#व्यंग्यकीजुगलबंदी-23 https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210666791279409
शराफ़त की तलाश में हम शरीफ़ को खोजते हैं। अगर कोई शरीफ़ है तो उसमें शराफ़त तो होगी ही न। अब शरीफ़ की पहचान कैसे करें? आजकल तो हर आदमी जो होता है दिखता उससे अलग है। लोग तो कहते हैं जो आदमी जैसा दिखता है वैसा कत्तई नहीं हो सकता। इसलिये देखकर शरीफ़ की पहचान करना मुश्किल काम है। फ़िर क्या करें? हरकतों से पहचाना जाये क्या?
हरकतों पर अगर जायें तो लोग कहते हैं - ’आजकल शरीफ़ आदमी की मरन है।’
लेकिन शराफ़त के इस नियम में लफ़ड़ा यह तय करने में है कि मरन किसकी हो रही है। मरन से मतलब यह हुआ कि मरा नहीं है लेकिन बस मरने ही वाला है। मरणासन्न है। इस लिहाज से तो देखा जाये तो सारी दुनिया शरीफ़ है। अपने यहां चुनाव जीतने के लिये मारकाट मचाती पार्टियां, उनके दिग्गज नेता, कश्मीर के लिये हल्ला मचाते नवाज शरीफ़ से लेकर प्रवासियों को खदेड़ने की कसम खाते ट्रंप तक, रूस की कुर्सी पर अंगद के पांव की तरह जमे हुये पुतिन से लेकर अपने मोहल्ले के नुक्कड़ पर पान फ़ेरते छज्जू पनवाड़ी तक सब शरीफ़ ही तो हैं क्योंकि सबको एक न एक दिन तो मरना ही है। सबकी मरन ही तो है।
लेकिन अगर इन सबको शरीफ़ मान लिया जायेगा तो शराफ़त का जी दहल उठेगा। वह आत्महत्या कर लेगी बेचारी।
एक और कहावत है शरीफ़ लोगों के बारे में। देखिये शायद उससे कुछ काम बने। कहा गया है:
लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे और दूर जाकर बैठ गये।
शरीफ़ लोग उठे और दूर जाकर बैठ गये।
शराफ़त का यह टेस्ट बड़ा बवालिया है। इसके लिहाज से अगर टेस्ट करना हो तो पहले सौ-पचास लोगों को इकट्ठा करो। फ़िर भीड़ के सामने खून खराबा करो। लहू लुहान नजारों की रनिंग कमेंट्री टाइप करो। उसको सुनकर जो लोग दूर जाकर बैठ जायें उनको शरीफ़ मान लिया जाये। लेकिन इस टेस्ट में भी पेंच हैं। जैसे ही शराफ़त का यह इम्तहान शुरु होगा, लोग कहेंगे - “अबे फ़िर चुनाव आ गये क्या जो यह दंगा होने लगा?”
इसके अलावा भी उठने-बैठने से लाचार, गठिया के मरीज और लहूलुहान नजारों का जिक्र सुनने में असमर्थ (कर्ण दिव्यांग) लोग इस इम्तहान में फ़ेल हो जायेंगे। वे जहां के तहां बैठे रहेंगे। यह भी कि जिनके घर ’लहूलुहान नजारों वाले घटनास्थल ’के एकदम पास ही होंगे वे भी दूर जाकर बैठ नहीं पायेंगे। बहुत दूर से अगर लोगों को लाकर लहूलुहान नजारे दिखाये जायेंगे तो दिखाने वालों का खर्चा डबल हो जायेगा। उनको लाने के साथ दूर जाकर बैठने का भी खर्च देना पड़ेगा। शराफ़त का यह बहुत इम्तहान खर्चीला होगा। इसलिये यह टेस्ट अमल में लाने लायक नहीं है। शायरी तक ही ठीक है। वैसे भी हम लोग रोजमर्रा की जिन्दगी में देखते ही हैं कि लोग अपने आसपास खून-खच्चर होते देखते हुये अपने काम से काम रखते हुये जीते रहते हैं। कहीं दूर जाकर नहीं बैठते। लहूलुहान नजारों के बगल से जरा बचाकर निकल जाते हैं। इनमें से भी सब नहीं तो कुछ लोग तो शरीफ़ होंगे ही !
शराफ़त का मोटा-मोटी मतलब यह समझ में आता है कि जो अपने काम से काम रखे, किसी दूसरे के फ़ंटे में टांग न अड़ाये। ’न उधौ से लेना न माधौ’ का देना घराने का आदमी हो उसको शरीफ़ आदमी कहा जा सकता है।
इस लिहाज से भी देखा जाये तो और विकट कन्फ़्यूजन होता है। संपन्न और दबंग लोग गरीब और कमजोर को लूटने में अनासक्त भाव से लगे हैं। गरीब और कमजोर इसे अपनी नियति मानकर पूरी विनम्रता से लुटने में सहयोग कर रहा है। नेता जनता की भलाई के लिये उसके बुरे हाल बना रहे हैं। उनको पता है जितने बुरे हाल होंगे जनता के उतना ही उसकी सेवा और कल्याण में आसानी होगी। पूरी शराफ़त से वे जनता की सेवा का काम कब्जे में लेने में लगे हुये हैं। जनता की सेवा का ठेका पाने के लिये वे गाली, गलौज, मार-पीट, गुंडागर्दी वाली शराफ़त से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। लोकतंत्र में शराफ़त के नये-नये नमूने पेश कर रहे हैं।
बड़े पैमाने पर देखा जाये तो पाकिस्तान पूरी तन्मयता से खुद को बरबाद करते हुये भी पडोस में आतंक फ़ैला रहा है, अमेरिका विश्व में अमन कायम करने के लिये दुनिया भर में बम बरसा रहा है, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में दोस्ती बनाये रखने के लिये दोनों को हथियार बेंच रहा है। जिसके पास पैसा नहीं उसको अपने टेंट से दे रहा है (निकल तो आयेगा ही कभी न कभी)। विकसित देश अविकसित देशों को लूट रहे हैं और इसके बाद उसी लूटी हुई सम्पत्ति के कुछ हिस्से से उनकी आर्थिक सहायता कर रहे हैं। दुनिया भर में लोकतंत्र का हल्ला मचाने वाले अरब में राजतंत्र की हिफ़ाजत में लगे हुये। पूरी शराफ़त से अपना काम कर रहे हैं।
लेकिन शराफ़त का सच्चा नमूना देखना है तो बाजार के पास आना चाहिये। बाजार लोगों को लूटता भी है और लूटने के बाद लूट से बचने के तरीके भी बताता है। आपकी ही जेब से पैसा निकलकर आपको दर्द भी देता है। इसके बाद आपके पैसे से ही वह आपके दर्द की दवा भी बेंचता है। वह अपराध में भी सहयोग करता है, अपराधी को पकड़वाने में सहयोग भी करता है। बाजार अगर इंसान होता तो उसको दुनिया का सबसे शरीफ़ इंसान कहा जाता।
चलन के हिसाब से देखा जाये तो किसी आदमी की शराफ़त तभी तक शराफ़त कहलाती है जब तक वह दूसरे की शराफ़त में अडंगा न लगाये। अड़ंगा लगाते ही अगले की शराफ़त या तो बेवकूफ़ी में बदल जाती है या फ़िर (औकात के हिसाब से) हठधर्मिता, बदतमीजी, जबरदस्ती , मनमानी आदि-इत्यादि गुणों में बदल जाती है। विडम्बना यह है कि बेवकूफ़ी वाली बात को लोग तो मुंह पर कह देते हैं लेकिन बाकी को शराफ़त ही कहते रहते हैं।
मतलब कमजोर की शराफ़त को बेवकूफ़ी और समर्थ हठधर्मी की बदतमीजी और मनमानी भी शराफ़त ही कहलाती है।
इत्ते घनचक्कर हैं इस शराफ़त की राह में कि आपको और घुमायेंगे तो आप हमसे कहने लगोगे - ’अजीब बेवकूफ़ी कर रहे हो यार शराफ़त के नाम पर।’
हम आपकी बात काट भी नहीं पायेंगे क्योंकि एक तो आपकी बात कहीं से गलत भी नहीं होगी और अगर होगी भी तो भी आपकी हर बात को शराफ़त कहना हमारी मजबूरी है फ़िलहाल। :)
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