Tuesday, February 28, 2023

मोबाइल चोर के बहाने



पिछले हफ्ते शाम को माल रोड से घर लौट रहे थे। पैदल। देखा कि एल आई सी बिल्डिंग के पास भागते हुए एक लड़के को कुछ लोगों ने दबोच लिया और थपड़ियाने लगे। लड़के की उम्र होगी यही कोई 14-15 साल। बाल हल्के भूरे। सीढ़ीदार स्टाइल में कटे। चेहरे से गरीब घर का ही लग रहा था।
गरीबी को इश्तहार की जरूरत नहीं होती। दूर से ही दिख जाती है।
लड़के को एक आदमी गर्दन से पकड़े था। पकड़े हुए थपड़िया रहा था। बाकी अगल-बगल घेरे हुए थे लोग। गाल पर, सर पर, पीठ पर मारते जा रहे थे। हर थप्पड़ पर लड़के की गर्दन हिल जाती थी। वह चुपचाप मार खा रहा था। लोग मार रहे थे।
सड़क पर पिटाई होते देख लोग जमा होते गए। आते-जाते कुछ लोग बिना पूछे और कुछ पूछकर लड़के को एकाध थप्पड़ जमाते जाते।
लड़के की पिटाई से सहमकर हम चुपचाप वहां खड़े हो गए। हिम्मत करके पूछा -'क्या हो गया?'
'ये मोबाइल छीनकर भाग रहा था। बहन जी का था। वो तो कहो पकड़ लिया वरना गया था मोबाइल'-लड़के का गिरेबान पकड़े हुए उसे थपड़ियाते हुए भाई साहब बोले। जबाब देने में लगे समय में जो थप्पड़ कम मार पाए वो उन्होंने बाद में तेजी से थपड़ियाते हुये लगा दिए।
इस बीच एक महिला तेजी से चलते हुए आई और आते ही पूरे गाल पर पूरी हथेली वाला थप्पड़ रसीद किया। लड़के की गर्दन घूम गयी। उन्होंने दो-तीन थप्पड़ और पूरी ताकत से मारे और फिर फोन करके किसी को बुलाने लगीं। पीटने का काम दूसरे लोगों ने संभाल लिया।
सड़क पर आता-जाता हर चौथा-पांचवा आदमी लड़के को पीटता जा रहा था। लड़का पिट रहा था। चुपचाप। कुछ बोलने की कोशिश करता तो अगले थप्पड़ में चुप हो जाता।
लोग पीटते हुए पूछ रहे थे -'साले मोबाइल चुराता है।'
इस बीच किसी ने बताया कि उसका साथी भी पकड़ गया है। उसको भी पकड़कर ला रहे हैं वहीं।
पास ही पुलिस चौकी है। महिला वहां गई। पुलिस वाले खुद वहां टहलते हुए चले आये। उनको पता चल गया कि लड़का मोबाइल चुराकर भागा था। पकड़ गया। इसीलिए लोग पीट रहे हैं।
पुलिस वाला लड़के को पकड़कर चौकी की तरफ ले गया। लोग इधर-उधर हो गए। महिला चौकी में बैठकर अपने जिसको बुलाया था , उसका इंतजार करने लगी। पुलिस कारवाई होने लगी।
पुलिस ने लड़के को एक कोने में बैठा दिया। लड़का सर झुकाए चुपचाप बैठ गया। क्या पता क्या सोच रहा हो। शायद अफसोस कर रहा हो, शायद सोच रहा हो -पकड़ कैसे गए, छूटेंगे कैसे। घर के बारे में सोच रहा हो शायद या कुछ और।
पुलिस वाले ने चौकी का दरवाजा बंद कर लिया। लोग इधर-उधर हो गए। हम भी चले आये।
आगे का किस्सा पता नहीं चला कि क्या हुआ। शायद पुलिस वालों ने पीट-पाटकर लड़के को छोड़ दिया हो। रिपोर्ट लिखी हो। लड़के को जेल भेजा हो या और कोई कार्रवाई की हो।
तीन-चार दिन पहले हुई अपने सामने घटी यह घटना बार-बार याद आ रही है। लड़का मोबाइल छीनकर भागा। पकड़ा गया। चोरी का अपराध है। पता नहीं कितनी सजा तय है इसके लिए। सम्भव है उम्र से नाबालिग हो। बाल सुधार गृह भेज दिया जाए।
सोच यह भी रहा था मैं कि अगर लड़का अदालत में अपनी चोरी कुबूल कर लेता है और कहता है -'मैंने चोरी की उसकी सजा मुझे मंजूर है। लेकिन इन-इन लोगों ने मुझे बेहिसाब पीटा। इनके खिलाफ कार्रवाई करें हुजूर।' तो अदालत क्या करेंगी?
किसी का मोबाइल आजकल बहुत जरूरी और मूल्यवान चीज हो गया है। सब कुछ मोबाइल से सन्चालित होने लगा है। मोबाइल इधर-उधर होते ही लोगों की धड़कने बढ़ जाती हैं। लेकिन उसके चोर के साथ जिस तरह की पिटाई होते देखी उसमें अगर पुलिस न आ जाती वहां तो न जाने क्या गत बनती लड़के की। क्या पता कोई नस फट जाती। बहरा हो जाता या और कोई हादसा हो जाता।
एक मोबाइल किसी की भी जिंदगी से ज्यादा कीमती नहीं होना चाहिए।
आज यह लिखते हुए मुझे ज्यां जेने की किताब ' चोर का रोजनामचा' याद आ रही है।
‘चोर का रोज़नामचा’ ज्याँ जेने की सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तकों में एक है। कथा और आत्मकथा के सटीक मिश्रण से तैयार इस पुस्तक में लेखक ने 1930 के दशक में अपनी यूरोप-यात्रा का वर्णन किया है। भूख, उपेक्षा, थकान और दुराचार को झेलते और चिथड़े पहने उन्होंने स्पेन, इटली, ऑस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड, जर्मनी आदि की यात्रा की और तत्कालीन जन-जीवन के एक उपेक्षित पहलू को अपनी भाषा में वाणी दी।
इसी सिलसिले में फिराक साहब से जुड़ा एक किस्सा याद आ गया:
"एक बार फिराक साहब के घर में चोर घुस आया. फिराक साब बैंक रोड पर विश्वविद्यालय के मकान में रहते थे. ऐसा लगता था उन मकानों की बनावट चोरों की सहूलियत के लिए ही हुयी थी, वहां आएदिन चोरियाँ होतीं. फिराक साब को रात में ठीक से नींद नहीं आती थी. आहट से वे जाग गये. चोर इस जगार के लिए तैयार नहीं था. उसने अपने साफे में से चाकू निकाल कर फिराक के आगे घुमाया. फिराक बोले, “तुम चोरी करने आये हो या कत्ल करने. पहले मेरी बात सुन लो.”
चोर ने कहा, “फालतू बात नहीं, माल कहाँ रखा है?”
फिराक बोले, “पहले चक्कू तो हटाओ, तभी तो बताऊंगा.”
फ़िर उन्होंने अपने नौकर पन्ना को आवाज़ दी, “अरे भई पन्ना उठो, देखो मेहमान आये हैं, चाय वाय बनाओ.”
पन्ना नींद में बड़बडाता हुआ उठा, “ये न सोते हैं न सोने देते हैं.”
चोर अब तक काफी शर्मिंदा हो चुका था. घर में एक की जगह दो आदमियों को देखकर उसका हौसला भी पस्त हो गया. वह जाने को हुआ तो फिराक ने कहा, ” दिन निकाल जाए तब जाना, आधी रात में कहाँ हलकान होगे.” चोर को चाय पिलाई गई. फिराक जायज़ा लेने लगे कि इस काम में कितनी कमाई हो जाती है, बाल बच्चों का गुज़ारा होता है कि नहीं. पुलिस कितना हिस्सा लेती है और अब तक कै बार पकड़े गये.
चोर आया था पिछवाड़े से लेकिन फिराक साहब ने उसे सामने के दरवाजे से रवाना किया यह कहते हुए, “अब जान पहचान हो गई है भई आते जाते रहा करो.”
अलग-अलग समय में चोरी से जुड़ी घटनाएं चोर के साथ अलग-अलग अंदाज में बर्ताव करती हैं। एक में जान-पहचान हो जाने पर आते-जाते रहने का निमंत्रण है, दूसरी में बिना जान-पहचान आते-जाते पीटने वाले लोग। यह हमारी मनोवृत्ति पर है कि हम कौन सी नजीर का अनुसरण करते हैं।

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Monday, February 27, 2023

लंच के बहाने



इस महीने की शुरुआत में एक बार फिर आयुध निर्माणी, कानपुर पहुंचे। 35 साल के कैरियर में तीसरी बार। पहली बार 30 मार्च, 1988 को नौकरी ज्वाइन करने पहुंचे थे। फैक्ट्री में काम कर चुके डीडी मिश्र अंकल ज्वाइन कराने साथ गए थे। साइकिल गेट के बाहर खड़ी करके अंदर गए थे। बाद में यहां से उड़ीसा के बोलांगीर गए थे फिर वहां से वापस शाहजहांपुर।
दूसरी बार जनवरी 2001 में आये थे। शाहजहांपुर से। अकेले आये थे। दोपहर का लंच फैक्ट्री के पास स्थित श्री भोजनालय में करते। पैदल चले जाते। बाहर फुटपाथ पर ही बेंच,कुर्सियां लगी थीं। जाते , बैठ जाते। आर्डर देते। अरहर की दाल और रोटी। आठ रुपये की दाल। एक रुपये की रोटी। ग्यारह रुपये में लंच हो जाता। खाकर टहलते हुए वापस आते। सड़क तब भी खूब चलती थी। आहिस्ते से नजारे देखते हुये लौटते। दोपहर के बाद का काम शुरू करते।
महीने भर लंच श्री भोजनालय में लंच किया। घर वाले कहते थे -'मोटा गए हो।'
इस बार फिर गए पहले दिन श्री भोजनालय। 22 साल बाद। भोजनालय में भीड़ थी। इस बीच ऊपर की मंजिल भी बन गयी है। नीचे भीड़ थी। नीचे धूल-धक्कड़ भी थी। हमको ऊपर की मंजिल पर जाने को कहा गया। गए। एक बन्द , कम रोशनी वाले, हाल में कुछ लोग खाना खा रहे थे। हम भी एक मेज के सामने पड़ी कुर्सी में बैठ गए।
मीनू कार्ड मंगाया। सबसे पहले दाल के दाम देखे। आठ रुपये वाली दाल 135 की हो गयी थी। रोटी एक रुपये बढ़कर 15 रुपये पहुंच गई थी। मन नहीं हुआ खाने का। एक मसाला डोसा खाकर चले आये। लंच हो गया।
सर्विस करने वाला बच्चा आठ-दस साल पहले यहां आया था। उसको इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि उसके यहां 22 साल पुराना ग्राहक आया है। उसने पूछा -'और कुछ लेंगे या बिल ले आएं।' हमने बिल चुकाया। कुछ टिप और वापस हो लिए।
लौटते में सड़क किनारे एक ठेले पर पराठे बिकते दिखे। दस रुपये का एक पराठा। आलू भरा। दो खा लेते तो पेट भर जाता। श्री भोजनालय के 165 रुपये , ठेले के 20 रूपये के बराबर। तुलना बेमानी है लेकिन मानव का सहज स्वभाव तुलना करने का। जितने की वहाँ टिप दी उतने में यहां आधा लंच हो जाता। यह बात अलग की अलग कि खड़े-खड़े खाना होता। उतना सहज भी नहीं रहते शायद। बाजार आपको कई तरह से प्रभावित करता है। बहुत शातिर होता है। अपने ही खिलाफ भड़काता है।
पराठे बेलते हुए अशोक सिंह ने बताया कि सुबह नौ बजे से दोपहर बाद तीन बजे तक सब सामान बिक जाता है। घर में आठ दस लोग हैं। सबका गुजारा चल जाता है। हमको दोहा याद आ गया:
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय,
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए।
जब यह दोहा लिखा गया होगा तब साधु लोगों की बड़ी इज्जत होती होगी समाज में। आज साधुओं के बारे में कुछ कहने में संकोच होता है। पता नहीं कौन पहुंचा हुआ निकल जाए।
ठेले वाले पराठे स्पेशल थे। दुकान के मालिक अशोक सिंह। मोबाइल नम्बर भी लिखा था। आपको खाना हो तो मंगा सकते हैं।

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Monday, February 20, 2023

मोबाइल मरम्मत की मशक्कत



मोबाइल का कैमरा खराब हो गया है। मोबाइल बेकार लगने लगा। बातचीत के लिए इस्तेमाल होने वाला उपकरण बातचीत के अलावा होने वालों काम के लिए उपयोग इतना अधिक आने लगा है कि जीवन के तमाम कामकाज इस मोबाइल पर निर्भर हो गए हैं। मोबाइल पर निर्भरता इतनी बढ़ गयी है कि इसके बिना काम चलना मुश्किल लगने लगा है।
सर्विस सेंटर में दिखाया। उन्होंने कहा -'कैमरा अभी है नहीं। दस दिन में आने के चांस हैं। तब तक मोबाइल जमा करना होगा।'
हमने कहा -'दस दिन जमा करने के बजाय आप कैमरे के पैसे जमा कर लो। जब कैमरा आएगा, बदलवा लेंगे।'
वो नहीं माने। बोले-'हमारी कम्पनी की पॉलिसी के हिसाब से मोबाइल जमा करना होगा।'
अब बताओ भला अपने प्यारे मोबाइल को दस दिन के लिए अकेले कैसे छोड़ दें। बिना नेट कनेक्शन के, किसी अंधेरे कोने में पड़े-पड़े मोबाइल बेचारे का तो दम घुट जाएगा। इतना इंतजार तो मोहब्बत के मारे भी आजकल नहीं करते। इंतजार बड़ा बवालिया काम है।
हमने यह भी पूछा कि मोबाइल के पार्ट मंगाने में इतना समय क्यों? आप रखते क्यों नहीं साथ में।
वो बोले-'पुराना हो गया मोबाइल। इसकी रिपेयरिंग के पार्ट मुश्किल से मिलते हैं।'
हमको लगा कि इस मामले में मोबाइल और समाज एक जैसे हो गए। जैसे-जैसे पुराने होते जाते हैं उनकी मरम्मत मुश्किल होती जाती है। मरम्मत के पुर्जे बनने बन्द हो जाते हैं। बिना मरम्मत के टूटे-फूटे ही काम चलता रहता है।
हम मोबाइल लिए-लिए बाहर आ गए। सागर मार्केट बगल में है। सागर मार्केट कानपुर में मोबाइल रिपेयर का महासागर है। सैकड़ों दुकानें हैं मोबाइल रिपेयरिंग की, सामान की, एसेसरीज की। हर दुकान का दावा ऐसा कि बस वही सही दुकान है। कानपुर की सबसे सस्ती होलसेल और रिटेल की इलेक्ट्रॉनिक मार्केट है सागर मार्केट।
रास्ते में जगह-जगह मोबाइल रिपेयरिंग और लैपटॉप रिपेयरिंग सिखाने के इश्तहार वाली दुकानें, गुमटियां भी दिखीं। कुल मिलाकर लगा किसी मोबाइल रिपेयरिंग विश्वविद्यालय में टहल रहे हैं। मन किया कि रिपेयरिंग का काम सीखकर यहीं कहीं गुमटी डाल लें और मोबाइल रिपेयरिंग का काम शुरू कर दें। गुमटी को चर्चा में लाने के लिए ऑफर लगा दें -'मोहब्बत करने वालों के मोबाइल की रिपेयरिंग मुफ्त में।' पता चला दुकान में सारा काम मुफ्त का ही आएगा। हर मोबाइल धारी आएगा कहेगा -'मोहब्बत है लेकिन एकतरफा।' कोई कहेगा -'तुम मोबाइल बनाओ यार, हम रिपेयरिंग तक मोह्हबत करके सबूत दिखाएंगे।'
बहरहाल सागर मार्केट में दिखाया फोन तो एक ने दूसरे के पास, दूसरे ने तीसरे के पास भेजा।इस तरह पांचवे तक पहुंचते हुए ज्यादा समय नहीं लगा। अगले ने बताया कि कैमरा रिपेयर हजार रुपये और बदलने के पंद्रह सौ लगेंगे। हमने कहा -'बदल ही दो।'
उसने मोबाइल को गरम किया। खोला। बताया कि इसकी पट्टी भी खराब हो सकती है। कोशिश करते हैं। ठीक होनी चाहिए। अगर ठीक हुई तो चलेगा नहीं तो नहीं। बता दिया पहले इसलिए कि बाद में आप बहस न करें।
हमें लगा कि क्या हो गया है अपने देश को। हर आदमी बहस से कतराने लगा है। बिना बहस कैसे काम चलेगा।
मजबूरी में हमने बात मान ली उसकी। यह सोचते हुए कि बहस करने का मन बनेगा तो करेंगे ही। कौन एस्टेम्प पेपर पर लिख कर दे रहे हैं कि बहस नहीं करेंगे।
मोबाइल खुलने के बाद पता चला कि घन्टा भर लगेगा। हमने कहा -'कोई बात नहीं हम इंतजार करेंगे।'
इंतजार करने में कौन हमारी जेब से कुछ जाता है। इंतजार हमारे खून में है। बेमियादी इंतजार। भले ही लोहिया जी 60 साल पहले कहें हो कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती। लेकिन दुनिया की तमाम कौमें न जाने कब से इंतजार कर रहीं हैं। इंतजार करते-करते न जाने कितनी पीढियां गुजर गयीं। इंतजार जारी है। हम भी करेंगे। डरते थोड़ी हैं इंतजार करने से।
मोबाइल खुला तो उसके अनगिनत पार्ट इधर-उधर जुड़े दिखे। किसके तार किससे जुड़े हैं और उसका काम क्या है , समझना मुश्किल। हमारे लिए तो नामुमकिन। देखते रहे मोबाइल पर चिमटियां चलते।
रिपेयर करने वाले परवेज सागर मार्केट के पहले गुमटी धारकों में से एक हैं। सोलह-सत्रह साल पहले आये थे यहां। तब कुछेक दुकानें ही थीं। अब सैकड़ों दुकानें हो गयीं। शुरआत में मोबाइल मंहगे होते थे। रिपेयर का काम खूब चलता था। अब मोबाइल सस्ते हो गए। काम कम हो गया।
क्राइस्टचर्च से ग्रेजुएट परवेज मोबाइल संभालते हुए बता रहे थे गुमटी का किराया 22 हजार महीना है। कुल जमा दो आदमियों के बैठने की जगह। हर साल किराया बढ़ जाता है। मुश्किल है लेकिन मजबूरी और ज्यादा है। मजबूरी मुश्किल पर हावी है।
घण्टे भर की मेहनत के बाद परवेज ने बोला -'सॉरी, ठीक नहीं हो पाया। पट्टा खराब है।' पट्टा मतलब मोबाइल के कैमरे को सिग्नल देने वाला पट्टा। मोबाइल बांध के हमको थमा दिया। इतनी देर की मजदूरी की भी बात नहीं की।
हमने कहा -'पट्टा मंगवा लो। लगा दो। ठीक करो।'
परवेज ने बात की। दिल्ली। बोले -'मगंल को आएगा पट्टा।' हमने कहा -'कोई बात नहीं। मंगल को आएंगे।'
परवेज ने कहा -'कुछ पैसे एडवान्स जमा करने होंगे।' हमने कर दिए। परवेज ने हमारा नम्बर लेकर हमको व्हाट्सअप पर मेसेज भेजा। इतने रुपये एडवान्स लिए । विजिटिंग कार्ड पर अलग से लिखकर दिया।
हम लौटते हुए सोच रहे थे कि यार हिंदुस्तान में सैकड़ों दुकानें दिखीं रिपेयर की। अमेरिका में एक्को दुकान न दिखी मोबाइल रिपेयर की। वो लोग सिर्फ नया बेंच पाते हैं। पुराना सुधार नहीं पाते।
सुधारने में मेहनत लगती है। अमेरिका में मेहनत की कीमत ज्यादा है। इसीलिए वो लोग मरम्मत पर ज्यादा भरोसा नहीं करते। खराब हुआ बदल डालो।
बहरहाल, अब मंगलवार का इंतजार है।

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Sunday, February 19, 2023

किराया तक नहीं निकला



कल शाम निकले। एक मोबाइल दिखाना था। उसका कैमरा बोल गया है। फोटो नहीं खींचता। न ही वीडियो बातचीत में शक्ल दिखाता है। बहुत दिन से बकाया था काम। हर बार सोचते शनिवार को दिखाएंगे। कई शनिवार निकल गए। मोबाइल बिना कैमरे के ही चलता रहा। हर बार लगता कि बिना कैमरे के मोबाइल किस काम का।
सर्विस सेंटर पास ही था तो पैदल ही निकले थे। गाड़ी से जाने में यह बवाल कि गाड़ी खड़ी कहाँ करेंगे। घर से निकलने पर लगा कहीं सर्विस सेंटर बन्द न हो जाये। यह लगते ही बगल से गुजरते ई रिक्शा को हाथ दिए। हाथ देते ही वह रुक गया। बैठ गए आगे ही। ड्राइवर के बगल वाली सीट ही खाली भी थी। बाकी फुल थी।
बैठते हुए लगा कि यह सुविधा अमेरिका में नहीं है कि सड़क चलते गाड़ी को हाथ दो और बैठ जाओ। वहाँ सब कुछ एप्प भरोसे है।
बैठने के बाद ड्राइवर ने पूछा -'जाना किधर है?' हम बताए कि नोरोना चौराहे जाना है। जहां तक जाओ चले चलेंगे। वो बोला -'सिविल लाइंस जा रहे हैं। अगले चौराहे पर उतार देंगे। वहां से मुड़ना है हमको।'
हमने कहा -'ठीक।'
पैदल चलते तो चौराहा पहुंचने में पांच मिनट लगता। 200-300 मीटर दूर होगा। लेकिन अब जब बैठ गए तो बैठ गए।
ई-रिक्शा के हैंडल पर लगे मीटर में 65-70 लुपलुपा रहा था। शायद करेंट का नाप होगा। दूसरे मीटर में बैटरी का हिसाब था। कितनी बची यह बता रहा था मीटर।
बतियाने लगे तो ड्राइवर ने बताया कि 12 बजे निकला था। साढ़े चार घण्टे हो गए चलाते हुए। अभी तक किराया नहीं निकला है। साढ़े चार सौ रुपया किराया है ई रिक्शा का। दो घण्टे की बैटरी बची है। इसके बाद खड़ा हो जाएगा रिक्शा। सिविल लाइंस से वापस आकर खड़ा कर देंगे चार्जिंग के लिए। अगर न चार्ज किया और कहीं बैटरी खत्म हो गयी तो अकेले धकियांना पड़ेगा रिक्शा।
हमने पूछा -'चार-पांच घण्टे में ही चार्जिंग खत्म हो गई?'
वो बोला -'कुछ पूछो न, सब ऐसे ही है।'
इतना बतियाते हुये हुए चौराहा आ गया। ई रिक्शा वाले ने हमको उतार दिया। हमने पहले से निकाल कर रखा दस रुपये का सिक्का थमा दिया उसको। हमको लगा फुर्ती से वो पांच रुपये वापस करेंगे। पांच रुपये ही दिए हैं पहले इस इलाके की सवारी के।
लेकिन हमको उतार कर अगले ने सिक्का जेब में डाला और कहा -'ठीक।' हमने सोचा पूछें कि पांच रुपये पड़ते थे। अब दस हो गए क्या ? लेकिन हमको उसकी बात याद आ गयी-'किराया तक नहीं निकला अभी तक।'
हम ' ठीक' कहकर आगे बढ़ गए।
काफी देर तक सोचते रहे कि इस तरह अनगिनत लोग रोज छोटे-मोटे काम करते हुए, मेहनत मजदूरी करते हुए जिनमें कई बार उनकी लागत तक नहीं निकलती समाज में जी रहे हैं। बिना किसी शिकवे-शिकायत के। अपना संतुलन बनाये हुए हैं।
और भी बहुत कुछ सोचते रहे। फिर सोचते-सोचते सो गए। अभी लिखते हुए बहुत पुरानी तुकबंदी याद आ गयी:
नर्म बिस्तर,
ऊंची सोचें
फिर उनींदापन।

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Monday, February 13, 2023

एडजस्ट करना पड़ता है



पूना से सुबह निकले। फ्लाइट सबेरे की थी। होटल छोड़ते समय काउंटर पर आए तो देखा स्टॉफ किसी से फोन पर बात कर रहा था। फोन के दूसरी तरफ वाला उसको हड़का रहा था। उसके कमरे की कोई समस्या थी शायद।
काउंटर वाला आहिस्ते से उसको समझाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन उधर से हड़काई जारी थी। इस पर काउंटर वाले ने यह भी कहा -'आप इस तरह गुस्से में बात करेंगे तो हमारा मॉरल डाउन होगा है। हम ठीक से काम कैसे करेंगे।'
किसी के द्वारा डांटने पर मनोबल गिरने की बात तो सही है लेकिन डांटे जाने पर यह तर्क यह देते हुए किसी को पहली बार सुना।
अगले ने काउंटर क्लर्क की शिकायत करने की धमकी की। इस पर उसने भी कहा -'आप बेशक करिये शिकायत। हम भी आपकी कम्पनी को आपके व्यवहार के बारे में लिखेंगे।'
पता चला दूसरी तरफ किसी विमान कम्पनी का कोई कर्मचारी था। कनेक्टिंग फ्लाइट के समय तक इंतजार करने के लिए होटल में रुकने आया होगा। मनमाफिक सुविधा न मिलने पर झल्ला रहा था।
उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि कहीं इसी गुस्से में जहाज चलाते हुए कहीं जहाज न भिड़ा दे। गुस्से में आदमी नमूना हो जाता है। यह अलग बात कि उसको अपना नमूमापन दिखता नहीं और वह गुस्से में किये व्यवहार को अपना आभूषण समझता है।
होटल से निकलकर एयरपोर्ट आये। सड़क साफ थी। जल्द ही पहुंच गए एयरपोर्ट पर। लाइन में लग गए अंदर आने के लिए। आगे एक लड़का लगा था। उसकी पहली हवाई यात्रा थी। पूछ रहा था -'अंदर जाने के लिए यहीं लगना होता है।'
पता चला बच्चा पूना में काम करता है। उसके पिता की नागपुर में अचानक मृत्यु हो गयी थी। घर जा रहा था। बड़ा लड़का है घर का। चेहरे पर चिंता और बड़े होने की जिम्मेदारी दोनों के भाव थे। लाइन में लगे-लगे बात करते रहे उससे।
पूना से दिल्ली और दिल्ली से लखनऊ आये। लखनऊ से कानपुर आते हुए बनी के पास ढाबे में चाय पी। समोसा साथ में।
बनी के पास का यह ढाबा बहुत चलता है। कानपुर से लखनऊ आते-जाते लोग यहाँ चाय-पानी-नाश्ता करते हैं। बैठने की व्यवस्था सड़क किनारे। धूल-धक्कड़ के बीच लगी मेज़ कुर्सियाँ। ग्राहकों की भीड़। इधर-उधर की गन्दगी को अनदेखा करके , खाते -पीते आते जाते लोग।
दुकान के बाहर ही गाजर का हलवा बिक रहा था। बड़ी सी परात में मुक्त अर्थव्यवस्था की तरह खुले में रखा हलवा। चार ठो अगरबत्ती भी ठूँसी हुई थी हलवे में। अगरबत्ती की राख अलबत्ता बाहर की तरफ़ गिर रही थी। चारो तरफ़ से उड़ती धूल भी आराम करने के लिए हलवे की परत के रूप में जमती जा रही थी।
चाय पीते हुए टहलते हुए ऊपर की तरफ़ गये जहां खाने का सामान बन रहा था। वहाँ तो विकट माहौल। बीस-पच्चीस लोग समोसा , रसगुल्ला , कचौड़ी बनाने में जुटे थे। वहीं दूध फाड़कर छेना बनाया जा रहा था। सब ज़मीन पर सिलेंडर रखे। बीच-बीच में पानी भी जमा था। उसी पानी के बग़ल में बैठे लोग सब खाने का सामान बनाने में जुटे थे। पानी छत से चूता दिखा। हमने वहाँ काम करते हुए लोगों से पूछा -‘इतनी गंदगी में कैसे काम करते हो तुम लोग ? सब तरफ़ पानी जमा है। फिसलन है। इसे साफ़ क्यों नहीं करते?’
अधिकतर लोगों ने मेरे अहमक सवाल को नजरंदाज करते हुए अपना काम जारी रखा। एक ने मेरी तरफ़ बिना देखे संत मुद्रा में जवाब दिया -‘ऐसे ही चलता है काम। सब एडजस्ट करना पड़ता है।’
हम कुछ कह नहीं पाए। हमारी चाय ख़त्म हो गई थी। हम चुपचाप नीचे उतर आए। हमारे देखते-देखते ऊपर काम कर रहे लोगों ने ढेर सारा गन्दा पानी सीधे नीचे फेंका। कुछ छींटे हमारे ऊपर भी पड़े। लेकिन हम कुछ बोले नहीं यह सोचकर कि जब सब लोग एडजस्ट कर रहे हैं तो थोड़ा हम भी एडजस्ट कर लेंगे तो क्या बिगड़ जाएगा।
दुनिया में तमाम घपले-घोटाले, अराजकता और दुर्व्यवस्था फैली हुई है। लेकिन कोई कुछ कर नहीं पा रहा है। सबको एडजस्ट करने का अभ्यास हो गया है। एडजस्ट करना पड़ता है।
आपको भी अगर कुछ बुरा लगा हो तो नजरअंदाज करके एडजस्ट करिये। थोड़ा तो एडजस्ट करना पड़ता है।

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Sunday, February 12, 2023

अमेरिका से वापसी



अमेरिका से वापस आ गए? कब आये? अभी अमेरिका में हो या इंडिया में? कब वापसी होगी ? बाईडन से मिले कि नहीं?
आजकल फोन या मुलाकात होने पर हर तीसरा दोस्त इसी घराने के सवाल पूछता है। तीसरा इसलिए क्योंकि बाकी दो लोग पहले ही यह पूछ चुके होते हैं।
कितने दिन रहे, कहाँ-कहाँ गए बाकी के सवाल होते हैं। अमेरिका के बाद जब पूना की पोस्ट लिखी तो सवाल उठा -'अमेरिका के गोल्डन गेट से सीधा पूना आ गए। आने का किस्सा लिखा ही नहीं।'
फेसबुक पर लिखना इस तरह हो गया हो गया कि हमारी हाजिरी यहीं होने लगी। जिस जगह के बारे में लिखा फेसबुक हमारी उपस्थित वहीं लग जाती है।
पिछले दिनों जो लोग मिले उनमें से कई लोगों ने बताया कि वे नियमित पढ़ते हैं हमारी पोस्ट। हमको ताज्जुब हुआ कि क्या वाकई इतने लोग पढ़ते हैं। लेकिन जब लोगों ने पोस्ट्स का जिक्र करके बताया तो मान गए। मानना पड़ा।
अमेरिका हम गए थे पिछले साल 25 दिसंबर को। लौटे 28 जनवरी को। इस दौरान सैनफ्रांसिस्को और उसके आसपास घूमे। कुछ के बारे में लिखा। कुछ बाकी है। लिखेंगे जल्द ही। कई किस्से बाकी हैं। आहिस्ते-आहिस्ते लिखेंगे।
पिछली बार तीन साल पहले जब गए थे अमेरिका तो उसके संस्मरण छपाने की बात सोची थी। नाम भी तय हो गया था -'कनपुरिया कोलम्बस।' अब इस यात्रा के भी किस्से भी जमा हो गए। देखिए कब तक आती है किताब।
लगता यह भी है कि किताब छपेगी तो क्या लोग खरीदेंगे, पढ़ेंगे! किताब खरीदकर पढ़ने का चलन कम है अपने यहां। है भी तो सेलिब्रिटी लेखकों तक।
अमेरिका से अब अपने देश आ गए। यहाँ के किस्से लिखे जाएंगे अब। अमेरिका में घूमते हुए लगा था कि अपने शहर के हर हिस्से को कायदे से देखा जाए। जाना जाए। हम लोग अक्सर पूरी जिंदगी बिता देने के बाद भी अपने शहर से अपरिचित, अनजान रह जाते हैं।
अब अपना शहर जमकर घूमना है। आप भी अपने शहर का चप्पा-चप्पा छानिये। शहर और आप दोनों खुश होंगे।
इस बीच हमारे छोटे सुपुत्र अनन्य Anany अपनी कंपनी फिरगुन ट्रैवेल्स के पहले विदेशी दौरे पर आजकल थाइलैंड के दस दिन के टूर पर निकले हैं। 22 लोगों के साथ। ट्रिप लीडर के रूप में यह उनका पहला विदेशी टूर है। अभी शुरुआत हुई है। ऐसे अनेक दौरे होंगे अब तो। आप भी निकलिए कहीं घूमने। अच्छा लगेगा।
अपडेट: टिप्पणी बॉक्स में घुमक्कड़ी के लिए उकसाता हुआ अनन्य का लिखा और उनके मित्र अर्जित आनंद का कंपोज़ किया और गाया गीत -निकल बेवजह।
Firguntravels.com में कंपनी के बारे में तथा जिन लोगों यात्रायें की उनके अनुभव पढ़िए।

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Tuesday, February 07, 2023

पुणे की चमकदार सुबह



कल पुणे आये। शाम को आते ही मुनिशन्स इंडिया के कारपोरेट आफिस गए। आयुध निर्माणी बोर्ड के कई साथियों से बात हुई। मुनिशन्स इंडिया का खुला-खुला, खिला-खिला, आफिस देखकर हाल ही में अमेरिका में देखा गूगल का आफिस याद आया। तुलना की कोई बात नहीं लेकिन याद आना कोई अपराध भी नहीं। 🙂
गूगल आफिस के तमाम फोटो लिये लेकिन अपने ही मुनिशन्स इंडिया का कोई फोटो न ले पाए। फिर सही।
शाम को कॉलेज के साथी-सीनियर शुक्ला दम्पति से मुलाकात हुई। बातों में इतना डूबे कि फोटो खींचने की याद ही नहीं आई। चलते समय वापस आकर फोटो खींची गईं। Jyoti Shukla कभी कविताएं भी लिखतीं थीं। अब तो खाली पढ़ने और तारीफ करने वाली उदार पाठिका भर रह गईं हैं। सुकुल जी की हॉस्टल के तिमंजिले कमरे में बातों के साथ घोंटकर पिलाई काफी फिर याद आई।
सुबह-सुबह बेटे Anany का घुमक्कड़ी के लिए उकसाता वीडियो देखा -निकल बेवजह। (वीडियो लिंक कमेंट बॉक्स में ) वीडियो का असर हुआ और चाय के लिए होटल के गर्म पानी और टी बैग के इंतजाम को ठुकराकर बाहर चाय पीने निकले। सड़क पार चाय की कई दुकानें थीं। यह सीन अमेरिका में मिस किया। लपक लिए सड़क पर करने को।
लाल सिग्नल होने के कारण ट्राफिक रुका था। लेकिन कुछ स्कूटी सवार जल्दी में थे। वे सिग्नल को अनदेखा करके सरपट भागे। मानो छोटे बच्चों पर टिकट न लगने की तर्ज पर छोटी गाड़ियों पर ट्राफिक नियम नहीं लगता।
चाय की कई दुकानों में से एक पर बेंच लगी रही फुटपाथ पर। 'भट्टी चाय' दुकान का नाम। चाय कटिंग के दाम 7 रुपये और फूल चाय के दाम दस रुपये। फूल चाय का ग्लास भी कटिंग जैसा ही दिखा। गुलिवर को लिलिपुट के लोगों की तरह छोटे ग्लास । चाय के साथ बिस्कुट और बातचीत का आनंद लिया। यह बतरस भी अमेरिका में दुर्लभ था।
भट्टी चाय वाले ने बताया कि उसकी आठ ब्रांच हैं पुणे में। कई जगह के नाम गिनाए। हम सुनते गए, भूलते गए। सात साल से चालू दुकान पर करीब 300 चाय की बिक्री हो जाती है रोज।
बगल में अखबार की गुमटी। हिंदी अखबार लिया -नवभारत। दाम छह रुपये। बहुत दिन बाद पैसे देकर अखबार खरीदा। घर में अखबार आता है। महीने में भुगतान होता है। याद नहीं कितने का आता है। लेकिन यहां छह रुपये का अखबार देखकर ऐसा लगा जैसे बहुत दिन बात कोई मित्र/रिश्तेदार का बच्चा मिले और उसको देखकर लगे -'अरे इतने बड़े हो गए बेटा।'
अखबार बेंचने वाले रामचन्द्र साठे फुटपाथ पर झाड़ू लगा रहे थे। बोले -'साफ सफाई तो रखना होता है न।' बताया कि कोरोना के बाद अखबार की बिक्री कम हो गयी।'
सड़क पर गाड़ियां तेज गति से भाग रहीं थीं। तेज भागती गाड़ियों को देखकर कल एयरपोर्ट पर सामान आने में देरी पर कही बात याद आई। बैगेज कलेक्शन में उसका बैग देर तक इंतजार करने के बाद भी नहीं आया तो बोली -'यहां पुणे में सब कुछ धीरे चलता है।'
हमने उससे कहा-'तुम्हारी बात से कोई पुणे निवासी मराठी मानुष नाराज हो सकता है।'
वह बोली -'कोई नाराज नहीं होगा। मैं खुद मराठी हूँ।'
बात की बात से याद आया कि कल प्लेन से उतरते हुए एक लड़का अपने दोस्त से कह रहा था -'दफ्तर में लोग काम बढ़ाते जाते हैं, तनख्वाह कभी नहीं बढ़ाते।' उसके बयान में अंतरंग चलताऊ गालियां भी थीं वो आप अपने हिसाब से सोच लीजिए।
सुबह हो गयी। सूरज भाई खिड़की से झांककर कह रहे हैं - 'उठो समय हो गया। निकलो काम पर।'
हम निकल रहे हैं। आप मजे से रहिए।

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Monday, February 06, 2023

गोल्डन गेट पुल के आस-पास

 




गोल्डन गेट पुल पर पहुंचकर हम लोग वेलकम सेंटर पहुंचे। वेलकम सेंटर पर गोल्डन गेट से सम्बंधित तमाम सामान बिक रहा था। फोटो एलबम, किताबें, स्मृति चिन्ह आदि। हमने उन सामानों को देखा। ललचाये भी कुछ को देखकर। लेकिन उनकी कीमतों ने हमको खरीद से बचा लिया।
वस्तुओं के दाम भी हमको बचत में सहयोग करते हैं। बचत बढ़ाने के लिए चीजों के दाम अधिक होने चाहिए। जहां भी मंहगाई अधिक है, वहाँ मंहगाई के लिए जिम्मेदार समझे जाने वाले लोग इस तर्क का उपयोग कर सकते हैं।
वेलकम सेंटर से कुछ दूरी पर ही गोल्डन गेट पुल है। हम लोग पुल की तरफ बढ़े। रास्ते में तमाम लोग जगह-जगह पुल को साथ में लेकर फोटो खिंचाने में लगे हुए थे। जबसे पुल बना होगा तब से करोड़ों अरबों लोग पुल को देख चुके होंगे, इसके साथ फोटो खिंचा चुके होंगे। पुल बिना किसी भेदभाव के सबके साथ फोटो खिंचवा चुका होगा।
पिछली बार, तीन साल पहले, जब आये थे पुल देखने तो पुल कुछ शरमाया हुआ सा था। काफी देर तक कोहरे की चादर में मुंह छिपाए रहा। दिखा ही नहीं। जब सूरज भाई को पता चला तो आये और कोहरे की चादर को हटाया। पुल का मुखड़ा दिखा।
इस बार ऐसा कुछ नहीं था। पुल परिचित था। खिली हुई धूप में खुलकर मिला।
पुल पर टहलते हुए लोग फोटोबाजी में व्यस्त थे। पिछली बार छुट्टी का दिन था शायद । सुबह का समय भी। लोग पुल के पास साइकिलिंग और जॉगिंग करते हुए दिखे थे। कुछ लोग किसी दौड़ में भाग भी ले रहे थे। इस बार शाम का समय होने के कारण लोग आराम मुद्रा में टहल रहे थे।
तीन महिलाएं आपस में बतियाती हुई फोटोबाजी कर रहीं थीं। बुजुर्ग थीं लेकिन मस्ती कालेज में पढ़ती सहेलियों वाले अंदाज में कर रहीं थीं। भाषा समझ नहीं आ रही थी लेकिन भाव बिंदास घराने के ही थे।
पुल पर गाड़ियां धड़-धड़ करती हुई निकल रहीं थीं। दुष्यंत कुमार जी का शेर याद आया:
तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।
यहां पुल पर रेल नहीं गाड़ियां गुजर रहीं थी। पुल भी थरथरा नहीं रहा था। धड़-धड़ कर रहा था। जिस हिस्से से गाड़ी गुजरती वह हिस्सा धड़ से बोलता और गाड़ी आगे निकल जाती। मानों पुल गाड़ी के निकल जाने की मोहर लगाकर गाड़ियों को आगे धकेल रहा हो।
हवा तेज चल रही थी। धूप बढिया खिली हुई थी। दूर एक तरफ आर्कताज जेल और दूसरी तरफ सैन फ्रांसिस्को की इमारतें दिख रहीं थीं। उनको देखकर लगा कि ये इमारतें भी एक तरह की खुली हुई जेल सरीखी ही हैं जहां लोग अपने को अपनी मर्जी से बन्द करके रहते हैं। काम करते हैं, जीते हैं, खुश रहते हैं, दुखी होते हैं। छटपटाते हैं लेकिन यहां से निकलने की सोचते ही कांप जाते हैं। सुख-सुविधा का जाल ऐसा ही होता है। विनोद श्रीवास्तव जी की कविता सरीखा:
पिंजरे जैसी इस दुनिया में
पंछी जैसा ही रहना है,
भरपेट मिले दाना-पानी
फिर भी मन ही मन दहना है।
इमारतों में सबसे ऊंचा पैंसठ मंजिला सेल्सफोर्स टावर था। उसके आसपास की इमारतें उसके सामने चिल्लर जैसी लग रहीं थीं। सेल्सफोर्स आमतौर पर कर्मचारियों का हित देखने वाली और पारिवारिक माहौल कंपनी मानी जाती थी। यहां इस बार कई हजार लोग निकाले गये। निकले हुए लोगों को कैसा महसूस होता होगा अब इस टावर को देखकर, कहना मुश्किल है।
पुल की रेलिंग ऊंचाई तक जाली से ढंकी थी। लोग पुल से कूदकर आत्महत्या की कोशिश करते हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए ही रेलिंग ऊंची और जाली से ढंक दी गयी है।
नीचे पानी में कुछ लोग तैर रहे थे। ऊंचाई के कारण उनको देखकर ऐसा लग रहा था कि पानी में मछलियां तैर रही हैं।
पुल पर टहलते हुए, लोगों और नजारे को देखते हुए हम लोग पुल के बीच तक गए। वहां पुल के बारे में जानकारियां और उदघाटन के विवरण लिखे हुए हैं। उनको देखते हुए हम वापस लौटे।
पुल देखकर लपकते हुये रेस्टरूम गए। रेस्टरूम साफ-सुथरा था। मुफ्तिया सार्वजनिक रेस्टरूम पर ऐसी साफ-सफाई हमारे लिए भले ताज्जुब का कारण हो लेकिन यहां के लिए सामान्य बात है।
इसके बाद एक बार फिर फोटोबाजी का दौर चला। अकेले, साथ में और अलग-अलग पोज में फोटो खींचे गए।
फोटोबाजी के बाद मन किया कुछ खाया-पिया जाए। खाने-पीने की बात चलने के बाद वहां मौजूद एक रेस्तरां की तरफ देखा। रेस्तरां की तरफ बढ़ते हुए जेब में हाथ डाला तो बटुआ , जिसमें फॉरेक्स कार्ड, क्रेडिट कार्ड और नकद रुपये थे, नदारद मिला। पहले तो लगा किसी ने मार दिया। ऐसा तो अपने यहाँ भीड़ में होता है। यहां खुले में हो गया। लेकिन फिर याद आया चलते समय पर्स रखना भूल गए थे। साथ में आये लोगों सारी निगाहें हमको लापरवाह बता रहीं थीं।
हमको याद आया हमारे फोन में गूगल पे एप है। हमने रेस्तरां में जाकर पूछा -'यहां गूगल पे से भुगतान होता है?' उसने माफी मांगते हुए बताया -'गूगल पे यहां नहीं चलता।' हमको लगा क्या अजीब बात है। जहां गूगल का मुख्यालय है वहीं गूगल का एप गूगल पे नहीं चलता है। मायूसी और खुशी के कॉकटेल वाले भाव के साथ वापस आ गए। मायूसी एप के न चलने की थी, खुशी एप के न चलने से पैसे बचने की थी। पैसा बचाया मतलब पैसा कमाया। कितना कमाया यह पता नहीं।
तब तक शाम हो गई थी। सूरज भाई विदा ले रहे थे। विदा होने से पहले वो पानी में नहा रहे थे। हम भी लौटने का मन बना लिए।
लौटने के लिए टैक्सी बुलाई। फौरन आ गयी। इस बार ड्राइवर साहब तुर्की के थे।नाम था हसन। पढ़ाई के साथ काम करनेवाले। एक दिन पहले तुर्की के क्रांतिकारी जनकवि नाजिम हिकमत का जन्मदिन था। हमने बातचीत शुरू करने के लिए लिहाज से नाजिम हिकमत का नाम लिया-' नाजिम हिकमत तुर्की के थे।' ड्राइवर ने थोड़ा चहकते हुए कहा -'ओह नाजिम द ग्रेट , रिवोल्यूशनरी पोयट्। एस्टरडे वाज हिज बर्थडे।' कुछ और भी बातें हुईं क्रांतिकारी कवि के बारे में। उसकी बातों से ऐसा नहीं लगा कि उसको साहित्य में कोई खास रुचि होगी। लेकिन नाजिम हिकमत और उनके जन्मदिन के बारे में पता था उनको।
हमको लगा कि परदेश में रहने वाले अपने देश के किसी आम आदमी को अपने देश के किसी कवि के जन्मदिन के बारे में क्या इतनी सहज जानकारी होगी? शायद नहीं। क्या पता शायद हो भी।
तुर्की के कमाल पाशा के बारे में भी उसने कुछ सम्मानजनक बातें कहीं। कमाल पाशा अपने देश के क्रांतिकारी स्व.रामप्रसाद बिस्मिल से इतना प्रभावित थे कि तुर्की के एक शहर का नाम 'बिस्मिल' रखा। जबकि अपने यहां शाहजहांपुर में जहाँ बिस्मिल/उनका परिवार रहता था वह जगह जस की तस है। खाली उनके घर की तरफ जाने वाली सड़क के द्वार पर उनका नाम लिखा बोर्ड लगा है। शहर में अलबत्ता उनकी मूर्ति जरूर लगी है उनके साथी शहीदों अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह के साथ। अपने शहीदों को याद करने का यही तरीका है अपना।
इस बीच ड्राइवर का फोन आया। उसने हमसे पूछकर बात की।
लौटते हुए शाम हो गई थी। सड़क पर ट्राफिक ज्यादा था लेकिन जाम कहीं नहीं। सिर्फ रफ्तार कम हो गयी थी गाड़ियों की। चल वो अपनी लेन में ही रहीं थीं। लोग घरों को लौट रहे थे। महिलाएं और पुरुष दोनों थे लौटने वालों में। हमको वसीम बरेलवी साहब का शेर याद आ रहा था जिसमें उन्होंने घरवालियों को समझाया था:
थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीकामंद शाखों का लचक जाना जरूरी है।
यहाँ शाखें और परिंदे दोनों घर लौट रहे थे। कौन लचकेगा। शायद वो जो पहले लौटे। तब शायद शेर इस तरह पढा जाए:
थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें,
जो पहले लौट आये, उसका लचक जाना जरूरी है।
बहरहाल हम गाड़ी पर थे। थके नहीं थे। घण्टे भर में करीब घर पहुंच गए। गोल्डन गेट ब्रिज की तीन साल बाद यह हमारी दूसरी यात्रा थी। इस बीच पुल भले ही 3 साल और पुराना हो गया था लेकिन उसकी खूबसूरती और बढ़ गयी थी।

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