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Monday, December 19, 2022

नेपाल की सेल रोटी मतलब चावल की जलेबी



कहीं बाहर जाने पर सबसे बड़ी चुनौती खाने की होती है। 3 साल पहले जब अमेरिका गए थे तो न्यूयार्क की सड़कों पर घण्टों शाकाहारी खाने के लिए भटकते रहे थे। जब एक पंजाबी ढाबा मिला था तो जो सुकून मिला था उसका बयान मुश्किल है। महसूस ही किया जा सकता है उसे।
नेपाल में खाने की तो कोई समस्या नहीं हुई। शाकाहारी खाना आराम से होटल में और बाहर भी मिला। इसी क्रम में कुछ नए अनुभव भी हुए।
पहुंचने के अगले दिन शुरू हुई मीटिंग देर तक चली। मीटिंग के बाद बाजार में खाने का जुगाड़ देखा गया। कई होटल देखे इधर-उधर। सभी दोपहर के बाद आराम मुद्रा में थे। ऐसा कोई जुगाड़ नहीं दिखा जहां तसल्ली से बैठलर लंच किया जा सके।
भोजन की तलाश में भटकते हुए कई ढाबे दिखे। एक जगह जलेबी जैसी कोई चीज बनती देखी। पता चला यह सेल रोटी है। नेपाल का खास व्यंजन।
पहली बार नाम सुना था सेल रोटी। घुस गए दुकान में। छुटकी सी दुकान। बाहर समोसा, पकौड़ी जैसी चीजों के साथ सेलरोटी बन रही थी। चाय तो सदाबहार पेय पदार्थ है भारत की तरह नेपाल में भी।
सेल रोटी बनने की विधि देखी। चावल के आटे को में शक्कर या कोई और मीठा मिलाकर एक कुप्पी नुमा बर्तन में डालकर जलेबी की तरह कड़ाही में तलते हैं। पकौड़ी की तरह तलकर खाने के लिए तैयार हो जाती है रोटी। जलेबी से इस मायने में अलग होती है कि जलेबी को तलने के बाद उसको मीठा करने के लिए चासनी में डाला जाता है। जबकि सेल रोटी में मीठा उसके आटे में ही मिला होता है। कहीं-कहीं मसाला भी मिलाते हैं।
सेलरोटी के बारे में पढ़ते हुए जानकारी मिली कि सेल रोटी बनने की शुरुआत 800 साल पहले हुई नेपाल में। पहले इसमें मीठा नही और मसाला नहीं मिलाते थे। बाद में इसके स्वरूप में बदलाव आता गया और आज के रूप में पहुंची इसको बनाने की विधि।
सेल रोटी का नाम नेपाल में पैदा होने वाले चावल के प्रकार सेल से जुड़ा है। अपने यहां भी चावल का एक नाम सेल्हा चावल सुनते हैं। एक और जानकारी के अनुसार नेपाल में नए साल के मौके पर बनाये जाने के कारण इसका नाम साल से होते हुए सेल हो गया। अब तो यह साल भर बनती है और दुकानों में समोसे, पकौड़ी की तरह सर्वसुलभ है।
दो-दो सेलरोटी खाने के बाद चाय पी गईं। इतने में ही तृप्त हो गए। लंच हो गया।

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Sunday, December 18, 2022

मेरा बच्चा बहुत प्यारा है



बोधा स्तूप के बाहर तमाम कबूतरों का जमावड़ा था। एक कोने में सैकड़ों कबूतर जमा था। पास ही अनेक लोग कबूतरों के लिए दाने लिए बैठे थे। लोग उनसे लेकर दाना कबूतरों को डाल रहे थे।।कबूतर दाने खाते हुए, इठलाते हुए, टहलते हुए अचानक एकाध मिनट की उड़ान भरकर फिर वापस कबूतरों के बीच आ जाते।
कबूतरों के लिए इस तरह का इंतजाम कई जगह देखा है। पिछले साल जयपुर यात्रा में सड़क के डिवाइडर पर कई जगह देखा। लोग दाना बेंचने के लिए बैठे रहते हैं। आते-जाते लोग दाना खरीदकर उनको डालते है। शायद कबूतर भी उन दाना बेंचने वालों के होते हों। कानपुर में फूलबाग के सामने एक कोने में भी तमाम कबूतर इकट्ठा होते हैं। लेकिन यहां दाना बेचने वाला कोई नहीं बैठता। लोग अपने साथ दाना लाते हैं, कबूतरों को खिलाते हैं। कबूतरों की उड़ान एयरशो की तरह लगती है।
कबूतरों को उड़ते देखकर समीक्षा तैलंग Samiksha Telang की किताब का शीर्षक याद आया -कबूतर का कैटवॉक।
कबूतरों का जमावड़ा देखकर लगा कि जहां खाने-पीने का इंतजाम होता है , जीव वहीं जमा होते हैं। रोजी-रोटी के लिए ही लोग आज शहरों की तरफ भाग रहे हैं। शहर उजड़ रहे हैं।
आगे की एक दुकान पर बीसीसी लिखा था -बुद्धा कैसेट सेंटर (Buddha Cassette center)। दुकान अभी खुली नहीं थी।
आगे एक नुक्कड़ पर एक बच्ची जैसी दिखती महिला चाय बेंच रही थी। उसकी पीठ पर बच्चा था। बच्चे को पीठ पर सहेजे महिला लोगों को चाय बेंच रही थी। लोग उसके पास खड़े होकर या पास के चबूतरे पर बैठकर चाय पी रहे थे। हमने उससे बात करके की मंशा से चाय ली और चाय पीते हुए बात करते रहे। वह भी चाय बेंचते हुए, चाय पीते हुए बतियाती रही। रेशमा तमांग नाम था उसका।
रेशमा ने बताया कि दस किलोमीटर दूर घर है उसका। सुबह तीन बजे उठकर चाय बनाती है। घण्टे भर की दूरी तय करके चाय बेंचने आती है। चाय बेंचकर वापस जाती है। पति कमाई करने के लिए सऊदी अरब गया है। अपना खर्च चलाने के लिहाज से चाय बेचने का काम शुरू किया है। यह बात उसने विदेश गए अपने पति को नहीं बताई है यह सोचकर कि -'वह परेशान होगा।'
कुछ ही दिन पहले चाय बेंचना शुरू किया है रेशमा ने। पहले कुछ लोगों ने आपत्ति की लेकिन अब सब ठीक है। चार लीटर करीब चाय लाती है चाय। बिक जाने पर वापस चली जाती है। अपनी कमाई के एहसास से रेशमा बहुत खुश है। थोड़ा खर्च जुट जाता है।
चाय बेंचना कैसा लगता है पूछने पर रेशमा ने बताया -'बहुत अच्छा लगता है। बहुत खुश लग रहा है। चाय का बिक्री हो रहा है।'
बच्चा सहयोग करता है इस काम में पूछने पर रेशमा ने बताया -'बहुत सपोर्ट करता है। बहुत प्यारा बच्चा है मेरा। बिल्कुल परेशान नहीं करता। '
बात करते-करते रेशमा आसपास के लोगों को चाय भी देती जा रही थी। हम चाय पी चुके इस बीच रेशमा दूर किसी को चाय देने चली गयी। लौटकर आयी तब हमने उसको पैसे दिए। चाय पीकर अगला कहीं फूट न ले यह भाव कहीं नहीं दिखा उसके व्यवहार में। सहज विश्वास का भाव उसके चेहरे पर था।
अभाव में जीने के बावजूद उसके चेहरे पर या बातचीत में दैन्य भाव नहीं था। विनम्रता के साथ सहज रुप से बात करते हुए अपनी कठिनाई का जिक्र भले किया लेकिन हाय-हाय वाले भाव मे नहीं। यह भी कहा कि यह काम करते हुए बहुत अच्छा लग रहा है।
रेशमा के पास से चाय पीकर और अगले दिन फिर आने का वादा करके हम आगे बढ़े। उससे विदा लेने के पहले उसके फोटो और वीडियो उसको दिखाया। वह खुश हुई। बोली हमको भी भेज दीजिए। हमने पूछा कैसे भेजेंगे? उसने मेरे मोबाइल पर अपना फेसबुक खाता खोलकर दिखाया। बाद में मैंने देखा कि उसके फेसबुक में उसके बेटे के कई फोटो हैं। एक फोटो में वह बच्चे के साथ घुड़सवारी करते हुए विक्ट्री का निशान बनाये हुए है।
आगे एक जगह कुछ फूलों की दुकानें थीं। लोग फूल खरीद रहे थे। वहीं पास ही तमाम लोग बैठे थे। लोग उनको चाय पिला रहे थे। और भी सामान और कुछ लोग पैसे भी दे रहे थे।
मंदिर की परिक्रमा करते हुए लोग मंदिर की चाहरदीवारी पर लगे पूजा चक्र घुमाते जा रहे थे। कुछ लोग लेटकर भी परिक्रमा कर रहे थे। वे जमीन पर पेट के बल लेट जाते। अपनी लंबाई भर की जमीन नाप कर आगे बढ़ते और जहां उनका सर रहा होगा पहले वहां पैर रखकर फिर शाष्टांग हो जाते। हाथ में खड़ाऊ जैसी लकड़ी बांधे थे। उसी लकड़ी को जमीन पर रखकर वे परिक्रमा कर रहे थे। महिला और पुरुष दोनों ही इस तरह परिक्रमा करते दिखे। लोग उनको बचाकर , उनके बगल से निकलकर तेजी से परिक्रमा करते जाते।
आगे एक बेंच पर एक ब्रिटेन वासी बैठे मिले। बातचीत होने लगी तो बताया उन्होंने कि दस साल से यहां आते-जाते, रुकते-ठहरते रहते हैं। दुनिया में बढ़ती यांत्रिकता और मिलन-जुलन में आई कमी से नाराज से थे। यहां काठमांडू में लोगों का व्यवहार उनको अच्छा लगता है। ब्रिटेन कभी-कभी जाते हैं, दोस्तों से मेल-मुलाकात करने।
बातचीत करते हुए हमको चाय पिलाई उन्होंने। हमने पैसे देने चाहे लेकिन उन्होंने जिद करके खुद पैसे देने के लिए हजार का नोट निकाला। चाय वाले के पास फुटकर नहीं थे। बोले,-'ले आओ।' लेकिन कहीं मिलने का जुगाड़ नहीं दिखा। मैनें पैसे दे दिए। बोले -'कल हम पिलायेंगे तुमको चाय।'
घर से दूर दो मिनट की मुलाकात के बाद कोई चाय पिलाने, पैसा देने की जिद करे, न दे पाने पर अगले दिन पिलाने का वायदा करे यह कितना खुशनुमा एहसास है।
बातचीत करते हुए एक महिला को देखकर -' हेलो, हाउ आर यू कहकर वह उनसे बतियाने लगे।' हैट लगाये वह महिला मुझे परिक्रमा करते हुये दिखी थी। फिनलैंड, हेलसिंकी से आई थी। कुछ देर बात करने के बाद वह चली गयी। हम भी विदा लेकर चल दिये।
चलने के पहले हमने उनका फोटो दिखाया। उन्होंने मेल करने को कहा। मेल खाता लेकर फोटो भेजा वहीं खड़े-खड़े। डिकी नाम है उनका।
लिखते समय याद आया कि जीवन में बढ़ती यांत्रिकता की।लानत-मलानत करते हुए डिकी ने मेरे मोबाइल की तरह इशारा करते हुए ( यांत्रिकता के प्रतीक के रूप में) - 'दिस स्टुपिड मशीन।' डिकी की बात सुनकर हमने अपने मोबाइल को छिपाने की कोशिश की लेकिन तब तक वह सुन तो चुका ही था। मोबाइल समझदार था। उसने अपने को बेवकूफी के प्रतीक के रूप में इशारा किये जाने का बुरा नहीं माना। मोबाइल की जगह कोई प्रभावशाली आइटम होता तो उसकी बेइज्जती का मुद्दा उठाते हुए उसके समर्थक धरना, प्रदर्शन, हल्ला, गुल्ला शुरू कर दिए होते।
लौटते में स्तूप के अंदर गए। लोग पूजा कर रहे थे। दीप जला रहे थे। पूजा चक्र को घुमा रहे थे। पास ही ढेर सारा चूना जमा था। चूना भी पूजा के काम आता है।
स्तूप से बाहर निकलकर हम जिस रास्ते गये थे उसी रास्ते वापस आ गए। दुकानें खुलने लगीं थीं। गली गुलजार हो गयी थी। एक जगह ड्राइवर लोग अपनी कारें साफ करते दिखे। टूरिस्टों के लिए तैयार हो रहीं थी गाड़ियां।
होटल के पिछले दरवाजे को पीटकर खुलवाया। दरबान आया तो देखा कि वहीं पर घण्टी भी लगी है। अनजाने ही हमने हल्ला मचाया। दरबान ने भी हमको हमारी बेवकूफी का एहसास कराते हुए घण्टी के बारे में बताया। वो कहो होटल का दिहाड़ी का दरबान था। कोई स्थायी चौकीदार होता तो शायद कहता-' घण्टी दिखती नहीं तुमको, हल्ला मचाये हुए हो।'
होटल वापस लौटकर काम के लिये निकलने के लिए तैयार होने लगे।

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Saturday, December 17, 2022

बोधा स्तूप मिथक और ऐतिहासिक धरोहर



पिछली पोस्ट में होटल के पास के स्तूप को देखने का किस्सा लिखा था। Chandra Bhushan जी ने पूछा -' यह कौन सा स्तूप है? देखने से बोधा स्तूप लग रहा है। '
हमने होटल के पास के स्तूप खोजकर देखे और बताया कि यह बोधा स्तूप है।
इसके बाद और जानकारी ली नेट से तो पता चला कि जिस स्तूप को हम ऐसे ही चलताऊ तरीक़े से देखकर लौट वह कितना खास है। युनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल यह स्तूप लिच्छवी राजवंश के समय बना था। मिथक के अनुसार उस राजा विक्रमादित्य ने अपने महल के अहाते पानी के जलस्रोत बनवाया। उसमें पानी नहीं आया तो राजा ने पानी लाने का उपाय पूछा। ज्योतिषियों ने बताया कि 32 गुणों से सम्पन्न किसी इंसान की बलि देने पर पानी आएगा। 32 गुण वाले लोगों में राजा स्वयं एवं उनके दो पुत्र थे। राजा के आदेश पर उनके पुत्र ने उनकी बलि दी। बलि देते समय राजा का सिर कट कर पास स्थित वज्रयोगिनी मंदिर पर जाकर गिरा। राजा के पुत्र ने जिस स्थान पर उनके पिता का सिर गिरा था , स्तूप बनवाने का निश्चय किया।
स्तूप बनवाने के पहले राजपुत्र ने बलि देने का निश्चय किया। बताते हैं कि बलि के लिए मुर्गी स्वयं उस जगह तक गयी जहां आज बोधा स्तूप बना है।
उस समय तक लोग ओस की बूंदों के सहारे सूखे का मुकाबला कर रहे थे इसलिए इस जगह का नाम नेपाली भाषा के अनुसार खस्ती (खस माने ओस, ती माने बूंद) था। बाद में नेपाल के राजा की आज्ञा के अनुसार इस इस जगह का नाम खस्ती से बदलकर बोधनाथ रख दिया।
तिब्बती मिथक के अनुसार एक बुजुर्ग महिला ने कश्यप बुद्ध के निधन के बाद तत्कालीन राजा से एक भैंस की खाल के बराबर जमीन स्तूप बनाने के लिए मांगी। अनुमति मिलने के बाद उसने भैंस की खाल को पतली डोरियों के आकार में काटकर बहुत बड़े हिस्से को घेरकर अपने चार पुत्रों के साथ स्तूप बनाना शुरू कर दिया। जब उस समय के धनी और प्रभावशाली लोगों ने बुजुर्ग महिला को अपनी मेहनत और समझदारी से बड़ी जमीन पर स्तूप बनवाते हुए देखा तो उन्होंने राजा से अपनी आज्ञा निरस्त करने का अनुरोध किया। राजा ने कहा मैं अपने शब्द वापस नहीं ले सकता (नेपाली में खा-शोर) वहीं से इसका नाम (खस्ती) पड़ा।
बाद में जब तिब्बती लोग सन 1950 में नेपाल आये तो तमाम लोगों ने बोधा स्तूप के आसपास रहने का निश्चय किया। 1979 में बोधा स्तूप को विश्व धरोहर में शामिल किया गया।
उपरोक्त दोनों ही मिथकों में तत्कालीन राजाओं की प्रजावत्सलता और अपने दिए वचन पर कायम रहने की नजीर मिलती है। आज के जनप्रतिनिधियों की तरह पलटू नहीं थे वे लोग।
2015 में नेपाल में आये भूकंप में स्तूप क्षतिग्रस्त हो गया था। बाद में उसकी मरम्मत कराई गई।
जिस ऐतिहासिक धरोहर को हम ऐसे ही देखकर लौट आये उसके बारे में जानकारी चंद्रभूषण जी की टिप्पणी के बाद हुई। अगर वो सवाल न पूछते तो हम बोधा स्तूप के बारे में अनजान रह जाते।
चंद्रभूषण जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आधी गणित की पढ़ाई किये हैं। उनके स्वयं के अनुसार 'एक पत्रकार और एक अधूरे कवि' हैं। वे बेहतरीन लेखक हैं। गणित की पढ़ाई आधी छोड़ देने वाले चंद्रभूषण जी की पोस्टों में विज्ञान से जुड़ी नई से नई जानकारी मिलती हैं। समसामयिक राजनीति पर चुटीली टिप्पणियां करते हैं। पिछले साल उनकी तिब्बत पर केंद्रित किताब 'तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत' तिब्बत और तिब्बती समस्या को समझने का बेहतरीन जरिया है। किताब खरीदने का लिंक साथ के फोटो में दिया है।

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Friday, December 16, 2022

नेपाल की खुशनुमा सुबह



होटल के जिस कमरे में ठहरे थे उसकी खिड़की से बौद्ध स्तूप दिखता है। बुकिंग के समय ही एक विकल्प के रूप में मौजूद है -स्तूप की तरफ का कमरा। हालांकि पहले कभी आये नहीं थे लेकिन बताया दोस्तों ने तो वही बुक कराया था।
सुबह नींद जल्दी ही खुल गयी। सफर में अकसर ऐसा होता। जितनी भी देर से सोएं, जग जल्दी ही जाते हैं। उठकर खिड़की के पास आये। सामने स्तूप दिख रहा था। अच्छी तरह से देखने के लिए खिड़की खोलकर देखने के लिहाज से खोली तो कड़-कड़ की आवाज हुई। झांककर देखा तो खिड़की में कांच की फोल्डिंग कीलें सरीखी लगी थीं। खिड़की खोलते ही खुल गईं कीलें। 4-5 इंच लम्बी होंगी कीलें। खासतौर पर बनवाई गईं होंगी।
खिड़की पर इन कांच की कीलों का कारण बाद में समझ आया। शायद कबूतरों को खिड़कियों पर बैठने से रोकने के लिए यह इंतजाम किया गया हो। कबूतर खिड़की पर बैठकर अपने परिवार सहित गुटरगूं करते हुए बीट करके होटल गन्दा न कर पाएं इसलिए कांच की कीलों की बैरिकेटिंग टाइप की गई होगी।
सामने दिखते स्तूप पर कोई पहरेदारी नहीं थी। उसके ऊपर तमाम कबूतर दीगर पंक्षियों के साथ मस्ती और मजे से उड़ते हुए शायद होटल को चिढ़ा रहे थे कि देख बेट्टा यहां और खुली जगह है हमारे लिए। एक तुम्ही नहीं हो बैठने के आसरा हमारा।
कमरे में केतली पर पानी गरम करके चाय बनाई। पीकर चल दिए स्तूप देखने। पांचवीं मंजिल पर कमरा था। लिफ्ट से उतरे। उतरकर डाइनिंग हाल होते हुए बाहर आये। स्विमिंग पूल के बगल से गुजरते हुए पगडंडी नुमा रास्ते से होते हुए होटल के पिछवाड़े पहुंचे। वहां गेट पर दरबान था। उससे स्तूप का रास्ता पूछा और निकल लिए बाहर।
गेट के बाहर सड़क पर आते ही चहलपहल भरा जनजीवन दिखने लगा। लोग सड़क पर तेजी से, तसल्ली और हड़बड़ाते हुए आते जाते दिखे। घरों के सामने बैठे, खड़े लोग दिखे। एकाध गाय दिखी। बच्चे स्कूल जाते दिखे। स्कूल जाते बच्चे अकेले भी दिखे और साथ में भी। समूह में भी। इतनी सुबह स्कूल जाते बच्चे देखकर अच्छा लगा और हल्का ताज्जुब भी हुआ कि यहाँ स्कूल इतनी सुबह शुरू हो जाता है।
ज्यादातर बच्चे स्कूल यूनिफार्म में थे। खूबसूरत, प्यारे, चहकते, चमकते बच्चे। बतियाते, गपियाते। एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखे जाते। कुछ बच्चे साइकिल और मोटरसाइकिल पर भी जा रहे थे लेकिन ज्यादातर पैदल ही थे। किसी भी देश, समाज में स्कूल जाते बच्चे देखना सबसे अच्छे अनुभवों में से एक होता है।
गली में दुकानें ज्यादातर बन्द थीं। एकाध जनरल स्टोर उनींदे से आँख मूँदते हुए खुल रहे थे। कोई-कोई चाय की दुकान भी चहकती दिखी।
स्तूप की गली के मुहाने पर ही सब्जियों के ठेले लगे थे। जमीन पर भी दुकाने लगीं थीं। सबसे पहली ठेलिया पर एक महिला आलू और दीगर सब्जियां ठेलिया पर सजा रही थी। पीठ पर बच्चे लादे हुयी थी। पीठ पर बच्चा लादने का जुगाड़ शायद इंसान ने कंगारू से सीखा होगा। कंगारू सामने रखता है बच्चा। इंसान पीठ पर।
आगे गली में तमाम लोग बंद दुकानों के चबूतरे पर बैठे बौद्ध धर्म से संबंधित सामग्री बेचते दिखे। एक बौद्ध बीच सड़क पर बने खंभे के पास बैठा एक चपटा डमरू की तरह का बाजा बजाते हुए सामने रखी किताब से कुछ बाँचता जा रहा था। मंत्रोच्चार की तरह। बुद्ध धर्म की कोई सीख रही होगी। वह अपने काम में इतना तल्लीन था कि उसको डिस्टर्ब करने की हिम्मत नहीं हुई।
वह इंसान न जाने कितने समय ऐसा कर रहा होगा। उसकी जिंदगी में न जाने कितने उतार-चढ़ाव आए होंगे। कैसे उसने इस तरह पूजा करना और यह जिंदगी चुनी होगी इस सबके बारे में मुझे कुछ अंदाज नहीं। लेकिन अपने आप में उसकी जिंदगी एक महाआख्यान रही होगी। हरेक का जीवन अपने में एक अनलिखा महाआख्यान होता है।
आगे बढ़ने पर देखा कि कई जगह छोटे-छोटे दीपक बड़ी सी चौकोर ट्रे में रखे हुए हैं। किसी में कुछ कम किसी में कुछ ज्यादा। शायद स्तूप में पूजा के लिए इन दीपकों को ले जाते हैं। आगे मंदिर के सामने तो पूरी-पूरी ट्रे इन दीपकों से भरी दिखी। बहुत खूबसूरत था इन दीपकों को देखना।
स्तूप के सामने पहुँचने पर देखा कि सैकड़ों लोग स्तूप की परिक्रमा कर रहे थे। परिक्रमा करते हुए स्तूप की चहारदीवारी में लगे चक्र को घुमाते जा रहे थे। जगह -जगह हवन सामग्री से हवन हो रहा था। स्तूप के ऊपर पक्षी मजे उसे उड़ते हुए आनंदित हो रहे थे।
वहीं स्तूप के सामने बने मंदिर सी सीढ़ियों पर तमाम लोग बैठे चाय पी रहे थे। हमने भी एक चाय ली। महिला एक बड़े कंटेनर में चाय लिए सबको चाय पिला रही थी। 20 रुपए की एक चाय। चाय पीकर हमने महिला की फ़ोटो लेने के लिए पूछा। वह कुछ कहे तब तक साथ के आदमी ने बरज दिया -'नहीं, फ़ोटो नहीं लेना का।'
हम अपना मोबाइल नीचे करते तब तक चाय वाली महिला ने साथ के पुरुष की बात काटते हुए ह कहा -'ले लो फ़ोटो।' आदमी बेचारा चुप दूसरी तरफ देखने लगा। महिला सामने देख रही थी। हमने उसकी फ़ोटो ली। उसको दिखाई। उसने मुस्कराते हुए कहा -'बढ़िया है।'
हम भी खुश होकर आगे बढ़ गए। यह नेपाल की एक खुशनुमा सुबह की शुरुआत थी।

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Wednesday, December 14, 2022

काठमांडू में कैसिनो



‘यात्राओं में बेवकूफियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती हैं। ‘
होटल लौटते हुए बहुत पहले की यह बात फिर याद आई। लेकिन इस बार यह घटना यात्रा शुरू करने के पहले ही घट गई।
हुआ यह कि चलने के पहले होटल बुकिंग कराई तो जो पासपोर्ट में लिखा था वह लिखा -अनूप कुमार शुक्ला। आगे सरनेम का खाना था। हमने लिख दिया -शुक्ला। बुकिंग के लिए भुगतान कर दिया। बुकिंग हो गयी। नाम लिखा था -'अनूप कुमार शुक्ला शुक्ला।'
बुकिंग की तसल्ली का लुत्फ अभी पूरी तरह ले भी नहीं पाए थे कि शंका हुई कि यार यह नाम तो पासपोर्ट से अलग है। एक शुक्ला ज्यादा हो गया। बुकिंग कराने वाली साइट में लिखा था -नाम पासपोर्ट से वेरिफाई होगा। यह बात देखते ही शंका गहरी हुई कि कहीं होटल वाला घुसने न दे कि बुकिंग 'अनूप कुमार शुक्ला शुक्ला' की है और आप ‘अनूप कुमार शुक्ला’हैं। हम एक अतिरिक्त शुक्ला से मुक्त होने को बेताब होने लगे। नाम का जो अंश हमारी पहचान है वही ज़्यादा होने पर बवाल लगने लगा।
बुकिंग एजेंसी को फोन किया तो उसने बताया कि होटल वाला मान भी सकता है, मना भी कर सकता है वैसे परेशानी होनी नहीं चाहिए।
हमारे पास और कोई काम था नहीं इसलिए शंका और चिंता ही करने लगे। खाली समय चिंता की खाद-पानी होता है। हम कल्पना करने लगे कि नेपाल पहुंचे और होटल वाले ने कमरा देने से इनकार कर दिया।
साइट वाले से समस्या बताई तो उसने कहा नाम में सुधार होने में 24 से 48 घण्टे लग सकते हैं। वो लोग कर भी सकते हैं , मना भी कर सकते हैं। अजब ढुलमुल विनम्रता।
हमने सोचा कि बुकिंग कैंसल करके दुबारा करा लें। रात बारह बजे तक मुफ्त कैन्सलिंग की सुविधा थी। पता किया तो उसने बताया कि बुकिंग निरस्त करने पर पैसे हफ्ते भर में वापस आएंगे। हमने कहा कि आप नाम ठीक करवाओ, शाम तक हो गया तो ठीक नहीं तो बुकिंग कैंसल कर देंगे।
बहरहाल, दो घण्टे बाद एजेंसी के लोगों ने मेहनत करके नाम ठीक करवाया। इसके बाद कई लोगों ने पूछा -'आप हमारी सेवाओं से संतुष्ट हैं?' हमने कहा -हां। शाम तक तीन-चार लोगों ने सेवाओं से संतुष्टि की बात पूछी। सबने कहा -'फ़ीडबैक में लिख दीजिएगा।'
एक सुधार की तारीफ के तमाम तकादे। लगता है कि किसी एक काम के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने श्रेय लेने की कला इन एजेंसियों से ही सीखा है।
बहरहाल रात में जब होटल वापस पहुंचे तो देखा एक कोना थोड़ा ज्यादा गुलजार था। कुछ गाड़ियां भी खड़ीं थीं। गए तो देखा वह कैसिनो था। कैसिनो मतलब जुआघर।
कैसिनो के बाहर ही बोर्ड में लिखा था -'केवल विदेशी नागरिकों के लिए। नेपाली लोगों का प्रवेश वर्जित है।'
मतलब नेपाल में हैं लेकिन नेपाली जुआ नहीं खेल सकते। शायद ऐसा नेपाली लोगों के भले के लिए किया गया हो। देखिए नियम क्या लिखे थे:
1. प्रवेश प्रतिबंधित है।
2. नेपाल सरकार द्वारा नेपाली नागरिकों को जुआ खेलने वाले हिस्से में प्रवेश प्रतिबंधित है।
3. प्रवेश के समय परिचय पत्र (पासपोर्ट, वोटर आई डी आदि प्रस्तुत किया जाए ।
4. ड्रेस कोड : स्मार्ट कैजुअल। चप्पल और घुटन्ना पहने लोग अंदर न जा पाएंगे।
5. सुरक्षा वाले कोई भी तलाशी कर सकते हैं।
6. गोला बारूद अंदर ले जाने की मनाही है।
7. अंदर जाने वाले की सुरक्षा उसकी अपनी जिम्मेदारी है। अपने रिस्क पर अंदर जाएं।
8. अंदर कोई दुर्घटना हो जाये उसके लिए कैसिनो के लोग या नेपाल सरकार जिम्मेदार नहीं होगी।
9. मैनेजमेंट ऊपर दिए नियमों में से कोई भी कभी भी बदल सकता है।
10. कैसिनो के अंदर फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी मना है।
जुआ तो वैसे भी हमको नहीं खेलना था। कभी खेला भी नहीं , न मन क़िया। बिना मेहनत की कोई भी कमाई अंततः बर्बादी की तरफ ही ले जाती है। महाभारत जुआ का अपरिहार्य उत्पाद है। लेकिन मन किया कि देखें कि लोग कैसे खेलते हैं जुआ कैसिनो में। कैसे समाज की बर्बादी का ड्राफ्ट लिखा जाता है।
दरबान को बताया कि खेलना नहीं है, बस देखना है। जा सकते हैं?
जितने भोलेपन से हमने पूछा उससे दोगुने भलेपन से उसने कहा -'देख लीजिए। यहां इंट्री कर दीजिए। पासपोर्ट नम्बर और विवरण भर दीजिए।'
इंट्री की बात सुनते ही हमारा देखने का कौतूहल हवा हो गया। हम लौट लिए। जिस गली जाना नहीं उसके कोस गिनने से क्या फायदा? कौन सफाई देता कि खेलने नहीं देखने गए थे। तमाम लफड़े हैं शरीफ नागरिक बने रहने के। कितने कौतूहल कत्ल हो जाते हैं एक नागरिक को शरीफ बनाये रखने में। अगर 'कौतूहल कत्ल' की कोई सजा होती तो हर सभ्य समाज अनगिनत सजाएं भुगत रहा होता। वैसे देखा जाए तो भुगत तो रहे ही हैं लोग तमाम सजाएं, बस दर्ज नहीं हो रहीं।
वापस लौटकर रिसेप्शन पर आए। काउंटर पर मौजूद रिसेप्शनिस्ट से होटल और आसपास की जानकारी ली। नेपाल के बारे में भी। बात करते हुए जानकारियां अपने आप उद्घाटित होती हैं। उसकी ड्यूटी रात ग्यारह बजे तक थी। वह उस होटल की अकेली स्थायी कर्मचारी है। बाकी सब दिहाड़ी पर। रात की ड्यूटी में छोड़ने के लिए होटल का वाहन जाता है।
पास में स्थित बौद्ध स्तूप का रास्ता भी बताया महिला रिसेप्सनिष्ट ने इस हिदायत के साथ कि देर होने पर इधर से मत जाइयेगा। सुबह जाइयेगा। बताकर वह दिन भर की कमाई गिनने लगी। उसको घर जाना था।
सुबह बौद्ध स्तूप जाने की बात तय करके हम कमरे आ गए।’

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Tuesday, December 13, 2022

रात में नेपाल की सड़क



3D रेस्टोरेंट मतलब तीन बेटियों के रेस्टोरेंट से चाय पीकर लौटे तक काफी रात हो गयी थी। काफी रात मतलब करीब दस बजने वाले थे। सड़क पर केवल गाडियां थीं। सड़क के दोनों तरफ दुकानें बंद हो चुकी थीं। काफी दुकानों के साईन बोर्ड चमक रहे थे। दुकानों में काफी के नाम रोमन हिंदी में लिखे थे। लग रहा था किसी हिंदुस्तानी शहर में टहल रहे हैं।
थोड़ी दूर पर एक बौद्ध मठ के बाहर कुछ लोग खड़े दिखे। कुछ लोग मतलब 3-4 लोग। नेपाल के अलग-अलग हिस्सों से आये थे वे लोग। मठ काफी पुराना था। 69 लोग रहते हैं मठ में।
वे लोग किसी के इंतजार में थे। बात करने पर पता चला कि कोई बड़े मठ से जुड़े कोई बड़े बौद्ध आने वाले हैं। उनकी अगवानी के लिए ही खड़े थे वे लोग। हर आती-जाती गाड़ी को चौकन्ना होकर देखते। गाड़ी निकल जाने पर थोड़ा सहज होकर बतियाते, इसके बाद फिर चौकन्ना हो जाता। चौकन्नेपन और सहजता की साइकिल चल रही थी।
थोड़ी देर में एक बड़ी गाड़ी रुकी। मठ के बाहर खड़े लोग लपककर उनकी अगवानी में जुट गए। गाड़ी अंदर चली गयी। मठ का दरवाजा बंद हो गया।
जिस तरह लोग आने वाले का इंतजार कर रहे थे और जितनी भव्य गाड़ी में आये वीआईपी बौद्ध और लोग लपककर उनको अंदर ले गए और गाड़ी के अंदर जाते ही गेट बंद हो गया उसे देखकर लगा कि धर्म के मामले में तामझाम कितना बढ़ गया है। बड़ा साधु, बड़ा धार्मिक मतलब बड़ा रुतबा मतलब बड़ी गाड़ी, बड़ा प्रोटोकॉल। धर्म दिखावे की मनाही करते हैं, वही इफरात में दिखता है हर जगह।
बहरहाल, आगे बढ़े। एक तिराहे पर नेपाली पुलिस के तीन जवान ड्यूटी दे रहे थे। पता चला उनमें से एक स्थायी कर्मचारी है, बाकी दो दिहाड़ी पर हैं। चुनाव भर के लिए उनकी ड्यूटी लगाई गई है। चुनाव बाद वापस चले जायेंगे। नेपाल के अलग-अलग हिस्सों से आये थे दिहाड़ी सिपाही। अपने यहां के होमगार्ड सरीखे। पर होमगार्ड तो लगभग नियमित ड्यूटी करते हैं। लेकिन यहां दिहाड़ी सिपाही की ड्यूटी सिर्फ चुनाव भर को थी। क्या पता बाद में और कोई काम मिले।
करीब महीने भर के लिये ड्यूटी के लिए करीब 25 हजार नेपाली रुपये मिलने की बात बताई उन लोगों ने।
सिपाहियों ने बताया कि ये जो चौराहों पर ठेलिया वाले हैं उनको भी रात दस बजे तक ही अनुमति है ठेलिया लगाने की। रात दस के बाद कोई नहीं दिखेगा।
नेपाली सिपाहियों की फोटो खींचने के लिए पूछा तो मुस्कराकर खड़े हो गए। खींच ली हमने फ़ोटो।
होटल के बाहर दरबान मुस्तैद था। बातचीत से पता चला कि काफी दिन सऊदी अरब रह कर आये हैं। तबियत खराब हो गयी तो अब वापस आ गए। अब नहीं जाएंगे। वहाँ पैसा बहुत है लेकिन रहने की तकलीफ भी काफी।
नेपाल में मंहगाई की बात चली तो उन्होंने बताया कि यहां सब सामान तो बाहर से आता है। इसीलिए मंहगाई है। भारत मे मोटरसाइकिल के दाम पूछे हमसे तो हमने अंदाज से बता दिया -एक लाख रुपये। इस पर वो बोले -'यहाँ आते आते मोटरसाइकिल तीन से चार लाख रुपये मिलती है। पेट्रोल 200 रुपये लीटर है। हर सामान बाहर से आता है इसी लिए बहुत मंहगाई है।'
परेशानियों के इस एहसास के बावजूद दरबान के चेहरे पर मुस्कान थी और लहजा विनम्र। लेकिन यह तो हम देख रहे थे। हमको क्या एहसास उनकी परेशानी का। जो झेलता है वही अच्छी तरह समझता है।
दरबान से बात करके अंदर आये। होटल के अहाते में फव्वारा चल रहा था। फव्वारे के चारो तरफ रोशनी थी। पानी उछल-उछलकर ऊपर आ रहा था। थोड़ी देर रोशनी में चमकता और फिर नीचे चला जाता। जैसे स्टेज पर लोग आते है, अपना रोल अदा करते हैं और वापस मंच से चले जाते हैं उसी तरह पानी अपना रोल अदा कर रहा था।

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Monday, December 12, 2022

बेटियों का रेस्टोरेंट



पिछले महीने नेपाल जाना हुआ। दफ्तर के काम से। कानपुर से लखनऊ, लखनऊ से दिल्ली। दिल्ली से काठमांडू। सुबह दिल्ली से चलकर दोपहर के पहले काठमांडू पहुंच गए। हवाई अड्डे पर एकदम अनौपचारिक माहौल। एयरपोर्ट पर ही करेंसी बदलने के कई काउंटर थे। भारत और नेपाली करेंसी का कोई काउंटर नहीं था। पता चला कि भारत का रुपया नेपाल में चलता है, इसीलिए भारत-नेपाल करेंसी काउंटर की जरूरत ही नहीं।
हवाई अड्डे के बाहर निकल कर आये। कोई तड़क-भड़क नहीं। सादा जीवन उच्च विचार टाइप मामला। हवाई अड्डे के बाहर की इमारत देखकर लगा कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर खड़े हैं।
नेपाल पहुंचते ही पटर-पटर करने वाला फोन शांत हो गया। हमने नेपाल के लिए इंटरनेशनल रोमिंग प्लान लिया था। वह चालू नहीं हुआ था। साथ के ड्राइवर समझदार( स्मार्ट कहना ज्यादा ठीक होगा) उन्होंने फौरन अपने हॉटस्पॉट से हमको जोड़ लिया और संपर्क चालू। व्हाट्सएप से बातचीत शुरू। घर से निकलते ही बातचीत की मात्रा भी बढ़ जाती है।
होटल पहुंचकर कुछ देर आराम करके खाना खाया। दोपहर बाद काम निपटाया। देखते-देखते शाम हो गयी।
होटल में नाश्ता के अलावा एक खाने की व्यवस्था थी। शाम को सोचा बाहर खाएंगे। इसी बहाने थोड़ा घूम भी लेंगे। शाम को निकलते-निकलते आठ बज गए।
होटल के बाहर आये तो देखा सब दुकानें बंद। सड़क पर गाड़ियों के अलावा सन्नाटा। कोई दुकान खुली दिखी भी तो वह बन्द हो रही थी। नुक्कड़ पर एक ठेलिया पर कुछ नानवेज पकौड़ी टाइप बिक रही थी। पता किया तो मछली, चिकन घराने की पकौड़ियाँ थीं। एक बच्ची मोबाइल पर चैटियाती हुई अनमने ढंक से जबाब दे रही थी। दूसरी पास की फुटपाथ पर बैठी फोनालाप में रत थी। रात के सन्नाटे में अकेली लड़कियों को देखकर थोड़ा ताज्जुब हुआ। लेकिन फिर यह यह मंजर लगभग हर नुक्कड़ पर दिखा। आगे के मोड़ों पर ताज्जुब विदा हो गया। यह सामान्य बात लगी।
ठेलिया पर कुछ खाने के लिए नहीं मिला तो आगे बढ़े। मेन रोड के बगल में ही गली पर एक दुकान खुली दिखी। वहां चाय-काफी बिकती थी। हमको लगा कि चाय के साथ बिस्कुट खा लेंगे। लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि दुकान बढ़ चुकी थी। बहुत कहने पर भी वो चाय या काफी बनाने के लिए राजी नहीं हुए। आदमी और औरत दोनों बोले-'सुबह आना तब चाय पिलायएंगे।' हमने कहा -'सुबह मतलब कितने बजे?' वो बोले -'छह बजे।'
हमारे बार-बार के अनुरोध के बावजूद वो चाय बनाने को राजी नहीं हुए। अंततः हमने वहां से एक बिस्कुट का पैकेट लिया। 190 नेपाली रुपये का। मतलब हिंदुस्तानी लगभग 120 रुपये। दुकान से बाहर निकलकर देखा बगल में एक बोर्ड लगा था -'डांस बार एवं रेस्टोरेंट।' वहां अंदर से ड्रम बजने जैसी आवाज आ रही थी।
रेस्टोरेंट ने ललचाया कि अंदर जाकर खाने के बारे में पूछें। लेकिन 'डांस बार' ने बरज दिया। कौन मानेगा कि अंदर रेस्टोरेंट में खाने की तलाश के लिए गए थे, डांस बार नहीं।
आगे मुख्य सड़क के दोनों ओर सब दुकाने बन्द हो चुकी थीं। बड़े-बड़े होटल खुले थे। लगभग हर चौराहे पर नानवेज पकौड़ी वाली ठेलिया दिखीं। हम आगे बढ़ते गए। लगा कि कहीं न कहीं तो कोई चाय का या खाने का जुगाड़ दिखेगा।
आगे बढ़ते हुए हर चौराहे पर सोचते कि अगले तक जाएंगे, फिर वापस हो लेंगे। इस चक्कर में कई चौराहे पार कर गए लेकिन कोई चाय की या खाने की दुकान न दिखी। फिर भी हम बढ़ते गए।
'कोशिशें अक्सर कामयाब हो जाती हैं' शायद यही साबित करने के लिए आगे एक रेस्टोरेंट खुला दिखा। खुला क्या हो तो वह बन्द ही गया था लेकिन दरवाजा खुला था। 3 D रेस्टोरेंट। हम फौरन 'दाखिल-रेस्टोरेंट' हो गए।
रेस्टोरेंट के अंदर माहौल एकदम घरेलू सा था। एक महिला कोने में बैठी एक बड़े बर्तन में कुछ खा रही थी। पास में खड़ा एक आदमी गोद में बच्चा लिए खड़ा था। दूसरा खाना खाती महिला के पास बैठा था। तीसरा सोफे-कुर्सी पर पेट के बल लेटा हुआ मोबाइल में कोई गेम खेल रहा था।
रेस्टोरेंट बन्द हो चुका था। खाने का कोई जुगाड़ नहीं था। मना हो गया। इस पर हमने पूछा -'अच्छा चाय मिल जाएगी?' हमारी आशा के विपरीत जबाब मिला -'हां चाय बन जाएगी। ।' हम खुश हो गए। कहा -'बनवा दीजिए।'
आदमी ने अंदर जाकर शायद दुकान में काम करने वाली बच्चियों को बुलाकर चाय बनाने को कहा। बच्चियों के चेहरे उनींदे से थे। शायद अनमने भी। लेकिन अपन ने उनको नजरअंदाज किया। 'अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता' वाला गुट ज्वाइन करके चाय का पूरी बेताबी के बावजूद तसल्ली वाले भाव से इंतजार करने लगे।
कुछ देर में चाय आई। बड़े ग्लास में ऊपर तक भरी चाय। इतना कि रेलवे स्टेशन के कागज वाले चार-पांच कप भर जाएं। हमने पूरी तसल्ली से बिस्कुट के साथ चाय पी। इस बीच महिला खाना खाती रही। आदमी बच्चा खिलाता रहा। चाय बनाकर लाई बच्चियां अंदर जा चुकी थीं।
इस बीच आदमी ने बताया कि यह रेस्टोरेंट उसने नया खोला है। पांच लाख रुपये महीने किराया है। एक और रेस्टोरेंट है उनका। उससे दोनों से कुल।मिलाकर 30-35 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है।
चलते समय चाय के दाम चुकाए। साठ रुपये की चाय। नेपाली साथ रुपये मतलब 37 रुपये करीब हिंदुस्तानी रुपये।
विदा होते हुए हमने 3D रेस्टोरेंट नाम का कारण पूछा। ऐसे ही कौतूहलवश। हमें लगा कि कोई 3 ईडियट जैसा कारण होगा नाम के पीछे। लेकिन काउंटर पर खड़ी महिला ने बताया कि यह नाम उसके पिता ने रखा है। उनकी तीन बेटियां हैं। बेटियों के नाम पर उन्होंने दुकान का नाम रखा 3 D रेस्टोरेंट मतलब तीन बेटियों का रेस्टोरेंट।
कितनी प्यारी बात। बेटियों का रेस्टोरेंट। नीमा नाम है जो बेटी मिली उस दिन और जिसने सब दुकाने बन्द होने के बावजूद हमको चाय पिलवाई। इतवार को पैदा हुई थी। शायद यह भी बताया कि इतवार को पैदा हुई इसलिए बुद्धिष्ट हुए।
लौटते हुए सड़क पर लोग बहुत कम दिख रहे थे। केवल गाड़ियों की आमद। पूरा नेपाल सो रहा था। नेपाल जल्दी सोता है, जल्दी जगता है। मज़े में लोग कहते हैं -सूरज अस्त, नेपाल मस्त।
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Monday, November 14, 2022

मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे



आजकल अक्सर चीजें खोने लगी हैं। खोती हैं फिर कुछ देर बाद मिल जाती हैं। लुका-छिपी सी खेलती हैं। कोई-कोई चीज तो महीनों बाद मिलती है। जब कोई चीज बहुत दिन तक नहीं मिलती तो उसकी याद आती है। अंदाज रहता है कि कहाँ होगी। सोच कर फिर लगता है कि मिल जाएगी। अक्सर मिल भी जाती हैं। लेकिन कई बार वे चीजें दूसरी जगह मिलती है। चीजें भी छलिया होती हैं। बदमाशी करने में मजा आता है उनको।
पिछले दिनों पासपोर्ट की खोज हुई। शाहजहांपुर से कानपुर आये सामान में कहीं रखा था। सामान अभी खुला नहीं है। सामान के समुद्र में पासपोर्ट का मोती कैसे खोजा जाए। एक के ऊपर एक डिब्बे। पता नहीं किस डिब्बे में रखा है। पैक करते समय लगता है याद रहेगी जगह। लेकिन कुछ देर बाद याद फैक्स मेसेज की स्याही की तरह उड़ जाती है। लगाते रहो अंदाज।
हमारी याद में पासपोर्ट किताबों के बक्से में था। बीस-पच्चीस बक्सों में बारह-पन्द्रह मिले। बाकी डिब्बे भी गुम। जो मिले उनको खोजने पर पढ़ी, अधपढी और अधपढ़ी किताबें दिखीं। हर किताब शिकायत मुद्रा में। पढ़ी किताब कह रही थी -पढ़कर भूल गए हरजाई। अधपढी कह रही थी -मंझधार में छोड़ गए बेवफा। अनपढी किताब कह रही थी -पढ़ना नहीं था तो लिया क्यों? हर किताब को शिकायत थी -'कब तक यहां अंधेरे में डिब्बों में बन्द रहेंगे हम लोग। एक के ऊपर लदे हैं। कम से कम उजाले में रैक में तो रखो। हर किताब मानों शाप मुद्रा में घूर रही थी। गोया कह रही हो-'तुमने हमारी बेइज्जती खराब की है इसीलिए नहीं मिल रहा तुम्हारा पासपोर्ट। हमारे समर्थन में छिप गया है पासपोर्ट। आखिर वो भी तो किताब है।'
बहुत खोजने पर नहीं मिला तो सोचा अब नहीं मिलेगा। निराश हुआ जाए थोड़ी देर। लेकिन मनचाही होती कहाँ है? एक झोले को ऐसे ही देखा तो उसमें दिख गया। बदमाश आराम से बैठा दूसरे कागजों के साथ गप्पें लड़ा रहा था। हमने हड़काया -'तुमको तो किताबों के साथ होना चाहिए था यहां कहाँ छिपे हो?' बोला -'आजकल किताबों और शरीफ आदमियों के साथ रहने का चलन कहाँ। हम इसीलिए ऐन टाइम पर इधर झोले में आ गए थे। खुला रहता है। आराम है यहां।'
चपतिया के पासपोर्ट को जेब में डाला और किताबों को बॉय बोलकर वापस आ गए।
अभी पासपोर्ट खोए मिले एक दिन भी नहीं हुआ होगा कि कल सुबह-सुबह मोबाइल गुम हो गया। पासपोर्ट के साथ कुछ देर एक ही जेब में रहकर उससे गुम होने का किस्सा सुना होगा। उसको भी शौक चर्राया खोने का।
सुबह खोजने पर नहीं मिला मोबाइल तो घण्टी बजाए। रिंग पूरी गयी। लेकिन सुनाई नहीं दी। रिंग जाने से लगा कि किसी ने चुराया नहीं है। बस मोबाईल ऐसी किसी जगह है जहां हम उसे भूल गए हैं।
याद करने लगे कल कहां गए थे। पासपोर्ट खोजने गए थे वहां गए। घण्टी बजी लेकिन आवाज नहीं सुनाई दी। कार में झुककर अंदर तक खोजा। मुंडी टकराई सीट से। लेकिन मोबाइल नहीं मिला।
मोबाइल खोजते हुए एहसास होने लगा कि खो गया है मोबाइल। अब मोबाइल खोने की कल्पना करके नुकसान का अंदाज लगाने लगे। ऑफिशियल मेल खुलने का दरवाजा मोबाइल में है। उनको देखने का जुगाड़ बदलना होगा। तमाम फ़ोटो मोबाइल में हैं वो खो जाएंगे। लैपटॉप, घड़ी के पासवर्ड के लिए बच्चा फिर हड़कायेगा।
जैसे-जैसे मोबाइल मिलने में देर होती गयी, तय होने लगा कि मोबाइल गया अब। सोचने लगे कि जहां-जहां कल गए होंगे वहां भी जाएंगे यह पक्का जानते हुए भी कि वहां नहीं होगा। यह भी लगने लगा कि जिसको मिलेगा वह मेरी फोटुएं देखकर फोन करके फोन छुड़ाने की फिरौती मांगेगा। फिरौती दो नहीं तो सबको दिखा देगे ऐसी आती है फोटुएं।
मोबाईल फिरौती वाली बात वाले समय में हकीकत बन सकती है। जिस कदर लोग अपने मोबाइल में सब कुछ रखने लगे हैं उससे वह इतना प्यारा और अनमोल होता जा रहा है कि लोग मोबाइल का अपहरण करके फिरौती मांगने लगे यह बड़ी बात नहीं।
बहरहाल, फाइनली तय किया कि मोबाइल खोने की सूचना अफवाह नहीं एक सच्चाई है और निराश होने का निर्णय लिया जाय। झोला जैसा मुंह लटकाए घर वापस आये तो नजर सामने पड़े बैग पर पड़ी। अनमने मन से उसको खोला तो सबसे ऊपर मोबाइल पड़ा मुस्करा रहा था। देखकर लगा भजन गा रहा हो -'मोको कहां खोजे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।'
हाथ में चिपटाकर हड़काया उसको -"बदमाश कहीं के सुबह से खोज रहे हैं तुमको और तुम यहाँ छिपे बैठे हो। कित्ती आवाजें दी तुमको, तुम बोले तक नहीं।" मोबाइल रुंआसा होकर बोला -"बोलते कैसे? हमारा बोलती तो आधुनिक लोकतंत्र में मीडिया की तरह बन्द है। बाइब्रेशन पर धर दिए गए थे हम। तुम्हारी सारी की सारी काले हमारे पेट में हलचल मचा रहीं थीं। हर काल पर जी हो रहा था कि चिल्ला के बोलें हम यहां हैं। लेकिन कैसे बोलते। हम तो बाइब्रेशन पर थे। खुले में धरे होते तो इधर -उधर हिलते भी। यहां कागज के बीच में हिलना-डुलना तक मोहाल। हमको साइलेंट या बाइब्रेशन में रखोगे तो कैसे बोलेंगे? हमारी बोलती बंद करोगे तो ऐसे ही परेशान होंगे। "
हमने मोबाइल को पुचकारा। पास ही में धरे मोबाईल को मिलने की खुशी मनाने के लिए चाय पी। पीते हुए थोड़ी छलकाई भी। मोबाईल आराम से सामने पड़ा अपने उपयोग का इंतजार कर रहा था।
हमने मोबाईल को पुचकार कर पोस्ट लिखना शुरू किया। वो भी खुश , हम भी खुश। आप भी खुश हो जाइए -'जो होगा देखा जायेगा।'

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