Wednesday, August 31, 2022

रोज दो क्वार्टर चाहिए इनको



घूमते हुए तमाम लोगों से मुलाकात होती है। बातचीत होती है। कई बार उसके बारे में लिख देते हैं। कभी-कभी रह भी जाता है। एक बार रह जाता है तो अक्सर रह ही जाता है।
इतवार को गंगाघाट पर मुलाकात हुई थी कार्तिक से। बाल भूरे और थोड़े सफेद। घाट की सीढ़ियों के पास बैठे गंगा को निहार रहा था बालक।
"बाल बड़े स्टाइलिश हैं। क्या डाई कराए?"- बात शुरू करने के लिए हमने पूछा।
'नहीं। इत्ता पैसा कहां बाल रंगवाने के लिए। गंगा के पानी से ऐसे हो गए।' -बालक ने जबाब दिया।
लोग मजे लेने लगे। एक ने कहा -'हीरो बनने के लिए बाल रँगवाये हैं।'
बालक मुस्कराते हुए पैर हिलाते, गंगा के पानी को निहारते चुप रहा।
बातचीत के बाद पता चला कि रात भर मछली पकड़ने के लिए निकले थे। रात दस बजे से सुबह चार बजे तक। करीब दस किलो मिली मछली। 200 रुपये किलो के हिसाब से बिकती है। पांच लोग थे। 2000 रुपये का बंटवारा होगा पांच लोगों में। रात भर की कमाई 400 रुपये हुए।
बालक कक्षा आठ तक पढ़ा। सरकारी स्कूल में। आगे पढ़ाई बन्द हो गयी क्योंकि स्कूल कक्षा आठ तक ही था। लॉक डाउन में बन्द हो गया था स्कूल। तब से आठ पढ़कर पढ़ाई बन्द हो गयी। अब आगे की कक्षा भी लगने लगी है। लेकिन कार्तिक को अब पढ़ना नहीं है। मछली पकड़ने, नाव चलाने का ही काम करना है। पिता भी यही काम करते हैं।
बालक के आगे के कुछ दांत टूटे हैं। फोटो लेते हैं तो मुंह बंद कर लेता है। दांत छिप जाते हैं। मुंह पर जैसे कर्फ्यू लगा दिया गया हो। हम मुस्कराने को कहते हैं तो थोड़ा होंठ को ढील देते हुए सा मुस्कराया बालक। तीसरे फोटो में दांत कुछ खुलते हैं। खिड़की से जैसे कोई सुंदरता झांके। फ़ोटो अच्छा आता है। देखकर खुश हो जाता है बालक भी।
वहीं एक आदमी पान मसाला खाता हुआ घाट पर बार-बार थूकता है। उसके पैर की खाल बदरंग और उबड़-खाबड़ है। पता चलता है गरम पानी के भगौने में पैर पड़ गया था। इलाज में लापरवाही हुई तो खाल इधर-उधर हो गयी।
'इलाज में लापरवाही क्यों हुई ?'-हमने पूछा।
"इनको दारू पीने से फुरसत हो तब न इलाज कराएं। रोज दो क्वार्टर चाहिए कम से कम। कहां से ठीक होंगे।"- कार्तिक ने कहा।
जिसके बारे में कहा जा रहा था वह निर्लिप्त मसाले की पीक गंगा किनारे थूकता चुपचाप सुनता रहा। एक क्वार्टर मतलब करीब 75 रुपये। डेढ़ और रुपये की दारू पी जाता है फटीचर सा दिखता आदमी। जाने क्यों लोग बदनाम करते हैं देश को गरीबी के नाम से।
'अब कब जाओगे मछली पकड़ने ?'- हमने पूछा।
अब दिन में आराम करेंगे। आज छुट्टी। रात को नहीं जाएंगे आज। जिनकी नाव है उनके यहाँ गमी हो गयी। वो खड़े हैं जहां आप खड़े थे अभी। जहाँ लड़के फुटबाल खेल रहे थे।
100 मीटर पीछे करीब बच्चे रेत में फुटबॉल खेल रहे थे। नंगे पैर। फुटबाल में हवा कम थी या शायद क्या पता पानी भर गया हो, ढब-ढब आवाज कर रही थी। हर शॉट में कुछ कदम लुढक कर रह जाती। एक बार किक जरा तेज लग गयी। फुटबाल हवा में उछलकर गंगा के पानी में चली गयी। हमें लगा अब गई फुटबाल। लेकिन खेल रहे बच्चों में से एक पास की झोपड़ी से एक बांस लेकर आया। नदी में बहती गेंद को बांस के सहारे किनारे करके उठा लिया। इसके बाद खेल बन्द हो गया। फुटबाल झोपड़ी में एक किनारे जमा हो गयी।
नदी किनारे तमाम बांस लगे हुए थे। टेंट लगाने वाले त्रिभुज के आकार में। नदी किनारे कपड़े धोने वाले लोग यहां कपड़े सुखाते हैं।
कार्तिक ने बताया कि नाव और जाल उनकी है जिनके घर आज गमी हो गयी। इसलिए आज मछली पकड़ने नहीं जायेंगें । नाव और जाल दस बारह हजार रुपये करीब के आते हैं। आगे कभी लेकर अपना काम शुरु करेंगे।
कार्तिक से मिलकर आगे वापस लौटे। रास्ते में एक बुढ़िया बाल्टी में पानी भरकर लौट रही थी। बाल्टी के पानी को बड़ी प्लेट/थाली से ढंके थी कि कहीं कोई गंदगी न गिर जाए। दो बाल्टी पानी लिए, झुकी कमर जाते थककर बीच सड़क पर बैठ गयी। कुछ देर सुस्ताकर आगे बढ़ी। तमाम लोग बुजुर्गों की सहूलियत के चर्चे करते हैं। इन चर्चो से बहुत दूर ऐसे बुजुर्ग जब तक जीते हैं, जो बन सकता है, काम करते रहते हैं।
हमको हमारी अम्मा की याद आ गयी जो बहुत बुजुर्गियत और बीमारी के बावजूद आखिर तक किसी न किसी काम में लगी रहती थीं। खाली बैठना उनको खराब लगता था।
लौटते में एक ठेलिया पर एक बच्ची पढ़ती दिखी। कक्षा चार में पढ़ती है। पायल नाम। वह उसी स्कूल में पढ़ती हैं जहां कार्तिक पढ़ता था। पायल गणित के सवाल लगा रही थी। बगल में उसका भाई शिवा भी था। कक्षा एक में पढ़ता है। उसको गिनती केवल दस तक आती है। हमने कहा पायल से - "तुम आगे सिखाती क्यों नहीं? "
इस पर वह बोली -"सीखता ही नहीं। सिखाओ तो मारता है मुझे।"
हमने गिनती सुनाने को कहा शिवा से तो दस तक सुनाई उसने। इसके बाद डब्बा गोल। एक और भाई है उसका शिवा से बड़ा। वह भी कक्षा एक में पढ़ता है। पास में स्कूल है, मुफ्त शिक्षा है इसलिए पढ़ रहे हैं। स्कूल बंद तो पढ़ाई बन्द।
उनके पास ही उनका पिता सोया था। टेनरी में काम करता है। उसके हाथ-पांव का चमड़ा बता रहा था कि वह मजदूरी करता होगा।
पायल से बात करते हुए कुछ देर खड़े रहे वहीं। हमारी उपस्थिति में हो शायद दिखाने के लिए वह फुर्ती से अपना काम करने लगी।
"पायल नाम है तुम्हारा और पैर में पायल नहीं पहने"- हमने बिना कुछ सोचे कहा।
कुछ बोली नहीं पायल। मुस्कराती हुई पढ़ती रही। उसकी मुस्कान का कोई अनुवाद कर सकता तो लगता कि वह कह रही हो -"अब इस बेवकूफी की बात का क्या जबाब दिया जाय।"
हम वापस हो लिए।

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Tuesday, August 30, 2022

फुदकती चोटी पर टैक्स



सुबह टहलने में आलस्य हमेशा रुकावट पैदा करता है। पांच बजे जगे तो मन कहता है, साढ़े पांच चलेंगे। फिर छह और अक्सर सात बजने के बाद मामला टल जाता है कि अब कल चलेंगे।
निकल लिए तो फिर मामला इस बात पर अटकता है कि किधर चला जाये। सहज आकर्षण गंगा पुल की तरफ जाने का होता है। लेकिन फिर लगता है कि शहर ने कौन पाप किया है जो उधर न जाएं। निकलते-निकलते मन पियक्कड़ की तरह लड़खड़ाता है। थोड़ी दूर जाकर जिधर भी निकल लिए उधर बढ़ जाते हैं।
आज निकले तो गंगा पुल की तरफ जाने की बजाय पंडित होटल की तरफ मुड़ लिए। रास्ते में तमाम लोग टहलते हुए दिखे। बुजर्ग आहिस्ता-आहिस्ता तो जवान लोग सरपट टहलते दिखे। कुछ फौज के जवान दौड़ते हुए भी मिले। दो लड़कियां तेज-तेज टहलती हुई सामने से आ रही थीं। वो बार-बार दुपट्टा सहेजती हुई टहल रहीं थीं। अपने समाज में लड़कियों को सड़क पर निकलते हुए अतिरिक्त रूप से सजग रहना पड़ता है।
एक पेड़ के पास दो महिलाएं फुटपाथ पर बैठी पूजा कर रहीं थीं। पता नहीं कौन देवता, व्रत, त्योहार था आज। बगल में पार्क में लोग टहल रहे थे। हमने भी सोचा घुस जाएं पार्क में लेकिन वहां प्रवेश शुल्क पांच रुपये देखा तो दूर से ही सलाम करके निकल लिए।
टहलती हुई एक लड़की के बाल उसके हर कदम के साथ चुहिया की तरह फुदक रहे थे। गोया उसके बाल भी जॉगिंग कर रहे हों। लड़की के फुदकते बाल और हिलती चोटी देखकर लगा कि क्या पता कल को इस पर भी कोई टैक्स लग जाये तो क्या होगा। सरकार को न जाने कितनी आमदनी होगी। आदमनी के साथ टैक्स चोरी भी होगी। लोग सर को हिलाकर बाल फुदका लेंगे और टैक्स नहीं जमा करेंगे। फिर टैक्स चोरी पकड़ने के लिये जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे लगेंगे। अनगिनत लोगों को रोजगार मिलेगा।
सड़क के दोनों ओर अधिकारियों के बंगले। कुछ ही देर में हम मानेक शा द्वार पारकर पंडित होटल की तरफ मुड़ लिए।
सामने की पट्टी पर कई चाय वाले ठेलियों पर चाय बेंच रहे थे। हमने चाय पीना स्थगित करते हुए आगे बढ़ना जारी रखा। हर चाय वाले के पास यह सोचकर आगे बढ़ जाते कि आगे पियेंगे।
मरी कंपनी पुल के नीचे कई चाय की दुकानें, लोग, टेम्पो, रिक्शे दिखे। जमावड़ा सा। मिनी मार्केट सा। वहाँ भी नहीं रुके। आगे बढ़ गए।
रेलवे ट्रैक से एक ट्रेन गुजर रही थी। गोरखपुर एक्सप्रेस। सामने से मालगाड़ी आ रही थी। दोनों ने जरूर बगल से गुज़रते हुए एक दूसरे को हेलो-हाय किया होगा। ट्रेनों के गुजरने के बाद पटरी पार की। पटरी पार दो रिक्शेवाले आपस में बतियाते हुए कुछ आदान-प्रदान करते दिखे। हम उसको अनदेखा करके आगे बढ़ गए।
रास्ते में एक मंदिर के बाहर तमाम मांगने वालों की भीड़ थी। एक आदमी पैकेट में कुछ सामान लिए उनको बांट रहा था। लोग लपककर लेते हुए अपनी जगह पर वापस बैठ जा रहे थे।
आगे बस्ती में एक बच्ची सड़क किनारे कच्ची झोपड़ी के बाहर लैट्रिन कर रही थी। पतली दस्त देखकर एक महिला बोली-'जाने का नुकसान कर गया इसकी। पतली टट्टी हुई रही हैं।' दूसरी ने कहा -'नुकसान कुछ नहीं। मौसम बदला है। उसी का असर है।'
आगे दो महिलाएं कुर्सी पर बैठी बतिया रहीं थीं। कुर्सी हत्थेवाली थीं जो क्लास रूम में होती हैं। कुछ बच्चे स्कूल यूनिफार्म में बैठे, खड़े चाय के कप, ग्लास में डबलरोटी डुबो कर खा रहे थे। एक बच्ची स्टील के कप में चाय लेकर कुर्सी पर बैठी महिलाओं को दे रही थीं। चाय एकदम गोरी सी थी। शायद पत्ती कम थी।
बच्चे सेंट मैरी स्कूल में पढ़ते हैं। सेंट मैरी शहर के अच्छे स्कूलों में से है। बच्चों ने बताया कि एक सर जी हैं उनको रोज शाम को चार बजे से सात बजे पढ़ाने आते हैं, उन्होंने ही उनका एडमिशन सेंट मैरी में कराया है।
शाम को पढ़ाने वाले सर जी शायद फ्रेंडशिप ग्रुप से सम्बद्ध हैं। वो लोग शुक्लागंज में गंगाघाट पर बच्चों को पढ़ाते हैं। समाज सेवा के भाव से ऐसे अनगिनत लोग चुपचाप समाज की बेहतरी के लिए अपना योगदान देते रहते हैं। ऐसे लोग किसी भी समाज के सबसे शानदार, अच्छे मन के लोग होते हैं।
एक बच्चा बिना ड्रेस का वहां खड़ा था। वह बाद में आया गांव से इसलिए उसका एडमिशन नहीं हो पाया। अगले साल हो शायद।
एक महिला झोपड़ी में चाय, नाश्ता बना रही थी। बाहर बैठे आदमी ने बताया कि वह रेलवे स्टेशन पर मजदूरी करता है।
बच्चों की स्कूल ड्रेस सस्ती से थी। एक बच्चा सड़क पर बैठा ऊपर मुंह किये चाय पीते हुए बिठा था। उसके पैंट की सिलाई उधड़ गयी थी।
बच्चों से फिर और नियमित मिलने का इरादा बनाकर वापस लौट लिए।
लौटते हुए रेलवे क्रासिंग बन्द मिली। एक लड़का साइकिल पर बैठे-बैठे सर झुकाकर बैरियर पार कर रहा था। कान में ईयरप्लग था। कोई गाना सुन रहा होगा। सर बार-बार अटक रहा था तो उतरकर सर झुकाकर क्रासिंग पार की। हमने झुककर पहले ही प्रयास में बैरियर पार कर गए। झुकने से तमाम काम आसान हो जाते हैं।
आई बी के पास के स्कूल के बच्चे स्कूल की तरफ बढ़ रहे थे। एक बच्चे ने चेकिंग पर तैनात जवान को गुडमार्निंग अंकल कहा तो उसने उस बच्चे के पीछे आते आदमी को भी बिना पूछे निकल जाने दिया। शायद जवान को कहीं दूर किसी शहर में अपने स्कूल जाते बच्चे याद आ गए हों।

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Sunday, August 28, 2022

लिफ़ाफ़े में कविता – एक रोचक उपन्यास



पिछले साल अरविन्द तिवारी जी का चौथा व्यंग्य उपन्यास आया – ‘लिफ़ाफ़े में कविता।‘ इसके पहले अरविन्द जी के तीन उपन्यास आ चुके हैं –‘दिया तले अंधेरा’, ‘हेड ऑफिस के गिरगिट’ और ‘शेष अगले अंक में’। ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ का इंतजार काफी दिनों से थे। ‘शेष अगले अंक में’ के बारे में लिखते हुए 23 नवंबर, 2016 को लिखा था मैंने:
“अरविन्द तिवारी जी को उनके इस बेहतरीन उपन्यास के लिए बधाई। अब उनके कवि सम्मेलनों पर केंद्रित अगले उपन्यास -'लिफ़ाफ़े में कविता' (नामकरण बजरिये -Alok Puranik आलोक पुराणिक) का इंतजार है।“
मतलब लगभग पाँच साल लग गए अरविन्द तिवारी जी को लिखा हुआ उपन्यास छपवाने में। प्रकाशक के यहाँ पड़ा रहा। कुछ कोरोना के चलते हुए और कुछ प्रकाशकीय उदासीनता। जब अरविन्द तिवारी जी जैसे ख्यातनाम लेखकों के साथ ऐसा होता है तो आम और अनाम लेखक के साथ कैसा होता होगा इसका कयास लगाया जा सकता है।
बहरहाल, उपन्यास आते ही इसको मंगाया गया। 192 पेज का यह उपन्यास आते ही पढ़ लिया गया। पहली पढ़ाई अक्टूबर, 2021 में हो गई थी। उपन्यास आए करीब छह महीने होने को आए, लेकिन लगता है अभी कल ही तो छपा है, कुछ दिन पहले ही तो पढ़ा है। समय कितनी जल्दी बीत जाता है, पता नहीं चलता।
पहली बार पढ़ने के बाद ही इस उपन्यास पर अपने विचार लिखने की मन किया लेकिन फिर टल गया। अब जब लिखने के मन किया तो लगा कि फिर से पढ़कर ही लिखा जाए। दुबारा पढ़ा। पढ़ते हुए फिर लगा कि गजब की रोचकता है इस उपन्यास में। वास्तव में रोचकता अरविन्द तिवारी जी के लेखन का प्राणतत्व है। जबसे उनसे परिचय हुआ, लगभग छह वर्ष हुए, तबसे उनके जो भी लेख छपे वे सब मैंने पढे हैं और पुराना लेखन भी पढ़ा है तो इसका कारण उनसे जुड़ाव के साथ-साथ उनके लेखन की सहज रोचकता है। सबसे अच्छी बात यह कि वे आज भी लेखन में निरंतर सक्रिय हैं।
अपने विपुल लेखन के कारण अरविन्द जी को सम्मान भी मिले लेकिन वही मिले जिनके लिए सिर्फ लेखन ही योग्यता होती है। व्यक्तिगत संबंध, मठबाजी, गुटबाजी और ‘तुम मुझे दिलाओ, मैं तुम्हें दिलाऊँ’ घराने वाले सम्मान उनको नहीं मिले तो इसका कारण मेरी समझ में अरविन्द जी का अकेले और शिविरहीन होना है। उनकी किताबें भी संयोग से ऐसे प्रकाशकों से आईं जिनमें से अधिकतर ने पहले संस्करण के बाद दूसरे छापे नहीं। अरविन्द जी की छोटे कस्बे में रहते हुए, आत्मप्रचार की तिकड़मों से अनजान न होने के बावजूद उनको आत्मसात करने में अक्षमता भी इसके पीछे कारण होगी।
अरविन्द तिवारी जी के व्यक्तित्व का खूबसूरत पहलू यह भी है कि वे नए से नए लेखक को न सिर्फ पढ़ते हैं वरन उनके लेखन पर अपनी बेबाक राय और उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ भी करते रहते हैं।
अरविन्द तिवारी जी के नए उपन्यास के बारे में लिखने के पहले उनके बारे में यह लिखना कुछ ऐसा भी लग सकता है मानो हम उनका पहली बार परिचय कर रहा हों। कहा जा सकता है कि हिन्दी व्यंग्य से जुड़े लोगों के लिए उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लेकिन ऐसा कहना भी सच नहीं है। मैं खुद ही अरविन्द तिवारी जी को छह साल पहले जानता नहीं था। हिन्दी व्यंग्य से जुड़े कुछ लोगों के लिए भगवान का दर्जा प्राप्त ज्ञान चतुर्वेदी जी के बारे में सेंट्रल रेलवे स्टेशन की सर्वोदय पुस्तक भंडार में किताबें देखते हुए एक बहुपाठी इंसान ने पूछा था –‘ये क्या लिखते हैं , कैसा लिखते हैं?’
बहरहाल बात फिर ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ की। अपने इस उपन्यास में अरविन्द तिवारी जी ने हिन्दी कवि सम्मेलनों के किस्से, राजनीति और स्थितियों की विषद चर्चा रोचक अंदाज में की है। अरविन्द तिवारी जी खुद मंच से जुड़े रहे हैं , इस लिए उनके अंदरूनी किस्से भी विस्तार से जानते हैं। कवि सम्मेलनों के अनुभव और दुनियादारी के अनुभवों के कल्पना के मिश्रण को रोचकता की चाशनी में लपेटकर पेश की गई है ‘लिफ़ाफ़े में कविता।‘ कुछ सच्चे अनुभव नाम और घटनास्थल बदलकर पेश किए गए हैं, जस का तस करने में कौन बवाल झेलता घूमें पेंशन वाली उम्र में।
कवि सम्मलेनों के फुटकर किस्से तो अनेक सुने थे लेकिन उन पर इस विस्तार से उपन्यास पहला पढ़ा। मुस्ताक अहमद युसूफ़ी के ‘खोया पानी’ का ‘धीरजगंज का मुशायरा’ वाला एक रोचक किस्सा जरूर पढ़ा था। इस उपन्यास पर लिखने के दौरान ही मैंने वह अंश फिर से पढ़ा।
उपन्यास की शुरुआत स्वयंभू युवा कवि परसादी लाल के बी.एस.सी. पार्ट वन के तीसरे साल में फेल होने से होती है। बालक परसादी की कुंडली शानदार बनाई थी पंडितों ने इस लिए लाड़ प्यार में पला। शुरुआती परिचय के बाद अरविन्द जी लिखते हैं :
“बेटा लाड़-प्यार की अतिरिक्त किस्तों को झोल नहीं पाया।“
लाड़-प्यार में पले बेटे ने हर क्लास को दो वर्षों में उत्तीर्ण होने का रिकार्ड बनाया तो पिता पन्नालाल डंडा लेकर उन पंडितों की ढूँढने लगे ,जिन्हें जन्मपत्री बनवाई की दक्षिणा में बीसियों हजार दिए थे।
कालांतर में विद्रोह करता है बेटा। भारतीय समाज में नौजवान विद्रोह करने के नाम पर प्रेम विवाह के अलावा सिर्फ एक ही काम करते हैं वह है अपनी मर्जी से रोजगार चुनना। प्रेम के किस्से उपन्यास में आने थे इसलिए परसादी लाल ने दूसरी वाली क्रांति को चुना और कवि बनने की घोषणा की। कवि बनने की घोषणा के पीछे उनकी मंच की गहरी समझ थी जिसे उन्होंने इस तरह व्यक्त किया:
“आज मंच का कवि लाखों रुपए कमा रहा है। उसका जीवन किसी रईस से कम नहीं है। मैं मंच का कवि हूँ , चार गीत लिखकर जीवन में करोड़ों रुपए कमाऊँगा।“
परिवार से विद्रोह के बाद परसादीलाल कस्बे के स्थापित हास्य कवि लोमड़ की तरफ गम्यमान हुए जो दस मिनट के काव्य पाठ के लिए पैंतालीस मिनट तक चुटकुला पाठ करने के लिए कुख्यात थे।
‘दस मिनट के काव्यपाठ के लिए पैंतालीस मिनट चुटकुला पाठ’ के बहाने अरविन्द तिवारी जी आज के कवि सम्मलेन मंच के हाल बयान करते हैं जहां वीर रस का कवि भी बिना चुटकुलों के नहीं जमता। आज के मंच का हाल तो यह है कि कवि वही जमता है जो बढ़िया चुटकुलेबाज हो।
लोमड़ कवि से मुलाकात के बाद मनुहार कवि के भी दीदार होते हैं जिनकी बीमारी हमेशा शातिर किस्म की होती। अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलन बिना जाने का नाम नहीं लेती।
‘लोमड़ कवि नहीं चाहते थे कि उनके बाल सखा परसादी लाल कवि सम्मलेन के धंधे में उतरें।‘ अरविन्द जी यह लिखने के बाद यह भी लिख सकते थे –“जिस तरह हिन्दी में उपन्यास लिखने वाले व्यंग्यकार नहीं चाहते कि कोई और उपन्यास लिखे या उसकी चर्चा हो और उनको पुरस्कृत किया जाए।“ लेकिन नहीं लिखा। यही उनकी ताकत है, यही उनकी कमजोरी है। वर्ना तो छोटे-बड़े लगभग हर तरह के सम्मान, पुरस्कार पर लगातार कब्जा करते रहने वाले भी स्यापा करते रहते हैं –“लोग हमारा विरोध करते हैं।“
परसादी लाल कालांतर में अपने बाल सखा लोमड़ कवि के जरिए कवि सम्मलेनों (और साहित्यिक सम्मानों ) के ‘गिव एवं टेक’ के शाश्वत नियम के सहारे ज्वलंत जगतपुरिया के रूप में लांच किए गए।
लोमड़ कवि द्वारा लांच किए जाने के बाद ज्वलंत जयपुरिया ने जिला मुख्यालय के ओज कवि अंगद की संगत में कवि सम्मलेनों के मूल मंत्र - ‘मंचीय कवि के लिए सबसे बड़ा पैसा होता है’ और ‘पिटाई से कवि लोकप्रिय होता है’ सीखे ।
कवि अंगद की संक्षिप्त नाराजगी को अंग्रेजी शराब के सहारे दूर करके ज्वलंत जयपुरिया मध्य प्रदेश के कवि निर्निमेश जिन्होंने उनमें संभावनाएं देखकर उनको अपनी पुत्री के लिए पसंद कर लिया। कवि निर्निमेश की सांवले रंग की पुत्री आभा ने गौरवर्णीय नवयुवक कवि ज्वलंत जयपुरिया को देखकर बता दिया –‘आपका चेला मुझे पसंद है। ‘
इसके बाद आभा अपने पिता के चेले को आधुनिक बनाने लगी। उनके बीच ‘स्त्री-पुरुष’ हुआ। शादी की बात चली। ज्वलंत जयपुरिया के पिता पन्नालाल ने मुनादी पिटवाई कि उनका लड़का आवारा और वेश्यागामी हो गया है। ज्वलंत जयपुरिया न चाहते हुए भी आभा के साथ ‘शादी गति’ को प्राप्त हुए। शादी होते ही अलगाव भी शुरू हो गया। अलगाव के कारण भी वही थे जो लगाव के थे –‘कवि जी को बेहतर विकल्प उपलब्ध थे और दोनों लोग एक-दूसरे के बारे में जो जानते थे वह आपस में कहने भी लगे थे।‘
कवि ज्वलंत जयपुरिया कालांतर में राज्य अकादमी के अध्यक्ष बने। उनके जलवे के साथ विरोध भी बढ़ा। उन्होंने अपने राज्य अकादमी अध्यक्ष के पद का समुचित उपयोग करते हुए अपने ससुर के गढ़ भोपाल में शानदार कार्यक्रम करवाया।
ज्वलंत जयपुरिया की शराबनोशी और अय्याशी के किस्से उजागर होने लगे। हिन्दी के माफिया ज्वलंत जयपुरिया से ईर्ष्या करने लगे। हिन्दी के एक डॉन भी अपने चेले का नाम पुरस्कार से कट जाने के कारण नाराज हुए।
उधर कवि निर्निमेश भी भोपाल कवि सम्मेलन के बाद अपने दामाद से खफा थे। पहले भी अपने दामाद की पिटाई करवाने में असफल हो चुके थे। अनंत: डॉन और कवि निर्निमेश की संयुक्त नाराजगी ने दिल्ली की कारगर्ल माधुरी के जरिए ज्वलंत जगतपुरिया का स्टिंग आपरेशन करवाया। माधुरी से बलात्कार के आरोप में कवि जेल गति को प्राप्त हुए। बाद में आभा से तलाक हुआ। मुआवजे में आगरे की कोठी देकर वे वापस अपने पुश्तैनी कस्बे जगतपुर में अपने बालसखा लोमड़ कवि, जिनकी नौकरी उनकी हरकतों के चलते छूट गई थी, के साथ मुंशी जी की दुकान पर चाय पीते पाए गए।
इस तरह अरविन्द तिवारी जी ने लिफ़ाफ़े में कविता के माध्यम से एक बार फिर साबित किया कि दुनिया गोल है।
सहज, सरल भाषा में कवि सम्मेलनों के माध्यमों से किस्सों के माध्यम से दुनियावी उठकपठक को रोचक अंदाज में पेश किया है लिफ़ाफ़े में कविता के माध्यम से। इसमें कवि सम्मलेन के संयोजक मनुहार जी की भैंसे खोलवा कर कवियों का भुगतान कराने का किस्सा है तो ओज कवि अब्दुल लतीफ़ ‘मक्कार’ के एक कविता के बाल पर उर्दू न आने के बावजूद राज्य उर्दू अकादमी का अध्यक्ष बन जाना भी है। कवियों की उखाड़-पछाड़ तो खैर है ही। हूटिंग, पीना-पिलाना तो खैर अब आम बात हुई कवि सम्मलेनों में लेकिन पिटाई कुछ ज्यादा ही करवाई अरविन्द जी ने कवियों की।
उपन्यास हालांकि काफी देर से आया लेकिन अच्छा छपा है। आकर्षक छपाई, बढ़िया कवर पेज और प्रूफ की गलतियों से रहित किताब को पढ़ना अच्छा अनुभव रहा।
अरविन्द तिवारी जी को उनके उपन्यास ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ के लिए बधाई। आशा है जल्द ही उनका होटलों पर केंद्रित उपन्यास भी जल्द ही आएगा। फिलहाल तो उसके पूरा होने और नामकरण के बाद छपाई का इंतजार है।
पुस्तक का नाम : लिफाफे में कविता (व्यंग्य उपन्यास)
लेखक : अरविंद तिवारी
विधा – उपन्यास ; संस्करण – 2021 ;
पृष्ठ संख्या – 192 ; मूल्य – 400/- रुपए
प्रकाशक – प्रतिभा प्रतिष्ठान, 694- बी, चावड़ी बाजार, नई दिल्ली 110006

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Thursday, August 25, 2022

ट्रेवल ब्लागर Anany Shukla की युवा पत्रकार Ragini Srivastava से बातचीत

 एक युवा घुमक्कड़ और ट्रेवल ब्लागर Anany Shukla की युवा पत्रकार Ragini Srivastava से बातचीत। लखनऊ से निकलने वाले अख़बार विधान केशरी से जुड़ी रागिनी शाहजहाँपुर की अकेली रजिस्टर्ड महिला पत्रकार हैं और अपना यू ट्यूब चैनल रागिनी टाइम्स चलाती हैं। अनन्य ने पिछले वर्ष कारपोरेट की नौकरी छोड़कर (https://www.goldmansachs.com) घूमना , लिखना और ट्रिप लीडिंग करना शुरू किया। अपनी मित्र काजल गुप्ता के साथ फिरगुन ट्रेवल्स (firguntravels.com) नाम से कम्पनी शुरू की। उनकी नौकरी छोड़कर घूमना शुरू करने को लेकर बनाया वीडियो ( https://www.instagram.com/reel/CdTc_zdF3Aq/?igshid=YmMyMTA2M2Y=) को अब तकि 17 लाख लोग देख चुके हैं।

इन दो युवाओं की बातचीत सुनिए। इनको अपनी शुभकामनाएँ दीजिए। रागिनी टाइम्स चैनल को सब्सक्राइब कीजिए और अनन्य को Instagram पर फालो (।https://instagram.com/ananyshukla?igshid=YmMyMTA2M2Y=) शुभकामनाएं। । घूमने निकलिए। फ़िलहाल तो सुनिए बातचीत और इस पर अपनी राय बताइए।

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Monday, August 22, 2022

आज का अखबार -आधे में खबर, बाकी में बाजार

 


आज फिर गंगा किनारे गए टहलने। पुल शुरू होने से पहले एक आदमी हैण्डपम्प पर पानी भरता दिखा। सड़क से नीचे लगा है हैण्डपम्प। दो बाल्टी पानी भरने के बाद उनको आहिस्ते-आहिस्ते लेकर अपने घर की तरफ जाता दिखा। रास्ता ऊबड़खाबड़। हर घर तिरंगा की मुहिम के तहत झोपड़ियों में तिरंगा फहरा रहा था।
झोपड़ियों की छतों पर तरह-तरह का कबाड़ बिखरा हुआ था। हर छत कबाड़ के लिए किसी आवाहन की जरूरत नहीं पड़ती। लोग अपनी छत पर कबाड़ इकट्ठा करते रहते हैं। न जाने कब काम आ जाये। यह बात अलग कि पुराना कबाड़ अक्सर नए कबाड़ के नीचे दबता जाता है। नया कबाड़ पुराने कबाड़ को मार्गदर्शक कबाड़ में शामिल करके खुद ऊपर स्थापित हो जाता।
सड़क के दूसरी तरफ ड्यूटी से लौटता पुलिस/होमगार्ड का जवान मोटरसाईकिल पर बैठे-बैठे बंदरो के लिए खाने का सामान फेंकता जा रहा था। आसपास मौजूद बन्दर फेंका हुआ सामान लपकते हुए खाते दिख रहे थे। कुछ बन्दर दूर से। चुपचाप सामान फेंकते देख रहे थे। उनके शायद पेट भरे हों या सुबह-सुबह खाने का मन न हो।
वहीं बैरिकेटिंग पर तीन बंदर बैठे दिखे। एक बन्दर चिंतन मुद्रा में। दूसरा बीच में टहलता हुआ। तीसरा बिना दाने के भुट्टे को चबा रहा था। एक भी दाना नहीं बचा था लेकिन उसको जिस शिद्दत से चबा रहा था उससे लग रहा था किसी ने उसको बालू से तेल निकालने का किस्सा सुनाया होगा। वहीं एक सांड नीचे पड़ी पालीथिन से अपने लिए कुछ खाने का सामान खोजते हुए टहल रहा था।
पुल पर कई महिलाएं कसरत करती दिखीं। पुल की रेलिंग को पकड़कर पैर चलाते हुए, हाथ-पैर दांए-बाएं करते हुए, घुटनों को ऊपर-नीचे करते हुए कसरतियाते हुई महिलाएं। आगे कुछ लड़के भी वर्जिश करते दिखे। गंगापुल पर ओपन जिम का नजारा बना हुआ था।
एक अखबार वाला घर से लाये आते की गोली बनाकर नदी में डालता दिखा। नदी के जीवों के लिए सुबह का नाश्ता। कितना किसी मछली के पेट में जाता है, कितना नदी में समा जाता है इस बात से बेपरवाह वह आटे की गोलियां बनाते हुए नदी के पानी में फेंकता रहा। आटा खत्म हो जाने के बाद वह सूरज भाई की तरफ हाथ जोड़कर कुछ देर प्रार्थना मुद्रा में खड़ा रहा। इसके बाद साइकिल पर बैठकर अखबार बांटने निकल गया। अखबार में आधे पेज पर तीन खबरें प्रमुखता से छपी हैं:
1. महापुरुषों के नाम पर होंगे मेडिकल कालेज
2. मंहगाई के खिलाफ किसानों का दिल्ली कूच आज
3. कानपुर मेट्रो के लिए 186 करोड़ जारी
इन तीन प्रमुख खबरों के साथ सात फुटकर सूचनाएं और खबरें हैं। जिनमें से एक यह भी कि मोबाइल-लैपटॉप से 80% लोगों को न्यूरॉल्जिया (नसों का दर्द)।
आधे पेज पर समाचारों के नीचे बाकी आधे पेज पर पल्सर बाइक का विज्ञापन है। एक्स शो रूम कीमत 129984 रुपये मतलब 16 रुपये कम एक लाख तीस हजार।
अखबार के आधे पेज पर ख़बर आधे पर विज्ञापन मतलब आधे में समाचार आधे में बाजार।
आगे कई बुज़ुर्गवार सामूहिक पूजा करते मिले। कुछ संस्कृत और सरल हिंदी भजन का सामूहिक गायन। एक भजन में प्रार्थना की जा रही थी -'हमको अपनी शरण में ले लीजिए। हम दीन-हीन हैं।' रोज प्रार्थना करते होंगे बुजुर्गवार लेकिन उनकी प्रार्थना शायद अनसुनी रह गयी है अबतक। क्या पता प्रार्थना सुन ली गई हो और शरण में ले लिया गया हो लेकिन उसकी चिट्ठी अभी जारी न हुई हो। यह भी हो सकता है प्रार्थना पर विचार हो रहा हो। फाइल पर नोटिंग बढ़ी हो-'गंगा पुल पर रोज शरण की याचना करने वाले बुजुर्ग संस्कारी लगते हैं। इनको शरण में लेने की संस्तुति की जाती है?'
हो सकता है पूछा गया हो कि इनके संस्कारी होने के क्या प्रमाण हैं?
सम्भव है पलट नोटिंग की गई हो-'ये हमारी शरण में आने की विनती कर रहे हैं। इससे बड़ा और क्या प्रमाण चाहिए इनके संस्कारी होने का?'
बुज़ुर्गवार इन सबसे निर्लिप्त अपनी पूजा में तल्लीन हैं। आज आसमान रंगहीन है। लगता है वहाँ भी रंगों पर खर्चे में कटौती करने का आदेश हुआ है।
नदी का पानी अलग-अलग अंदाज में बह रहा हैं। एक हिस्से का पानी डांस सा करता हुआ आता है। नदी के मंच पर पानी के शंख से बनाता हुआ आगे बढ़ता है। पानी का कुछ हिस्सा नदी में डुबकी सा लगाते हुए गुम हो जाता है। आगे चलकर पानी सीधे बहने लगता है।
डांस करता हुआ नदी का पानी, शंख के आकार में बहते हुए फिर सीधे बहने का समय क्या पता इस हिस्से के पानी का जीवन चक्र हो। जल मंच पर आना, डांस करते और फिर शंक्वाकार ज्वार में बहते हुए फिर नदी की धार में सीधे बहने लगना इस हिस्से के पानी का पूरा जीवन हो। इतनी देर में और इतने समय में पानी ने अपना बचपन, जवानी , बुढापा जी लिया हो। पानी केरा बुदबुदा , अस मानुष की जात।
बगल के कुछ हिस्से का पानी उबलता हुआ सा बहता है। लगता है इस हिस्से के पानी में जवानी का ज्वार है। पानी 'युवा हृदय सम्राट' की मुद्रा में उफनता हुआ सा बहता है। बीस-पचीस मीटर तक पानी ऐसे ही जोश से बहता है। आगे चलकर पानी की उचकन कम हो जाती है और वह नदी के पानी के साथ शामिल होकर मुख्य धारा के साथ बहने लगता है। पानी के बहने का यह अंदाज किसी युवा नेता के अंदाज सरीखा लगता है जो कुछ दिन परिवर्तन की हुंकार लगाने के बाद उसी पार्टी में शामिल हो जाता है जिसके विरोध के साथ उसने शुरुआत की थी।
बाकी हिस्से का पानी भी अपनी-अपनी मर्जी से बह रहा था।
लौटते हुए गंगा घाट गये। कुछ दुकानों में लोग बैठे हुए गपिया रहे थे। एक चाय की दुकान से चाय लेकर अपन गंगाघाट की सीढ़ियों पर बैठकर चाय चुस्कियाते हुए नदी के पानी का सौंदर्य देखते रहे।
सूरज भाई नदी में पूरा लम्बवत लेटे गंगास्नान करते दिखे। पानी हिलता-डुलता उनको स्नान करते महसूस करता रहा। कुछ लोग नदी के पानी में डुबकी लगाते, नहाते , तैरते दिखे। दूर नदी में नाव जाती दिखी। नदी किनारे कुछ पुरानी, बुजुर्ग नावें देखकर दुष्यंत कुमार जी की याद आई:
नाव जर्जर ही सही,
लहरों से टकराती तो है।
इस बीच ओपीएफ के एक टेलर भी गंगा दर्शन करने आये। नमस्ते किये। बताया -'एम फोर सी में पैराशूट बनाते हैं।'
हाल-चाल , कुशल-क्षेम के बाद हमने पूछा -'ड्यूटी नहीं जाना क्या आज?'
'जाएंगे। यहाँ से घर जाएंगे। स्टेशन के पास है घर। वहां से पास लेंगे और सात चालीस पर अंदर हो जाएंगे।' -टेलर ने जबाब दिया।
फैक्ट्री का टाइम 0730 का है। दस मिनट तक देर से आना अलाउड है। अगला उस समय सीमा को ही फैक्ट्री का समय मानता है।
लौटते हुए घाट पर मौजूद फूल बेंचने वाली महिलाओं की बतकही सुनाई देती है। एक कहती है-'केहू से बिना बताए साठ हजार दीन रहय शादी मां। अभय तक उधार चुका नहीं है।'
हमको परसाई जी की बात याद आती है-'देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी में जा रही है।'
आते समय एक आदमी बच्चे को स्कूल ले जाने के लिए तैयार होता दिखा। आदमी ने हेलमेट धारण किया, मोटरसाइकल पर सवार हुआ। घर वालों ने बच्चे का बस्ता मोटरसाईकिल में बैठ चुके बच्चे को थमाया। आखिर में महिला उचककर पीछे की सीट पर बैठ गयी। मोटरसाइकिल पर अधिवक्ता लिखा था। पूरा परिवार सुबह-सुबह तैयार होकर निकल लिया।
पुल के नीचे एक रिक्शे पर स्कूल जाते बच्चे दिखे। सेंट्रल स्कूल में पढ़ते हैं। एक बच्चे से क्लास पूछा तो उसने बताया -सेकेंड बी। क्लास के साथ सेक्सन बताना इतना ही आम है जितना किसी के नाम पूछने पर वह जाति भी बताए। अनूप के साथ शुक्ल भी। क्लास के साथ सेक्शन और नाम के साथ जाति फेविकोल के मजबूत जोड़ की तरह चिपकी रहती है।
कितने बच्चे जाते हैं रिक्शे में पूछते हुए बच्चों की फोटो खींची। एक बच्चे ने बताया- ' अंकल नौ, कभी-कभी दस।'
बच्चे ने जब 'अंकल नौ..' कहा तो मुझे लगा कि फ़ोटो खींचने को मना करते हुए 'अंकल नो..' कह रहा था। लेकिन तब तक हम सामने से फ़ोटो ले चुके थे। बाद में पता लगा वह 'नो' नहीं 'नौ' कह रहा था। निजता का अधिकार लागू होते-होते रह गया।
बच्चों ने धक्का लगाकर रिक्शा ' स्टार्ट' करवाया। बैठकर स्कूल चल दिये।
आगे रिक्शा और उसमें सवार बच्चे फिर मिले जबकि हम पैदल आये थे। उनका रास्ता शायद लम्बा था। एक बच्ची चढ़ाई में धक्का लगाते हुए रिक्शेवाले को सहयोग करती कुछ देर सड़क पर चली। फिर उचककर रिक्शे में बैठ गई।
बच्चों को स्कूल जाते देखते हुए हम वापस लौट आये।

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परसाई होते तो बताते कि हम कितने बौड़म हो चुके हैं

 [आज परसाई जी के जन्मदिन के मौके पर नवभारत टाइम्स में दो साल पहले प्रकाशित लेख । लेख जो हमने भेजा था उससे कई गुना बेहतर होकर छपा। सम्पादन के लिए नवभारत टाइम्स के राहुल का आभार। Chandra Bhushan जी का शुक्रिया जिनको लगा कि मैं परसाई जी पर लिख सकता हूँ।]

हरिशंकर परसाई के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता उनकी निडरता है। अपने समय की विसंगतियों और संकीर्णताओं पर उन्होंने बेपरवाह लिखा और इसकी कीमत भी चुकाई। नौकरी छोड़ने तक में संकोच नहीं किया। उनकी कलम से तिलमिलाकर लोगों ने उन पर हमले किए। आर्थिक अभाव लगातार बना रहा, फिर भी उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अगस्त परसाई जी का महीना है, 22 अगस्त उनकी पैदाइश है तो 10 अगस्त उनकी रवानगी।
कोई पूछ सकता है कि आज परसाई होते, तो क्या लिख रहे होते। अगर वे होते तो आज की विसंगतियों पर जरूर कुछ ऐसी नियमित चोट कर रहे होते, जिससे वे बहुत बड़े वर्ग की ‘हिट लिस्ट’ में होते। पहले की ही तरह उन पर लगातार हमले हो रहे होते, बल्कि शायद पहले से भी तेज। शायद हाल यह होता कि उन पर उनकी पहले की लिखी किसी ‘पंच लाइन’ के आधार पर कोई पंचायत स्वत: संज्ञान लेकर सजा सुना चुकी होती। या फिर देश के अनेक स्वघोषित बुद्धिजीवी उनके इस वाक्य, ‘इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं’ के आधार पर उनके खिलाफ मानहनि का मुकदमा दायर कर चुके होते। अंतरात्मा की आवाज पर दल बदलने वाले लोग, ‘अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिए। जरूरत पड़ी तो फैलाकर बैठ गए, नहीं तो मोड़कर कोने से टिका दिया’ जैसी लाइन लिखने के लिए परसाईजी को सबक सिखाने का निर्देश अपने कार्यकर्ताओं को दे चुके होते।
परसाई कहते थे, ‘मैं सुधार के लिए नहीं, बल्कि बदलने के लिए लिखता हूं। वे यह भी मानते थे कि सिर्फ लेखन से क्रांति नहीं होती। हां, उसकी भावभूमि जरूर बन सकती है।’ वे कहते थे कि मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती। नौजवानों को संबोधित करते हुए वे लिखते हैं, ‘मेरे बाद की और उसके भी बाद की ताजा, ओजस्वी, तरुण पीढ़ी से भी मेरे संबंध हैं। मैं जानता हूं, इनमें से कुछ कॉफी हाउस में बैठकर कॉफी के कप में सिगरेट बुझाते हुए कविता की बात करते हैं। मैं इनसे कहता हूं कि अपने बुजुर्गों की तरह अपनी दुनिया छोटी मत करो। मत भूलो कि इन बुजुर्ग साहित्यकारों में से अनेक ने अपनी जिंदगी के सबसे अच्छे वर्ष जेल में गुजारे। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी और दर्जनों ऐसे कवि हैं, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़े। रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और अशफाक उल्ला खां, जो फांसी चढ़े, कवि थे। लेखक को कुछ हद तक एक्टिविस्ट होना चाहिए। सुब्रमण्यम भारती कवि और ‘एक्टिविस्ट’ थे। दूसरी बात यह कि कितने ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त है यह विशाल देश, और कोई देश अब अकेले अपनी नियति नहीं तय कर सकता। सब कुछ अंतरराष्ट्रीय हो गया है। ऐसे में देश और दुनिया से जुड़े बिना एक कोने में बैठे कविता और कहानी में ही डूबे रहोगे, तो निकम्मे, घोंचू और बौड़म हो जाओगे।’
परसाईजी की तुलना अन्य व्यंग्यकारों से करते हुए कुछ लोग बड़ी मासूमियत से किसी दूसरे व्यंग्य लेखक को किन्हीं मामलों में उनसे बेहतर भी बता देते हैं। ऐसा करने वाले लोग परसाईजी के साथ ही दूसरे लेखकों से भी अन्याय करते हैं। परसाई मात्र व्यंग्यकार नहीं थे। वे लोक शिक्षक थे, समाज-निर्देशक थे। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया। जबलपुर में भड़के दंगे रुकवाने के लिए गली-गली घूमे। मजदूर आंदोलन से जुड़े। लोक शिक्षण की मंशा से ही वे अखबार में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। उनके स्तंभ का नाम था, ‘पूछिए परसाई से’ पहले हल्के और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गंभीर सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिए अखबार का इंतजार करते थे।
आज के समय में परसाईजी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं तो यह उनके लेखन की ताकत और उनकी विराट संवेदना है। अपने बारे में वे कहते थे, ‘मैं लेखक छोटा हूं, लेकिन संकट बड़ा हूं।’ तो लेखक तो परसाईजी अपने समय में ही बहुत बड़े हो गए थे। आज वे होते तो मौजूदा संकटों पर उनकी चोट भी बहुत बड़ी होती, शायद सबसे बड़ी होती।

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