Sunday, February 26, 2006

जेहि पर जाकर सत्य सनेहू

http://web.archive.org/web/20110908120138/http://hindini.com/fursatiya/archives/109

जेहि पर जाकर सत्य सनेहू

सीताहरण के बाद रामचन्द्रजी एकदम मजनू नुमा अंदाज में बिलख रहे थे। भगवान होने के बाद भी मानव अवतार में होने के कारण पत्नी वियोग में बिलख रहे थे। बौराये से पशु-पक्षियों तक से पूछ रहे थे:-
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी,
तुम देखी सीता मृगनयनी।

आगे सीता द्वारा गिराये गये कुछ गहने मिले। लक्ष्मण उन गहनों में से केवल पैर में पहने जाने आभूषण पहचान पाते हैं। बाकी के आभूषण नहीं पहचान पाते क्योंकि वे आदर्श देवर की भांति सीता को मां मानते थे तथा उनके चरणों के अलावा कभी कुछ देखा ही नहीं था।
यह लक्ष्मण का सीता से संबंधित चीजें पहचानने का लिटमस टेस्ट था।
आज के देवर को अगर अपनी भाभी से संबंधित चीजें पहचानने को कहा जाये तो शायद तमाम ऊपर की तथा अंदरूनी चीजें भी पहचान ले।
समय के हिसाब से टेस्ट तथा आदर्श बदलते रहते हैं।
स्वामी विवेकानंद जी जब शिकागो अमेरिका में अपने ज्ञान का डंका पीटने के बाद भारत लौटे तो सागर तट से देश की धरती को देखकर भाव विभोर हो गये। जहाज से समुद्र में कूद  पड़े तथा तैरते हुये तट पर पहुंचे। कन्याकुमारी में आज भी वह जगह विवेकानंद स्मारक के रूप में प्रसिद्ध है।
यह दो शताब्दी पहले की भावुकता थी जब बहुत कम लोग बाहर जाते थे।
आज बाहर आना-जाना बढ़ गया है। लोग आते हैं तो देश के लिये सारा प्रेम लेकर आते हैं। यह प्रेम गलत जगह न पहुंच जाये इसलिये लोग अपने अपने लिटमस टेस्ट करते हैं देश को पहचानने का।
सबसे मुफीद लिटमस टेस्ट है पटरियों के किनारे लोगों को शौच क्रिया करते हुये देखने का। वह खिड़की से नज़र बाहर डालता है देखता है कि पटरी किनारे कुछ गठरियां सर नीचा किये बैठी हैं फौरन वह पहचान जाता है हां यही है हमारी भारत भूमि जहां अभी भी लोग उसी तरह निपटते हैं जिस तरह सालों पहले निपटते थे। उसे चैन आ जाता है कि वह सही जगह उतरा है । टिकट बरबाद नहीं गया।

मातृभूमि को शिनाख्त करने का यह लिटमस टेस्ट करते समय विकसित देश का प्रवासी अर्जुन की तरह एकनिष्ठ भाव से केवल पटरी के किनारे की गन्दगी पर नजर रखता है।  पटरी के दोनों तरफ भरे बसंत के मौसम में खिले सरसों के पीले फूल के झांसे में नहीं आता। पागल से कर देने वाले फूलों के सौन्दर्य को अनदेखा कर देता है। झरने की तरह ट्यूबबेल से निकलते पानी के चक्कर में नहीं पड़ता । जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह उग आये मोबाइल टावरों से विचलित नहीं होता। क्रासिंगों पर तमाम तरह की गाड़ियों के जाम से भ्रमित नहीं होता। लगभग हर हाथ में मोबाइल से उसका ध्यान भंग नहीं होता । वह एक निष्ठ भाव से पटरी के किनारे की गंदगी निहारता रहता है।
विकासशील की सुविधाओं के सहारे विकसित देश पहुंचने वाला प्रवासी जब वापस लौटकर आता है तो देश को उसकी गंदगी के सहारे पहचान लेता है। हां ,यही है हमारा प्यारा देश जहां अब भी लोग पटरियों के किनारे निपटने की सांस्कृतिक धरोहर को बचाये हुये हैं।
इसके अलावा तमाम दूसरे टेस्ट भी हैं जिनके सहारे वो अपने देश को पहचानता है। लोग भीख मांगते हैं। सरकारी दफ्तरों में लालफीताशाही है। क्लर्क बदतमीज हैं। आदि-इत्यादि। इन्हीं झरोखों से देश दर्शन का काम किया जाता है।
हम चूंकि देश में रहते हैं लिहाजा यह सब शायद अखरना बंद हो गया है। या अखरता भी है तो लगता है कि हम कर क्या सकते हैं सिवाय देश के कर्णधारों को कोसने के! कोसना वैसे भी सबसे आसान काम है। हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा।
देश को जब हम कोसते हैं तो सबसे ज्यादा देश के नेताओ को कोसते हैं- वे भ्रष्ट हैं,अनपढ़ हैं,बेईमान हैं। लेकिन यह भी उतनी ही सोचनीय बात है कि क्या ईमानदार लोगों को राजनीति में आने से रोक लगी है? पढ़े-लिखे ,ईमानदार जब राजनीति में नहीं आयेंगे तो अनपढ़,बेईमान का क्या दोष? वे तो जगह देखकर अपना तंबू तानेंगे ही।
पहली पीढ़ी के प्रवासी भी आमतौर पर प्रतिभावान तथा मेहनती ही होते हैं। अपनी प्रतिभा तथा मेहनत से जब वे विकसित देशों में सेवायें देते हैं तो वहां पैसा मिलता तथा गांव जवांर में नाम। लेकिन जब वे बाहर जाते  हैं तो देश की प्रतिभा में कुछ तो गिरावट आयेगी ही न!काबिलियत में कुछ तो कमी होगी जरूर। सो भइये जब गिरी काबिलियत के बावजूद देश अपनी गंदगी का स्तर बनाये हुये है तो यह तो उपलब्धि मानी जानी चाहिये।
देश में तमाम कुलियों को भिनभिनाता हुआ देखना अजीब लगता है लेकिन यह सच है। जब कोई काम नहीं होगा तो काम की मारामारी होगी ही। हर आदमी तो भाग रहा है। हर शख्स प्रवासी है। गांव से लोग नगर को भाग रहे हैं। नगर से महानगर को।महानगर से विदेश।  जहां भी जाता है तो जब लौट के वापस अपनी जगह आता है तो पाता है कि हाय कुछ नहीं बदला या कितना कम बदला माहौल!
बहरहाल यह तो भइये अपनी-अपनी दृष्टि है। आप किस चीज में क्या देखना चाहते हैं। जो देखना चाहते हैं वो पा लेते हैं:-
 जेहि पर जाकर सत्य सनेहू,मिलहि सो तेहि नहिं कछु संदेहू।
जो लोग विकसित देशों में हैं वे स्वाभाविक रूप से उन देशों का अपने देश से तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। तमाम बातों में अपना देश पिछड़ा होगा,कुछ में बहुत पिछड़ा होगा। अध्ययन के बाद विसंगतियां ज्यादा दिखती होंगी अपने देश में। उनको वे स्वाभाविक रूप से लिखते होंगे।
कोई भी समाज विसंगति विहीन नहीं होता। हर समाज में विसंगतियां होंती हैं। कहीं कम कहीं ज्यादा!लेकिन एक आश्चर्य होता है कि मैंने किसी भी प्रवासी के लेखन में जहां वह रह रहा है वहां की विसंगतियों का जिक्र नहीं देखा। इससे एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जहां वे रह रहे हैं वहां उनको कोई विसंगति नहीं दिखती,या उस समाज में उनकी पैठ केवल अच्छे सेवक की ही है तथा ज्यादा तांक-झांक की मनाही है!या डर है कि ज्यादा उचके तो कान पकड़कर निकाल बाहर किये जायेंगे?
बहरहाल बात हो रही थी पटरियों के किनारे की गंदगी की। यह वह पथप्रदर्शक बिंदु है जिससे विकसित देश से आया हुआ प्रवासी अपने देश को झट से पहचान लेता है। जैसे पहचान पत्र में लिखा होता है -नाक के बायें चेचक का दाग,ओंठ के नीचे तिल आदि। वैसे ही प्रवासी पहचान लेता है-पटरियों के पास गंदगी,दीवार पर नामर्दी तथा नपुंसकता दूर करने के विज्ञापन।
मुझे ज्यादा पता नहीं है लेकिन लोग बताते हैं कि भारत से अगर गंदगी,गरीबी मिट जाये तो प्रवासियों का आधा लेखन टें बोल जाये। उनका आधा से ज्यादा लेखन गंदगी,गरीबी की बैसाखियों पर टिका है।
मैं फिर भटक रहा था कि याद आया कि हम गंदगी के बारे में बात कर रहे थे।
दुनिया का हर विकसित देश भारत की खुले में निपटने की आदत से त्रस्त है। बहुत खराब आदत है। हर विकसित देश का मन करता है कि भारत को एक बहुत बड़ा शौचालय बना दिया जाये जहां देशवासी आराम से कमोड में बैठकर निपटें तब तक ये इसे निपटा दें।
खुले से खुला देश भी जहां हर तरह की नंगई व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर जायज है,भारतीयों की खुले में निपटने की आदत से परेशान है।
हम भी मानते हैं कि खुले में गंदगी करना बहुत खराब बात है।
लेकिन आज मैं इस प्रवृत्ति का कारण सोच रहा था। मुझे लगा कि अइसा कौन सा कारण है कि वो भाई लोग कभी खुले में नहीं निपटते तथा ज्यादातर भारतीय बाहर ही निपट पाते हैं।
कोई न कोई कारण जरूर होगा । ऐसा तो है नहीं कि सारी सफाई की पढ़ाई वही किये हैं अउर हम बुरबक रहें हैं।
कारण जो मुझे समझ में आया वह मौसम का है। ज्यादातर विकसित देश ठंडे हैं। वहां अगर लोग खुले में निपटने लगें तो निपटान के पहले ही निपट जायें। कनाडा जैसे देश में जहां तापमान शून्य से बहुत नीचे रहता है वहां खुले में गठरी बन के बैठे आदमी तो ठठरी बन जाये। सो मजबूरी में वह बंद कमरे में निपटता है। यही कारण है कि वहां निटपने के बाद धोने के बजाय पोंछने का चलन है। पानी ठंडा होता है न!
इसके उलट भारत उष्ण कटिबंधीय देश है। नदियां,तालाब,बावड़ी बहुतायत में हैं। जीवनस्थितियां कठिन नहीं हैं। जहां मन आया बस गये। जहां मन आया निपट लिये।
यह खुले में निपटना हमारे देश की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है। बंद में काम करना ठंडे देश के लोगों की। किसी भी देश के आचार व्यवहार में देश की जलवायु,प्राकृतिक संसाधनों का बहुत बड़ा योगदान होता है।
महात्मा गांधी तक ने खेतों में निपटना जायज ठहराया था। उन्होंने तो बाकायदा लेख लिखकर बताया था कि किस तरह गढ्ढा खोदकर मल त्याग करना चाहिये ताकि उसका खाद के रूप में प्रयोग किया जा सके तथा गंदगी भी न फैले। लेकिन गढ्ढा खोदने का काम मेहनत का है- कौन करे!लिहाजा सफाई का गढ्ढा खुद जाता है।
बनारस में तो बहरी अलंग अर्थात गंगा किनारे (पार) निपटने की प्रक्रिया बहुत प्रचलित है। इस दिव्य निपटान के तमाम विवरण काशीनाथ सिंह ने अपने संस्मरणों में किये हैं।
मेरा इस लेख में तमाम गंदगी आ गई । यह ‘प्रेशर’ बना अतुल श्रीवास्तव का  लेख । यह न समझा जाये कि मैं गंदगी के समर्थन खड़ा हूं। मुझे लगता है कि देश में गंदगी के अलावा भी बहुत कुछ देखने को है। गंदगी भी देखें लेकिन उसके पीछे कारण भी देखे। गांव से लोग शहर भाग रहे हैं-रोजी की तलाश में। वहां सर छिपाने को जगह नहीं तो निपटने के लिये पटरियां नहीं तो क्या ‘टाइल्ड टायलट’ नसीब होंगे?
देश की सरकारें भी अकर्मण्य भले हों लेकिन इतनी बेदर्द नहीं कि गंदगी फैलाने वाले गरीब,बेसहारा लोगों की उस तरह लिचिंग कर दे जिस तरह अमेरिका में मूल निवासियों रेडइंडियन की तथा कुछ दशकों पहले तक नीग्रो लोगों की होती रही।
फिर जो तबका परिवर्तन का वाहक होता युवा,बुद्धिजीवी वह देश से सुरक्षित दूरी बना कर देश के विकास का काम मल्टीनेशनल को आउटसोर्स करके देश के बारे में चिंतन कर रहा है,अरण्य रोदन कर रहा है।
यह कुछ उसी तरह से है कि जो हाल बंटाई पर उठी खेती का होता है। जिसके लिये घाघ कवि ने कहा है:-
जो हल जोतै खेती वाकी
और नहीं तो जाकी ताकी।

(खेती उसी की अच्छी होती है जो खुद जुताई करता है।)
लेकिन अगर हम खुद जुताई में जुट गये तो गंदगी का हिसाब कौन रखेगा?
गंदगी में वैसे भी खाद बनने  संभावनायें सर्वाधिक होती हैं।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

17 responses to “जेहि पर जाकर सत्य सनेहू”

  1. Raman Kaul
    बहुत ही अच्छा लिखे हैं फुरसतिया जी। बिलकुल सही है – जब गाँव वाला शहर की तरफ़ भागेगा तो गाँव कैसे बदलेगा? और फिर सब जगहों में अपने हिस्से की गन्दगी है, और अपने हिस्से की सुन्दरता। अपनी अपनी नज़र है।
  2. Hindi Blogger
    भाई साहब, हल्के-फुल्के स्टाइल में गंभीर लेखन के लिए बधाई!
    आपकी शिकायत वाज़िब है. मैं भी ऐसे कई एनआरआई को जानता हूँ जिन्हें शिकायत है कि भारतीयों में सिविक सेंस नहीं है. (प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक भारत में इस गुण की कमी होगी, विश्वास नहीं होता.) इसी तरह कुछ एनआरआई-जनों को शिकायत है कि दिल्ली-मुंबई के हवाई अड्डों पर सिक्यूरिटी के नाम पर तंग किया जाता है. (पता नहीं ऐसी ख़बरें उनके आँखों के आगे से क्यों नहीं गुजरती जिसमें सुरक्षा के नाम पर अमरीकी हवाई अड्डों पर भारतीय नेताओं के धोती-कपड़े उतरवाने का ज़िक्र होता है.)कइयों को तो भारत के मौसम से भी एलर्जी है. (ख़ास कर धूल-धक्कड़ का ज़िक्र ख़ूब होता है, मानो ये भी भारत की भौगोलिक स्थिति के बज़ाय यहाँ के निवासियों, सरकार या नेताओं के कारण हो.)
    वैसे फ़ुरसतिया जी, सच कहें तो ये शिकायतें एनआरआई-जनों की ही नहीं रह गई है, बल्कि भारत में ही रह कर भारत को कोसने वालों की संख्या अपेक्षाकृत कहीं ज़्यादा है.(लाखों की संख्या में ऐसे भारतवासी मिल जाएँगे जिनकी दलील है कि देश में कुछ साल के लिए तानाशाही लागू हो जानी चाहिए…भ्रष्टाचार मिटाने के लिए नहीं, बल्कि लोगों को अनुशासन सिखाने के लिए!)
    भइये, सीधी-सी बात है कि कोई भी समाज परफ़ेक्ट नहीं है. कोई भी शहर विकास के अंतिम स्टॉप पर नहीं पहुँचा है क्योंकि विकास तो एक सतत प्रक्रिया है, कभी ख़त्म नहीं होने वाली प्रक्रिया. हर जगह उन्नीस-बीस(या सोलह-इक्कीस)का अंतर होता है. हर जगह अच्छे, बुरे, चालाक, चिरकुट आदि भाँति-भाँति के लोग निवास करते हैं- भारत-नेपाल में भी और अमरीका-ब्रिटेन में भी.
    देश से बाहर रहने पर ज़्यादा देशप्रेमी हो जाना बिल्कुल ही स्वाभिवक बात है. ठीक उसी तरह जैसे घर-परिवार से दूर रहने वालों को अपने परिजनों की कमी ज़्यादा महसूस होती है. देश की कमियों पर खीझना भी स्वाभाविक ही है. अपनी कमियाँ गिनाना बंद करने की भी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि इसका किसी न किसी रूप में लाभ ही मिलता है. लेकिन आज जबकि पूरी दुनिया भारत को एक उभरती महाशक्ति के रूप में देख रही हो तो आलोचना का स्वर थोड़ा मद्धिम ज़रूर ही किया जा सकता है.
  3. अनुनाद
    अनूप जी , आपका यह लेख एक जटिल भारतीय रोग का सटीक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है | आपको इस समस्या का रूपक “जापर जेकर सत्य सनेहू …” में मिला है | मै इसको यों देखता हूँ कि एक ही “वस्तु” को लोग अलग-अलग कारणों से “खोजते” हैं :
    चरन धरत चिन्ता करत, चितवत चारहुँ ओर |
    सुबरन को खोजत फिरत , कवि व्यभिचारी चोर ||
    मेरा विचार है कि रेल की पटरियों के किनारे “निपटते” लोगों को देखकर कोई उसका सरल और व्यावहारिक हल खोजे , यह अधिक महत्वपूर्ण है | अर्थात समस्या को निहारिये और परखिये ; लेकिन उसका कोई हल सुझाने की कोशिश करने के उद्देश्य से |
    अनुनाद
  4. Manoshi
    अनूप जी, आपकी बात बहुत ठीक है। जहाँ तक विदेश में लोग वहाँ की आलोचनायें नहीं करते, तो मुझे नहीं लगता कि नहीं करते, करते हैं, मगर हाँ, अपने देश को ज़्यादा करते हैं ( घर की मुर्गी दाल बराबर)। जैसा मैंने पहले भी कहा है लखनवी जी के पोस्ट पर कि हम ही हैं जो दो-चार साल बाहर रह कर ही विदेशी राग आलापने लगते हैं। हर देश की अपनी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ होती हैं, मगर बाहर आने के बाद हमें सिर्फ़ अपने देश की बुराइयाँ नज़र आती हैं। comparision हो जाना स्वाभाविक है मगर अब हर छोटी चीज़ भी खटकना तो सिर्फ़ ज़बर्दस्ती का दिखावा है।
    पूरा पोस्ट सही है मगर आपके लेख की शुरुआत का लेख से ठीक ठीक संपर्क नहीं समझ पाई। आज के देवर भाभी के रिश्ते को इस तरह generalize कर देना गलत लगा। कोई और उदाहरण दिया जा सकता था।
  5. प्रत्यक्षा
    बडा करारा लिखा है , सही भी.
    विसंगतियाँ हर समाज में होती हैं डिग्री और तरीके का फर्क हो सकता है.वैसे भी हर समाज/संस्कृति/सभ्यता का साइक्लिक प्रोग्रेशन होता है. आज जो ऊपर है वो कल नीचे भी जायगा ही.यही विकास का अनवरत, शाश्वत नियम है.
  6. रजनीश मंगला
    फ़ुरसतिया जी, मुआफ़ कीजिए आपकी ये वाली पोस्ट अभी पढ़ी नहीं क्योंकि मैं पढ़ने में बहुत धीमा हूं। शायद अभिव्यक्ति पर ये आपका ही व्यंग है।
    http://www.abhivyakti-hindi.org/vyangya/2006/kuchh.htm
    मुझे अच्छा लगा छपाई वाले डालने के लिए। क्या ये युनिकोड में मिल सकता है? धन्यवाद।
  7. जीतू
    लेख तो सही लिखे हो, लेकिन बहुत भटकाव लेकर। शुरु कहाँ से किया, कहाँ कहाँ जाकर घुमाया और कहाँ ले जाकर पटका। लगता है, लेख लिखते समय घर के काम भी साथ साथ निबटा रहे थे। चलो अच्छा है, एक पंथ दो काज।
    लगे रहो। और साइकिल की हवा भरवाई कि नही?
  8. निठल्ला चिन्तन » जाने भी दो यारों
    [...] एक के बाद दूसरा जब विसंगति की बात करने लगा तो हमें लगा क्‍यों ना हम भी अपनी ढपली बजा बहती गंगा में हाथ धों लें। अब सवाल यही था कि नाक को पकड़ा कैसे जाय, पहले ने सीधा पकड़ा सब को दिख गया तो लगे सब गलियाने, दूसरे ने थोड़ा समझदारी दिखायी हाथ पीछे घुमाकर नाक पकड़ी कुछ दिखा कुछ नही, संदेह का लाभ मिला वाही वाही ले गये। दोनों लेख के गर्भ में सार एक ही छुपा था बस अंदाजे बयाँ अलग। उस्‍ताद लोग थे अपनी कहानी आसानी से कह गये, हम से दोनों में ही कमेंट देते ना बना, समझ ना पाये गलियायें या वाही वाही दें। सोचा नाक पकड़ने के इस क्रम को क्‍यों ना आगे बड़ाया जाय। मामला साफ था बात हो रही थी देश की आर्थिक उन्नति और सामाजिक अवनत्ति को लेकर। [...]
  9. अतुल श्रीवास्तव
    किसी भी समाज की उन्नति तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि उस समाज के लोग अपनी आलोचनाओं को खुले दिमाग से स्वीकारना ना सीख लें – भले ही वो अलोचना स्वयम के ही व्यक्ति ने क्यों न की हो. मुझे ये कहते हुये तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होती है कि विदेश भ्रमण ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है और साथ ही ये भी बताया है कि भारत की एक सच्ची उन्नति के लिये सबसे अधिक आवश्यक ये है कि हम थोड़ा अपने सोचने के नज़रिये को बदलें. लगता है हम लोग मोबाईल के टावरों और विदेशी कारों के नीचे असलियत को दबाने की कोशिश कर रहे हैं.
    जहाँ तक NRIs के सोचने के ढंग को कोसने का सवाल है तो आप जी भर के कोसिये – पर उससे पहले मेरे जैसे कई NRIs की तरह http://vibha.org और http://ashanet.org जैसी संस्थाओं में कुछ करिये. लगता है कभी उत्तर प्रदेश के पिछ्ड़े जिलों में नही गये हो. मैंने कई वर्ष बिताये हैं प्रतापगढ़ और जौनपुर जैसी कई जगहों में – दो तीन दिन वहाँ बिता कर आओ फिर बात करेंगे मोबाईल, पिज़्ज़ा हट और चमकीली कारों की. और हाँ यदि वहाँ जाने का कार्यक्रम बने तो साथ में पीने का पानी और बैट्री वाला पंखा अवश्य साथ में ले जाना. यदि और भी हिम्मत हो तो शाहजहाँपुर से बस में बैठ कर लखीमपुर खीरी जाने का भी लगे हाथ कार्यक्रम बना डालना.
    आक्रोश के लिये क्षमा चाहता हूँ, पर मैं भारत को अभी भी उन्ही छोटे जिलों में ढूँढता हूँ जहाँ मैंने सर्वाधिक वर्ष व्यतीत किये हैं – और उन क्षेत्रों में कोई खास बदलाव नहीं आया है. लिखना आसान है – और आजकल तो करना भी बहुत आसान है – चलिये कुछ कर भी लिया जाये:
    http://vibha.org
    http://ashanet.org
  10. अतुल श्रीवास्तव
    एक बार फिर से आ टपके: भैय्या मैंने कहीं भी अपने लेख में अमरीका की भारत से तुलना नहीं की और न ही अमरीका को ध्यान में रख कर ये सब लिखा. रही ये बात कि हर न्रि (NRI) भारत में आकर सिर्फ गन्दगी ही ढूँढता है, तो थोड़ा सा खुलासा कर दूँ -
    बिल्कुल सहमत हूँ कुछ लोगों के कथन से कि न्रि भारत की बुराईयाँ ही देखते हैं – पर ये प्रतिशत कोई बहुत ज्यादा नहीं है. मैं स्वयम कई न्रि को जानता हूँ जो भारत और भारतीयों को निम्न दृष्टि से देखते हैं और इतनी हीन भावना से ग्रसित होते हैं कि अपना नाम तक बदल लेते हैं – तो भैय्या मैं ऐसे लोगों को किसी भी तरह का भारतीय नहीं मानता हूँ (वैसे इस तरह के प्राणियों की संख्या अब भारत में भी काफी बढ़ रही है – जब भी दिल्ली के तथाकतिथ उन्नतिशील इलाके में जाता हूँ तो कान अच्छी हिन्दी सुनने को तरस जाते हैं).
    दूसरी तरफ मेरे जैसे कुछ बावले हैं जो शायद भारत को उस रूप में देखना चाहते हैं जहाँ मानवीय पीड़ा कम हो – सभी के पास मूल सुविधायें (जैसे कि साफ सफाई, अच्छी सड़कें, बत्ती, पानी और उत्तम चिकित्सा) बिना किसी हो-हुज्जत के उपलब्ध हों. और, जब कई सालों के बाद भी जब वो नहीं दिखता है तो बस मन यही पूछता है – कहाँ है उन्नति?
    और हाँ अमरीका की बुराईयाँ देख कर खुश न हों क्यों कि इससे भारत की वास्तविक उन्नति पर कोई असर नहीं पड़ता है. अपनी बुराईयाँ बताये जाने पर दूसरों की बुराईयों की ढपली पीटना या उनका उदाहरण देना defense mechanism कहलाता है.
    यदि शाहजहाँपुर से लखीमपुर 50 बार उ.प्र.रा.प.नि. की बस में बैठने के बाद भी कभी मन में ये सवाल नहीं आया कि पिछले 25 सालों में ये बस और सड़क अभी तक क्यों नही सुधरीं – तो शायद लोग उसी के योग्य हैं.
  11. अतुल श्रीवास्तव
    एक बात तो लिखना ही भूल गया. http://vibha.org और http://ashanet.org का NRI और कंप्यूटर ज्ञान से कुछ लेना देना नहीं है. एक बार इन साईटों पर जाने का कष्ट करें. आशा के संस्थापक संजय पांडे लखनऊ में ही रहते हैं – मेगासेसे पुरुस्कार से सम्मानित किये जा चुके हैं और किसी जमाने में वो भी एक न्रि थे :)
  12. safat alam
    मानवता के मार्गदर्शन हेतु हर युग में ईश्वर ग्रन्थ अवतरित करता रहा सब से अन्त में अवतरित होने वाला ग्रन्थ पवित्र क़ुरआन है जो मानव के कल्याण हेतु अवतरित हुआ है, इस का सम्पूर्ण मानव जाति के लिए है। कृपया इस के सम्बन्ध में अवश्य पढ़े http://safat.ipcblogger.com/blog/?cat=4
    धन्यवाद
  13. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 1.अति सूधो सनेह को मारग है 2.हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती 3.आपका संकल्प क्या है? 4.वनन में बागन में बगर्‌यो बसंत है 5.मेरे अब्बा मुझे चैन से पढ़ने नहीं देते 6.जेहि पर जाकर सत्य सनेहू [...]
  14. lighting wholesalers
    मेरे पड़ोसी और मैं बस इस विशिष्ट विषय पर चर्चा कर रहे थे , वह की खोज में आम तौर पर मुझे गलत दिखाने . इस पर आपका विचार अच्छा है और वास्तव में मैं वास्तव में महसूस कैसे है. अब मैं बस उसे इस वेबसाइट मेल ऑनलाइन करने के लिए उसे अपने व्यक्तिगत दृश्य दिखा . पर अपने वेब साइट मैं ebook के रूप में चिह्नित है और संभावना फिर से आ रहा होगा करने के लिए अपने नए पोस्ट पढ़ने की कोशिश कर रहा के बाद !
  15. outdoor lighting manufacturers usa
    हे – अच्छा ब्लॉग , बस कुछ ब्लॉगों के चारों ओर देख , एक काफी अच्छा मंच है आप उपयोग कर रहे हैं प्रकट होता है . मैं वर्तमान में मेरी वेबसाइटों के एक नंबर के लिए Drupal में का उपयोग कर रहा हूँ , लेकिन निश्चित रूप से एक मंच पर तुम्हारा करने के लिए बहुत ही एक परीक्षण चलाने के रूप में ज्यादा उनमें से एक को बदलने की मांग . कुछ भी विशेष रूप से आप इसके बारे में सुझाव चाहते हैं ?

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Friday, February 24, 2006

मेरे अब्बा मुझे चैन से पढ़ने नहीं देते

http://web.archive.org/web/20110101191939/http://hindini.com/fursatiya/archives/108

मेरे अब्बा मुझे चैन से पढ़ने नहीं देते

हमने पडो़स के मित्र से पूछा -क्या बात है? आजकल दिखते नहीं। घर भी बंद ही रहता है हमेशा । कोई चहल-पहल नहीं दिखती। आवाज तक बाहर नहीं आती। सब ठीक तो है न!
मित्र ने जवाब देने के लिये लंबी सांस लेकर ढेर सारी आक्सीजन खींची लेकिन वह जब तक जवाब के साथ हवा निकाल सकें तब तक हर सुख-दुख में साथ रहने वाली उनकी पत्नी जी बोल पड़ीं- भाईसाहब असल में बच्चा हाईस्कूल में है न!
उनके चेहरे पर तुरन्त सटीक जवाब देने का गर्व तथा बच्चे के हाईस्कूल में होने का बोझ चस्पां था। गर्व तथा बोझ  के ऊपर-नीचे होते दो पलड़ों के बीच में उनकी गरदन तराजू की डंडी की तरह तनी थी।
हमारे तमाम जानने वालों के बच्चे हाईस्कूल में हैं।  उनके चेहरे पर हाईस्कूल का भय है। उनके घरों में अनुशासन पर्व चल रहा है। बच्चा जुटा है पढ़ने में। मां,बाप जुटे हैं पढ़ाने में। टाइम टेबल तय है। आधा घंटा हिंदी ,पचास मिनट गणित फिर पांच मिनट रेस्ट फिर पचीस मिनट ये तीस मिनट  वो।’विषय’ रेलगाड़ियां हो गयीं जो कि प्लेटफार्म बने बच्चे के ऊपर आती हैं,चली जातीं हैं।
बच्चे की हर गतिविधि पर निगाह रखी जा रही है। गरदन हिली नहीं कि जबान हिल गयी-बेटा ऐसे कैसे चलेगा? तुम्हें अपने ‘एक्जाम’ की चिंता नहीं है!
बच्चा जो भी करता है मां-बाप कहते हैं -बेटा ऐसे करोगे तो कैसे चलेगा? मां-बाप विपक्षी दल हो गये हैं जिनका काम सत्ता पक्ष के हर कदम को गलत ठहराना होता है।
हाईस्कूल बच्चों के लिये बवालेजान हो गया है।
कल हम अपने मित्र के घर मिलने चले गये।खिड़की से झांक के देखा तो पाया कोहराम मचा था। आवाज सुनाई दी- हाईस्कूल में होते हुये ऐसी हरकतें करते शरम नहीं आती ?
हमें लगा कि किसी लड़की को छेड़ा होगा बच्चे ने या फिर वैलेन्टाइन डे पर इजहारे मुहब्बत कर दिया होगा जमाने की तर्ज पर जिस कारण जाट पिता बरस रहे होंगे उस पर। लेकिन बात इतनी छोटी न थी।
पता लगा कि बच्चा रात के दो बजे आंख बंद किये खुले मुंह जम्हाई लेते पकड़ा गया था।
वो तो कहो कि बच्चे की मां की नींद खुल गयी तथा उसने बच्चे को खुले मुंह पकड़ लिया नहीं तो बच्चा हाईस्कूल कर जाता और राज, राज ही रह जाता। मां ने तो खबरिया चैनेल की तरह रात को ही इस सनसनीखेज राज का खुलासा करने के लिये पति को हिलाया-डुलाया लेकिन वे खर्राटों की गिरफ्त में थे।
हमें लगा कि मां-बाप भी पत्रकार बन गये हैं -अपने बच्चों के खिलाफ स्टिंग आपरेशन चला रहे हैं।
‘मीर’ की  नीमबाज़ नायिका अगर हाईस्कूल कर रही होती तो मियां मीर तकी ‘मीर’ उसकी आंखों में शराब की मस्ती की बजाय लापरवाही का कुछ यूं खोजते:-
‘मीर’ उन नीमबाज़ आंखों में,
किस कदर बेपरवाही इम्तहान की है।
बच्चे परीक्षा-महाभारत के मैदान में खड़े अर्जुन की तरह दुविधा में हैं जिनके पल्ले कृष्ण का ज्ञान नहीं मां-बाप की परस्पर विरोधी बातें पड़ी हैं:-
सबेरे-सबेरे नहाने धोने में टाइम क्यों बरवाद कर रहे हो? पहले कुछ देर पढ़ाई कर लो।
आंख खुली बस किताब लेकर बैठ गये ये नहीं कि पहले नहा धोकर तैयार हो जायें तब निश्चिंत होकर पढ़ें।

लो पहले नाश्ता कर लो,खाना खा लो।खाओगे नहीं तो पढ़ोगे कैसे?
सारा दिन बस तुम्हें खाने को चाहिये । दिन भर खाते हो इसीलिये तो नींद आती है।

यहां बाहर आकर पढ़ो खुले में।
यहां सबके बीच क्या तुम्हारी पढ़ाई होगी! ये नहीं कि अपनी मेज कुर्सी में जाकर पढ़ें जाकर।
अभी इतनी जल्दी क्यों सो रहे हो? देर तक पढ़ना चाहिये ।रात को डिस्टर्बेंस नहीं होता है।
अब सो जाओ बेटा । रात को देर तक पढ़ोगे तो सबेरे देर तक सोओगे। फिर पढ़ोगे कब?
इसको अपने एक्जाम की कोई चिंता ही नहीं ।ये नहीं कि अपने दोस्तों से पूछे कि वो क्या पढ़ रहे हैं। उनसे किताबें पूछे और नोट्स देखे।
जब देखो तब तुम अपने दोस्तों से ही बतियाते रहते हो। तुम्हें क्या मतलब दूसरे लोगों से कि वे क्या कर रहे हैं। तुम अपना खुद नोट्स बनाओ।
बेटा,तुम तो किताबें कहानी की किताब की तरह पढ़ते रहते हो। अरे लिख के देखो तो पता चलेगा कि तुम्हें कितना आता है।
अरे, तुम तो हमेशा बस नोट्स ही बनाने में लगे रहते हो। आगे पढ़ोगे नहीं तो पता कैसे चलेगा?
केवल अपनी कोर्स बुक पढ़ने से ‘कुच्छ’ नहीं होता । दूसरी किताबें भी पढ़नी चाहिये। पता नहीं कहां से क्या पूछा जाये?
दुनिया भर की किताबें पढ़कर टाइम क्यों वेस्ट कर रहे हो! जितना कोर्स में है उतना पक्का तैयार कर लो। बाकी का पढ़ने के लिये तो जिंदगी पड़ी है।
बेटा करेंट इवेंट के लिये रोज अखबार पढ़ा कर लिया करो।
ये क्या कि सबेरे-सबेरे अखबार लेकर बैठ गये। अरे अखबार तो जिंदगी भर पढ़ सकते हो। अभी पढ़ाई  का   समय क्यों गंवाते हो।
कंप्यूटर भी एकदम गणित की तरह है ।पूरे नंबर मिलते हैं। खूब जम के तैयारी कर लो।कुछ छूट न जाये।
ये कोई कंप्यूटर पर बैठने का टाइम है! जब देखो तब पता नहीं क्या करते रहते हो कंप्यूटर पर।

हाईस्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के जिम्मेदार  मां-बाप बच्चे को हर तरह से सहायता दे रहे है। वे बच्चे के नोट्स तैयार कर रहे हैं। वे बच्चों को प्यार कर रहे हैं। वे बच्चों को डांट रहे हैं। वे बच्चों को धिक्कार रहे हैं। वे बच्चों को पुचकार रहे हैं।
हर बाप में गुरू की आत्मा डाउनलोड हो गयी। हर बाप कुम्हार बन गया है-बच्चे को घड़ा बना के उसे अंदर से सहारा दे रहा है,बाहर से चोट कर रहा है।
लेकिन पढ़ने वाले बच्चे सबसे ज्यादा त्रस्त इसी ‘बाप साफ्टवेयर’ से रहते हैं। इस साफ्टवेयर में काम के प्रोग्राम कम फालतू के सिस्टम क्रैस करने वाले नकारात्मक वायरस ज्यादा होते हैं।
बाप बच्चों को उनकी नानी याद दिला देता है। हिदायतों का नेपथ्य संगीत बजा-बजा के बच्चों का बाजा बजा देता है। जिन बच्चों के मां-बाप कम पढ़े लिखे होते हैं वे-बेटा हम तो नहीं पढ़ पाये हमें कोई पढ़ाने वाला नहीं था लेकिन मैं नहीं चाहता कि तुम भी हमारी तरह बेपढ़े रह जाओ, घराने के डायलाग बोलकर भगवान से बच्चों के लिये दुआ मांगने लगता है लेकिन  पढ़ा-लिखा बाप राशन-पानी लेकर बच्चों के लिये शोयेब अख्तर बना तानों- नजीरों के बाउन्सर-बीमर मारता रहता है।
अपने जमाने में किसी तरह अच्छे नंबर पाने वाला बाप तो करेला वो भी नीम चढ़ा टाइप होता है। वह अपने रिपोर्ट कार्ड की तरह अपना चेहरा हिलाते हुये बच्चों को अपनी गौरवगाथायें सुनाता है। हम अइसे पढ़ते थे,वैसे पढ़ते थे। हम बहुत मेहनत करते थे । लैम्पपोस्ट की रोशनी में पढ़ें हैं तुम्हें इतनी सुविधायें हैं। हमें तो कहीं से कोई बताने वाला नहीं था।
तुम्हें तो भगवान की दया से सब सुविधायें मिलीं हैं लेकिन फिर भी तुम ब जाने क्यों टाप करने की ललक नहीं पैदा कर पाते। तुम हिंदी आशीष अंकल की तरह लिखते हो जहां छोटी मात्रा लगानी चाहिये वहां बड़ी लगाते हो,जहां बड़ी लगानी चाहिये वहां छोटी। अंग्रेजी में पता नहींकहां से तुमहमारी नकल करना सीख गये। गणित का गुणा-भाग भी भगवान बचाये -इससे अच्छी गणित तो तुम्हारी मानसी आंटी की है।
यह वह समय है जब बच्चा मनाता होगा -काश उसका बाप अनपढ़ होता। पढ़े-लिखे बाप के बच्चे के सामने ज्यादा बड़ी चुनौतियां होतीं हैं । बाप जाने-अनजाने खुद को लड़के के मुकाबले खड़ा करके आंखे तथा गला फाड़ता रहता है।
ऐसे ही समय बच्चा शेरो-शायरी की शरण में चला जाता है तथा कहता है:-
मुझे सोने नहीं देता ये किताबों का पहाड़,
मेरे अब्बा मुझे चैन से पढ़ने नहीं देते ।

हम हाईस्कूल की परीक्षाओं के कुछ और पर्चे आउट करते लेकिन तब तक हमारा हाईस्कूल में पढ़ने वाला बच्चा फ्लाइंग स्क्वायड की तरह धड़धड़ाते हुये कमरे में घुसता है तथा लैपटाप उठाकर ले जाता है। उसे कम्प्यूटर की तैयारी करनी है।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

6 responses to “मेरे अब्बा मुझे चैन से पढ़ने नहीं देते”

  1. eswami
    आपका लेख पढ कर कुछ खानदानी हिदायतें याद आ गईं -
    “पढ लो पढ लो तुम्हारे ही काम आएगा – अभी तो हम हैं बाद मे कौन समझाएगा”
    “जितने ध्यान से ये फ़ैंटम की कामिक्स पढते हो उतने ध्यान से गणित करो – फ़र्स्ट आजाओगे”
    “फ़लाने जी के बच्चे को देखो फ़र्स्ट आया है, और एक तुम हो!”
    और ये वाला तो क्या मस्त है – “बडे हो कर मधुमिलन टाकीज के बाहर मूंगफ़ल्ली का ठेला लगा लेना, उन लडकों के ठेले के बाजू में जिनके साथ कंचे खेलते हो! – वहां भी काम्पीटीशन है!!” ….आदी!
  2. Manoshi
    “तुम हिंदी आशीष अंकल की तरह लिखते हो जहां छोटी मात्रा लगानी चाहिये वहां बड़ी लगाते हो,जहां बड़ी लगानी चाहिये वहां छोटी। ” ये बात तो समझ आ गयी
    :-)
    “गणित का गुणा-भाग भी भगवान बचाये -इससे अच्छी गणित तो तुम्हारी मानसी आंटी की है।” ये क्यों भई???
  3. प्रत्यक्षा
    तो अब पता चला कि आप कहाँ गायब हैं , कहाँ व्यस्त हैं ? :-)
    बच्चे को चैन से पढने दीजिये भई.
  4. nitin
    याद तो मुझे भी आ गया गुजरा जमाना!
    मेरे अब्‍बा कहते थे…पढ लो..फ़र्स्ट आये तो २ पहिया.. नही तो ३ पहिया..
  5. Laxmi N. Gupta
    शुक्ला जी,
    बढ़िया लिखे हौ। मानोशी को तो ज्योतिष से पता चल ही गया होगा कि उनकी गणित पर हमला होने वाला है। मुझे लगता है कि पढ़ने लिखने के खिलाफ एक आन्दोलन होना चाहिये। इसका precedent भी है। गाँव में कहावत थीः
    पढ़े लिखे ते कछू ना होई,
    हरु जोते ते बेझरा होई।
    हरु= हल = plough
    बेझरा = जौ और चने का मिश्रण
    मैंने सुना है कि जापान में भी कालेज़ के पहले की पढ़ाई ऐसी ही है। एक बार कालेज़ पहुँचने के बाद फिर ज़िन्दगी आसान हो जाती है।
    लक्ष्मीनारायण
  6. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] है? 4.वनन में बागन में बगर्‌यो बसंत है 5.मे

Tuesday, February 14, 2006

वनन में बागन में बगर्‌यो बसंत है

http://web.archive.org/web/20140420030357/http://hindini.com/fursatiya/archives/107

वनन में बागन में बगर्‌यो बसंत है

विष्णुजी बिस्तर पर करवटें बदलते-बदलते थक गये थे। उनके उलटने-पुलटने से शेषनाग भी उसी तरह फुंफकार रहे थे जिस तरह चढ़ाई पर चढ़ते समय कोई पुराना ट्रक ढेर सारा धुंआ छोड़ता है। वे सबेरे से बोर हो रहे थे। अचानक सामने से नारद जी चहकते हुये आते दिखे। नारद जी को देककर विष्णुजी ने वैसी ही मुस्कान धारण कर ली जैसी कि अपने चुनाव क्षेत्र से आये कार्यकर्ता को देखकर सांसद लोग धारण कर लेते हैं। विष्णुजी माहौल की गम्भीरता तथा औपचारिकता का चीरहरण करके तार-तार करते हुये बोले- क्या बात है नारद !तुम्हारा चेहरा तो किसी टीवी चैनेल के एंकर की तरह चमक रहा है जिसने वह कलई पहली बार खोली है जिसे दुनिया पहले से जानती है।
नारदजी नारद के मैनेजिंग डायरेक्टर की तरह हेंहेंहें करते हुये बोले- प्रभो आप भी न! मसखरी करना तो कोई आपसे सीखे। कितने युग बीत गये कृष्णावतार को लेकिन आपका मन उन्हीं बालसुलभ लीलाओं में रमता है।
नारदजी के मुंह से ‘आप भी न!‘ सुनकर विष्णुजी को अपनी तमाम गोपियां,सहेलियां याद आ गयीं जो उनकी शरारतों पर पुलकते हुये -‘उन्हें आप भी न ‘का उलाहना देती थीं।
हां,नारद सच कहते हो। आखिर रमें भी क्यों न। मेरा सबसे शानदार कार्यकाल तो कृष्णावतार का ही रहा। उस दौर में कितना आंनद किया मैंने। मेरे भाषणों की एकमात्र किताब -गीता भी, उसी दौर में छपी। मेरा मन आज भी उन्हीं स्मृतियों में रमता है। बालपन की शरारतों को याद करके मन उसी तरह भारी हो जाता है जिस तरह किसी भी प्रवासी का मन होली-दीवाली भारी होने का रिवाज है। विष्णुजी पीताम्बर से सूखी आंख पोछने लगे।
यह ‘अंखपोछवा’ नाटक देखना न पड़े इसलिये नारदजी नजरे नीची करके क्षीरसागर में, बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, का सजीव प्रसारण देखने लगे।
विष्णुजी ने अपना नाटक पूरा करने के बाद जम्हुआई लेते हुये नारदजी से कहा- और नारद जी कुछ नया ताजा सुनाया जाय। न हो तो मृत्युलोक का ही कथावाचनकरिये। क्या हाल हैं वहां पर जनता-जनार्दन का?
नारदजी गला खखारकर बिना भूमिका के शुरू हो गये:-
महाराज पृथ्वीलोक में इन दिनों फरवरी का महीना चल रहा है। आधा बीत गया है। आधा बचा है। वह भी बीत ही जायेगा। जब आधा बीत गया तो बाकी आधे को कैसे रोका जा सकता है! हर तरफ बसंत की बयार बह रही है। लोग मदनोत्सव की तैयारी में जुटे हैं। कविगण अपनी यादों के तलछट से खोज-खोजकर बसंत की पुरानी कवितायें सुना रहे हैं। कविताओं की खुशबू से कविगण भावविभोर हो रहे हैं। कविताओं की खुशबू हवा में मिलकर के नथुनों में घुसकर उन्हें आनन्दित कर रही है। वहीं कुछ ऊंचे दर्जे की खुशबू कतिपय श्रोताओं के ऊपर से गुजर रही हैं। ये देखिये ये कविराज ने ये कविता का ‘ढउआ’(बड़ी पतंग) उड़ाया तथा शुरू हो गये:-
स्वागत है ऋतुराज तुम्हारा,स्वागत है ऋतुराज।
ऋतुराज के मंझे में वे आगे साज/ बाज /आज/ काज /खाज /जहाज की सद्धी(धागा)जोड़ते हुये ढील देते जा रहे हैं। उधर से दूसरी कविता की पतंग उड़ी है जिनमें बनन में बागन में बगर्‌यो बसंत है के पुछल्ले के साथ दिगंत/संत/महंत/अनंत/कहंत/हंत/दंत घराने का धागा जुड़ा है। पतंग-ढउवे का जोडा़ झितिज में चोंच लड़ा रहा है। दोनों की लटाई से धागे की ढील लगातार मिल रही थी तथा वे हीरो-हीरोईन की तरह एक दूसरे के चक्कर काट रहे हैं। दोनों एकदूसरे से चिपट-लिपट रहे हैं। गुत्थमगुत्था हो रहे हैं। तथा सरसराते हुये फुसफुसा रहे हैं-हम बने तुम इक दूजे के लिये।
और प्रभो, मैं यह क्या देख रहा हूं । दोनों के सामने एक पेड़ की डाल आ गयी है। वे पेड़ की डाल में फंस के रहे गये हैं। पेड़ की डाल कुछ उसी तरह से है जिस तरह जाट इलाके का बाप अपने बच्चों को प्रेम करते हुये पकड़ लेने पर फड़फडा़ता है तथा उनको घसीट के पंचायत के पास ले जाता है ताकि पंचायत से न्याय कराया जा सके।
विष्णुजी बोले यार नारद ये क्या तुम क्रिकेट की कमेंट्रीनुमा बसंत की कमेंट्री सुना रहे हो? ये तो हर साल का किस्सा है। कुछ नया ताजा हो तो सुनाओ। ‘समथिंग डिफरेंट’ टाइप का।
नारदजी घाट-घाट का पानी पिये थे। वे समझगये कि विष्णुजी ‘वेलेंटाइन डे’ के किस्से सुनना चाह रहे थे।लेकिन वे सारा काम थ्रू प्रापर चैनेल करना चाहते थे। लिहाजा वे विष्णुजी को खुले खेत में ले गये जिसे वे प्रकृति की गोद भी कहा करते थे।
सरसों के खेत में तितलियां देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह मंडरा रहीं हैं ।हर पौधा तितलियों को देखकर थरथरा रहा है। भौंरे भी तितलियों के पीछे शोहदों की तरह मंडरा रहे हैं। आनंदातिरेक से लहराते अलसी के फूलों को बासंती हवा दुलरा रही है। एक कोने में खिली गुलाब की कली सबकी नजर बचाकर पास के गबरू गेंदे के फूल पर पसर सी गयी है। अपना कांटा गेंदे के फूल को चुभाकर नखरियाते तथा लजाते हुये बोली-हटो,क्या करते हो ? कोई देख लेगा।
गेंदे ने कली की लालिमा चुराकर कहा- काश! तुम हमेशा मुझसे ऐसे ही कहती रहती -छोडो़ जी कोई देख लेगा।
कली उदास हो गयी। बोली- ऐसा हो नहीं सकता। हमारा तुम्हारा कुल,गोत्र,प्रजाति अलग है। हम लोग एक दूजे के नहीं हो सकते। हम तुम दो सामान्तर रेखाओं की तरह हैं जो साथ-साथ चलने के बावजूद कभी नहीं मिलती।
गेंदा बोला-काश हमारे यहां भी अनूपभार्गव की तरह कोई कारसाज होता जो हमारे तुम्हारे बीच प्यार का लंब डालकर हमारा गठबंधन करा देता।हमारे मिलन का रास्ता तैयार कर देता।
पास के खेत में खड़े जौं के पौधे की मूंछें (बालियां) गेंदे – गुलाब का प्रेमालाप सुनते हुये थरथरा रहीं थीं।खेत में फसल की रक्षा के लिये खड़े बिजूके के ऊपर का कौवा भी बिना मतलब भावुक होकर कांव-काव करने लगा।
नारदजी इस प्रेमकथा को आगे खींचते लेकिन विष्णुजी को जमुहाई लेते देख गीयर बदल लिया तथा वेलेंटाइन डे के किस्से सुनाने लगे।
महाराज आज पूरे देश में वेलेंटाइन डे की डटा बिखरी है। जिधर देखो उधर वेलेंटाइन के अलावा कुछ नहीं दिखता। सब तरफ इलू-इलू की लू चल रही है तथा वातावरण में भयानक गर्मी व्याप्त है। भरी फरवरी में जून का माहौल हो रहा है। लोग अपने कपडे़ उतारने उसी तरह व्याकुल हैं जिस तरह अमेरिका तमाम दुनिया में लोकतंत्र की स्थापना को व्याकुल रहता है।
सारे लोग अपने-अपने प्यार का स्टाक क्लीयर कर रहे हैं। जो सामने दिखा उसी पर प्यार उडे़ले दे रहे हैं। गलियों में,बहारों में,छतों में ,दीवारों में,सड़कों में, गलियारों में,चौबारों में प्यार ही प्यार अंटा पड़ा है। हर तरफ प्यार की बाढ़ सी आ रखी है। टेलीविजन, इंटरनेट, अखबार, समाचार सब जगह प्यार ही प्यार उफना रहा है। तमाम लोगों के प्यार की कहानियां छितरा रहीं हैं।टेलीविजन का कोई चैनेल शिवशैनिक के प्यार का अंदाज बता रहा है तो इंटरनेट की कोई साइट लालू यादव-राबड़ी देवी की प्रेमकथा बता रहा है। पूरा देश सब कुछ छोड़कर कमर कसकर वेलेंटाइन डे मनाने में जुट गया है। वेलेंटाइन के शंखनाद से डरकर अभाव, दैन्य,गरीबी तथा तमाम दूसरे दुश्मन सर पर रखकर नौ दो ग्यारह हो गये हैं।
विष्णुजी बोले -लेकिन यह वेलेंटाइन डे हमने तो कभी नहीं मनाया। नारदजी के पास जवाब तैयार था- महाराज ,आपके समय की बात अलग थी। समय इफरात था आपके पास। जब मन आया प्रेम प्रदर्शन शुरू कर दिया। लतायें थीं,कुंज थीं संकरी गलियां थीं। जहां मन आया ,कार्य प्रगति पर है ,का बोर्ड लगाकर रासलीला शुरू कर दी। जितना कर सके किया बाकी अगले दिन के लिये छोड़ दिया। कोई हिसाब नहीं मांगता था। साल भर प्यार की नदी में पानी बहता था। लेकिन आज ऐसा नहीं हो सकता।प्यार की नदियां सूख गयीं हैं । अब सप्लाई टैंकों से होती है। साल भर इकट्ठा किया प्यार। वेलेंटाइन डे वाले दिन सारा उड़ेल दिया। छुट्टी साल भर की। एक दिन में जितना प्यार बहाना हो बहा लो। ये थोडी़ की सारा साल प्यार करते रहो।दूसरे ‘डे’ को भी मौका देना है। फादर्स डे,मदर्स डे,प्रपोजल डे, चाकलेट डे,स्लैप डे(तमाचा दिवस) आदि-इत्यादि।जिस रफ्तार से ‘डेस’ की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ रही है उससे कुछ समय बाद साल में दिन कम होंगे ,डे ज्यादा। मुंमई की खोली की तरह एक-एक दिन में पांच-पांच सात-सात ‘डेस’ अँटे पड़े होंगे।
विष्णुजी बंबई का जिक्र सुनते ही यह सोच कर घबरा गये कि कोई उनका संबंध दाउद की पार्टी से न जोड़ दे।वे बोले कैसे मनाते हैं- वेलेंटाइन दिवस?
नारदजी बोले-मैंने तो कभी मनाया नहीं भगवन! लेकिन जितना जानता हूं बताता हूं। लोग सबेरे-सबेरे उठकर मुंह धोये बिना जानपहचान के सब लोगों को” हैप्पी वेलेंटाइन डे” बोलते हैं। हैप्पी तथा सेम टू यू की मारामारी मची रहती है।दोपहर होते होते तुमने मुझे इतनी देर से क्यों किया । जाओ बात नहीं करती की शिकवा शिकायत शुरू हो जाती है। शाम को सारा देश थिरकने लगता है। नाचने में अपने शरीर के सारे अंगों को एक-दुसरे से दूर फेंकना होता है। स्प्रिंग एक्शन से फेंके गये अंग फिर वापस लौट आते हैं। दांत में अगर अच्छी क्वालिटी का मंजन किया हो तो दांत दिखाये जाते हैं या फिर मुस्कराया जाता है। दोनों में से एक का करना जरूरी है। केवल हांफते समय, सर उठाकर कोकाकोला पीते समय या पसीना पोंछते समय छूट मिल सकती है।
तमाम टेलीविजन तरह-तरह के सर्वे करते हैं। जैसे इस बार सर्वे हो रहा है।देश का सबसे सेक्सी हीरो कौन है-शाहरुख खान, आमिरखान, सलमान खान या अभिषेकबच्चन । हीरो अकेले नहीं न रह सकता लिहाजा यह भी बताना पड़ेगा-सबसे सेक्सी हीरोइन कौन है-रानी मुकर्जी ,ऐश्वर्या राय ,प्रीतिजिंटा या सानिया मिर्जा । देश का सारा सेक्स इन आठ लोगों में आकर सिमट गया है। अब आपको एसएमएस करके बताना है कि इनमें सबसे सेक्सी कौन है। आपको पूरी छूट है कि आप जिसे चाहें चुने लेकिन इन आठ के अलावा कोई और विकल्प चुनने की आजादी नहीं है आपके पास।करोड़ों के एसएमएस अरबों के विज्ञापन बस आपको बताना है कि सबसे सेक्सी जोड़ा कौन है?
चुनना चार में ही है।ऐसी आजादी और कहां? जो जोड़ा चुना जायेगा उसका हचक के प्रचार होगा। प्रचारके बाद दुनिया के सबसे जवान देश के नवजवान लोग देश के इस सबसे सेक्सी जोड़े को अपने सपनों में ओपेन सोर्से प्रोग्राम की तरह मुफ्त में डाउनलोड करके अपना काम चलायेंगे।
कम्प्यूटर की भाषा से विष्णुजी को उसी तरह अबूझ लगती है जिसतरह क्रिकेटरों,हिदीं सिनेमा वालों को हिंदी। वे झटके से बोले-अच्छा तो नारद अब तुम चलो। मैं भी चलता हूं लक्ष्मी को हैप्पी वेलेंटाइन डे बोलना है।
नारदजी टेलीविजन पर टकटकी लगाये हुये सर्वे में भाग लेने के लिये अपने मोबाइल पर अंगुलियां फिराने लगे। वोटिंग लाइन खुली थीं । आप भी काहे को पीछे रहें।
मेरी पसंद
हुई है रात की कालिख जरा ज्यादा यहां गहरी
तुम्हारी ज़ुल्फ़ कुछ ज्यादा घनेरी हो गई होगी
न आई याद है कोई, मुझे मुमकिन ये लगता है
तुम्हारी ज़ुल्फ़ की पेचीदगी में खो गई होगी
बहुत दिन हो गये आई नहीं है भोर गलियों में
तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साये में शायद सो गई होगी
पता है. इसलिये सावन गया है इस बरस सूखा
घटा, ज़ुल्फ़ें तुम्हारी देख वापस हो गई होगी
थिरकती बूँद पानी के तेरी ज़ुल्फ़ों में , कहती है
कोई बदली कभी इनमें शबिस्तां हो गई होगी
तुम्हारी ज़ुल्फ़ को देखा तो कुछ अशआर कह डाले
पता मुझको न चल पाया गज़ल खुद हो गई होगी.
-राकेश खण्डेलवाल

10 responses to “वनन में बागन में बगर्‌यो बसंत है”

  1. Pankaj Narula
    Anoop ji
    Subah aap se baat na ho saki, us ke liye muaafi. Abhi lunch time mein pad raha hun. Baaki Sheshnaag ka pooraney truck se kisi ne pehli baar compare kiya hoga. Sahi hai.
    - Pankaj
  2. eswami
    जीतू भाई का कमेंट:
    सही है गुरु, सही ढूंढ लाये हो, विष्णुजी को वैलेन्टाइन डे मना लिया। धीरे से लिखो,कंही प्रवीण तोगडिया या बाल ठाकरे से पढ लिया तो गजब हो जायेगा। सारे इन्टरनैट कैफ़े के कम्प्यूटर ना तोड़ डालें, तुम्हारे इस ब्लॉग के चक्कर में।
    बकिया लेख तो झकास है, बहुत मौज आयी पढने में, इसका अगला भाग भी होना चाहिये। लो, अब झेलो हमारी तरफ़ से तुम्हारे लिये वैलेन्टाइन डे की गिफ़्ट
  3. eswami
    इस बार काल दीवस हम इस दिन के अस्तित्व क ही पूरी तरह् इग्नोर कर के मनाया हूँ. खुशी है की वेलेन्टाईन के अवसर पर एक मजेदार लेख पढने को मिला.
  4. प्रत्यक्षा
    विष्णु नारद संवाद और वसंतोत्सव के जलवे….आप ही लिख सकते थे महाराज !
  5. आशीष
    बाकी सब तो ठीक है लेकिन हमारे समझ मे ये नही आया कि जितु भाइ का कमेँट फुरसतियाजी के चिठ्ठे पर चिपकने से मना क्योँ कर देता है.
  6. mj
    bahut badiya. ish saal to aap dhoni ki tarah ballebaji kar rahe ho. ek se bad kar ek pariyan..
  7. Manoshi
    वाह अनूप जी| आपकी पसंद की कविता भी दिवसानुसार ही रही|
  8. indra awasthi
    मेरी पसन्द:
    जिस तरह चढ़ाई पर चढ़ते समय कोई पुराना ट्रक ढेर सारा धुंआ छोड़ता है।
    वेलेंटाइन के शंखनाद से डरकर अभाव, दैन्य,गरीबी तथा तमाम दूसरे दुश्मन सर पर रखकर नौ दो ग्यारह हो गये हैं।
    लोग सबेरे-सबेरे उठकर मुंह धोये बिना जानपहचान के सब लोगों को” हैप्पी वेलेंटाइन डे” बोलते हैं। हैप्पी तथा सेम टू यू की मारामारी मची रहती है।दोपहर होते होते तुमने मुझे इतनी देर से क्यों किया । जाओ बात नहीं करती की शिकवा शिकायत शुरू हो जाती है।
  9. फ़ुरसतिया » कलियों ने कहा भौंरे से
    [...] बसंती को सफलता पूर्वक भागते देखकर हम फिर बाग में गये। देखा बसंत बिखरा हुआ है। प्रमाण स्वरूप एक भौंरा दिखा जो एक कली के चारो तरफ मंडरा रहा था। कली मौज के मूड में थी। बोली तुम अभी तो बगल की कली के ऊपर मंडरा रहे थे। इधर कैसे आये? [...]
  10. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] की हार नहीं होती 3.आपका संकल्प क्या है? 4.वनन में बागन में बगर्‌यो बसंत है 5.मेरे अब्बा मुझे चैन से पढ़ने नहीं [...]