Thursday, February 29, 2024

पाठकों की टिप्पणिया और सुझाव

 


सोशल मीडिया पर सबसे बड़े और एकमात्र गुरु पाठक होते हैं। पाठकों की टिप्पणियां पोस्ट के श्रंगार की तरह होती हैं।
पुस्तक मेले से लौटते हुए मेट्रो से दिल्ली से नोयडा यात्रा के किस्से लिखे। उस पर अपनी टिप्पणी करते हुए Prahlad Singh जी ने टिप्पणी की:
"आपके लिए एक दिन का मसला था, जैसे कोई एडवेंचर हो. वैसे भी आप बचपन से ही एडवेंचर पसँद व्यक्ति है. किन्तु जिनके लिए यह रोज का मसला है वे उसे अपनी नियति मान उदाशीन हो गये है.
मेट्रो की भीड़ में पुरुष-पुरुष, स्त्री- स्त्री और स्त्री-पुरुष के शरीर अनचाहे ऐसे चिपके रहते है कि वैसे तो सहवास के चरमोत्कर्ष पर चाह कर भी स्त्री-पुरुष के शरीर एक दूसरे से चिपक नही पाते. मेट्रो के अंदर एक स्त्री एक से अधिक अनजाने पुरुषों के शरीर से इतना अधिक कनफाइन डेढ़ घण्टे के लिए होती है कि उतना कंफ़ाइन एक युवा पति अपने युवा पत्नी का 5 मिनट के लिए कर दे तो पत्नी डोमेस्टिक वॉयलेंस का केस दर्ज करा दे.
सन 2000 में जब मैं पहली बार मुम्बई रेल की भीड़ देखी और स्त्री-पुरुष का जानवरो से बदतर हालत में ठूँस कर जाते देखा तो यह बात मुझे मानव-गरिमा के खिलाफ लगी. मुझे लगा कि यह अमानवीय और मानव गरिमा के खिलाफ है. मतलब यह बात सिर्फ उनके लिए अपमान जनक नही है जो इसमे ठूँस कर जा रहे है बल्कि यह पूरी मानवता के लिए अपमान जनक है.
2010 से जब से दिल्ली मेट्रो की पीली लाइन शुरू हुई मेट्रो में इतनी भीड़ देखकर हर बार मुझे बचपन मे सुनी एक ही कहावत स्मरण होता है: " सौ सौ जूता खाय, तमाशा घुस कर देखे"
एक तो भारत की बढ़ती जनसँख्या ऊपर से भरभरा कर (Cascading) बढ़ती शहरीकरण, हर कोई दिल्ली जैसे महानगरों में बसने को लालायित. सरकार भी रोजगार के साधन, फैक्टरियां, ऑफिस इत्यादि इन्ही महानगरों में खोलती है. नतीजा, बेतहाशा ट्रैफिक. इस ट्रैफिक से निबटने के लिए सरकार दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों में 1 किलोमीटर ट्रैक पर जितना खर्च करती है उतने में गाँवो में 1000 किलोमीटर सड़क बन जाएगी.
भारत मे शहरीकरण की नही, शहरों की सुविधाएं गाँवो तक पहुँचाने की जरूरत है.
मेरा यह एक रफ गेस है कि सरकार यदि एक बड़ी फैक्ट्री शहर से निकाल कर गाँवो में लगा दे तो शहर में एक फ्लाईओवर की जरूरत खत्म हो जाएगी. उस पैसे के एक और फैक्ट्री गाँव मे लग सकती है.
आज की तारीख में हम शहरों में शोर, प्रदूषण, जाम, समय की बर्बादी, और शारीरिक असुविधा बहुत महंगे दामो में खरीद रहें है.
इस पर आप भी कुछ लिखते क्यो नही?
(कृपया इसे अनुरोध के रूप में लें.🙏)"
मुम्बई की मेट्रो यात्रा के अनुभव का Devpriya Awasthi ने भी किया : पता नहीं आपको मुंबई की लोकल में सफर करने के सफर (suffer) का अनुभव है या नहीं. व्यस्त घंटों में वहां की लोकल ट्रेनों में चढ़ना- उतरना कठिन कवायद से कम नहीं.
मैंने तो मुंबई-पुणे की खचाखच भरी ट्रेनों में कई बार साढ़े चार-पांच घंटे की यात्रा खड़े-खड़े की है.
देवप्रिय अवस्थी के अनुभव में अपना अनुभव जोड़ते हुए Om Prakash Nagar जी ने लिखा:
"Devpriya Awasthi जी
मुबई लोकल में उतरना एक अलग ही एहसास कराता है, सिर्फ गेट की तरफ मुख करना होता है और आप प्लेटफार्म पर । 🤩🤩"
मुम्बई की लोकल/मेट्रो के किस्से अनगिनत हैं। मुंबई मेट्रो दिल्ली मेट्रो से बहुत सीनियर हैं। मुंबई की लाइफलाइन कही जाती है मुम्बई लोकल। किस्से भी उसी हिसाब से खूब होंगे। बहूत पहले एकाध बार सफर किया है मुम्बई लोकल में। जल्द ही फिर होगा अनुभव तब फिर विस्तार से लिखेंगे किस्से मुंबई मेट्रो के।
पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए इं. प्रदीप शुक्ला ने सलाह दी:
"और बढ़िया लिख सकते हैं आप! पोस्ट करने के पहले एक बार ग्रामेटिकल एरर चेक कर लिया करिए!"
ग्रामेटिकल इरर चेक करने सुझाव अच्छा है। लेकिन लफड़ा है कि हमारी लगभग सब पोस्ट्स दौड़ते, भागते लिखी जाती हैं। लगभग हर पोस्ट 'ड्राफ्ट मोड' में ही पब्लिश कर देते हैं। फिर देखते हुए पोस्ट की कमियां, गलतियां बीनते-बुहारते हैं। फिर भी तमाम कमियां रह ही जाती हैं। कोशिश करेंगे आगे तसल्ली से लिखने की।
फिलहाल तो इतना ही।

https://www.facebook.com/share/p/eCPpAj5Znasn1jaj/

Wednesday, February 28, 2024

पुस्तक मेले से वापसी मेट्रो यात्रा


पुस्तक मेले में चाय पचास रुपये की थी। एक कारण इसके पीछे यह भी रहा होगा कि वहां दुकान लगाने के पैसे काफी लिए होंगे मेला आयोजको द्वारा।
पुस्तक मेले से निकलकर अपन मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़े। टैक्सी का किराया करीब साढ़े चार सौ पड़ा था एक दिन पहले। मेट्रो के चालीस रुपये लगे थे। सार्वजनिक परिवहन और व्यक्तिगत आवाजाही में दस गुने का अंतर।
मेट्रो में भीड़ बहुत थी। स्टेशन पर खड़े-खड़े कई मेट्रो आईं , रुकी, उनमें से इक्का-दुक्का लोग उतरे लेकिन उनमें चढ़ने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। एकाध लोगों ने कोशिश की लेकिन असफल रहे। मेट्रो एकदम भरी थी।
देखते-देखते कई मेट्रो निकल गईं। किसी में जगह नहीं दिखी। हम स्टेशन पर खड़े-खड़े ऐसी मेट्रो का इंतजार करते रहे जिसमें कम से कम खड़े होने लायक जगह मिल जाये।
काफी इंतजार के बाद एक मेट्रो आई जिसमें घुसने लायक जगह मिल गयी। हम घुस गए। खड़े हो गए मेट्रो में। किताबों के झोले हमने कुछ देर हाथ में पकड़े रहे। लेकिन बाद में भारी लगने लगे तो मेट्रो के फर्श पर अपनी दोनों टांगो के बीच रख लिए।
हमारे लिए एक दिन का मसला था। भीड़ बहुत लग रही थी। लेकिन रोजमर्रा के यात्रियों के लिए कोई खास मसला नहीं था। कुछ लोग भीड़ की लहरों के धक्के से निर्लिप्त भाव से इधर-उधर होते हुए मोबाइल पर वीडियो देख रहीं थीं। कुछ लड़कियों फोन पर अपनी सहेलियों/दोस्तों से बतिया रहीं थी। एक लड़की अपने दोस्त के साथ थी। दोस्त उसको भीड़ के धक्कों से यथासम्भव बचाते हुए उसका सफर आसान करने की कोशिश कर रहा था। इस तरह वह शायद अपने अगले सफर की गुंजाइश बना रहा हो।
भीड़ इतनी थी कि चढ़ना जितना आसान था , उतरना उससे कम मुश्किल नहीं था। एक आदमी गलत चढ़ गया। लोगों ने उसको अगले स्टेशन पर उतरकर दूसरी मेट्रो पकड़ने को बोला। वह जबतक उतर पाता तब तक मेट्रो कई स्टेशन पार कर गयी। वह पक्का भी नहीं कर पाया था कि उतरना भी हो या नहीं।
एक स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ जलजले की तरह आई। हमको भी धक्का लगा। हमारे पैरों के बीच रखी हुई किताबों का पैकेट भी समुद्र की लहरों के साथ रेत की तरह खिसकते हुए मेट्रो के दरवाजे की तरफ बह सा गया। गनीमत यह हुई कि जब तक दरवाजे के बाहर जाता पैकेट, दरवाजा बंद हो गया। जिस कन्या का पैर की किक से पैकेट के दरवाजे की तरफ सरकने की यात्रा शुरू हुई थी उसने 'ओह, ओह' जैसा कुछ कहा। इसके बाद वह डब्बे में अपने को स्थिर रखने की जद्दोजहद में जुट गई। हम भी किताबों के पैकेट को अपने कब्जे में लाने की कोशिश में जुट गए। कोशिश करते हुए एहसास हुआ कि राजनीतिक पार्टियां अपने छिटके हुए प्रतिनिधियों को कब्जे में रखने की कोशिश में कितना हलकान होती होंगी।
कुछ देर में हमारी किताबो के सारे पैकेट हमारे कब्जे में मतलब फिर से हमारे दोनों पैरों के बीच आ गए। हमने संतोष की कई सांसे एक साथ लीं। फिर लगा तेजी से सांसे लेने के चक्कर में डब्बे ने ऑक्सीजन न कम हो जाये। यह सोचकर सांस-स्पीड कर ली।
इस बीच गन्तव्य स्टेशन आ गए। हमने किताबों और खुद को समेटा। खरामा-खरामा चलते हुए स्टेशन के बाहर आये और घर की तरफ चल लिए।

https://www.facebook.com/share/p/W6SMeoSCDshMLqD1/

Tuesday, February 27, 2024

पुस्तक मेले में मुलाकात, बातचीत और बुराई भलाई

 


पुस्तक मेले में अरविन्द तिवारी जी Arvind Tiwari से भी मिलना हुआ । मिलने की बात तो तय ही थी लेकिन मिलना काफी देर बाद हुआ। हम दोनों मेले में टहलते रहे। फोन पर संपर्क भी हुआ लेकिन मुलाक़ात तसल्ली से हुई।
हाल 2 के लेखक मंच पर किसी लेखक की किताब का विमोचन हो रहा था। वहीं हम लोग आराम मुद्रा में कुछ देर बैठे रहे। हमारे पास काफी किताबें देखकर अरविन्द जी ने हमारे पुस्तक प्रेम की तारीफ़ भी की। हम उनको उस समय कैसे बताते कि किताबें खरीद तो लेते हैं लेकिन पढना उतना कहाँ हो पाता है! अनगिनत किताबें पढे जाने के इंतजार में हैं!
आजकल पढ़ने की क्षमता काफी प्रभावित हुई है। बचपन में कभी किराए पर मिलने वाली किताबों की गुमटी पर खड़े-खड़े किताबें पढ़ डालते थे। एक-एक दिन में छुटके 'पल्प साहित्य' कहे जाने वाले उपन्यास निपटा देते थे। जबकि आज हाल यह है कि साल में पन्द्रह-बीस किताबें पढ़ना भी मुश्किल हो गया है।
अलबत्ता किताब अगर पसंद आ गयी तो खरीदने की कोशिश जरुर करते हैं। अक्सर इस कोशिश में कामयाब भी हो जाते हैं। इस कामयाबी का प्रतिशत तब और बढ़जाता है जब लेखक मित्र हो। तमाम काम साथ जुड़े लोगों की खुशी के लिए भी करने पड़ते हैं।
अरविंद जी से मुलाक़ात के पहले एक स्टाल पर प्रेम जनमेजय जी किसी किताब के विमोचन के मौके पर बातचीत करते दिखे। हमने दूर से देखा उस स्टाल पर भीड़ थी पाठकों की, पुस्तक प्रेमियों की और कुछ विमोचन दर्शियों की भी। हमने सोचा पास जाकर सुने कुछ लेकिन फिर किसी और दूकान में घुस गए। जब तक बाहर आये तब तक शायद विमोचन निपट चुका था।
पुस्तक मेले में विमोचन , खासकर स्टाल के भीतर होने वाले विमोचन, के दौरान होने वाली बातचीत में इस बात की पूरी गारंटी होती है कि क्या कहा सुना जा रहा है इसे अगल-बगल के लोगों के अलावा और कोई सुन न सके। फोटो अलबत्ता खूबसूरत आते हैं। आवाजें कम सुनाई देती हैं। वैसे भी आज आवाजें दब जाने का समय चल रहा है। बहुत शोर है। कोई कविता संग्रह निकालना होता तो उसका शीर्षक सूझ गया -'सन्नाटे का शोर' या फिर 'शोर में सन्नाटा।'
अरविंद तिवारी जी के साथ फिर काफी देर न्यू वर्ल्ड पब्लिस्केशन के स्टाल पर काफी देर बैठकी, बतकही हुई। आलोक निगम Alok Nigam भी आ गए अपना काम निपटा कर। ज्योति त्रिपाठी रुचि , Arifa Avis के साथ Anoop Mani Tripathi भी भी थे। सबकी उपस्थिति में कई किताबों का विमोचन भी कर डाला गया। विमोचित किताबों में अरविंद तिवारी जी और अनूप शुक्ल के चयनित व्यंग्य के साथ इन्द्रजीत कौर Indrajeet Kaur के चयनित व्यंग्य भी थे।
अरविंद जी ने साहित्यकारों से जुड़े कई किस्से भी सुनाये। इस बात की एक बार फिर से तारीफ़ की हम और आलोक पुराणिक जी उनके निमंत्रण पर आगरा आये थे और आने का किराया तक नहीं लिया था। आलोक पुराणिक जी Alok Puranik की इस बात के लिए और भी तारीफ़ की कि वे अपना टिफिन तक साथ लाये थे।
अब अरविन्द जी से हम कैसे कहते कि आलोक जी का टिफिन साथ में लाना आगरा वालों और व्यंग्यजगत से जुड़े लोगों के प्रति उनके भरोसे का इश्तहार था। आलोक जी को अपने मायके (आगरा) वालों पर पक्का एतबार था कि वे खिलाएंगे नहीं और खिलाएंगे भी तो पता नहीं क्या खिला दें इसलिए बेहतर है घर से खाना लेकर चलें।
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से Dinesh Choudhary जी की किताबें 'परसाई के रंग में' और 'दीवार पर टंगी आवाजें' खरीदी। आरिफा के कहने पर किताबों के साथ फोटो भी खिचाई।
आरिफा ने चाय भी पिलाई अपने स्टाल पर। एक बार अपनी तरफ से और एक बार हमारे कहने पर। आशा है वे हमारे कहने पर पिलाई हमारे रायल्टी के खाते में नहीं चढ़ाएंगी ।
चाय की बात से याद आया कि मेले में स्टाल के अन्दर चाय बेचना शायद मना है। उसका तोड़ निकालने के लिए चाय वाले एक झोलानुमा चाय बेचने का इंतजाम लिए टहल रहे थे। झोले में चाय का बर्तन जिसकी टोंटी बाहर निकली थी। दूर से एकदम झोला टाइप दीखता चाय के बर्तन का फोटो आलोक ने लिया था।
चाय का जुगाडू बर्तन देखकर अंगरेजी के जुमले तुम मुझे चेहरा दिखाओ हम तुमको नियम दिखाएंगे (You show me the face , I will show you the rule) का उन्नत संस्करण सूझा -तुम मुझे कानून दिखाओ, हम तुमको उसका तोड़ बताएँगे (You show me the rule, I will tell you the way to break it) ।
काफी देर बैठकी, बतकही के बाद हम लोग विदा हुए। विदा होने के पहले डा सौरभ जैन और आलोक निगम के साथ चाय पी गयी। 50 रुपये की एक चाय। सौरभ ने अपने मीम बनाने से जुड़े कई किस्से सुनाये। थोड़ी बुराई-भलाई भी हुई। सौरभ को ट्रेन पकड़नी थी इसलिए ज्यादा समय नहीं मिल पाया बुराई-भलाई का।
समय की कमी जीवन के जरूरी आनंद से कितना वंचित करती जा रही है।
आलोक और सौरभ को विदा करके अपन मेट्रो स्टेशन की तरफ गम्यमान हुए।

https://www.facebook.com/share/p/qmPCcCMmpCcSuYV8/

Monday, February 26, 2024

राजकमल प्रकाशन स्टाल पर

 पुस्तक मेले में सबसे राजकमल प्रकाशन पर सबसे ज्यादा भीड़ थी। कई किताबें लेनी थी राजकमल प्रकाशन से। राजकमल प्रकाशन की 'पुस्तक मित्र योजना' से बहुत दिन किताबें मंगवाई। एक हजार रुपये की धरोहर राशि जमा करके सदस्य बने थे। साल में दो सौ रुपये की किताबें उपहार स्वरूप और किताबों पर 25 % डिस्काउंट । इधर काफी दिनों से पुस्तक मित्र योजना से किताबें मंगवाई नहीं। कई वर्षों उपहार राशि के बराबर भी किताबें मंगानी बाकी हैं।

राजकमल प्रकाशन के आनलाइन आर्डर में भुगतान व्यवस्था के पुराने अनुभव भी अच्छे नहीं रहे मेरे। कुछ वर्ष पहले 2000 रुपये का दो बार भुगतान हो गया। अभी उसका हिसाब बकाया है। अपन भी आलसी। लगता है कर लेंगे हिसाब भी। मंगा लेंगे किताबें। बात करने पर राजकमल के साथियों हमेशा डीटेल भेजने और किताबें भेजने की बात कही लेकिन हमारे आलस्य ने सबको धता बता दी।
पुस्तक मेले में घुमने के दौरान पता चला कि विनीत कुमार Vineet Kumar की किताब 'मीडिया का लोकतंत्र' आई है राजकमल प्रकाशन से। बहुत खोजी लेकिन मिली नहीं। पता चला अभी स्टाल पर आई नहीं है ! बाद में विमोचन हुआ किताब का लेकिन तब तक अपन लौट चुके थे मेले से।
राजकमल प्रकाशन में जब हम किताबें खोज , खरीद रहे थे उसी समय राजकमल प्रकाशन के लेखक मंच पर मैत्रेयी पुष्पा जी से बातचीत चल रही थी। बमुश्किल दस पन्द्रह लोग सामने बैठे सुन रहे थे। उससे कई लोग बातचीत से बेखबर, निर्लिप्त किताबें खरीद रहे थे। अगल-बगल से गुजर रहे थे। बातचीत के सवाल-जबाब भी ऐसे ही थे जो तमाम बार पढ़े-सुने जा चुके थे। अपन भी कुछ देर टहलते हुए घुमने लगे।
मेले में घूमते हुए सैफ से मुलाक़ात हुई। Saif Aslam Khan सैफ शाहजहांपुर से हैं। सैफ़ देश के जाने माने Illustrator, कार्टूनिस्ट और डूडल आर्टिस्ट हैं। मेरे शाहजहाँपुर से स्थानान्तरण पर उन्होंने जो स्केच बनाया था वह मेरे घर के ड्राइंग रूम में लगा है। शाहजहांपुर की कैंट की बेंच नंबर सात उनकी पसंदीदा बेंच हैं। इससे जुडी तमाम यादें वे साझा करते रहते हैं। अब तो सैफ और बेंच नम्बर सात का रिश्ता इस कदर अटूट हो चुका है कि सैफ का पता ही बेंच नंबर सात हो गया है।
सैफ और हम लोग मेले में टहल रहे थे तो एक स्टाल पर सैफ को सुधीर विद्यार्थी Sudhir Vidyarthi जी दिखे। भारतीय क्रान्तिकारियो के बारे में जितना लेखन और क्रान्तिकारियो को प्रतिष्ठा दिलाने का जितना काम सुधीर विद्यार्थी जी ने किया है उतना शायद ही किसी और लेखक ने किया हो। क्रान्तिकारियो से जुड़े अनेक संस्मरणों की किताबें है उनकी। बरेली से जुड़े संस्मरणों की उनकी किताब 'शहर आइना है' बहुत दिनों से लेने की सोच रहे थे। सुधीर विद्यार्थी जी जिस स्टाल पर थे वहां उनकी कई किताबें थी। हमने उनकी किताबें खरीदी। उनके आटोग्राफ भी लिए।
साथ में असगर वजाहत की किताब 'उम्र भर सफ़र में रहा' भी ली। असगर वजाहत जी खूब घूमें हैं और खूब किस्से लिखे हैं घुमक्कड़ी के। हफ्ते भर पहले संगत में अंजुम शर्मा से हुई बातचीत में इब्बार रब्बी जी ने असगर वजाहत जी की इस घुमक्कड़ी का जिक्र करते हुए कहा -'मुझे इस मामले में (घुमक्कड़ी) असगर वजाहत से जलन होती है।'
अपन को जलन तो नहीं अलबत्ता मन करता है कि असगर वजाहत जी Asghar Wajahat की तरह खूब घूमूं और उसके बारे में लिखूं। उम्मीद है कि जल्द ही घुमने और लिखने का सिलसिला शुरू होगा।

https://www.facebook.com/share/p/9p5PSN12zDfS4VEs/