Thursday, August 31, 2017

नोटम नमामि के पंच

जयपुर निवासी यशवंत कोठारी जी Yashwant Kothari अध्यापक, लेखक, घुमक्कड़, उपन्यासकार सामाजिक कार्यकर्ता व्यंग्यकार मने क्या नहीं हैं। मतलब बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने हमारे ’पंचबैंक’ को देखकर अपनी दो किताबें मुझे सस्नेह भेजीं। ’ नोटम नमामि’ व्यंग्य लेखों का संग्रह है। ’असत्यम, अशिवम, असुन्दरम’ व्यंग्य उपन्यास है। कुल जमा 31 किताबों के लेखक यशवंत के नाम व्यंग्य की 12 किताबें हैं। उनके बारे में फ़िर कभी। फ़िलहाल यशवंत कोठारी जी के व्यंग्य संग्रह ’नोटम नमामि’ के कुछ पंच यहां पेश हैं।
1. जो नंगा नहीं होना चाहते वे लोकतंत्र को नंगा कर देते हैं।
2. आजादी के पचास वर्षों गांधी जी की लंगोट से चलकर हम लोकतंत्र की लंगोट तक पहुंच गये हैं।
3. भावताव में पत्नी का निर्णय ही अंतिम और सच साबित होता है।
4. पति का उपयोग केवल थैले, झोले या टोकरियां उठाने में ही होता है। बाकी का सब काम महिलायें ही संपन्न करती हैं।
5. जो नायिका एक फ़िल्म में पद्मिनी लगती है, वही किसी अन्य फ़िल्म में किसी अन्य नायक के साथ हस्तिनी लगने लगती है।
6. पूरा देश दो भागों में बंट गया है। लोन लेकर ऐश करने वाला देश और लोन नहीं मिलने पर भूखा प्यासा देश।
7. भूख से मरते आदिवासियों को कोई रोटी खरीदने के लिये लोन नहीं देता है, मगर उद्योगपति को नई फ़ैक्ट्री या व्यापारी को नई कार खरीदने के लिये पचासों बैंक या वित्तीय कंपनियां लोन देने को तैयार हैं।
8. हर तरफ़ लोन का इंद्रधनुष है, मगर गरीब को शुद्ध् पानी नसीब नहीं।
9. सत्ता के लोकतंत्र में बहुमत के लिये कुछ भी किया जा सकता है। घोड़ों की खरीद-फ़रोख्त से लगाकर विपक्षी से हाथ मिलाने तक सब जायज है।
10. हिंदी वास्तव में गरीबों की भाषा है। भाषाओं में बी.पी.एल है हिन्दी। हिन्दी लिखने वाले गरीब्, हिन्दी बोलने वाले गरीब, हिन्दी का पत्रकार गरीब, हिन्दी का कलाकार गरीब।
11. दफ़्तर वह स्थान है, जहां पर घरेलू कार्य तसल्ली से किये जाते हैं।
12. लंच में बड़े-बड़े लोग बड़ी डील पक्की करते हैं और छोटे-छोटे लोग छोटी-छोटी बातों के लिये लड़ते-झगड़ते एवं किस्मत को कोसते हैं।
13. कुछ लोग लंच घर पर ही करने चले जाते हैं और वापस नहीं आते।
14. लंच एक ऐसा हथियार है, जो सबको ठीक कर सकता है। लंच पर जाना अफ़सरों का प्रिय शगल होता है।
15. दफ़्तरों में लंच का होना इस बात का प्रतीक है कि देश में खाने-पीने की कोई कमी नहीं है।
16. कुढना, जलना या दुखी होकर बड़बड़ाना ह्मारा राष्ट्रीय शौक हो गया है। जो कुछ नहीं कर सकते वे बस कुढते रहते हैं।
17. पति पत्नी पर कुढता है, पत्नी पति पर कुढता है। दोनों मिलकर बच्चों पर कुढते हैं।
18. इस देश में सिवाय कुढने के , चिडचिडाने के हम कर भी क्या सकते हैं।
19. कुढने से हाजमा दुरुस्त होता है, स्वास्थ्य ठीक रहता है, नजरें तेज होती हैं, किसी की नजर नहीं लगती और सबसे बड़ी बात, कुढने के बाद दिल बड़ा हल्का महसूस होता है।
20. जो व्यक्ति परनिंदा नहीं कर सकता , वह अपने जीवन में कुछ भी नहीं कर सकता।
21. परनिन्दा आम आदमी का लवण भास्कर चूर्ण है, त्रिफ़ला चूर्ण है , जो हाजमा दुरुस्त रखत है। पेट साफ़ करता है। मनोविकारों से बचाता है और स्वस्थ रखता है।
’नोटम नमामि’ के प्रकाशक हैं ग्रंथ अकादमी , पुराना दरियागंज नई दिल्ली-110002
किताब का पहला संस्करण 2008 में आया और इस हार्ड बाउंड किताब के दाम हैं एक सौ पचहत्तर रुपये मात्र।

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Tuesday, August 29, 2017

अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी

लौट के घर में घुसे तो याद आया -'अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी। ' सोचा- छूट गयीं तो छूट गयीं। कल सही। लेकिन फ़िर मन नहीं माना। फ़ौरन ’उल्टेपैडल’ निकले गंगा दर्शन के लिये। पैडलियाते हुये गये तो गिनते भी गये। कुल 150 पैडल दूर हैं गंगा हमारे घर से। लेकिन यह तब जब ढाल भी मिली। लौटते में दो सौ से ज्यादा हो गये पैडल। लम्सम दो सौ पैडल धर लीजिये।
किनारे तक पानी था। एक आदमी जाल समेट रहा था। पता नहीं कुछ मिला कि नहीं। बगलिया के झोपड़ियों के सामने से नदी देखी। पानी फ़ुर्ती से बहा चला जा रहा था। मानो दुबला होने के लिये ’ब्रिस्कवॉक’ कर रहा हो। कोई डॉक्टर बताइस होगा पानी को। तेज चला करो वर्ना ब्लॉकेज हो जायेगा। बाईपास करना होगा।
पानी गलबहियां डाले चला जा रहा था। क्या पता अगल-बगल बहता पानी कितनी दूर पहले मिला हो। क्या पता हरिद्वार में साथ बहता पानी यहां आते-आते बिछुड़ गया हो। कहीं कोई पानी थककर सुस्ताने लगा हो और उसके साथ का पानी आगे चल दिया हो। रमानाथ जी गलत थोड़ी कहते हैं:
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे, कह नही सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
दो पुल के बीच से पानी तेजी से बहा चला जा रहा था। दो पुलों के बीच पानी की पिच जैसी बनी थी। आये जिसको मैच खेलना हो। कुछ देर बाद सूरज भाई अपनी किरणों के साथ कबड्डी खेलेंगे पानी की पिच पर। दायीं तरफ़ टैंकर लादे रेल खड़ी थी। बायीं तरफ़ लोग शहर की तरफ़ भागे चले जा रहे थे।
ऊपर नुक्कड़ पर चाय की दुकान थी। लेकिन कोई ग्राहक नहीं था। हम भी हड़बड़ाये थे लौटने को। फ़िर भी चलते-चलते पूछ ही लिये कहां के रहने वाले हो? बोले- ’सुल्तानपुर से आये थे तीस साल पहले।’ कई तबेलों में भैंसे बंधी थी। एक आदमी गाय दुह रहा था। उसी जगह एक दिन एक औरत झाड़ू लगाती दिखी थी। डेढ हाथ का घूंघट डाले सड़क साफ़ कर रही थी।
लौटते हुये तमाम स्कूली बच्चे तेजी से स्कूलों में जमा होते दिखे। चलती सड़क के बाहर खड़ा चपरासी पीटी मास्टर सरीखा उनको रुकने और सड़क पार करके अंदर आ जाने का निर्देश दे रहा था।
यह तो हुआ लौटने का किस्सा। शुरुआत तो सुबह नीबू-मिर्चे से हुई। सड़क किनारे कई साइकिलों में लोग नीबू मिर्चे की डलिया टाइप लादे कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे। हमें लगा कहीं मार्च पर निकल रहे होंगे। पता चला कि अचलगंज से आये हैं शहर नीबू-मिर्च बेंचने। 40-50 किलोमीटर दूर से शहर नीबू-मिर्च बेंचने वाली बात कुछ अटपटी लगी। हमने पूछा - ’कैसे आते हो? ट्रेन से क्या?’
यही हमारी ट्रेन है। एक ने अपनी साइकिल कसते हुये बताया। फ़ोटो खैंचकर दिखाई तो खुश हो गये। बोले - ’ये तो सब साइकिलें आ गयीं।’
आगे एक महिला एक चाय की दुकान की बेंच पर फ़सक्का मारे बैठी मोबाइल पर बतिया रही थी। किसी को जोर-जोर से कुछ हिदायत दे रही थी। मुंह ऊपर किये। ऊपर किया मुंह किसी डिस एंटिना सरीखा लगा जिससे सिग्नल सीधे अगले के काम में पहुंचे।
एक बड़ी दुकान के बाहर एक दरबान रात की ड्युटी के बाद ऊंघने का काम निपटा रहा था।
आगे सड़क किनारे फ़ुटपाथ पर एक 'श्वान युगल' 'उत्कट प्रेम क्रिया' में संलग्न था । एक आदमी उनकी निजता में दखल देते हुये भगाने के प्रयास में उनको पत्थर मारने की कोशिश में लगा था। लेकिन वे श्वान युगल -“ देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं” कविता का भाव ग्रहण करते हुये अपने काम में लगा रहा। फ़ुटपाथ से सड़क पर आ गया।
वहीं सड़क किनारे दो रिक्शों पर रिक्शे वाले गपिया रहे थे। एक तसल्ली से पूरे से रिक्शे पर पांव फ़ैलाये लेटा था। दूसरा बैठा हुआ बतिया रहा था। दोनों सीतापुर के महोली कस्बे के रहने वाले हैं। लेटा हुआ रिक्शेवाला दस दिन पहले कानपुर आया है। ससुराल उन्नाव के आगे हरौनी में है। बीबी मायके आ गयी है। वह भी आ गया कानपुर। कुछ दिन रिक्शा चलाता है। जहां कुछ पैसे हो जाते हैं, ससुराल चला जाता है। बीबी को पता नहीं कि वह कानपुर में रिक्शा चलाता है।
अनिल शर्मा नाम है रिक्शे वाले का। उमर पर कयास लगे। हमने कहा 25-30 होगी। बोला- 35 साल है। हमने मान लिया। उसकी उमर वही जानेगा न! दो बच्चियां हैं। अभी स्कूल जाना सीख रही हैं।
रिक्शे पर शहंशाह की तरह आरामफ़र्मा होने का कारण बताया अनिल शर्मा ने कि सवारी 10-11 बजे के बाद मिलती हैं। इसलिये सुबह तसल्ली से आराम करते हैं। दोपहर से रात तक चलाते हैं रिक्शा। किराये का 50 रुपया पड़ता है।
लौटते हुये फ़ूलबाग पार्क में तमाम सेहतिये लोगों की भीड़ दिखी। बाहर चाय-मट्ठे की दुकानें। एक पहलवान जी चाय की दुकान। कभी पियेंगे यहां चाय सोचते हुये आगे निकल आये।
घर के पास चौराहे पर कूड़े के बिस्तरे पर कुछ सुअर सोते हुये दिखे। अभी उनकी सुबह हुई नहीं थी। आराम से सो रहे थे। उनके पास ही एक आदमी रिक्शे पर सो रहा था। गंदगी से सुअर के मुकाबले दूरी में बहुत कम अन्तर होगा। लेकिन नींद शायद एक जैसी ही गहरी थी दोनों की।
पास ही एक आदमी फ़ुटपाथ पर बीड़ी पी रहा। उसके साथ का आदमी मोबाइल हाथ में थामे सामने ताक रहा था। उसके बगल में एक आदमी शीशे में देखते हुये बाल काढ रहा था। सबको देखते हुये हम खरामा-खरामा चले आये। यह कैंट इलाका है। सबसे संभ्रात टाइप। यहां इतनी गंदगी है। तो बाकी शहर का क्या हाल होगा। सोचते हुये घर आ गये। फ़िर घर आकर याद आया कि अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी। उसका किस्सा बता ही दिया।
अब आप मजे करिये। हम भी निकलते दफ़तर की तरफ़। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे हैं। 

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Friday, August 25, 2017

चलो तुमको स्टेटस बनाते हैं

शेर लिखकर कहा, चलो तुमको स्टेटस बनाते हैं,
शेर फूट लिया कहकर - शेरनी को बताकर आते हैं।
एक चिरकुट सा लेख लिखा, अख़बार से खबर आई,
थोड़ा और घटिया बनाकर भेजो, फौरन छपवाते हैं
वो मिले राह में बोले इमेज इत्ती चौपट बनाई तुमने
लफ़ड़ा क्या है यार, लोग तुमको भला आदमी बताते हैं।
-कट्टा कानपुरी

Monday, August 21, 2017

मिड डे मील मतलब बच्चों के लिए बिस्कुट

कल सुबह फिर गंगा किनारे जाना हुआ। जयफ्रेंडशिप ग्रुप के लोग बच्चों को पढ़ाने में लगे थे। अलग-अलग समूह में बच्चों को अक्षर ज्ञान, गिनती और साधारण जोड़-घटाना सिखाया जा रहा था। कुल मिलाकर 5 मिली-जुली कक्षाएं चल रहीं थीं। तीन नीचे, दो ऊपर चबूतरे पर।
कुछ-कुछ देर में सिखाने वाले बदलते जा रहे थे। आसपास के लोग कौतूहल से तमाशे की तरह देख रहे थे इसे। कुछ लोग वीडियो बना रहे थे। कुछ लोग इसे भला काम बताते हुए अपनी तरफ से राय भी देते जा रहे थे।
पढ़ाने वाले के हैं। रायचन्द लोग भी शुक्लागंज के हैं। बड़े-बुजुर्ग भी हैं। इसलिए हर सलाह को अदब से सुनना उनकी मजबूरी भी है।
एक ने बताया -'बाबा जी बहुत खुश हैं। कह रहे थे कि अगर कुछ मदद चाहिए तो देंगे। यहां पुल के नीचे टट्टर से घिराव करवा देंगे। ट्रस्ट मदद करेगा।'
मतलब हठयोगी बाबा जी लोगों से मिले पैसे से बच्चों के प्रयास को अपने ट्रस्ट में मिला लेंगे।
मदद की बात और भी लोगों ने की- 'जो मदद चाहिए -बताना 24 घण्टे में हो जाएगा काम।'
एक इस काम को पीपीपी मतलब पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की तरह चलाने का सुझाव उछाल दिया। बच्चों को स्कूलों में भर्ती कराने का सुझाव। मतलब जो करें वो सब यही लोग करें। अगला केवल सुझाव देगा।
एक ने भौकाल दिखाते हुए सब बच्चों के लिए मिड डे मील की व्यवस्था की बात कही। मिड डे मील मतलब बच्चों के लिए बिस्कुट। कहकर थोड़ी देर में टहल लिया।
यहां पढ़ने आने वाले ज्यादातर बच्चे स्कूलों में जाते हैं। गंगापार गोलाघाट ज्यादा बच्चे जाते हैं। शुक्लागंज वाले स्कूल में ठीक से पढाई नहीं होती। मास्टर बच्चों को मारते, डांटते हैं।
यह सुनते ही एक ने कहा-'अरे ऐसे कैसे कर सकता है। बताना बीएसए से कह देंगे। टाइट कर देगा।' गोया बीएसए के टाइट करते ही स्कूल सुधर जाएगा।
जयफ्रेंडशिप ग्रुप की शुरआत गंगा किनारे सफाई से हुई । बरसात में पानी बढ़ गया तो सफाई का काम रुक गया। ग्रुप के लोगों ने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।
सबसे कठिन काम बच्चों को पढ़ने के लिए इकट्ठा करने का है। कुछ बच्चे तो आ जाते हैं, बाकी को उनके घर से लाना होता है।
क्लास के बाहर कई लोग अपने बच्चों को पढ़ता देख रहे हैं। उनमें से ज्यादातर खुद अनपढ़ हैं। हम उनको भी पढ़ने को कहते हैं तो वे हंसने लगते हैं।
क्लास के बाहर खड़े कई लोग वहां पढ़ाते लोगों को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। वे बताते हैं ये स्कूल में बच्चों की डांस टीचर हैं।
पढ़ाने का सबका अंदाज अलग-अलग है। रचना सुबह ही आई हैं। बच्चों को ककहरा सिखाते हुये 'ज्ञ' तक पहुंचती हैं। बच्चो को बताती हैं 'ज्ञ से ज्ञानी, खत्म कहानी।' इसके बाद टीचर बदल जाता है। दूसरी बच्ची पढ़ाना शुरू करती है।
गंगा जी किनारे तक आई हुई हैं। अपने किनारे चलते खुले स्कूल को देख रही हैं। मजे से बह रही हैं। एक परिवार मछली को आटा खिला रहा है। लोग नाक बन्दकरके नदी में डुबकी लगा रहे हैं। एक बूढ़ा माता नदी में पैठी फूल सजाती हुई शायद महादेव की पूजा में जुटी हैं।
चाय वाले भाई हमको देखते ही खुश हो गए थे। लपककर चाय पिलाई। बताया -'हम इंतजार कर रहे थे।'
पता चला कि वे कुछ महीने पहले तक एक हलवाई की दुकान पर काम करते थे। अब इधर तख्त डाल लिया। दुकान लगा ली। क्वालिटी से समझौता नहीं करते। दूर-दूर से लोग आते हैं चाय पीने।
चाय की बात करते ही हमारी भी चाय आ गई। हम पीते हैं। आप भी आ जाइये। पिलाते हैं। 

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Sunday, August 20, 2017

हम पंचन की कौन छुट्टी?




निराला जी ने वह तोड़ती पत्थर लिखी। दसकों पहले। आज ये लोग ईंट तोड़ते मिले। मजदूरी की बात पर बोली -'एक गाड़ी खड़खड़ा ईंट की तुड़ाई के 50 रुपया मिलत हैं। कल 5 गाड़ी डाल गया था खड़खड़ा वाला। अब तक नहीं तोड़ पाए। हाथे माँ गट्ठा पड़िगे हैं।'
दो लोग मिलकर एक दिन में 250 रुपये की गिट्टी नहीं तोड़ पाए। उप्र में आजकल न्यूनतम मजदूरी 350 रुपये के ऊपर है।
ईंट तोड़ती हुई महिला ने सड़क पर झाड़ू लगाती महिला से पूछा -'आज इतवार को भी ड्यूटी है। छुट्टी नहीं है।'
'इतवार का छुट्टी सरकारी लोगन की होति है। हम पंचन की कौन छुट्टी?'- झाड़ू लगाती महिला ने कहा।

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आलोक पुराणिक के लेखन के कुछ पंच




कल आलोक पुराणिक की किताब 'व्हाइट हाउस में रामलीला' के कुछ लेख पढ़ें। उन लेखों के कुछ पंच आप भी मुलाहिजा फरमाएं।
1. अतीत के कई डकैतों का मुकाबला वर्तमान डकैतों अर्थात विशुद्ध नेताओं से है।
2. चुनाव के रिजल्ट आने के बाद नेता से पेमेंट निकलवाना अति ही मुश्किल कार्य है। इसलिये कि जीता हुआ नेता तो हाथ नहीं आता है और हारा हुआ नेता हाथ आ भी जाये तो उसके हाथ में देने योग्य कुछ होता नहीं।
3. कोऊ नृप होय, हमें का हानी... की बात सही नहीं है। अगर नृप को फ़ायदा हो रहा है, तो किसी की तो हानि होगी ही। यह बात सामान्य सी गणित की है।
4. जिनमें कुछ होने का बूता होता है , वह विधायक मंत्री हो लेते हैं। जो कुछ नहीं कर पाते, वो बुरा मानते रहते हैं।
5. अब नेता होशियार हो गये हैं। अब वे सारे लट्ठबाजों, बन्दूकबाजों को अपने स्टॉफ़ में ही रखते हैं। पब्लिक की तरफ़ से लट्ठ चलाने वाला कोई नहीं मिलता।
6. टाइम बहुत कीमती है, उसे एक्शन में लगाना चाहिये, वार्ड मेम्बरी से विधायक बनने में लगाना चाहिये, बुरा मानने में नहीं लगाना चाहिये।
7. अश्लीलता सिर्फ़ नंगी फ़ोटुओं में ही नहीं होती, वाटर पार्क भी कई बार अश्लील लग सकते हैं।
8. बच्चों को पानी के माध्यम से सिखाया जा सकता है कि संयम क्या होता है। सुबह नल की प्रतीक्षा, फ़िर न आने पर शाम को नल की प्रतीक्षा, फ़िर अगले दिन भी यही, फ़िर...। इस तरह से जिसने पानी का इन्तजार साध लिया , वह धीरे-धीरे संयमी हो जाता है।
9. नल किसी झूठी प्रेमिका सा बर्ताव करता है, जो सच्ची में नहीं आती, बस ख्वाब में आती है।
10. सबको रोटी, कपड़ा ,मकान की उम्मीदों के साथ सपने शुरु हुये थे। अब पानी भी सपना हो।
11. जिनके पास मनी होता है, वो किसी प्लांट-व्लांट की चिंता नहीं करते, जानते हैं कि जब चाहेंगे , खड़ा कर लेंगे।
12. जिनके पास न मनी होता है और न प्लांट, वो घर में लाकर मनी प्लांट का पौधा लगाते हैं।
13. गुलाब ने बहुत टाइम वेस्ट करवाया है। पुराने राजाओं के फ़ोटो देखो, तो उनके हाथ में जो फ़ूल दिखाई देता है, वह है - गुलाब। गुलाब सूंघने में इनर्जी खल्लास कर दी, उधर से अंग्रेज आकर जम गये और पूरे इंडिया को ही अपने लिये मनी-प्लांट बना लिया।
14. पानी नेताओं के ईमान की तरह हो गया है। जिसकी बातें तो बहुत होती हैं, पर दिखता बहुत कम है।
15. पानी तो सबके काम आ जाता है, पर नेताओं का ईमान किसी के काम नहीं आता, सिर्फ़ नेताओं के काम आता है।
16. ईमान उनके लिये नीति नहीं, बल्कि रणनीति है।
17. ईमान को नीति बनाने वाले मरते हैं, हां ईमान को बतौर रणनीति इस्तेमाल करने वाले मौज में रहते हैं।
18. ईमान की बात करने वाले बन्दे के रेट उसी तरह बढ जाते हैं जिस तरह से रेड लाइट एरिया से बहुत दूर परम पॉश कॉलोनियों में धंधा करनेवालियों को बढे हुये रेट मिलते हैं।
19. बेईमानी के झमाझम पैसे मिलेंगे, अगर वह ईमानदारी की पैकिंग में हो।
20. डकैती के टनाटन रिटर्न मिलेंगे, अगर वो खादी की राष्ट्रसेवी वर्दी में की जाये।
21. सच को सच तब ही माना जायेगा, जब वह झूठ की तरह विश्वसनीय हो।
22. इंटेलेक्चुल कहलाये जाने की पहली शर्त यही है बन्दा अपने लिखे के सिवा कुछ और न पढे और खुद के लिखे को छोड़कर बाकी सारे लेखन को कचरा घोषित कर दे।
23. औरों के लिखे को पढने में जो टाइम वेस्ट करेगा, वो खुद को इंटेक्चुअल साबित करने के लिये टाइम कहां से निकालेगा।
24. इधर होना या उधर होना बहुत घाटे का सौदा है। इंडियन फ़ंडा यह है कि इधर भी होना, उधर भी होना, मौका मुकाम देखकर किधर भी होना।
25. जिनकी कायदे की जुगाड़ है, उन्हें पुरस्कार मिल जाता है। जिनकी उस लेवेल की नहीं होती, वो पुरस्कार निर्णायक समिति में आ जाते हैं।
26. भलाई अब एक्सचेंज ऑफ़र के तरह की जाती है। तू मेरी कर, मैं तेरी।
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Saturday, August 19, 2017

बात चाय की नहीं, प्रेम की है

गंगा तट पर पहुंचे शाम को। दो लोग अंधेरे में मछलियों को दाना खिला रहे थे।बताया - रोज का क्रम है।
वे पालीथिन में लईया लिए थे। पानी में डालते जा रहे थे। मछलियां लपक रहीं थीं। बच्चे का दाना खत्म हो गया। वह चलने लगा। बड़े ने टोंका -'गंगा जी को प्रणाम करके जाओ।'
सामने ही एक बुजुर्ग माला जप रहे थे। माला फेरने के बाद गंगा की रेती पर मत्था टिकाया और मोमिया की चटाई तहा कर पास के तख्त पर पटक दी।
बुजुर्गवार पिछले 40 साल से बिना नागा गंगा तट पर आते हैं। शाम को रेती पर बईठ कर 16 बार माला जपते हैं। इनमें 11 बार शंकर जी के लिए, एक बार गंगा जी के लिए, गायत्री जी के लिए और अन्य देवताओं के लिए हैं।
त्रिभुवन नारायण शुक्ल नाम है बुजुर्ग का। उम्र 76 साल। सेहत टनाटन। नयागंज में कोई फुटकर सामान की दुकान है। शाम को वापस लौटते हुए माला जपने के बाद शुक्लागंज घर जाते हैं। ज्वालादेवी परिसर में बेटे की मोटरसाइकल की दुकान है। जिंदगी में कोई फिक्र नहीं -ऐसा बताये शुक्ल जी।
वहीं खड़ेश्वरी बाबा के मंदिर में आरती चल रही थी। लोग घण्टा-घड़ियाल बजा रहे थे। बाबा एक पांव पर खड़े भक्तों को निहार रहे थे।
बाहर चाय की दुकान पर दूध खत्म हो गया था। चाय वाले ने कई बार उदास लहजे में चाय न पिला पाने के लिए अफसोस जताया। हमने कहा -'कोई नहीं कल पियेंगे।' इस पर उन्होंने कहा-' बात चाय की नहीं, प्रेम की है।' इत्ती जल्ली तो फिल्मों में भी प्रेम नहीं होता जित्ता जल्ली गंगा तट पर हो गया।
पुल के पहले पटरियों पर कीचड़ धुली सड़क पर सब्जी वाले लोग सब्जी बेंच रहे थे। पटरी पर रेल गुजर रही थी।पुल पर साइकिल, रिक्शे, ऑटो, मोटर और मोटरसाइकिल सब एक साथ गुजर रहे थे।
गंगा नदी तसल्ली से आरामफर्मा थीं। सारी बत्तियां बुझाकर सो रही थीं। किनारे की बत्तियां नाइटबल्ब सी टिमटिमा रहीं थीं।
पुल पार करके एक जगह देखा एक भाई कुछ गया रहे रहे। साथ के लोग तसल्ली से सुन रहे थे। पता चला शुक्लागंज के किन्ही महेश दीक्षित का गीत है। गीत में गंगा, नारद, शिव और अन्य देवताओं का जिक्र है। बताया बहूत पसन्द है उनको यह गीत। दीक्षित जी के गीत अक्सर गाते हैं।
हम दीक्षित जी से परिचित नहीं। आप भी नहीं होंगे। लेकिन उनके गीत कोई थकान मिटाने के लिए सुन रहा है यह बड़ी भली बात लगी।
यह भी लगा कि दुनिया में साहित्य और संवेदना के प्रसार का काम सबसे बेहतरीन माने जाने वाले लोगों की रचनाओं से ही नहीं होता। अनगिनत मामूली, अनाम लोग इस काम में अपना योगदान देते हैं। यह योगदान किसी बड़े रचनाकार से कम नहीं होता।
अब शनिवार को सप्ताहांत में इतना ही। बकिया फिर। 

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Friday, August 18, 2017

ज्यादा उचको मती, वर्ना तारीफ कर देंगे

ज्यादा उचको मती, वर्ना तारीफ कर देंगे,
ऐंठ जो दिख रही, वो सब हवा हो जाएगी।
गुमान में गुब्बारे से मत फूले फिरो भईये,
कहीं कोई पिन चुभी, हवा निकल जायेगी।
ऐसे-वैसे देखे बहुत, लेकिन आप तो खास हो,
यही झूठ कहते-सुनते जिंदगी निकल जायेगी।
-कट्टा कानपुरी

Wednesday, August 16, 2017

जंह-जंह देखा अंधकार को, मारू डंका दिया बजाय

आज सुबह निकलते ही देखा कि सूरज भाई आसमान की गद्दी पर विराज चुके थे। उनके चेहरे पर अंधकार के संहार की विजय पताका फ़हरा रही थी। दिशायें उनके सम्मान में गीत पढ रही थीं। उजाला वीर रस में उनकी वीरता का बखान कर रहा था:
जंह-जंह देखा अंधकार को, मारू डंका दिया बजाय,
गिन-गिन मारा अंधियारे को, टुकड़े-टुकड़े दिये कराय
सबहन किया उजेला, रोशनी सबहन दई बिखराय,
करौं बड़ाई का सूरज की, आगे वर्णन किया न जाय।
किरणें उजेले की चापलूसी पर मुस्कराते हुये सूरज दादा को देख रही थीं। जहां उजेले ने ’आगे वर्णन किया न जाये’ कहा वहीं खिलखिलाने लगीं और उसको ’कामचोर चापलूस’ कहकर चिढाने लगीं। उजेले ने उसकी बात का बुरा नहीं माना। चापलूस किसी की बात का बुरा नहीं मानते। एकनिष्ठ भाव से चापलूसी करते हैं। उनका ध्यान अपने आराध्य की चापलूसी करना होता है। बुरा मानने से ध्यान भटकता है। चापलूसी प्रभावित होती है। जिस उद्धेश्य से चापलूसी की जा रही है उसकी प्राप्ति में विलम्ब होता है।
शुक्लागंज पुल पर लोगों की आवाजाही शुरु हो गयी थी। गंगा जी एकदम चित्त लेटी हुई थीं। लहरें उनके वदन पर गुदगुदी सरीखी कर रहीं थीं। गंगा जी लहरों की गुदगुदी को वात्सल्य भाव से निहारी चुपचाप लेटी हुई थीं। नदी की लहरों को देखकर यह भी लगा कि ये सब बुजुर्ग नदी के बदन की झुर्रियां हैं जो हवा के बहने से इधर-उधर हिल-डुल रही हैं।
एक जगह पानी का गोला अंदर धंसा हुआ गोल-गोल घूमता चला आ रहा था। लगा नदी की नाभि है। लगा नदी कपालभाति कर रही हैं। अपनी नाभि को इधर-उधर घुमा रही हैं। सूरज भाई को मुफ़्त का पानी मिल गया इसलिये नदी में उतरकर नहाने लगे। छप्प-छैंया करते हुये। जहां नहा रहे थे उसके आसपास उजाला, किरणें, जगमगाहट उनके मने उनके कुनबे के सारे लोग भी जमा हो गये थे।
पुल पर कुछ लोग दौड़ते हुये चले आ रहे थे। किसी युनिट के जवान होंगे। हमें जबलपुर के हिकमत अली की बात याद आ गयी जो तीस-चालीस मील दूर ढोलक बेंचने जाते थे। उन्होंने जबलपुर में सुबह सड़क पर जवानों को देखते हुये पूछा - ’ये लोग सड़क पर दौड़ते क्यों हैं?’
इस बार सीधे गंगा नदी पहुंचे। घाट के किनारे एक आदमी अपने हाथ में चटाई जैसी कोई चीज घुमा रहा था। रस्सी की बंटाई कर रहा था। उससे करीब 100 मीटर की दूरी पर दो सुतलियों को मिलाकर उनके ऊपर पतली पन्नी लपेटती जा रही थी। इस तरह सुतली पन्नी में लिपटकर आकर्षक बन जा रही थी। पन्नी को पास से देखा तो वे सब पान मसाले की पाउच की कतरन थीं। किलो के भाव लाये होंगे।
महिला ने बताया कि ये रस्सी तमाम कामों में आती है। सिकहर भी बनते हैं। सिकहर गांवों में दही आदि ऊंचाई पर लटकाकर रखने वाले मिट्टी के बर्तन होते हैं।
महिला रस्सी लपेटती जा रही थी। दूसरे सिरे पर खड़ा आदमी लकड़ी के औजार को घुमाते हुये सुतली बंटता जा रहा था। एक तरफ़ घुमाने पर रस्सी बंट रही थी। दूसरी तरफ़ घुमाने लगता तो रस्सी खुल जाती। बंटने और बांटने में बस इरादे का अंतर होता है।
महिला ने बताया कि कानपुर की ही रहने वाली है। बुजुर्ग लोग यहीं रहते हैं। रस्सी बंटाई से सौ-पचास की कमाई हो जाती है।
पास ही एक बच्ची उनींदे आंखों बर्तन मांज रही थी। झोपड़ी के पास ही बच्चे सो रहे थे।
गंगा नदी अपने अंदाज में बह रहीं थीं। खड़ेश्वरी बाबा की झोपड़ी के बाहर गुब्बारे लगे थे। कल स्वतंत्रता दिवस मनाया होगा। लोग नदी में नहा रहे थे। एक बाबा जी गंगा की रेती से लोटा मांज रहे थे। दूसरे नहाने के बाद पटते वाला जांघिये धारण करते दिखे। महिलायें नाक बंद करके डुबकी लगा रहीं थी।
कुछ लोग बाल बनवा रहे थे। लगता है उनके यहां गमी हो गयी थी। आज बाल बनने का दिन था। एक नाऊ बाल बनाकर बाल रेती पर गिराता जा रहा था। कुछ देर में बाल नदी में सम जायेंगे। यही हमारा स्वच्छ ’गंगा-निर्मल गंगा अभियान’ है।
महिलाओं के कपड़े बदलने का स्थान इतनी दूर बनाया गया था कि कोई महिला वहां जाने का मन न करे। स्थान भी क्या , बस जरा सी आड़ टाइप। उसके पास जिस चबूतरे पर इतवार को बच्चे पढ रहे थे उसपर एक सुअर परशुरामी सा करता हुआ टहल रहा था।
नदी किनारे कुछ लोग बैठे हुये मछलियों को चारा खिला रहे थे। चारा मतलब बिस्कुट, ब्रेड। मछलियां किनारे आकर बिस्कुट, ब्रेड खा रही थीं। झुंड के झुंड। हमने भी खिलाये उनसे बिस्कुट लेकर। तीन-चार खिलाने वालों में कोई चमड़े की बेल्ट बनाता है, कोई तिरपाल बनाने वाली फ़ैक्ट्री में सुपरवाइजर है।
मछलियां लपक-लपककर आ रहीं थीं। किसी मछली के मुंह में और किसी की पीठ पर खून का निशान दिखा। बताया कि यह कांटा का निशान है। बच गयीं हैं फ़ंसने से। बच गयी इसलिये यहां हैं वर्ना किसी डलिया में बिकने के लिये तड़फ़ रही होंगी। कविता पंक्ति अनायास याद आ गई:
एक बार और जाल फ़ेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
गीत मछली विरोधी है। भाव मछलियों के मन के खिलाफ़। कौन मछली जाल में फ़ंसना चाहेगी भला।
लौटते हुये देखा एक दो महिलायें पुल के फ़ुटपाथ पर आल्थी-पाल्थी मारे बैठी थीं। बतियाती जा रहीं थीं। एक इतनी जोर से कन्धा घुमाऊ कसरत कर रही थी मानो कन्धा उखाड़कर ही रुकेगी। एक लड़का मोटरसाइकिल की गद्दी पर बैठा फ़ुटपाथ पर बैठे दोस्त से गप्पास्टक में जुटा था।
दो बच्चे स्कूल जाते दिखे। बतियाते हुये चले जा रहे थे। दोनों की ड्रेस अलग। आगे कुछ दूर पर बच्चा बच्ची को बॉय कहकर गली में मुड़ गया। उसका स्कूल अलग था। बच्ची आगे चल दी। बताया कि वीरेंद्र स्वरूप पब्लिक स्कूल में कक्षा 7 में पढती है। स्कूल सवा सात बजे लगता है। लेकिन वह जल्दी आती है। मेरा चिरकुट मन उसके जल्दी स्कूल आने के कारण खोजने में जुट गया। लेकिन जहां मन की चिरकुटई का एहसास हुआ फ़ौरन मन को इत्ती जोर से डांटा कि उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। डर के मारे थरथराता रहा बहुत देर तक।
एक बहुत पुरानी लकड़ी की कुर्सी उससे और भी पुरानी प्लास्टिक की कुर्सी के साथ ताले और जंजीर में जकड़े दिखे। जर्जर कुर्सियां जिनको कोई जबरियन भी न ले जाना चाहे उनको ताले में बंद देखकर कैसा लगा होगा उनका आप कयास लगाइये। सबसे बढिया कयास वाले को चाय पिलायेंगे।
क्रासिंग के पास एक आदमी सड़क पर झाड़ू लगा रहा था। सड़क के कूड़े को सड़क में ही मिलाता जा रहा था। जैसे लोग भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर भ्रष्टाचार करते रहते हैं वैसे ही वह आदमी गंदगी की सफ़ाई के नाम गंदगी इधर-उधर कर रहा था। हल्ला मचाते हुये गिनती गिनता जा रहा था। बता रहा था - ’किलो भर आटा लिया है, नमक के पैसे नहीं हैं।’
बच्चे स्कूल जा रहे थे। तीन सहेलियां एक-दूसरे का हाथ थामे हुये स्कूल जा रहीं थीं। दो बच्चे भी हाथ थामे हुये थे। एक बच्चा एक हाथ से दूसरे का हाथ थामे हुये दूसरे हाथ से कुछ गिनती सी करता जा रहा था। जब तक बच्चे एक-दूसरे का हाथ थामे स्कूल जाते रहेंगे, दुनिया की बेहतरी की गुंजाइश बनी रहेगी। अल्लेव केदारनाथ सिंह की कविता याद आ गई:
"उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुये मैंने सोचा
दुनिया को इस हाथ की तरह की तरह
नर्म और मुलायम होना चाहिये।"
सात बज गये थे। लपककर घर पहुंचे। घरैतिन स्कूल जाने के लिये ऑटो पर सवार हो चुकी थीं। गेट पर पहुंचते ही निकली। मुस्कराते हुये गेट बंद करने का आदेश दिया। हमने खुशी-खुशी आदेश का पालन किया। हमारी सैर से घर लौटने की हाजिरी लग चुकी थी।
अब दफ़्तर की हाजिरी का समय हो गया इसलिये चला जाये। आप भी मजे करिये। ठीक न ! 

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Monday, August 14, 2017

दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश

कल नये वाले पुल से लौट रहे थे। लोग पुल की रेलिंग पर खड़े नीचे देख रहे थे। हम भी देखने लगे। अपने यहां मामला देखा-देखी वाला ही होता है न! देखा-देखी लोग मार पीट करने लगते हैं, दंगा मचा देते हैं, जान दे देते हैं, ले लेते हैं। मोहब्बत अलबत्ता सोच समझकर करते हैं।
देखा कि नीचे, गंगा के किनारे, एक पेड़ के नीचे जमीन पर मोमिया की चटाई पर बैठे तमाम बच्चे पढ रहे हैं। कुछ नौजवान बच्चे उनको पढा रहे हैं। हमको गाड़ी घुमाकर पुल से नीचे उतरे और गंगा किनारे घटनास्थल पर पहुंच गये।
करीब तीस-चालीस बच्चे गंगा की रेती पर बैठे पढ रहे थे। नौजवान बच्चे उनको अलग-अलग समूहों में पढा रहे थे। एक लकड़ी के फ़ट्टे पर हिन्दी वर्णमाला का चार्ट टंगा था। बच्चे सीख रहे थे- अ से अनार, आ से आम। नौजवान बच्चे बदल-बदलकर याद करा रहे थे। जोर से बोलने को कह रहे थे। एक चक्कर के बाद पढने वाले बच्चों में से किसी एक को बुलाकर बोलकर सिखाने के लिये उठाया जाता। बच्चा बच्चों को साथियों को सिखाता। बच्चे दोहराते।
बगल में एक छोटे बोर्ड पर दूसरे समूह के बच्चे गिनती, पहाड़ा, जोड़-घटाना सीख रहे थे। गंगा की तरफ़ मुंह किये हुये। सिखाने वाले बच्चों में लड़के-लड़कियां दोनों थीं। बच्चों को प्यार से, दुलार से, फ़टकार से, फ़ुसलाकर सिखाने की कोशिश कर रहे थे बच्चे।
हम भी खड़े हो गये माजरा देखने के लिये। हिन्दी वर्णमाला सिखाने के बाद चार्ट बदलकर अंग्रेजी वाला टांग दिया गया। ए फ़ार एप्प्ल, बी फ़ार बैट होने लगा। इसके पहले पहाड़े का भी एक राउन्ड हो गया। सिखाने वाले बच्चे बारी-बारी से बदलते हुये सिखाते गये।
इस खुले स्कूल के किनारे खड़े हुये हम बारी-बारी से स्कूल के बारे में जानकारी लेते गये। पता चला कि आसपास के कुछ नौजवान बच्चे पिछले कुछ इतवार की सुबह आकर यहां बच्चों को इकट्ठा करके प्रारम्भिक शिक्षा देते हैं। बच्चों को कुछ टॉफ़ी, चॉकलेट, कापी-पेंसिल भी देते हैं। सब अपने पास से। चंदा करके।
पढाने वाले बच्चों में से अधिकतर खुद अभी पढाई कर रहे हैं। कुछ कम्पटीशन की तैयारी कर रहे हैं। कोचिंग में पढाते हैं। कुछ लोग नौकरी भी करते हैं। अपनी मर्जा से आकर यहां पढाते हैं। आसपास के बच्चों को इकट्ठा करके। बीस के करीब लोग जुड़े हैं इस मिशन में। ग्रुप का नाम है - 'जयहोफ़्रेंडस ग्रुप।'
जय हो फ़्रेंडस ग्रुप आमिर खान किसी फ़िल्म से प्रेरित है। संयोग कि ग्रुप के मुख्य सदस्य का नाम जयसिंह है। जयसिंह खुद कोचिंग चलाते हैं। शायद कम्पटीशन की तैयारी भी कर रहे हैं।
कल जो लोग पढा रहे थे उनमें से एक किसी स्कूल में संगीत की अध्यापिका हैं। दूसरी लेखपाल की नौकरी करती हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में। सप्ताहांत में घर आती हैं। बच्चों को पढाती हैं।
आसपास के लोग इन बच्चों को पढते देख रहे थे। बातचीत करते हुये बोले-’ अच्छा काम कर रहे हैं।’
कोई बोला-’आगे एन.जी.ओ. बनायेंगे। सरकार से पैसा मिलेगा। सब अपना फ़ायदा सोचते हैं। लेकिन अच्छा काम कर रहे हैं।’
एक शरीफ़ अहमद खड़े थे वहीं। बोले -’हम नहीं पढ पाये तो कम से कम हमारा बच्चा ही पढ जाये।’
हमने पूछा - ’काहे नहीं पढ पाये तुम?’
बोले-’ बचपन में हम स्कूल गये तो एक दिन मास्टर साहब ने बहुत मारा। हम पाटी फ़ेंक के घर आ गये फ़िर नहीं गये स्कूल।’
30-35 साल के शरीफ़ अहमद के चार बच्चे हैं। हमने कहा - ’आपरेशन काहे नहीं करवाते भाई! ’
बोले-’पैसा ही नहीं है।’
हमने बताया - ’अरे मुफ़्त में होता है आपरेशन करवा लेव।’
बोले- ’हमका पता ही नहीं है। अबकी करवा लेब।’
पता नहीं करवायेंगे कि नहीं लेकिन पूछने पर लपककर बताया कि वो हमार लरिका पढि रहा है।
एक बुजुर्ग महिला पेड़ के नीचे बच्चों को पढते देख रही थी। साथ में उनकी बिटिया। दोनो अनपढ। हमने लड़की से कहा - ’तुम काहे नहीं पढती। कित्ती उमर है?’
उमर के नाम पर बोली, ’पता नहीं’। लेकिन पढने के नाम पर चुप हो गयी।’
हमने पढाने वाली बच्ची में से एक को बुलाकर बिटिया को भी पढाने के लिये कहा। बिटिया अपनी चुन्नी संभालती हुई गणित सीखने वाले बच्चों के साथ जाकर बैठ गई।
सीख रहे बच्चे एकदम भारत देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। विभिन्नता में एकता की तरह। कोई ध्यान से पढ रहा था कोई आपस में बतिया रहा था। कोई बाल खुजा रहा था कोई टॉफ़ी चूस रहा था। सबके साथ बोलते हुये जोर से बोलने लगते। एक बच्चा अपने गोद में एक बहुत छोटे , कुछ महीने के बच्चे को गोद में लिये अ से अनार , ए फ़ार एप्पल बोल रहा था, चार तियां बारह सीख रहा था।
इस खुले स्कूल को देखकर मन खुश हो गया। पढाने वाले बच्चों से बात करते हुये चाय पीने के बाद जित्ते पैसे जेब में बचे थे (कुल जमा 30 रुपये बचे थे ) उत्ते बच्चों को देकर वापस आ गये। आगे भी सहयोग और जुड़ाव का वादा साथ में।
’जयहोफ़्रेंडस ग्रुप’ की तरह अपने देश में अनगिनत लोग अपने स्तर पर समाज की भलाई के लिये छोटे-मोटे प्रयास कर रहे हैं। www.ngorahi.org भी ऐसा ही एक ग्रुप है।
दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। कितना सफ़ल होते हैं इससे ज्यादा मायने यह रखता है कि कम से कम कोशिश तो की। हमको भी इनके सहयोग की कोशिश करनी चाहिये। जित्ती हो सके उत्ती। हम तो करेंगे ही। आप भी करोगे मुझे पक्का भरोसा है।
इसी खुशनुमा संकल्प के साथ आज की सुबह शुरु होती है। खुशनुमा सुबह ! मुबारक हो आपको। सबको।

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Sunday, August 13, 2017

लड़ने का मूड बने तो मुस्करियेगा

इतवार को सुबह तसल्ली से होती है। हुई भी। उठे 6 बजे और साइकिल की गद्दी झाड़कर चल दिये। अधबने ओवरब्रिज के अगल-बगल की सड़क उबड़-खाबड़। स्वाभाविक प्रसव की सहज मुफ्तिया प्रयोगशाला सी है सड़क।
शुक्लागंज की तरफ जाने वाली सड़क पर चहल-पहल। लोग आ-जा रहे थे। रिक्शेवाले घण्टी बजाते चले आ रहे थे। जबाब में जा भी रहे थे। तीन महिलाएं सामने से आती दिखीं। तसल्ली से टहलती हुई। लग रहा था बस अभी आंख खुली और सड़क पर आ गईं। क्या पता 'मेरी सड़क मेरी जिंदगी' वाले आह्वान पर निकली हों। लेकिन किसी के हाथ में सेल्फी वाला फोन तो दिखा नहीं। बिना सेल्फी कैसी जिंदगी, कैसी सड़क।
दाएं-बाएं रिक्शे वाले अपने रिक्शे चमका रहे थे। पानी से धो रहे थे। रिक्शों का श्रृंगार कर रहे थे। रिक्शे भी राजा बेटा की तरह खड़े चुपचाप अपना फेशियल, बॉडीयल करा रहे थे।
एक आदमी खरामा-खरामा साईकल चलाता चला जा रहा था। वह भी फोटो में आ गया। अभी ध्यान से देखा तो लगा उसकी साईकल के पहियों की हवा आम आदमी के हौसलों से निकली हुई है।
पुल के पास ही कुठरियानुमा घरों के बाहर एक बच्चा नंगधड़ंग बिंदास लेटा हुआ था। जब तक फोटो खींचते तब तक गाड़ी आगे बढ़ गई।
नदी बढ़ी हुई थी। एक लड़का दो साथियों के साथ नाव खेया चला जा रहा था। कभी जहां खरबूजे बोये हुए थे अब वहां नाव चल रही है। इसका उलट भी होता है, बल्कि ज्यादा होता है। कभी जहां नदी-तालाब होते थे अब वहां इमारतें खड़ी हैं। उत्तराखण्ड में जहां नदी बहती थी वहां लोगों ने घर, होटल बना लिए। जब नदी दौरे पर निकली तो सबको दौड़ा के रगड़ा के मारा।
पुल पर जाता एक रिक्शेवाला बड़े वाले मोबाइल पर किसी से बतियाता चला जा रहा था। आहिस्ते-आहिस्ते। सामने एक स्कूल का इश्तहार दिख रहा था। नदी के तट को छूता हुआ। शिक्षा व्यवस्था की तरह नदी में डूबने को तत्पर।
शुक्लागंज की तरफ बढ़ते हुए दाईं तरफ के मकानों में लोग छत पर सोये हुए थे। एक छत पर एक महिला चद्दर घरिया रही थी। बार-बार तह करती घरियाती। लगता है कुछ सोचती भी जा रही थी।
शुक्लागंज पहुंचते ही सामने एक आदमी साइकिल पर चार बोरे आलू लादे ले जाते दिखा। हमारी साईकल ने जरूर सन्तोष की सांस ली होगी कि उस पर वजन कम लदा है।
लौटने के लिए इस बार नए पुल की तरफ से आये। पुल के पास दो बच्चे, शायद भाई बहन होंगे, एक बोरे पर लदे खेल रहे थे। आसपास के गांव के होंगे। हरछठ की पूजा में लगने वाले पत्ते बेंचने आये होंगे। ग्राहक नहीं आये तो खेलने लगे।
पुल पर पहुंचे तो देखा लोग नीचे देख रहे थे। हमने भी देखा। एक पेड़ के नीचे इकट्ठा कुछ बच्चे पढ़ रहे थे। अच्छा लगा। साईकल मोड़ दी। नदी किनारे कुछ बच्चे तमाम बच्चों को इकठ्ठा किये पढ़ा रहे थे।
सामने ही एक बाबा खड़ेश्वरी का बोर्ड लगा दिखा। 2003 से हठयोगी बाबा खड़े हुए हैं। पांव की नशें फट गई हैं। लेकिन खड़े हुए हैं। बताया संकल्प किया था भाजपा की सरकार बनेगी इसलिए हठयोग किया था। 2015 में घोषणा की थी योगी जी मुख्यमंत्री बनेंगे। अब सरकार बन गयी। हठयोग में बहुत ताकत होती है। हमें लगा बताओ सरकार बनाई बाबा जी ने अपने हठयोग से और श्रेय दूसरे लोग ले रहे हैं।
बाबा जी की झोपड़िया में कटिया की बिजली है। नोकिया का फोन है। सस्ता टेबलेट है। मसाला पुड़िया हैं। एक युवा चेला है। गैस-फैस है। बाहर एक स्टैंड टाइप है। जिसके सहारे खड़े होकर बाबा लोगों को दर्शन टाइप देते हैं।
पता चला भिंड के रहने वाले हैं बाबा जी। नौ साल के थे तब से घर त्याग दिया।
दुकान पर चाय पीते हुए लोगों से बाबा जी के बारे में बात करते हैं। कुछ लोग कहते हैं बाबा जी बहुत पहुँचे हुए हैं। दूसरा आहिस्ते से बोलता है-'सबके अपने-अपने धंधे हैं।'
लौटते हुए क्रासिंग के पास दो बच्चे एक छोटे बच्चे को लकड़ी की गाड़ी के सहारे चलना सिखा रहे हैं। बच्चे की नाक बह रही है। नंगे पांव सड़क पर चलना सीख रहा है। पास ही सड़क पर पड़ी खटिया पर बैठी औरत तसल्ली से बीड़ी सुलगाती हुई अपने बच्चे को निहार रही है। उसका आदमी चारपाई से पेट सटाये हुए बिंदास सो रहा है।
लौटते हुए सूरज भाई आसमान पर चमक रहे हैं। एकदम नदी के ऊपर बल्ब की तरह चमक रहे हैं। शायद मुआयना कर रहे हों कि नदी में कहीं ऑक्सीजन तो नहीं कम हो गयी।
लौटकर घर आये और अब दफ्तर जा रहे हैं। आज ड्यूटी है। बहुत काम है।
आप मजे से रहिये। शाम को सुनाआएँगे बाकी का किस्सा। ठीक। खूब प्यार से रहिएगा। खुद से लड़ियेगा नहीं। लड़ने का मूड बने तो मुस्करियेगा। मन बदल जायेगा। ठीक न। 💐

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Saturday, August 12, 2017

अपने को खूब प्यार करिये, किटकिटऊवा प्यार

कल गंगा-दर्शन से लौटते हुये देर हो गयी थी। सरपट पैडलियाते हुये चले आ रहे थे। रास्ते में चाय की दुकान मिली। उसको छोड़कर आगे बढ गये। लेकिन फ़िर बतकही के आकर्षण ने पीछे खैंच लिया। हम साइकिल समेत एक चाय की दुकान के सामने खड़े हो गये।
चाय की दुकान एक टपरिया में थी। टेलीविजन चल रहा था। कोई फ़िल्म आ रही थी। लोग दिव्य निपटान मुद्रा में टीवी के सामने बैठे थे। पहले सोचा इत्ती सुबह-सुबह फ़िल्म देख रहे हैं यार ये लोग। लेकिन फ़िर सोचा अपने-अपने शौक हैं। मनोरंजन के लिये तमाम लोग नींद खुलते ही फ़ेसबुक-व्हाट्सएप पर हमला करते हैं। ये लोग इधर आ लगे। अलग-अलग वर्गों के अलग-अलग शौक। भारत वैसे भी विभिन्नता में एकता वाले देश के रूप में विख्यात है।
दुकान पर चाय रेडीमेड नहीं थी।मेरे सामने ही चढी थी। मल्लब पांच मिनट और देर। मन किया कि चला जाये। लेकिन फ़िर न्यूटन बाबा के जड़त्व के नियम की इज्जत करते हुये बैठ गये।
दुकान पर ही एक बुजुर्ग मिले। बतियाने लगे उनसे। एक प्लास्टिक की पांच लीटर वाली बाल्टी में कपड़े भरे बैठे थे। बात शुरु होते ही बनियाइन उठाकर पेट-प्रदर्शन करने लगे। योगाचार्य योग क्रिया के द्वारा पेट को पीठ से चपकाकर दिखाते हैं। बुजुर्गवार का पेट अपने-आप बिना किसी योग के ही पीठ से चिपका दिखा। बताने लगे - ’तबियत खराब है तीन-चार दिन से। कुछ भी खाते ही फ़ौरन उल्टी हो जाती है। कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था। आज यहां दवाई ली तो फ़ायदा हुआ।’
हमने पूछा - ’कौन दवाई से फ़ायदा हुआ?’
“ये वाली खाई है।“- वहीं जमीन पर पड़ा रैपर उठाकर दिखाया। हरे रैपर की दवा शायद ’अजूबी’ रही हो। कानपुर में अजूबी टिकिया काफ़ी चलती है। अजब शहर की अजूबी टिकिया।
घर-परिवार की बात चली तो बताया - ’पांच बच्चे हैं। दो बेटियों की शादी हो गयी। तीन लड़के अपना-अपना काम करते हैं।’
घरैतिन के बारे में पूछा तो बताया -’भाग गयी किसी के साथ। दिल्ली।“
हमने पूछा-“ ऐसे कैसे हुआ? कब चली गयी? क्या पटती नहीं थी?”
बोले- “दस-पन्द्रह साल हो गये। कोई दिल्ली का आदमी है। उसी के साथ चली गयी। रंडी है। हमने खुद देखा उसके साथ सोते हुये उसको। आती-जाती है। घर में बच्चों से मिलती है। चली जाती है। बहुत गड़बड़ औरत है। लड़की तक का सौदा करा दिया साठ हजार में। आप ही बताओ ऐसे के साथ कौन रह सकता है।“
हमने पूछा-“ जब घर में आती है। बच्चों से मिलती है तो तुमसे भी मुलाकात होती होगी ?”
बोले-“ नहीं। हमको सबने घर से भगा दिया है। मारपीट करते हैं हमारे साथ। इसलिये हम घर नहीं जाते।“
“कौन मार-पीट करता है- लड़के या कोई और?” -हमने पूछा।
“लड़के नहीं। साले और औरत मिलकर मारते हैं। इसीलिये भाग आये।“ -उन्होंने निस्संग भाग से बताया।
हमने पूछा-“ जब से तुम्हारी घर वाली तुमको छोड़कर गयी तबसे तुम किसी के साथ रहे क्या?”
बोले - “नहीं।“
अपनी औरत के बारे में बताते हुये निस्संग टाइप के भाव लगे बुजुर्ग के चेहरे पर। समाचारवाजक की निस्संगता की तरह बता रहे थे अपने बारे में।
“कहां रहते हो?” पूछने पर बताया- “रात को स्टेशन पर सो जाते हैं। दो-तीन दिन से तबियत खराब थी। सुकून नहीं आ रहा था। इधर आये आज तो अच्छा लग रहा है। तबियत भी कुछ ठीक लग रही है।“
“काम क्या करते हो?” पूछने पर बताया -“ मांगते हैं।“
मांगते हैं मतलब भीख मांगकर गुजारा करते हैं। अभी तो स्टेशन पर गुजारा कर लेते हैं। सुना है कानपुर स्टेशन स्मार्ट स्टेशन बनने वाला है। निजी हाथों में जाने वाला है।जब कभी ऐसा होगा तो अकबर अली जैसे लोग जो स्टेशन पर रात गुजार लेते हैं उनको भी भगाया जायेगा। क्या तब ये लोग स्टेशन के बाहर धरना देंगे और मांग करेंगे वैकल्पिक व्यवस्था होने तक यहीं स्टेशन पर रहने-सोने की अनुमति दी जाये।
वहीं बैठे-बैठे फ़ोटो खैंचकर दिखाई तो मुस्कराये और खिल उठे। चाय पिलाने की कोशिश की तो मना कर दिये- “उल्टी हो जायेगी।“
चाय मजेदार नहीं लगी। आधी छोड़कर चल दिये। पैसे देने के बाद तीन रुपये बचे वो हमने अकबर अली को दे दिये। चले आये।
हां एक बात तो बताना भूल ही गये। अपने बारे में बताते हुये अपनी अम्मा के बारे में भी बताये अकबर अली। बांगरमऊ, उन्नाव में रहती हैं उनकी अम्मा। उनके पास चले जाते हैं। वही हैं जो उनको प्यार से रखती हैं।
अक़बर अली ने अपना पहलू बताया। उनके घरवालों से बात होती तो वे शायद इनके किस्से सुनाते, लक्छन गिनाते।
कल अकबर अली से हुई बतकही के बारे में आज लिखते हुये यही सोच रहा था कि जब जीवन इतना जटिल हो जाये कि घर-परिवार के लोग दुत्कार दें। बीबी किसी और के साथ चली जाये। बेटे साथ न दें फ़िर भी आदमी मांगते-खाते किसी तरह जी रहा है। यह जीवन जीने की इच्छा है। जिजीविषा है। वहीं बिहार का एक आई.ए.एस. तमाम सुख-सुविधाओं के बीच जीने की इच्छा से रहित हो जाता है। ट्रेन के सामने आ जाता है। तमाम लिखाई-पढाई के बावजूद भूल जाता है- “जीवन अपने आप में अमूल्य है।“
आज के जटिल होते समय में लोग अकेले होते जा रहे हैं। लोग दूसरे की व्यक्तिगत जिंदगी में दखल देते हुये हिचकते हैं। किसी के पर्सनल मामले में दखल देना अच्छी बात नहीं है। यह बात बहाने के तौर पर लोग इस्तेमाल करते हैं। लोग खुद इत्ते तनाव में हैं कि दूसरे के फ़टे में अपनी टांग फ़ंसाते हुये डरते हैं।
आत्महत्या करने वाले ज्यादातर वे लोग होते हैं जो अपने व्यक्तिगत जीवन के लक्ष्य पाने में असफ़ल रहते हैं। इम्तहान में फ़ेल हुये, प्रेम विफ़ल हो गया, नौकरी न मिली। अवसाद को पचा न पाये। जीवन को समाप्त कर लिया।
सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोगों को आत्महत्या करने के किस्से नहीं सुनने को मिलते हैं। यह नहीं सुनाई देता कि क्रांति असफ़ल हो गयी तो नेता ने आत्महत्या कर ली, मार्च विफ़ल हो गया तो लीडर ने अपने को गोली मार ली, शिक्षा का उद्देश्य पूरा न हुआ तो बच्चों की शिक्षा के लिये दिन रात कोशिश करने वाला बेचैन शिक्षाशास्त्री लटक लिया।
सामूहिकता का एहसास लोगों में आस्था और विश्वास पैदा करता है। अकेलापन अवसाद का कारक बनता है। अकेलेपन के ऊपर से असफ़लता बोले तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा!
'आदि विद्रोही' मेरी सबसे पसंदीदा किताबों में है। हावर्ट् फ़्रास्ट की इस किताब का बेहद सुन्दर अनुवाद अमृतराय ने किया है। इसमें रोम के पहले गुलाम विद्रोह की कहानी है। स्पार्टाकस गुलामों का नायक है। उसकी प्रेमिका वारीनिया जब उससे कहती है कि तुम्हारे मरने के बाद मैं भी मर जाउंगी। तब वह कहता है-
“जीवन अपने आप में अमूल्य है। मुझे वचन दो कि मेरे न रहने के बाद तुम आत्महत्या नहीं करोगी।“
वारीनिया जीवित रहने का वचन देती है। स्पार्टाकस मारा जाता है। वारीनिया जीवित रहती है। अपना घर बसाती है। कई बच्चों को जन्म देती है। उनके नाम भी स्पार्टाकस रखती है। मानवता की मुक्ति की कहानी चलती रहती है।
हम सबमें स्पार्टाकस के कुछ न कुछ अंश होते हैं लेकिन हम अलग-अलग समय में बेहद अकेले होते जाते हैं। ऐसे ही किसी अकेलेपन के क्षण में लोग अवसाद को सहन न कर पाने के कारण अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। जीवन अपने आप में अमूल्य है बिसरा देते हैं। असफ़लता और अवसाद के उन क्षणों में यह बात एकदम नहीं याद आती -'सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है।'
अब चलते हैं। आप मजे से रहिये। खूब खुश रहिये। जीवन वाकई बहुत खूबसूरत है। आप उससे भी खूबसूरत। अपने को खूब प्यार करिये। किटकिटऊवा प्यार। बिन्दास रहिये। अच्छा लगेगा। मजा आयेगा।

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