जब रविरतलामी ने अनुगूँज का विषय दिया -' चिट्ठी' तो मुझे सबसे पहले याद आई अखिलेश की लिखी कहानी 'चिट्ठी' ।अखिलेश का जिक्र वर्तमान हिंदी साहित्य के समर्थ कथाकारों के रूप में किया जाता है।हिंदी जगत की सर्वाधिक पठनीय पत्रिकाओं में सुमार की जाने वाली पत्रिका 'तद्भव' के सम्पादक अखिलेश का जन्म उ.प्र. के सुल्तानपुर जनपद में ६ जुलाई,१९६० को हुआ।इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. करने के बाद पास-फेल की शिक्षा समाप्त।पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ दिनों सक्रिय।'वर्तमान साहित्य'के प्रथम तीन अंकों के सम्पादक।कुछ दिन बेरोजगार रहने के बाद 'माया' में चार महीने बतौर उपसम्पादक।फिर उसे भी छोड़कर लम्बे समय तक खाली। बाद में हिंदी साहित्य संस्थान की पत्रिका 'अतएव'में उपसंपादक। सम्प्रति 'तद्भव' का संपादन।इलेक्ट्रानिक मीडिया में ,हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों पर केन्द्रित दूरदर्शन धारावाहिक 'कालजयी'के लिये शोध, आलेख एवं पटकथा।टेलीफिल्म 'हाकिमकथा'की कहानी तथा पटकथा। दूरदर्शन धारावाहिक 'सात दिन सात वर्ष'की पटकथा और संवाद।
प्रकाशित पुस्तकें:आदमी नहीं टूटता,मुक्ति,शापग्रस्त (कहानी संग्रह)तथा अन्वेषण(उपन्यास)
पुरस्कार:'मुक्ति'के लिये परिमल सम्मान तथा 'अन्वेषण' के लिये हिन्दी संस्थान के बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार से सम्मानित।
चिट्ठी कहानी से अखिलेश को कथाजगत में पहचान मिली।पाठक इस कहानी को पढ़ते हुये किसी न किसी पात्र के रूप में अपने को उपस्थित पाता है ।यह जुड़ाव और कहानी का अपनापन ही इस कहानी की विशेषता है।मैंने जब अपने साथियों को पढ़ाने के लिये लखनऊ निवासी अखिलेशजी से अनुमति मांगी तो उन्होने खुशी-खुशी अनुमति दी तथा देश-विदेश के पाठकों को अपनी शुभकामनायें दी। आप कहानी पढ़ें तथा अपनी राय से अवगत करायें।कुटिया पर मुझे साढ़े सात तक पहुंच जाना था और सात बज गये थे।एक तो मेरी जेब में रिक्शे -भर के लिये मुद्रा नहीं थी, दूसरे आज इस जाड़े की पहली बारिश हुई थी और इस समय रात के साढ़े सात बजे तेज हवा थी।जाड़े में ठंडी के अनुपात में हमारा शरीर सिकुड़ जाता है और चाल धीमी हो जाती है।तो धीमी गति से कुटिया पर साढ़े-सात बजे कैसे पहुंचा जा सकता था।
मैंने मफ़लर के कानों के साथ-साथ समूचे सिर को ढंक लिया।गर्दन पर लाकर दोनों किनारों को गांठ लगाई।अब मैं अपनी समझ से सर्दी से महफ़ूज कुटिया तक पहुंच सकता था।मफ़लर के भीतर से मेरी आंखें और नाक झलक रही होंगी।
कुटिया में आज हम दोस्तों का सामूहिक विदाई समारोह था ।कहने को तो ,हम बड़े दिन की छुट्टियों में घर जा रहे थे।पर इस बार का जाना साधारण प्रस्थान नहीं था।इस बार हमारे गमन में उत्साह नहीं मजबूरी थी।घरों से मनीआर्डर आने की अवधि बढ़ती जा रही थी और हम किसी भी कंप्टीशन में उत्तीर्ण नहीं हो पा रहे थे।हमने कुछ अख़बारों के दफ्तरों और रेलवे स्टेशनों के चक्कर मारे।पहली बात तो वहां काम का टोटा था।गर काम था तो क्षणजीवी किस्म का ।उसमें भी श्रम ज्यादा और धन कम का सिद्धान्त सर्वमान्य था।
सबसे पहले रघुराज ने घोषणा की ,"मैं घर चला जाऊंगा।इलाहाबाद में मेरा पेट भी नहीं भर पाता है।"
कृष्णमणि त्रिपाठी ने गंभीरता का नाटक करते हुये कहा,"सब्र करो और ईश्वर पर भरोसा रखो।ऊपरवाला जिसका मुंह चीरता है उसे रोटी भी देता है।"
हम हंस पड़े।कृष्णमणि की यह पुरानी आदत थी।वह नास्तिक था और ईश्वर की बातें करके ईश्वर का मजाक उड़ाता था।उसका चेहरा मुलायम था और हाथों पर बड़े-बड़े घने बाल थे।
यह प्रारम्भ था।बाद में एक दिन हुआ यह कि फैसला होगया ,हम अपने अपने घरों को चले जायेंगे।
विनोद ने कहा था ,हम इस तरह नहीं जायेंगे।हम एक दिन जायेंगे और जाने के एक दिन पहले मेरे कमरे में बैठक होगी और उसमें मैं शराब सर्व करूंगा।
विनोद ने अपने कमरे का नाम 'कुटिया' रखा था।मैं विनोद के कमरे पर जा रहा था।कुटिया जा रहा था।जहां पर मेरे बाकी दोस्त मिलेंगे।वे भी कल मेरी तरह इस शहर को छोड़ देंगे।
आगे की कहानी संक्षिप्त ,सुखहीन और मंथर है,इसलिये मैं थोडा़ पहले की कहानी बताना चाहूंगा।उसमें उन्मुक्त विस्तार, प्रसन्नता और गति है।तो आखिर चीजें इतनी उलट-पुलट क्यों हो गईं,यह रहस्य मैं इस उन्मुक्त ,प्रसन्नता और गति से भरे हिस्से के बाद ,यानी अभी-अभी जहां पर कहानी ठहरी है,उसके अंश के बाद खोलूंगा....
विनोद से मेरी पहली मुलाकात एक गोष्ठी में हुई थी ।उसमें उसनें कवितायें पढ़ीं ,जिनकी मैंने जमकर धुनाई की।सचमुच उसकी कवितायें रुई थीं और मैं धुनिया।बस उस गोष्ठी के बाद विनोद मेरा दोस्त बन गया।हमारी गाढ़ी छनने लगी।हमारी जो कुछ लोगों की मंडली थी,उसमें शिफ़ारिस करके मैंने उसका दाखिला करा दिया।उधर उसका दाखिला हुआ इधर मेरा मकान -मालिक सात महीनों का बकाया किराया मांगने पर हरामीपन की हद तक उतर आया।एक बार मैंने मज़ाक में मामला रफ़ा-दफ़ा करने की गरज से कहा,"नौ महीने हो जाने दीजिये।सात महीने में जच्चा-बच्चा दोनो को खतरा रहता है।"सुनकर मकान-मालिक ने पिच्च से थूक दिया।पान की पीक ने मेरी वाक्पटुता की रेड़ मार दी थी।
आखिरकार मैंने पाया कि इस मामले में सात महीने का मुफ्त निवास भी उपलब्धि है,मंडली में कमरा तलाश करने की बात चलाई।अगले दिन सभी कमरे की खोज में सक्रिय हो गये।नवागंतुक विनोद भी इस काम में जोत दिया गया।
कमरे के मामले में मकान-मालिक सिद्धांतवादी होते हैं।उन्होंने कुछ सिद्धांत बना रखे थे,जैसे शादीशुदा को हीकिरायेदारबनायेंगे। नौकरी वालों को वरीयता देंगे।नौकरी स्थांतरणवाली हो।कुछ लोग गोस्त-मछली पर पाबंदी लगाते,तो कुछ रात को देर से आने पर।वगैरह...वगैरह!
मैं इन सभी मानदंडों पर अयोग्य था फिर भी छल प्रपंच कर कमरा प्राप्त कर ही लेता।दरअसल हम भी कोई कम ऐरे-गैरे नहीं थे।मेरा और मेरी मंडली का भी एक सिद्धान्त था कमरे को लेकर।कमरा उसी मकान में लिया जायेगा जिसके आसपास नैसर्गिक सौन्दर्य हो,यानी कि सुन्दरियां हों।इस बात की जानकारी के लिये हमारे पास उपाय था।हम पान और चाय की दुकानों पर गौर करते ,जहां मुस्टंडों का जमावड़ा होता,उसके आसपास कमरा पाने के लिये जद्दोजहद करते।कमरा न मिले यह दीगर बात है किंतु हमारे प्रयोग की प्रामाणिकता कभी भी संदेहवती हो पाई थी।वाकई वहां सुन्दरियां होतीं।चाय-पान की दुकानोख के अलावा एक और दिशा सूचक था हमारे पास पड़ताल का।हम मकान के छज्जों और छतों पर दृष्टिपात करते ।यदि शलवार,कुर्ते,दुपट्टे या अंतरंग वस्त्र लटकते होते ,तो हम वहां बातचीत करना मुनासिब समझते।
विनोद इस प्रसंग में कुछ ज्यादा ही मुदृहर निकला।नैसर्गिक सौन्दर्य या नैसर्गिक सौन्दर्य के वस्त्र देखता ,तो पहुंच जाता और पूछता,"मकान खाली है क्या?""नहीं "सुनने के बाद वह प्रश्न करने लगता कि बताया जाए कि आसपास में कोई मकान खाली है?खैर,काफी छानबीन के बाद एक कमरा मिला।बातचीत के पहले हमने छज्जे पर कुंवारे कपड़े देखे और छत पर तीन नैसर्गिक सौन्दर्य ।मकान-मालिक को तुरंत एडवांस दिया और पहली तारीख से रहने की बात पक्की कर ली।जब हम कमरे में आये तो यह जिंदगी का बहुत बड़ा घोटाला साबित हुआ था।मंडली के प्रत्येक सदस्य का चेहरा ग़मगीन हो गया था।वे तीनों सौन्दर्य विभूतियां रिश्तेदार थीं जो मंडली में बेवफाई करके घर चली चली गईं थीं।रघुराज ने कहा,"सालियों के शलवार,कुर्ते और दुपट्टे अब कहीं टँगते होंगे और युवा पीढ़ी को दिशाभ्रमित करते होंगे।" प्रदीप ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा,"सब माया है।"और कमरे में कोरस शुरु हो गया:
माया महा ठगिनी हम जानी।
तरगुन फाँस लिये कर डोलें
बोलै मधुरी बानी।
केशव के कमला ह्वै बैठी शिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत ह्वै बैठी तीरथ में भई पानी...
योगी के योगिन ह्वै बैठी राजा के घर रानी।
काहू के हीरा ह्वै बैठी काहू के कौड़ी कानी...
भक्त के भक्तिन ह्वै बैठी ब्रम्हा के ब्रम्हानी।
कहै कबीर सुनो हो संतो वह अब अकथ कहानी...
मंडली में कई लोग थे,प्रदीप,रघुराज,कृष्णमणि त्रिपाठी,विनोद,दीनानाथ,त्रिलोकी,मदन मिश्रा आदि।हम विश्वविद्यालय के बेहद पढ़े-लिखे लड़को में थे।हमारी पढ़ाई -लिखाई वह नहीं थी ,जो गुरुओं के पाजामें का नाड़ा खोलने से आती है।हम उस तरह के पढ़नेवाले भी नहीं थे,जो प्रकट हो जानेवाले ग्रस्त रोगी की तरह अपने बाड़े रहते हैं।ऐसे को प्राय: हम डंडा करते थे।राजनीतिक रुझान भी थी हमारी।
हम लोग लड़कियों के दीवाने थे।कोई हमारी आंतरिक बातें सुनता तो हमें लंपट और लुच्चा मान लेता।मगर हम ऐसे गिरे हुये नहीं थे।लड़कियों के प्रति यह आसक्ति वास्तव में जिज्ञासा और खेल थी ।सीमा का अतिक्रमण हराम था हमारे लिए।सच कहूं, हम इतने नैतिक थे कि अवसर को ठुकरा देते थे।वैसे लो हम लोगों की तरफ अनेक लड़कियां लपकती थीं।हम अपने-अपने विभाग के हीरो थे।यह भी बता दूं कि चिकने-चुपड़े गालों सफाचट मूंछों और दौलत की वजह से हीरो नहीं थे।बल्कि हममें से अधिसंख्य तो दाढ़ी भी रखते थे।जहाँ तक दौलत का प्रश्न था तो हम लड़कियों से प्राय: चन्दा मांगते थे।इस राह पर त्रिलोकी दो डग आगे था।वह व्यक्तिगत कामों के लिये भी लड़कियों से चन्दा वसूलता।लेकिन वह उन नेताओं की तरह नहीं था जो सामूहिक कल्याण के लिए चन्दा लेकर अपने तेल-फुलेल पर ख़र्च करते हैं ।त्रिलोकी को जब निजी काम के लिए ज़रूरत होती, तो ज़रूरत बतलाकर पैसा लेता।वह कहता,"विभा,भोजन के लिये पैसा नहीं है,लाओ निकालो।"
एक बार एक लड़की ने त्रिलोकी से पूछा,"तुम हम लड़कियों से ही क्यों हमेशा चन्दा माँगते हो?"
"क्योंकि वे दयालु होती हैं।लड़के घाघ और क्रूर होते हैं।"
त्रिलोकी की इस स्थिति की वजह उसकी एक खराब आदत थी।घर से जब उसका मनीआर्डर आता तो वह सनक जाता।रिक्शा के नीचे उसके पांव नहीं उतरते थे।दोस्तों के साथ नानवेज खाता और सिनेमा देखता।एक-दो बार जन-कल्याण भी कराता।जन-कल्याण मंडली में शराब का कोड था और देशभक्ति प्यार-मुहब्बत का।हाँ तो हफ्ते-भर में त्रिलोकी के पैसे चुक जाते और वह सड़क पर आ जाता।
कमोवेश मंडली के हर सदस्य की स्थिति यही थी।हमारी त्रासदी थी कि हम सुखमय जीवन जीने की कामना करते थे किन्तु हमारे मनीआर्डर वानप्रस्थ पहुँचाने वाले थे।यह दीगर बात है सब लोग त्रिलोकी की तरह महीने के पहले हफ्ते में ही कंगाल नहीं होते थे लेकिन महीने के अंत में भोजन के लिये तीन तिकड़म करना सभी की बाध्यता थी।कृष्णमणि होटल के रजिस्टर देखता।जितने मीटिंग गेस्ट लिखा होता,उससे दो दो गुना मीटिंग वह अपने एक रिश्तेदार के यहाँ खाकर संतुलन स्थापितकरता। मदन मिश्र प्राय: कमरे में खिचड़ी पकाकर मेस में एब्सेंट लगवाता ।रघुराज भूखा रहकर भी हँसते रहने की क्षमता अर्जित कर चुका था।प्रदीप जिसमें ऐसी कोई योग्यता नहीं थी,लोगों के यहां घूम-घूमकर खाता।पंकज सक्सेना शर्मीला था,सो मंडली मे विनोद को समझा दिया था,वह उसका सत्कार करता ।विनोद फले-फूले परिचितों से सम्मानजनक रकम कर्ज लेता था,जिसे कभी नहीं चुकाता था।
छुट्टियों के बाद युनिवर्सिटी खुली थी,इसलिये लोगों के चेहरों पर एक खास तरह का नयापन और उल्लास था।पर ये चीजें उतनी नहीं थीं, जितनी इस मौके पर होनी चाहिये थीं।क्योंकि कल इस जाड़े की पहली बारिश हुई और आज हवा तेज़ चल रही थी,इसलिए लोग ठंड से सिकुड़े हुए थे।
मैं कुछ ज्यादा ही पहले अपने हिन्दी विभाग में आ गया था,इसलिये सामने के लान में खड़ा धूप खा रहा था।मुझे त्रिपाठी का इन्तज़ार था कि वह आये तो चलकर चाय पी जाये।मोहन अग्रवाल का पिरियड कौन अटेंड करे।मैं सदानन्दजी के अलावा और किसी का पीरियड अटेंड नहीं करता था क्योंकि बाकी अध्यापक पढ़ाई के नाम पर कथावाचन करते थे या खुद सही किताब से नकल करके इमला लिखवाते थे।एम.ए. में नकल का इमला।मैंने कक्षाओं का बायकाट कर दिया पर मेरे इस कुकर्म पर वे भन्नाने की जगह परम प्रसन्न हो गए।क्योंकि अब वे क्लास में निर्भीक भाव से लघुशंका-दीर्धशंका समाधान कर सकते थे...
मुझे त्रिलोकी पर झुँझलाहट हुई ,आ क्यों नहीं रहा है।कहीं डूब गया होगा बतरस में।त्रिलोकी को बोलने का भयानक चस्का था। उसके बारे में यह प्रसिद्ध था कि त्रिलोकी जब बोलना शुरु होता है तो सामने वाला केवल कान होता है और वह केवल मुँह।
मेरे विभाग में उसके आने का एक उद्देश्य सुन्दरियों को देखना भी होता था।यहां एम.ए. के दोनो भागों में लड़कियों की तादाद लड़कों से ज्यादा होती थी,इसलिए यह विभाग अन्य छात्रों का तीर्थ होता था।यहां लोग विपरीत सेक्स के चक्कर में इस तरह मँडराते ,जैसे अस्पताल और मंदिरों के आसपास मंडराते हैं।वैसे यह विद्यालय का मीरगंज बोला जाता था।मीरगंज इलाहाबाद वह स्थल है,जहाँ नैतिकतावादी लोग बहुत सतर्क होकर घुसते और टिकते हैं और बाहर निकलते हैं।
तभी सदानंदजी का स्कूटर रुका और वह अपना हेल्मेट हाथ में झुलाते हुये आने लगे।हमारी मंडली उनका बेहद सम्मान करती थी लेकिन उनसे हमारे सम्बन्ध बेतकल्लुफ थे।एक बार हमने उनसे शराब के लिये रुपये भी लिये थे।वह अपनी मेधा और वामपंथी रुझान के अतिरिक्त एक अन्य प्रकरण की वजह से भी चर्चित थे,उन्होंने प्रेम-विवाह किया था किन्तु विभाग की अध्यापिका सुनीता निगम से प्रेम करते थे।दोनों दुस्साहसी थे और भरे विभाग में एक दूसरे का हाथ पकड़ लेते थे।
सदानन्दजी मुझे देखकर मुस्कराये और पास आकर मेरी अभी हाल ही में छपी एक कविता की तारीफ करने लगे। मैंने सोचा इस तारीफ को कोई सुन्दरी सुनती तो आनन्द था। तभी एम.ए. प्रीवियस की नई किन्तु सुन्दर लड़की उपमा श्रीवास्तव दिखी। हम दोनों का हल्का -हल्का चक्कर भी चल रहा था। मैं उसे बुलाकर सदानन्दजी से परिचय कराने लगा। परिचय के बाद मैंने कहा,"हाँ तो सर,मेरी उस कविता में कोई कमी हो तो वह भी कहें, तारीफ तो आपने बहुत कर दी।"
वह मुस्कराकर बोले ,"नहीं भई, यह तुम्हारी बहुत अच्छी कविता है।"
"सर प्रणाम !" त्रिलोकी आ गया था। आज हम चार लोग धूप के वृत्त में खड़े थे। तभी विभागाध्यक्ष महेश प्रसाद जिन्हें मंडली गोबर-गणेशजी कहती थी ,लपड़-झपड़ आते दिखाई पड़े। उन्हें देखकर उपमा थोड़ी दूर खिसककर खड़ी हो गयी। कई दूसरे लोगों ने भी अपनी पोजीशन बदल ली। क्योंकि सदानन्दजी और गोबरगणेशजी में दाँतकाटी दुश्मनी थी। गोबर-गणेशजी हिंदी विभाग का अध्यक्ष होने के नाते अपने को साहित्यकार लगाते थे पर साहित्य में मान्यता सदानन्दजी की थी।इसके अतिरिक्त गणेशजी प्रो. वी.सी. लाबी में थे जबकि सदानन्दजी एंटी वी.सी. लाबी में थे।
और सबसे खासबात ,इस विश्विद्यालय के अध्यापकों में ब्राह्मण और कायस्थ जाति के लोग शक्तिशाली थे जबकि सदानन्दजी सिंह थे।इस मामले में गणेशजी का कहना था कि असल में वह सिंह नहीं यादव थे। सदानन्द मथुरा के नन्द कुलवंशी थे।
गणेशजी निकट आए, तो सदानंदजी ने नहीं लेकिन मैंने और त्रिलोकी ने प्रणाम किया।जवाब में उनका सिर कांपा तक नहीं और आगे बढ़ गये। त्रिलोकी उनके पीछे हो लिया,"सर,हमारा आपका मुद्दा आज हर हाल में साफ होजाना चाहिये।"
मैं भी सदानंद जी को छोड़कर लपका।त्रिलोकी गणेशजी के संग उनके कमरे में घुस गया,तो मैं चिक से सटकर खड़ा हो गया।
"कैसा मुद्दा?" गणेशजी हांफ रहे थे।
"भक्ति आंदोलन के सामजिक कारण क्या थे?"
"उस दिन बताया था।सुना नहीं क्या?" उन्होंने किसी बच्चे की तरह चिढ़कर कहा।
"उस दिन भक्ति आंदोलन के सामजिक कारण बताने के नाम पर आप सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश करते रहे।"
"मैं तुम्हें क्यों बताऊँ सामाजिक आधार? तुम तो हिंदी के छात्र हो नहीं। आउटसाइडर होकर मेरे विभाग में कैसे घुसे ?
त्रिलोकी कुर्सी खिसकाकर खड़ा हो गया।हाथ के पंजों को मेज पर रखकर थोड़ा झुक गया," भक्ति आंदोलन पर हिंदी का बैनामा है क्या ? रही बात आउटसाइडर की ,तो जो साले लुच्चे -बदमाश आपके विभाग में आंख सेंकने आते हैं,उनको कभी आपने मना किया ? मना किया? आँय ?उनको मना करने में आपकी दुप-दुप होती है।मीना बाजार बना रखा है हिंदी डिपार्टमेन्ट को।महानगर की सिटी बसें बना रखा है।"
"मैं कहता हूँ निकल जाओ यहाँ से।"
"तो आप मुझे बाहर निकाल रहे हैं।मैं हिंदी का विद्यार्थी न होते हुये भी आपको चैलेंज करता हूँ कि हिंदी साहित्य ही नहीं संसार के साहित्य के किसी मसले पर बहस कर लें।बहस में अगर जीत जायें तो मैं पेशाब से अपनी मूँछें मुड़ा दूँगा।"
"मैं कहता हूँ ,निकल जाओ...निकल जाओ..."
"मुझसे निकलने को कह रहे हैं ।दुरदुरा रहे हैं जबकि मैं साहित्य का योग्य अध्येता हूँ और गुडों को आप शेल्टर देते हैं। मैं जा रहा हँ लेकिन जाते-जाते एक बात कह देना चाहता हूँ कि क्या कारण है, जब से आप यहाँ के हेड हुए ,यहाँ केवल लड़कियों ने टाप किया...
वह तमतमाया हुआ बाहर आ गया। मैंने खुश होकर उसकी पीठ पर हाथ रखा ,"वाह गुरु! मजा आ गया।चलो ,लल्ला की दुकान पर चाय पिलाता हूँ।"
"अबे पहले एक ठो सिगरेट तो पिला।"
"हाँ..हाँ...गुरु..लो..।"
हम दोनों सिगरेट पी रहे थे।पढ़ने में रुचि रखने वाले लड़के-लड़कियाँ हमें मुग्ध भाव से देख रहे थे।लेकिन पास नहीं आ सकते थे।क्योंकि उन नन्हें-मुन्ने प्यारे बच्चों को अच्छे नम्बर लाने थे, जो वे समझते थे कि गणेशजी की लेंड़ी तर किये बिना नहीं मिल सकते थे।
उपमा श्रीवास्तव भी एक कोने में खड़ी होकर हमें रही थी।त्रिलोकी मुस्कराया ,"कहो कब तक भाभी को देवर दिखलाते रहोगे। वैसे उनकेबगलवाली मेरी श्रीमती हो सकती हैं।
"श्री शादीशुदा! सपने देखना छोड़ दो" मैंने कहा।
"लेनिन के अनुसार सपने हर इन्सान को देखने चाहिये।"
"वह तो दिनवाला सपना है,तुम तो रातवाले सपने देख रहे हो।"
"तुम कुवाँरे साले स्वप्न दोष से आगे जा ही नहीं पाते..."
"हा...हा...हा..." मैंने ठहाका लगाया और कहा ,"इस बात का फैसला लल्ला की दुकान पर होगा।"
लल्ला की दुकान पर लड़कों का खूब जमावड़ा होता था।जिसकी खास वजहें थीं।दुकान यूनिवर्सिटी और कई हास्टल के निकट थी।फिर सामने वीमेन्स हास्टल था। इसके अलावा लल्ला ने एक हिस्से में जनरल स्टोर्स की भी दुकान खोल ली थी। वीमेन्स हास्टल के आस-पास में इकलौती अच्छी दुकान थी,सो हमेशा दो-चार लड़कियाँ खरीद फरोख्त करती मिलतीं।
मैं और त्रिलोकी दुकान पर पहुँचे,वहाँ इलेक्शन की चर्चा की। हमने चर्चा में शरीक होने के पहले जनरल स्टोर्स की तरफ देखा,कुछ लड़कियां और कुछ सामान्यजन सामान खरीद रहे थे।त्रिलोकी ने मुझे कोंचा,"वो पीली साड़ीवाली को देखो।" मैंने देखा,गोरा रंग और बड़ी-बड़ी आँखों वाली थी वह।पीली साड़ी ने उसके गोरेपन को चन्दन का रंग बना दिया था।शेम्पू किये चमकते हुए बाल घँघराले और कटे हुए थे।
मैंने पहले भी कई बार उसे देखा था.वह भेष बदला करती थी।कभी शलवार कुर्ते में तो कभी पैंट-शर्ट में तो कभी स्कर्ट में।उसके कपड़े कभी ढीले होते तो कभी चुस्त । आज पीली साड़ी पहने थी और अलौकिक बाला लग रही थी।
"देख लिया।"मैंने बताया।
"क्या प्रतिक्रिया है?"
"भारत की मोनालिसा।"
"सी...ई...ई..."यह पंकज सक्सेना की है। दोनों एक दिन शादी करेंगे और हमें भविष्य भर दावतें देंगे। पंकज की योजना है ,नौकरी लगते ही शादी कर लेगा।"
"ईश्वर इसे अखंड सौभाग्यवती बनाये।" मैंने कहा।हम दोनों आकर दुकान के स्टूल पर बैठ गये।छात्र संघ के चुनाव परिणाम पर चर्चा चल रही थी ।इस बार हमारी मंडली जिस संगठन से जुड़ी थी,उसने भी अध्यक्ष पद के लिये प्रत्यासी खड़ा किया था जिसने अच्छी शिकस्त खायी थी। दरअसल आजा़दी के बाद इस विश्ववुद्यालय के छात्रसंघ का इतिहास रहा है कि अध्यक्ष की कुर्सीपर किसी ठाकुर या बाह्मण ने ही पादा है और प्रकाशन मंत्री की कुर्सी कोई हिजड़ा-भड़वा टाइप का ही आदमी गंधाता रहा है। अध्यक्ष विगत अनेक वर्षों से भारतीय राजनीति के एक धुर कूटनीतिक बहुखंडीजी की उँगलियों और आंखों की संगीत ,चित्रकला और भाषा को तत्क्षण समझ लेने वाला
रहा है।इसके मूल में छिपा रहस्य यह है कि बहुखंडीजी पहले इस बात का जायजा लेते थे कि कौन दो सबसे वरिष्ठ प्रतिद्वंदी हैं।फिर उनका कुबेर दोनों को समृद्ध करता है। इसके बावजूद इसबार हमारा संगठन बहुखंडीजी की मंशा को खंड-खंड करता ।बहुखंडीजी ही क्यों,शराब के बड़े ठेकेदार सीताराम बरनवाल, उद्योगपति हाफि़ज,सभी के फन कुचलता हमारा संगठन।सभी की लपलपाती जीभको सिद्धान्तों के धागे से नापता हमारा संगठन।लेकिन चुनाव की पिछली रात जनेऊ घूम गया। बहुखंडीजी का प्रत्याशी इस बार बाह्मण था।मशाल निकालजुलूस निकालने के बाद वह सभी छात्रावासों में गया और अपनी जाति के लोगों की मीटिंग कर पानी भरने के रस्सी जितनी मोटी जनेऊ निकालकर गिड़गिड़ाया,"जनेऊ की लाज रखो।" और हम हार गये।
हम छात्रसंघ की चर्चा में डूब-उतरा ही रहे थे कि रघुराज हाँफता हुआ आया और मुझसे तथा त्रिलोकी से एक साथ बोला,"छ: समोसे खिलाओ।"
हम समझ गये कि ,आज खाना नहीं खाया है इसने।इस समय वह थोड़ा बुझा हुआ भी था कि त्रिलोकी ने उससे पूछा,"कहाँ से आ रहे हो महाराज?"
"यार ,दो लड़कियों से आरूढ़ रिक्शे के पीछे साइकिल लगाई। रिक्शा सिनेमा हाल के पास रुका। मैं भी देखने लगा फिल्म।"
हम समझ गये,अब रघुराज शुरु हो गया है। मैंने पूछा," कैसी थी फिल्म?"
"ठीक ही थी ,बस अश्लीलता का अभाव था।" रघुराज की विशेषता थी कि मूड की स्थिति में संसार के सभी कार्य व्यापार के मूल्यांकन के लिये उसके पास इकलौता बटखंरा सेक्स था।
"और लड़कियाँ कैसी थीं?" त्रिलोकी का प्रश्न था।
"क्षमा करना यार ,मैं बताना भूल गया। उनमें एक लड़की थी, दूसरी नवविवाहिता थी,भाभीजी!"
"पर तुम किसके लिये प्रयासरत थे?"
"दोनों के लिये।बेशक दोनों के लिये,लेकिन ज्यादा भाभीजी के लिये।"
"लेकिन रघुराज, मैंने प्राय: देखा है कि तुम्हें शादीशुदा औरतें ज्यादा अच्छी लगती हैं।इसकी वजह क्या है?"
"इसकी वजह करते समय पर वे चीं...चीं...नहीं करतीं...।"
"वाह रघुराज, तुम्हारी पकड़ बहुत अच्छी है।तुमको लेखक होना चाहिये। उपन्यास पर काम करो रघुराज।"
"कर रहा हूँ। एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ- अतृप्त काम वासना का जिंदा दस्तावेज। और एक कहानी पूरी की है- इलाहाबाद के तीन लड़कों को देखकर दिल्ली की लड़कियाँ विद्रोह कर नंगी घर से बाहर।"उसने जोर का ठहाका लगाया,"साले लेखक की दुम। आज तक मैंने कुछ लिखा है? जो अब लिखूँगा। फिर आज तक बाँझ औरत के कभी सन्तान हुई है? हा...हा...हा..."
रघुराज अपनी रौ में था ।हमने वहाँ से उठ लेना ही बेहतर समझा, क्योंकि वहाँ मंडली से बाहर के कई लड़के थे जिनकी निगाह में हम ब्रह्मचारी किस्म के सरल सीधे माने जाते थे।
हम उठने लगे तो दूसरे लोगों ने हमें रोका लेकिन हम रुके नहीं।थोड़ी ही दूर बढ़े होंगे कि रघुराज ने अपना काम शुरु कर दिया। आने-जाने वाली प्रत्येक लड़की को वह टकटकी बाँधकर देखता। हमने टोंका तो कहने लगा ,"कहाँ कायदे से देख पाता हूँ। ईश्वर ने एक आँख पीछे भी होती ,तो कितना आनन्द होता।"
मैंने सलाह दी, "तुम इसके लिए तपस्या शुरु कर दो।"
"ठीक है।" वह ठिठक गया,"मैं यहीं धूनी रमाऊँगा।" ठीक सामने वीमेन्स हास्टल था। मुझे इसकी यह आदत बिलकुल अच्छी नहीं लगी,"देखो तुम वीमेन्स के बारे कुछ मत कहना।"
"क्यो"?
"क्योंकि जब सूरज डूब जाता है तो अँधेरे में लड़कियों का यह हास्टल मुझे एक अद्भुत रहस्य लोक -सा लगता है...मेरे भीतर इसके लिए एक पवित्र भाव है।"
"देखो बालक! वैसे मैं तुम्हारे तथाकथित पवित्र बोध को अपवित्र नहीं करना चाहता।" रघुराज गम्भीर हो गया, लेकिन अज्ञान की वजह से जन्मी पवित्रता कोई वजन नहीं रखती इसलिए तुम चाहो, तो मैं तुम्हारी जिज्ञासा को शान्त कर सकता हूँ। चाहते हो?"
त्रिलोकी बोल पड़ा "हाँ...हाँ...महाराज बताओ..."
"तो सुनो।" वह रुक गया। हम लोगों को पल-भर देखा। फिर धीरे-धीरे चलने हुए कहने लगा," मैं कुछ बताने से पहले एक सवाल करना चाहता हूँ। बताओ, इस हास्टल में पी.एस.एफ. से जुड़ी लड़कियाँ अधिक क्यों है? हमारे संगठन की तरफ वे ज्यादा आकर्षित क्यों नहीं होतीं?"
"तुम ही बताओ महाराज! सब तुम ही बताओ!" त्रिलोकी ने व्यग्र होकर कहा।
"ठीक है, मैं ही बताता हूँ। इसलिए कि पी.एस.एफ. भद्र लोगों के वर्चस्ववाली संस्था है। उसमें अपनेको विशिष्ट समझने का एहसास होता है। देखो,आजकल सम्पन्न घरों के सदस्यों में सामाजिक कार्य करने का चस्का जोर पकड़ता जा रहा है लेकिन उनके ये कार्य मूलत: जनता के संघर्ष की धार को कुंद करने के लिये होते हैं, यही बिन्दु
पी.एस.एफ. और इन सुविधाभोगी लड़कियों के बीच सेतु का काम करता है।"
"रघुराज ,हमने तुमसे पी.एस.एफ. और लड़कियों के सम्बन्ध पर प्रकाश डालने के लिये प्रार्थना की नहीं थीं।" मैंने अधीर होकर कहा।त्रिलोकी ने मेरी बात पर हामी भरी। रघुराज भड़क गया," तुम लोग तभी तो अच्छे लेखक नहीं बन सके।" वह जोर-जोर से बोलने लगा,"केन्द्रीय तत्व को समझे बिना यथार्थ को फैलाने की कोशिश करते हो।
यही हड़बड़ीवाली आदत अगर संभोग के समय रही, तो शीघ्रपतन के रोगी कहलाओगे और तुम्हारी बीबियाँ बदचलन हो जाएँगी..."
हमने हाथ जोड़ लिया ,"अच्छा भइया ,सुनाओ! सुनाओ!"
"चलो क्षमा कर देता हूँ। हाँ तो मेरी उपरोक्त बात में तथ्य निकला कि वीमेन्स हास्टल की अधिसंख्य लड़कियाँ आर्थिक दृष्टि से दुरुस्त परिवारों से जुड़ी हुयी हैं। लेकिन इससे होता क्या है। यहां भी कई तरह की विभिन्नतायें कई तरह के कलहों को जन्म देती हैं।अब बहुत सम्भव है,थानेदार की बिटिया का मनीआर्डर और जूनियर इंजीनियर की बिटिया का मनीआर्डर क्रमश:डिप्टी एस.पी. और असिस्टेन्ट इंजीनियर की बिटिया के मनीआर्डर से ज्यादा रुपयों का होता हो।ऐसी स्थिति में पहली दोनो को घमंड आपने बाप के पैसों का होगा तथा दूसरी दोनों को अपने-अपने बाप के पद का।दूसरी तरफ हीनता भी अपने बाप के कारण होगी कि एक का बाप पैसा रखते हुए भी मातहत है,दूसरे का बाप अफसर मातहत से कम समृद्ध ।लड़कियों के बीच कलह का प्रमुख कारण यह है ।तुम लोग जानते ही हो,इन लड़कियों में होड़ की भावना बड़ी प्रबल होती है।वे पैंटी से लेकर प्रेम तक में अपने को श्रेष्ठ देखना चाहती हैं।कम से कम दूसरे से उन्नीस तो नहीं ही देखना चाहती हैं।अब जिनकी माली हैसियत अपेक्षाकृत पिछड़ी होती है, वे गड़बड़-सड़बड़ हो जाती हैं। ऐसेमें पहला दम किसी मालदार प्रेमी को पटा लेने का होता है।इसके बवजूद कमी पड़ी तो पतन शुरु हो जाता है।..."इतना कहकर रघुराज चुप हो गया।हम भी चुप हो गये।कुछ देर बाद मैने कहा,"कुछ और ज्ञान दोगे?"
"समय क्या है?"
"तीन चालीस।"
"तो त्रिलोकी तुम भी सुनो, हमें चलना भी है। चार तीस पर जाकर सांस्कृतिक हस्तमैथुन का विरोध करना है?
"क्योंकि किसी भी स्वस्थ कला के निर्माण के लिए इसकी समाज से प्रतिक्रिया अनिवार्य होती है पर जिसको तुम लोग आज डंडा करोगे,वे स्वयं रचते ,स्वयं आनन्दित होते हैं।" हम अल्फ्रेड पार्क यहाँ से आधा घंटा में आसानी से पहुँच सकते हैं। यानी कि हमारे पास बीस मिनट का वक्त था पर हमने तय किया कि वहीं चलते हैं।वहाँ हम धूप का एक टुकड़ा खोजेंगे और बीस मिनट लेटे रहेंगे।
शहीद पार्क से इकट्ठा होकर हमें कला भवन के लिये कूच करना था।बाकी लोग वहीं मिलने वाले थे।
मंडली के नेतृत्व में तमाम युवा कलाकार छात्र भवन में हो रहे नाट्य समारोह का विरोध करने वाले थे। क्योंकि कला भवन एक सरकारी संस्था थी और इसके कार्यक्रम जनता और उसके अपने कलाकारों से मुँह मोड़े रहते थे। इसमें दर्शक श्रोता अफसर वगैरह होते और कलाकार विदेशी मेकअप में ऐंठे रहने वाले। यहाँ शराब की झमाझम
बारिस और रासलीला के प्रयत्न की सुरसुरी समय-असमय हर समय देखी जा सकती थी।
विनोद ने कहीं से कार्यक्रम का पास उपलब्ध कर लिया था। योजना यह थी कि वह हमारे विरोध के पर्चों का बंडल झोले में छुपाकर भीतर हो जायेगा।और भीतर जितना हो सकेगा बांटेगा ,बाकी लोग बाहर नारेबाजी करेंगे। कलाभवन की कमर तोड़ने की अब हम ठान चुके थे...।
तो मंडली के लोगों का एक रूप था बौद्धिक ,मस्त और निर्भय।
जिंदादिली की रोशनाई में डूबी कलमें थे हम।
पर हम और भी कुछ थे। कहीं कुछ बुरा देखें,बुरा सुनें - हम क्रोध से काँपने लगते। इतने अजीब थे हम कि खुद ही गलत कह या कर जाते तो खुद पर ही ख़फा होने लगते।
हम पोस्टर चिपकाते। नारे लगाते। हम जुलूसों में जाते, सभाओं में होते । हम पुलिस और गुप्तचरी के रजिस्टर में दर्ज थे। सचमुच हम पढ़ाकू और लड़ाकू थे।
हम गर्म सिंदूर पर पक रही रोटियाँ थे।
लेकिन हम ऊपर उड़ते गैस-भरे रंग-बिरंगे गुब्बारों की तरह थे। हम उड़ रहे थे...हम उड़ रहे थे...उड़ते-उड़ते हम ऐसे वायुमंडल में पहुँचे जहाँ हम फूट गये। अब हम नीचे की ओर गिर रहे थे। अपना संतुलन खोए हम नीचे की ओर गिर रहे थे। हमारा क्या होगा ,हमें पता नहीं था...।
हमें नौकरी मिल नहीं रही थी जबकि वह हमारे लिये सांस थी इस वक्त।
उपमा मुझसे उखड़ी-उखड़ी रहने लगी। जब भी मिलती मशविरा देती कि मुझे कंप्टीशन की पढ़ाई और मेहनत से करनी चाहिये।इस पर मैं क्रद्ध हो जाता हो जाता। धीरे-धीरे हमारे सम्बन्धों के पाँव उखड़ने लगे...।
सदानन्दजी भी मंडली से दोस्ताना अंदाज में नहीं मिलते। वह मंडलीपर दया करने लगे थे।
अब हम भोजन के लिए लाल-तिकड़म नहीं करते थे। न होने पर भूखे रह जाते। उधार लेने का मनोबल भी हम खो चुके थे।
कोई हमसे पूछता ,क्या कर रहे हो? तो प्रत्युत्तर में हम काँपने लगते।किसी से मिलने के पहले ही हमारी दिल की धड़कन तेज हो जाती कहीं पूछ न लिया जाये ,क्या कर रहा हूँ मैं।
आपस में मिलना भी कम होने लगा। हम परस्पर कतराने लगे।हमारे बीच मुहब्बत बदस्तूर थी पर बातचीत में हम कटखने हो गये थे।एक बार हम छुट्टियों में अपने-अपने घर गये। लौटने पर हम सभी थके और हारे हुये लग रहे थे। हमने अपने माता-पिता-परिचितों को निराश किया था जिससे वे चिढ़ गये थे।उन्होंने हमें हिकारत से देखा था और हम हार गये थे।थक गये थे।
फिर भी हमने तय किया था कि हम घर चले जायेंगे।हम 'कुटिया ' पर इकट्ठा होने वाले थे-अपने-अपने घरों को प्रस्थान करने के लिए।
हम खुशी या फायदे के किए नहीं वापस हो रहे थे। हम मजबूर थे।क्योंकि यहां तो जीना मुहाल हो गया था। गुजारा मुश्किल था।
बाद की कहानी यह है कि हम कुटिया पर इकट्ठा हो गये थे। विनोद का यह कमरा आधुनिक शैली का था पर उसकी जीवनपद्धति ने इस आधुनिकता का कबाड़ा कर दिया था। किताबें और कपड़े हर जगह फैले हुए थे।उसने हर जगह रंगीन तस्वीरें चिपका रखी थी। चेग्वारा की बगल में एक सुन्दरी कूल्हे मटका रही थी...
सबसे पहले त्रिलोकी बहका। वह हाथों में शराब का गिलास लेकर खड़ा हो गया और बोला ,"भाइयों और बहनों!"
"नेताजी यहाँ कोई लौंडिया नहीं है।" प्रदीप चिल्लाया। वह भी हल्के ,बहुत हल्के शुरूर में आ गया था।
"बड़े अफसोस की बात है।"त्रिलोकी दुखी होकर बोला," यह भारतवर्ष के लिये बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हम जैसे महान युवकों के पास न प्रेमिकायें और न नौकरियां।हम किसके सहारे जियें?"
"मैं जानता हूँ...।जानता हूँ...।लो मैं बैठ जाता हूँ।..पब्लिक साली अब समझदार हो गई है...सवाल-जवाब करने लगी है..."
"सवाल-जवाब ही तो नहीं कर रही है जनता वर्ना हमारी यह दशा नहीं होती...।'दीनानाथ ने धीमे से अपने से ही कहा।
त्रिलोकी को छोड़कर बाकी मंडली अभी नशे में नहीं थी। नशे की पूर्वावस्था में सुरूर में थी।
"आखिर हम यहाँ इकट्ठे क्यों हुए हैं? "मदन मिश्र साहित्यिक अंदाज में बोला । मैंने कहा,"हम यहाँ विदाई समारोह के उपलक्ष्य में एकत्र हुए हैं।"
"नहीं।" प्रदीप ने बताया ."यह बैठक हमारे सुख की शोकसभा है। हमारे पास जो भी सुख था इस बैठक के पहले खत्म हो गया।कल से हम दुखी दुनिया के नागरिक होंगे।"
"हम नागरिक नहीं हैं। दुखी दुनिया के नागरिक मजदूर और किसान होते हैं जिनके श्रम का शोषण होता है। हमारे पास तो सामजिक श्रम करने का भी अधिकार नहीं है। "त्रिलोकी तैश में आ गया था,"जिनके पास कोई काम नहीं होता ,वह आदमी नहीं होता। हम आदमी नहीं हैं,...इस व्यवस्था ने हमें आदमी नहीं रहने दिया...हमसे हमारा होना छीन लिया गया...।" त्रिलोकी सुबकने लगा। वह सिर झुकाये सुबक रहा था।
जैसे काठ मार गया हो, हम सब स्तब्ध हो गये। इस बात को कृष्णमणि ने सबसे पहले भाँपा। वह आहिस्ते से त्रिलोकी के पास गया और उसके लटके हुये मुँह से एक सिगरेट लटका दी, नेताजी,ईश्वर एक दिन तुम्हारी सुनेगा जरूर। तुम इसी तरह भाषण करो लेकिन भाषण के बीच में सुबकना छोड़ दो तो एक दिन सच्ची-मुच्ची में नेता बन जाओगे और मौज करोगे।"
"हम एक दिन मर जायेंगे और कोई जानेगा भी नहीं।"
विनोद मेजबानी भूला नहीं ,"आप लोगों में जिसके गिलास खाली न हों ,कृपया उन्हें जल्द खाली कर लें। यह साकी जाम का दूसरा पैग ढालने के लिये उतावला है।"
"काश ,हम आज किसी रूपसी के हाथ पीते तो रात कितनी हसीन होती।"रघुराज था।
"मार साले को ।" हमने चौंककर देखा ,प्रदीप था। उसे भी चढ़ गई थी।उसने फिर कहा ,"मार साले को" और चुप हो गया।
मैंने पूछा,"किसे मार रहे हो।"
"अपने दोस्तों के लिये नहीं कर रहा हूँ ।बस।मार साले को।"
हम दूसरा पैग पीने लगे। रात और ठंड दोनो बढ़ गई थी। दीनानाथ ने उठकर खिड़कियाँ बन्द कर दीं। हमने सिगरेट सुलगा ली। उनका धुआँ कमरे में घुमड़ने लगा।मदन ने घूँट लेकर सिगरेट पी और कहा,"रोज़ मेरी मृत्यु होती है। रोज़ कई-कई बार मेरी मृत्यु होती है। कोई मुझसे पूछता है,'तुम क्या करते हो?'और मैं मर जाता हूँ।"
"मार साले को।" प्रदीप धुत होने के करीब पहुँच चुका था। वह किसे मारना चाहता था?
"तुम लोग समझते होगे,मैं नशे में हूँ लेकिन मैं होशोहवास में कह रहा हूँ।बेरोजगारी के कारण मैं कई-कई बार रोया हूँ। पिछली बार का रक्षाबन्धन था। बहन को देने के लिये मेरे पास कुछ नहीं था। भाई उसके लिये कपड़े ले आये थे। मेरे पास कुछ नहीं था। बहन ने मेरे सिरहाने की किताब में चुपके से सौ का नोट रख दिया।वह नोट अब भी मेरी डायरी में रखा है। मैं उसे देखता हूँ और उदास हो जाता हूँ।" कृष्णमणि अपने चेहरे पर हाथ पोछने लगा।
"माँ -बाप दो आँखे नहीं करते -यह झूठ है।" विनोद ने एक साँस में कह डाला ,"मेरे माँ-बाप मेरे कमासुत भाई की चापलूसी तक करते हैं पर मुझे देखकर जलभुन
जाते हैं।"
"और मैं।मेरा पिता से कोई संवाद नहीं । एक दिन उन्होंने गुस्से में चीखकर कहा,'लोग पूछते हैं कि तुम्हारा बेटाक्या करता है? मैं क्या बताऊँ उन्हें?बोल।जवाब दो। बोल।' बस, इसी दिन से हम एक दूसरे से नहीं बोले।"
दीनानाथ आँखें स्थिर कर कुछ देर सोचता लगा। कहीं खो गया था वह।
"लो मैं भी बता देता हूँ।" रघुराज ने अपना सिर उठाया, उसकी आँखें सुर्ख लाल थीं'मैं अपना रहस्य खोलता हूँ। अब हम जा रहे हैं ,तो क्या छिपाना। मैं लड़कियों के पीछे कभी नहीं भागा। मैं एक कपड़े की और एक दवा की दुकान पर पार्टटाइम काम करता रहा।मालिक मुझे ढाई सौ रुपये का चाकर समझते रहे।मैं...मैं...।" वह चुप हो गया,
उसकी आवाज फंसने लगी थी।
मंडली अवाक थी रघुराज की बात से। रघुराज ने अपना चेहरा फिर घुटनों में छिप लिया।
हम सभी ने अपने रामकहानी कही।हमने तीसरा पैग लिया। हमने चौथा पैग पिया। पाँचवाँ पिया...। हम लुढ़कने लगे।
विनोद ने कहा,"हम खाना कैसे खायेंगे?"
"भविष्य में हमें भूखे रहना है,हम आज भी भूखे रहेंगे।"मदन डाँवांडोल होते हुये उठ खड़ा हुआ। हम सभी खड़े हो गये।
हम कुटिय के बाहर खड़े थे, अलग-अलग दिशाओं में जाने के लिये।रात गाढ़ी थी और हवा सरसरा रही थी।हमारे मुँह बन्द और चेहरे भिंचे हुये थे।
"अच्छा दोस्तों!" रघुराज ने गला साफ करते हुये दुबारा कहा, "अच्छा दोस्तों! अब विदा लेते हैं...।"
एक क्षण सन्नाटा रहा फिर अचानक हम सब जोर से रो पड़े। हम सारे दोस्त फूट-फूटकर रो रहे थे.....
उस दिन अलग होने के पहले हमने तय किया 'हममें से यदि कोई कभी सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को ख़त लिखेगा।'
लम्बा समय बीत गया इंतजार करते, किसी दोस्त की चिट्ठी नहीं आई। मैंने भी दोस्तों को कोई चिट्ठी नहीं लिखी है।
फुरसतिया जी, ये तो पूरा पूरा कवि सम्मेलन ही हो गया, मजा आ गया,
कई कई बार पढा, बहुत अच्छा लगा, ऐसे कवियों को वैब पर लाइये, चाहे तो हम सभी ब्लागर भाईयों की सेवायें लीजिये, हम उनके लिये टाइप कर देंगे. लेकिन ऐसे कवियों को बहुत बड़ा वर्ग मिलेगा देखने और पढने को. जैसे नर्मदातीरे टाइप की साइट है वैसी ही साइट बनायी जा सकती है, कानपुर के कवियों और साहित्यकारों के लिये.
धन्यवाद
सारिका
मुश्किलों से जब मिलो आसान होकर ही मिलो,
देखना,आसान होकर मुश्किलें रह जायेंगीं।
प्रमोद जी से परिचय करवाने के लिये धन्यवाद। जब आपने यह लिखा था तब हम चिट्ठाकारी में न थे।
सुना है कि आप हमेशा दूसरों को उपहार में किताबीं ही देते हैं आज आपसे हक के साथ प्रमोद जी की ’सलाखों के पीछे’ मांग रहे हैं।
Pramod Tewari
प्रमोद तिवारी की कविताएं शानदार है।
उन्हें जैजै
mujhe apne par ashchary ho raha hai ki itni behtareen link kaise meri nazar se bachi rahi ab tak.
bhale hi 5 sal baad padh raha hu lekin jeetu ji ke 5 sal pahle kahe gaye kathan se sehmat hu, agar aise kavi ho to unke liye type karne ko ham taiyar hain…
aur han
khud pramod tiwari ji ka comment dekh kar lagaa ki ve anoop shukl aur fursariya ka bhed nahi jante,,,,, please unhe clear kijiye…
Anwar Ahamad c/o sri Nawab khan(Dainik Jgran)
Mere Kavya guru to Kavi Ansar Kambari Sahab hai lakin Pramod ji ki Kavitao ka asar bhi mere lekhan par pada hai. Unki kavitao ko adarsh mankar ham likhate rahe hai.
Eshwar unko wo sabhi kuch pradan kare jiski unhone kalpana ki ho.
Jai Hind
Dr Mukesh Kumar Singh
Govt Central Textile Institute, Souterganj Kanpur