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Monday, August 12, 2024

हिंदू और मुसलमान की संख्या बढ़ाने का आग्रह दोनों सम्प्रदायों के संकीर्ण दिमाग़ के नेता करते हैं- परसाई



प्रश्न : आर. एस. एस. ने प्रोपेगंडा किया है कि एक मुसलमान चार शादियाँ करता है तथा हिंदू से चार गुना ज़्यादा बच्चे पैदा करता है। जबकि वैज्ञानिक पहलू यह है कि किसी भी समुदाय में उत्पादन इकाई महिला होती है। अब अगर 4 महिलाएँ 4 पुरुषों से गर्भवती हों या एक पुरुष से, क्या फ़र्क़ पड़ता है? दूसरी बात यह कि एक से ज़्यादा शादियाँ करने वाले मुस्लिम भी गिने-चुने होते हैं, वह भी तब जबकि पहली पत्नी नि:संतान रहे।
( दिनांक 17 जून,1984 के देशबंधु समाचार पत्र में 'पूछो परसाई से' स्तम्भ के अंतर्गत रायपुर से एस.के.)
उत्तर: हिंदू और मुसलमान की संख्या बढ़ाने का आग्रह दोनों सम्प्रदायों के संकीर्ण दिमाग़ के नेता करते हैं। ये लोग न इतिहास पढ़े, न समाजशास्त्र और न अर्थशास्त्र। दो सूट और टाई पहने हुए तरुण हों जिनमें एक मुसलमान हो और दूसरा हिंदू तो न मुसलमान नेता और न हिंदू नेता बता सकता है कि दोनों में कौन हिंदू है और कौन मुसलमान। मुसलमानों में मुल्ला, मौलवी तथा जमायते इस्लामी नेता आग्रह करते हैं कि मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करें और परिवार नियोजन न कराएँ।
इधर आर. एस. एस. और विश्व हिंदू परिषद भी यही कहते हैं कि हिंदुओ की संख्या बढ़ाना चाहिए। इनकी शिकायत है कि मुसलमान को तीन शादियाँ करने की इजाज़त है जबकि हिंदू को नहीं। ये ज़रा पूछकर देखें कि कितने संघ के स्वयंसेवक तीन पत्नियाँ रखने को तैयार हैं और उनके बच्चों को पालने का उनके पास क्या इंतज़ाम है। एक पत्नी के बच्चों का पेट भरने और कपड़े पहनाना तो मुश्किल होता है।
मुसलमानों में सर्वेक्षण करके देख लिया जाए कि कितने फ़ीसदी मुसलमान एक से अधिक पत्नियाँ रखते हैं। मुश्किल से हज़ार में कोई एक मिलेगा।
आपका यह सोचना ग़लत है कि स्त्री बच्चे तो उतने ही पैदा करेगी जितनी उसकी क्षमता है। यह ठीक है पर तीन बीबियों से एक ही पुरुष तीन गुनी संताने पैदा कर सकता है। मुसलमानों को तीन बीबी रखने का जो नियम पैग़म्बर मोहम्मद के समय बना था वह कोई विशेष सुविधा और अधिकार नहीं था। यह कटौती है, प्रतिबंध है।
छठी सदी में कबीलों में लड़ाइयाँ होतीं थी और हारे हुए कबीले की औरतें जीते हुए कबीले के मुख्य पुरुष रख लेते थे। एक-एक की तीस-चालीस बीबियाँ होती थीं। घर में पिंजरापोल खुला रहता था। तब यह प्रतिबंध लगा कि तीन से ऊपर बीबियाँ कोई नहीं रख सकता।
वात्सव में सामाजिक-राजनीतिक मसलों को हिंदू और मुसलमान साम्प्रदायिक नज़रों से देख रहे हैं,बहुत खरनाक नासमझी है। क्या हिंदू और मुसलमान को कोई भगवान का आदेश है कि तुम आगामी हज़ार साल तक लड़ते रहो।
यह पूरा प्रचार ही पूरे देश में साम्प्रदायिक द्वेष को जीवित रखने के लिए स्वार्थी लोग चलाते हैं।

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राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित किताब -'पूछो परसाई से'

Monday, August 22, 2022

परसाई होते तो बताते कि हम कितने बौड़म हो चुके हैं

 [आज परसाई जी के जन्मदिन के मौके पर नवभारत टाइम्स में दो साल पहले प्रकाशित लेख । लेख जो हमने भेजा था उससे कई गुना बेहतर होकर छपा। सम्पादन के लिए नवभारत टाइम्स के राहुल का आभार। Chandra Bhushan जी का शुक्रिया जिनको लगा कि मैं परसाई जी पर लिख सकता हूँ।]

हरिशंकर परसाई के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता उनकी निडरता है। अपने समय की विसंगतियों और संकीर्णताओं पर उन्होंने बेपरवाह लिखा और इसकी कीमत भी चुकाई। नौकरी छोड़ने तक में संकोच नहीं किया। उनकी कलम से तिलमिलाकर लोगों ने उन पर हमले किए। आर्थिक अभाव लगातार बना रहा, फिर भी उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अगस्त परसाई जी का महीना है, 22 अगस्त उनकी पैदाइश है तो 10 अगस्त उनकी रवानगी।
कोई पूछ सकता है कि आज परसाई होते, तो क्या लिख रहे होते। अगर वे होते तो आज की विसंगतियों पर जरूर कुछ ऐसी नियमित चोट कर रहे होते, जिससे वे बहुत बड़े वर्ग की ‘हिट लिस्ट’ में होते। पहले की ही तरह उन पर लगातार हमले हो रहे होते, बल्कि शायद पहले से भी तेज। शायद हाल यह होता कि उन पर उनकी पहले की लिखी किसी ‘पंच लाइन’ के आधार पर कोई पंचायत स्वत: संज्ञान लेकर सजा सुना चुकी होती। या फिर देश के अनेक स्वघोषित बुद्धिजीवी उनके इस वाक्य, ‘इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं’ के आधार पर उनके खिलाफ मानहनि का मुकदमा दायर कर चुके होते। अंतरात्मा की आवाज पर दल बदलने वाले लोग, ‘अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिए। जरूरत पड़ी तो फैलाकर बैठ गए, नहीं तो मोड़कर कोने से टिका दिया’ जैसी लाइन लिखने के लिए परसाईजी को सबक सिखाने का निर्देश अपने कार्यकर्ताओं को दे चुके होते।
परसाई कहते थे, ‘मैं सुधार के लिए नहीं, बल्कि बदलने के लिए लिखता हूं। वे यह भी मानते थे कि सिर्फ लेखन से क्रांति नहीं होती। हां, उसकी भावभूमि जरूर बन सकती है।’ वे कहते थे कि मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती। नौजवानों को संबोधित करते हुए वे लिखते हैं, ‘मेरे बाद की और उसके भी बाद की ताजा, ओजस्वी, तरुण पीढ़ी से भी मेरे संबंध हैं। मैं जानता हूं, इनमें से कुछ कॉफी हाउस में बैठकर कॉफी के कप में सिगरेट बुझाते हुए कविता की बात करते हैं। मैं इनसे कहता हूं कि अपने बुजुर्गों की तरह अपनी दुनिया छोटी मत करो। मत भूलो कि इन बुजुर्ग साहित्यकारों में से अनेक ने अपनी जिंदगी के सबसे अच्छे वर्ष जेल में गुजारे। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी और दर्जनों ऐसे कवि हैं, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़े। रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और अशफाक उल्ला खां, जो फांसी चढ़े, कवि थे। लेखक को कुछ हद तक एक्टिविस्ट होना चाहिए। सुब्रमण्यम भारती कवि और ‘एक्टिविस्ट’ थे। दूसरी बात यह कि कितने ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त है यह विशाल देश, और कोई देश अब अकेले अपनी नियति नहीं तय कर सकता। सब कुछ अंतरराष्ट्रीय हो गया है। ऐसे में देश और दुनिया से जुड़े बिना एक कोने में बैठे कविता और कहानी में ही डूबे रहोगे, तो निकम्मे, घोंचू और बौड़म हो जाओगे।’
परसाईजी की तुलना अन्य व्यंग्यकारों से करते हुए कुछ लोग बड़ी मासूमियत से किसी दूसरे व्यंग्य लेखक को किन्हीं मामलों में उनसे बेहतर भी बता देते हैं। ऐसा करने वाले लोग परसाईजी के साथ ही दूसरे लेखकों से भी अन्याय करते हैं। परसाई मात्र व्यंग्यकार नहीं थे। वे लोक शिक्षक थे, समाज-निर्देशक थे। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया। जबलपुर में भड़के दंगे रुकवाने के लिए गली-गली घूमे। मजदूर आंदोलन से जुड़े। लोक शिक्षण की मंशा से ही वे अखबार में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। उनके स्तंभ का नाम था, ‘पूछिए परसाई से’ पहले हल्के और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गंभीर सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिए अखबार का इंतजार करते थे।
आज के समय में परसाईजी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं तो यह उनके लेखन की ताकत और उनकी विराट संवेदना है। अपने बारे में वे कहते थे, ‘मैं लेखक छोटा हूं, लेकिन संकट बड़ा हूं।’ तो लेखक तो परसाईजी अपने समय में ही बहुत बड़े हो गए थे। आज वे होते तो मौजूदा संकटों पर उनकी चोट भी बहुत बड़ी होती, शायद सबसे बड़ी होती।

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