आज बेटे अनन्य Anany को स्टेशन छोड़ने गए। कल से उसकी https://www.facebook.com/firguntravels ट्रिप शुरू होनी है। मनाली जाना है उसको। उसकी दिल्ली की ट्रेन सुबह 6 बजे थी। अलार्म लगाया था साढ़े चार का। सोचा था कि सुबह पांच बजे चलकर आराम से समय पर स्टेशन पहुंच जाएंगे। गाड़ी के लिए ड्राईवर को बोल दिया था। सुबह आ जायेगा पांच बजे। उसने भी कहा था -'हम पांच के पहले ही आ जाएंगे।'
दूसरी बार जब नींद खुली तो साढ़े पांच बजने वाले थे। अलार्म पता नहीं बजा कि नहीं। लेकिन उसके लिए जांच कमेटी बैठाने का समय नहीं था। झटके से उठे। दो मिनट में तैयार हो गए। बेटा भी सूटकेस बन्द करके तैयार हो गया।
ड्राइवर को फोन किया। वह नींद के चपेटे में था। बोला -'आंख लग गयी थी। उठ नहीं पाए। अभी आते हैं।'
हमको पहले से ही आशंका थी कि ड्राइवर देर कर सकता है। उसने मेरे विश्वास की रक्षा की।
ड्राइवर के समय पर न आने से उपजा गुस्सा और उसके समय पर न आने से हुई मेरे विश्वास की रक्षा से मिली खुशी में मुकाबला शुरू हो गया। किसका पलड़ा भारी रहा, कहना मुश्किल।
समय कम था। 'सैंट्रो सुन्दरी' की शरण में गए। बुजुर्ग गाड़ी बिना नखरे के तुरंत स्टार्ट हो गयी। चल दिये स्टेशन। आधे घण्टे में आर्मापुर से सेंट्रलन पहुंचना था।
जल्दी पहुंचने की मंशा से गाड़ी तेज चलाई। कालपी रोड के स्पीड ब्रेकर पर गाड़ी जिस तरह उछाल मार रही थी उससे लगा वह ऊंची कूद में भाग ले रही थी। बेटे ने टोंका -'आराम से चलिए, बीस मिनट में पहुंच जाएंगे। अभी आधा घन्टा बाकी है छह बजने में।'
फजलगंज पहुंचने पर ड्राइवर का फोन आया। वह घर आ गया था। बेटे ने बात की। ड्राइवर देर से आने के लिए अफसोस जताते हुए सफाई दे रहा था। बेटे ने आराम से कह दिया -'कोई बात नहीं अब आफिस के समय घर पहुंच जाइयेगा।'
अच्छा हुआ मुझसे बात नहीं हुई। होती तो बिना गुस्से के भी ढेर सारा गुस्सा निकल जाता। आजकल के समय में लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। मौका मिलते ही और कुछ तो बिना मौके के ही लोग गुस्सा करने लगते हैं।
हमको लगा जैसे हमारी आंख लग गई वैसे ही उसकी भी लग गई होगी। लेकिन सहज सोच के हिसाब से हमारी बात और ड्राइवर की बात और। ड्राइवर को उसकी आंख लगने का हक थोड़ी है।
संयोग कि जरीब चौकी क्रासिंग खुली मिली, टाटमिल चौराहा पर भी रुकना नहीं पड़ा। नतीजतन जब स्टेशन पहुंचे तो घड़ी में समय 0547 हो रहा था। मतलब 17 मिनट में पहुंच गए घर से स्टेशन।
रास्ते में एक गुब्बारे वाला अपने पूरे शरीर को गुब्बारे से ढंके गुब्बारे बेच रहा था। गुब्बारे उसके शरीर को इस कदर घेरे हुए थे जैसे वह गुब्बारे के कपड़े पहने हो। मन किया रुककर उसका फोटो खींचें। लेकिन स्टेशन पहुंचने की जल्दी में चलते गए।
अनन्य को छोड़कर वापस लौटे तो अनवरगंज के पास पंकज बाजपेयी दिख गए सड़क पर। गाड़ी किनारे खड़ी करके उनसे मिले। पंकज जी ने देखते ही ' दूर-प्रणाम' किया। उनका हाथ इस कदर झुका हुआ जैसे पेट्रोल पम्प में पाइप से पेट्रोल भरते हैं। वो झुके हुए हाथ से हमारे चरणों में प्रणाम भर रहे थे।
प्रणाम के बाद कहा पंकज जी ने -'अबकी बहुत दिन बाद आये।'
इसके बाद बोले -'अबकी तुमको नई चप्पल दिलाएंगे।' फिर इधर-उधर की बातें। जैसे:
*मैसूर में गर्मी बहुत है
*जलेबी-समोसा-दही कहाँ है।
*अबकी बार सौ रुपये लेंगे।
*दोपहर को गर्मी बहुत पड़ती है। घर चले जाते हैं।
*बहन जी तुमको देखकर बहुत खुश होंगी।
*सुबह जल्दी आ जाते हैं यहां।
चाय पीने के लिए मामा की दुकान गए। पंकज ने अपने कप में चाय डलवाई आए टहलते हुए अपने ठीहे पर आ गए। वहां मौजूद लोगों ने भी बहुत दिन बाद आने की बात कही। एक ने मजे भी लिए -'अंकल , आपकी गाड़ी नो पार्किंग जोन में खड़ी है। चालान आता होगा। देखिए मोबाइल में आ गया होगा।'
हमने कहा -'जो होगा। देखा जाएगा।'
कहने को तो मैंने कह दिया -'जो होगा। देखा जाएगा।' लेकिन मन में बहस शुरू हो गयी कि यह मजाक है या सच। मजाक कहीं सच न साबित हो जाये। यह सोचते हुए मुस्ताक युसूफी साहब का जुमला भी याद आ गया -'पाकिस्तान में अफवाहों की सबसे बड़ी खराबी यह होती है कि वे सच साबित होती हैं।'
मजाक की बात पर अफवाह की बात याद आना भी यह बताता है कि अपने यहां भी अब मजाक की जगह अफवाहों का चलन हावी हो गया है। हंसी-मजाक गए जमाने की बात हो गयी।
चाय पीकर गाड़ी खोलने के लिए चाबी के लिए जेब में हाथ डाला तो चाबी नदारद। देखा चाबी गाड़ी में लटक रही थी। सारे दरवाजे बंद। बहुत दिनों बाद फिर ऐसा हुआ था।
हमको वहां रुका देखकर लोग वहां आ गए। गाड़ी खोलने के तरीके बताने लगे। एक ने कहा -'शीशा तोड़ दें। 200 रुपये में बन जायेगा।'
हमने लोगों से कहा -'कोई लंबी पत्ती या बड़ा स्केल मिल जाये तो खुल जाएगी गाड़ी।'
लोग खोजने लगे। कोई छोटी पत्ती लाया कोई कुछ। लेकिन उससे काम बना नहीं। फिर जिसने हमारी गाड़ी के चालान के मजे लिए थे उसने कहा -'अंकल, यहाँ एक जन हीटर बनाने का काम करते हैं। उनके पास मिल जाएगा। देखते हैं।'
गए। रास्ते में लोगों में टीन-टप्पर देखते गए। शायद कहीं पत्ती मिल जाये। लोग स्टेशन की तरफ के लिए लपकते हुए चले जा रहे थे। उनको भी गाड़ी पकड़नी थी। उनकी भी आंख लग गयी थी।
हीटर वाले के घर पहुंचे। उन्होंने दो फूटा स्टील का स्केल निकाल के दिखाया। पूछा -'इससे काम चल जाएगा। हमने कहा -'हां।' उसने स्केल दे दिया। साथ में आया भी। रास्ते में बोला -'इससे न काम चले तो एक तीन फुट का भी है।'
हमने कहा-'नहीं, इससे हो जाएगा।'
गाड़ी के पास और लोग भी छोटे-बड़े स्केल, पत्ती लेकर आये थे। लेकिन उसकी कोई जरूरत नहीं थी।
हमने स्ट्रिप हटाई। स्केल से गाड़ी के लॉक को दबाया। लॉक खुल गया। साथ आये लड़के ने फिर मजे लिए -'अंकल, यही काम करते थे क्या?'
हमने बताया -'पच्चीसवीं बार खोल रहे होंगे ऐसे ताला।'
फिर उसने कहा -'चाय तो हो जाये इसी खुशी में।'
हम फिर आये चाय की दुकान में। फिर से चाय पी गयी। पिक्कू ने मजे लेते हुए कहा -'अंकल की आज की चाय महंगी पड़ गयी।'
हमने कहा -'अभी तो चालान भी झेलना है।'
पिक्कू ने कहा -'अरे, वो तो हम मजाक कर रहे थे।'
पंकज इस सब घटनाक्रम से निर्लिप्त वहीं टहल रहे थे। चलते हुए बोले -'अबकी आना तब तुमको चप्पल दिलाएंगे।'
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