Saturday, March 30, 2024

अनजान शहर में एक नया दोस्त


खुदाबख्श लाइब्रेरी के सामने ओवरब्रिज बनता देखकर हमने वहां के एक कर्मचारी से पूछा -'इसके बनने से तो लाइब्रेरी की राह मुश्किल हो जाएगी।' जवाब में उसने कहा -'ओवरब्रिज बन जाने से आना-जाना आसान हो जायेगा। अभी सड़क बहुत संकरी है।'
बाद में लाइब्रेरी के बारे में पढ़ते हुए समाचार देखे जिसमें इस बात का जिक्र था कि ओवरब्रिज के बनने के कारण लाइब्रेरी का कुछ हिस्सा गिराना होगा। इस बात का विरोध किया जा रहा है। कई नामचीन लोगों से विरासत से छेड़छाड़ का तगड़ा विरोध किया है। पता नहीं क्या तय हुआ इस बारे में।
लाइब्रेरी से बाहर निकलकर हमने दीपक को फोन किया। उनसे तय हुआ था कि दो बजे करीब हम वापस जाएंगे। अगर वो खाली होंगे तो उनके साथ ही लौटेंगे।
दीपक ने जबाब दिया कि वो पास ही हैं। थोड़ी देर में पहुंचेंगे लाइब्रेरी के पास। हमने बताया -'सामने की पट्टी पर कोने में मौजूद चाय की दुकान पर मिलेंगे।'
सामने की पट्टी पर किताबों की एक दुकान थी। उसमें ज्यादातर प्रतियोगिता दर्पण घराने की किताबें रखीं थीं। बगल में एक संकरी सुरंग नुमा जगह के बाहर पटना हाईकोर्ट के वकील का नामपट्ट लगा देखकर हमको लगा कि कभी ये यहां रहते होंगे। नामपट्ट अभी तक लगा रह गया होगा। लेकिन पूछने पर पता चला कि वकील साहब अभी भी वहीं रहते हैं।सोचा कि हाईकोर्ट का वकील ऐसी साधारण जगह रहता है। लेकिन फिर यह भी सोचा कि क्या पता अंदर कैसा घर हो। किसी को बाहर से जज नहीं करना चाहिए।
दीपक का इंतजार करते हुए नुक्कड़ की दुकान पर चाय पी। इस बीच पानी बरसने लगा। दीपक को फोन किया तो पता चला कि अभी दस मिनट की दूरी पर हैं। हमने सोचा कि मोटरसाइकिल से चलते हुए पानी में भीगने की बजाय ऑटो से चला जाये। लेकिन फिर यह सोचकर कि दीपक को बोल दिया है। वह आ रहा है। उसको बिना बताए ऑटो से निकलजाना वादाखिलाफी होगा। उसको लगेगा कि यूपी के लोग भी पलटू राम हो गए।
थोड़ी देर में दीपक आ गए। हम पीछे बैठ गए। चल दिये हवाईअड्डे की तरफ। भीड़ काफी थी सड़क पर। पानी तेज हो गया था। कुछ दूर चलने के बाद काफी भीग गए। एक बस स्टैंड के पास गाड़ी खड़ी करके हम दोनों स्टैंड की छत के नई नीचे खड़े हो गए।
पानी लगातार तेज होता गया। हमने दीपक से कहा -'हमारे लिए ऑटो बुलाओ। ऑटो से निकल जाएंगे।' उसने इधर-उधर देखा। मिला नहीं ऑटो। हम बारिश के रुकने का इंतजार करते रहे।
पानी बरसते हुए देख दीपक ने कहा-'आपके लिए छतरी ले लेते हैं।' हमने मना कर दिया यह सोचते हुए कि कोई बतासा थोड़ी हैं जो गल जाएंगे।
थोड़ी देर में पानी रुक गया। हम फिर मोटरसाइकिल पर बैठकर चल दिये।
रास्ते में दीपक ने अपने घर के हाल बताए। घर में पत्नी, दो बच्चे और बुजुर्ग पिता के अलावा छोटे भाई के बच्चे हैं ज़ो दो साल पहले कैंसर से ‘डेथ’ कर गया।सबको देखना पड़ता है। ग्रेजुएशन के बावजूद कोई नौकरी नहीं मिली तो मोटरसाइकिल से सवारी ढोते हुए काम चलाते हैं।
हमने सुझाव दिया कि तुम लोग हवाई अड्डे के बाहर मोटरसाइकिल खड़ी करते हो। कई लोग हो। देखभाल के लिए कोई लड़का क्यों नहीं रख लेते? इस पर वे बोले -‘ अरे इतना सहयोग रहता यहाँ तो बिहार इतना पीछे काहे रहता?’
हमने पूछा कि ऐसे मोटरसाइकल में सवारी ढोना तो व्यापारिक गतिविधि है। कोई पकड़ता/टोकता नहीं है?
क्या करें। कोई रोजगार नहीं तो कुछ न कुछ तो करना पड़ता है। पेटपालने के लिए चोरी करने से तो यही अच्छा है।
आते-जाते बातें करते हुए लगा कि दीपक की राजनीतिक समझ बहुत परिपक्व है। उन्होंनेकहा-'हमको लगता है कि बिहार के नेताओं को विकास करने की समझ नहीं है। सब खाली जीतने और कमाई के जुगाड़ की सोच रखते हैं।'
एयरपोर्ट पहुंचकर चाय पी। पैसे जबरियन दीपक ने दिए। दीपक को आने-जाने के पैसे देकर एयरपोर्ट की तरफ चल दिये। इस बीच बातचीत से दोस्ती टाइप हो गयी। दीपक ने कहा -'आप खाना नहीं खाये हैं। आपके लिए इडली ले आते हैं। पास ही बहुत अच्छी इडली मिलती है। दस मिनट लगेंगे।’
हमने मना किया। कहा -'एयरपोर्ट पर कुछ खा लेंगे।' इस पर दीपक बोले -'अरे एयरपोर्ट पर बहुत मंहगा मिलेगा। आप रुकिए आपके लिए चिप्स लेकर आते हैं।’हमने उसके लिए भी मना किया और चल दिए।
चलने के पहले हमने दीपक के साथ सेल्फी ली। बाद में दीपक को भेजी भी।
दीपक ने कहा -'अगली बार जब आइयेगा तो घर चलिएगा। आपको पटना घुमाएंगे।'
हम हां कह कर दीपक से विदा लेकर चले आये। हमको अपने बेटे Anany के घुमक्कड़ी के गीत 'निकल बेवजह' (लिंक कमेंट बॉक्स में) की पंक्तियां याद आईं -'निकल बेवजह। जा किसी अनजान शहर में एक नया दोस्त बना।'
दीपक से मुलाकात के बहाने अपनी पहली पटना यात्रा के दरम्यान हमने एक नया दोस्त बनाया।

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Thursday, March 28, 2024

पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी

 



हमको दीपक नें अपनी मोटरसाइकिल पर बैठाकर खुदाबख्श लाइब्रेरी तक छोड़ दिया। मजे की बात जब हमने प्लेन में मिली बालिका से खुदाबख्श लाइब्रेरी के बारे पूछा तो उसको लाइब्रेरी के बारे में कुछ नहीं पता था। मुझे कुछ अचंभा नहीं हुआ। एक बड़ी आबादी अपने शहर में मौजूद ऐतिहासिक महत्व की इमारतों के बारे में नहीं जानती।
पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी के बारे में बचपन से पढ़ते आये थे। लेकिन इसके बारे में पता नहीं था कि किसने शुरू करवाई । लाइब्रेरी देखकर आ गए तब भी जानकारी नहीं की। आज जब लिखने बैठे तो खोजा इसके बारे में। पता चला कि खुदाबख्शजी के पिता जी को किताबें पढ़ने और जमा करने का शौक था। उनकी आमदनी का बड़ा हिस्सा किताबे खरीदने में जाता था। उनका निधन 1876 में हुआ । तब तक उनके पास 1700 किताबें जमा हो गयीं थीं।
1876 में जब वे अपनी मृत्यु-शैय्या पर थे उन्होंने अपनी पुस्तकों की ज़ायदाद अपने बेटे को सौंपते हुये एक पुस्तकालय खोलने की इच्छा प्रकट की।
खुदाबख्श ने अपने पिता द्वारा सौंपी गयी पुस्तकों के अलावा और भी पुस्तकों का संग्रह किया तथा 1888 में लगभग अस्सी हजार रुपये की लागत से एक दोमंज़िले भवन में इस पुस्तकालय की शुरुआत की और 1891 में 29 अक्टूबर को जनता की सेवा में समर्पित किया। उस समय पुस्तकालय के पास अरबी, फारसी और अंग्रेजी की चार हजार दुर्लभ पांडुलिपियाँ मौज़ूद थीं। क़ुरआन की प्राचीन प्रतियां और हिरण की खाल पर लिखी क़ुरानी पृष्ठ भी मौजूद हैं।
1908 में अपने निधन तक खुदाबक्श ने लाइब्रेरी के काम को लगातार आगे बढ़ाया। पुस्तकों के निज़ी दान से शुरू हुआ यह पुस्तकालय देश की बौद्धिक सम्पदाओं में काफी प्रमुख है। भारत सरकार ने संसद में 1969 में पारित एक विधेयक द्वारा इसे राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान के रूप में प्रतिष्ठित किया।।यह स्वायत्तशासी पुस्तकालय जिसके अवैतनिक अध्यक्ष बिहार के राज्यपाल होते हैं, पूरी तरह भारत सरकार के संस्कृति मन्त्रालय के अनुदानों से संचालित है।
लाइब्रेरी में घुसते ही काउंटर पर एक रजिस्टर रखा था। उसमे दस्तखत कराये गए। हमसे पहले आठ-दस लोग दस्तखत कर चुके थे। अधिकतर के आने का उद्धेश्य रिसर्च लिखा था। अन्दर घुसने से पहले बैग रखवा लिया गया। हमने बताया उसमें लैपटाप भी है। काउंटर पर बैठे शख़्स ने कहा -'रख दो चिंता न करो।' हमने उसकी पहली बात मान ली। बैग रखा दिया लेकिन दूसरी बात पूरी नहीं मानी- ' थोड़ी -थोड़ी चिंता करते रहे।'
लाइब्रेरी के हाल में कुछ लोग बैठे किताबें पढ़ रहे थे। कुछ के सामने किताबों का ढेर लगा था। वे शायद नोट्स ले रहे थे।
हमने सोचा था कि लाइब्रेरी में बड़ा सा हाल होगा जिसमे किताबें ही किताबें दिखेंगी। लेकिन वहां ऐसा नहीं था। पता लगा कि किताबो की सूची कम्प्यूटर में दर्ज है। आप अपनी पसंद की किताब कंप्यूटर से खोजकर बताइये तो लाइब्रेरी के लोग किताब लाकर आपको देंगे फिर आप उसको पढ़ सकते हैं। खुद किताबें देखने की अनुमति नहीं है। हाल में पीछे की तरफ दुर्लभ किताबों का कमरा भी दिखा लेकिन वहां भी जाने की अनुमति नहीं नहीं थी लाइब्रेरी देखने का मजा कम हो गया। किताबें खुद उलट-पलट के न देख सकें तो काहे की लाइब्रेरी।
पता चला कि लाइब्रेरी में करीब तीन लाख किताबें हैं उनमें से बमुश्किल तीस हजार किताबें सर्कुलेशन में हैं मतलब नियमित रूप से पढी जाती हैं। बाकी किताबें न जाने कब से पाने पढ़े जाने का इन्तजार करती रहती होंगी। कभी वीआइपी रहीं किताबों को अब कोई पूछने वाला नहीं।
बहरहाल कुछ देर हाल में इधर-उधर देखते रहे। कंप्यूटर में किताबें देखी। क्लिक करने पर किताब का विवरण दिख जाता। लेकिन हमको बैठकर किताबें पढ़नी तो थीं नहीं। देखनी थी लाइब्रेरी। कुछ देर में हाल से बाहर आ गए।
हाल से बाहर आते हुए शौचालय दिखा। हमने उसका भी उपयोग किया। देशी स्टाइल के शौचालय में पानी के लिए प्लास्टिक के टोंटीदार बड़े लोटे रखे थे। नल में तो पानी आ रहा था लेकिन फ्लस जलविहीन था। क्या फर्क पड़ता है किसी को। हर जगह पानी कम हो रहा है आजकल।
बाहर आकर हमने पहले तो बैग अपने कब्जे में किया। फिर पूछा कि हम यहाँ अकबर की लिखाई देखने आये हैं। सबने नकार दिया कि ऐसी कोई लिखाई मौजूद है यहाँ। हमने शाजी जमां की किताब का कवर दिखाया कि इस किताब के लेखक ने एक बातचीत में कहा है कि यहाँ अकबर की लिखाई का नमूना मौजूद है। लेकिन किसी ने माना नहीं। लोगों ने वहां मौजूद तमाम मुगलकालीन बादशाहों के दरबारों के फोटो दिखाते हुए कहा -'यहाँ तो यही है' उनके कहने का मतलब था -'इसी को देखकर काम चलाओ।'
हम उन सबको देख लिए। तमाम पुरानी वस्तुएं तो राजे-महाराजे-बादशाह-नवाब और उनकी रानियाँ उपयोग में लाती थी वहां मौजूद थीं। एक जगह महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर जी की हस्तलिपि में लिखे उनके उदगार मौजूद थे जो उन्होंने लाइब्रेरी आने पर लिखे थे। करीब सौ साल पहले की अंगरेजी में लिखे सन्देश। गांधी जी ने अपने सन्देश में लिखा था कि करीब नौ साल पहले उन्होंने लाइब्रेरी के बारे में सुना था। लाइब्रेरी देखकर होने वाली खुशी उन्होंने बहुत उदारता पूर्वक जाहिर की थी।
लाइब्रेरी में ही मोबाइल की बैटरी ख़त्म होती दिखी। वहीं काउंटर के पास चार्जर में लगा दिया मोबाइल। बतियाने लगे वहाँ मौजूद लोगों से। पता चला क़रीब चालीस लोग काम करते हैं लाइब्रेरी में । हम बतिया रहे थे कि मोबाइल हिला और छिपकली की तरह पेट के बल जमीन पर गिरा । गनीमत कि टूटा नहीं। हम सामान समेट के बाहर निकल आये।
बाहर लाइब्रेरी के दूसरे हिस्से में कम्पटीशन के लिए पढ़ने वाले बच्चों के लिए बैठने और पढ़ने की व्यवस्था थी। सैकड़ों बच्चे मोबाइल, किताबें, कम्पटीशन की पत्रिकाएं लिए जुटे थे पढ़ने में। एक हिस्सा लड़कियों के पढ़ने के लिए आरक्षित था। कुछ बच्चे खुसफुसाते हुए बतिया रहे थे। क्या पता हाल ही में पेपर आउट होने की कारण निरस्त हुए इम्तहान की चर्चा कर रहे हों -'फिर देना होगा इम्तहान।'
वहीं पास में एक आँगन नुमा जगह में खुदाबख्श के परिवार के लोगों की कब्रें मौजूद थीं। उसके बगल में भी पढ़ने की जगह पर बच्चे पढ़ रहे थे। जन्नतनशीन खुदाबख्श जी अपनी बनवाई लाइब्रेरी में बच्चों को पढ़ते देख जरुर खुश होते होंगे।
लाइब्रेरी के सामने संकरी सड़क पर भारी भीड़ थी। ओवरब्रिज बन रहा था। पता चला ओवरब्रिज के कारण लाइब्रेरी का कुछ हिस्सा तोड़े जाने के निर्णय का भरपूर विरोध स्थानीय लोगों ने किया है। विरासत की क़ीमत पर विकास का विरोध। लाइब्रेरी से जुड़ी तमाम रोचक और आत्मीय जानकारी के लिए फेसबुक में 'खुदाबख्श' सर्च करके पढ़ें।
लाइब्रेरी में कैसे किताबें इशू होती हैं इस बारे में इस पोस्ट के बाद साझा की गयी पोस्ट पढिये।

हम कुछ देर लाइब्रेरी परिसर में टहलने में के बाद बाहर आ गए।

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Tuesday, March 26, 2024

कोलकता वाया पटना

 पिछ्ले दिनों कलकत्ता जाना हुआ। लखनऊ से जहाज पकड़ना था। सबेरे की उड़ान थी। दस बजे की। घर से हवाई अड्डा ९० किलोमीटर है। दो घंटे लगते हैं । लेकिन आजकल जगह -जगह काम के चलते जाम लग जाता है। तीन घंटे पकड़ के चलना होता है।

सबेरे निकलते-निकलते साढ़े छह बज गए। लग रहा था आराम से पहुँच जायेंगे। लेकिन रास्ते में एक जगह लंबा जाम मिला। गाड़ियां बहुत धीमे सरक रहीं थीं। गूगल मैप में दिख रहा था लंबा जाम है। जैसे ही लगता अब छूटा जहाज वैसे ही गाड़ियां फिर सरकने लगती। थोड़ी देर बाद लगा अब तो पक्का रह जायेंगे। फिर उल्टी तरफ से आगे बढे। करीब आधा किलीमीटर। आगे रास्ता साफ़ था। जाम को पार करके फिर सरपट आगे बढे। पहुँच गए समय पर।
जहाज में हमारी सीट खिड़की के पास वाली थी। हमारी सीट पर एक लड़की बैठी थी। हमको सीट की तरफ बढ़ता देख उसने इशारे से पूछा -'हम बैठे रहें इस सीट पर?' हमने भी इशारे से हाँ कह दिया और उसकी सीट पर बैठ गए। इशारे में हुई बातचीत पर कोई गाना भी है शायद। आपको याद आया ?
लड़की फोन पर अपने घर में किसी से बतिया रही थी। वीडियो काल। उड़ान के पहले एयरहोस्टेस यात्रियों को सुरक्षा के बारे में जानकारी दे रही थी। एक यात्री ने एयरहोस्टेस से कहा -' ये बेल्ट बंध नहीं रही। आप बाँध दो।' लड़की ने फोन पर बात करते हुए बताये -'जहाज में बिहारी बतिया रहे हैं।'
जहाज उड़ने के बाद बात करते हुए लड़की से बात करते हुए पता चला कि वह भी बिहार से है। पढ़ाई नादिया (पश्चिम बंगाल ) में हुई। फिलहाल एक आई टी कंपनी में काम करती है। गुडगाँव में। बताया -' 15 हजार रूपये किराया है एक कमरे का। इतने में पटना में पूरा घर मिल जाता है।'
'पश्चिम बंगाल में रहते हुए बंगाली सीखी ? ' पूछने पर बताया -'बोल नहीं पाती लेकिन समझ लेती थी।'
भाषाएँ सीखने की हरेक की झमता अलग -अलग होती है। संगत के एक इंटरव्यू में इब्बार रब्बी जी ने एक यायावर का जिक्र करते हुए बताया कि वह अपने घर से निकला तो जहां गया वहां की भाषाएँ सीखकर आगे बढ़ता गया। अनेक भाषाएँ सीखकर आगे बढ़ते हुए अफगानिस्तान पहुंचा तो पकड़ लिया गया। लोगों को लगा यह इतनी भाषाएँ जानता है तो जरुर कोई जासूस होगा। इब्बार रब्बी जी उसकी जीवनी लिखना चाहते हैं।
थोड़ी देर में पटना पहुँच गए। अगली फ्लाईट पांच घंटे बाद थी। हम पटना टहलने के लिए बाहर आ गए।
पटना टहलने के इरादे के बारे में भी किस्सा मजेदार है। Pramod Singh प्रमोद सिंह जी की नई किताब आई है 'बेहयाई के बहत्तर दिन।' आजकल उनकी पोस्ट्स में किताब का जिक्र होता है। इसके अलावा और भी किताबो का उल्लेख। ऐसी ही एक पोस्ट में एक टिप्पणी में शाजी जमाँ द्वारा लिखी किताब 'अकबर' का जिक्र हुआ। प्रमोद जी ने उस किताब के लेखक की रवीश कुमार जी से हुई बातचीत का जिक्र किया। नेट से खोजकर बातचीत सुनी। उसमें अकबर की लिखाई का जिक्र किया गया था। लेखक ने बताया था कि अकबर की लिखाई का नमूना पटना की खुदाबक्श लाइब्रेरी में मौजूद है। फ़ौरन मन किया कि चला जाए देखने जिल्लेइलाही की लिखावट। इस लिहाज से फ्लाईट चुनी जिसका पटना में ठहराव था कुछ घंटे का।
पटना हवाई अड्डा साधारण सा है। कोई तड़क-भड़क नहीं। एकदम आम सी सड़क बाहर की तरफ जाती हुई। बाहर आये तो गाड़ियां भी इतनी नहीं दिखी कि लगे किसी राजधानी के हवाई अड्डे पर खड़े हैं।
खुदाबक्श लाइब्रेरी दस किलोमीटर दूर दिखी गूगल से। सोचा बाहर निकलकर टैक्सी करेंगे । उबर से दाम 350 रुपये दिखे। लेकिन हम टैक्सी करें तब तक कई लोग वाले एक हाथ में हेलमेट लटकाए, 'कहाँ जाना है चलिए छोड़ देंगे' कहते हुए मिले।
हमने दाम पूछे तो बताया 180 रुपये लगेंगे खुदाबक्स लाइब्रेरी तक के। न , न करते हुए हम एक मोटरसाइकिल पर बैठ ही गए। हेलमेट भी पहना दिया दीपक ने। बताया कि यहाँ पीछे वाली सीट पर बैठी सवारी के लिए भी हेलमेट जरुरी है। न लगाने पर फाइन लगता है।
बैठते ही लगा मोटरसाइकिल सड़क से चिपक गयी। हवा निकल गयी थी। दीपक ने हवा निकाल देने वाले अज्ञात लोगों के नाम कुछ गालियाँ दीं और पास की हवा भरने की जगह पर हवा भराने के लिए लपक लिए। अपन एक हाथ में हेलमेट और दूसरे में अपना झोला लटकाए पीछे -पीछे चलते रहे।
हवा भराने के बाद दीपक के साथ आगे बढे। थोड़ी देर बाद हवा फिर निकल गयी। दीपक फिर पंचर वाले को खोजने निकला। हम पीछे-पीछे। उसको चिंता थी कि कहीं सवारी बाइक से निकल न जाए। पंचर की दूकान पर पहिया खुला तो पता चला वह पहले से ही कई जगह पंचर युक्त था। हवा भी एक भूतपूर्व पंचर के बगल से निकली थी।
ट्यूब के हाल देखकर दीपक ने नया ट्यूब खरीदा। तीन सौ का। ट्यूब फिट करवा के हवा भरवा के फिर मोटरसाइकल तैयार हो गयी। हम आगे बढ़ लिए।
जिस सड़क पर हम चल रहे थे वह बेली रोड थी। जिसके बारे में अक्सर सुनते थे उस पर चलना भी मजेदार अनुभव।
लाइब्रेरी गांधी मैदान के आगे थी। रास्ते में पटना की तमाम ऐतिहासिक इमारतें दिखीं। गोलघर, पटना सचिवालय आदि। बहुत ऊँची इमारतें नहीं दिखीं। कुछेक माल्स दिखे अलबत्ता। सड़क पर आम लोगों की आवा-जाही। सुबह का समय था। लोग काम पर जा रहे थे। दुकाने खुलने लगीं थी। सारी इमारतों , जगहों के बारे में रनिंग कमेंट्री करते जा रहे थे दीपक। इस गाइडिंग के कोई अलग से पैसे नहीं मांगे दीपक ने ।
शहर में घूमते हुए हम उस पतली सड़क पर आये जिस पर लाइब्रेरी थी। ऊपर सड़क /ओवरब्रिज बन रहा था। सड़क पर भयंकर घिचपिच। भीड़ और जाम।
एक पुरानी इमारत तोड़ी जा रही थी। उसकी जगह नई बनेगी। इमारत पर लिखाई देखकर पता चला कि वह महिलाओं का अस्पताल था।
इस सब से गुजारते हुए दीपक ने हमको उस लाइब्रेरी के सामने उतार दिया जिसका जिक्र हम किताबों में पढ़ते आये थे। पटना की खुदाबक्स लाइब्रेरी।

Monday, March 11, 2024

समुद्र तट पर फैशन परेड

 आजकल यात्रा संस्मरण पढ़े जा रहे हैं। असगर वजाहत जी की किताब 'उम्र भर सफर में रहा'। कल उनके यात्रा संस्मरण के कुछ किस्से पढ़े। किस्से पढ़ते हुए तेहरान यात्रा के कुछ वीडियो देखें। देश दुनिया घूमते हुए कई युवा अपने वीडियो यूट्यूब पर अपलोड करते रहते हैं। ऐसे ही एक घुमक्कड़ युवा के वीडियो देखकर लगा घूमने निकल पड़े। घूमें और घुमाई के बारे में लिखें। वीडियो बनाए। अपलोड करें।

आगे जब घूमने जाएंगे तब जाएंगे। फिलहाल तो पुरानी घुमक्कड़ी की यादें अक्सर हाथ पकड़कर टोंक देती हैं कहते हुए -'हमारे बारे में कब लिखोगे।' कइयों के हाल तो 'ऑंखड़ियाँ झाई पड़ी फेसबुक निहारि-निहारि' सरीखी हो गयी है।
इन यादों में लेह-लद्दाख, अमेरिका, नेपाल, फिर अमेरिका और महाबलीपुरम, पांडिचेरी के कई किस्से हैं। इसके अलावा और भी तमाम फुटकर यात्राओं की बातें। कायदे से लिखने के चक्कर में बकायदे की लिखाई भी रह जाती है।
बहरहाल सबसे ताजी याद पांडिचेरी की। पांडिचेरी के कुछ किस्से पहले लिख चुके हैं। पांडिचेरी में होटल का जुगाड़ हो जाने के बाद निश्चित होकर खाना खाया। शाम को घूमने निकले। शहर घूमने के बाद वापस समुद्र किनारे लौट आये। होटल के पास। एक जगह बैठ गए। समुद्र की लहरों और आसपास के लोगों को देखने लगे।
पास ही एक लड़का-लड़की दोस्त बैठे थे। थोड़ी देर बाद बातचीत शुरु हो गयी उनसे। लड़की दिल्ली की थी और बालक कश्मीर का। दोनों पढ़ने के सिलसिले में पांडिचेरी आये थे। यहाँ मिले। दोस्ती हुई। मिलना-जुलना शुरू हुआ। उस दिन शाम को साथ घूमने आए थे।
दोनों के पढ़ाई के विषय अलग-अलग हैं। लेकिन दोस्ती के लिए विषय एक होना जरूरी भी नहीं। दोस्ती अपने आप में एक विषय है।
लड़की और लड़के के घर परिवार के बारे में जानकारी लेने के साथ काफी देर बात हुई। विवरण भूल गया। उसी दिन लिखा होता या नोट्स बनाये होता तो अच्छा रहता। बहरहाल।
लड़के को हमने कश्मीर यात्रा के बारे में बताया और कई यादें साझा की। उसने हमसे पूछा -'कश्मीर हमको कैसा लगा?' हमने कश्मीर की तारीफ की तो वह खुश हो गया। उसने पूछा-'फिर कश्मीर को लोग बुरा क्यों कहते हैं?'
यह सवाल मुझसे कश्मीर के तमाम लोगों ने, जिनमें युवा लोग सबसे ज्यादा हैं, पूछा -'कश्मीर को लोग बुरा क्यों कहते हैं?' कश्मीर के युवा इस बारे में बहुत सम्वेदनशील हैं। उनको।लगता है कि कश्मीर की गलत छवि लोगों के सामने पेश की जाती है।
काफी देर बाद हम लोग चलने को हुए। साथ में फोटो ली गयी। अंधेरा हो गया था। कई प्रयासों के बाद एक साफ फोटो आई। हम होटल की तरफ चले आये।
होटल के रास्ते में एक जगह स्टेज सजा था। पोस्टर लगे थे फैशन परेड के। लेकिन स्टेज पर कोई था नहीं। हम बाद में आने की सोच कर चल दिये।
होटल के पास ही एक उडुपी रेस्तरां में खाना खाया। खाने के बाद टहलते हुए उस जगह आये जहां फैशन परेड का स्टेज था। फैशन परेड शुरू हो चुकी थी। लड़के-लड़कियों की फैशन परेड। लड़के-लड़कियां स्टेज पर आकर अपना परिचय दे रहे थे। अधिकतर स्थानीय भाषा में, कुछ अंग्रेजी में और कुछ मिली-जुली भाषा। अंग्रेजी में बोलने वाले वाले बच्चों में ज्यादातर का 'मुंह तंग था अंग्रेजी में।' लेकिन कोशिश कर रहे थे। एक बच्ची ने तो तीन बार कोशिश की। अटक गई। फिर शुरू से परिचय दिया अपना। फिर अटक गई। आखिर में अपनी स्थानीय भाषा में , शायद तमिल, अपना परिचय दिया।
परिचय के बाद स्टेज पर और भी गतिविधियों के बाद रैंप वॉक हुआ। लड़के-लड़कियां बारी-बारी से मटकते, इठलाते स्टेज से चलते हुए आगे तक आते और स्टाइल मारते हुए थोड़ा रुककर वापस चलते हुए लौट जाते।
बाद में उन बच्चों में से कुछ को प्रथम, द्वितीय , तृतीय के साथ और भी कई सम्मानों से नवाजने की घोषणा हुईं। समुद्र किनारे कुर्सियों पर बैठी भीड़ ने ताली बजाकर उनका स्वागत किया।
समुद्र किनारे फैशन परेड देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। फैशन परेड में भाग लेते बच्चे स्कूल, कालेज के बच्चे थे। इनमें से कोई अभी प्रसिद्ध नहीं हुआ था। लेकिन क्या पता कल को इनमें से ही कोई प्रसिद्ध मॉडल , कलाकार बन जाये और अपनी यादों में पांडिचेरी के इस फैशन शो का जिक्र करे।
जहां फैशन शो हो रहा था वहां महात्मा गांधी जी की विशाल मूर्ति लगी थी। गांधी जी सामने से बच्चों को अपना हुनर दिखाते हुए देखते होंगे और अपने समय की यादों को याद करते हुए न जाने किन ख्यालों में गुम हो जाते होंगे।
होटल लौटते हुए समुद्र किनारे सामान बेचती हुई महिलाएं भी दिखीं। छोटे-छोटे प्लास्टिक के खिलौने जिनमें लाइट की व्यवस्था थी। एक महिला ने तो चमकता हुआ सींग अपने सर पर लगा रखा था। बाजार अपने करतब न जाने किन-किन तरीको से दिखाता है।
कुछ देर समुद्र किनारे के नजारे देखते हुए अपन होटल लौट आये।

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Thursday, March 07, 2024

जो रचेगा, सो बचेगा

 गए दिन फेसबुक और इंस्टाग्राम थोड़ी देर के लिए गड़बड़ा गए। गड़बड़ी के दौरान और बहाल होने के बाद हजारों लोगों ने इस बात पर अपने हिसाब से लिखा। चुटकुले बने, लेख लिखे गए। और न जाने क्या-क्या।

कल पता चला कि इस घटना से मेटा के शेयर गिर गए। 100 मिलियन डॉलर की चपत लगी फेसबुक को। इत्ती रकम का हिसाब किताब और तुलना भी करना बेफालतू का काम। मिलियन, विलियन डॉलर की जब बात आती है तो -'हमसे सम्बद्ध नहीं' कहकर बगलिया देते हैं।
फेसबुक ने कल ही अपने मैसेंजर पर कुछ नया फीचर शुरू किया। चैट सेव करने के लिए पासवर्ड(कोड) बनाओ या फिर एक ही डिवाइस पर सेव करने का विकल्प चुनो। और भी कुछ था।
तकनीकी लफड़े पता नहीं क्या लेकिन मुझे लगता है कि फेसबुक के पास चैट सेव करने के लिए जगह की कमी हो रही होगी। तभी यह फीचर शुरू हुआ। जगह की कमी हर जगह हो रही है। आने वाले समय समय में डाटा से जुड़ी कम्पनियों की बड़ी चुनौती अपने डाटा को बचाने की होगी। किसी तकनीकी गड़बड़ी से किसी का डाटा लीक हो जाएगा, किसी का खो जाएगा, किसी के यहां डाटा डकैती हो जाएगी। कभी राजे-महाराजे दूसरे देशों पर हमले करते थे जमीन पर कब्जा करने के लिये। आने वाले समय में डाटा पर कब्जे के लिए आक्रमण होंगे। ज्यादा डाटा कब्जे में रखने वाले 'डाटा सम्राट' कहलायेंगे।
फेसबुक पर अपन पिछले लगभग 15 साल से हैं। तमाम लिखाई यहीं हुई। इसके पहले ब्लॉग पर लिखाई हुई छह साल। इसी सब को इकट्ठा करके किताबें बनी। अभी भी कई किताबों का मसाला जमा है यहां। जब मन आएगा किताब बना लेंगे। कवर पेज लगा देंगे। लोग बधाई देंगे। कुछ लोग खरीद भी लेंगे। उनमें से भी कुछ लोग पढ़ भी लेंगे। कुछ लोग उनके बारे में लिखेंगे भी।
किताबें तो जब लिखीं जाएंगी तब लिखी जाएंगी अभी तो बात फेसबुक की। मान लीजिए आज फेसबुक बंद हो जाये तो हमारा सारा लेखन खत्म हो जाएगा। दुनिया का कितना कूड़ा कम हो जाएगा। कुछ दिन हुड़केंगे, फिर शुरू हो जाएंगे।
तमाम लोगों को लगता होगा कि आज फेसबुक बंद हो गया तो क्या होगा। मुझे लगता है कुछ नहीं होगा। फेसबुक बंद हो जायेगा तो कोई नया माध्यम आएगा। लोग उसमें डूबेंगे। फेसबुक में आने वाले विज्ञापन कहीं और खिसक जाएंगे।
फेसबुक के हाल आजकल अखबार जैसे ही हो गए हैं। अखबार में आजकल विज्ञापन प्रधान हो गए हैं। शुरुआत से अंत तक विज्ञापन ही विज्ञापन। जगह बची तो खबर छिड़क दी गयी।
विज्ञापनों की भरमार के चलते ही आमलोगों की पोस्ट, जो प्रायोजित नहीं हैं, कम।दिखती हैं। भुगतान देकर छपने वाली खबरें विज्ञापन वीआईपी सीट पर आगे आते हैं। सामान्य पोस्ट पीछे की सीट पर। इन सामाजिक मीडियाओं की सेटिंग ऐसी कर दी गयी होगी कि ऐसी पोस्टें ऊपर रहें जिनसे उनको फायदा हो। इसी कड़ी में और भी तमाम इंतजाम किए गए होंगे।
इसलिए जिन लोगों को लगता है कि उनकी पोस्ट कम लोगों तक पहुंच रही है उनको यह भी समझना चाहिए कि कोई भी सुविधा मुफ्त नहीं रहती बहुत दिन तक। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। बड़े गणित के बहुत छोटे अंश हैं हम लोग।
ज्यादा हलकान न हों, मस्त रहें। लिखते रहें, रचते रहें। जो रचेगा ,सो बचेगा। माध्यम तो बदलते रहते हैं।

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Wednesday, March 06, 2024

सर्वहारा की सामाजिकता

 सुबह उठते ही लगता है कुछ लिखा जाए। बीते दिन, समय की कोई बात प्रमुख लगती है तो उसके बारे में लिखने की सोचते हैं। जब लिखने बैठते हैं तो लगता है कि तसल्ली से लिखेंगे। तसल्ली के चक्कर मे टल ही जाता है। ऐसी कई यादें जो कभी बहुत जरूरी लगती थीं लिखने के लिए वो लिखे जाने के इंतजार में धुंधलाती जाती हैं।

ऐसे ही एक दिन शाम को टहलने निकले। लंबे रास्ते। लगा सड़क पर भीड़ बहुत बढ़ गयी है। सामने से आती हुई गाड़ियां ऐसे लग रही थीं मानों उड़ती चली आ रहीं हैं। जरा दाएं-बाएं होने में देर की नहीं कि रौंद कर निकल जायेगी। दुनिया बहुत हड़बड़ी में है।
सड़क जो कभी खाली रहती थी, दुकानों से पट गयी है। दुकानें ही दुकानें। ज्यादातर दुकानें फुटपाथ पर कब्जा करके बनाई गई हैं। लोगों की चलने की जगह घेरकर बनाई गयी दुकानों ने लोगों को सड़क पर धकेल दिया है।
टहलते हुए कालपी रोड पर आ गए। चार-पांच किलोमीटर की टहलाई काफी दिन बाद हुई थी। मानो कोई किला जीत लिया हो।
नहर के पास सड़क थोड़ा ऊंची है। सड़क किनारे बनी पुलिया के पास खड़ा एक आदमी , अपनी साइकिल पकड़े, नहर के बहते पानी को देख रहा था। चुप खड़ा।
पास पहुंचकर बातचीत शुरू हुई। बात करते हुए साइकिल सवार साइकिल पकड़े हुए मेरे साथ पैदल चलने लगा। बताया कि हरसहाय इंटर कालेज के पीछे टूटी मस्जिद के पास रहता है। काम के सिलसिले में भौंती जाता है। करीब 28 किलोमीटर की दूरी। मतलब करीब 56 किलोमीटर की दूरी रोज साइकिल से रोजी-रोटी के सिलसिले में तय होती है।
हमने कहा -'यह तो बहुत दूर पड़ जाता है। तक जाते होंगे।'
'का करें? पेट के कारण सब करना पड़ता है।'- उसने निर्लिप्त भाव से जवाब दिया।
घर;परिवार और बाल-बच्चो के बारे में बातकरते हुए वह साथ चलता रहा। जिस सड़क पर हम चल रहे थे वह ऊंचाई पर थी। ढलान से नीचे उतरते हुए वह हमारे साथ पैदल चल रहा था।
हमने कहा -'अब तुम चलो। घर जाना है। ढलान भी है। इसी के सहारे दूर तक चले जाओगे। आराम रहेगा।'
इस पर वह बोला -'हां लेकिन साथ चलते हुए थोड़ा बोल-बतिया ले रहे हैं तो रास्ता अच्छा कट गया।'
कुछ इसी तरह की और बात कही उसने। फिर थोड़ी देर और साथ चलने के बाद साइकिल पर सवार होकर चला गया।
साथ जलते हुए बोलते-बतियाते हुए रास्ता आसानी से कटने की बात सुनकर एक बार फिर लगा कि दुनिया में अकेलेपन से मुक्ति की चाहना कितनी है लोगों में। लोग अकेलापन महसूस करते हैं। उससे मुक्त होना चाहते हैं। बोलना-बतियाना चाहते हैं। लेकिन तमाम कारणों से मौके नहीं मिलते।
सोशल मीडिया पर लोगों की भयंकर भागेदारी इस अकेलेपन से मुक्ति की चाहना का ही परिणाम है। अपने को अभिव्यक्त करके सामाजिक हो जाने का एहसास लोगों को इससे जोड़ता है। वह अलग बात है कि लोगों की सामाजिकता की चाहना को सोशल मीडिया अपनी कमाई के लिए उपयोग करता है। विज्ञापनों और प्रायोजित पोस्ट्स की भरमार होती जा रही है। आम लोगों की पोस्ट्स सिकुड़ती जा रहीं हैं।
साइकिल सवार की बात से एक और किस्सा याद आया। दो महीने पहले जाड़े में अर्मापुर में फुटपाथ पर कचरा जलाकर आग तापते मां-बेटी दिखे। पास से गुज़रते हुए हमने कहा -'आग ताप रही हो। जाड़ा भगा रही हो।'
इस पर उनमें से किसी ने कहा -'आओ, तुमहू तापि लेव।'
हम रुके नहीं। चले आये। अलबत्ता उनकी फोटो जरूर खींच लिए।
बात दो महीने पुरानी है लेकिन उसका लहजा अभी भी याद आ रहा है -'आओ तुमहू तापि लेव।'
यह सर्वहारा की सामाजिकता है जिसका सोशल मीडिया पर कोई खाता नहीं। उसको कोई फर्क नहीं पड़ता इस बात से कि फेसबुक, इंस्टाग्राम कब कितनी देर डाउन रहा।

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