सुबह हुई तो चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दी। सब अपने-अपने अंदाज में चहचहा रहीं थीं। कोई ची ची, कोई टी टी। चींचीं चींचीं, कोई कुहू कुहू। बीच-बीच में तो सब एक साथ हल्ला मचाने लगतीं। मानों झगड़ रहीं हैं कि चींचीं बोल, कुहू-कुहू क्यों बोलती है। क्या पता वह जबाब देती हो -"हमारी मैडम ने यही सिखाया है। हम तो ऐसे ही बोलेंगे।"
बीच-बीच में एक कौवा भी कांव-कांव करने लगा। सब चिड़ियां उस पर हंसने लगती। कौवा बेचारा फुदककर दूर चला गया।
निकल कर देखा तो चिड़िया, न कौवा कोई भी मास्क नहीं लगाए थी। पेड़ के पास फुदकती भी बिना मास्क टहल रही थी। मन किया हड़का दें, चालान करवा दें इनका। लेकिन फिर नहीं किया। क्या पता इनके प्रोटोकाल में न हो मास्क लगाना। हो सकता है इनकी चोंच ही इनका मास्क हो।
आजकल बिना मास्क कोई दिखता है तो उससे दूरी बना लेते हैं। सपने भी बिना मास्क वाले नहीं देखते। अभी एक आइडिया आया। बहुत धांसू टाइप का लग रहा था। लेकिन हमने उसको दिमाग के मेन गेट पर ही रोक दिया। हड़का दिया -'बिना मास्क अंदर नहीं घुसोगे।' बेचारा आइडिया मुंह लटका के निकल लिया बाहर।
कोरोना का आतंक हर तरफ पसरा है। हर अगले पल किसी के 'शांत' हो जाने की खबर आ रही है। लगातार फोन आ रहे हैं, मेसेज भी। किसी को कहीं बिस्तर चाहिए, किसी को ऑक्सीजन सिलिंडर। हम किसी दूसरे को फोन करते हैं। वह किसी और को करता होगा। जिंदगी की जद्दोजहद जारी है।
इस बीच कई लोग अपने ठीक होने की खबर देते हैं। किसी को सिलिंडर मिल गया, किसी को बेड। कोई बताता है कि डॉक्टर ने उसको हड़काया कि कोरोना टेस्ट भले पॉजिटिव है लेकिन फेफड़े एलर्जी के कारण खराब हैं। ये दवाई लो। आराम से रहो। हफ्ते भर बाद उनके ठीक होने की खबर आती है। 92 साल के बुजुर्ग डॉक्टर की तारीफ कर रहे हैं जो कोरोना मरीजों को भी धड़ल्ले से देख रहे हैं, दूरी बनाते हुए। पिछले साल भी देखते रहे। 92 साल के डॉक्टर धनात्मक ऊर्जा से भरपूर हैं।
टीवी पर खबर आती है अस्पताल में ऑक्सीजन खत्म हो रही है। मरीजों की जान को खतरा है। नीचे किसी नेता का बयान आता है -'आक्सीजन की कोई कमी नहीं होगी।' 'आक्सीजन की कमी की खबर' और 'ऑक्सीजन की कमी नहीं होगी' में पहले बहस और फिर मारपीट हो जाती है। इस भी अगली खबर किसी अस्पताल में आग लगने कुछ लोगों के मरने की खबर आ जाती है। आक्सीजन वाली दोनों खबरें पर्दे के पीछे जाकर बेशर्मी से हंसने लगती हैं।
आक्सीजन की कमी की बात सोचते हुए पुरानी कल्पना फिर आ गई दिमाग में। उस कल्पना में अपन इतना विकसित हो चुके हैं कि पानी के अणुओं को मूंगफली की छीलकर हाइड्रोजन और आक्सीजन अलग-अलग कर सकते हैं। हवा से नायट्रोजन और दीगर गैसों को तखलिया बोलकर आक्सीजन का मन मनचाहा उपयोग कर सकते हैं। बाद बाकी जब कभी पानी की जरूरत होती हो दो मुट्ठी हाइड्रोजन और एक मुट्ठी आक्सीजन मिलाकर तीन अंजुरी पानी बनाकर प्यास मिटा लेते।
हम पानी छीलकर आक्सीजन बना रहे थे कि बाहर बगीचे में पेड़ से कच्ची अमिया टप्प से नीचे गिर गयी। एक गिरी सैकड़ों पेड़ पर अभी हैं। पेड़ पर लगी अमियां नीचे गिरी अमियां के लिए दुखी हो रहीं होगी। उसके लिए शोक संदेश लिख रहीं होंगी। RIP के साथ हाथ जोड़ रहीं होंगी।
इसी बीच हमारे एक अजीज दोस्त के 'हमारे बीच न रहने' की खबर व्हाट्सअप पर आ जाती है। मित्र लोग दुखी होने लगते हैं। कुछ लोग पहले 'न रहने वाले' लोगों के साथ इस मित्र के लिए भी दुखी होने लगते हैं। तब तक कोई इसी दिवंगत मित्र का दो दिन पहले का संदेश फिर से लगा देता है जिसमें उस मित्र ने अपने ठीक होते स्वास्थ्य का हवाला देते सभी मित्रों को विस्तार से धन्यवाद दिया था।
मुझे अपने मित्र से हफ्ते भर पहले की चहकते हुए पुरानी यादें साझा करते हुए की गई लम्बी बातचीत याद आती है। इस बातचीत में मित्र ने कुछ दिन बाद रिटायर होकर तसल्ली की जिंदगी जीने की योजना भी थी। योजना पर अमल होने के पहले ही मित्र हमेशा के लिए रिटायर हो गए।
शहर में लाकडाउन है। मास्क लगाने के सख्त आदेश हैं। कुछ दिन में लगता है मास्क अनिवार्य ड्रेस कोड में आ जायेगा। शर्ट, पैंट, बनियाइन भले न पहनों पर मास्क जरूर लगाओ। मास्क न लगाना अश्लील और आपराधिक माना जायेगा। जिस देश के नागरिक जितने अनुशासित होकर मास्क लगाएंगे वह उतना ही विकसित माना जायेगा। देशों की प्रगति 'मास्क इंडेक्स' से नापी जाएगी।
'मास्क इंडेक्स' और प्रगति वाली बात से याद आया कि पिक्चरों में जितने भी दूसरे ग्रहों के प्राणी दिखाए जाते हैं वे सब हमसे ज्यादा विकसित होते हैं। वे सब मास्क लगाए रहते हैं। मास्क मतलब विकास। मास्क मतलब प्रगति।
लेकिन मास्क तो आम जनता के लिए होते हैं। जनता की भलाई की जिम्मेदारी जिन पर वे मास्क नहीं , मुखौटे लगाते हैं। पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है। अवाम की भलाई के लिए तैनात लोग तरह-तरह के मुखौटे लगाए उछल-कूद रहे हैं। जनता की सोचने-समझने की ताकत का अपहरण हो गया है। अवाम सर झुकाए अपने जीवन की रक्षा में हलकान है। जनता के आका पस्त जनता के सर पर कबड्डी खेलते हुए उसका 'कल्याण करने में मस्त' हैं।
मास्क और मुखौटे वाले आइडिये को हमने बहुत तेज हड़काया। ये क्या फालतू की बात करते हो। हमारी हड़काई से वह सहम गया और मारे घबराहट के भारतमाता की जय और वन्दे मातरम कहने लगा। हमने उसको तसल्ली देते हुए इस तरह की बेफालतू की बातें करने से मना किया। उसने कहा है कि ठीक है साहब नहीं करेंगे लेकिन सच तो यही है:
"तमाशा है
जो ज्यों का त्यों चल रहा है
अलबत दिखाने को कहीं-कहीं सूरत बदल रहा है।"
इस बीच सूरज भाई अपना चाय का कप खाली करके निकल लिए हैं। जाते-जाते बोले कि बातें तो तुम हमेशा की तरह बेवकूफी वाली ही करते हो लेकिन ये जो पानी की बूंद छीलकर आक्सीजन बनाने वाला आइडिया है न वो पेटेंट करा लो। क्या पता कभी अमल में आ जाये।
सूरज भाई तो सलाह देकर निकल लिए। हमको यह नहीं समझ में आ रहा कि वो सही में कह रहे थे या हमको 'जनता' बना रहे थे।
इस बीच हमारे एक दोस्त कोरोना को हराकर घर वापस आ गए हैं। दूसरे मित्र की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। और लोग भी ठीक हो रहे हैं।
सब ठीक होगा। बस थोड़ा सावधान रहें। मास्क लगाएं, दूरी बनाएं। हौसला रखें। मस्त रहें।
और हां, ये पानी को मूंगफली की तरह छीलकर आक्सीजन बनाने वाले आइडिया पर अपनी राय बताएं। झिझक हो तो इनबॉक्स में बताएं। हम किसी से कहेंगे थोड़ी।
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