http://web.archive.org/web/20110908120138/http://hindini.com/fursatiya/archives/109
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
जेहि पर जाकर सत्य सनेहू
सीताहरण के बाद रामचन्द्रजी एकदम मजनू नुमा अंदाज में बिलख रहे थे।
भगवान होने के बाद भी मानव अवतार में होने के कारण पत्नी वियोग में बिलख
रहे थे। बौराये से पशु-पक्षियों तक से पूछ रहे थे:-
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी,
तुम देखी सीता मृगनयनी।
आगे सीता द्वारा गिराये गये कुछ गहने मिले। लक्ष्मण उन गहनों में से केवल पैर में पहने जाने आभूषण पहचान पाते हैं। बाकी के आभूषण नहीं पहचान पाते क्योंकि वे आदर्श देवर की भांति सीता को मां मानते थे तथा उनके चरणों के अलावा कभी कुछ देखा ही नहीं था।
यह लक्ष्मण का सीता से संबंधित चीजें पहचानने का लिटमस टेस्ट था।
आज के देवर को अगर अपनी भाभी से संबंधित चीजें पहचानने को कहा जाये तो शायद तमाम ऊपर की तथा अंदरूनी चीजें भी पहचान ले।
समय के हिसाब से टेस्ट तथा आदर्श बदलते रहते हैं।
स्वामी विवेकानंद जी जब शिकागो अमेरिका में अपने ज्ञान का डंका पीटने के बाद भारत लौटे तो सागर तट से देश की धरती को देखकर भाव विभोर हो गये। जहाज से समुद्र में कूद पड़े तथा तैरते हुये तट पर पहुंचे। कन्याकुमारी में आज भी वह जगह विवेकानंद स्मारक के रूप में प्रसिद्ध है।
यह दो शताब्दी पहले की भावुकता थी जब बहुत कम लोग बाहर जाते थे।
आज बाहर आना-जाना बढ़ गया है। लोग आते हैं तो देश के लिये सारा प्रेम लेकर आते हैं। यह प्रेम गलत जगह न पहुंच जाये इसलिये लोग अपने अपने लिटमस टेस्ट करते हैं देश को पहचानने का।
सबसे मुफीद लिटमस टेस्ट है पटरियों के किनारे लोगों को शौच क्रिया करते हुये देखने का। वह खिड़की से नज़र बाहर डालता है देखता है कि पटरी किनारे कुछ गठरियां सर नीचा किये बैठी हैं फौरन वह पहचान जाता है हां यही है हमारी भारत भूमि जहां अभी भी लोग उसी तरह निपटते हैं जिस तरह सालों पहले निपटते थे। उसे चैन आ जाता है कि वह सही जगह उतरा है । टिकट बरबाद नहीं गया।
मातृभूमि को शिनाख्त करने का यह लिटमस टेस्ट करते समय विकसित देश का प्रवासी अर्जुन की तरह एकनिष्ठ भाव से केवल पटरी के किनारे की गन्दगी पर नजर रखता है। पटरी के दोनों तरफ भरे बसंत के मौसम में खिले सरसों के पीले फूल के झांसे में नहीं आता। पागल से कर देने वाले फूलों के सौन्दर्य को अनदेखा कर देता है। झरने की तरह ट्यूबबेल से निकलते पानी के चक्कर में नहीं पड़ता । जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह उग आये मोबाइल टावरों से विचलित नहीं होता। क्रासिंगों पर तमाम तरह की गाड़ियों के जाम से भ्रमित नहीं होता। लगभग हर हाथ में मोबाइल से उसका ध्यान भंग नहीं होता । वह एक निष्ठ भाव से पटरी के किनारे की गंदगी निहारता रहता है।
विकासशील की सुविधाओं के सहारे विकसित देश पहुंचने वाला प्रवासी जब वापस लौटकर आता है तो देश को उसकी गंदगी के सहारे पहचान लेता है। हां ,यही है हमारा प्यारा देश जहां अब भी लोग पटरियों के किनारे निपटने की सांस्कृतिक धरोहर को बचाये हुये हैं।
इसके अलावा तमाम दूसरे टेस्ट भी हैं जिनके सहारे वो अपने देश को पहचानता है। लोग भीख मांगते हैं। सरकारी दफ्तरों में लालफीताशाही है। क्लर्क बदतमीज हैं। आदि-इत्यादि। इन्हीं झरोखों से देश दर्शन का काम किया जाता है।
हम चूंकि देश में रहते हैं लिहाजा यह सब शायद अखरना बंद हो गया है। या अखरता भी है तो लगता है कि हम कर क्या सकते हैं सिवाय देश के कर्णधारों को कोसने के! कोसना वैसे भी सबसे आसान काम है। हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा।
देश को जब हम कोसते हैं तो सबसे ज्यादा देश के नेताओ को कोसते हैं- वे भ्रष्ट हैं,अनपढ़ हैं,बेईमान हैं। लेकिन यह भी उतनी ही सोचनीय बात है कि क्या ईमानदार लोगों को राजनीति में आने से रोक लगी है? पढ़े-लिखे ,ईमानदार जब राजनीति में नहीं आयेंगे तो अनपढ़,बेईमान का क्या दोष? वे तो जगह देखकर अपना तंबू तानेंगे ही।
पहली पीढ़ी के प्रवासी भी आमतौर पर प्रतिभावान तथा मेहनती ही होते हैं। अपनी प्रतिभा तथा मेहनत से जब वे विकसित देशों में सेवायें देते हैं तो वहां पैसा मिलता तथा गांव जवांर में नाम। लेकिन जब वे बाहर जाते हैं तो देश की प्रतिभा में कुछ तो गिरावट आयेगी ही न!काबिलियत में कुछ तो कमी होगी जरूर। सो भइये जब गिरी काबिलियत के बावजूद देश अपनी गंदगी का स्तर बनाये हुये है तो यह तो उपलब्धि मानी जानी चाहिये।
देश में तमाम कुलियों को भिनभिनाता हुआ देखना अजीब लगता है लेकिन यह सच है। जब कोई काम नहीं होगा तो काम की मारामारी होगी ही। हर आदमी तो भाग रहा है। हर शख्स प्रवासी है। गांव से लोग नगर को भाग रहे हैं। नगर से महानगर को।महानगर से विदेश। जहां भी जाता है तो जब लौट के वापस अपनी जगह आता है तो पाता है कि हाय कुछ नहीं बदला या कितना कम बदला माहौल!
बहरहाल यह तो भइये अपनी-अपनी दृष्टि है। आप किस चीज में क्या देखना चाहते हैं। जो देखना चाहते हैं वो पा लेते हैं:-
जेहि पर जाकर सत्य सनेहू,मिलहि सो तेहि नहिं कछु संदेहू।
जो लोग विकसित देशों में हैं वे स्वाभाविक रूप से उन देशों का अपने देश से तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। तमाम बातों में अपना देश पिछड़ा होगा,कुछ में बहुत पिछड़ा होगा। अध्ययन के बाद विसंगतियां ज्यादा दिखती होंगी अपने देश में। उनको वे स्वाभाविक रूप से लिखते होंगे।
कोई भी समाज विसंगति विहीन नहीं होता। हर समाज में विसंगतियां होंती हैं। कहीं कम कहीं ज्यादा!लेकिन एक आश्चर्य होता है कि मैंने किसी भी प्रवासी के लेखन में जहां वह रह रहा है वहां की विसंगतियों का जिक्र नहीं देखा। इससे एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जहां वे रह रहे हैं वहां उनको कोई विसंगति नहीं दिखती,या उस समाज में उनकी पैठ केवल अच्छे सेवक की ही है तथा ज्यादा तांक-झांक की मनाही है!या डर है कि ज्यादा उचके तो कान पकड़कर निकाल बाहर किये जायेंगे?
बहरहाल बात हो रही थी पटरियों के किनारे की गंदगी की। यह वह पथप्रदर्शक बिंदु है जिससे विकसित देश से आया हुआ प्रवासी अपने देश को झट से पहचान लेता है। जैसे पहचान पत्र में लिखा होता है -नाक के बायें चेचक का दाग,ओंठ के नीचे तिल आदि। वैसे ही प्रवासी पहचान लेता है-पटरियों के पास गंदगी,दीवार पर नामर्दी तथा नपुंसकता दूर करने के विज्ञापन।
मुझे ज्यादा पता नहीं है लेकिन लोग बताते हैं कि भारत से अगर गंदगी,गरीबी मिट जाये तो प्रवासियों का आधा लेखन टें बोल जाये। उनका आधा से ज्यादा लेखन गंदगी,गरीबी की बैसाखियों पर टिका है।
मैं फिर भटक रहा था कि याद आया कि हम गंदगी के बारे में बात कर रहे थे।
दुनिया का हर विकसित देश भारत की खुले में निपटने की आदत से त्रस्त है। बहुत खराब आदत है। हर विकसित देश का मन करता है कि भारत को एक बहुत बड़ा शौचालय बना दिया जाये जहां देशवासी आराम से कमोड में बैठकर निपटें तब तक ये इसे निपटा दें।
खुले से खुला देश भी जहां हर तरह की नंगई व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर जायज है,भारतीयों की खुले में निपटने की आदत से परेशान है।
हम भी मानते हैं कि खुले में गंदगी करना बहुत खराब बात है।
लेकिन आज मैं इस प्रवृत्ति का कारण सोच रहा था। मुझे लगा कि अइसा कौन सा कारण है कि वो भाई लोग कभी खुले में नहीं निपटते तथा ज्यादातर भारतीय बाहर ही निपट पाते हैं।
कोई न कोई कारण जरूर होगा । ऐसा तो है नहीं कि सारी सफाई की पढ़ाई वही किये हैं अउर हम बुरबक रहें हैं।
कारण जो मुझे समझ में आया वह मौसम का है। ज्यादातर विकसित देश ठंडे हैं। वहां अगर लोग खुले में निपटने लगें तो निपटान के पहले ही निपट जायें। कनाडा जैसे देश में जहां तापमान शून्य से बहुत नीचे रहता है वहां खुले में गठरी बन के बैठे आदमी तो ठठरी बन जाये। सो मजबूरी में वह बंद कमरे में निपटता है। यही कारण है कि वहां निटपने के बाद धोने के बजाय पोंछने का चलन है। पानी ठंडा होता है न!
इसके उलट भारत उष्ण कटिबंधीय देश है। नदियां,तालाब,बावड़ी बहुतायत में हैं। जीवनस्थितियां कठिन नहीं हैं। जहां मन आया बस गये। जहां मन आया निपट लिये।
यह खुले में निपटना हमारे देश की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है। बंद में काम करना ठंडे देश के लोगों की। किसी भी देश के आचार व्यवहार में देश की जलवायु,प्राकृतिक संसाधनों का बहुत बड़ा योगदान होता है।
महात्मा गांधी तक ने खेतों में निपटना जायज ठहराया था। उन्होंने तो बाकायदा लेख लिखकर बताया था कि किस तरह गढ्ढा खोदकर मल त्याग करना चाहिये ताकि उसका खाद के रूप में प्रयोग किया जा सके तथा गंदगी भी न फैले। लेकिन गढ्ढा खोदने का काम मेहनत का है- कौन करे!लिहाजा सफाई का गढ्ढा खुद जाता है।
बनारस में तो बहरी अलंग अर्थात गंगा किनारे (पार) निपटने की प्रक्रिया बहुत प्रचलित है। इस दिव्य निपटान के तमाम विवरण काशीनाथ सिंह ने अपने संस्मरणों में किये हैं।
मेरा इस लेख में तमाम गंदगी आ गई । यह ‘प्रेशर’ बना अतुल श्रीवास्तव का लेख । यह न समझा जाये कि मैं गंदगी के समर्थन खड़ा हूं। मुझे लगता है कि देश में गंदगी के अलावा भी बहुत कुछ देखने को है। गंदगी भी देखें लेकिन उसके पीछे कारण भी देखे। गांव से लोग शहर भाग रहे हैं-रोजी की तलाश में। वहां सर छिपाने को जगह नहीं तो निपटने के लिये पटरियां नहीं तो क्या ‘टाइल्ड टायलट’ नसीब होंगे?
देश की सरकारें भी अकर्मण्य भले हों लेकिन इतनी बेदर्द नहीं कि गंदगी फैलाने वाले गरीब,बेसहारा लोगों की उस तरह लिचिंग कर दे जिस तरह अमेरिका में मूल निवासियों रेडइंडियन की तथा कुछ दशकों पहले तक नीग्रो लोगों की होती रही।
फिर जो तबका परिवर्तन का वाहक होता युवा,बुद्धिजीवी वह देश से सुरक्षित दूरी बना कर देश के विकास का काम मल्टीनेशनल को आउटसोर्स करके देश के बारे में चिंतन कर रहा है,अरण्य रोदन कर रहा है।
यह कुछ उसी तरह से है कि जो हाल बंटाई पर उठी खेती का होता है। जिसके लिये घाघ कवि ने कहा है:-
जो हल जोतै खेती वाकी
और नहीं तो जाकी ताकी।
(खेती उसी की अच्छी होती है जो खुद जुताई करता है।)
लेकिन अगर हम खुद जुताई में जुट गये तो गंदगी का हिसाब कौन रखेगा?
गंदगी में वैसे भी खाद बनने संभावनायें सर्वाधिक होती हैं।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी,
तुम देखी सीता मृगनयनी।
आगे सीता द्वारा गिराये गये कुछ गहने मिले। लक्ष्मण उन गहनों में से केवल पैर में पहने जाने आभूषण पहचान पाते हैं। बाकी के आभूषण नहीं पहचान पाते क्योंकि वे आदर्श देवर की भांति सीता को मां मानते थे तथा उनके चरणों के अलावा कभी कुछ देखा ही नहीं था।
यह लक्ष्मण का सीता से संबंधित चीजें पहचानने का लिटमस टेस्ट था।
आज के देवर को अगर अपनी भाभी से संबंधित चीजें पहचानने को कहा जाये तो शायद तमाम ऊपर की तथा अंदरूनी चीजें भी पहचान ले।
समय के हिसाब से टेस्ट तथा आदर्श बदलते रहते हैं।
स्वामी विवेकानंद जी जब शिकागो अमेरिका में अपने ज्ञान का डंका पीटने के बाद भारत लौटे तो सागर तट से देश की धरती को देखकर भाव विभोर हो गये। जहाज से समुद्र में कूद पड़े तथा तैरते हुये तट पर पहुंचे। कन्याकुमारी में आज भी वह जगह विवेकानंद स्मारक के रूप में प्रसिद्ध है।
यह दो शताब्दी पहले की भावुकता थी जब बहुत कम लोग बाहर जाते थे।
आज बाहर आना-जाना बढ़ गया है। लोग आते हैं तो देश के लिये सारा प्रेम लेकर आते हैं। यह प्रेम गलत जगह न पहुंच जाये इसलिये लोग अपने अपने लिटमस टेस्ट करते हैं देश को पहचानने का।
सबसे मुफीद लिटमस टेस्ट है पटरियों के किनारे लोगों को शौच क्रिया करते हुये देखने का। वह खिड़की से नज़र बाहर डालता है देखता है कि पटरी किनारे कुछ गठरियां सर नीचा किये बैठी हैं फौरन वह पहचान जाता है हां यही है हमारी भारत भूमि जहां अभी भी लोग उसी तरह निपटते हैं जिस तरह सालों पहले निपटते थे। उसे चैन आ जाता है कि वह सही जगह उतरा है । टिकट बरबाद नहीं गया।
मातृभूमि को शिनाख्त करने का यह लिटमस टेस्ट करते समय विकसित देश का प्रवासी अर्जुन की तरह एकनिष्ठ भाव से केवल पटरी के किनारे की गन्दगी पर नजर रखता है। पटरी के दोनों तरफ भरे बसंत के मौसम में खिले सरसों के पीले फूल के झांसे में नहीं आता। पागल से कर देने वाले फूलों के सौन्दर्य को अनदेखा कर देता है। झरने की तरह ट्यूबबेल से निकलते पानी के चक्कर में नहीं पड़ता । जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह उग आये मोबाइल टावरों से विचलित नहीं होता। क्रासिंगों पर तमाम तरह की गाड़ियों के जाम से भ्रमित नहीं होता। लगभग हर हाथ में मोबाइल से उसका ध्यान भंग नहीं होता । वह एक निष्ठ भाव से पटरी के किनारे की गंदगी निहारता रहता है।
विकासशील की सुविधाओं के सहारे विकसित देश पहुंचने वाला प्रवासी जब वापस लौटकर आता है तो देश को उसकी गंदगी के सहारे पहचान लेता है। हां ,यही है हमारा प्यारा देश जहां अब भी लोग पटरियों के किनारे निपटने की सांस्कृतिक धरोहर को बचाये हुये हैं।
इसके अलावा तमाम दूसरे टेस्ट भी हैं जिनके सहारे वो अपने देश को पहचानता है। लोग भीख मांगते हैं। सरकारी दफ्तरों में लालफीताशाही है। क्लर्क बदतमीज हैं। आदि-इत्यादि। इन्हीं झरोखों से देश दर्शन का काम किया जाता है।
हम चूंकि देश में रहते हैं लिहाजा यह सब शायद अखरना बंद हो गया है। या अखरता भी है तो लगता है कि हम कर क्या सकते हैं सिवाय देश के कर्णधारों को कोसने के! कोसना वैसे भी सबसे आसान काम है। हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा।
देश को जब हम कोसते हैं तो सबसे ज्यादा देश के नेताओ को कोसते हैं- वे भ्रष्ट हैं,अनपढ़ हैं,बेईमान हैं। लेकिन यह भी उतनी ही सोचनीय बात है कि क्या ईमानदार लोगों को राजनीति में आने से रोक लगी है? पढ़े-लिखे ,ईमानदार जब राजनीति में नहीं आयेंगे तो अनपढ़,बेईमान का क्या दोष? वे तो जगह देखकर अपना तंबू तानेंगे ही।
पहली पीढ़ी के प्रवासी भी आमतौर पर प्रतिभावान तथा मेहनती ही होते हैं। अपनी प्रतिभा तथा मेहनत से जब वे विकसित देशों में सेवायें देते हैं तो वहां पैसा मिलता तथा गांव जवांर में नाम। लेकिन जब वे बाहर जाते हैं तो देश की प्रतिभा में कुछ तो गिरावट आयेगी ही न!काबिलियत में कुछ तो कमी होगी जरूर। सो भइये जब गिरी काबिलियत के बावजूद देश अपनी गंदगी का स्तर बनाये हुये है तो यह तो उपलब्धि मानी जानी चाहिये।
देश में तमाम कुलियों को भिनभिनाता हुआ देखना अजीब लगता है लेकिन यह सच है। जब कोई काम नहीं होगा तो काम की मारामारी होगी ही। हर आदमी तो भाग रहा है। हर शख्स प्रवासी है। गांव से लोग नगर को भाग रहे हैं। नगर से महानगर को।महानगर से विदेश। जहां भी जाता है तो जब लौट के वापस अपनी जगह आता है तो पाता है कि हाय कुछ नहीं बदला या कितना कम बदला माहौल!
बहरहाल यह तो भइये अपनी-अपनी दृष्टि है। आप किस चीज में क्या देखना चाहते हैं। जो देखना चाहते हैं वो पा लेते हैं:-
जेहि पर जाकर सत्य सनेहू,मिलहि सो तेहि नहिं कछु संदेहू।
जो लोग विकसित देशों में हैं वे स्वाभाविक रूप से उन देशों का अपने देश से तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। तमाम बातों में अपना देश पिछड़ा होगा,कुछ में बहुत पिछड़ा होगा। अध्ययन के बाद विसंगतियां ज्यादा दिखती होंगी अपने देश में। उनको वे स्वाभाविक रूप से लिखते होंगे।
कोई भी समाज विसंगति विहीन नहीं होता। हर समाज में विसंगतियां होंती हैं। कहीं कम कहीं ज्यादा!लेकिन एक आश्चर्य होता है कि मैंने किसी भी प्रवासी के लेखन में जहां वह रह रहा है वहां की विसंगतियों का जिक्र नहीं देखा। इससे एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जहां वे रह रहे हैं वहां उनको कोई विसंगति नहीं दिखती,या उस समाज में उनकी पैठ केवल अच्छे सेवक की ही है तथा ज्यादा तांक-झांक की मनाही है!या डर है कि ज्यादा उचके तो कान पकड़कर निकाल बाहर किये जायेंगे?
बहरहाल बात हो रही थी पटरियों के किनारे की गंदगी की। यह वह पथप्रदर्शक बिंदु है जिससे विकसित देश से आया हुआ प्रवासी अपने देश को झट से पहचान लेता है। जैसे पहचान पत्र में लिखा होता है -नाक के बायें चेचक का दाग,ओंठ के नीचे तिल आदि। वैसे ही प्रवासी पहचान लेता है-पटरियों के पास गंदगी,दीवार पर नामर्दी तथा नपुंसकता दूर करने के विज्ञापन।
मुझे ज्यादा पता नहीं है लेकिन लोग बताते हैं कि भारत से अगर गंदगी,गरीबी मिट जाये तो प्रवासियों का आधा लेखन टें बोल जाये। उनका आधा से ज्यादा लेखन गंदगी,गरीबी की बैसाखियों पर टिका है।
मैं फिर भटक रहा था कि याद आया कि हम गंदगी के बारे में बात कर रहे थे।
दुनिया का हर विकसित देश भारत की खुले में निपटने की आदत से त्रस्त है। बहुत खराब आदत है। हर विकसित देश का मन करता है कि भारत को एक बहुत बड़ा शौचालय बना दिया जाये जहां देशवासी आराम से कमोड में बैठकर निपटें तब तक ये इसे निपटा दें।
खुले से खुला देश भी जहां हर तरह की नंगई व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर जायज है,भारतीयों की खुले में निपटने की आदत से परेशान है।
हम भी मानते हैं कि खुले में गंदगी करना बहुत खराब बात है।
लेकिन आज मैं इस प्रवृत्ति का कारण सोच रहा था। मुझे लगा कि अइसा कौन सा कारण है कि वो भाई लोग कभी खुले में नहीं निपटते तथा ज्यादातर भारतीय बाहर ही निपट पाते हैं।
कोई न कोई कारण जरूर होगा । ऐसा तो है नहीं कि सारी सफाई की पढ़ाई वही किये हैं अउर हम बुरबक रहें हैं।
कारण जो मुझे समझ में आया वह मौसम का है। ज्यादातर विकसित देश ठंडे हैं। वहां अगर लोग खुले में निपटने लगें तो निपटान के पहले ही निपट जायें। कनाडा जैसे देश में जहां तापमान शून्य से बहुत नीचे रहता है वहां खुले में गठरी बन के बैठे आदमी तो ठठरी बन जाये। सो मजबूरी में वह बंद कमरे में निपटता है। यही कारण है कि वहां निटपने के बाद धोने के बजाय पोंछने का चलन है। पानी ठंडा होता है न!
इसके उलट भारत उष्ण कटिबंधीय देश है। नदियां,तालाब,बावड़ी बहुतायत में हैं। जीवनस्थितियां कठिन नहीं हैं। जहां मन आया बस गये। जहां मन आया निपट लिये।
यह खुले में निपटना हमारे देश की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है। बंद में काम करना ठंडे देश के लोगों की। किसी भी देश के आचार व्यवहार में देश की जलवायु,प्राकृतिक संसाधनों का बहुत बड़ा योगदान होता है।
महात्मा गांधी तक ने खेतों में निपटना जायज ठहराया था। उन्होंने तो बाकायदा लेख लिखकर बताया था कि किस तरह गढ्ढा खोदकर मल त्याग करना चाहिये ताकि उसका खाद के रूप में प्रयोग किया जा सके तथा गंदगी भी न फैले। लेकिन गढ्ढा खोदने का काम मेहनत का है- कौन करे!लिहाजा सफाई का गढ्ढा खुद जाता है।
बनारस में तो बहरी अलंग अर्थात गंगा किनारे (पार) निपटने की प्रक्रिया बहुत प्रचलित है। इस दिव्य निपटान के तमाम विवरण काशीनाथ सिंह ने अपने संस्मरणों में किये हैं।
मेरा इस लेख में तमाम गंदगी आ गई । यह ‘प्रेशर’ बना अतुल श्रीवास्तव का लेख । यह न समझा जाये कि मैं गंदगी के समर्थन खड़ा हूं। मुझे लगता है कि देश में गंदगी के अलावा भी बहुत कुछ देखने को है। गंदगी भी देखें लेकिन उसके पीछे कारण भी देखे। गांव से लोग शहर भाग रहे हैं-रोजी की तलाश में। वहां सर छिपाने को जगह नहीं तो निपटने के लिये पटरियां नहीं तो क्या ‘टाइल्ड टायलट’ नसीब होंगे?
देश की सरकारें भी अकर्मण्य भले हों लेकिन इतनी बेदर्द नहीं कि गंदगी फैलाने वाले गरीब,बेसहारा लोगों की उस तरह लिचिंग कर दे जिस तरह अमेरिका में मूल निवासियों रेडइंडियन की तथा कुछ दशकों पहले तक नीग्रो लोगों की होती रही।
फिर जो तबका परिवर्तन का वाहक होता युवा,बुद्धिजीवी वह देश से सुरक्षित दूरी बना कर देश के विकास का काम मल्टीनेशनल को आउटसोर्स करके देश के बारे में चिंतन कर रहा है,अरण्य रोदन कर रहा है।
यह कुछ उसी तरह से है कि जो हाल बंटाई पर उठी खेती का होता है। जिसके लिये घाघ कवि ने कहा है:-
जो हल जोतै खेती वाकी
और नहीं तो जाकी ताकी।
(खेती उसी की अच्छी होती है जो खुद जुताई करता है।)
लेकिन अगर हम खुद जुताई में जुट गये तो गंदगी का हिसाब कौन रखेगा?
गंदगी में वैसे भी खाद बनने संभावनायें सर्वाधिक होती हैं।
Posted in बस यूं ही | 17 Responses
आपकी शिकायत वाज़िब है. मैं भी ऐसे कई एनआरआई को जानता हूँ जिन्हें शिकायत है कि भारतीयों में सिविक सेंस नहीं है. (प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक भारत में इस गुण की कमी होगी, विश्वास नहीं होता.) इसी तरह कुछ एनआरआई-जनों को शिकायत है कि दिल्ली-मुंबई के हवाई अड्डों पर सिक्यूरिटी के नाम पर तंग किया जाता है. (पता नहीं ऐसी ख़बरें उनके आँखों के आगे से क्यों नहीं गुजरती जिसमें सुरक्षा के नाम पर अमरीकी हवाई अड्डों पर भारतीय नेताओं के धोती-कपड़े उतरवाने का ज़िक्र होता है.)कइयों को तो भारत के मौसम से भी एलर्जी है. (ख़ास कर धूल-धक्कड़ का ज़िक्र ख़ूब होता है, मानो ये भी भारत की भौगोलिक स्थिति के बज़ाय यहाँ के निवासियों, सरकार या नेताओं के कारण हो.)
वैसे फ़ुरसतिया जी, सच कहें तो ये शिकायतें एनआरआई-जनों की ही नहीं रह गई है, बल्कि भारत में ही रह कर भारत को कोसने वालों की संख्या अपेक्षाकृत कहीं ज़्यादा है.(लाखों की संख्या में ऐसे भारतवासी मिल जाएँगे जिनकी दलील है कि देश में कुछ साल के लिए तानाशाही लागू हो जानी चाहिए…भ्रष्टाचार मिटाने के लिए नहीं, बल्कि लोगों को अनुशासन सिखाने के लिए!)
भइये, सीधी-सी बात है कि कोई भी समाज परफ़ेक्ट नहीं है. कोई भी शहर विकास के अंतिम स्टॉप पर नहीं पहुँचा है क्योंकि विकास तो एक सतत प्रक्रिया है, कभी ख़त्म नहीं होने वाली प्रक्रिया. हर जगह उन्नीस-बीस(या सोलह-इक्कीस)का अंतर होता है. हर जगह अच्छे, बुरे, चालाक, चिरकुट आदि भाँति-भाँति के लोग निवास करते हैं- भारत-नेपाल में भी और अमरीका-ब्रिटेन में भी.
देश से बाहर रहने पर ज़्यादा देशप्रेमी हो जाना बिल्कुल ही स्वाभिवक बात है. ठीक उसी तरह जैसे घर-परिवार से दूर रहने वालों को अपने परिजनों की कमी ज़्यादा महसूस होती है. देश की कमियों पर खीझना भी स्वाभाविक ही है. अपनी कमियाँ गिनाना बंद करने की भी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि इसका किसी न किसी रूप में लाभ ही मिलता है. लेकिन आज जबकि पूरी दुनिया भारत को एक उभरती महाशक्ति के रूप में देख रही हो तो आलोचना का स्वर थोड़ा मद्धिम ज़रूर ही किया जा सकता है.
चरन धरत चिन्ता करत, चितवत चारहुँ ओर |
सुबरन को खोजत फिरत , कवि व्यभिचारी चोर ||
मेरा विचार है कि रेल की पटरियों के किनारे “निपटते” लोगों को देखकर कोई उसका सरल और व्यावहारिक हल खोजे , यह अधिक महत्वपूर्ण है | अर्थात समस्या को निहारिये और परखिये ; लेकिन उसका कोई हल सुझाने की कोशिश करने के उद्देश्य से |
अनुनाद
पूरा पोस्ट सही है मगर आपके लेख की शुरुआत का लेख से ठीक ठीक संपर्क नहीं समझ पाई। आज के देवर भाभी के रिश्ते को इस तरह generalize कर देना गलत लगा। कोई और उदाहरण दिया जा सकता था।
विसंगतियाँ हर समाज में होती हैं डिग्री और तरीके का फर्क हो सकता है.वैसे भी हर समाज/संस्कृति/सभ्यता का साइक्लिक प्रोग्रेशन होता है. आज जो ऊपर है वो कल नीचे भी जायगा ही.यही विकास का अनवरत, शाश्वत नियम है.
http://www.abhivyakti-hindi.org/vyangya/2006/kuchh.htm
मुझे अच्छा लगा छपाई वाले डालने के लिए। क्या ये युनिकोड में मिल सकता है? धन्यवाद।
http://hindini.com/fursatiya/?p=10#comments
लगे रहो। और साइकिल की हवा भरवाई कि नही?
जहाँ तक NRIs के सोचने के ढंग को कोसने का सवाल है तो आप जी भर के कोसिये – पर उससे पहले मेरे जैसे कई NRIs की तरह http://vibha.org और http://ashanet.org जैसी संस्थाओं में कुछ करिये. लगता है कभी उत्तर प्रदेश के पिछ्ड़े जिलों में नही गये हो. मैंने कई वर्ष बिताये हैं प्रतापगढ़ और जौनपुर जैसी कई जगहों में – दो तीन दिन वहाँ बिता कर आओ फिर बात करेंगे मोबाईल, पिज़्ज़ा हट और चमकीली कारों की. और हाँ यदि वहाँ जाने का कार्यक्रम बने तो साथ में पीने का पानी और बैट्री वाला पंखा अवश्य साथ में ले जाना. यदि और भी हिम्मत हो तो शाहजहाँपुर से बस में बैठ कर लखीमपुर खीरी जाने का भी लगे हाथ कार्यक्रम बना डालना.
आक्रोश के लिये क्षमा चाहता हूँ, पर मैं भारत को अभी भी उन्ही छोटे जिलों में ढूँढता हूँ जहाँ मैंने सर्वाधिक वर्ष व्यतीत किये हैं – और उन क्षेत्रों में कोई खास बदलाव नहीं आया है. लिखना आसान है – और आजकल तो करना भी बहुत आसान है – चलिये कुछ कर भी लिया जाये:
http://vibha.org
http://ashanet.org
दुनिया मैंने नहीं देखी लेकिन जितनी हिंदी मुझे आती है उससे जो मुझे लगा (यह मुझे आपकी पोस्ट से लगा ) कि एन आर आई जब भी देश में लौटकर आता है उसकी निगाह गंदगी पर ही पड़ती है। वह गंदगी देखता रहता है,कोसता रहता है। तमाम दूसरी चीजें उसकी निगाह में नहीं आती।
रही मेरे कोसने वाली बात तो हम कोस कहां रहें हैं ! आपने अपनी बात रखी रखी , हमने अपनी रख दी। ये तो अपना-अपना नज़रिया है देखने का। हमारे देश में तमाम कमियां हैं ,विसंगतियां हैं लेकिन सम्भावनायें भी हैं।
हम अभी भी कह रहें हैं कि यह विडम्बना है कि आप जहां रहते हैं वहां कोई विसंगति न देख पाये आप न बता पाये। जिन संस्थाओं में एन आर आई की तरह काम करने की बात कही तो हम कैसे करें हम तो एम आर आई हैं नहीं। न कम्प्यूटर का ज्ञान है।
जहां तक पिछड़े जिलों में रहने की बात है तो जानकारी के लिये बता दूं (इसे सूचना के लिये समझा जाये न कि डींग हांकने के लिये)कि हम शाहजहांपुर पूरे आठ साल रहे(हफ्ता भर पहले ही लौट के आये हैं शाहजहांपुर से -बिना बैटरी गये थे रेल के जनरल डिब्बे में बैठ के),लखीमपुर हमारी ससुराल है तथा हम शाहजहांपुर से लखीमपुर पचासों बार बस से जा चुके हैं । जहां तक देश के पिछड़े इलाके देखने की बात है तो तीन महीने की साईकिल यात्रा के दौरान हमने वो-वो बीहड़ इलाके देखे देश के जिनके बारे में बहुतों ने सुना तक नहीं होगा।
आक्रोश के लिये हम क्षमा कैसे करें? प्रोटोकाल इजाजत नहीं देता। लेकिन आक्रोश स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं होता। मत किया करें। आज ही पढ़ा कि अमेरिका में १६% लोग स्लीपिंग डिसआर्डर के शिकार हैं। आक्रोश करेंगे तो इनकी संख्या बढ़ेगी। फिर साइट वगैरह का काम प्रभावित होगा।
यह हमारे अपने विचार हैं जरूरी नहीं कि आप सहमत हों ।
बिल्कुल सहमत हूँ कुछ लोगों के कथन से कि न्रि भारत की बुराईयाँ ही देखते हैं – पर ये प्रतिशत कोई बहुत ज्यादा नहीं है. मैं स्वयम कई न्रि को जानता हूँ जो भारत और भारतीयों को निम्न दृष्टि से देखते हैं और इतनी हीन भावना से ग्रसित होते हैं कि अपना नाम तक बदल लेते हैं – तो भैय्या मैं ऐसे लोगों को किसी भी तरह का भारतीय नहीं मानता हूँ (वैसे इस तरह के प्राणियों की संख्या अब भारत में भी काफी बढ़ रही है – जब भी दिल्ली के तथाकतिथ उन्नतिशील इलाके में जाता हूँ तो कान अच्छी हिन्दी सुनने को तरस जाते हैं).
दूसरी तरफ मेरे जैसे कुछ बावले हैं जो शायद भारत को उस रूप में देखना चाहते हैं जहाँ मानवीय पीड़ा कम हो – सभी के पास मूल सुविधायें (जैसे कि साफ सफाई, अच्छी सड़कें, बत्ती, पानी और उत्तम चिकित्सा) बिना किसी हो-हुज्जत के उपलब्ध हों. और, जब कई सालों के बाद भी जब वो नहीं दिखता है तो बस मन यही पूछता है – कहाँ है उन्नति?
और हाँ अमरीका की बुराईयाँ देख कर खुश न हों क्यों कि इससे भारत की वास्तविक उन्नति पर कोई असर नहीं पड़ता है. अपनी बुराईयाँ बताये जाने पर दूसरों की बुराईयों की ढपली पीटना या उनका उदाहरण देना defense mechanism कहलाता है.
यदि शाहजहाँपुर से लखीमपुर 50 बार उ.प्र.रा.प.नि. की बस में बैठने के बाद भी कभी मन में ये सवाल नहीं आया कि पिछले 25 सालों में ये बस और सड़क अभी तक क्यों नही सुधरीं – तो शायद लोग उसी के योग्य हैं.
धन्यवाद