Wednesday, May 17, 2023

आज चाय मंहगी पड़ गयी

 


आज बेटे अनन्य Anany को स्टेशन छोड़ने गए। कल से उसकी https://www.facebook.com/firguntravels ट्रिप शुरू होनी है। मनाली जाना है उसको। उसकी दिल्ली की ट्रेन सुबह 6 बजे थी। अलार्म लगाया था साढ़े चार का। सोचा था कि सुबह पांच बजे चलकर आराम से समय पर स्टेशन पहुंच जाएंगे। गाड़ी के लिए ड्राईवर को बोल दिया था। सुबह आ जायेगा पांच बजे। उसने भी कहा था -'हम पांच के पहले ही आ जाएंगे।'
पहली बार नींद खुली। समय देखा। रात के साढ़े तीन बजे थे। पलट के सो गए। सोचा अलार्म बजेगा तब उठेंगे।
दूसरी बार जब नींद खुली तो साढ़े पांच बजने वाले थे। अलार्म पता नहीं बजा कि नहीं। लेकिन उसके लिए जांच कमेटी बैठाने का समय नहीं था। झटके से उठे। दो मिनट में तैयार हो गए। बेटा भी सूटकेस बन्द करके तैयार हो गया।
ड्राइवर को फोन किया। वह नींद के चपेटे में था। बोला -'आंख लग गयी थी। उठ नहीं पाए। अभी आते हैं।'
हमको पहले से ही आशंका थी कि ड्राइवर देर कर सकता है। उसने मेरे विश्वास की रक्षा की।
ड्राइवर के समय पर न आने से उपजा गुस्सा और उसके समय पर न आने से हुई मेरे विश्वास की रक्षा से मिली खुशी में मुकाबला शुरू हो गया। किसका पलड़ा भारी रहा, कहना मुश्किल।
समय कम था। 'सैंट्रो सुन्दरी' की शरण में गए। बुजुर्ग गाड़ी बिना नखरे के तुरंत स्टार्ट हो गयी। चल दिये स्टेशन। आधे घण्टे में आर्मापुर से सेंट्रलन पहुंचना था।
जल्दी पहुंचने की मंशा से गाड़ी तेज चलाई। कालपी रोड के स्पीड ब्रेकर पर गाड़ी जिस तरह उछाल मार रही थी उससे लगा वह ऊंची कूद में भाग ले रही थी। बेटे ने टोंका -'आराम से चलिए, बीस मिनट में पहुंच जाएंगे। अभी आधा घन्टा बाकी है छह बजने में।'
फजलगंज पहुंचने पर ड्राइवर का फोन आया। वह घर आ गया था। बेटे ने बात की। ड्राइवर देर से आने के लिए अफसोस जताते हुए सफाई दे रहा था। बेटे ने आराम से कह दिया -'कोई बात नहीं अब आफिस के समय घर पहुंच जाइयेगा।'
अच्छा हुआ मुझसे बात नहीं हुई। होती तो बिना गुस्से के भी ढेर सारा गुस्सा निकल जाता। आजकल के समय में लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। मौका मिलते ही और कुछ तो बिना मौके के ही लोग गुस्सा करने लगते हैं।
हमको लगा जैसे हमारी आंख लग गई वैसे ही उसकी भी लग गई होगी। लेकिन सहज सोच के हिसाब से हमारी बात और ड्राइवर की बात और। ड्राइवर को उसकी आंख लगने का हक थोड़ी है।
संयोग कि जरीब चौकी क्रासिंग खुली मिली, टाटमिल चौराहा पर भी रुकना नहीं पड़ा। नतीजतन जब स्टेशन पहुंचे तो घड़ी में समय 0547 हो रहा था। मतलब 17 मिनट में पहुंच गए घर से स्टेशन।
रास्ते में एक गुब्बारे वाला अपने पूरे शरीर को गुब्बारे से ढंके गुब्बारे बेच रहा था। गुब्बारे उसके शरीर को इस कदर घेरे हुए थे जैसे वह गुब्बारे के कपड़े पहने हो। मन किया रुककर उसका फोटो खींचें। लेकिन स्टेशन पहुंचने की जल्दी में चलते गए।
अनन्य को छोड़कर वापस लौटे तो अनवरगंज के पास पंकज बाजपेयी दिख गए सड़क पर। गाड़ी किनारे खड़ी करके उनसे मिले। पंकज जी ने देखते ही ' दूर-प्रणाम' किया। उनका हाथ इस कदर झुका हुआ जैसे पेट्रोल पम्प में पाइप से पेट्रोल भरते हैं। वो झुके हुए हाथ से हमारे चरणों में प्रणाम भर रहे थे।
प्रणाम के बाद कहा पंकज जी ने -'अबकी बहुत दिन बाद आये।'
इसके बाद बोले -'अबकी तुमको नई चप्पल दिलाएंगे।' फिर इधर-उधर की बातें। जैसे:
*मैसूर में गर्मी बहुत है
*जलेबी-समोसा-दही कहाँ है।
*अबकी बार सौ रुपये लेंगे।
*दोपहर को गर्मी बहुत पड़ती है। घर चले जाते हैं।
*बहन जी तुमको देखकर बहुत खुश होंगी।
*सुबह जल्दी आ जाते हैं यहां।
चाय पीने के लिए मामा की दुकान गए। पंकज ने अपने कप में चाय डलवाई आए टहलते हुए अपने ठीहे पर आ गए। वहां मौजूद लोगों ने भी बहुत दिन बाद आने की बात कही। एक ने मजे भी लिए -'अंकल , आपकी गाड़ी नो पार्किंग जोन में खड़ी है। चालान आता होगा। देखिए मोबाइल में आ गया होगा।'
हमने कहा -'जो होगा। देखा जाएगा।'
कहने को तो मैंने कह दिया -'जो होगा। देखा जाएगा।' लेकिन मन में बहस शुरू हो गयी कि यह मजाक है या सच। मजाक कहीं सच न साबित हो जाये। यह सोचते हुए मुस्ताक युसूफी साहब का जुमला भी याद आ गया -'पाकिस्तान में अफवाहों की सबसे बड़ी खराबी यह होती है कि वे सच साबित होती हैं।'
मजाक की बात पर अफवाह की बात याद आना भी यह बताता है कि अपने यहां भी अब मजाक की जगह अफवाहों का चलन हावी हो गया है। हंसी-मजाक गए जमाने की बात हो गयी।
चाय पीकर गाड़ी खोलने के लिए चाबी के लिए जेब में हाथ डाला तो चाबी नदारद। देखा चाबी गाड़ी में लटक रही थी। सारे दरवाजे बंद। बहुत दिनों बाद फिर ऐसा हुआ था।
हमको वहां रुका देखकर लोग वहां आ गए। गाड़ी खोलने के तरीके बताने लगे। एक ने कहा -'शीशा तोड़ दें। 200 रुपये में बन जायेगा।'
हमने लोगों से कहा -'कोई लंबी पत्ती या बड़ा स्केल मिल जाये तो खुल जाएगी गाड़ी।'
लोग खोजने लगे। कोई छोटी पत्ती लाया कोई कुछ। लेकिन उससे काम बना नहीं। फिर जिसने हमारी गाड़ी के चालान के मजे लिए थे उसने कहा -'अंकल, यहाँ एक जन हीटर बनाने का काम करते हैं। उनके पास मिल जाएगा। देखते हैं।'
गए। रास्ते में लोगों में टीन-टप्पर देखते गए। शायद कहीं पत्ती मिल जाये। लोग स्टेशन की तरफ के लिए लपकते हुए चले जा रहे थे। उनको भी गाड़ी पकड़नी थी। उनकी भी आंख लग गयी थी।
हीटर वाले के घर पहुंचे। उन्होंने दो फूटा स्टील का स्केल निकाल के दिखाया। पूछा -'इससे काम चल जाएगा। हमने कहा -'हां।' उसने स्केल दे दिया। साथ में आया भी। रास्ते में बोला -'इससे न काम चले तो एक तीन फुट का भी है।'
हमने कहा-'नहीं, इससे हो जाएगा।'
गाड़ी के पास और लोग भी छोटे-बड़े स्केल, पत्ती लेकर आये थे। लेकिन उसकी कोई जरूरत नहीं थी।
हमने स्ट्रिप हटाई। स्केल से गाड़ी के लॉक को दबाया। लॉक खुल गया। साथ आये लड़के ने फिर मजे लिए -'अंकल, यही काम करते थे क्या?'
हमने बताया -'पच्चीसवीं बार खोल रहे होंगे ऐसे ताला।'
फिर उसने कहा -'चाय तो हो जाये इसी खुशी में।'
हम फिर आये चाय की दुकान में। फिर से चाय पी गयी। पिक्कू ने मजे लेते हुए कहा -'अंकल की आज की चाय महंगी पड़ गयी।'
हमने कहा -'अभी तो चालान भी झेलना है।'
पिक्कू ने कहा -'अरे, वो तो हम मजाक कर रहे थे।'
पंकज इस सब घटनाक्रम से निर्लिप्त वहीं टहल रहे थे। चलते हुए बोले -'अबकी आना तब तुमको चप्पल दिलाएंगे।'

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Sunday, May 14, 2023

जोश मलीहाबादी और नेहरू जी

 जोश मलीहाबादी जी के नेहरू जी से दोस्ताना और आत्मीय रिश्ते थे। जोश मलीहाबादी द्वारा नेहरू जी पर रेखाचित्र का एक अंश यहाँ पेश है।

अब चंद घटनाएँ उनकी अदबनवाजी, उनकी ग़ैरमामूली शराफ़त और उनकी बेनजीर नाज़बरदारी की भी सुन लीजिए।
जब केंद्रीय सरकार के सूचना विभाग में मेरी नियुक्ति सरकारी रिसाले 'आजकल' में हो गई तो मैंने उन्हें ख़त लिखा कि मेरे पर्चे के वास्ते अपना पैग़ाम जल्द भेज दीजिए। अगर आपने सुस्ती से काम लिया तो मेरी आपसे ज़बरदस्त जंग हो जाएगी। एक हफ़्ते के अंदर उनका पैग़ाम आ गया। अपने पैग़ाम के आख़िर में उन्होंने यह भी लिखा मैं जल्दी में पैग़ाम इसलिए भेज रहा हूँ कि जोश साहब ने मुझे धमकी दी है कि अगर देर हो गयी तो वह मुझसे लड़ पड़ेंगे। जब मैंने पैग़ाम के शुक्रिये में उन्हें ख़त लिखा तो दबी ज़बान से यह शिकायत भी कर दी की कि आपने मेरे ख़त का जबाब खुद अपने हाथ से लिखने के एवज़ सेक्रेटरी से लिखवाया है। मेरे साथ आपको यह बरताव नहीं करना चाहिए था।
उनकी शराफ़त देखिए कि मेरी इस शिकायत पर खुद अपने हाथ से मुझे यह लिखा कि अधिक व्यस्तता के कारण मैं सेक्रेटरी से ख़त लिखवाने पर मजबूर हो गया। आप मेरी इस गलती को गलती को माफ़ करें।
एक बार मैं उनके यहाँ पहुँचा तो देखा वह दरवाज़े पर खड़े किदवई साहब से बातें कर रहे हैं। लेकिन जैसे ही मैंने बरामदे में कदम रखा और उन से आँखें चार हुईं तो वह एक सेकेंड के अंदर ग़ायब हो गए।
मैंने किदवई साहब से कहा कि मैं तो अब यहाँ नहीं ठहरूँगा। आप पंडित जी से कह दीजिएगा कि लीडरी और प्राइममिनिस्ट्री को लीडरी और प्राइममिनिस्ट्री तक सीमित रखें। और उसे इस क़दर न बढ़ाएँ कि वह मोनार्की बादशाही से टक्कर लेने लगे। किदवई साहब ने मुस्कराकर पूछा कि आप किस बात पर इस क़दर बिगड़ गए? मैंने कहा,"अरे आप अभी तो खुद देख चुके हैं कि मेरे आते ही वह ग़ायब हो गए। मिज़ाजपुरसी तो बड़ी चीज़ है, उन्होंने मुझसे साहब सलामत तक नहीं की।"
इतने में जवाहरलाल आ गए। मैं मुँह मोड़कर खड़ा हो गया। उन्होंने कहा, "जोश साहब, मामला क्या है?"
किदवई साहब ने सारा माजरा बयान कर दिया। वह मेरे क़रीब आए और मेरे कान में कहा,"मुझे इस क़दर ज़ोर से पेशाब आ गया था कि अगर एक मिनट की भी देर होती तो पायजामे ही में निकल जाता।"
यह बहाना सुनकर मैंने उन्हें गले लगा लिया।
उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की बहुचर्चित आत्मकथा 'यादों की बारात' से। किताब ख़रीदने का लिंक कमेंट बाक़्स में।

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Friday, May 12, 2023

यादों की बारात -जोश मलीहाबादी

 

पिछले दिनों कई किताबें पढ़ीं। उनमें से एक उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की बहुचर्चित आत्मकथा 'यादों की बरात' भी थी।
जोश साहब ने अपने बारे में और अपने समय के बारे में रोचक और बेबाक अंदाज में लिखा है।
अपनी खूबियों-खामियों के बारे में बेहिचक लिखी आत्मकथा का अंदाज-ए-बयाँ इतना शानदार है कि पूरी आत्मकथा एक दिन में पढ़ गए।
अपने गुस्से का जिक्र करते हुए हुए उन्होंने बताया कि अपने एक नौकर को बचपन में उन्होंने इसलिए पीट दिया था क्योंकि वह उनको सलाम करना भूल गया था। वहीं दरियादिली भी ऐसी की एक नौकर की आर्थिक सहायता के लिए अपनी मां के गहने चुपचाप उसको दे दिए।
अपने समय के ख्यातनाम लीडरों से जोश साहब की व्यक्तिगत जान-पहचान थी। नेहरू जी उनमें से खास थे। इसके बावजूद वे उर्दू के मसले पर नेहरू जी नाइत्तफाकी रखते हुए आजादी के बाद सन 1956 में पाकिस्तान चले गए। बाद बाकी वहां उनके साथ जो सलूक हुआ उसके चलते उनके निर्णय पर पछतावा भी हुआ। नेहरू जी ने उनको वापस आने का निमंत्रण भी दिया लेकिन उनका वापस आना हुआ नहीं।
अपने समय की महिलाओं की स्थिति का जोश जी ने जिस तरह चित्रण किया है उसको पढ़कर लगता है कि सौ साल पहले महिलाएं किस तरह की पाबन्दियों में जीने को मजबूर थीं। उनकी आत्मकथा का एक अंश यहां पेश है:
"नवाब साहब की बेगम हों या बैरिस्टर साहब की बेटर हाफ (better half) दोनों बड़ी सख्ती के साथ पर्दे की पाबंद थीं। डोली और पालकी के सिवा कोई बीबी घर के बाहर कदम नहीं रखती थीं। और तो और , औरतों की आवाजें और उनका वजन भी पर्दा नशीन था। यानी कोई बीबी इस कदर जोर से नहीं बोलती थी कि मर्दांने तक उनकी आवाज जा सके। और जब कोई औरत पालकी में सवार होती थी तो पत्थर का टुकड़ा या सिल पालकी में रख दी जाती थी ताकि कहारों को उनके जिस्म का सही अंदाजा न हो सके। बीबियाँ तो बीबियाँ, मामाएँ, असीलें और लौंडियाँ तक पर्दे की पाबंद थीं।
जनाने में आने-जाने वाले बाहर के बच्चों से भी, जबकि वे दस -ग्यारह बरस के हो जाते थे, पर्दा शुरू कर दिया जाता था। और तो और , बाप, दादा , नाना, चाचा, फूफा के सामने भी औरतें सरों पर पल्लू डालकर जाया करतीं थीं और किसी औरत की यह मजाल नहीं थी कि वह अपने बुजुर्गों की मौजूदगी में अपने बच्चे को गोद में ले ले।
जनाने मकान की फिजा को पवित्र रखने का यहां तक ख्याल किया जाता था कि किसी तरकारी वाली को यह इजाजत नहीं थी कि वह लंबी-लंबी तरकारियाँ जैसे लौकी, तुरई, केले, चचेंड़े टुकड़े-टुकड़े किये बगैर सालम (साबुत) हालत में अंदर ले जाये, इसलिए कि सूरत के लिहाज से इन तरकारियों की 'अश्लील' तरकारी ख्याल किया जाता था।
अपने लड़कपन का एक वाकया बयान करता हूँ। मलीहाबाद के एक लड़के का शादी में नाच हो रहा था कि बालाखाने से एक औरत झांककर इधर देखने लगी और साहबाने-महफ़िल में से एक साहब ने उसे बंदूक मार दी। साहबे-खाना देंगों के हल्के में खड़े थे कि उन्होंने गोली चलने की आवाज सुनी और दौड़े हुए महफ़िल में आये। गोली मारने वाले खां साहब ने उनसे कहा , "भाई आपकी बीबी ऊपर से झांक रही थीं। मुझसे यह बेहयाई बर्दाश्त नहीं हुई, मैंने गोली मार दी।" साहबे-खाना ने उसकी पीठ ठोंककर कहा,"बहुत अच्छा किया आपने।" वह तुरन्त अंदर चले गए। थोड़ी देर में एक लाश खींचते हुए आये और कहा," भाइयों, देख लीजिए मेरी बीबी नहीं लौंडी झांक रही थी। अल्लाह ने मेरी आबरू और मेरी जान दोनों चीजें बचा लीं।""
जोश मलीहाबादी की आत्मकथा -"यादों की बरात" से। किताब ख़रीदने का लिंक कमेंट बाक्स में।

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Wednesday, May 10, 2023

वृद्धाश्रम में कुछ घण्टे



इतवार को स्वराज वृद्धाश्रम गए। सात साल पहले कई बार गए थे। दिलीप घोष और कई लोगों से मिले थे। दिलीप घोष से बतकही की तमाम यादें जेहन में थीं।
पनकी पावर हाउस के बगल से होकर रास्ता है वृद्धाश्रम का। पावर हाउस की ऊंची चिमनी के बगल में खड़ा हरा पेड़ मानो चिमनी से निकलने वाले प्रदूषण को ललकार रहा हो। चिमनी से निकलने वाला प्रदूषण भी ऊपर-ऊपर बगलिया के निकल जाता है। वह भी पेड़ से डरता है।
रास्ते के मकान सात साल पहले बनने शुरू हुए थे, बन गए थे। उनमें लोग रहने भी लगे थे।।मकानों के प्लास्टर झड़ से गए थे। खराब क्वालिटी के बने मकान कुपोषित बच्चों से लगे जो बचपन से ही बूढ़े लगने लगते हैं।
वृद्धाश्रम के अंदर पहुंचते ही लालचंद से मुलाकात हुई। मुंह गुटके से लैस। तीन साल पहले आये यहां। एक एक्सीडेंट में पैर टूट गया। ऑपरेशन हुआ तो एक पैर छोटा हो गया। डॉक्टरों की महिमा। ऊंचाई बराबर करने के लिए छोटे पैर पर ऊंची हील की चप्पल पहनते हैं।
लालचंद डब्बा बनाने का काम भी करते हैं। हर तरह का डब्बा बना लेते हैं। आर्डर मिलने पर बनाते हैं। पचास साथ रुपये कमा लेते हैं। लेकिन जितना कमाते हैं, उससे ज्यादा गुटके पर खर्च कर देते हैं। चिंता की बात भी नहीं, वृद्धाश्रम देखभाल करता ही है।
दिलीप घोष के बारे में पूछा तो पता चला -'घोष दादा तीन साल पहले गुजर गए। काफी दिन बीमार रहे।'
दिलीप घोष जी अनोखे व्यक्तित्व के इंसान थे। उनके बहुत पढ़े-लिखे होने के तमाम किस्से थे। विदेश में प्रोफेसर, आई.आई.टी. के बच्चों को पढ़ाने के और शेक्सपियर साहित्य के मर्मज्ञ होने के किस्से वो खुद सुनाते थे। उनके सुनाने का अंदाज ऐसा होता था कि सुनने वाला बिना प्रभावित हुए रह नहीं सकता था।
बाद में पता चला कि उनके तमाम किस्से मनगढ़ंत थे। कितना सच, कितना गप्प अब तो जानना भी मुश्किल। लेकिन यह तय है कि उनकी जानकारी का स्तर ऊंचा था और अंदाज-ए-बयान दिलचस्प।
घोष जी से जुड़ी बातें याद करते हुए याद आया कि उन्होंने मुझसे अपने बचपन से जुड़ी यादें और फोटो भी साझा की थी। अपने एकतरफा रोमांस की कहानी भी बयान की थी। अब सब एक कहानी हो गयी।
चौधरी जी से बात हुई। आफिस में थे। आयुध निर्माणी खमरिया से 1978 में त्यागपत्र देकर एलिम्को ज्वाइन किया था। उनके पेंशन के सिलसिले में कोशिश की थी। लेकिन कामयाब नहीं हुए। इतने पुराने कागजात खोजने मुश्किल। इस बीच उनकी पेंशन के लिए कोशिश करने वाले तिवारी जी भी नहीं रहे।
चौधरी जी 82 साल के करीब उम्र के हैं। चुस्त, दुरुस्त। घर में बच्चे हैं लेकिन उनको लगता है कि यहाँ वे बेहतर स्थिति में हैं।
वृद्धाश्रम में 28 पुरुष और 32 महिलाएं हैं। सबके एक बार के खाने का करीब 6500 खर्च आता है। लोग अलग-अलग तरह से स्पॉन्सर करते हैं।
पिछली बार आये थे तो एक महिला लगातार चिल्लाती रहती थीं। उनके बारे में पूछा तो बताया, खराब निकल गईं। बार-बार आश्रम से निकल जाती थीं। किसी-किसी के साथ रहती थीं। आखिर में निकल गईं आश्रम से।
जब गए थे तो कीर्तन हो रहा था। घोष जी के कमरे में तीन महिलाएं रहती हैं अब। कमला, सनेही, रीता चड्ढा। सब ने अपने-अपने किस्से बताए। किसी का आदमी खराब निकल गया, किसी का रहा नहीं। किसी के बच्चे नशा करते हैं, किसी को घर से निकाल दिया गया। भले ही यहां रहते हैं लेकिन घर वालों से सम्बंध हैं। घर वाले आते-जाते रहते हैं। यहां हर तरह से सुरक्षित हैं और आराम से भी। खाने-पीने की कोई चिंता नहीं। कोई यहाँ से जाना नहीं चाहता।
वृद्धाश्रम को शुरू करने में मधु भाटिया जी का योगदान था। कुछ दिन पहले उनका निधन हुआ। जब तक वे जीवित रहीं, लगातार जुड़ी रहीं यहां से। हफ्ते में तीन-चार दिन जरूर आती थीं। सबकी समस्यायों का निराकरण करती थीं। दिलीप घोष उनको मम्मी कहते थे। सब लोग उनकी याद करते हैं।
चलते समय सभी ने कहा-'फिर आना। आते रहना।' कमला, सनेही और रीता चड्ढा ने परिवार सहित आने को कहा। महिलाओं का परिवार से जुड़ाव बना ही रहता है।
लौटते हुए प्रार्थना हाल में एक बुजुर्ग वाकर के सहारे चलते दिखे। पूछने पर पता चला कि सनेही के पति हैं। सनेही अपने पति की चुपचाप जाते देखती रहीं, चुपचाप। दोनों में शायद अबोला है।
लालचंद मोबाइल में लूडो खेल रहे थे। एक क्लिक पर पासा आया और उन्होंने गोटी बढ़ा दी।
हम भी बाहर की तरफ बढ़ गए।
(दिलीप घोष और चौधरी जी से जुड़ी पोस्ट कमेंट बॉक्स में)

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