लेखन में न जाने क्या-क्या पाते हैं।मैं उसमें अपने दफ्तर ,घर-परिवार,समाज की विसंगतियों का पोस्टपार्टम देखता हूं। श्रीलालजी से हमारे लिये उस बुजुर्ग की तरह हैं जिनसे कभी भी मुलाकात होने पर उनका सबसे पहला प्रयास यही होता है कि लगे कि हम अपने किसी हमउम्र साथी से बात कर रहे हैं। मैं कामना करता हूं कि आगे आने वाले समय वर्षों में वे स्वस्थ-सक्रिय-प्रसन्न रहें।उनका आशीष हमें वर्षों तक मिलता रहे। हम वर्षों तक उनके सानिध्य में उदात्तता को प्राप्त होते रहें।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

24 responses to “श्रीलाल शुक्ल-विरल सहजता के मालिक”

  1. प्रत्यक्षा
    राग दरबारी पहली बार पढा जब दसवीं पास की थी. जिस दिन आई सी एस सी का रिसल्ट निकला उस वक्त राग दरबारी हाथ में थी. बाद में फिर उसे पढा, कई बार. श्रीलाल जी के बारे में आज पढ कर बहुत अच्छा लगा.
    प्रत्यक्षा
  2. hindi blogger
    आपको श्रीलाल जी से बातचीत का इतने मौक़े मिले हैं, भाग्यशाली कहा जा सकता है आपको. इतना सुंदर संस्मरण लिखने के लिए धन्यवाद!
  3. सारिका सक्सेना
    बहुत अच्छा संसमरण लिखा है। हमने श्री लाल शुक्ल जी को कभी पढा तो नहीं पर मन में बेहद उत्कंठा है उन्हें पढने की।
  4. Laxmi N. Gupta
    शुक्ल जी,
    बहुत बढ़िया संस्मरण लिखा है। मैं भी श्रीलाल शुक्ल जी का प्रशंसक हूँ। ग्रामीण परिवेश के उपन्यासों के बारे में उनकी बात बिल्कुल सत्य है। अभी भी भारत की अधिकांश जनता गाँवों में ही रहती है। आज कल हिन्दी या अंग्रेज़ी में जो भी लिखा जा रहा है, आंचलिक है। अरुन्धती राय या रोहिन्तन मिश्त्री या ऐसे ही और अंग्रेज़ी में लिखने वाले लोग जो लिख रहे हैं, आंचलिक ही है। उसका दायरा बहुत छोटा है।
  5. ई-स्वामी
    जय हो गुरुदेव्!
    आप यह लेख लिखने का मन तो बना ही चुके थे, मेरे अनुरोध पर इतनी जल्दी लिखने के लिए धन्यवाद. जैसा उस दिन कहा आपके ब्लाग के जरिए हम तो बोतल मे गँगा पी रहे हैं यहाँ विदेश मे बैठे बैठे. मजा आ गया :)
  6. Tarun
    बहुत बढ़िया संस्मरण लिखा है श्रीलाल शुक्ल जी का. राग दरबारी के बारे मे सुना था आज उसके लेखक के बारे मे पढ भी लिया. ये राग दरबारी क्या वही है जिस नाम का ऐक सीरियल भी आता था.
  7. Tarun
    ये मै भी मानता ह क्योकि किताब पढ़ते समय आप अपने अनुसार चरित् बुनते है, आप ही डायरेक्टर होते है और आप ही दर्शक.
  8. प्रत्यक्षा
    आपको टैग नहीं किया,क्योंकि आप पहले ही पढ चुके.
    तो लिख ही डालें :-)
    प्रत्यक्षा
  9. आशीष
    आपको यहां शिकार बनाया गया
    आशीष
  10. सुनील
    अनूप जी, बहुत अच्छा लिखा है. श्रीलाल शुक्ल से इस मुलाकात के लिए बहुत धन्यवाद. इन दिनों कुछ भी लिखने पढ़ने के लिए समय मुश्किल से ही मिल पाता है. काफ़ी दिनों के बाद ऐसा पढ़ा जिसे दुबारा से पढ़ने का जी करता है.
    सुनील
  11. Tarun
    आप को यहाँ पर शिकार बनाया जाता है।
  12. फ़ुरसतिया » नेतागिरी,राजनीति और नेता
    [...] अनुगूँज के विषय नेतागिरी,राजनीति और नेता पर कुछ लिखने के पहले देश प्रख्यात व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल के लेख दि गैंड मोटर ड्राइविंग स्कूल के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। [...]
  13. फ़ुरसतिया » लिखिये तो छपाइये भी न!
    [...] शनिवार की शाम को मैं श्रीलाल शुक्लजी से मिलने उनके घर गया। पता चला विश्वविद्यालय गये हैं किसी किताब का विमोचन करने। अस्वथता के कारण बहुत दिन बाद घर से निकले थे। अगले दिन का अखबार देखा तो उनका वक्तव्य छपा था जिसका सार था – आजकल अच्छी कहानियां महिलायें ही लिख रही हैं। अगले दिन सबेरे ही मैं चला आया तो मुलाकात नहीं हो पायी लेकिन कल फोन से बात हुयी तो पूछा कि अगली बार कब आयेंगे लखनऊओ! मैने कहा आपके जन्मदिन पर(३१ दिसम्बर) तो अवश्य आऊंगा उसके पहले का कुछ तय नहीं। [...]
  14. फ़ुरसतिया » श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात
    [...] हम पिछ्ले माह जब लखनऊ गये थे तो एक बार फिर श्रीलाल शुक्ल जी से मिले। [...]
  15. मैथिली
    श्रीलाल शुक्ल जी एक मुलाकात जबर्दस्त रही. इनकी सारी पुस्तकों की सूची कहीं मिल सकती है?
  16. फुरसतिया » मैं लिखता इसलिये हूं कि…
    [...] (आज प्रमोद्जी ने श्रीलाल शुक्लजी का लेख पढ़वाकर हमें भी उकसा दिया। इसी उकसावे के चलते मैंने शुक्लजी के लेखों के संकलन की किताब जहालत के पचास साल में शामिल इस लेख को टाइप कर डाला। इसे टाइप करते हुये यह भी सोच रहा था कि इस बार श्रीलालजी के जन्मदिन (31 दिसम्बर)के पहले रागदरबारी को पूरा टीप कर नेट पर डाल दूं) [...]
  17. फुरसतिया » श्रीलाल शुक्ल- एक और संस्मरण
    [...] ज्ञानदत्तजी ने श्रीलाल शुक्ल के सबसे छोटे दामाद सुनील माथुरजी से मुलाकात का जिक्र किया। सुनील जी की मुस्कान देख कर मन प्रमुदित हो गया। प्रियंकरजी ने उनके सेंस आफ़ हुयूमर को जमताऊ बताते हुये अच्छे नंबर दे दिये। जिस किताब की जिक्र ज्ञानजी ने अपनी पोस्ट में किया वह मेरे पास है। यह किताब श्रीलालजी के अस्सीवें जन्मदिन पर उनसे जुड़े रहे लेखकों, मित्रों, आलोचकों,पाठकों ,घरवालों के बेहतरीन संस्मरण हैं। मनोरम फोटो हैं। श्रीलाल शुक्ल जी के कुछ इंटरव्यू तथा लेख भी हैं। श्रीलाल जी के बारे में मेरा भी एक लेख विरल सहजता के मालिक शीर्षक से इसमें शामिल है। [...]
  18. shankhdhar
    Ragdarbari is a dynamic metaphor of india.
  19. Rakesh
    bahut achhee lagi roj padhata hoon.
  20. फुरसतिया » हमारा समाज ‘एन्टी ह्यूमर’ है
    [...] श्रीलाल शुक्ल जी के पिछले महीने एक-कमरे से दूसरे कमरे जाते हुये गिरने से कमर में फ़्रैक्चर हो गया। सो वे आजकल बिस्तर पर हैं। [...]
  21. Anil Sharma
    maine shukla ji ka raag darbari jab padha jab main B.tech kar chuka tha or padhne ke baad ye mujhe itna achcha laga ki ise main ab tak 5 baar padh chuka hun or jab bhi main thoda udaas sa rahta hun raag darbari padh leta hun
    itna achcha lekhan maine aaj tak nahi dekha ye main vishvas ke saath kah raha hun
  22. Sanjeev Kumar
    bahut hi achha sansmaran likha hai.. raag darbari padne ke baad shukla ji ke baare me janne ki badi utkantha thi…aaj kuch jhalkiyan milin unke swabhav ke baare me.. bahut bahut dhanywad is sansmaran ke liye….
  23. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 1.सूरज निकला-चिड़ियां बोलीं 2.जो मजा बनारस में वो न पेरिस में न फारस में 3.प्रशस्त पुण्य पंथ है 4.देबाशीष चक्रबर्ती से बातचीत 5.कविता के बहाने सांड़ से गप्प 6.बिहार वाया बनारस 7.श्रीलाल शुक्ल-विरल सहजता के मालिक [...]

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Friday, January 27, 2006

बिहार वाया बनारस

http://web.archive.org/web/20110926115601/http://hindini.com/fursatiya/archives/102

[हम इधर आशीष को शादी करने लिये उकसा रहे हैं उधर वे हमें साइकिल यात्रा लिखने के लिये कोंच रहे हैं। कालीचरन भी आशीष की आवाज में हवा भर रहे हैं। तो पढ़ा जाये किस्सा यायावरी का।]

बनारस से बाद में भी संपर्क बना रहा। तमाम यादें भी जुड़ीं। जब हम बाद में बनारस पढ़ने के लिये गये तो हमारे पास समय इफरात में था। हमने पूरा समय मौज-मजे में गुजारा वहां।बनारस ,खासकर ‘लंकेटिंग’ की कुछ झलकियांकाशीनाथ सिंह के जनवरी के हंस में पढ़ सकते हैं।

बनारस का ही एक वाकया याद आ रहा है। हम एम टेक में पढ़ रहे थे। नौकरी के लिये इंटरव्यू कम्पटीशन वगैरह के लिये भी तैयारी करते रहते थे। गुरुओं से संबंध कुछ दोस्ताना सा हो गया था। कुछ गुरुजन तो अबे-तबे की अनौपचारिकता तक आ गये थे। चाय,पान-वान के लिये भी पूछा-पुछउवल होने लगी थी। लेकिन यह तो बाद की बात है।

शुरू के दिनों की बात है। हमें एम टेक में स्कालरशिप मिलती थी।उन दिनों एक हजार रुपये महीना।घर से पैसे आने बंद हो गये थे कि अब तो खर्चा खुदै चलायेगा विद्यार्थी। लेकिन पहली स्कालरशिप मिलने में देर हो गई। हमारे पास के पैसे खतम होने लगे।हम रोज जाते क्लर्क के पास लेकिन बाबूजी बहुत दिन तक सफलता पूर्वक टालते रहे।

एक दिन कुछ ज्यादा ही हो गया। पूछने पर पता नहीं क्या बाते हुईं याद नहीं लेकिन बात बहस के पाले में चली गई तथा बाबू जी के मुंह से निकला -”हम आपके नौकर नहीं हैं।

यह सुनते ही हमारे बलियाटिक साथी यादवजी का धैर्य चुक गया। वे दहाड़ते हुये से बोले-
"सुनो,तुम हमारे नौकर हो और वो सामने वाले कमरे में जो हेड आफ डिपार्टमेंट बैठे हैं वो भी हमारे नौकर हैं।"
समझने में कोई कमी न रह जाये इसलिये यादव ने अपनी बात का ‘हिंदी अनुवाद’ भी करके करके बताया-
“हम यहां इस लिये नहीं पढ़ने आते हैं कि तुम यहां नौकरी करते हो। तुम्हें नौकरी यहां इसलिये मिली है क्योंकि हम यहां पढ़ते हैं। हमारे लिये तुम रखे गये हो।हम तुम्हारे लिये नहीं आये हैं।”

कहना न होगा कि इस व्याख्या का तुरंत लाभ हुआ। हमें अगले दिन अपनी स्कालरशिप मिल गई।
तबसे से हम हजारों बार लोगों का यादवजी का उल्लेख करके बता चुके हैं- संस्था के लिये कर्मचारी रखे गये हैं। कर्मचारियों के लिये उत्पादन संस्था नहीं खुली है।

घटना की शाम जब हम हल्ले-गुल्ले के परिणाम के बारे में आशंकायें जता रहे थे तब यादवजी ने सैंकड़ों बार सुनाया सुभाषित हमें फिर से झिला दिया-

"बलिया जिला घर बा ,त कउन बात के डर बा।"
मालवीय पुल से गंगा नदी
मालवीय पुल से गंगा नदी
बनारस से हम सबेरे ही नास्ता करके चल दिये।बनारस की संकरी गलियां दिन चढ़ने के साथ भीड़ भरी होने लगती हैं। थीं।बीएचयू से हमारा रास्ता गंगा के किनारे की सामान्तर सड़क से था। इसी के किनारे तमाम मंदिर बने हैं।सबेरा होने के कारण मंदिरों से शंख-घंटे-घड़ियाल की आवाजें आ रहीं बाबा विश्वनाथ मंदिर भी यहीं बना है। मध्यकाल में यह मंदिर अलाउद्दीन खिलजी ने तुड़वा कर इसके सामने मस्जिद बनवा दी थी।बाद में मंदिर का पुनर्निमाण कराया गया।मंदिर-मस्जिद आमने -सामने होने के कारण तथा तोड़-फोड़ के इतिहास के कारण त्योहारों-पर्वों पर यहां तनाव तथा चौकसी बढ़ जाती है।

इसीलिये हमारे कनपुरिया शायर-गीतकार अंसार कम्बरी कहते हैं:-
शायर हूँ कोई ताजा गज़ल सोच रहा हूँ,
मस्जिद में पुजारी हो मंदिर में मौलवी,
हो किस तरह मुमकिन ये जतन सोच रहा हूँ।
जीटी रोड पर बनारस से निकलकर हम मालवीय पुल पर आ गये। वहां से गंगा को फिर से देखा। शहर के सारे घाटों को गोलाई में समेटे गंगा पुल के नीचे बह रही थीं। सबेरे का समय।हल्के बादल छाये थे। घाट बहुत खूबसूरत लग रहे थे। गंगा को देखकर हमें कविता पंक्तियां याद आ रहीं थीं:-

लहरे उर पर कोमल कुंतल,लहराता ताल तरल सुंदर।
मनोरम दृश्यदेखकर मन कर रहा था कि यहीं रुके रहें। लेकिन रुकना हमारा धर्म नहीं है। यात्रा ही हमारी मंजिल है(पंकज बाबू नोट करें कि ये डायलाग हमने २३ साल पहले डायरी में लिखा था । किसी शहजादी से टोपा नहीं था। सवारी का अंतर जरूर है।उसमें हम क्या कर सकते हैं!)

कुछ दूर जाने पर बारिश शुरू हो गयी । हमने अपने रेनकोट निकाल लिये। पहली बार प्लास्टिक के रेनकोट का उपयोग होने जा रहा था। जहां हम रेनकोट पहन रहे थे वहीं एक उत्साही सज्जन ने हमें रोककर चाय पिलाई।उनसे विदा लेकर हम मुगलसराय रेलवे स्टेशन देखने गये।

स्टेशन देखकर गोलानी बोला-यहां देखने को है क्या? पास में खड़ा एक टैक्सी ड्राइवर यह सुनकर उदास हो गया। वह फिर काफी देर तक मुगलसराय की खासियत बताता रहा।

स्टेशन पर तमाम जगह लिखा था-बिना टिकट यात्रा उन्मूलन हमारा उद्देश्य है। हमें लगा हम लोग उन्मूलन को उन्मूलित करके बिना टिकट यात्रा का उद्देश्य पूरा करने में जुटे रहते हैं।

मुगलसराय स्टेशन से २६ किमी दूर उप्र की सीमा समाप्त हो गई। हम बिहार में प्रवेश करने वाले थे।

राज्य सीमा पर

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जिंदगी में पहली बार अपने प्रदेश से बाहर दूसरे प्रदेश में प्रवेश कर रहे थे।बिहार के बारे में हमारे नकारात्मक बातें हमने सुन रखीं थी। तमाम चुटकुले। तमाम कमियां। सबसे बदहाल राज्य । आजादी के बाद का सबसे कुशल प्रशासन वाला राज्य भ्रष्टाचार,अशिक्षा,गुंडागर्दी,भाई-भतीजावाद,जातिवाद के लिये बदनाम हो चुका था।

बिहार में घुसते ही हमें वहां की हालत का अंदाजा होने लगा।सड़कें हेमामालिनी के गाल की चिकनेपन से बहुत दूर मुहांसों -चेचक के गढ्ढों से युक्त थीं। हमारे सामने एक प्राइवेट बस रुकी। लोग उसमें चढ़ने के लिये लपके। पहले छत पर बैठे । जब बस की छत पूरी तरह से ठसाठस भर गई तब बची सवारियां मजबूरन अंदर बैठीं।

बिहार की बस

बिहार की बस
सड़क के दोनों तरफ कैमूर की पहाड़ियां फैली हुईं थीं। ज्यों-ज्यों हम सासाराम के नजदीक आते जा रहे थे,पहाड़ियां साफ होती जा रहीं थीं। अभी तक हम बिहार में हम जितने भी लोगों से मिले थे उन सबका व्यवहार हमारे प्रति बहुत अच्छा था। लेकिन सब लोग हमें आगे संभलकर रहने की हिदायत दे रहे थे । रास्ते में ढोर (जानवर)चराने वाले तमाम छोटे-छोटे बच्चे मिले। पढ़ने- लिखने की उमर में बच्चे स्कूल का मुंह देखने से वंचित जानवर चरा रहे थे। देखकर दुख हुआ।
कुछ सालों पहले सरकार ने यह अनौपचारिक शिक्षा परियोजना के नाम से एक योजना चलाई थी। इसके तहत अनुदेशकों की मानदेय पर नियुक्ति हुई थी। यह योजना थी कि जो बच्चे किसी कारणवश स्कूल नहीं जा पाते तथा काम-धाम करने करने लगते हैं उनको उनके कार्यस्थल के पास ही दिन में उनकी सुविधानुसार दो घंटे पढ़ाया जाये। किताबें,कागज आदि सब मुफ्त में था। दो साल बाद कक्षा पांच के समकक्ष शिक्षा देने की योजना थी।

अन्य तमाम योजनाओं की तरह यह योजना भी अफसल साबित हुयीं जिनलोगों को इसके कार्यान्वयन के लिये चयकित किया गया था उन्होंने नाम के अनुरूप पढ़ाने की कोई औपचारिकता नहीं दिखाई।अंतत: विश्वबैंक ने योजना की गति देखकर अनुदान देना बंद कर दिया तथा योजना भी हो गई।

शाम होते-होते हम सासाराम पहुंच गये। वहां हम सिंचाई विभाग के अतिथि गृह में रुके। उन दिनों सासाराम तीन बातों के लिये जाना जाता था।

1.जगजीवन राम का चुनाव क्षेत्र
2.रोहतास जिले का व्यवसायिक केंद्र
3. अफगान शासक शेरशाह सूरी का मकबरा

इस सूची में वहां के निवासियों ने दो बातें और जोड़ ली थीं- मच्छर तथा बरसात।
शेरशाह का मकबरा

शेरशाह का मकबरा
शेरशाह का मकबरा पत्थरों से बना है। मकबरे के चारो तरफ हरे जल(काई के कारण) तालाब,तालाब में कमल के फूल तथा तालाब को चारो तरफ से घेरे मखमली दूब इस इमारत की शोभा में बढ़ोत्तरी कर रही थीं। मकबरे के सबसे ऊपरी सिरे से पूरा सासाराम साफ दिखाई देता है।

शेरशाह सूरी के मकबरे को देखते समय हम सोच रहे थे कि कैसा रहा होगा यह शासक जिसने कलकत्ते से पेशावर तक राजमार्ग बनवाया जिसपर चलते हुये हम यहां तक पहुंचे। आज सैकडों साल बाद जिस राजमार्ग को चौड़ा करवाने में सरकारें तमाम साधनों के बावजूद रोने लगती हैं उसको पहली बार बनवाने में तमाम युद्धों से निपटते हुये बनवाने में शेरशाह को कितना मेहनत लगी होगी?

आज लिखते हुये यह भी सोच रहा हूं कि कितने दुबे (सत्यदेव दुबे स्वर्णचतुर्भुज योजना में इंजीनियर थे जो सड़क निर्माण में अनियमितता को रोकने के कारण मारे गये।)जैसे लोग खपे होंगे!
सासाराम से अगले दिन हम गया को लिये चल दिये।

मेरी पसंद

एक आदमी रोटी बेलता है,
एक आदमी रोटी सेंकता है,
एक तीसरा भी है,
जो न रोटी बेलता है न सेंकता है
वह रोटिंयों से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।

-धूमिल

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

7 responses to “बिहार वाया बनारस”

  1. प्रत्यक्षा
    हमलोग सासाराम में साल भर रहे हैं. घर के गेट से सीधा रास्ता शेरशाह के मकबरे को जाता था और वहीं खडे खडे भी गुम्बद नज़र आता था.तस्वीर देख कर पुराने दिन याद आये.
    प्रत्यक्षा
  2. प्रत्यक्षा
    हमलोग सासाराम में साल भर रहे हैं. घर के गेट से सीधा रास्ता शेरशाह के मकबरे को जाता था और वहीं खडे खडे भी गुम्बद नज़र आता था.तस्वीर देख कर पुराने दिन याद आये.
    प्रत्यक्षा
  3. अतुल
    एक बार सासाराम पर रामविलास पासवान भी टीवी पर कोई कविता सुना रहे थे जो अब याद नही।
  4. फ़ुरसतिया » हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती
    [...] कहां बदी थी यायावरी। गया के मच्छर सासाराम के मच्छरों से भी जबर थे। उनसे खून � [...]
  5. Rajiv Sinha
    Main Sasaram ka hi rahnewala hu. Naukri-chakri ke chackkar me itna door aa gaya ki, 5-6 sal se phir jana nahi ho pa raha hai. Kuch tasviron se kuch lekhak ke sansamarno se phir yaad aa gaya ek bar phir hamara Sasaram.
  6. Devendra
    राजीव भाई, पता नहीं की आप वोही बल विकास वाले हैं. हमें तो सासाराम बहुत भाता है. बिहार तो यूं ही बदनाम है, पर बहार आकार पता चलता है की हम कितने सरीफ हैं. लोग बईमानी की बात करतें है, पर बहार जाकर देखो की बिहार के लोग कितने सरीफ हैं. कम से कम हम नारी की इग्गत करतें हैं. बिहार Jindabad
  7. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] बातचीत 5.कविता के बहाने सांड़ से गप्प 6.बिहार वाया बनारस 7.श्रीलाल शुक्ल-विरल सहजता के [...]