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शब्बीर जी चाय की दुकान पर |
मूलगंज चौराहे पर दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ थी। लोग काम के इंतजार में खड़े थे। अपने-अपने औजारों के साथ। बढ़ई लोग आरी, रंदा, बसूले साथ। पेंटर तरह-तरह के ब्रश , कूचियों से लैस। लोग आते। भावताव करते। सौदा पट जाने पर ग्राहक के साथ चले जाते। आदमियों का मॉल टाइप लगा मूलगंज का चौराहा जहां आदमी आइटम के रूप में उपलब्ध थे।
एक बुजुर्गवार भी उन्ही में शामिल थे। सड़क किनारे गुजरती मोटी पाइप लाइन को बेंच बनाये बैठे। कुछ पूछताछ की तो खड़े होकर बतियाने लगे।
पता चला कि मूलत: बलरामपुर गोंडा जिले के किसी गांव के रहने वाले हैं। सन 1972 में कानपुर आये थे। 15 साल की उमर में। आधारकार्ड में जन्मदिन 23 अप्रैल 1957 लिखा है। मतलब आजादी की पहली लड़ाई के सौ साल बाद। आज की उमर ठहरी महीना कम 61 साल। पिता जीवित हैं। बढई का पेशा खानदानी है। पिता और दीगर रिश्तेदारों से काम सीखा। लड़के भी लकड़ी छीलते, सजाते हैं।
हमारे बतियाते हुये एक ग्राहक आ गया। उसको घर की चौखट बनवानी थी। पान भरे मुंह के चलते सर ऊपर करके बतिया रहा था। बतियाते हुये थोड़ा ऐंठ भी रहा था। ऐठते हुये यह भी जताता जा रहा था -’हमको बेवबूक मत समझना।’ ऐसा जताते हुये फ़ुल बेवकूफ़ लग रहे थे भाईसाहब। लेकिन हम ऐसा कह नहीं रहे। बस सोच रहे हैं ऐसा। अब जरूरी थोड़ी है कि जो हम सोचे वह सही ही हो।
काम विस्तार से समझाने के बाद उन्होंने पैसे पूछे। बुजुर्गवार ने दिहाड़ी बताई 800 रुपये। उन्होंने बताया -’दो घंटे का काम है। आठ सौ बहुत हैं।’ इसके साथ उन्होंने इस बार कह भी दिया -’हमको अनाड़ी मत समझो।’
बुजुर्गवार ने एक बच्चे नुमा बढई को काम फ़िर से बताने के बाद चले जाने के लिये कहा। लेकिन उसने काम दुबारा सुनने के बाद गरदन हिला दी- ’नहीं जायेंगे।’ कामगार तलाशने वाले भाईजी मुंह के पान को और चबाते हुये आगे बढ गये।
हमने बुजुर्गवार से पूछा -’जब आप लोग काम के लिये यहां खड़े हो तो काम के लिये मना क्यों किया?’
’उनको काम कराना ही नहीं था। हम आदमी देखकर समझ जाते हैं। जिस काम के लिये दिन भर लग जाता है उसको वो दो घंटे का काम बता रहे हैं। इसलिये हमने मना किया और उस लड़के ने भी।’ -बुजुर्गवार ने अपनी बात कही।
बताया कि इतवार को सबसे ज्यादा भीड़ रहती है काम के लिये आदमी खोजने वालों की। सुबह से शाम तक कभी शटर डाउन नहीं रहता इस आदमी बिक्री केन्द्र का। कभी भी ग्राहक आ जाता है।
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ग्राहक का इंतजार करते दिहाड़ी मजदूर |
कुछ देर की बातचीत के बाद उनके घर परिवार की बात होने लगी। बताया कि चार बेटे हैं, दो बेटियां। दो बेटियों और दो बेटों की शादी हो गयी। दो की बाकी है। सब अपना-अपना काम करते हैं। घर में काम चलता है। मुंबई भी गये थे। कुछ साल रहे फ़िर चले आये।
इसके बाद उन्होंने किन्ही झा जी की याद करते हुये बताया कि वे आते थे मिलने। अक्सर मिठाई लाते थे। कैंट में रहते थे। आदि-इत्यादि। अपने हुनर के कई किस्से सुनाये। बोले- ’हमारा काम 30 दिन का बंधा है। जाममऊ में। वहीं जाकर करेंगे काम। यहां बस ऐसे ही आ गये थोड़ी देर के लिये।’
इतनी देर की बातचीत में बुजुर्गवार को हमसे आत्मीयता सी हो गयी। बोले-’ चाय पियेंगे।’
हमने कहा - ’पियेंगे। लेकिन पिलायेंगे हम।’
हम-हम की आत्मीय बहस करते हुये बगल की चाय की दुकान पहुंच गये। बुजुर्गवार ने चाय वाले को बढिया चाय का आर्डर देते हुये कहा - ’पैसे हम देंगे।’
लेकिन हमने जबरियन पैसे थमा दिये। फ़िर चाय आने तक और उसके बाद चुस्कियाते हुये बतियाते रहे। हमने उनका नाम पूछा तो उन्होंने बताया - ’शब्बीर।’
हमने पूछा- ’शब्बीर माने पता है क्या होता है?’
बोले- ’शब्बीर माने सीधा।’
हमने बताया- ’शब्बीर माने होता है प्यारा। शब्बीर मने लवली। हमको अपने मित्र मोहब्बद शब्बीर की याद आ गई। उनके नाम का मतलब पूछकर हमने उनका नम्बर ही इसी नाम से सेव किया- Shabbir mane lovely.
शब्बीर माने लवली कहने पर शब्बीर बोले -’हमको अंग्रेजी नहीं आती।’
हमने कहा हिन्दी और उर्दू तो आती है। बहुत है। उर्दू वाली बात इसलिये कही कि हमने उनकी जेब में रखे कुछ कागजों में लिखी झांकती उर्दू देख ली थी। उन्होंने वे कागज निकालकर मुझे दिखाये। उर्दू लिपि में लिखा होने के कारण मुझे कुछ समझ में नहीं आया लेकिन फ़ौरन प्रमोद तिवारी की कविता पंक्तियां याद आ गयीं:
“हम उर्दू सीख रहे हैं नेट-युग में,
अब खुद जवाब लिखते हैं गाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।“
हमने अपनी उर्दू सीखने की बात बताई तो शब्बीर बोले -’हम सिखा देंगे। कहां रहते हैं बता दो आ जाया करेंगे।’
हमने कहा सीख लेंगे। सिखाने वाले तो बहुत हैं। सीखने का समय ही नहीं मिलता। मेरी फ़ैक्ट्री में ही एक कामगार साथी हमको उर्दू की वर्णमाला किताब देकर गये हैं। पहले तो पूछते भी थे - ’रियाज कैसा चल रहा है।’ अब रियाज और पूछना दोनों बन्द।
जब जेब के कागज दिखा रहे थे शब्बीर तो हमने देखा कि उनके एक हाथ की तीन अंगुलियों के एक-एक पोर कटे हुये थे। बताया कि आरे में कट गये थे। हमको फ़िर अपने एक आत्मीय मित्र की याद आई जिनके एक हाथ की उंगलियां भी इसी तरह कटी हुई थीं। शब्बीर से बात करते हुये उन मित्र की याद भी करते रहे।
बलरामपुर गोंडा की रिहाइश जब बताई थी शब्बीर ने तो हमने अटलबिहारी बाजपेयी जी को याद किया था जहां से वे कभी चुनाव लड़ते थे। यह भी कि बलरामपुर में ही हमारे बड़े भाई की पहली नौकरी लगी थी।
मुंबई होकर लौटने की बात से जबलपुर पुलिया वाले रामफ़ल भी याद आ गये जो अपने मुंबई के भी किस्से सुनाते रहते थे।
एक ही इंसान से बात करते इतनी सारे लोगों की याद आने वाली बात से निदा फ़ाजली का यह शेर याद आ गया:
"हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना "
अमूमन यह शेर आदमी के बहुरुपियेपन और चालाकी की फ़ितरत बताने के लिये इश्तेमाल किया जाता है। लेकिन आज शब्बीर से मिलकर इस शेर के दूसरे मायने भी खुले। एक आदमी से मिलते हुये आप अपने साथ जुड़े हुये अनेक लोगों की यादें ताजा कर सकते हैं। शब्बीर जी मिलना कई दोस्तों और आत्मीयों को एक साथ याद करना जैसा रहा। क्या पता उनको भी हिचकियां आई होंगी।
एक शेर के नये मायने पता चले आज शब्बीर जी से मुलाकात के बहाने।
चाय पीते हुये एक प्यारा सा बच्चा भी आया चाय की दुकान पर। अपनी दुकान के लोगों के लिये चाय ले जा रहा था। मासूम बच्चा देखकर पास बुलाकर बात की। पढाई-लिखाई पूछी। पता चला - ’आठवीं में किसी पढता है। एक अंग्रेजी मीडियम स्कूल में। आज इतवार को पिता का हाथ बटाने आ गया। जूते चप्पल की दुकान है पिता की।’
सामने क्रिकेट खेलते बच्चों को देखते हुये हमने पूछा - ’क्रिकेट नहीं खेलते तुम।’
वह बोला-’हमको क्रिकेट नहीं पसंद। हम पतंग उड़ाते हैं।’ हमको फ़िर केदारनाथ सिंह जी की पतंग वाली कविता याद आ गयी:
"हिमालय किधर है?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर-उधर – उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है!"
इस बीच शब्बीर जी अपने घर से बिना नाश्ता किये आने की बात और पास की दुकान से पूड़ी-सब्जी खाने की बात बताई। 10 रुपये में पांच पूड़ी-सब्जी। इसके बाद यह भी कहा-’कानपुर में गरीब आदमी का गुजर-बसर सस्ते में आराम से हो सकता है।’ हम इसमें कोलकता को भी जोड़ते हैं। अल्लेव कोलकता भी जुड़ गया यादों के गुलदस्ते में।
चाय की दुकान से विदा होकर हम वापस लौटे। उस जगह आये जहां हमारी सैंट्रो सुन्दरी खड़ी थी। सामने एक ’शुक्ला आर्म्स कारपोरेशन’ का बोर्ड दिखा। फ़ोटो खैंच लिया। भौकाल के लिये लोगों से कहेंगे ’कट्टा कानपुरी’ का असलहा केन्द्र है। हमारे फ़ोटो खैंचते ही वहां खड़े एक युवक ने पूछा - ’फ़ोटो किस लिये खींचा?’
हमने बताया- ’ऐसे ही खैंच लिया। अपन भी शुक्ला हैं। एतराज है तो बताओ मिटा दें।’
वो बोला-’ नहीं वो वाली बात नहीं लेकिन बेवकैमरा लगा है। दुकान में। साहब हमसे पूछेंगे।’
हमने देखा कि सही में एक बेवकैम सड़क की तरफ़ मुंडी किये फ़ोटो खैंचने में लगा था। हमारी भी फ़ोटो खैंच लिहिस होगा।
पता चला कि बच्चा मुंबई का है। राघव नाम है। कानपुर आया है काम के लिये। हमने पूछा -”यार, ये उल्टे बांस बरेली को। कानपुर के लोग मुंबई जाते हैं काम के लिये। तुम उधर से इधर आ गये।“
बोला- ’साहब को हमारा काम पसंद इसलिये ले आये।’
वहीं सड़क पर ही एक आदमी एकदम टुन्नावस्था समाधि मुद्रा में बैठा था। राघव ने बताया- ’सब नशेड़ी हैं। नशा किये पड़े रहते हैं।’
हमको इस बार रमानाथ अवस्थी जी या आ गये:
चाहे हो महलों में
चाहे हो चकलों में
नशे की चाल एक है!
किसी को कुछ दोष क्या!
किसी को कुछ होश क्या!
अभी तो और ढलना है!
नशे की बात चलते ही कैलाश बाजपेयी भी याद आ गये:
नदी में पड़ी एक नाव सड़ रही है
और एक लावारिश लाश किसी नाले में
दोनों ही दोनों से चूक गये
यह घोषणा नहीं है, न उलटबांसी,
एक ही नशे के दो नतीजे हैं
तुम नशे में डूबना या न डूबना
डुबे हुओं से मत ऊबना।
इतनी सारी यादों में डूबते-उतराते, सड़क पर अपनी सैंट्रो सुन्दरी चलाते हम तिवारी स्वीट्स हाउस पहुंचे। घर के लिये जलेबी- दही तौलवाई। अपने हिस्से की वहीं बैठकर खाई। इसके बाद दुलकी चाल से चाल से चलते हुये घर आ गये।
अब सारी यादों को तसल्ली से दोहराते हुये यह पोस्ट लिख रहे हैं। अगर हिचकी आये, तो खुद को हमारे द्वारा या अपने किसी अजीज के द्वारा याद किया हुआ समझना। दुष्यन्त कुमार की इस कविता को खास अपने लिये लिखा हुआ समझना:
"जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलाएँ।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।"
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