Sunday, April 30, 2006

अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे ….

http://web.archive.org/web/20110925141130/http://hindini.com/fursatiya/archives/126

अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे ….

इसी माह की २३ तारीख को न्यूयार्क में हुये कवि सम्मेलन में अनूप भार्गव भी सिरकत कर रहे थे। कवि सम्मेलन मुशायरे की विस्तृत रिपोर्ट तो नहीं मिली लेकिन छुटपुट समाचारों के अलावा अनूप भार्गव के बारे में लिखते हुये रिपुदमन पचौरी ने लिखा है:-
काव्य संध्या थी उस दिन
चिंता से हृदय धड़कता था
जगा अनूप सुबह तभी से
बायां नयन फड़कता था।
जो कवितायें उसने याद करीं
उसमें से आधी याद हुईं
वो भी मुशायरे में जाने तक
यादों में ही बरबाद हुयीं
जब स्टेज पर पर्चा पढ़ा
तब सारा बदन पसीना था
फिर भी श्रोताओं से डरा नहीं
वह अनूप का ही सीना था।
यह अंदाजे बयां पढ़कर हमें अपनी पुरानी मेलों की याद आयी। जब नेट पर नये-नये हाथ आजमाना शुरू किया ही था तब लगभग रोज मेलबाजी होती। ठेलुहा नरेश के स्कूली यार बिनोद गुप्ता नें अपना फोटो भेजा। काफी दिन बाद देखने पर लगा कि बालों की छत कुछ हल्की हो गयी है। कुछ मौज भी लेना जरूरी था ,सो श्याम नारायण पाण्डेय की तर्ज पर लिखा ,अवस्थी ने लिखा:-
सर पर बालों की तंगी थी
पर फिर भी जेब में कंघी थी
कंघी सर पर ही ठिठक गयी
वह गयी गयी फिर भटक गयी
जिस पर पहले हरियाली थी
वह दूर-दूर तक खाली थी।
मौज-मजे के लिये इस तरह की तुकबंदियां आम हैं। जिसको भी जरा सा तुक मिलाना आता है वह कवि कहला कर सीना फुला लेता था। जिसकी तुक में कुछ काव्यात्मक जटिलता आ जाती है ,कुछ पुरातन बिंब गुंथ जाते हैं उसके लिये महाकवि का खिताब तो पक्का ही समझा जाय।
इसी तर्ज पर हम भी अपने कि कवि मानने की हिम्मत बना रहे थे कि हमारे हत्थे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का लिखा हिंदी साहित्य का इतिहास पड़ गया । पड़ गया तो मैं उसे कुछ पढ़ भी गया। जब पढ़ा तो हमें पता चला कि जिन तुकबंदियों के बल पर मैंने कवि कहलाने का पर्चा भरने की सोची थी वे कवितायें हैं नहीं । वे तो भँडौ़वा हैं। मतलब कि हम भँडौ़वा लिखकर अपने को कवि समझ रहे थे । मजे कि बात कि यह बात हमें पता ही नहीं थी। गोया हम भी सांसद हो गये जिनको पता ही नहीं कि जिस पद पर वे सुशोभित हैं वह लाभ का पद है।
बहरहाल अब जो हुआ सो हुआ। होनी को कौन टाल सकता है। आगे के लिये अपनी तथा जनता की जानकारी के लिये भँडौ़वा के बारे में जानकारी दे रहा हूं ।
भँडौ़वा का शाब्दिक अर्थ है-भदेस,भद्दी हास्य कविता,घटिया कविता,तुकबंदी,तुक्का आदि।
भँडौ़वा भँडौ़वा हास्यरस के अंतर्गत आता है । इसमें किसी की उपहास पूर्ण निंदा रहती है। यह प्राय: सब देशों के साहित्य का अंग रहा है। जैसे फारसी और उर्दू की शायरी में ‘हजों’ का एक विशेष स्थान है वैसे ही अँगरेजी में सटायर(satire) का। पूरबी साहित्य में उपहासकाव्य के लक्ष्य अधिकतर कंजूस अमीर या आश्रयदाता अमीर ही रहे हैं और यूरोपीय साहित्य में समसामयिक कवि और लेखक। इसमें यूरोप के उपहास काव्य में साहित्यिक मनोरंजन की सामग्री अधिक रहती थी। उर्दू साहित्य में सौदा ‘हजों’ के लिये प्रसिद्ध हैं। उन्होंने किसी अमीर के दिये घोड़े की इतनी हंसी की है कि सुनने वाले लोटपोट हो जाते हैं। इसीप्रकार किसी कवि ने औरंगजेब की दी हुई हथिनी की निंदा की है:-
तिमिरलंग लइ मोल,चली बाबर के हलके।
रही हुमायूँ संग फेरि अकबर के दल के।।
जहाँगीर जस लियो पीठ को भार हटायो
साहजहाँ करि न्याव ताहि पुनि माँड़ि चटायो।
बलरहित भई,पौरुष थक्यो,भगी फिरत बन स्यार डर
औरंजगजेब करिनी सोई लै दीन्ही कविराज कर।
(तैमूरलंग की खरीदी हुई हथिनी जो बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ के पास होते हुये औरंगजेब के पास आई तथा जो इतनी अशक्त हो गयी है कि सियारों के डर से जंगल को भाग जाती है उसे औरंगजेब ने कविराज को सौंप दिया)
रायबरेली के रहने वाले कवि बेनी बंदीजन अपने भँडौ़वों के संग्रह के लिये जाने जाते हैं। बेनी जी ने कहीं बुरी रजाई पायी तो उसकी निंदा की कहीं छोटे आम पाये तो उसकी खिंचाई की। छोटे आमों का मजाक उड़ाते हुये बेनी जी ने लिखा है:-
चींटी को चलावै को,मसा के मुख आपु जाय,
स्वास की पवन लागे कोसन भगत है।
ऐनक लगाए मरु-मरु के निहारे जात
अनु परमानु की समानता खगत है।
बेनी कवि कहै हाल कहाँ लौ बखान करौं
मेरी जान ब्रह्म को बिचारिबो सुगत है
ऐसे आम दीन्हें दयाराम मन मोद करि
जाके आके सरसों सुमेरु-सी लगत है।
(आम इतने छोटे है कि चींटी इसे चला(खींच) सकती है,मच्छर के मुंह में अपने आप चला जाता है,सांस की हवा लगने मात्र से कोसों दूर भाग जाता है,चश्मा लगाने के बावजूद बड़ी मुश्किल से नजर आते हैं,अणु-परमाणु के कद के बराबर हैं,बेनी कवि कहते है कि ऐसे आमों का हाल कहाँ तक बयान करें। इसके मुकाबले ब्रह्म का वर्णन करना ज्यादा आसान है। दयाराम ने खुश होकर ऐसे आम दिये जिनके आगे सरसों के दाने सुमेरू पर्वत के समान बड़े लगते हैं)
कानपुर भँडौ़वा लेखकों का गढ़ रहा है। लोग बताते है कि कानपुर में गया प्रसाद शुक्ल’सनेही’के समय में भँडौ़वा लिखने-सुनने-सुनाने की महफिलें जमती थीं। इनमें हास्यरस प्रधान कविताओं की सुनी-सुनायी जाती थीं बकौल स्वामीजी पेली जातीं थीं। अखबारों में सूचना देकर रँड़ुआ सम्मेलन आयोजित किये जाते थे जिसमें भँडौ़आ जैसी ही रचनायें सुनी-सुनाई जातीं होंगी। चतुर्थ रंडुवा महासम्मेलन की सूचना इस प्रकार छपी है-
आप चाहें रंडुआ हों या न हों,नीचे लिखे स्थान पर आइये अवश्य। अगर आपको कलम पकड़ने का सामर्थ्य है तो अपनी रची रचाई बानगी अवश्य लाइयेगा,नहीं तो लोग कहेंगे कि आपको कुछ शउर नहीं है।
स्थान-बिहारी जी का मंदिर
समय-ढाई हद्द पौने तीन बजे वुधवार होली भोर
बुलायक-दयाशंकर दीक्षित’देहातीजी’
सभापति-लक्ष्मीपति बाजपेयी
उन दिनों समाज के तीन शत्रु माने जाते थे-पुलिस,पतुरिया,पटवारी। इन्ही को लक्ष्य करके कवितायें लिखीं जाती थीं।
बहरहाल, यह तय भँडौ़आ से आशय हल्की , बिना साहित्यिक महत्व की कविता से रहा है।जब किसी कविता को हल्का,उपहासात्मक बताना हो तो कह दिया ये तो भँडौ़आ है।नयी परम्परा बुढ़वा मंगल पर व्लाककटानन्द की लावनी है:-
बुढ़वा मंगल नहीं ये भड़ुआ मंगल है देखो धर ध्यान,
अब कम्पू का नाश करने आया,कहना लो मान ।
कानपुर के प्रख्यात रंगकर्मी,कवि,कहानीकार सिद्धेश्वर अवस्थी के बारे में लिखते हुये डा.उपेन्द्र ने लिखा है:-
एक बार मस्ती के मूड में सिद्धेगुरू किसी दुष्टव्यक्ति के साथ बात करते परेड से बड़े चौराहे की तरफ चले जा रहे थे कि वार्ताप्रसंग में अभिरामगुरू(सनेही मंडल के लब्ध प्रतिष्ठित कवि,हिंदी में विजयावाद के पुरस्कर्ता)का जिक्र आ गया।दोनों ने न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत हो अभिरामजी पर एक नटखट तुकबन्दी रच डाली जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:-
अभिराम गुरू! अभिराम गुरू
धोती में बंधे।…।गुरू।।
तुम मालरोड तक हो आओ
अद्धा ,व्हिस्की का ले आओ
अब भंग हुयी नाकाम गुरू।
जब इसी तरह के दो तीन बंद पूरे हो गये तो दोनो व्यक्ति शर्मा रेस्ट्रां की ओर चले। अभिरामजी बाहर ही निकटवर्ती मंदिर के चबूतरे के सामने बेंत हाथ में लिये खड़े दिखाई दे गये।उन्हें प्रणाम देकर आशीर्वाद लेने के पश्चात सिद्धेभाई ने नयी पीढ़ी के लड़कों की उद्दंडता और असभ्यता पर अफसोस जाहिर करते हुये शिकायती लहजे में निहायत संजीदगी के साथ पूरा का पूरा पद्य सुना डाला। शाम का वक्त था,’विजयाविलास’ के विश्रुत कवि अभिराम शर्मा भंग की तरंग में थे,अचानक उनकी त्योरियाँ चढ़ गयीं,क्रोध में कांपते हुये बोले-’किसने लिखा है?’ सिद्धेभाई पहले तो सकपकाये ,किसका नाम लें ,फिर कुछ सोंचकर एक ऐसे व्यक्ति का नाम बता दिया जो शहर के दूरवर्ती मोहल्ले में रहता था और वहां बहुत कम आया करता था। फिलहाल बला-टली ,’आगे देखा जायेगा’ यह सोचकर उन्होंने निश्चिंतता की सांस ली। अभिराम गुरू भीतर उबलने लगे और सिद्धेभाई आग लगाकर वहां से हट गये।अकल्पनीय संयोग कुछ ऐसा हुआ कि जिसको सिद्धेभाई ने उस दुष्ट रचना रचयिता बताया था वह दुर्भाग्य का मारा अचानक उसी समय न जाने कहां से वहां आ टपका। अभिराम जी को देखते ही ‘गुरू प्रणाम’! कहते हुये लपककर उनके पांव छुये,प्रणाम करने वाले पर ज्योंही गुरू की शिथिल ‘भंगालस’ दृष्टि जमी,उनके क्रोध के पारे को सातवें आसमान पर पहुंचते देर नहीं लगी। दहकते अँगारों से लाल आँखें निकालते हुये क्रोधोन्मत गुरू ने कृतघ्न शिष्य की गर्दन दोनों हाथों से दबोच ली। आवेश में उनकी हकलाहट और बढ़ गयी। दाँत पीसते हुये बोले-स्साले भ भ भ भड़उवा लिखता है?अभिराम गुरू अभिराम गुरू ध ध ध ध धोती में बंधे… समझता क क क क्या है अपने को? म म म मैं तेरे प प प्राण निकालूँगा …। सिद्धेभाई टोपीबाजार वाले नुक्कड़ से मैनपुरी( तम्बाकू) की पुड़िया बंधवाकर लौट रहे थे। मंदिर के सामने भीड़ देखकर उनका माथा ठनका। आगे बढ़कर देखा तो स्तम्भित रह गये। प्रहसन की दिशा में बढ़ने वाला उनका नाटक त्रासदी में बदल जायेगा इसकी तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। खैर,लोगों ने बीचबचाव करके मामला रफा-दफा करा दिया पर असली अपराधी कौन थे,इसका पता न लग सका।
हास्य कविता को भँडौ़आ नाम तब दिया गया होगा जब केवल धीर-गंभीर कविता को कविता माना जाता होगा। अब तो हास्य-व्यंग्य कविता की सबसे पसंद की जाती है। अपने हिंदी ब्लाग जगत में नीरज त्रिपाठी मजेदार कवितायें रचते हैं। लक्ष्मी नारायण गुप्त जी तथा समीरजी भी तमाम कविताओं के बीच-बीच में हास्य का झण्डा फहरा देते हैं। हम भी मौज मजे के लिये तुकबंदी करते रहे लेकिन यह अहसास सच्ची में नहीं था कि कोई इनको पढ़कर कहेगा हम जो लिख रहे है उसे लोग भँडौ़आ कहा करते थे।
संदर्भ-१.आचार्य रामचंद्र शुक्ल रचित हिंदी साहित्य का इतिहास
२.डा.उपेन्द्र का लेख- ‘सिद्धेश्वर’ संज्ञा के सही हकदार
३.कानपुर कल आज और कल
मेरी पसंद
चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग
और हियां सब हमरे साथी हमका करते तंग
हम भोले भाले प्राणी सब कहते हमका भोलू
हमरे हिय की हालत कैसी किससे हम यह बोलूं
जब खाएं सब पिज्जा बर्गर हम खा लेई केला
इत्ते सारे संगी साथी भोलुवा तबहूं अकेला
संगी खाएं गोश्त चिकन हम भोलू शाकाहारी
बोलैं मार ठहाका कब तक घास फूस तरकारी
जब पियैं सब व्हिस्की हम लै लेई कोका कोला
भोलू अब बड़े हुइ जाओ एक साथी हमते बोला
देर रात तक जागैं संगी हम जल्दी सोए जाई
सुबह देर तक सोवैं संगी हम उठ दौड़ लगाई
लौट के आई तुरत करै हम लागी प्राणायाम
देखि कहैं हमरे साथी भोलुआ क न कोई काम
कहैं प्रकट भये हैं बाबा सब इनका करौ प्रणाम
भोलू कहि कहि के जब हारे बाबा दीन्हिन नाम
कहत कहै देओ एक कान सुनि दूजे देई निकार
भले बुरे सब तन के मनई मिलैं बनै संसार
एक रोज बौरावा मनवा मारी गय यह मति
हम लागेन तुरत टटवालै संगति केर गति
ऎसी देखी वैसी सोंची का का देखी का का सोंची
सोंचेन ठीकै है सब कइका समय कौन सोंची
पति पत्नी आजीवन संघै रहिकै बदल न पावत
पति पत्नी का पत्नी पति का जीवन पर्यन्त सतावत
कुत्तौ दयाखौ चाहें जौने मालिक संग रहि जावै
अच्छा मालिक चाहें खराब पूंछ टेढ़ रहि जावै
संगत तौ मनइन केर है मनइन मा गुण औ अवगुण
सदगुण सदगुण चुन लेओ भोला का होई देखि कै अवगुण
-नीरज त्रिपाठी

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

15 responses to “अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे ….”

  1. जीतू
    दूसरी बार पढ रहा हूँ, छोटी बुद्दि है इसलिये दूसरी बार में भी, ये लेख, हमारे ऊपर से निकल गया। पूरा लेख समझने के बाद टिप्पणी की जाएगी। मतलब जगह मिलने पर पास दिया जाएगा।
    और दद्दा इ बताओ, ये गद्य से इत्ती नाराजगी काहे, लौटो जल्द से जल्द, वरना हम भौजी को एक ज्ञापन भेजते है, फिर ऐसा ना हो कि कविता से ही नजरे चुराने लगो।
  2. Amit
    दूसरी बार पढ रहा हूँ, छोटी बुद्दि है इसलिये दूसरी बार में भी, ये लेख, हमारे ऊपर से निकल गया। पूरा लेख समझने के बाद टिप्पणी की जाएगी। मतलब जगह मिलने पर पास दिया जाएगा।
    भाई जी, कुछ ऐसा ही हाल अपना भी है। अनूप जी क्या लिखते हैं, बाऊंसर की तरह अपने सर के ऊपर से ही निकल जाता है, पहले कुछ थोड़ा बहुत समझ तो आता था पर अब तो वह भी नहीं आता!! क्या इनका लेवल बढ़ गया है या अपना नीचे गिर गया है? :(
  3. राजीव
    अनूप भाई,
    तीन बातें यहां पर समीचीन लगती हैं
    बहुत हद तक मैं जीतू भाई और अमित जी से सहमत हूँ। यद्यपि बात कुछ साहित्य के विकास और इतिहास की अवश्य है किंतु सम्प्रति के साहित्य और जन-मानस से कुछ दूर। इतना होने के पश्चात भी ब्लॉग के मूल सिद्धांत – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खरी है – सो जीतू जी और अमित जी, कोई विशेष बात नहीं है – अनूप भाई कुछ भी लिख सकते हैं – आखिरकार वे स्वयं कहते हैं – हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै ? बस लिखते अवश्य रहें ।
    दूसरी बात यह कि सिद्धे गुरु के प्रसंग को वही व्यक्ति आनन्द्पूर्वक समझ सकता है, जो कभी उनके सम्पर्क में आया हो।
    तीसरी यह कि – श्री सिद्धे गुरु की एक और विशेषज्ञता और उपलब्धि – उनका नौटंकी विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान।
  4. समीर लाल
    अनूप भाई
    जैस ही शीर्षक देखा: “अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे ….” मै समझ गया, अरे, ये तो मेरे बारे में कलम भांजने जा रहे हैं, पढता गया, और अंत के पहले नाम देख विचार वीरगति को प्राप्त हुआ…बहुत सही लिखें हैं. मज़ा आ गया पढ कर…इंतज़ार लगवा देते है आप अपनी अगली रचना का. :)
  5. प्रत्यक्षा
    बडी जल्दी आपने अपने आप को पहचान लिया ;-) ))
    रिसर्च मोड में लगे हुयें हैं आजकल ?
  6. ratna
    कविता के भेद जो जाने हमने,फुरसतिया के संग
    अकाल मौत का ग्रास बनी ,लिखने की प्रबल उमंग
    यह तुकबन्दी मानिए,कविता इक उच्च कोटि की
    सूट-बूट जो पास ना हो तो,तन ढांपे सादी धोती भी
  7. e-shadow
    थोडा समझा थोडा ऊपर से गया पर पडने में आनान्द आया अनूप जी। भँडौ़आ की परिभाषा समझ आने के बाद कितनी ही कवितायें भँडौ़आ लगने लगी। मेरा विचार यह है कि कविता भँडौ़आ हो या साहित्यिक कसौटी पर खरी उतरे, अगर जनसाधारण के करीब है तो सफल है।
  8. Tarun
    भँडौ़वा का क्‍या मतलब होता है
  9. Amit
    इतना होने के पश्चात भी ब्लॉग के मूल सिद्धांत – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खरी है – सो जीतू जी और अमित जी, कोई विशेष बात नहीं है – अनूप भाई कुछ भी लिख सकते हैं
    बिलकुल कुछ भी लिख सकते हैं जी, और हम भी कुछ भी लिख सकते हैं। तभी तो साफ़गोई का परिचय देते हुए कहे दिये कि हमका कछु न समझ आयो(अब नहीं आया तो नहीं आया, इसमें अनूप जी की गलती थोड़े न है)। नहीं तो हम भी कह सकत थे कि “वाह वाह अनूप जी, का लिखे हो, मजा आई गवा”!! :)
  10. फ़ुरसतिया » छीरसागर में एक दिन
    [...] फ़ुरसतिया » छीरसागर में एक दिन on तुलसी संगति साधु कीAmit on अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे ….Tarun on अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे ….e-shadow on अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे ….ratna on अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे …. [...]
  11. Laxmi N. Gupta
    शुकुल जी,
    बहुत बढ़िया लिख्यो है। मज़ा आ गया। कहाँ से यह सामग्री लाते हो? ऐसे आम जिनके सामने सरसोँ सुमेरु जैसी लगे! क्या बात कही है, बेनी कवि ने। मेरी अगली पोस्ट आपके इस लेख के फुटनोट की तरह होगी।
  12. mrinal
    thanks for quoting the verse on those undersized mangoes
  13. फुरसतिया » झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद
    [...] कानपुर में मौज-मजे की परम्परा के ही चलते भडौआ साहित्य का चलन हुआ जिसमें नये-नये अंदा़ज में पैरोडिया के स्थापित लोगों की खिंचाई का पुण्य काम शुरू हुआ। आज किसी एक् शहर् के सर्वाधिक् सक्रिय ब्लागर् की गिनती की जाये तो वे कानपुर के ही निकलेंगे। यह् भी कि इनमें से ज्यादातर मौज-मजे वाले मूड में ही रहते हैं(अभय तिवारीजी संगति दोष के चलते कभी-कभी भावुक हो जाते हैं) ।दिल्ली वाले इसका बुरा न मानें क्योंकि किसी शहर में जीने-खाने के लिये बस जाने से उसका मायका नहीं बदल जाता। [...]
  14. : …लीजिये साहब गांधीजी के यहां घंटी जा रही है
    [...] सरदर्द हो गया। ढिमाके ने कुछ ऐसा लिखा कि समझ में ही नहीं आया। इसी तरह की कोई [...]
  15. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 1.ईश्वर की आंख 2.जरूरत क्या थी? 3.मेरे जीवन में धर्म का महत्व 4.वीर रस में प्रेम पचीसी 5.मिस़रा उठाओ यार… 6.कुछ इधर भी यार देखो 7.भैंस बियानी गढ़ महुबे में 8.अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे …. [...]

Tuesday, April 25, 2006

भैंस बियानी गढ़ महुबे में

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भैंस बियानी गढ़ महुबे में

लक्ष्मी नारायण जी की नकल करते हुये हमने जब कुछ तुकबंदियां कीं तो पता चला कि कुछ साथी आल्हा से परिचित नहीं हैं। वास्तव में आल्हा उत्तरभारत के गांवों में बहुतायत में प्रचलित है। जिनका संपर्क गांवों से कम रह पाया वे शायद इसके बारे में कम जानते हों। साथियों की जानकारी के लिये आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास ‘से आल्हा से संबंधित जानकारी यहां दी जा रही है:-
ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे,जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल(उदयसिंह)- के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषाभाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी-
बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार,
बरिस अठारह छत्री जिऐं ,आगे जीवन को धिक्कार।

इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है,वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नये अस्त्रों ,(जैसे बंदूक,किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित होते गये हैं और बराबर हो जाते हैं। यदि यह साहित्यिक प्रबंध पद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था । इसमें पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा के लिये नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूंज बनी रही-पर यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं।
आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केन्द्र माना जाता है,वहाँ इसे गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं। बुंदेलखंड में -विशेषत: महोबा के आसपास भी इसका चलन बहुत है।
इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण ‘आल्हाखंड’ कहते हैं जिससे अनुमान मिलता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और बनाफर शाखा के छत्रिय थे।इन गीतों का एक संग्रह ‘आल्हाखंड’ के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि.चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इनगीतों का संग्रह करके छपवाया था।
आल्हाखंड में तमाम लड़ाइयों का जिक्र है। शुरूआत मांडौ़ की लड़ाई से है। माडौ़ के राजा करिंगा ने आल्हा-उदल के पिता जच्छराज-बच्छराज को मरवा के उनकी खोपड़ियां कोल्हू में पिरवा दी थीं। उदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिताकी मौत का बदला लिया तब उनकी उमर मात्र १२ वर्ष थी।
आल्हाखंड में युद्ध में लड़ते हुये मर जाने को लगभग हर लड़ाई में महिमामंडित किया गया है:-
मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला,उदल कहैं पुकारि-पुकारि,
भागि न जैयो कोऊ मोहरा ते यारों रखियो धर्म हमार।
खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ,होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।
अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है:-
‘जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।’
इसी का अनुसरण करते हुये तमाम किस्से उत्तर भारत के बीहड़ इलाकों में हुये जिनमें लोगों ने आल्हा गाते हुये नरसंहार किये या अपने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा।
पुत्र का महत्व पता चला है जब कहा जाता है:-
जिनके लड़िका समरथ हुइगे उनका कौन पड़ी परवाह!
स्वामी तथा मित्र के लिये कुर्बानी दे देना सहज गुण बताये गये हैं:-
जहां पसीना गिरै तुम्हारा तंह दै देऊं रक्त की धार।
आज्ञाकारिता तथा बड़े भाई का सम्मान करना का कई जगह बखान गया है।इक बार मेले में आल्हा के पुत्र इंदल का अपहरण हो जाता है। इंदल मेले में उदल के साथ गये थे। आल्हा ने गुस्से में उदल की बहुत पिटाई की:-
हरे बांस आल्हा मंगवाये औ उदल को मारन लाग।
ऊदल चुपचाप मार खाते -बिना प्रतिरोध के। तब आल्हा की पत्नी ने आल्हा को रोकते हुये कहा:-
हम तुम रहिबे जौ दुनिया में इंदल फेरि मिलैंगे आय
कोख को भाई तुम मारत हौ ऐसी तुम्हहिं मुनासिब नाय।
आल्हा में वीरता तथा अन्य तमाम बातों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है। तभी किसी ने अतिशयोक्ति के अंदाज में कहा है:-
भैंस बियानी गढ़ महुबे में पड़वा गिरा कनौजै जाय।
आल्हा गाने वाले लोग अल्हैत कहलाते हैं। अपने गांव में छुटपन में गर्मी की छुट्टियों में हम लोग किसी घर के दरवाजे दुपहर में बैठे किसी को आल्हा गाते सुनते थे। आल्हा का मजा पढ़ने से ज्यादा सुनने में है।पढ़ने का भी पूरा मजा वही ले सकता है जिसने इसे कम से कम एक बार सुन रखा हो।
मैंने जब यह लेख लिखा तब माड़ो की लड़ाई का लल्लू बाजपेई का आल्हा का कैसेट सुना। सुनते ही ये बाहें फड़कने लगीं तभी यह लेख टाइप हो गया।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

16 responses to “भैंस बियानी गढ़ महुबे में”

  1. राजीव
    आदरणीय शुक्ल जी,
    ऐसा प्रतीत होता है कि आल्हा शैली आपकी पसन्दीदा शैलियों में से है। सभी पाठकों को इस विधा के उद्गम एवं विकास से परिचित कराने का धन्यवाद! आशा है कि इस लेख को परिप्रेक्ष्य में सुधी पाठक प्रेम पचीसी में निहित वीर रस का रसास्वदन सम्यक रूप से करेंगे ।
  2. समीर लाल
    बहुत बढिया जानकारी दी है, कुछ अंदाज़ लगाने के लिये लोग बाग आल्हा छंद यहां सुने:
    http://www.bhojpuriduniya.com/VIDEOmain.html
    आखिरी लिंक इस पन्ने पर Balla Ram Singh पर क्लिक करें.
    हालांकि मैने लय मे झूम के गाते भी सुन रखा है.
  3. Laxmi N. Gupta
    अनूप जी,
    यह लेख लिख कर आपने बहुत जनसेवा की है। कुछ और तथ्य जोड़ रहा हूं। परमार को परमाल या परिमालिक भी कहा जाता है। जच्छराज को देशराज भी कहा जाता है। जगनिक के आल्हाखन्ड में, कहा जाता है, कि बावन गढ़ों की लड़ाइयाँ हैं। हर शादी में लड़ाई होती थी। मेरे बचपन में नम्बर्दार कुँअर अमोलसिँह का आल्हा विख्यात था। आपने जो उदाहरण दिये हैं उनके दूसरे versions भी हैं जैसे:
    1। भैंस बियानी है गाँजर माँ, पड़वा गिरो जहानाबाद
    2। आठ बरस लौं कुत्ता जीवे औ दस बारा जिये सियार
    बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवै तो धिक्कार
    एक और उदाहरण से इस टिप्पणी को समाप्त करता हूं:
    काहे ते निम्बिया करुई लागै, काहे ते लागै शीतली छाँह
    काहे ते भैया बैरी लागे, काहे ते लागै दाहिनी बाँह
    खाये ते निम्बिया करुई लागै, बैठे ते लागै शीतली छाँह
    हींसा माँ भैया बैरी लागै, रण माँ लागै दाहिनी बाँह
    लक्ष्मीनारायण
    *निम्बिया=नीम,हींसा=बटवारा
  4. आशीष
    आल्हाखंड महाराष्ट्र के विदर्भ के कुछ भागो मे और छत्तीसगड मे भी प्रचलित है। मैने अपने बचपन मे इसे विदर्भ(गोन्दिया) मे सुना है।
    आशीष
  5. आशीष
    आल्हा उदल की कहानी प्रेमचन्द के शब्दो मे यहां पर पढे .
    आल्हा-उदल के बारे मे अन्य जानकारी यहां देखे
  6. eswami
    क्या साईबर महुआ छलकाए हो गुरुदेव … धन्य भये भाग्य हमारे! टिप्पणियां भी धांसू आई हैं.
  7. e-shadow
    शुक्ल जी, गुस्ताखी माफ हो पर यह क्या संयोग ही है कि आज भी महोबा, उत्तरप्रदेश एवम् मध्यप्रदेश का वह इलाका भारत के कुछ सबसे पिछडे हुए इलाकों मे से है, क्या यही आल्हा बीहड मे गये उन डाकुओं ने भी नही गाया था जिनके लिये मारना बेहद मामूली बात थी। अगर कोई बच्चा बचपन से यही सुनेगा तो यह वीररस कोई और दिशा में भी जा सकता है। आपसे अनुरोध है कि अगर शम्भव हो तो इस पर भी प्रकाश डालेंगे। आपका लेख बेहद रोचक बन पडा है और मुझे बहुत पहले सुने हुए आल्हाओं की यादें ताजा कर गया।
  8. satish yadav
    Your Blog is linked with bhojpuriduniya.com on Link Page.
    Please inform us about your opinion on this Hyperlink.
  9. vijaynarayanmishra
    bhojpuridatcom dekhe se hmra ke mhan khusi ba
  10. Anonymous
    maine bhi aalha ke bare me bahut suna hai mughe bhi aalha acha lagta hai
  11. dharmandra
    veri intrasting
  12. Anonymous
    बहुत अछे गुरु .. लगे रहो…
    बड़े लड़ाइया महोबे वाले ..जिनसे हार गयी तलवार :)
  13. pawan raoriya
    मुझे बहुत अच्छा लगा इसमें मारो की लराई बहुत अच्छी है एक बार पड़ कर देखो बहुत अच्छा लगता है( पवन कुमार राजौरिया – पारना वाले )
  14. ramkumar bhurewal
    aap ne bahot hi badiyaa tarike se iss lekh ko likhha hai aap ka shat shat aabhar …anup ji
    kadva paani re mahobbe ka kadvi baat sahi jaye,…
    Abhi ladakpan me khele ho muh par bahe dudh ki dhaar….
    Hum bhi sunte hai, gate hai, aalha khand . Ye hamare liye lokgeet hai hum ahiro ko yehi geet pasand hai….
    bavan garh ki ladaaiya sun rakhi hai ..
  15. ramkumar bhurewal
    hum jalna city, Maharashtra se hai holi ke samay fag gayan aur sawan me rakhi ke waqt aalha gate hue hum dande le kar khelte hai ek bahut hi badiyaa sama hota hai ,
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] उठाओ यार… 6.कुछ इधर भी यार देखो 7.भैंस बियानी गढ़ महुबे में 8.अरे ! हम भँडौ़वा लिखते रहे [...]

Saturday, April 22, 2006

कुछ इधर भी यार देखो

http://web.archive.org/web/20140420082213/http://hindini.com/fursatiya/archives/124

कुछ इधर भी यार देखो

जिधर महापुरुष निकलते हैं वही रास्ता बन जाता है। अगर आप किसी रास्ते पर चल रहे हैं तो निश्चित जानिये कि उस रास्ते पर जरूर किसी महापुरुष ने चहलकदमी की होगी। रास्ते के लाखों धूलि कणों ने महापुरुष का चरण-चुंबन किया होगा। खुलकर या चोरी-चोरी,चुपके-चुपके।
महापुरुष के चलने से जब रास्ता बन जाता है तो दुनिया उस रास्ते पर चलकर रास्ते को चौड़ा करती है। महापुरुष के चेले-चापड़ अगर जागरूक होते हैं तो रास्ते की देखभाल करते रहते हैं। टूटफूट ठीक करते रहते हैं। समय बीतने के साथ रास्ता या तो जनपथ होते हुये राजपथ बन जाता है या कीचड़ में बदल जाता है । दोनों ही मामले में रास्ता आम आदमी के लिये बंद हो जाता है। कीचड़ में कमल खिल सकता है आदमी नहीं । वैसे ही राजपथ भी खासलोगों के लिये होता है। जनता को अपना रास्ता बनाने के लिये फिर महापुरुष का इंतजार करना पड़ता है।
ये महीन बात आम जनता की,बिजली पानी के अलावा सड़क बनवाने की मांग से हलकान नेता को नहीं पता लगी है अबतक । जिस दिन पता चल जायेगी तब शायद वह कहने लगे -तुम मुझे महापुरुष दो मैं तुम्हें सड़क दूंगा।
बहरहाल ये तो ऐसे ही कुछ ऊँची हांकने के लालच में लिख दिया। अगर ठीक समझे हों तो मिस़रा उठाइये नहीं तो हियां की बातें हियनै छ्‌वाडौ़ अबआगे का सुनौ हवाल।
हर साल अपने देश में सैंकडों फिल्में बनती हैं। उनके लिये हजारों गाने लिखे जाते हैं। कुछ गाने जनता की जुबान पर चढ़ जाते हैं बाकी भुला दिये जाते हैं।
चर्चित गानों की तर्ज पर लोग अपनी-अपनी जरूरत के अनुसार गाने बना लेते हैं। एक बढ़िया गाना हजारों जरुरतों को पूरा कर देता है।
चर्चित गानों की तर्ज पर सबसे ज्यादा गाने भक्तिगीत या विज्ञापन के क्षेत्र में होता है। दोनों का उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचना होता है।
नवरात्र,जागरण के दिनों में आप किसी भी रात सोने का अतिरिक्त प्रयास मत कीजिये ,करवट बदलते हुये,गानों की तर्ज पर फैलते भजनों से आपको पता चल जायेगा कि कौन सा गाना हिट चल रहा है।
ले के पहला-पहला प्यार ,भर के आंखों में खुमार का उपयोग लगभग सभी देवी-देवताओं की आगमन सूचना देने के लिये होता है -ले के हाथों में तलवार, हो के शेर पर सवार…
यही कहानी विज्ञापन में गीतों के मुखड़ों या टेक का इस्तेमाल करने के बारे में है।
कविताओं की तर्ज पर कवितायें लिखने का फैशन आदिकाल से चला आ रहा है।अक्सर होता है कि तर्ज पर लिखी कवितायें मूल कविता से ज्यादा चलन में आ जातीं हैं। सच्चाई मुलम्में से मार खाती हैं।बंबू पर खड़ा हुआ तंबू हमेशा बंबू से ज्यादा आकर्षक होता है।यह अलग बात है कि बंबू तो बिना तंबू के लग सकता है लेकिन कोई भी तंबू बिना बंबू के खड़ा नहीं हो सकता ।
कल जब कवि सम्मेलन की बात कहते हुये अनूप भार्गव जी की कविता (परिधि के उस पार देखो/इक नया विस्तार देखो) मेरी पसंद में लिख रहा था तो दिमाग में इसकी टेक पर तमाम पंक्तियां कुलबुला रहीं थीं। बाद में मजबूरन हमें उनको की-बोर्ड पर बैठाना पड़ा अब वो सिर चढ़ गईं की हमें स्क्रीन पर भी बिठाओ। अब वे इठला रहीं हैं कि हम तो पोस्ट में जायेंगे।
अनूप भार्गव की यह कविता जब ब्लाग में पोस्ट हुई तो गायब हो गई। फिर जब दुबारा पोस्ट की गयी तो बिना टिप्पणी के रही। ई-कविता तथा ब्लाग में प्रतिक्रियायों में अंतर होता है। ई-कविता में तारीफ या बुराई मेल के रूप में आती है जिसे आपको किसी को दिखाने के लिये बार-बार बहाने खोजने पढ़ते हैं। जबकि ब्लाग की प्रतिक्रियायें मेल के अलावा नोटिस बोर्ड की तरह हर पोस्ट के साथ जुड़ी रहती हैं। इसलिये जो लोग ब्लाग के मैदान में हैं वे प्रतिक्रिया के लिये ब्लाग का भी उपयोग करें ताकि वो स्थायी सा रहे।
वैसे यह भी सच है कि कोई इस तरह की बातें मानता नहीं है।सो भइया जिसके जो मन में आये सो करे।
बहरहाल मजा लें इस तुकबंदी का। अनूप भार्गव की कविता टेक पर लिखी इस तुकबंदी में अगर किसी को अपने बारे में लिखा नजर आता है या कविता के तत्व नजर आते हैं तो यह मात्र संयोग होगा । ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। हो सके तो अनूप भार्गव जी भी यही मान के पढ़ें कि उनकी कविता का उपयोग केवल टेक के लिये किया गया है। तुकबंदी का कविता की अच्छाई बुराई से कुछ लेना -देना नहीं है। यह मैं इसलिये लिख रहा हूं कि वे खामखां कहीं अपनी कविता के बारे में धारणा में संसोधन करने में न जुट जायें।

मंच के इस पार देखो
कुछ इधर भी यार देखो
झूमकर पढ़ रहा है कवि इधर
श्रोताओं पर नींद की ये मार देखो।
चांदनी से कर रहा ,कवि प्यार देखो
दो नयन थे ,हो गये हैं चार देखो
सो गया है करवट बदलकर बावरा वह
फूंकने की बात जो करता रहा संसार देखो।
वीर रस का कवि इधर पढ़ने लगा
जुबां में फिट हुई तलवार देखो
जो सिटपिटाकर बोलता रहता हमेशा
किस कदर चिंघाड़ता,ललकार देखो।
हंस रहा खुद हास्य रस का कवि इधर
घिस चुके चुटकुलों की बौझार देखो
हंसी तो डूब चुकी कब की,‘हरसूद’ सी
चेहरों पर बोरियत की भरमार देखो।
गीत की बहती नदी में तैरता फ़नकार देखो
मधु,यामिनी,गजगामिनी,गलहार देखो
प्रेम,प्रेमी,प्रेमिका के बिम्ब सब ठहरे हुये हैं
फैशनेबल नागरिक का बावड़ी से प्यार देखो।
नयी कविता है इसका भी अजब व्यापार देखो
तुक,छंद, लय,अर्थ का डल गया अचार देखो
पा गया है कागज,कलम और कायनात,
अब सुनायेगा रात भर ,छोड़ेगा न ये यार, देखो।
कवि सब मंच पर हैं हो गये तैयार देखो
सुनाने को लग रहे हैं गज़ब बेकरार देखो
अब और आगे बोलना अच्छा नहीं भइये
कवि ने पकड़ लिया माइक चलो ये यार देखो।

मेरी पसंद
इस पागलपन में
जो नहीं शामिल होंगे
-मारे जायेंगे।
बरदाश्त नहीं किया जायेगा
किसी की कमीज हो
उनकी कमीज से ज्यादा सफेद।
जिसकी कमीज पर
दाग नहीं होंगे
-मारे जायेंगे।
फेंक दिये जायेंगे
कला की दुनिया से बाहर
जो धर्म की ध्वजा नहीं उठायेंगे।
जो
गुन नहीं गायेंगे
-मारे जायेंगे।
इस समय
सबसे बड़ा अपराध है
निहत्था और निरपराध होना।
जो
अपराधी नहीं होंगे
मारे जायेंगे।
-राजेश जोशी

4 responses to “कुछ इधर भी यार देखो”

  1. ratna
    good but not mind blowing.well, masterpieces are rare.
  2. समीर लाल
    अनूप भार्गव जी के टेक को ले कर बहुत बढिया माला गूंथी है, बधाई…
  3. Tarun
    ऊंची हांकने के चक्‍कर में गड़बड़िया गये अनुप जी….खैर एक साथ दो लेखों का मजा मिल गया।
  4. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] रस में प्रेम पचीसी 5.मिस़रा उठाओ यार… 6.कुछ इधर भी यार देखो 7.भैंस बियानी गढ़ महुबे में 8.अरे ! हम [...]