Wednesday, May 31, 2006

हम,वे और भीड़

http://web.archive.org/web/20110926115256/http://hindini.com/fursatiya/archives/136

हम,वे और भीड़

हरिशंकर परसाई का लेख ‘आवारा भीड़ के खतरे’ पढ़ने के बाद की ‘भारत भूषण तिवारीजी’ प्रतिक्रिया थी-
अब इसी कडी में ‘हम,वे और भीड’ भी पोस्ट कर दें तो बडी कृपा होगी
हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई
मैं तुरंत तो लेख पोस्ट नहीं कर पाया । लेकिन आज मौका मिला तो यह फरमाइश पूरी कर रहा हूँ। हरिशंकर परसाई का लेख- हम,वे और भीड़ किसी साल की शुरुआत में लिखा गया होगा। लेकिन लेख पढ़ने के बाद लगता है कि यह आज भी सार्थक है।

हम,वे और भीड़

जनवरी के नोट्‌स
एक कैलेण्डर और बेकार हो गया। पन्ना-पन्ना मैला हो गया और हर तस्वीर का रंग उड़ गया। हर साल ऐसा होता है। जनवरी में दीवार पर चमकीली तसवीरों का एक कैलेण्डर टंग जाता है और दिसम्बर तक तस्वीर की चमक उड़ जाती है। हर तस्वीर बारह महीनों में बदरंग हो जाती है।
पुराने कैलेण्डर की तस्वीर बच्चे काट लेते हैं और उसे कहीं चिपका देते हैं। हम सोचते हैं ,बच्चों का मन बहलता है, पर यह उनके साथ कितना बड़ा धोखा है। साल-दर-साल हम उनसे कहते हैं ,लो बेटों ,जो साल हमने बिगाड़ दिया,उसे लो। उसकी तस्वीर से मन बहलाओ। बीते हुये की बदरंग मुरझाई तस्वीरें हैं ये। आगत की कोई चमकीली तसवीर हम तुम्हें नहीं दे सकते। हम उसमें खुद धोखा खा चुके हैं और खाते रहेंगे। देने वाले हमें भी तो हर साल के शुरू में रंगीन तसवीर देते हैं कि लो अभागों ,रोओ मत। आगामी साल की यह रंगीन तसवीर है। मगर वह कच्चे रंग की होती है। साल बीतते वह भद्दी हो जाती है। धोखा, जो हमें विरासत में मिला, हम तुम्हें देते हैं। किसी दिन तुम इन बदरंग तसवीरों को हमारे सामने ही फाड़कर फेंक दोगे और हमारे मुँह पर थूकोगे।
नया साल आ गया। पहले मैं १५ अगस्त से नया साल गिनता था। अब वैसा करते डर लगता है। मन में दर्द उठता है कि हाय , इतने साल हो गये फिर भी! जवाब मिलता है कोई जादू थोड़े ही है। पर तरह-तरह के जादू तो हो रहे हैं। यही क्यों नही होता? अफसर के इतने बडे़ मकान बन जाते हैं कि वह राष्ट्रपति को किराये पर देने का हौसला रखता है। किस जादू से गोदाम में रखे गेहूँ का हर दाना सोने का हो गया? इसे बो दिया जायेगा ,तो फिर सोने की फसल कट जायेगी।
अफसर के इतने बडे़ मकान बन जाते हैं कि वह राष्ट्रपति को किराये पर देने का हौसला रखता है।
जनवरी से साल बदलने में दर्द न उठता , न हाय होती और न ‘फिर भी’ का सवाल उठता। आखिरी हफ्ते में कुछ यादें जरूर होती हैं। २३ जनवरी याद दिलाती है कि सुभाष बाबू ने कहा था- ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ खून तो हमने दे दिया ,मगर आजादी किन्हें दे दी गयी? फिर भी २४ या २५ तारीख को लाल किले पर सर्वभाषा कवि सम्मेलन होता है जिसमें बडे़-बड़े कवि मेहनत करके घटिया कविता लिखकर लाते हैं और छोटे कवि मेहनत से और घटिया अनुवाद करते हैं। हिन्दी और उर्दू के कवि खास तौर से उचक्कापन और ओवरएक्टिंग करते हैं। यों इन भाषाओं की सारी समकालीन कविता घटिया हीरो की ओवरएक्टिंग है। फिर २६ जनवरी को गणतन्त्र दिवस होता है और हम संविधान की प्रति निकालकर गणतन्त्र के निर्देशक सिद्धान्त और बुनियादी अधिकारो का पाठ करते हैं। इसी वक्त गुरू गोलवरकर की वाणी सुनाई देती है कि यह राष्ट्र तो सिर्फ हिन्दुओं का है-मुसलमान ,पारसी,ईसाई वगैरह विदेशी हैं और खासकर मुसलमान तो देशद्रोही हैं। मगर जो सुरक्षा सम्बन्धी गुप्त बातें पाकिस्तान को देते पकड़े गये,वे शुद्ध ब्राह्मण हैं। यह भी जादू है।
सुभाष बाबू ने कहा था- ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ खून तो हमने दे दिया ,मगर आजादी किन्हें दे दी गयी?
फिर ३० जनवरी…।
हमारे बापों से कहा जाता था कि आजादी की घास गुलामी के घी से अच्छी होती है। हम तब बच्चे थे,मगर हमने भी इसे सुना ,समझा और स्वीकारा।
आजाद हो गये,तो हमने कहा-अच्छा अब हम गौरव के साथ घास भी खा लेंगे।
नारा लगाने वालों से यह पूछना भूल गये कि कब तक खायेंगे।
मगर हमने देखा कि कुछ लोग अपनी काली-काली भैंसे आजादी की घास पर छोड़ दी और घास उनके पेट में जाने लगी। तब भैंस वालों ने उन्हें दुह लिया और दूध का घी बनाकर हमारे सामने पीने लगे।
धोखा ही हुआ न! हमें और हमारे बापों को बताया ही नहीं गया था कि आजादी की घास तो होगी ,पर कुछ के पास कभी-कभी भैंसे भी होंगी।
अब हम उनसे कहते हैं-यारों तुम भी आजादी की घास खाओ न!
वे जवाब देते हैं-खा तो रहे हैं। तुम घास सीधे खा लेते हो और हम भैंसों की मारफत खाते हैं। वह अगर घी बन जाती है ,तो हम क्या करें?
और हम अपने बाप को कोसते हैं कि तुमने तभी इस बारे में साफ बातें क्यों नहीं कर लीं।वह काली भैंसों वाली शर्त क्यों मान ली? क्या हक था तुम्हें हमारी तरफ से सौदा करने का?
सोशलिस्ट अर्थशाष्त्री से पूछते हैं तो वह अपनी उलझी हुई दाढ़ी पर हाथ फेरकर कहता है-कम्पल्शंस आफ ए बैकवर्ड इकानामी! पिछड़ी अर्थव्यवस्था की बाध्यताएँ हैं ये।
हैं तो। घर से दुकान तक पहुँचते भाव बढ़ जाते हैं।
देश एक कतार में बदल गया है। चलती-फिरती कतार है-कभी चावल की दूकान पर खड़ी होती है,फिर सरककर शक्कर की दूकान पर चली जाती है। आधी जिन्दगी कतार में खड़े-खड़े बीत रही है।
‘शस्य श्यामला’ भूमि के वासी ‘भारत भाग्य विधाता’ से प्रार्थना करते हैं कि इस साल अमेरिका में गेहूँ खूब पैदा हो और जापान में चावल।
हम ‘मदरलैण्ड’ न कहकर ‘फादरलैण्ड’ कहने लगें तो ठीक होगा। रोटी माँ से माँगी जाती है ,बाप से नहीं। ‘फादरलैण्ड ‘ कहने लगेंगे , तो ये माँगें और शिकायतें नहीं होंगी।
मैं फिर भीड़ के चक्कर में पड़ गया।
मेरा एक मित्र सही कहता है- परसाई,तुम पर भीड़ हावी है। तुम हमेशा भीड़ की बात भीड़ के लिये लिखते हो। देखते नहीं , अच्छे लेखकों की चिंता यह है कि भीड़ के दबाव से कैसे बचा जाये।
छोटा आदमी हमेशा भीड़ से कतराता है। एक तो उसे अपने वैशिष्ट्य के लोप हो जाने का डर रहता है,दूसरे कुचल जाने का। जो छोटा है और अपनी विशिष्टता को हमेशा उजागर रखना चाहता है,उसे सचमुच भीड़ में नहीं घुसना चाहिये। लघुता को बहुत लोग इस गौरव से धारण करते हैं,जैसे छोटे होने के लिये उन्हें बहुत बड़ी तपस्या करनी पड़ी है। उन्हें भीड़ में खो जाने का डर बना रहता है।
छोटा आदमी हमेशा भीड़ से कतराता है। एक तो उसे अपने वैशिष्ट्य के लोप हो जाने का डर रहता है,दूसरे कुचल जाने का।
एक तरकीब है,जिससे छोटा आदमी भी भीड़ में विशिष्ट और सबके ध्यान का केंद्र बन सकता है -उसे बकरे या कुत्ते की बोली बोलने लगना चाहिये। भीड़ का उद्धेश्य जब सस्ता अनाज लेने का हो,वह इसके लिये आगे बढ़ रही हो, उसका ध्येय ,एक मन:स्थिति और एक गति हो -तब यदि छोटा आदमी बकरे की बोली बोल उठे , तो वह एकदम विशिष्ट हो जायेगा और सबका ध्यान खींच लेगा।
लोग मुझसे कहीं होशियार हैं। मेरे बताये बिना भी वे यह तरकीब जानते हैं और भूखों की भीड़ में बकरे की बोली बोल रहे हैं।
बड़ा डर है कि भीड़ हमें यानि स्वतंत्र चिन्तकों और लेखकों को दबोच रही है।
वे नहीं जानते या छिपाते हैं कि भीड़ से अलग करके भी किसी एकान्त में दबोचे जाते हैं। लेखकों की चोरी करने वाले कई गिरोह हैं। वे भीड़ में शिकार को ताड़ते रहते हैं और उसे भीड़ से अलग करके ,अपने साथ किसी अँधेरी कोठरी में ले जाते हैं। वहाँ उसके हाथ-पाँव बाँधकर मुँह में कपड़ा ठूँस देते हैं। तब स्वतंत्र चिंतक सिर्फ ‘घों-घों’ की आवाज निकाल सकता है। गिरोहवाले उस ‘घों-घों’ में सौन्दर्यशाष्त्रीय मूल्य ढ़ूँढ़कर बता देते हैं। उसे तत्व ज्ञान सिद्ध कर देते हैं।
जिसकी अनाज की थैली लेकर दूसरा कोई कतार में खड़ा हो ,वह भीड़ से घृणा कर सकता है। जिसका थैला अपने ही हाथ में हो ,वह क्या करे?
भीड़ से बचने का एक तरीका और है। एक मीनार खड़ी करो। उस पर बैठ जाओ। एक लम्बी रस्सी में खाने का डिब्बा बाँधकर नीचे लटकाओ और ऊपर से रोओ। कोई दया करके डब्बे में दाल -रोटी रख देगा। डिब्बा ऊपर खींचकर रोटी खा लो और ऊपर से भीड़ पर थूको।
जिसकी अनाज की थैली लेकर दूसरा कोई कतार में खड़ा हो ,वह भीड़ से घृणा कर सकता है। जिसका थैला अपने ही हाथ में हो ,वह क्या करे?
लेखक की हालत खस्ता है। वह सोचता है कि मेरा अलग से कुछ हो जाये। सबके साथ होने में विशिष्टता मारी जाती है। दिन-भर पेट भरने के लिये उसके जूते घिसते हैं और शाम को काफी हाउस में बैठकर वह कहता है कि हमें कोई भीड़ से बचाओ।
उधर भीड़ कहती है कि कोई हमें इनसे बचाओ।
राजनीति की बू आती है , इन बातों से । है न!
लेखन को तो मनुष्य से मतलब है,राजनीति वगैरह से क्या?
मगर मनुष्य की नियति तय करने वाली एक राजनीति भी है।
लेखक दम्भ से कहता है,पहली बार हमने जीवन को उसके पूर्ण और यथार्थ रूप में स्वीकारा है।
तूने भाई, किसका जीवन स्वीकारा है? जीवन तो अर्थमंत्री के बदलने से भी प्रभावित हो रहा है और अमरिकी चुनाव से भी।
कल अगर फासिस्ट तानाशाही आ गयी , तो हे स्वतंत्र चिंतक ,हे भीड़ द्वेषी, तेरे स्वतंत्र चिंतन का क्या होगा? फिर तो तेरा गला दबाया जायेगा और तूने अपनी इच्छा से कोई आवाज निकालने की कोशिश की तो गला ही कट जायेगा।
आज तू यह सोंचने में झेंपता है और ऊपर से कहता है- आज हम जीवन से सम्पृक्त हैं।
कल अगर फासिस्ट
तानाशाही आ गयी , तो हे स्वतंत्र चिंतक ,हे भीड़ द्वेषी, तेरे स्वतंत्र चिंतन का क्या होगा?
भीड़ की बात छोड़ें। लेखकों की बात करें।
‘अज्ञेय’ को ‘आँगन से पार द्वार’ पर अकादमी -पुरस्कार मिल गया। पहले क्यों नहीं मिला? उम्र कम थी। आम मत है कि ‘आँगन के पार द्वार’ से पहले के संग्रहों की कवितायें अच्छी हैं।
फिर उन पर क्यों पुरस्कार नहीं मिला? तब उम्र कम थी और अच्छी रचना को पुरस्कृत करने की कोई परम्परा नहीं है।
पं. माखनलाल चतुर्वेदी का सम्मान हुआ और थैली भेंट की गयी। पहले क्यों नहीं हुआ? उम्र उनकी भी कम थी।
जानसन ने लार्ड चैस्टरफील्ड को चिट्ठी में लिखा था कि माई लार्ड , क्या ‘पेट्रन’ वह होता है जो किनारे पर खड़ा-खड़ा आदमी को डूबते देखता रहे और जब वह किसी तरह बचकर बाहर निकल आये, तो वह उसे गले लगा ले।
पुरस्कार और आर्थिक सहायता रचना करने के लिये मिलते हैं या रचना बंद करने के लिये?
मैं देने वालों के पास जाऊँ और कहूँ- सर,मैं लिखना बन्द कर रहा हूँ-इस उपलक्ष्य में आप मुझे क्या देते हैं?
सर पूछेगा- कब से बन्द कर रहे हो?
-अगली पहली तारीख से।
सर कहेगा- तुम कल ही से बन्द कर दो तो मैं कल ही से तुम्हारी मासिक सहायता बाँध देता हूँ। खबरदार,लिखा तो बन्द कर दूँगा।
मैं कहूँगा-ऐसा है तो मैं आज से ही बन्द कर दूँगा। आज से ही तनखा बाँध दीजिये।
एक वृद्ध गरीब लेखक बेचाराइधर शहर में घूम रहा है। उसे दो ‘प्रतिष्ठित’ आदमियों से दरिद्रता के सर्टिफिकेट चाहिये। उसने सहायता के लिये दरख्वास्त दी है। उसमें नत्थी करेगा। तब कलेक्टर जाँच करके सिफारिश करेगा कि हाँ,यह लेखक सचमुच दरिद्र है,दीन है। दीन नहीं है, ऐसे दो बेईमान चन्दा खानेवालों ने इसकी दरिद्रता प्रमाणित की है।
क्या मतलब है इन शब्दों का- स्वतंत्रचेता, द्रष्टा,विशिष्ट,आत्मा के प्रति प्रतिबद्द ,आत्मा का अन्वेषी?
जिसने हमें क्रान्ति सिखायी थी औरजो कहता था कि मेरी आत्मा में हिमालय घुस गया है, उसे मैंने अभी देखा।
जिसने ज्वाला धधकाने की बात की थी उसे भी अभी देखा।
जो सन्त कवियों की ‘स्पिरिट’ को आत्मसात किये है, उसे भी देखा।
कहाँ देखा?
मुख्यमंत्री के आसपास। तीनों में प्रतिस्पर्धा चल रही थी कि कौन किस जेब में घुस जाये। कोट की दो जेबों में दो घुस गये।
तीसरे ने कहा-हाय,अगर मुख्यमंत्री पतलून पहने होते तो , तो मैं उसकी जेब में घुस जाता। तीनों ‘एम्प्लायमेण्ट एक्सचेंज’ से कार्ड बनवाकर जेब में रखे हैं। किसी को कुछ होना है,किसी को कुछ।
कहानी पर बात करना व्यर्थ है। मैं पिछले दो महीने से व्यूह- रचना के सम्पर्क में नहीं हूँ। उसे जाने बिना मूल्यों की बात नहीं हो सकती। दिल्ली जाकर चार तरह के लेखकों से मिलूँगा। वे चार तरह के कौन? काफी हाउस वाले,टी हाउस वाले, शालीमार वाले और फोन पर हेलो वाले।
साहित्य की सबसे बड़ी समस्या इस समय यह है कि डा. नामवार सिंह ने एक लेख में श्रीकान्त वर्मा को ‘कोट’ किया है और तारीफ तथा सहमति के साथ किया है। यह चकित करने वाली बात है।
हम सबके लिये आगामी माह का ‘असाइनमेंट ‘ यही है कि हम इस रहस्य का पता लगायें। तब कुछ पढ़ें -लिखें।
-हरिशंकर परसाई

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

6 responses to “हम,वे और भीड़”

  1. आशीष
    परसाई जी के व्यंग्य हंसाते कम चुभते ज्यादा है|
  2. भारत भूषण तिवारी
    पहली टिप्पणी करके कृतज्ञता व्यक्त कर रहा हूँ.फरमाइश इतनी जल्दी पूरी करने हेतु धन्यवाद.
  3. समीर लाल
    बेहतरीन साहित्य पढवा रहे हैं, अनूप भाई. जारी रखें.बधाई हो.
  4. अनूप भार्गव
    परसाई जी एक ‘राष्ट्रीय निधी’ थे , उन की यह रचना पहुँचानें के लिये धन्यवाद.
  5. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.छीरसागर में एक दिन 2.शंकरजी बोले- तथास्तु 3.धूमिल की कवितायें 4.थेथरई मलाई तथा धूमिल की कविता 5.आरक्षण-कुछ बेतरतीब विचार 6.आवारा भीड़ के खतरे 7.अति सर्वत्र वर्जयेत्‌ 8.एक पोस्ट हवाई अड्डे से 9.अथ पूना ब्लागर भेंटवार्ता कथा… 10.हम,वे और भीड़ [...]
  6. चंदन कुमार मिश्र
    ‘डा. नामवार सिंह ने एक लेख में श्रीकान्त वर्मा को ‘कोट’ किया है और तारीफ तथा सहमति के साथ किया है। यह चकित करने वाली बात है।’—वाह जी। अजीब सवाला उठाया इन्होंने। अब होये और यह बात कहते तो बालीवुडी-मीडिया पीछे पड़ के कई धाँसू एपिसोड दिखा चुका होता…हमेशा की तरह बेहतर…

Sunday, May 28, 2006

अथ पूना ब्लागर भेंटवार्ता कथा…

http://web.archive.org/web/20110926075915/http://hindini.com/fursatiya/archives/135

अथ पूना ब्लागर भेंटवार्ता कथा…

दिल्ली से मुंबई के लिये जहाज मिला रात के साढ़े दस बजे।मुंबई पहुँचे रात के सवा बजे। टैक्सी ड्राइवर हमारा इंतजार कर रहा था। तुरंत पूना के लिये चल दिया। मुंबई-पूना हाईवे पर झारखंडी ड्राइवर की मुंबइया हिंदी में पिछले बरस मंबई की बाढ़ के किस्से सुनते हुये हम नींद में डूब गये। नींद खुली तो वो अपने झारखंड के बचपन के किस्से सुना रहा था तथा बता रहा था कि जन्मभूमि को कोई कैसे भूल सकता है!
बहरहाल किस्सों में डूबते उतराते जब हम अपने गेस्ट हाउस के कमरे में पहुँचे तो घड़ी चार बजा रही थी। यह समय हमारे बुजुर्गों ने जागने के लिये तय किया है। लेकिन बुजुर्गों से माफी मांगते हुये हम खर्टारे भरने लगे। यह क्रम टूटा सबेरे सात बजे जब चाय आई।चाय आई तो साथ में देबाशीष की याद लाई। हमहू सोचा ,लाओ यार कुछ देर देबू से बतियाई।
किरकी के गेस्ट हाउस में
देबाशीष-अनूप
बात हुई तो पता चला कि देबू ‘पत्नी विछोह सुख’ लूट रहे हैं। अब मुझे कारण समझ में आया कि कैसे मेरी पूना पहुँचने की मेल की सूचना के जवाब में तुरंत देबू ने मुझे अपने घर में ठहराने का वीरता पूर्ण निमंत्रण दे डाला था-बिना पत्नी से पूछे। पत्नी की अनुपस्थिति में पति ,भले ही वो बंगाली ही क्यों न हो,कितना उदार/बहादुर हो जाता है!
बहरहाल हम पहले से ही दाल में काला भांपते हुये अपने गेस्ट हाउस में रुके। कारण यह भी लालच था कि अपने तमाम दोस्तों से मुलाकात हो जायेगी। जानकारी के लिये बता दूँ कि आयुध निर्माणियों की तीन फैक्ट्रियाँ पूना में हैं। जिनमें से एक तो सन्‌ १८२५ को संस्थापित है। यहाँ सेना के लिये विस्फोटक बनते हैं। यहाँ देश की सबसे पुरानी तथा सबसे आधुनिक तकनीक का अनूठा सम्मिश्रण है।
गेस्ट हाउस के बाहर
देबाशीष-अनूप
बहरहाल देबाशीष से हमने कहा,’ भइये तुम्ही अपने को उठा के यहाँ ले आओ। ताकि तुम्हारा कष्ट भी कम हो ,हमारा भी।’
देबू ने हमारा अनुरोध मान लिया-बिना नखरे किये । हम चाय-पीकर राजा बेटा बन कर देबाशीष का इंतजार करने लगे।इंतजार करते-करते आसपास के फोटो भी ‘खैंचे’। उन फोटो में गुलमोहर का भी एक फोटो था।
देबाशीष गेस्ट हाउस के पास ही रहते हैं। सो ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। कुछ ही देर में हम देबाशीष से हाथ मिला रहे थे-दिल पहले ही मिल चुका था।
कुछ देर की गुफ्तगू के बाद हमने देबाशीष को दो किताबें सौंप दीं। रागदरबारी तथा आधा गांव। तीसरी कसप अभी बकाया है। वो भी जल्द ही भेंट की जायेगी।देबू ने एक किताब पर क्या लिखा है बता दिया लेकिन दूसरी के बारे में छिपा गये। दूसरी किताब पर हमने लिखा था-‘ हिंदी ब्लागजगत के पितामह के नाम से विख्यात/कुख्यात देबाशीष के लिये तमाम शुभकामनाओं मंगलकामनाओं के साथ।’
देबू को’ब्लागजगत के पितामह’ की पदवी दी है रविरतलामी ने । यह भी संयोग है कि हमको ब्लाग जगत के महासागर में धकेलने वाले रविरतलामी थे तथा शुरूआत हमने देबाशीष के ब्लाग पर उपलब्ध की बोर्ड से की सहायता से कि थी। पहली पोस्ट में बहुत देर की मेहनत के बाद लिखा था-
अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है
फिर तो पता नहीं कहां-कहां की बातें होती रहीं। हमने नाश्ता किया । पता चला कि जहाँ हमें जाना था वह जगह देबाशीष के आफिस के पास ही है। फिर तो हमने अपने लिये जो गाड़ी आनी थी उसे मना कर दिया । सोचा कि देबाशीष के साथ बतियाये हुये जायेंगे।
देबाशीष के स्कूटर पर बैठने से पहले हमने हवा के बारे में पूछ लिया । स्कूटर तथा देबू दोनों की हवा सलामत थी। देबू खरामा-खरामा बंगाली स्पीड में स्कूटर चलाते हुये हमें लेकर चल दिये। हम रास्ते भर बतियाते रहे। देबू चूंकि आवारा टाइप के नहीं हैं लिहाजा उनको अपने आफिस के आस-पास की भी तमाम जगहों का अंदाजा नहीं है। हम जब होटल पहुंचे जहां हमारी ट्रेनिंग होने वाली थी तो दस बज रहे थे। देबू हमें छोड़कर आफिस चले गये।
बीच में एकाध बार बात हुई। शाम को जब मेरी क्लास छूटी तो देबू से फिर बात हुई। हमने कहा कि तुम अपना काम करो। शाम को मिलते हैं। देबू मान से भी गये तथा हमें जाने के दो-तीन रास्ते, तरीके बता दिये।इस बीच हम वहीं ‘सोहराब हाल’ में देबाशीष की बताई किताब की दुकान ‘क्रासवर्ड’ में भी टहल आये। वहाँ हर तरफ अंग्रेजी की किताबें पसरी थीं। हम बिना हल किये ‘क्रासवर्ड’ से बाहर आ गये।
इसके बाद हम जाने के सबसे फुरसतिया तथा फोकटिया तरीके का विचार करते बस का इंतजार करते रहे। हम प्रस्थान करने ही वाले थे कि देबाशीष पर ‘अतिथि देवो भव’ के वायरस ने हमला कर दिया। देवता के रोमिंग पर आ चुके मोबाइल के दस रुपये फूंकते हुये वो बोले-आप वहीं रुको मैं आता हूँ।
हम रुक गये। मैं देबाशीष के आने की राह तथा सड़क पर गुजरती सुंदरियों को ताकने लगा। कुछ देर में देबू ने हमारी तपस्या भंग की। तथा हमें तपस्या के फल के रुप में चाय पिलाने का आग्रह किया।आदमी किसी प्रिय से मिलने पर भावविभोर हो जाता है। सुदामा जब कृष्ण से मिले तो कृष्ण वावरे हो गये थे तथा पानी की जगह आँसुओं से ही उनके पैर धोने लगे-
‘पानी परात को हाथ छुओ नहिं नैनन के जल सों पग धोये।’
बियर की दुकान में चाय

चाय ६० रुपये कप
यहाँ हम दोनों ही पर्याप्त बौराये थे सो बिना कुछ बिचारे बियर की दुकान में चाय पीने घुस गये। और जब बिना बिचारे का इनपुट दिया जायेगा तो पछताने का आउटपुट आना लाजिमी था। चाय की कीमत साठ रुपये!
चाय के एक कप की कीमत देखते ही हमें जो चाय अभी तक सर्व भी न की गई थी -उसका स्वाद खराब लगने लगा। मुझे लगता है कि देश के किसी भी हिस्से में चाय की कीमत अगर रुपयों में दो अंको से अधिक है तो वह चाय पीना बेवकूफी है। लेकिन देबू के कारण यह बेवकूफी करनी पड़ी।वैसे हमने कहा भी -आओ यार,कहीं ढाबे पर पीते हैं चाय।लेकिन देबू का सिस्टम अभी तक ‘अतिथि देवो भव’ के वायरस की चपेट में था।
बहरहाल ,हमने चाय तो पी ही। वातानुकूलित हवा का आनंद लेते हुये ढेर सारी बातें की। पता नहीं किन-किन मुद्दों पर,किन-किन लोगों के बारे में। देबाशीष ने कई लोगों की बहुत तारीफ की। जिनमें आलोक,रमन,पंकज,सुनीलदीपक,हिंदीब्लागर आदि इत्यादि के नाम प्रमुख । जीतू की उछल-कूद भी चर्चा से बाहर कैसे रह सकती है(ये नाम मैंने स्मृति के आधार पर लिखे और लोग अपना नाम सुविधानुसार जोड़ लें)। रवि रतलामी भी थे भाई समय बरवाद करने वाली चर्चा में थी इनकी टाइपिंग स्पीड तथा देबाशीष का बयान-’रवि भाई,पता नहीं कहां-कहां लिखते रहते हैं। गजब की स्पीड है भाई।’ तमाम बातें होतीं रहीं। घंटों। शाम होने पर मैं लौट आया। देबू अपने आफिस चले गये। बाद में रात को फिर गेस्ट हाउस में मिलना तय हुआ ।
रात को हम देबू का इंतज़ार करते रहे। आना करीब साढ़े नौ पर तय हुआ था। खाने वाला बार-बार घंटी बजा बजा रहा था-साहब,खाना तैयार है। हम बार-बार कह रहे थे -खाने वाले तो आ जायें।
बहरहाल, खाने वाले समय पर आये । हम खाना खाने के लिये डाइनिंग हाल में गये। खाकर फिर कमरे में आ गये। बतकही होने लगी। हम दोनों ‘दून की’ हाँकने लगे।
इस बीच हमने एक किताब पढ़ी थी ‘हरसूद-३० जून’ । यह वह कस्बा है जो कि तीस जून,२००४ को नर्मदा सागर बाँध परियोजना में डूब गया। सहारा समय के पत्रकार विजय मनोहर तिवारी ने डूब क्षेत्र के लोगों की परेशानियों का प्रत्यक्ष रिपोर्टिंग के बाद के अनुभव इस किताब में लिखे हैं।जो लोग बिना दूसरों की परेशानी जाने मेधा पाटकर या किसी दूसरे पर्यावरणविद को विकास विरोधी बताते हुये बेसाख्ता कोसते हैं उनको ‘हरसूद-३० जून’ तथा वीरेंद्र जैन का उपन्यास ‘डूब’ पढ़ना चाहिये तथा बशीर बद्र का शेर याद करना चाहिये-
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने (उजाड़ने)में।
हम लोग विजय मनोहर तिवारी से बातचीत के बारे में योजना बनाते रहे।
इस बीच अतुल,देबू,स्वामी के रिश्ते भी कुछ गरमाहट भरे रहे। हमनें बहुत देर इस मुद्दे पर बातचीत की। संयोग कुछ ऐसा है कि ये तीनों ही हमारे बहुत प्यारे दोस्त हैं। यह भी संयोग है कि मुझे लगता है कि मैं सबके व्यक्तित्व की ‘केमेस्ट्री’ से बहुत हद वाकिफ हूँ।
गेस्ट हाउस के कमरे में

हरसूद डूब गया>
मजे की बात कि अतुल के लेखन के देबाशीष मुरीद हैं,देबू के तकनीकी कौशल और तमाम दूसरी बातों का लोहा स्वामी तथा अतुल मानते हैं स्वामी के दिल के खरे होने की कसमें अतुल खाते हैं( जिनको स्वामी के साथ ईमेलिया मल्ल का बेहतरीन अनुभव है)। सच तो यह है कि इन बेचारों के पास अपनी अइसी कोई बुरी आदत नहीं है जिसकी ढील देते हुये लेकर ये अपने गरमाहट के पेंच बहुत देर तक लड़ा सकें। लेकिन लगता है कि दूरियाँ कुछ दरार बना ही देती है। इसीलिये कहते हैं मिलते रहा करो- दिल मिले न मिले ,हाथ मिलाते रहिये।
दिल-हाथ मिलाते रहना जरूरी भी है। नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि इधर आप पेंच लड़ाने में मसगूल रह जाओ और उधर को लंगड़ डाल के सारा मंझा तथा पतंग लूट ले जाये।
इस मुद्दे पर बतियाते हुये हमने अइसे-अइसे सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विष्लेषण किये कि अगर कहीं उन सबको नेट पर प्रकाशित करा दें तो तमाम समाजविज्ञानी-मनोवैज्ञानिक गण्डा बँधाने चले आयें।लेकिन कौन पड़े झमेले में! आसान नहीं है खलीफागिरी आजकल।
निष्कर्षत: हमने बयान जारी किया –
वो बरतन क्या जो खटके न, वो दोस्त क्या जो भड़के न।
बात करते-करते आधी रात से ज्यादा हो गयी।बातें थीं कि खतम हीं नहीं हो रहीं थी। इसी के लिये शायद किसी ने लिखा है-
रात-रात भर बातें की हैं,
बात-बात पर रातें की हैं।
बहरहाल अगले दिन फिर मिलने का वायदा होकर हमने सभा बरखास्त की।
होटल मधुबन
चाय बढ़िया है यार!
अगले दिन दोपहर के बाद हमारा काम खतम हो गया। चार बजे हमने देबू को बताया । फिर से हम चल दिये अड्डेबाजी के लिये। इस बार अड्डा बना देबाशीष के आफिस के पास का होटल-मधुबन। अड्डे की तरफ जाते हुये देबू ने दूर से अपना आफिस भी दिखाया। हमने कहा कि चलो जरा उसकी भी खिंचाई(फोटो) कर लेते हैं। लेकिन देबू बोले-चलिये पहले चाय पी लेते हैं। तब आराम से बैठेंगे आफिस में।
वैसे हम पहले एक लखनवी चाट की दुकान में चाय पीने गये। वहां देबू ने होटलवाले को मेज साफ करने के लिये कहा। वेटरों में शायद ‘पहले आप,पहले आप’ शुरू हो गया होगा। लिहाजा मेज पर न्यूटन का पहला नियम लग गया।उसकी स्थिति बहुत देर तक जस की तस बनी रही।
होटल मघुबन के बाहर
देबाशीष-अनूप,चाय लड़ाने के बाद
चाय की दुकान हमें बहुत भली लगी। काहे से कि चाय की कीमत चार रुपये थी। दूसरी बात पर्याप्त भीड़ भी थी दुकान में । लुटने का कोई खतरा नहीं था। वेटर ने फोटो भी मुफ्त में खींचा।
यहाँ होटल मधुबन में भी ऐतिहासिक वार्ता हुई। देबू ने हमें ‘इंडीब्लागर अवार्ड’ की बची हुई ‘टी शर्ट’ भेंट की। यह तय था कि यह तो मुझे लेनी ही है,लिहाजा मैंने थोडी़ देर ना-नुकर भी की। फिर बिना शरमाये ग्रहण कर ली।
यहीं देबाशीष ने निरंतर को दुबारा चलाने के बारे में फिर से विस्तार से बातें कीं। निरंतर लगता है देबू के लिये वह तोता हो गया है जिसमें देबू की जान बसती है। देबाशीष ने फिर रमन की तारीफ की निरंतर का डोमैन खतम होने के बहुत पहले उन्होंने देबाशीष को सारे पासवर्ड वगैरह दे दिये थे ताकि देबू निरंतर का डोमैन ‘रिन्यू’ करा ले।
देबाशीष ने मुझसे निरंतर के संचालन के लिये सहयोग मांगा। देबाशीष दूरदर्शी भी हैं। सहयोग की बात करने के पहले इसके पहले आलू चिप्स में नमक मिलाकर खिला चुके थे। अब जिस शहर के लाड़ले का नमक खा लिया तो उसको कैसे मना किया जा सकता है! लिहाजा हम बोले-तथास्तु!
हमने सोचा मौका ऐतिहासिक बनाने के लिये एकाध डायलाग मारने की परम्परा है सो मार दिया जाय।सो हमने – मेरा हर तरह का सहयोग तुम्हारे साथ है। हो सकता है कि हमारे-तुम्हारे कुछ मतभेद बनें रहें लेकिन मतभेद रहें या न रहें सहयोग हमेशा बना रहेगा- अनकंडीशनल मतलब बिना शर्त का।
देबू ने हमारे सहयोग के ठीकरे को बिना भावुक हुये समेट लिया यह कहते हुये कि जब कोई मतभेद की बात हो तो मन में मत रखना,बता जरूर देना।
पता नहीं ससुरे समय को क्या जल्दी पड़ी थी। सरकता जा रहा था-सरपट। कुछ ही देर में हम विदा हुये।तमाम सारी यादें समेटे हुये। इस विदा बेला की हड़बड़ी में देबू के आफिस की फोटो छूट गयी।
अपनी बात खतम करूँ उसके पहले देबू नेझूठी तारीफ करते हुये जो अन्याय हमारे साथ किया उसका जरा कुछ बदला चुका लूँ।
हमारे ख्याल में सबसे पहली खटपट देबू से हमारी ही हुई थी। हमारे ब्लाग का स्वागत करते हुये हमारी भाषा के बारे में कुछ टिप्पणी देबू ने की थी। हमने देबू की खूब खिंचाई की। देबू ने अपनी टिप्पणी में सुधार कर लिया। लेकिन जो चोट देबू ने अपने टिप्पणी वापस लेकर हमें दी वह आजतक कसकती है। तथा हमें अपनी सबसे खराब पोस्ट वही लगती है जिसमें हमने देबू की खिंचाई की थी तथा जिसमें देबू की अफसोसनामे की टिप्पणी है।। लेकिन हमने यह पोस्ट हटाई नहीं -ताकि सनद रहे(सुन रहे हो अतुल)।
यह वह समय था जब हिंदी ब्लागजगत की हवायें देबू के इशारे पर बहतीं थीं।
चलें फिर मिलेंगे
देबाशीष-अनूप
समय के साथ हमारा देबू के साथ याराना बढ़ता गया। तमाम यादगारें जुड़ीं।बहुत कँजूस तारीफ करने वाला होने के बावजूद देबू हमारे लेखन के मुरीद होते गये (ऐसा वही कहते हैं)तथा यदाकदा तारीफ भी करते पाये गये। तथा हम देबू के उस तकनीकी कौशल के प्रशंसक होते गये जो हमारे पल्ले ही नहीं पड़ता था।
अभी देबू की पोस्ट से यह भी पता चला कि हमारा लिखा भी बहुत कुछ उनके पल्ले नहीं पड़ता है। इस लिहाज से हम दोनों बराबर के धरातल पर हैं -दोनों को एक दूसरे का बेहतरीन पक्ष समझ नहीं आता इसलिये एक-दूसरे के मुरीद हैं।
तमाम उतार चढ़ाव के साथ नये लोग जुड़ते चले गये। फिर निरंतर का प्रकाशन शुरू हुआ। लगभग सभी लोग जुड़े थे इसमें लेकिन मुझे लगता है सबसे ज्यादा मेहनत इसमें देबू ने तथा फिर रमन ने की। जुड़े हम भी थे लेकिन तकनीकी तंगी का बहाना करते हुये कई बार बच निलतते थे। देबू को मेहनत बहुत पड़ गई।देबाशीष ने सँपादन का भार किसी और से संभालने की बात कहते हुये संपादन का काम रोक दिया। देबाशीष के बाद सँपादक मँडल में सभी के सामने खुली चुनौती थी, पत्रिका कोचलाने की,लेकिन देबू के बाद पत्रिका चल नहीं सकी।
नतीजतन अगस्त के महीने में निरंतर की स्थिति भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की तरह हो गई। उसकी तमाम खुशनुमा यादें तो बनी रहीं लेकिन पत्रिका निकल नहीं पाई।
बाद में पत्रिका बंद होने के तमाम कारणों में देबू का अपनी बात मनवाने पर अड़ने के रवैया तथा दंभी स्वभाव भी चर्चा में रहा। इसके बाद भी इंडीब्लागीस के समय भी हमने भी देबू को कुछ बातों के लिये कोसा । लेकिन देबू ने जो ठीक समझा, किया। सफलतापूर्वक किया।
देबू से मैंने इस मुद्दे पर बात नहीं की लेकिन जितना मैं जानता हूँ और जितना मैं दो दिन में समझ पाया मुझे लगता है कि
ये ‘बच्चा’ अड़ियल हो सकता है ,दंभी कतई नहीं है।
देबाशीष ने अपनी व्यस्तता का जिक्र करते हुये बताया कि वो सबेरे दस बजे आफिस के लिये निकलकर रात को नौ कभी-कभी दस बजे तक घर पहुँचते हैं। डेस्क पर बैठे-बैठे गरदन अकड़ जाती है। आजकल गरदन के दर्द के कारण हेलमेट तक नहीं लगा पाते।ऐसे में मनचाहा काम करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
देबू बोलते हैं तो बहुत नापतौल कर। यह आदत न बंगालियों से मेल खाती है न बनारसी से-जो बोलते हैं तो बिन्दास बोलते हैं। आवाज का उतार चढ़ाव भी एकदम ‘कंट्रोल्ड’।
मुझे लगा कि अगर संभव होता तो मैं स्वामी की उद्दंडता( कहना मैं शरारत चाहता हूं लेकिन उद्दंडता का मजा ही कुछ और स्वामीजी इसे बिना बुरा माने ग्रहण करें । बुरा मानने की स्थिति में सूचित करें व उद्दंडता को समुचित शब्द से बदलने का सुझाव भी भेजें।),अतुल की कुछ किस्सा गोई जीतेंदर का कुछ गैरजिम्मे दाराना अंदाज़ देबाशीष को ट्रांसफर कर देता। मेरे पास देने को कुछ है नहीं सिवा आवारगी के जज्बे के। लेकिन खुदा गंजे को नाखून नहीं देता।सो जैसा है उसी से काम चलाना पड़ेगा।
पुष्प से खिले रहो हमेशा
गुलमोहर<br />
देबाशीष ने मेरी बहुत तारीफ कर दी । बहुत झूठ बोला। मैं झूठी तारीफ करके देबू को पानी पर नहीं चढ़ाना चाहता । लेकिन सच यह है कि देबाशीष से मिलना मेरे लिये एक उपलब्धि रही। जाने- अनजाने तमाम अवसरों पर किये देबाशीष की खिंचाई याद आई तथा यह सोचकर अफसोस हुआ कि सही या गलत उस समय देबाशीष अकेला था। तमाम मतभेदों पर बातचीत करते हुये देबू के लहजे में किसी के भी प्रति किसी किसिम की कटुता नहीं थी। अपनी कमजोरी भी बताई देबू ने -मैं किसी से बहुत दिन तक नाराज नहीं रह सकता।
मैं जब गया था पूना तो एक ब्लागर से मिलने गया था। लेकिन वहाँ मिले ‘छुटभैये’ ।’छुटभैये’ बड़े खतरनाक होते हैं।लेकिन ज्ञान,समझ,तकनीकी अनुभव,उत्साह में हमसे मीलों आगे खड़े ये ‘छुटभैयों’ से बचा भी तो नहीं जा सकता है।इनके साथ का भी मजा ही कुछ और है। इनके साथ का सुख तो ‘गूंगे का गुड़’ होता है। बयान नहीं किया जा सकता है,अनुभव किया जा सकता है।
मेरी चाहना सिर्फ यही है कि देबाशीष ने जो ‘बड़प्पन’ मेरे ऊपर थोपा है मैं उसके भ्रम की की निरंतरता बनाये रखने में सहयोग कर सकूँ।
तो यह रही पूना ब्लागर कथा जैसे मुझे याद रही तथा जैसी हमने महसूस करी। कुछ आप बतायें कैसी लगी भेंटवार्ता।
मेरी पसन्द
राज जो कुछ हो इशारों में बता भी देना
हाथ जब उससे मिलाना तो दबा भी देना।
वैसे तो इस खत में कोई बात नहीं है
फिर भी एहतियातन इसे पढ़ लो जला भी देना।
यूँ तो हर फूल पर लिखा है कि तोड़ो मत
दिल जब मचलता है तो कहता है छोड़ो मत।
इश्क ने गूंथे थे जो गजरे नुकीले हो गये
तेरे हाथों में तो ये कंगन भी ढीले हो गये।
फूल बेचारे अकेले रह गये हैं साख पर
गांव की सब तितलियों के हाथ पीले हो गये।
पर्वतों पर बर्फ चमकी खेत में मोती उगे
मौसमों की चोलियों बंद ढीले हो गये।
क्या जरूरी करें विषपान हम शिव की तरह
सिर्फ जामुन खा लिये और होंठ नीले हो गये।
-राहत इंदौरी

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

18 responses to “अथ पूना ब्लागर भेंटवार्ता कथा…”

  1. मनीष
    कसप किस की रचना है ? जरा बतायें तो ढ़ूँढ़ू पुस्तकालय में ! आप कहीं खड़की तो नहीं गए थे । बेहद रोचक विवरण रहा आपकी यात्रा का ।
  2. hindi blogger
    बड़ी उत्सुकता थी जानने की, कि क्या-क्या चर्चा हुई होगी दो सीनियर ब्लॉगरों के बीच. संपूर्ण वृतांत प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद!
  3. Srijan Shilpi
    ब्लॉग जगत के आप दोनों महारथियों के मिलन से उपजे आनंद रस का आस्वादन करने का अवसर मिला। इस प्रसंग पर देबू दा और अनूप भाई, दोनों द्वारा लिखित सभी पोस्ट पढ़ने के बाद भी कुछ टिप्पणी करने से बचता रहा। लगा कि ऐसा करना अनाधिकार चेष्टा होगी। अनूप भाई से तो अपना कोई परिचय भी नहीं हुआ अभी तक। ज्यादातर ब्लॉगर मित्रों से लगभग अनजान ही हूँ। थोड़ी-बहुत जान-पहचान अब तक देबू दा, अनुनाद और जयप्रकाश मानस से हुई है। परिचर्चा पर भी अपना परिचय जानबूझकर नहीं दिया हूँ। हिन्दी ब्लॉग जगत में प्रवेश करते समय सोचा था कि अपनी व्यक्तिगत पहचान को कभी सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं करूँगा और केवल अपने विचारों एवं लेखन के माध्यम से ही ब्लॉग जगत में सक्रिय रहूँगा। लेकिन देबाशीष जी और अनूप भाई के मिलन का प्रसंग मन को ऐसा भाया कि मैं सोचने पर विवश हो गया कि अब तक मैं क्यों इस नि:स्वार्थ, प्रेमपरायण और सच्चे मित्रों की मंडली से कटा-कटा सा रह रहा था। इसलिए हे मित्रों, आपका एक सहृदय मित्र यहाँ भी है। मेरे विचार कुछ मुद्दों पर भले ही आप सबसे अलग हों, पर वे मेरे सरोकारों और प्रतिबद्धताओं से जुड़े हैं। जहाँ तक दिलदारी की बात है, सच्चे और नि:स्वार्थ लोग मुझे भगवान से भी ज्यादा प्यारे लगते हैं।
  4. Amit
    तस्वीरें बढ़िया हैं और भेंटवार्ता विवरण पढ़कर बढ़िया लगा।
    अनूप जी, देबू दा ने आपको जो टी-शर्ट भेंट की है, उसे पहनकर एक फ़ोटो खिंचवाएँ और उसे भी पोस्ट करें। इंडी-ब्लॉगर वाली टी-शर्ट पहन मस्त लगेंगे। :D
  5. प्रत्यक्षा
    बढिया रहा. तस्वीरें बडी कौशल से खींची गईं हैं. चेहरों के अन्दाज़ लगाने पड रहे हैं.
    गुलमोहर का एक क्लोज़् अप भी खींच लेते. वैसे शायद ठीक ही किया. वहाँ भी अन्दाज़ ही लगाना पडता
  6. समीर लाल
    भेंट वृतांत बहुत ही बहतरीन लगा. खैर, आप तो जो भी लिख दें, वही मज़ेदार हो जाता है, लेखन की जादूगरी से.
  7. रवि
    ….भेंट वृतांत बहुत ही बहतरीन लगा. खैर, आप तो जो भी लिख दें, वही मज़ेदार हो जाता है, लेखन की जादूगरी से…..
    आप चाहे जितनी प्रशंसा फ़ुरसतिया जी की करें परंतु वे स्वयं कोई दर्जन बार अपने लेखन की शुरुआत का श्रेय मुझे दे चुके हैं.
    तो, अब इस असली प्रशंसा का हकदार कौन हुआ?
    :)
  8. समीर लाल
    आप तो रवि भाई हमेशा से प्रथम हकदार हैं, आपकी जिंदाबाद का परचम तो यूँ ही सब लोग लहरा रहे हैं मय फ़ुरसतिया जी के. सारा श्रेय गलियों से होते हुये मेन रोड पर तो आपको ही तो है..:)
  9. Laxmi N. Gupta
    अनूप जी,
    बहुत बढ़िया वृत्तान्त लिखा है, हमेशा की तरह्। बहुत अच्छा लगा।
  10. फ़ुरसतिया » मौसम बड़ा बेईमान है…
    [...] पूना यात्रा के दौरान हमने कुछ फोटो और भी ‘खैंचे’ थे। पूना प्रवास के बारे में लिखते हुये हमने बताया था:- मैं देबाशीष के आने की राह तथा सड़क पर गुजरती सुंदरियों को ताकने लगा। [...]
  11. फुरसतिया » पुस्तक मित्र बनेंगे?
    [...] आज जब किताबों के मंहगे होने का रोना रोया जाता है। लेकिन इस योजना के पेपरबैक किताबों का दाम देखकर लगता है कि किताबें उतनी मंहगी नहीं हैं जितना हम उनको बनाकर उनसे दूर रह लेने में सफ़ल हो जाते हैं। रागदरबारी( श्रीलाल शुक्ल), आधा गांव (राही मासूम रजा) ,कसप( मनोहर श्याम जोशी), झीनी-झीनी बीनी चदरिया( अब्दुल बिस्मिलाह) ऐसी किताबें हैं जिनको अगर आप एक बार पढ़ते हैं तो जिंदगी भर याद रखते हैं। जितनी बार पढ़ते हैं, हर बार नया मजा आता है। ये सारी की सारी किताबें सौ रुपए से कम में उपलब्ध हैं। छूट के बाद जिस दाम में पड़ेंगी उतने में आप अपने दोस्त के साथ किसी कायदे के होटल में एक चाय भी शायद न पी पायें। [...]
  12. एक चिट्ठी शिवजी के नाम
    [...] गये गुरु, मान गये आपके जिगरे को। हम जब देबाशीष से मिलने गये पूना और चाय के दाम देखे साठ रुपये तो [...]
  13. Dr. Mahesh Parimal
    यात्रा वृतांत अच्छा लगा। मैंने 09 अप्रैेल में पूना की यात्रा की थी। चार दिन रुका भी था। पर किसी ब्लॉगर साथी से मुलाकात नहीं हो पाई। यदि आप भाई विजय मनोहर तिवारी (हरसूद 30 जून वाले) से मिलना चाहें, तो कभी भोपाल आएँ। वे मेरे साथ ही दैनिक भास्कर में काम करते हैं। वैसे देबूदादा भी मेरे खयाल से भोपाल के ही हैं। तो उनके साथ आ ही जाएँ। यदि कभी विजय भाई से बात करने की इच्छा हो, तो उसका चलायमान दूरभाष का क्रमांक लिख लें- 9893043200। अच्छा लगेगा उनसे मिलकर। मैं तो ऐसे ही दुप्पल में मिल ही लूँगा।
    महेश परिमल
  14. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] वर्जयेत्‌ 8.एक पोस्ट हवाई अड्डे से 9.अथ पूना ब्लागर भेंटवार्ता कथा… 10.हम,वे और [...]
  15. हिन्दी तेरा रूप अनूप- श्रीलाल शुक्ल
    [...] के बारे में पहले लिखे लेख आप यहां , यहां , यहां ,यहां , यहां , यहां पढ़ सकते हैं। [...]
  16. चिरागों को जलाने में जला ली उंगलियां हमने : चिट्ठा चर्चा
    [...] मन मचलने लगा। मन मचलने की याद आने पर राहत इंदौरी का शेर याद आ गया- यूँ तो हर फूल पर लिखा है कि [...]
  17. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] वर्जयेत्‌ 8.एक पोस्ट हवाई अड्डे से 9.अथ पूना ब्लागर भेंटवार्ता कथा… 10.हम,वे और [...]

Wednesday, May 24, 2006

एक पोस्ट हवाई अड्डे से

http://web.archive.org/web/20110925195554/http://hindini.com/fursatiya/archives/134

एक पोस्ट हवाई अड्डे से

बहुत दिन से हुये हमने घोषणा की थी देबाशीष को तीन किताबें देने के लिये। पोस्ट आफिस घर के एकदम पास होने के बावजूद हम किताबें पोस्ट नहीं कर पाये। आज सोचा खुद ही दे आते हैं। सो हम चले किताबें लेकर पूना की तरफ। कानपुर से लखनऊ टैक्सी से तथा लखनऊ से दिल्ली सबेरे हवाई जहाज से आ गये।
अब इस समय पूना जाने के लिये लिये मुम्बई के हवाई जहाज का इंतजार किया जा रहा है।
पूना जाने के लिये मुम्बई का जहाज हमारे ट्रैवेल एजेंट की मेहबानी से मिला। असल में मेरा जाने का कार्यक्रम अचानक बना । ट्रैवेल एजेंट ने टिकट भी तुरंत दे दिया। हम दिल्ली भी सकुशल आ गये। दिल्ली में अपने दोस्त पाठक जी से भी मिले तथा नंदकिशोर तिवारी से भी। पाठक हमारे कालेज के साथी हैं तथा फिलहाल एनसीसी आफिस में अधिकारी हैं। नंदकिशोर पत्रकार हैं तथा शीघ्र ही किसी दिन किसी अखबार के सम्पादक हो जायें तो अचरज उन्हें भले हो हमें न होगा।
तो हम गये पाठक जी के दर्शन करने के लिये तथा दोनों के दर्शनों के लिये नंदू को बुला लिया। वहां बैठते ही बात आरक्षण पर आ गयी। किसी ने डायलाग मारा -ठाकुरों से हमारा विश्वास उठ गया है । जब पाया आरक्षण बढ़ा दिया।बहरहाल हम करीब घंटा भर गपियाने-बतियाने चाय-पान के बाद निकल लिये। इस बीच नंदकिशोर ने पता नहीं किसको बताया-तुम कपिल सिब्बल को कवर कर लो,तुम फलाने को कवर कर लो। हम थोड़ा व्यस्त हैं।
हमने इसे हवा-पानी दिखाने का प्रयास मानते हुये कहा-नहीं,बालक तुम निकलो। फिर हम सब निकल आये।
खैर,जब हम हवाई अड्डे आये तो चार बजे थे। करीब घंटा भर हम हवाई अड्डे के ही कैफे से कुछ ब्लाग पर कमेंट करते रहे। देखा जाये तो ५० रुपया प्रति घंटा की दर की किसी सेवा से हम पहली बार कमेंट कर रहे थे। तो यह बात जीतू तथा प्रत्यक्षा को समझनी चाहिये कि उनके ब्लाग पर आज के कमेंट कितने मूल्यवान हैं।
हमने तो यह भी सोचा था कि पोस्ट भी लिखा जाय लेकिन उड़ान का समय छह बजे था सो हम साढ़े पांच बजे चले अपनी सीट टटोलने।
सीट के लिये जब हमने टिकटें बढ़ाई काउंटर की तरफ तो हमें देखा गया गहराई से तथा बताया गया -ये फ्लाइट तो चली गयी चार बजे। ये छह बजे का टाइम किसने बताया आपको?हमने चेहरे पर अवसरानुकूल दीनता चिपकाते हुये माजरा बयान किया कि हमारी टिकट पर छह बजे लिखा है फ्लाइट का समय तो हम उसी के हिसाब से आये हैं। अब आप बतायें कि क्या कर सकते हैं?
खैर हमें ज्यादा शहीदाना गौरव का हक न देते हमारी टिकट रात की दिल्ली -मुम्बई फ्लाइट में कर दी गयी। मुम्बई इसलिये क्योंकि पूना के लिये अगली फ्लाइट कल शाम को ही है तथा हमारी काम वहां कल सबेरे है।इसके बाद हमने लखनऊ अपने दोस्त गिरिजेशमाथुर को फोन किया लखनऊ जो कि लखनऊ से उसी फ्लाइट में आने वाला है जिससे हमें आगे मुंबई जाना है। उसे भी पूना जाना है। कल मैं उससे कह रहा था कि क्या बेवकूफ हो यार,तुम पूना सीधा जाने की बजाय मुंबई होकर का रहे हो। आज उसी का साथ है। मुंबई से आगे के लिये उसने पहले से ही टैक्सी तय कर रखी है । गपियाते हुये जायेंगे।
तो इस तरह देबू को किताबें एक दिन और देर से मिलेंगी तथा हमारी ब्लागर मीट एक दिन और टल गयी।वैसे ब्लागर मीट तो हमने दिल्ली हवाई अड्डे पर भी करने का प्रयास किया लेकिन जिन ब्लागर्स से सम्पर्क लिया वे इस ऐतिहासिक काम में साथ न दे पाये।
जो हो लौटते समय कुछ करने की सम्भावनायें बरकरार हैं। मैं पूना से रात की उडा़न से २६ को लौटूंगा। २७ को सबेरे की उडा़न से लखनऊ जाउंगा।
फिलहाल इतना ही,बाकी पूने से। यात्रा की शुभकामनायें अतुल ने अभी आनलाइन बातकरते हुये दे दीं। बाकी की हम खुद ले लिये।किसी को कोई एतराज?

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

14 responses to “एक पोस्ट हवाई अड्डे से”

  1. अतुल
    पूना की तस्वीरों और वहाँ की प्रगति की समीक्षा आपके शब्दों में पढ़ने का इंतजार रहेगा।
  2. e-shadow
    यात्रा की शुभकामनायें आपको। या रेलवे की भाषा में “आपकी यात्रा मंगलमय हो”।
  3. समीर लाल
    मंगलमयी यात्रा के लिये शुभकामनाऎं.
  4. Tarun
    खुब जमेगी जब मिल बैठेंगे दिवाने दो. यात्रा मंगलमय हो
  5. नारद मुनि
    आपकी यात्रा मंगलमय हो।
    अब कुछ सावधानियां बरते:(ये कानपुर से भैजी ने हमको SMS करके बोला है कि आपको बता दें)

    अंगोछें को कसकर बांधे रखे, पोटली से गुड़ निकालते समय एयरपोर्ट के फ़र्श पर ना फ़ैलाएं, गुड़ निकालकर, पोटली को अंगोछे से बांधकर वापस डंडे पर लटका लें।डन्डा सीट पर मत रखें, कन्धे पर सही रहेगा।

    वो जो पड़ोस मे अंग्रेज दिखने वाली महिला बैठी है ना, उसकी तरफ़ ज्यादा मत देखें, उसकी मुस्कराहट बता रही है तो वो एमवे का सामान बेचती है।ध्यान रखें। और हाँ दवाइयां समय पर ले लें,ज्यादा तला वला मत खाएं।देबू को किसी बात पर गुस्सा मत दिलाएं।
    बकिया चकाचक।
  6. रवि
    ये तो बहुत नाइंसाफ़ी है.
    देबू को किताब देने खुद पूना की सैर, और हमें कोरियरे से निबटा दिया.
    बहुत नाइंसाफ़ी है.
    इसकी सजा मिलेगी.
    इसकी सजा मिलेगी.
    पूना से वापसी पर रतलाम में रुकना होगा.
    नहीं तो…
  7. SHUAIB
    शुभकामनायें और यात्रा मुबारक हो आपको।
  8. संजय बेंगाणी
    शिवाजी कि राजधानी रहे पुना पर आपके लेख का हम भी उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं. मिले तो देबुभाई को हमारा नमस्कार कहिएगा.
  9. आशीष
    अईयो, जब आदी दूर आ ही गये हो तो मदरास होते हुये वापिस जाओ ना, इदर मदरास मे बी एक ब्लागर मीट हो जायेगा ना जे !
  10. फ़ुरसतिया » अथ पूना ब्लागर भेंटवार्ता कथा…
    [...] फ़ुरसतिया on एक पोस्ट हवाई अड्डे सेएक महाब्लॉगर से मुलाकात at नुक्ताचीनी on अति सर्वत्र वर्जयेत्‌debashish on अति सर्वत्र वर्जयेत्‌आशीष on एक पोस्ट हवाई अड्डे सेसंजय बेंगाणी on एक पोस्ट हवाई अड्डे से [...]
  11. आशीष
    हां जी , हम तैयार है ! मेरा नम्बर है ९८८४०६६७१७
    घर का नंबर है ३२९१२९५७( ये नम्बर घर का है जहां मै सोते समय रहता हूं)
  12. अतुल
    गुरूदेव आप आयुध निर्माणी फैक्ट्री के प्रबँध तंत्र को किसी अमेरिकी फैक्ट्री के भ्रमण प्रोग्राम के लिये सेट कर लीजिये, हवाई अड्डे पर हम पहुँच जायेंगे, चाहे कैनेडी एयरपोर्ट हो, नेवार्क, ला गार्डिया , फिलाडेल्फिया, बाल्टीमोर या फिर वाशिंगटन ड्यूलूस एयरपोर्ट ये सारे के सारे अपनी परिधि में हैं। जल्दी प्रोग्राम बनाईये , स्वागत की पूरी तैयारी है।
  13. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
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