Friday, September 30, 2016

लिखाइयां-पढाइयां करते हुये आलोक पुराणिक पचास के हुये




व्यंग्य के मैदान पर शानदार बैटिंग करते हुये घड़ी की सुई को थोड़ा आगे की तरफ़ बढाया । उमर की पिच पर टहलते हुये एक रन लिया और अपने जीवन का अर्धशतक पूरा किया। पाठकों ने करतल ध्वनि से उनका हौसला बढाया। दुनिया भर के तमाम प्रशंसकों जिनमें सन्नी लियोन से लेकर राखी सावंत, बुश से लेकर हनी सिंह तक, ओबामा , ट्रंप से लेकर छज्जू पनवाड़ी तक शामिल हैं ने अपने-अपने अंदाज में उनको जन्मदिन की बधाई दी। टिमरिया टाइम्स के दिहाड़ी संवाददाता ने अपने अखबार की में आलोक पुराणिक की फ़ोटो छापकर उनको दुनिया के सब लेखकों से बड़ा बताते हुये सूचना दी कि इनके साथ हमने रेलवे प्लेटफ़ार्म पर एक साथ चाय पी है, भले ही पैसे अपने-अपने अलग दिये हों।

बुश ने भी फ़ोन करके बधाई दी कहते हुये -’ भाई साहब आपने बहुत हड़काया जब हम प्रेसीडेंसी की नौकरी बजा रहे थे अमेरिका में।' यह आलोक पुराणिक का ही जलवा था कि उन्होंने व्हाइट हाउस में रामलीला करवा दी ( http://iari.egranth.ac.in/cgi-bin/koha/opac-detail.pl…)

सन्नी लियोन ने लड़ियाते हुये जन्मदिन की बधाई दी और कहा -’ आलोक डियर, जब तक तुम लिख रहे हो तब तक हमको इंडियन मार्केट में अपनी पब्लिसिटी के लिये पैसा फ़ूंकना बेवकूफ़ी लगती है। लेकिन फ़ूंकते रहते हैं वर्ना लोग हमारे बारे में अच्छी-अच्छी बातें करने लगेंगे। फ़ालतू में मार्केट डाउन होगा।

राखी सावंत ने जो कुछ कहा वह राज ठाकरे की तेज आवाज और फ़िर भारतीय सर्जिकल स्ट्राइक के हल्ले में सुनाई ही नहीं।

उमर का अर्धशतक पूरा करने वाले आलोक पुराणिक से जब बात करो और पूछो क्या चल रहा है तो हमेशा एक ही जबाब - ’अजी बस, वही काम लिखाइयां-पढाइयां।’ मल्लब अगला लिखने पढ़ने में जिस कदर जुटा रहता है उससे तो लगता है अगला तो काम के बोझ का मारा है, इनका इलाज तो सिर्फ़ हमदर्द का टानिक सिंकारा है। किसी की कोई बुराई नहीं, कोई चुगली नहीं, कोई लगाई- बुझाई नहीं। ऐसे कहीं होती है व्यंग्यकारिता - "हाऊ अनरोमांटिक। हाऊ अनलाइक अ सटायरिस्ट।"

आलोक पुराणिक को पिछले कुछ सालों से लगातार पढ़ते आ रहे हैं हम। इस बीच उन्होंने भतेरे प्रयोग किये अपने व्यंग्य लेखन में।एक पूरे लेख की बजाय तीन-चार लघु लेख मय स्केच के। दिन भर समसामयिक विषय पर ट्रेंडियाते हुये लिखना। ट्रेंड लेखन में भी साथ में कार्टून खोजकर सटाना। बहुत मेहनत का काम है भाई। बाजीबखत जलन भी होती है कि कैसे कर लेता है बंदा यह सब।

आलोक पुराणिक किसी राजनीति में नहीं पड़ते। लोगों के बारे में कोई नकारात्मक बातचीत नहीं करते। बहुत मजबूरी न हो तो उठापटक वाले बयान भी नहीं देते। शरीफ़ आदमियों की तरह हरकतें करते हुये चुपचाप लिखते रहते हैं। लेकिन उनके प्रसंशक इतनी वैविध्यपूर्ण हैं कि उनसे मजे लेते रहते हैं। हमारे जैसे लोग तो उनसे जलते हैं तो खुले आम जलते हैं। लेकिन तमाम चुपचाप जलने वाले भी हैं। वे अकेले में धुंआ-धुंआ होते रहते हैं।

कुछ लोग आलोक पुराणिक से इतनी मोहब्बत करते हैं कि उनको बारे में कुछ भी बयान जारी कर देते हैं। ऐसे ही किसी ने एक दिन कह दिया -"आलोक पुराणिक तो व्यंग्यकार हैं ही नहीं।" इस बयान को कुछ सुशील पाठकों ने मौनं स्वीकार लक्षणम वाले तरीके से चुपचाप मान लिया। फ़िर दिन भर की बमचक के बाद बड़े लोगों ने तमाम फ़ायदे नुकसान को मद्देनजर रखते हुये बीच का रास्ता अपनाते हुये बयान जारी किया- " बावजूद तमाम हालिया विचलन के आलोक पुराणिक व्यंग्यकार हैं।" व्यंग्य की विधा के लोगों का यह सुरक्षित बयान ’वाली असी’ का यह शेर याद आया:
"तकल्लुफ़ से तसन्नों से अदाकारी से मिलते हैं
हम अपने आप से भी कितनी तैयारी से मिलते हैं।"
आलोक पुराणिक लिखने पढ़ने में लगे रहते हैं। उनको लगता है और वे कहते भी हैं कि बाकी सब बेफ़ालतू है। समय यह नहीं याद रखेगा कि किसने किसे उठाया, किसको गिराया, किसके साथ खाया, किसको गरियाया। समय की छलनी में केवल आपका रचा हुआ जायेगा आगे। जब इस तरह की बातें करते हैं तो शंका भी होती है कि अर्थशास्त्री व्यंग्यकार फ़ायदे का धंधा देखकर कहीं उपदेशक बनने का अभ्यास तो नहीं कर रहा। लेकिन शंका हमेशा सबूत के अभाव में अपनी मौत मर जाती है।

कुछ लोग व्यंग्यकारों से सहज आशा के चलते आलोक पुराणिक से आशा करते हैं वे सरकार की बैंड बजाते रहें। आलोक पुराणिक ऐसा न करते देखकर उनके नंबर भी काट लेते हैं। लेकिन आलोक पुराणिक इस सब मूल्यांकन से बेपरवाह अपनी लिखाई में लगे रहते हैं। कोई लेख अच्छा बन गया और किसी ने तारीफ़ कर दी तो पगड़ी वाले राजस्थानी टाइप आदमी को हाथ जोड़कर हिलते-डुलते हुये आभार प्रकट करने भेज देते हैं।
समसामायिक लेखन के चलते यह भी बात होती है कि उनका लेखन बाजारवाद से प्रभावित है। मल्लब कालजयी टाइप का नहीं हैं। लेकिन आज जब समूची दुनिया का स्टियरिंग बाजार के हिसाब से घूम रहा है तब व्यंग्य लेखन कैसे उससे अछूता रहेगा। लेकिन यह सब बहस का विषय है, और बहस के बहाने नंबर देने/काटने का भी, इसलिये इसके बारे में अलग से।

आलोक पुराणिक एक बेहतरीन व्यंग्यकार ( उनको व्यंग्यकार न मानने वाले लेखक पढ सकते हैं) होने के साथ-साथ एक प्यारे इंसान भी हैं। बीहड़ व्यस्ता के बावजूद जब भी कोई सलाह मांगी जाती है देने के लिये उपलब्ध। बिना मांगे सलाह देने की आदत से बचे हुये हैं अभी तक। उनको जब भी अपने खिलाफ़ महीन साजिशों का पता चलता है वे और तगड़ाई से अपने काम में जुट जाते हैं। अपने बारे में कोई मुगालते पालने में समय बर्बाद करना पसंद नहीं उनको।

आलोक पुराणिक अपने काम पर फ़ोकस करके चलने वालों में हैं। अब पचास की तरफ़ बढ़ने हुये ’माइक्रो फ़ोकस’ करने लगे हैं। आगे क्या पता ’नैनो फ़ोकस’ हो जायें।

आज जीवन का अर्धशतक पूरा करते हुये आलोक पुराणिक को उनके जन्मदिन की बहुत बधाई।

 मंगलकामनायें। कामना है कि वे अपने व्यक्तित्व की तमाम अच्छाईयां बनाये रखते हुये नित नया रचें और उपलब्धियों के नये-नये आयाम छुयें। शतायु हों, कालजयी और मालजयी लिखें। मुझे पूरा भरोसा है कि आने वाले समय में आलोक पुराणिक के बारे में कही हमारी यह बात सब स्वीकार करेंगे - आलोक पुराणिक व्यंग्य के अखाड़े के सबसे तगड़े पहलवान हैं।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209222092442841

लिखाइयां-पढाइयां करते हुये आलोक पुराणिक पचास के हुये




व्यंग्य के मैदान पर शानदार बैटिंग करते हुये घड़ी की सुई को थोड़ा आगे की तरफ़ बढाया । उमर की पिच पर टहलते हुये एक रन लिया और अपने जीवन का अर्धशतक पूरा किया। पाठकों ने करतल ध्वनि से उनका हौसला बढाया। दुनिया भर के तमाम प्रशंसकों जिनमें सन्नी लियोन से लेकर राखी सावंत, बुश से लेकर हनी सिंह तक, ओबामा , ट्रंप से लेकर छज्जू पनवाड़ी तक शामिल हैं ने अपने-अपने अंदाज में उनको जन्मदिन की बधाई दी। टिमरिया टाइम्स के दिहाड़ी संवाददाता ने अपने अखबार की में आलोक पुराणिक की फ़ोटो छापकर उनको दुनिया के सब लेखकों से बड़ा बताते हुये सूचना दी कि इनके साथ हमने रेलवे प्लेटफ़ार्म पर एक साथ चाय पी है, भले ही पैसे अपने-अपने अलग दिये हों।

बुश ने भी फ़ोन करके बधाई दी कहते हुये -’ भाई साहब आपने बहुत हड़काया जब हम प्रेसीडेंसी की नौकरी बजा रहे थे अमेरिका में।' यह आलोक पुराणिक का ही जलवा था कि उन्होंने व्हाइट हाउस में रामलीला करवा दी ( http://iari.egranth.ac.in/cgi-bin/koha/opac-detail.pl…)

सन्नी लियोन ने लड़ियाते हुये जन्मदिन की बधाई दी और कहा -’ आलोक डियर, जब तक तुम लिख रहे हो तब तक हमको इंडियन मार्केट में अपनी पब्लिसिटी के लिये पैसा फ़ूंकना बेवकूफ़ी लगती है। लेकिन फ़ूंकते रहते हैं वर्ना लोग हमारे बारे में अच्छी-अच्छी बातें करने लगेंगे। फ़ालतू में मार्केट डाउन होगा।

राखी सावंत ने जो कुछ कहा वह राज ठाकरे की तेज आवाज और फ़िर भारतीय सर्जिकल स्ट्राइक के हल्ले में सुनाई ही नहीं।

उमर का अर्धशतक पूरा करने वाले आलोक पुराणिक से जब बात करो और पूछो क्या चल रहा है तो हमेशा एक ही जबाब - ’अजी बस, वही काम लिखाइयां-पढाइयां।’ मल्लब अगला लिखने पढ़ने में जिस कदर जुटा रहता है उससे तो लगता है अगला तो काम के बोझ का मारा है, इनका इलाज तो सिर्फ़ हमदर्द का टानिक सिंकारा है। किसी की कोई बुराई नहीं, कोई चुगली नहीं, कोई लगाई- बुझाई नहीं। ऐसे कहीं होती है व्यंग्यकारिता - "हाऊ अनरोमांटिक। हाऊ अनलाइक अ सटायरिस्ट।"

आलोक पुराणिक को पिछले कुछ सालों से लगातार पढ़ते आ रहे हैं हम। इस बीच उन्होंने भतेरे प्रयोग किये अपने व्यंग्य लेखन में।एक पूरे लेख की बजाय तीन-चार लघु लेख मय स्केच के। दिन भर समसामयिक विषय पर ट्रेंडियाते हुये लिखना। ट्रेंड लेखन में भी साथ में कार्टून खोजकर सटाना। बहुत मेहनत का काम है भाई। बाजीबखत जलन भी होती है कि कैसे कर लेता है बंदा यह सब।

आलोक पुराणिक किसी राजनीति में नहीं पड़ते। लोगों के बारे में कोई नकारात्मक बातचीत नहीं करते। बहुत मजबूरी न हो तो उठापटक वाले बयान भी नहीं देते। शरीफ़ आदमियों की तरह हरकतें करते हुये चुपचाप लिखते रहते हैं। लेकिन उनके प्रसंशक इतनी वैविध्यपूर्ण हैं कि उनसे मजे लेते रहते हैं। हमारे जैसे लोग तो उनसे जलते हैं तो खुले आम जलते हैं। लेकिन तमाम चुपचाप जलने वाले भी हैं। वे अकेले में धुंआ-धुंआ होते रहते हैं।

कुछ लोग आलोक पुराणिक से इतनी मोहब्बत करते हैं कि उनको बारे में कुछ भी बयान जारी कर देते हैं। ऐसे ही किसी ने एक दिन कह दिया -"आलोक पुराणिक तो व्यंग्यकार हैं ही नहीं।" इस बयान को कुछ सुशील पाठकों ने मौनं स्वीकार लक्षणम वाले तरीके से चुपचाप मान लिया। फ़िर दिन भर की बमचक के बाद बड़े लोगों ने तमाम फ़ायदे नुकसान को मद्देनजर रखते हुये बीच का रास्ता अपनाते हुये बयान जारी किया- " बावजूद तमाम हालिया विचलन के आलोक पुराणिक व्यंग्यकार हैं।" व्यंग्य की विधा के लोगों का यह सुरक्षित बयान ’वाली असी’ का यह शेर याद आया:

"तकल्लुफ़ से तसन्नों से अदाकारी से मिलते हैं
हम अपने आप से भी कितनी तैयारी से मिलते हैं।"

आलोक पुराणिक लिखने पढ़ने में लगे रहते हैं। उनको लगता है और वे कहते भी हैं कि बाकी सब बेफ़ालतू है। समय यह नहीं याद रखेगा कि किसने किसे उठाया, किसको गिराया, किसके साथ खाया, किसको गरियाया। समय की छलनी में केवल आपका रचा हुआ जायेगा आगे। जब इस तरह की बातें करते हैं तो शंका भी होती है कि अर्थशास्त्री व्यंग्यकार फ़ायदे का धंधा देखकर कहीं उपदेशक बनने का अभ्यास तो नहीं कर रहा। लेकिन शंका हमेशा सबूत के अभाव में अपनी मौत मर जाती है।

कुछ लोग व्यंग्यकारों से सहज आशा के चलते आलोक पुराणिक से आशा करते हैं वे सरकार की बैंड बजाते रहें। आलोक पुराणिक ऐसा न करते देखकर उनके नंबर भी काट लेते हैं। लेकिन आलोक पुराणिक इस सब मूल्यांकन से बेपरवाह अपनी लिखाई में लगे रहते हैं। कोई लेख अच्छा बन गया और किसी ने तारीफ़ कर दी तो पगड़ी वाले राजस्थानी टाइप आदमी को हाथ जोड़कर हिलते-डुलते हुये आभार प्रकट करने भेज देते हैं।

समसामायिक लेखन के चलते यह भी बात होती है कि उनका लेखन बाजारवाद से प्रभावित है। मल्लब कालजयी टाइप का नहीं हैं। लेकिन आज जब समूची दुनिया का स्टियरिंग बाजार के हिसाब से घूम रहा है तब व्यंग्य लेखन कैसे उससे अछूता रहेगा। लेकिन यह सब बहस का विषय है, और बहस के बहाने नंबर देने/काटने का भी, इसलिये इसके बारे में अलग से।

आलोक पुराणिक एक बेहतरीन व्यंग्यकार ( उनको व्यंग्यकार न मानने वाले लेखक पढ सकते हैं) होने के साथ-साथ एक प्यारे इंसान भी हैं। बीहड़ व्यस्ता के बावजूद जब भी कोई सलाह मांगी जाती है देने के लिये उपलब्ध। बिना मांगे सलाह देने की आदत से बचे हुये हैं अभी तक। उनको जब भी अपने खिलाफ़ महीन साजिशों का पता चलता है वे और तगड़ाई से अपने काम में जुट जाते हैं। अपने बारे में कोई मुगालते पालने में समय बर्बाद करना पसंद नहीं उनको।

आलोक पुराणिक अपने काम पर फ़ोकस करके चलने वालों में हैं। अब पचास की तरफ़ बढ़ने हुये ’माइक्रो फ़ोकस’ करने लगे हैं। आगे क्या पता ’नैनो फ़ोकस’ हो जायें।

आज जीवन का अर्धशतक पूरा करते हुये आलोक पुराणिक को उनके जन्मदिन की बहुत बधाई। मंगलकामनायें। कामना है कि वे अपने व्यक्तित्व की तमाम अच्छाईयां बनाये रखते हुये नित नया रचें और उपलब्धियों के नये-नये आयाम छुयें। शतायु हों, कालजयी और मालजयी लिखें। मुझे पूरा भरोसा है कि आने वाले समय में आलोक पुराणिक के बारे में कही हमारी यह बात सब स्वीकार करेंगे - आलोक पुराणिक व्यंग्य के अखाड़े के सबसे तगड़े पहलवान हैं। 
Alok Puranik

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209222092442841

Thursday, September 29, 2016

स्पीड तो बहुत तेज है नेट की गुरु लेकिन

स्पीड तो बहुत तेज है नेट की गुरु लेकिन
खाक हो ही जाते हैं , खबर पहुँचते पहुँचते।
शरीफ तो हमको समझता है, पुलिस वाला भी
दो-चार तो जमा ही देता है, समझते-समझते।
हमने बहुत कहा था हमको काबिल मत समझो,
कुछ न कुछ बेवकूफी कर ही देंगे, चलते-चलते।

-कट्टा कानपुरी

दो-चार तो जमा ही देता है, समझते-समझते


स्पीड तो बहुत तेज है नेट की गुरु लेकिन
खाक हो ही जाते हैं , खबर पहुँचते पहुँचते।
शरीफ तो हमको समझता है, पुलिस वाला भी
दो-चार तो जमा ही देता है, समझते-समझते।
हमने बहुत कहा था हमको काबिल मत समझो,
कुछ न कुछ बेवकूफी कर ही देंगे, चलते-चलते।
-कट्टा कानपुरी

Wednesday, September 28, 2016

बताओ तो कैसी लग रही हूं

जितने बजे सोचा था उससे बस पांच मिनट देर हो गयी कल निकलने में। बस निकलते ही देरी हो जाने का ख्याल बेताल की तरह सवारी गांठ लिया। हम लाख झटका दिये लेकिन देरी का ख्याल लदा रहा। मुफ़्त की सवारी कौन छोड़ता है भाई आजकल। जब बहुत झटकने पर भी नही हटा तो हम उसको लिफ़्ट देना बन्द कर दिये। पड़े रहो चुपचाप एक कोने में, किसी शायर की भूली हुई मोहब्बत की तरह। जहां लिफ़्ट देना बंद किये, बिला गया कही॥ गुमसुम बैठा होगा किसी कोने में।

मोड़ पर कई कुत्ते अपनी पूंछों को झंडे की तरह फ़हराते घूम रहे थे। चेहरे से लग रहा था किसी अपनी पंचायत सम्मेलन में कोई क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित करके निकले हैं। देख नहीं पाये लेकिन मूछों के पास जरूर पसीना चुहचुहा रहा होगा। वहीं सड़क पर एक कुतिया बहुत धीरे-धीरे सरक-सरककर सड़क पार कर रही थी। उसका कमर के पीछे का हिस्सा चोटिल सा था। ठीक-ठीक कहना मुश्किल कि उसका हिस्सा किसी वाहन से ठुका था या कुत्तों का श्वानत्व का शिकार था।

ओएफ़सी मोड़ पर बैठी महिला रोज की तरह हाथ फ़ैलाये सर खुजाती मांगने का काम कर रही थी। उसके दो बच्चे वहीं गलबहियां डाले खेल रहे थे।

एक ठेलिया वाला पेप्सी का छाता लगाये देशी मट्ठा बेच रहा था। ’मेक इन इंडिया’ सड़किया संस्करण सा।’मेक इन इंडिया’ में लोग बाहर से सामान लाकर अपने यहां जोड़ रहे हैं। ठेलिया वाला पेप्सी का छाता लगाये भूलोक मट्ठा बेच रहा था।

फ़जलगंज के मोड़ के पहले कूड़े के ढेर पर एक सुअर और एक आदमी अपने-अपने मतलब की चीजें खोज रहे थे। आदमी और सुअर में अंतर बस यही था कि सुअर कूड़े में मुंह मारने के लिये आदमी की तरह किसी लकड़ी का मोहताज नहीं था।

आगे एक ठेलिया वाला ठेलिया पर सेव सजा रहा था। सेव घुमा-घुमाकर ढेरी पर रख रहा था। नहीं जमने पर एक सेव को हटाकर दूसरा सेव रख देता। जिस तरह कोई स्त्री शीशे में अलग-अलग तरह की बिंदिया लगाकर देखती है और फ़िर आखिर में एक से संतुष्ट होकर उसी को फ़ाइनल कर देती है उसी तरह सेव वाला अपनी ठेलिया का ’सेव श्रंगार’ कर रहा था। ठेलिया के अगर जबान होती हो हर सेव लगने के बाद पूछती -’ बताओ तो कैसी लग रही हूं।’

बाजपेयी जी पास पहुंचकर हार्न बजाते ही वे उठ खड़े होते हैं। हाथ मिलाते हैं। वे कुछ न कुछ जानकारी देने लगते हैं। एक दिन बोले -’ माधुरी दीक्षित का रैकेट पकड़ा गया है। पुलिस ले गयी है। तीसरे मंजिल पर धंधा चलता था। सब आ गया है अखबार में।’

कल हमने पूछा-’ पाकिस्तान बहुत गड़बड़ कर रहा है। क्या किया जाये?"

बाजपेयी जी बोले-"पाकिस्तान गड़बड़ नहीं कर रहा। वह मित्र देश है। हबीब भाई का इलाका है यह। वो दोस्त हैं हमारे। गड़बड़ जार्डन और कनाडा कर रहा है। सब पता चल गया है।’

कल यह भी बोले-" गाड़ी बहुत हीट करती है। कूलेंट डलवा लेना। किसी को बैठाना नहीं गाड़ी में। विदेशी लोग घूम रहे हैं।"

उनसे बात लम्बी खिंचती है तो यही पूछकर खत्म कर देते हैं-" चाय पी ली कि नहीं अभी तक? वे बोलते हैं-" अभी जायेंगे मामा के यहां।" हम -" अच्छा चलते हैं कहकर चल देते हैं।"

कल लौटते में जरीब चौकी क्रासिंग बंद थी। दो गाड़ियां निकलीं। जब क्रासिंग खुली तो सबको भागने की जल्दी। हम आहिस्ते-आहिस्ते चलते हुये आगे बढे।

सामने से आते एक आटो ने अचानक अपना आटो मोड़ा। इधर से जाते हुये रिक्शे का पिछला पहिया आटो वाले के ’मुड़न वृत्त’ की हद्द में आ गया। रिक्शे वाले ने जिस तरह देखा उससे लगा कि वह कह रहा था आटो वाले से - ’जरा पीछे कर लो तो हम बगलिया के निकाल लें।’ लेकिन आटो वाले के दिमाग में डीजल भरा सो वह अपना आटो पीछे की तरफ़ करने की बजाय रिक्शे के पिछले पहिये को कुचलकर निकलने पर आमादा था।

रिक्शे वाले ने निरीह आंखों से उसे देखा। उसकी निरीह नजर देखकर लगा कि निराला जी की कविता पंक्ति -’वह मार खा रोई नहीं’ का फ़िल्मांकन हो रहा हो। रिक्शेवाले ने उतरकर अपना रिक्शा पीछे किया। आटो वाले विजयी मुद्रा में झटके से आटो का मोड़ा और आगे खड़ा करके सर से अंगौछा उतारकर फ़टकारने लगा।
रिक्शे को धकिया कर मुड़ने में सफ़ल होने के अपने शौर्य पर किंचित मुग्ध सा भी दिखा। शायद अफ़गानिस्तान, ईराक को बरबाद करने पर अमेरिका ने भी ऐसे ही मुग्ध होकर अपने को शीशे में निहारा हो, अपना अंगौछा फ़टकारा हो।

इस बीच दिलीप घोष जी से रोज बात होती रहती है। उनके पांव का घाव बढ गया था। मवाद पड़ गया था। दवा चल रही है। खाने में लोग जो दे जाते हैं वो खाते नहीं। लोग श्राद्ध पक्ष में खूब खाना दे जाते हैं लेकिन उसको वे खाते नहीं। घोष जी के मित्र ने बताया -"वह बहुत बड़ा गप्पी है। कहीं गया -वया नहीं। लेकिन जीनियस है वह -spoilt genious " लेकिन घोष जी जिस विश्वास से बातें करते हैं उससे बड़े दिलचश्प इन्सान लगते हैं। हो सकता है उनके तमाम किस्से झूठे ही हों लेकिन अंदाजे बयां और जानकारी का स्तर से उनसे बातचीत करने में आनन्द आता है। जल्दी ही उनके वीडियो अपलोड करेंगे।

फ़िलहाल इतना ही। आगे जल्दी ही फ़िर कभी। मतलब शेष अगली पोस्ट में। (अरविन्द तिवारी जी के उपन्यास शेष अगले अंक में की तर्ज पर)
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209205595550429

पाकिस्तान बहुत गड़बड़ कर रहा है



जितने बजे सोचा था उससे बस पांच मिनट देर हो गयी कल निकलने में। बस निकलते ही देरी हो जाने का ख्याल बेताल की तरह सवारी गांठ लिया। हम लाख झटका दिये लेकिन देरी का ख्याल लदा रहा। मुफ़्त की सवारी कौन छोड़ता है भाई आजकल। जब बहुत झटकने पर भी नही हटा तो हम उसको लिफ़्ट देना बन्द कर दिये। पड़े रहो चुपचाप एक कोने में, किसी शायर की भूली हुई मोहब्बत की तरह। जहां लिफ़्ट देना बंद किये, बिला गया कही॥ गुमसुम बैठा होगा किसी कोने में।

मोड़ पर कई कुत्ते अपनी पूंछों को झंडे की तरह फ़हराते घूम रहे थे। चेहरे से लग रहा था किसी अपनी पंचायत सम्मेलन में कोई क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित करके निकले हैं। देख नहीं पाये लेकिन मूछों के पास जरूर पसीना चुहचुहा रहा होगा। वहीं सड़क पर एक कुतिया बहुत धीरे-धीरे सरक-सरककर सड़क पार कर रही थी। उसका कमर के पीछे का हिस्सा चोटिल सा था। ठीक-ठीक कहना मुश्किल कि उसका हिस्सा किसी वाहन से ठुका था या कुत्तों का श्वानत्व का शिकार था।

ओएफ़सी मोड़ पर बैठी महिला रोज की तरह हाथ फ़ैलाये सर खुजाती मांगने का काम कर रही थी। उसके दो बच्चे वहीं गलबहियां डाले खेल रहे थे।

एक ठेलिया वाला पेप्सी का छाता लगाये देशी मट्ठा बेच रहा था। ’मेक इन इंडिया’ सड़किया संस्करण सा।’मेक इन इंडिया’ में लोग बाहर से सामान लाकर अपने यहां जोड़ रहे हैं। ठेलिया वाला पेप्सी का छाता लगाये भूलोक मट्ठा बेच रहा था।

फ़जलगंज के मोड़ के पहले कूड़े के ढेर पर एक सुअर और एक आदमी अपने-अपने मतलब की चीजें खोज रहे थे। आदमी और सुअर में अंतर बस यही था कि सुअर कूड़े में मुंह मारने के लिये आदमी की तरह किसी लकड़ी का मोहताज नहीं था।

आगे एक ठेलिया वाला ठेलिया पर सेव सजा रहा था। सेव घुमा-घुमाकर ढेरी पर रख रहा था। नहीं जमने पर एक सेव को हटाकर दूसरा सेव रख देता। जिस तरह कोई स्त्री शीशे में अलग-अलग तरह की बिंदिया लगाकर देखती है और फ़िर आखिर में एक से संतुष्ट होकर उसी को फ़ाइनल कर देती है उसी तरह सेव वाला अपनी ठेलिया का ’सेव श्रंगार’ कर रहा था। ठेलिया के अगर जबान होती हो हर सेव लगने के बाद पूछती -’ बताओ तो कैसी लग रही हूं।’

बाजपेयी जी पास पहुंचकर हार्न बजाते ही वे उठ खड़े होते हैं। हाथ मिलाते हैं। वे कुछ न कुछ जानकारी देने लगते हैं। एक दिन बोले -’ माधुरी दीक्षित का रैकेट पकड़ा गया है। पुलिस ले गयी है। तीसरे मंजिल पर धंधा चलता था। सब आ गया है अखबार में।’

कल हमने पूछा-’ पाकिस्तान बहुत गड़बड़ कर रहा है। क्या किया जाये?"

बाजपेयी जी बोले-"पाकिस्तान गड़बड़ नहीं कर रहा। वह मित्र देश है। हबीब भाई का इलाका है यह। वो दोस्त हैं हमारे। गड़बड़ जार्डन और कनाडा कर रहा है। सब पता चल गया है।’

कल यह भी बोले-" गाड़ी बहुत हीट करती है। कूलेंट डलवा लेना। किसी को बैठाना नहीं गाड़ी में। विदेशी लोग घूम रहे हैं।"

उनसे बात लम्बी खिंचती है तो यही पूछकर खत्म कर देते हैं-" चाय पी ली कि नहीं अभी तक? वे बोलते हैं-" अभी जायेंगे मामा के यहां।" हम -" अच्छा चलते हैं कहकर चल देते हैं।"

कल लौटते में जरीब चौकी क्रासिंग बंद थी। दो गाड़ियां निकलीं। जब क्रासिंग खुली तो सबको भागने की जल्दी। हम आहिस्ते-आहिस्ते चलते हुये आगे बढे।

सामने से आते एक आटो ने अचानक अपना आटो मोड़ा। इधर से जाते हुये रिक्शे का पिछला पहिया आटो वाले के ’मुड़न वृत्त’ की हद्द में आ गया। रिक्शे वाले ने जिस तरह देखा उससे लगा कि वह कह रहा था आटो वाले से - ’जरा पीछे कर लो तो हम बगलिया के निकाल लें।’ लेकिन आटो वाले के दिमाग में डीजल भरा सो वह अपना आटो पीछे की तरफ़ करने की बजाय रिक्शे के पिछले पहिये को कुचलकर निकलने पर आमादा था।

रिक्शे वाले ने निरीह आंखों से उसे देखा। उसकी निरीह नजर देखकर लगा कि निराला जी की कविता पंक्ति -’वह मार खा रोई नहीं’ का फ़िल्मांकन हो रहा हो। रिक्शेवाले ने उतरकर अपना रिक्शा पीछे किया। आटो वाले विजयी मुद्रा में झटके से आटो का मोड़ा और आगे खड़ा करके सर से अंगौछा उतारकर फ़टकारने लगा।

रिक्शे को धकिया कर मुड़ने में सफ़ल होने के अपने शौर्य पर किंचित मुग्ध सा भी दिखा। शायद अफ़गानिस्तान, ईराक को बरबाद करने पर अमेरिका ने भी ऐसे ही मुग्ध होकर अपने को शीशे में निहारा हो, अपना अंगौछा फ़टकारा हो।

इस बीच दिलीप घोष जी से रोज बात होती रहती है। उनके पांव का घाव बढ गया था। मवाद पड़ गया था। दवा चल रही है। खाने में लोग जो दे जाते हैं वो खाते नहीं। लोग श्राद्ध पक्ष में खूब खाना दे जाते हैं लेकिन उसको वे खाते नहीं। घोष जी के मित्र ने बताया -"वह बहुत बड़ा गप्पी है। कहीं गया -वया नहीं। लेकिन जीनियस है वह -spoilt genious " लेकिन घोष जी जिस विश्वास से बातें करते हैं उससे बड़े दिलचश्प इन्सान लगते हैं। हो सकता है उनके तमाम किस्से झूठे ही हों लेकिन अंदाजे बयां और जानकारी का स्तर से उनसे बातचीत करने में आनन्द आता है। जल्दी ही उनके वीडियो अपलोड करेंगे।

फ़िलहाल इतना ही। आगे जल्दी ही फ़िर कभी। मतलब शेष अगली पोस्ट में। (अरविन्द तिवारी जी के उपन्यास शेष अगले अंक में की तर्ज पर)

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209205595550429

Tuesday, September 27, 2016

कहो तो आज पाकिस्तान को निपटा आएं

कहो तो आज पाकिस्तान को निपटा आएं,
लेते जाएँ कुंजी सबक ठीक से सिखा आएं।

जाओ अगर तो साथ में झोला लेते जाना,
सब्जी मिल रही हो बढ़िया तो लेते आना।

सामान जो भी लेना वो मोलभाव करके लेना,
निपटाने के चक्कर में, कमाई मत गवां देना।

चाय पीना वहाँ तो ग्लास सामने धुलवाना,
चीनी जरा कम और पत्ती कड़क डलवाना।

चलना सड़क पर आँख खोलकर सावधानी से,
आती-जातियों से अनजाने में भिड़ मत जाना।


मिले जो कहीं भीड़ तो वहीं पकड़ कर माईक,
'कटटा कानपुरी' के कलाम जबरियन झेला आना।
-कट्टा कानपुरी

Sunday, September 25, 2016

मोबाइल


(व्यंग्य की जुगलबंदी के तहत यह पहली पोस्ट। बाकी की पोस्टस देखने के लिये साथी Nirmal Gupta, एम.एम. चन्द्रा और Ravi Ratlami के पास पहुंचिये । रवि रतलामी की पोस्ट का लिंक यह रहा http://raviratlami.blogspot.in/2016/09/blog-post_25.html । बताइये कैसा है यह प्रयोग? पसंद करेंगे तो आगे भी चलेगा। हर हफ़ते इतवार को। )

आज की दुनिया मोबाइलमय है। समाज सेवा के नाम पर सरकारें बनाने के काम से लेकर अपराध का धंधा करने वाले माफ़िया लोग मोबाइल पर इस कदर आश्रित हैं कि इसके बिना उनके धंधे चौपट हो जायें।
बिना मोबाइल का आदमी खोजना आज के समय कायदे की बात करने वाले किसी जनप्रतिनिधि को खोजने सरीखा काम है। जितनी तेजी से मोबाइल की जनसंख्या बढी है उतनी तेजी से इन्सान के बीच के दूरी के अलावा और कुछ नहीं बढा होगा। आज के समय में आदमी बिना कपड़े के भले दिख जाये लेकिन बिना मोबाइल के नहीं दीखता। गर्ज यह कि बिना आदमी के दुनिया का काम भले चल जाये लेकिन बिना मोबाइल के आदमी का चलना मुश्किल है।

मोबाइल ने लोगों के बीच की दूरियां कम की हैं। झकरकटी बस अड्डे के पास जाम में फ़ंसा आदमी लंदन में ऊंघती सहेली से बतिया सकता है।भन्नानापुरवा के किचन में दाल छौंकती महिला अपने फ़ेसबुक मित्र को कुकर की सीटी से निकली भाप की फ़ोटो भेज सकती है। गरज यह कि दुनिया में घूमता-फ़िरता आदमी बड़े आराम से दुनिया को मुट्ठी में लिये घूम सकता है।

जितनी दूरियां कम की हैं, बढाई भी उससे कम नहीं हैं इस औजार ने। आमने-सामने बैठे लोग अगर अपने-अपने मोबाइल में डूबे नहीं दिखते तो अंदेशा होता है कि कहीं वे किसी और ग्रह के प्राणी तो नहीं। एक ही कमरे में बैठे लोगों के बीच अगर संवाद कायम नहीं है तो इसका मतलब यही समझा जा सकता है कि उस कमरे में मोबाइल नेटवर्क गड़बड़ है।

मोबाइल ने बिना शर्मिन्दगी के झूठ बोलना सुगम बनाया है। नाई की दुकान पर दाढी बनवाता आदमी अपने को दफ़्तर में बता सकता है। बगल के कमरे में बैठा आदमी अपने को सैकड़ो मील दूर होने की बात कहकर मुलाकात से बच सकता है। घंटी बजने पर फ़ोन उठाकर बात करने की बजाय तीन दिन बाद कह सकता है – ’अभी तेरा मिस्डकाल देखा। फ़ोन साइलेंट पर था। देख नहीं पाया।’

समय के साथ आदमी की औकात का पैमाना हो गया है मोबाइल। फ़ोर्ड कार वाले आदमी को मारुति कार वाले पर रोब मारने के लिये उसको बहाने से सड़क पर लाना पड़ता था। मोबाइल ने रोब मारने का काम आसान कर दिया है। आदमी अपनी जेब से एप्पल का नया आई फ़ोन निकालकर मेज पर धरकर वही रुतबा काबिल कर सकता है जो रुतबा गुंडे लोग बातचीत के पहले अपना कट्टा निकालकर मेज पर धरकर गालिब करते थे।
मोबाइल और इंसान समय के साथ इतना एकात्म हो गये हैं कि एक के बिना दूसरे की कल्पना मुश्किल हो गयी है। किसी आदमी को खोजना हो तो उसका फ़ोन खोजना चाहिये। इंसान अपने फ़ोन के एकाध मीटर इधर-उधर ही पाया जाता है।

मोबाइल के आने से दुनिया में बहुत बदलाव आये हैं। कभी अपने जलवे से मोबाइल की दुनिया का डॉन कहलावे वाले नोकिया के हाल आज मार्गदर्शक मंडल सरीखे बस आदर देने लायक रह गये हैं। किलो के भाव मिलने वाले मोबाइलों से लेकर एक किले तक की कीमत वाले मोबाइल हैं आज बाजार में।

तकनीक की साजिश से खरीदते ही पुराना हो जाता है मोबाइल। सामने की जेब से आलमारी के कोने तक पहुंचने की यात्रा जितनी तेजी से पूरी करता है उतनी तेजी से बस नेता लोग अपना बयान भी नहीं बदल पाते।
मोबाइल का एक फ़ायदा यह भी है कि इसके चलते देश की तमाम समस्याओं से देश के युवाओं का ध्यान हटा रहता है। वे मोबाइल में मुंडी घुसाये अपना समय बिताते रहते हैं। मोबाइल न हो तो वे अपनी मुंडी घुसाने के लिये किसी और उचित कारण के अभाव में बेकाबू हो सकते हैं।

मोबाइल कभी बातचीत के काम आते हैं। आजकल मोबाइल का उपयोग इतने कामों में होने लगा है कि बातचीत का समय ही नहीं मिलता। फ़ोटो, चैटिंग, के अलावा लोग मारपीट के लिये अद्धे-गुम्मे की जगह अपने पुराने मोबाइलों पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। टाइगर वुड्स की प्रेमिका ने वुड्स की बेवफ़ाई की खबर पाने पर अपने मोबाइल का हथियार के रूप में प्रयोग करके इसकी शुरुआत की थी। ऐसा फ़ेंक कर मारा था मोबाइल कि टाइगर वुड्स का दांत टूट गया था। भारत-पाक सीमा पर भी देश के पुराने मोबाइल इकट्ठे करके फ़ेंककर मारे जा सकते हैं। अपना कूड़ा भी उधर चला जायेगा और जलवा भी कि हिदुस्तान इतना काबिल मुल्क है कि मारपीट तक में मोबाइल प्रयोग करता है।

किसी भी देशभक्त कथावाचक की दिली तमन्ना की तरह बस यही बताना बचा है मेरे लिये कि दुनिया में यह तकनीक भले ही कुछ सालों पहले आई हो लेकिन अपने भारतवर्ष में महाभारतकाल के लोगों को मोबाइल तकनीक की जानकारी थी। महाभारत की मारकाट के बाद पांडव जब स्वर्ग की तरफ़ गये थे तो साथ में अपना कुत्ता भी ले गये थे। वास्तव में वह कुत्ता पांडवों का वोडाफ़ोन मोबाइल था। पांच भाइयों की साझे की पत्नी की तरह उनके पास साझे का मोबाइल था। जब देवदूत युधिष्ठर को अकेले स्वर्ग ले जाने की कोशिश करने लगे तो उन्होंने बिना कुत्ते के स्वर्ग जाने से मना कर दिया। अड़ गये। बोले-“ ऐसा स्वर्ग हमारे किस काम का जहां मेरा मोबाइल मेरे पास न हो।“ अंत में देवदूत युधिष्ठर को उनके मोबाइल समेत स्वर्ग ले गया।

महाभारत काल में सहज उपलब्ध मोबाइल तकनीक को हजारों साल चुपचाप छिपाये धरे रहे और इंतजार करते रहे कि जैसे ही कोई विदेशी इसको चुराकर मोबाइल बनायेगा हम फ़टाक से महाभारत कथा सुनाकर बता देंगे कि जो तुम आज बना रहे हो वो तो हम हज्जारों साल पहले बरत चुके हैं।

महाभारत काल में सबसे पहले प्रयोग किये मोबाइल का हजारों साल बाद फ़िर से चलन में आना देखकर यही कहने का मन करता है-“ जैसे मोबाइल के दिन बहुरे, वैसे सबसे बहुरैं।“

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Thursday, September 22, 2016

धर्मस्थल बहुत बड़े स्पीड ब्रेकर हैं



आज सबेरे घर से निकले तो घर के बाहर सड़क पर एक कुत्ता हमारी तरफ़ अपना पिछवाड़ा किये खड़ा दिखा। उसका खड़े होने अंदाज कुछ ऐसा था जैसे अंधेरे में सड़क किनारे निपटने को बैठी गठरियां किसी गाड़ी के गुजरने पर अपनी जगह खड़ी होकर गार्ड ऑफ़ आनर सरीखा देने लगती हैं (गठरियां और गार्ड ऑफ़ आनर वाला बिम्ब रागदरबारी से उडाया)। कुत्ते के अंडकोष किसी प्रभावशाली नेता से हमेशा सटकर चलने वाले चमचों से केवल इस मायने में अलग से लगे कि यहां उनको धकियाकर कोई खुद चमचा श्री बनने को उतारू नहीं था।

हमारे सामने से हमारे अखबार वाले मिसरा जी साइकिल पर जाते दिखे। क्या पता उन्होंने हमको दूर से आते देख लिया होगा शायद इसीलिये गरदन झुकाकर साइकिल चलाते हुये चले गये। नजरें मिलतीं तो नमस्कारी-नमस्कारा होता। आगे आर्मापुर इंटरकालेज के बाहर कुछ बच्चे गेट खुलने का इंतजार कर रहे थे। शायद बच्चे देरी से आये थे और अन्दर प्रार्थना शुरु हो गयी होगी। गेट खुलने के बाद बच्चे अंदर जायेंगे तब शायद कोई अध्यापक इनके नाम नोट करते हुये कुछ हल्की-फ़ुल्की सजा भी दे।

कालपी रोड पर आते ही सड़क एकदम रनिंग ट्रेक की तरह सफ़ाचट दिखी। हमने धक्काड़े से गाड़ी बढ़ा दी। विजय नगर चौराहे पर महाकवि भूषण की प्रतिमा खुले में खड़ी सवारियों को आते-जाते देखती होगी। सोचती होगी - "दायें देखूं या बायें देखूं, या फ़िर सामने ही गरदन किये रहूं । हर तरफ़ तो गाडियों की भीड है।

एक बच्ची धीरे-धीरे स्कूटी चलाती हुई चौराहा पार कर रही थी। उसकी पीठ पर उसका स्कूल बैग था। कोई गाड़ी होती तो हम उससे पहले पार करते लेकिन बच्ची को देखकर हमने अपनी गाड़ी हड़बड़ी से पार करने की इच्छा को ’नो’ कहा और बच्ची के चौराहा पार करने के बाद ही गाड़ी आगे बढाई।

आगे जरीब चौकी के पहले एक मजार के पास कुछ लोग चादर फ़ैलाये खड़े थे। सड़क के इस अतिक्रमण का जबाब देने के लिये सामने भी सड़क घेर कर एक मंदिर बना हआ था। आदमी लोग सड़क पर चल रहे थे, धर्म खड़ा हुआ था। जो उसके चक्कर में आ रहा था उनको भी ठहराये दे रहा था। धर्मस्थल बहुत बड़े स्पीड ब्रेकर हैं।

जरीब चौकी रेलवे क्रासिंग भी हमारे सम्मान में दोनों बैरियर फ़ैलाये खड़ी थी। हम शान से उसको पार करते हुये बढे। एक दिन जब क्रासिंग के पास से गुजर रहे थे तब ही क्रासिंग बन्द होने का समय हो गया। बैरियर नीचे होते देख हमने गाड़ी तेज भगाई, हार्न उससे भी तेज भगाया। हमारी तेजी देखकर गेटमैन ने बैरियर रोक दिया। हमने भी गाड़ी के अन्दर बैठे-बैठे सर झुकाकर बैरियर पार किया। क्रासिंग पार करके हमने रुककर संतोष, सुकून और इत्मिनान की सांस ली। अगर पीछे से गाड़ी हार्न नहीं बजाती तो तीन-चार और सांसे ले डालते। गाड़ियों के भभ्भड़ में आजकल सड़क खड़े होकर सांस लेना भी मुहाल हो गया है !

क्रासिंग के आगे एक रिक्शे में तीन बकरियां लदी जा रहीं थीं। बकरियां उसी तरह लदी-फ़ंदी थी रिक्शे पर जिस तरह बच्चों को स्कूल ले जाते हैं स्कूल रिक्शे वाले। बकरियों के पैर नीचे आपस में बंधे हुये थे। बकरियां आपस में ऐसे चहचहाते, मुस्कराते हुये हुये जा रही थीं मानों रिक्शेवाला उनको कहीं पिकनिक पर ले जा रहा हो।

पता चला कि रिक्शेवाला उनको बाकरगंज से किसी दुकान पर ले जा रहा है। एकाध दिन में बिक/कट जाने वाली बकरियां ऐसे चहकती हुई जा रही थीं जैसे किसी मल्टीनेशनल में नौकरी पाया कोई नौजवान उत्फ़ुल्ल मुद्रा में पहली बार जाता होगा वहां थोड़ा केयरलेस सा दीखता हुआ उससे ज्यादा सशंकित सा।

अनवरगंज स्टेशन के पास सड़क के बीच में पंकज जी बैठे मिले। देखते ही हाथ मिलाया और बोले-" जार्डन वाले घूम रहे हैं। सुरक्षा की चिन्ता है। कोहली के आदमी हैं सब। बुलेटप्रूफ़ जैकेट पहन के रहिये।" हमने पूछा -"चाय पी ली?" बोले -" अभी जा रहे हैं पीने।" हम नमस्ते करके आगे चल दिये।

टाटमिल चौराहे के आगे तीन पुलिस वाले सड़क पर खरामा-खरामा चहलकदमी करते हुये सड़क पार करते दिखते। पीछे तीन महिला पुलिसकर्मी वर्दी में आपस में खड़ी होकर वहीं बतिया रहीं थी। आगे बच्चियां सड़क पर कुछ-कुछ खेल रहीं थीं।

हम इस सब नजारे को निहारते हुये समय पर जमा हो गये फ़ैक्ट्री में आज सुबह !

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Wednesday, September 21, 2016

व्यंग्य के बहाने-3


आज अरविन्द तिवारी जी ने लिखा:
"हमें तेरा व्यंग्य दिखता है तुझे मेरा नहीं ।तेरा छपना छपना है मेरा छपना फ़र्ज़ी है।बेट्टा जिस दिन दिए हुए एक ही विषय पर हम दोनों लिखेंगे ईश्वर शर्मा और लतीफ़ घोंघी की तरह उस दिन तेरी औक़ात सामने आ जायेगी।बहुत प्रतिभाशाली बन रहा है।"
यह पढ़ते ही गए अपने किताबों के मोहल्ले में- ’व्यंग्य की जुगलबन्दी’ खोजने। इधर-उधर, दायें-बाएं खोजने-खाजने पर भी जब नहीं मिली तो फर्श पर ही धम्म से बैठगये फसक्का मारकर। मुंडी झुकाकर एक-एक किताब खोजे तो मिल गयी लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा की 'व्यंग्य की जुगलबन्दी'।
यह जुगलबन्दी व्यंग्य के क्षेत्र में एक अनूठा प्रयोग था। लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा ने व्यंग्य के नियमित स्तम्भ के रूप में एक ही विषय पर व्यंग्य लिखे। उनको अमृत सन्देश, रायपुर और अमर उजाला बरेली-आगरा अख़बारों ने प्रकाशित किया। बाद में 1987 में सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली ने इस जुगलबन्दी को छापा।
व्यंग्य की जुगलबन्दी में 17 विषयों पर व्यंग्य हैं। आदरणीय, फायरब्रिगेड, प्रश्नचिन्ह, जूता, चिंता, पतझड़, क्रिक्रेट, पूंछ, बेशरम, फ़िल्म, सम्भावना, अनशन, आश्वासन, अस्पताल, शवयात्रा, श्रद्धांजलि, बिदाई विषयों पर दोनों लेखकों ने लिखा है। व्यंग्य के नमूने के रूप में एक फ़ोटो संलग्न है।
आज व्यंग्य तो बहुत लिखा जा रहा है लेकिन इस तरह के प्रयोग नहीं दीखते। व्यंग्य बहुतायत में लिखे जाने के साथ चिरकुट हरकतें भी थोक के भाव हो रहे हैं। लेकिन इस तरह के खिलंदड़े प्रयोग नहीं हो रहे। सबको आगे , बहुत तेजी से आगे बढने की जल्दी है।
हम अपने तमाम व्यंग्य के साथियों से आह्वान करते हैं कि व्यंग्य की जुगलबन्दी जैसा प्रयोग करें। अपना लेखक साथी तय करें। हर हफ्ते या जैसी जमे वैसी जुगलबन्दी करें। विषय पहले से खुद तय कर लें। पिछली जुगलबन्दी पर पाठक कुछ सुझाते हैं तो उस विषय पर लिखें। फेसबुक या जो भी अड्डा तय हो उस पर एक ही दिन और हो सके तो एक ही समय साझा करें। जो जुगलबन्दी साल भर करें उसे छपवा लें और व्यंग्य के खजाने में हीरे, जवाहरात या कूड़ा की मात्रा में इजाफा करें।
जोड़ी बनाते सम्भव है तो ऐसे के साथ बनायें जिससे आपकी पटती हो। जोड़ीदार के बीच आपसी समझ हो। एक दुसरे को झेल सकने की क्षमता हो।
मैं इतवार को व्यंग्य की जुगलबन्दी करने को तैयार हूँ। सुबह सात बजे अपना व्यंग्य फेसबुक पर पोस्ट कर दूंगा। अब हम अपना जोड़ीदार खोज रहे हैं। बताइये कौन बनेगा हमारा साथी लेखक। पहले साथी तय होगा फिर उसके साथ बकिया बातें भी तय हो जाएंगी। है कि नहीं ?
अभी अपनी तरफ से बातें ज्यादा नहीं कर रहा। साथियों की प्रतिक्रियाओं के हिसाब से आगे का प्रोग्राम तय होगा।


Tuesday, September 20, 2016

इतवार को वृद्धाश्रम

इतवार को वृद्धाश्रम जाने और घोष जी से मिलने का किस्सा बयान किया कल हमने। हम घोष जी के अलावा और भी कई लोगों से मिले वहां। उनके बहाने वृद्धाश्रम के कुछ और किस्से सुनाते हैं आपको।
वहां पहुंचते ही सबसे पहले दफ़्तर में चौधरी जी और गुप्ता जी से मुलाकात हुई। चौधरी जी वहां के दफ़्तर का काम काज देखते हैं। कौन वृद्धाश्रम में आया , कौन गया। किसकी भर्ती होनी है, किसके घर वाले उसको वापस ले जाने आये हैं। आमतौर पर घर वाले कम ही आते हैं लेने के लिये। बड़े घर वाले ही ले जाने के लिये आते हैं ज्यादातर। गुप्ताजी बता रहे थे कि उन्होंने 11 महीने के दौरान 11 मौते देखीं।
गुप्ताजी ने बताया कि नौकरी की शुरुआत उन्होंने आर्डनेन्स फ़ैक्ट्री से की थी। एक अंग्रेज जिसका नाम मिलर था उसने उनका ब्वायस आर्टीशन का इम्तहान लेने के बाद भर्ती की थी। टाप किया था इम्तहान में। भर्ती के बाद लोहा घिसने में लगा दिया गया। लोगों ने बताया - ’हाथ में ढट्ठे पढ जायेंगे छह महीने में।’ हफ़्ते भर बाद जाना छोड़ दिया नौकरी। कई बार बुलाने के लिये आदमी भेजे मिलर साहब ने लेकिन नहीं गये।
बाद में कई प्राइवेट नौकरी करते हुये ऊंचे पदों पर । एक आंख खराब हो गयी। डाक्टरों ने बताया कि आपरेशन सफ़ल होने पर आंख ठीक होने के 20% चांस है। लेकिन असफ़ल रहा तो दूसरी की रोशनी भी चली जायेगी। इसलिये नहीं कराया।
अस्सी पार के गुप्ता जी उमर और चुस्ती से साठ से भी कम दिखते हैं। बाल भी सफ़ेद नहीं। कभी डाई नहीं किया । बताया कि चालीस के आसपास कनपटियों के पास के कुछ बाल जो सफ़ेद होना शुरु हुये थे वे भी बाद में काले हो गये।
गुप्ता जी का बच्चा अपनी मां के साथ गुड़गांव रहता है। पत्नी के रहते अकेले कैसे रहते हैं वृद्धाश्रम में पूछने पर गुप्ता जी ने बताया-" यहां डा. अग्रवाल हैं उनके पास इलाज चलता है उनका। सब बीमारियों के लिये एक डाक्टर हैं। जबकि गुड़गांव में हर बीमारी के लिये अलग डाक्टर के पास जाना पड़ता है। घर वालों से बात होती रहती है। बेटा कहता है ’जब आप बताओगे हम आपको ले जायेंगे।’"
गुप्ता जी से मिलकर फ़िर घोष जी के कमरे में गये। छोटे कमरे में घोष जी के अलावा दो और बुजुर्ग रहते हैं। एक गुप्ता जी जिनका जिक्र किया अभी। उनके अलावा एक और गुप्ता जी -गणेश दास गुप्ता रहते हैं। नौघड़ा में प्राइवेट काम करते थे। बिटिया थी उसकी शादी कर दी। उमर अस्सी पार है। दांत नहीं हैं। खाना खाने में घंटो लगते हैं। कई बार निपटने जाना पड़ता है इसलिये खाना खाने में परहेज करते हैं। नहाने बहुत कम हैं। घोष जी मजे लेते हुये बोले-" बनिया आदमी सोचता है वजन कम हो जायेगा नहाने से।"
गुप्ता जी बात करते हुये खाने का समय हो गया। लोग अपने-अपने बिस्तर के नीचे से कटोरी खाने बने हुई थाली लेकर किचन की तरफ़ जाने लगे। हम घोष जी के साथ गुप्ता जी का खाना लेने गये। इसी बहाने किचन सेवा देख लेंगे यह सोचते हुये।
किचन में खाना बंट रहा था। इतवार को एक दम्पति ने अपनी तरफ़ से खाने का इन्तजाम किया था। 5500 से 7500 रुपये तक खर्च होते हैं एक बार के खाने के।
वहीं एक महिला कुर्सी पर बैठी हवा में हाथ हिलाते हुये किन्हीं लोगों पर भयंकर गुस्साते हुये हुये कुछ-कुछ बोलती जा रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई वीर रस का कवि हवा में मुट्ठियां भांजते हुये दुश्मन देश को ललकार रहा हो। पता चला कि नगर निगम में अध्यापिका थी अन्नपूर्णा नाम की यह महिला। रिटायरमेंट के समय जो पैसा मिला उसको उसके संबंधी हड़प गये। इसी से विक्षिप्त हो गयी वह महिला।
वृद्धाश्रम के बरामदे में पड़े पलंग पर बैठी यह महिला लगातार कुछ न कुछ बोलती, गुस्से में किसी पर नाराजगी दिखाती से लगती है। पूरे वृद्धाश्रम के सन्नाटे को एक अकेली विक्षिप्त आवाज तोड़ती रहती है।
गुप्ता जी का खाना लेकर हम वापस आ रहे थे तो एक बिस्तर पर खाना खाने बैठी बूढा माता ने रायता लाने के लिये कहा। उनको जो रायता मिला था वह खत्म हो गया था। उनको साथ में मिला राजमा पसंद नहीं था इसलिये खाना रायता से ही खाया। सब्जी छोड़ दी। हमने रायता लाकर दिया तो बगल वाली दूसरी बुजुर्ग महिला ने अपनी लुटिया थमा दी पानी लाने के लिये। वाटर कूलर के पास बहुत फ़िसलन थी। जरा सा चूके तो गये काम से। थोड़ा आगे बर्तन धोये जाते तो फ़िसलन नहीं होती। लेकिन सार्वजनिक स्थान पर काम-काज में अराजकता सहज दु्र्गुण है।
कमरे पर आकर घोष जी से फ़िर बातें हुयीं। उन्होंने बताया-"यहां जो लड़की हमारी देखभाल करती है उसके तीन बच्चे हैं। वीरेन्द्र स्वरूप में पढते हैं। उनको हम पढ़ाते हैं। उसका आदमी भयंकर दारू पीता था। कहीं चला गया। लड़की के स्वसुर आते हैं बहू को देखने। पिछली बार आये थे बहुत मंहगा मोबाइल लाये थे देने के लिये। हमने टोंका कि इतनी कम उमर में इतना मंहगा मोबाइल देने से तो लड़का बिगड़ जायेगा। इस पर वे बोले -अरे नाती है। मांगता है तो दे दिया।"
लौटते समय चौधरी जी बात नहीं हो पायी। वे सोने जा चुके थे। आते समय उनको बता दिया था कि उनके पेंशन के लिये हम पता कर रहे हैं। लेकिन अगर त्यागपत्र दिया जाता है नौकरी से तो शायद पेंशन नहीं मिलती।
आज अभी सुबह जब यह पोस्ट लिख रहे थे तो घोष जी के मित्र दुलाल चटर्जी से बात हुई। वे 2004 में आर्डनेन्स फ़ैक्ट्री, अम्बाझरी से कार्यप्रबंधक के पद से रिटायर हुये। घोष जी के बारे में बताया -" बचपन में फ़ीलखाने के पास उसके घर हम जाते थे। अकेला लड़का था। खूब दुलार में बिगड़ने जैसा होता है वैसा ही कुछ। जब हम उससे मिलने जाते थे तब वह तख्त पर बैठा रहता था और उसकी मां उसको मोजा-जूता पहनाती थी।"
दुलाल जी ने यह भी कहा-दिलीप घोष एक तरह से स्प्वायल्ट जीनियस है। लेकिन गप्प भी बहुत मारता है। बचपन में हम लोगों से कहता था -हम तुम्हारे ऊपर से हवाई जहाज से उड़कर आये थे। बाद में वह क्राइस्ट चर्च पढने चला गया। हम दूसरी जगह चले गये। संपर्क नहीं रहा। लेकिन घर नहीं बसाया घोष ने। ज्यादा जानकारी और नहीं है उसके बारे में।"
अब दो मित्र मिल गये हैं। इनके बहाने घोष जी के बारे में और बातें पता चलेंगी। फ़िलहाल तो वृद्धाश्रम से 15 लोग मथुरा-वृन्दावन आदि जाने वाले हैं। किसी ने स्पान्सर किया है टूर। घोष जी नहीं जायेंगे। लेकिन गुप्ता जी और चौधरी जी जायेंगे शायद ! मैंने वहां घोष जी का और उस बुजुर्ग महिला अन्नपूर्णा का एक छोटा वीडियो भी बनाया था। वह अलग से पोस्ट करेंगे। अभी इतना ही। बकिया फ़िर कभी।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209135600160588

Monday, September 19, 2016

दिलीप घोष से मुलाकात

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209123242291649
आज इतवार की छुट्टी थी। दिलीप घोष जी को फ़ोन किया यह पता करने के लिये कि उनका बाहर जाने का कोई कार्यक्रम तो नहीं है। आज मौसम कुछ गड़बड़ाया हुआ था सो उनका मेडिकल कालेज जाना स्थगित हो गया था। हम उनको बताकर फ़टफ़टिया स्टार्ट करके निकल लिये।

घर के बाहर निकलते ही देखा कि एक दस-बारह साल का बच्चा साइकिल के कैरियर बैठा साइकिल चला रहा था और उसकी गद्दी पर एक छोटे दो-तीन साल के बच्चे को बैठाये चला रहा था- एक संरक्षक की तरह। आवास विकास गेट से बाहर निकलकर नहरिया के किनारे-किनारे होते हुये स्वराज आश्रम पहुंच गये।
आश्रम के बाहर ही एक महिला बाहर पड़ी सीमेन्ट की बेंच के नीचे लेटी - ’दे दे, अल्लाह के नाम पर दे दे’ का आवाज लगाती हुई बोले चले जा रही थी। पता चला कि वह मुस्लिम महिला शहर में कहीं भीख मांगती थी। उसको शहर के अधिकारी यहां छोड़ गये थे। मांगने की आदत ऐसी हो गयी है कि खाना खाने के तुरन्त बाद भी खाने को मांगती रहती है। आश्रम में भी दिन भर बाहर मांगने की आवाज लगाती रहती है। फ़िर शाम को अंदर आकर सो जाती है।
वृद्धाश्रम में कई लोगों से मिले लेकिन पहले दिलीप घोष जी के बारे में। पिछली बार जब गये थे मोबाइल की बैटरी खल्लास हो गयी थी। इसलिये फ़ोटो नहीं ले पाये थे। इस बार बैटरी पूरी लबालब करके ले गये थे। दिलीप घोष जी से खूब बातें हुई। कई फ़ोटो भी लिये उनके। एक वीडियो भी बनाया। उसको भी दिखायेंगे आपको।
मैंने सबसे पहले घोष जी को उनके मित्र दुलाल कृष्ण चटर्जी (https://www.facebook.com/profile.php…) के बारे में जानकारी दी। दो दिन पहले दुलाल कृष्ण चटर्जी जी ने मेरी पोस्ट में लिखा था:
"बहुत अच्छा लगा। दिलीप घोष के बारे में बताइए। वह मेरा क्लासमेट रह चुका है। उड़ती उड़ती खबर मिली थी कि वह किसी वृद्धाश्रम में है। आपके पोस्ट से कन्फर्म हुआ। दिलीप घोष के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक हूँ। आपके पास कोई खबर हो तो बताएं।"
घोष जी ने बताया कि दुलाल उनके बचपन का मित्र है। दुलाल जी आर्डनेन्स फ़ैक्ट्री, अम्बाझरी से रिटायर्ड हैं। उनका नम्बर मांगा है, उनको घोष जी का नम्बर दे दिया है। आशा है जल्दी ही दोनों मित्रों में बात होगी।
आज जाने से पहले बता दिया था सो घोष जी हमारा इन्तजार कर रहे थे। फ़ोन पर किसी से प्रायिकता (probalibilty) के बारे में कुछ बता रहे थे। कुछ देर बात होने के बाद फ़िर हमसे गुफ़्तगू हुई और खूब हुई। और कोई किस्सा सुनाने से पहले आइये आपको उनके बारे में कुछ बता दिया जाये।
8 जून, 1949 को कानपुर में जन्मे घोष जी की बचपन की पढाई एक बंगाली स्कूल में हुई। बीएससी की एक फ़ोटो दिखाई उन्होंने। क्राइस्टचर्च कालेज से सन 1962-63 की वह फ़ोटो पीरोड स्थित प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र कपूर स्टूडियो वालों ने खींची थी। अभी भी वह दुकान पीरोड पर है।
बीएससी के बाद एम.एस.सी. किये और फ़िर आई.आई.टी से पी.एच.डी. करते हुये क्राइस्टचर्च कालेज में पढ़ाने भी लगे। 19 साल की उमर में पढ़ाना शुरु किया। सबसे युवा अध्यापक थे। मेडिसिनल केमेस्ट्री में पीएचडी करने के बाद अमेरिका चले गये घोष जी। 20 साल वहां रहे। फ़िर लंदन चले गये। वहां पीएचडी करने के बाद दस साल अंग्रेजी पढाया। फ़िर फ़्रांस चले गये। पेरिस में पांच साल एटामिक इनर्जी की फ़ील्ड में काम करने के बाद भारत चले आये। आई.आई.टी. में 12 साल पढाया और अब रिटायर होकर यहां वृद्धाश्रम में आ गये।
हमारे मित्र Gaurav Srivastava ने जानना चाहा कि आज जब लोग अमेरिका जाने के लिये परेशान रहते हैं तो घोष जी वहां बीस साल रहने के बाद लौट क्यों आये? यह सवाल जब मैंने घोष जी पूछा तो उन्होंने कहा -’हमको अमेरिका पसंद नहीं आया। वहां का खाना नहीं अच्छा लगा। अमेरिका में जब तक आप काम लायक तब तक आप GOD हैं जैसे ही आपकी यूटिलिटी कम हुई आप DOG हो जाते हैं।’
हमने पूछा आपके जीवन का सबसे अच्छा समय कौन सा बीता ? उन्होंने बताया - ’एक तो क्राइस्टचर्च कालेज में पढाई का समय। उसके बाद लंदन में बिताया समय। ये सबसे अच्छे समय रहे हमारे जीवन के।’
”वृद्धाश्रम में कैसे रहने आये?’ इस सवाल के जबाब में घोष जी ने बताया कि वे रिटायरमेन्ट के बाद स्वरूप नगर में एक बिल्डिंग के दसवें माले में रहते थे। वहां एक बुजुर्ग की मौत हुई तो तीन दिन बाद जब लाश सड़ने लगी तब लगा कि वहां रहे तो मर जायेंगे और किसी को पता भी नहीं चलेगा। उसके बाद यहां चले आये। यहां रहते हुये चार साल हो गये। माताजी (आश्रम की संचालिका मधु भाटिया जी) हमेशा ख्याल रखती हैं।
हमसे बतियाते हुये घोष जी को लगातार हिचकी सी आ रही थीं। बताया कि उनको गैस की समस्या है। उनको कोई भी ऐसी चीज खाने की मनाही है जिससे गैस बनती हो। चाय के भयंकर शौकीन लेकिन गैस के चलते चाय मना है। मेडिकल कालेज भी जब पढाने जाते हैं तो वहां के प्रोफ़ेसर भी चाय पर पाबंदी लगाये हुये हैं। बीच-बीच में पास में रखे जग से पानी पीते हुये, हिचकी और गैस पर नियंत्रण की कोशिश करते हुये घोष जी और हम बतियाते रहे।
हमको दिखाने के लिये घोष जी ने कई फ़ोटो निकालकर रखे थे। एक में छुटके बच्चा, दूसरे में पहली पीएचडी का फ़ोटो. तीसरी में तीन दोस्तों का फ़ोटो और क्राइस्टचर्च कालेज का एक ग्रुप फ़ोटोग्राफ़। तीन दोस्तों वाला जो फ़ोटो था उसमें से एक के बारे में बताया -’ ये आलोक डे है। आज इंडिया में स्टेटिस्टिक (सांख्यकी) की फ़ील्ड में सबसे बड़ा नाम है। हम लोग साथ में पढ़ते थे। देश-विदेश ऐसे आता-जाता रहता है जैसे हम लोग एक कमरे से दूसरे में जाते हैं।’ आलोक डे के बारे में आगे बताने के पहले घोष जी ने स्टेटिस्टिक्स के बारे में मजेदार अंदाज में बताया -’दुनिया में तीन झूठ में से सबसे बड़ा झूठ स्टेटिस्टिक्स होता है।’ मजे लेने के बाद यह भी बताया कि स्टेटिस्टिक्स के निष्कर्ष इस बात पर निर्भर करते है कि जिन आंकडों के आधार पर कोई निष्कर्ष निकाला जा रहा है वे आंकड़े कितनी ईमानदारी से इकट्ठा किये गये हैं।
आलोक डे के बारे में बताया कि इसके हाईस्कूल में गणित में 100 में 28 अंक आये थे। पांच अंक का ग्रेस लेकर पास हुआ था यह। उसके बाद ऐसा लगन से पढाई किया कि आज इंडिया का टाप स्टेटिस्टीसियन है।
हमने फ़िर उनसे उनके जीवन में आई महिलाओं की चर्चा की। पूछा कि जीवन में कोई तो ऐसी रही होगी जिसका साथ अभी तक याद आता होगा। बताया -’ कालेज में एक लड़की थी। बहुत खूबसूरत। मोहनी साहिनी नाम था उसका। उससे हमारी बहुत अच्छी दोस्ती थी। खूबसूरत इतनी थी कि प्रोफ़ेसर लोग बहाने से उसको छू्ने की कोशिश करते। बाद में जब वह चली गयी । शादी हो गयी उसकी।’
’फ़िर बाद में कभी मुलाकात हुई उससे’- मैंने पूछा। बोले -" हां। हम एक दिन दिल्ली में थे तो कालेज के समय के एक दोस्त ने बुलाया और एक लेडी से मिलवाया। मोटी , उड़े हुये बाल गंजे सर वाली महिला को कि तरफ़ इशारा करते हुये पूछा -इनको पहचाने ? हमने कहा नहीं? फ़िर उसने महिला से पूछा - तुम इसको पहचानी? वो बोली - हां , ये दिलीप घोष है। फ़िर हमसे बोला- अबे साले बंगाली ये वही मोनिका साहनी है जिसके साथ बैठने के लिये तुम कुर्सी साझा करते थे।"
एक और बंगाली महिला का जिक्र भी किया बताया-" वह बहुत खूबसूरत थी और दिमाग भी बहुत अच्छा था। घर वाले भी एक-दूसरे को जानते थे। शादी की भी बात चली लेकिन हुई नहीं। हमने ही मना कर दिया। क्योंकि वह बहुत घमंडी थी। हमने कहा -इससे हमारी पटेगी नहीं। बाद में उसकी शादी हो गयी। अभी वह कोलकता में रहती है कहीं। अपने बच्चों और पति के साथ।"
घोष जी परिवार में चाचा और चचेरी भाई , बहन हैं। कलकत्ता में वर्धमान में 50 एकड पैतृक जमीन है। जमीन का बंटवारा होना है। चाचा लोग कहते हैं कि सारी जमीन बाढ में बह गयी। लेकिन पड़ोस का आदमी बताता है कि उस जमीन पर 8000 क्विंटल धान पैदा हुआ है। जमीन के बंटबारे की कोशिश में लगे हैं घोष जी। बंंटवारा हो गया तो अपने हिस्से की जमीन बेंचकर यहां कानपुर में जमीन खरीदकर इंजीनियरिंग कालेज खोलने की बात कर रहे थे घोष जी।
बताया कि उनके कई रिश्तेदार मुंबई में रहते हैं। बुलाते हैं इनको। कहते हैं यहां आ जाओ। लोगों को इंगलिश पढ़ाना और मजे से रहना। लेकिन घोष जी को मुंबई का मौसम पसंद नहीं है। बोले-" दिन भर पसीना बहता रहता है वहां ह्यूमिडी के चलते। हमको पसंद नहीं है। यहां देखिये अभी कितना अच्छा मौसम है। मुंबई में होते तो पसीना बहा रहे होते।"
मुंबई के ही मुलुंड इलाके के एक बैंक लाकर में घोष जी की सारी डिग्रियां रखी हैं। बोले - ’हमने बैंक को लिखित निर्देश दे रखे हैं कि हमारे मरने की खबर पाने पर मेरी डिग्रियां जला दी जायें।" हमने कहा -’क्यों जला क्यों देंगे।’ बोले -’ और क्या करना मरने के बाद डिग्रियों का? लड़के लोग डिग्री में रखकर समोसा खायें इससे अच्छा तो जला दी जायें।
इस बीच लंच का समय हो गया। हमने घोष जी से कहा-’ आप खाना खा लीजिये।’ बोले - ’मैं इतवार, मंगलवार और वृहस्पतिवार खाना नहीं खाता।’ इतवार और मंगलवार भले ही कुछ जूस, फ़ल पी खा लूं लेकिन वृहस्पतिवार को किसी भी तरह नहीं खाता। मेरी मां को वृहस्पतिवार के ही दिन खाना खाते समय दिल का दौरा पड़ा था और वह कौर मुंह तक ले जाने के पहले ही दिल के दौरे से बेहोश हो गयी और मर गयी। इसलिये हम वृहस्पतिवार को बिलकुल खाना नहीं खाते।
फ़ल के बारे में भी एकदम चूजी हैं घोष जी। केवल चार फ़ल खाते हैं - आम, लीची, संतरा और अनानास। इसके अलावा और कोई फ़ल खाना पसंद नहीं करते।
घोष जी के पास बहुत पुराना लोहालाट घराने का नोकिया का मोबाइल है। उसमें बैलेन्स उनके स्टुडेंट डलाते रहते हैं। छात्र जो कि इंजीनियर हैं, डाक्टर हैं और चार्टेड एकाउंटेंट हैं। स्मार्टफ़ोन के बारे में उनका कहना है- ’ ये घिसने वाले वाले मोबाइल हमको पसंद नहीं हैं।’ नोकिया के 220 माडल के बारे में किसी ने बताया है उनको कि वो उनको पसंद आ जायेगा।
हमने उनसे पूछा -अब जीवन के इस पड़ाव पर आकर जीवन को किस तरह देखते हैं- बोले -’आई फ़ील दैट आई हैव बीन चीटेट इन माई लाइफ़। मुझे लोगों ने धोखा दिया। मैंने लोगों पर भरोसा करके लोगों के लिये बहुत कुछ किया लेकिन लोगों से मुझे हमेशा धोखा मिला।’
हमने पूछा -आपने शेक्सपियर को बहुत पढा है। शेक्सपियर के किस पात्र से अपने को कोरिलेट (संबंद्ध ) कर पाते हैं। एक मिनट सोचने के बाद बोले- ’ मैं अपने को किंग लेयर से रिलेट करता हूं। जिस तरह किंग लेयर को उसके साथ वाले लोगों ने परेशान किया उसी तरह का हाल मेरा भी रहा।’
घोष जी से बात करते हुये और बाद में भी मैं सोचता रहा कि जीवन कितना बहुरंगी होता है। एक ही इंसान के जीवन में कैसे-कैसे मोड़, उतार चढाव आते रहते हैं।
न जाने कितनी बातें और हुई घोष जी से। करीब तीन घंटे गपियाये। बात करते हुये कुछ देर बाद अचानक घोष जी को याद आया और बोले-" अरे आपसे बात करते हुये हिचकी बंद हो गया।’
घोष जी के बारे में फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी। 

Sunday, September 18, 2016

किताबें छपने के लिये तैयार

आज इतवार है। इतवार मतलब एत्तवार। घुमा के एतबार मने भरोसा करेंगे तो कोई रोकेगा तो नहीं न !
दो दिन पहले जन्मदिन के मौके पर आई शुभकामनाओं का शुक्रिया अदा करना है अभी। यह देख ही रहे थे कि पता चला कि अरे अभी तो पिछले साल की अनेक शुभकामनायें उधारी पर चल रही हैं। खैर चुक जायेगा उधार भी। उधार रहने से यादें बनी रहती हैं। आप चाहते हैं कि कोई आपको हमेशा याद रखे तो आपको उससे कुछ उधार लेकर चुकाना भूल जाना चाहिये। लोग उधार को प्रेम की कैची कहते हैं लेकिन यह भी सच है कि उधार याद का गोंद है, फ़ेवीकोल है।
पिछले साल जबलपुर में थे। इस बार कानपुर आ गये। जब भी पुरानी पोस्ट देखते हैं , जबलपुर की याद आती है। लगता है अरे हम जबलपु्र भी रहे हैं। समय कित्ती तेजी से बदलता है न!
इस साल हमारी किताब आई ’बेवकूफ़ी का सौंदर्य’। 1000 कापी छापी थी कुश ने। बताया करीब 500 बची हैं। मल्लब 500 किताबें करीब निकल गयीं। 3 महीने में 500 किताब निकल जाना मजेदार अनुभव है। अभी तो और तमाम निकलेंगी। है कि नहीं?
अब जब किताब छपना शुरु हुआ है तो कई किताबें छपने के लिये तैयार हो गयी हैं। कई बार लिस्ट भी बनाये हैं। देखिये आपको भी बताते हैं:
1. पुलिया पर दुनिया (छप चुकी, अपडेट करना है)
2. बेवकूफ़ी का सौंन्दर्य ( छप चुकी, सुधारना है अगले संस्करण के लिये)
3. सूरज की मिस्ड काल (सूरज भाई के बारे में लिखी पोस्ट्स)
4. रोजनामचा ( जबलपुर की सैर के किस्से)
5. जबलपुर से कानपुर की ट्रेन यात्राओं के किस्से
6. लोकतंत्र का वीरगाथा काल ( पलपल इंडिया में छपे 51 लेख)
7. कट्टा कानपुरी के कलाम
8. झाड़े रहो कलट्टरगंज (कानपुर के किस्से)
9. एक और व्यंग्य संकलन ( भूमिका आलोक पुराणिक लिखेंगे )
10.व्यंग्यकारों से बातचीत
11. व्यंग्य उपन्यास
इसमें से ’सूरज की मिस्ड काल’ तो लगभग तैयार है। बस फ़ाइनल करना है। बकिया 4-9 तक सब बस छांटना और सुधारना है। व्यंग्यकारों से बातचीत और व्यंग्य उपन्यास वाला काम शुरु करना है। व्यंग्य उपन्यास का फ़ार्मेट तय करना है बस। लिखना शुरु कर देंगे बस फ़िर खतम करके ही मानेगे। लोगों के लिये होता होगा ’वेल बिगिन इस हाफ़ डन’। हमारे साथ तो भईया ऐसा है कि ’शुरु हुआ कि काम खतम।’ मने एक बार बस शुरु भर हो जाये। फ़िर तो काम निपट के ही मानता है। गनीमत है कि आलस्य संतुलन बनाये रखता है वर्ना हमारे पास तो कोई काम ही नहीं बचता करने को। सब निपट गये और साथ में अपन भी। अरे भाई जब आदमी के पास कुछ करने को ही नहीं बचा तो उसका होना न होना बराबर ही हुआ न। खाली मार्गदर्शक बनके रह जाता है आदमी जिसकी कोई नहीं सुनता !
निपट जाने की बात से एक मजेदार बात याद आई। जबलपुर और अभी कुछ दिन पहले कानपुर आने तक भी हमको सपने केवल दो तरीके के आते थे। एक में यह होता था कि इम्तहान आने वाले हैं और हमारी तैयारी हो नहीं पायी है। दूसरे में यह कि बस का समय हो गया है और हम बस स्टैंड तक नहीं पहुंच पाये। अब कानपुर आने पर सपनों में बदलाव आया है। अलग-अलग तरह के सपने आने लगे हैं। कुछ हसीन और कुछ ज्यादा ही हसीन। हम बतायेंगे नहीं बस आप समझ जाइये। एक दिन कुछ ज्यादा ही हसीन सपना आया उसके बारे में बताते हैं।
हम बता तो रहे हैं सपने के बारे में आपको अपना समझकर लेकिन कोई जन डांटना नहीं कि ऐसा समना काहे देखा। अब कोई सपने पर कोई पासपोर्ट, वीसा, टोल टैक्स थोड़ी लगता है। कोई सपना ’मे आई कम इन सर/ मैम’ कहकर थोड़ी घुसता है दिमाग में।
इस सपने में देखते हैं कि हम मर गये हैं। हमको जलाने के लिये चिता पर रखा गया है। लोग घी-तेल का इन्तजाम कर रहे हैं। हमको लगा कि अगर हम यहां आलस के चलते लेटे रहे तो हम जला दिये जायेंगे। हमको जलने का डर नहीं लगा लेकिन हमको लगा कि बताओ यार इत्ता कार्बनडाईआक्साइड बनने का कारण बने बनेगे हम। हमको गुस्सा आया कि मरने के पहले ’देहदान’ का फ़ार्म काहे नहीं भरे।
इससे ज्यादा और कुछ नहीं सोचे हम। हम बस फ़ौरन चिता से उठकर फ़ूट लिये। ऐसा फ़ूटे कि समझ लेव अगर इत्ता तेज ओलम्पिक में भागते तो हुसैन बोल्ट गन्डा बंधा रहा होता कि भाई साहब हमको भी सिखाइये न ऐसे स्पीड से भागना। हम कहते अरे बेट्टा कोई किसी को सिखाता नहीं। खुद अपना तरीका इजाद करना करना पड़ता है।
यह बात दो-तीन दिन पहले की है। एक बार तो मन किया कि कह दें जन्मदिन वाले दिन का सपना है। कोई हमारे सपने का सीडी थोड़ी है किसी के पास। लेकिन फ़िर सोचा कि क्या फ़ायदा झूठ बोलने से। झूठ बिना फ़ायदे के बोलना भी नहीं चाहिये। वैसे लोग जो झूठ बोलते हैं न वो हमेशा फ़ायदे के लिये ही नहीं बोलते। तमाम लोग आदतन बोलते हैं झूठ। इसलिये कि आदत बनी रहे। कुछ लोगों के झूठ सुनने की तो ऐसी आदत हो जाती है कि अगर सच बोलते हैं तो लगता है कि झूठ बोल रहे हैं।
बात जन्मदिन की चल रही थी। उस दिन की और सब बातें तो फ़िर कभी लेकिन सबेरे जब निकले तो लगा कि सारी किरणें मुस्कराते, खिलखिलाते हुये हमको जन्मदिन की बधाइयां दे रहीं थीं। पूरी सड़क पर रोशनी की कालीन टाइप बिछा रखी है सूरज भाई ने हमाये लाने। हम ऊपर देखे तो सूरज भाई भी मुस्करा रहे थे। और तो और उस दिन सड़क किनारे के पेड़ देखकर ऐसा लगा कि मानो सड़क गुलदस्ता भेंट कर रही हो। हम सोचे कि अब अगर गुलदस्ता लेने के चक्कर में पड़े तो देर हो जायेगी। सो टाटा करके निकल लिये आगे।
पंकज बाजपेयी से भी मिले उस दिन। बताया - ’आज जन्मदिन है हमारा’ तो हैप्पी बर्थडे बोले। यह भी कि केक खा लेना। आगे सड़क पर एक आदमी साइकिल के कैरियर पर पेटी लादे लिये जा रहा था। पेटी पर लिखा था - ’झमाझम कुल्फ़ी’ कीमत 3 रुपये 5 रुपये। सबेरे के समय भी साइकिल वाले के चेहरे पर शाम की फ़ोटो लगे देखे।
जब से घोष जी के बारे में बताया तमाम मित्रों ने उनके बारे में कई सवाल पूछे हैं। उनके जबाब और उनका फ़ोटो मिलने पर। एक उनके बचपन के मित्र भी मिले हैं फ़ेसबुक पर ही। फ़िलहाल उनके बारे में यही सूचना है कि दो दिन पहले जो उनको चोट लगी थी उसपर की पट्टी उन्होंने निकालकर फ़ेंक दी है। धड़ल्ले से नहा रहे हैं।
अब चले ! ज्यादा खटपट किये ऐसी हड़काये जायेंगे कि तबियत झन्ना जायेगी है। इतवार का शनीचर हो जायेगा। इसलिये फ़ूटते हैं गुरु । आप तसल्ली से रहिये। ठीक न !
’बेवकूफ़ी का सौंन्दर्य’ का लिंक http://rujhaanpublications.com/produ…/bevkoofi-ka-saundarya/
’पुलिया पर दुनिया’ की कड़ी https://pothi.com/…/ebook-%e0%a4%85%e0%a4%a8%e0%a5%82%e0%a4…