Wednesday, February 28, 2007

दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में

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दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में

ये भैये हमारे मोहल्ले वाले अविनाश जो न करायें!
पहले बोले आओ इरफ़ान-इरफ़ान खेलें। फिर जब लोग खेलना शुरू किये तो बोले ऐसे नहीं खेला जाता। तुमको खेलना ही नहीं आता। लोग बोले हम तो ऐसे ही खेलेंगे। ये बोले-हम ऐसे तो नहीं खेलने देंगे चाहे खेल होय या न होये। इसके बाद बोले खेल खतम पैसा हजम! हम खुश कि चलो इरफ़ान को चैन मिला। कम से कम होली में तो चैन से बैठेगा।
लेकिन फिर देखा कि भैया अपने इरफ़ान को फिर जोत दिहिन। जैसे शाम को ठेकेदार काम बंद करने के बाद फिर से लगा देता है कभी-कभी जरूरी काम होने पर।
उधर से हमारे प्रियंकर भैया बमक गये- आप कैसे बहस स्‍थगित कर सकते हैं?
उधर से धुरविरोधी चिल्लाये जा रहे हैं हम नफरत फैलाने नहीं देंगे, वाट लगाने नहीं देंगे। नफरत का गाना गाने नहीं देंगे। जहर फैलाने नहीं देंगे। हमें लगा कि आगे की कड़ियां हो सकती हैं खाट खड़ी कर देंगे/ खाट खड़ी नहीं करने देंगे, चाट खिला देंगे/ चाट खाने नहीं देंगे, परदा गिरा देंगे/परदा गिरने नहीं देंगे( यशपाल की कहानी परदा)। हमें तो एकबारगी यह भी लगा कि मोहल्ले वाले और धुरविरोधी कोई मैत्री मैच खेल रहे हैं। इधर से मोहल्ले वाले ने गेंद फेंकी नहीं उधर से धुरविरोधी ने गेंद के धुर्रे उड़ा दिये। अब स्ट्राइक बदलने के लिये इधर से अभिषेक भी जुट गये। इस चक्कर में प्रत्यक्षा के इरफ़ान को उदारता और इंसानियत का गीत टाइप बताकर किनारे कर दिया गया कि भाई जरा कुछ सनसनाता उदाहरण पेश करो जो जाति और धर्म बंटे आम हिंदुस्तानी का सच हो!
हम सोचे हम भी कुछ लिखें लेकिन लिखें क्या यह नहीं सोच पाये। क्या लिखें? न किसी मुसलमान भाई के यहां रोज का आना-जाना। ईद-मुबारक, बकरीद मुबारक के अलावा न कुछ बतियाना। न कभी दंगे में फंसे न कभी जलालत भोगे। न कभी किसी को मारा न मारे गये। क्या बतायें?
जो हम बता रहे हैं वह जरूरी नहीं कि वह सबका सच हो। हमारा समाज विषम समाज है। और जहां विषमता होती है वहां समाकलन गणित ( इंटीगरल कैलकुलस) के फार्मूले नहीं चलते कि एक व्यक्ति के अनुभव को समाकलित (इंट्रीग्रेट) करके पूरे समाज के बारे में राय जाहिर कर दी जाये।
पहले एक बात बता दें कि जो हम बता रहे हैं वह जरूरी नहीं कि वह सबका सच हो। हमारा समाज विषम समाज है। और जहां विषमता होती है वहां समाकलन गणित ( इंटीगरल कैलकुलस) के फार्मूले नहीं चलते कि एक व्यक्ति के अनुभव को समाकलित (इंट्रीग्रेट) करके पूरे समाज के बारे में राय जाहिर कर दी जाये कि चूंकि यह हमारा सच है इसलिये यही सारे समाज का सच है।
मैं अपने जीवन के कुछ अनुभव बताना चाहूंगा। इन अनुभवों से हो सकता है कि मैं अपनी बात कह सकूं।
सन १९९२ में बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी। पूरे भारत में तनाव था। लगभग पूरा उत्तर प्रदेश दंगे की चपेट में था। मैं उन दिनों शाहजहांपुर में पोस्टेड था। शाहजहांपुर में हिंदू-मुसलमानों की आबादी लगभग बराबर है। वहां दंगा नहीं हुआ। अब इसका पोस्टमार्टम करने को कोई करे कि चूंकि वहां मामला बराबरी का था इसलिये नहीं हुआ। ऐसा होता तो वैसा होता आदि। लेकिन यह सच है कि वहां एक भी दिन दंगा नहीं हुआ। और मेरी जानकारी में वहां अभी तक कोई दंगा नहीं हुआ।
हां, इसके लिये हमने बहुत मेहनत की। सबेरे छह बजे फैक्ट्री आ जाते थे। हर शाप में एक आफीसर तब तक रहता जब तक काम शुरू नहीं हो जाता। फिर एक-एक करके नाश्ता करने जाते। लेकिन पांच हजार लोगों के लिये बीस आदमी कोई चीज नहीं होते। अगर वे उतारू होते तो हमें भी निपटा देते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह संयोग था कि कम पढ़े-लिखे कामगारों में दंगा होने से रोकने के प्रयास में लगे सारे लोग मध्यमवर्गीय पढ़े-लिखे लोग थे।
इसीलिये सोचकर अचरज होता है गुजरात में हफ्तों दंगे होते रहे और प्रसाशन उसे ‘चाहने पर भी’ न रोक पाया।
शाहजहांपुर में होली के अवसर पर एक अजीब सी हरकत होती है। वहां होली के दिन जब रंग चलता है तो नवाब साहब का जुलूस निकलता है। किसी मुस्लिम को बैलगाड़ी में बैठाकर,खूब नशे में धुत करके उसे जूतों की माला पहना कर जुतियाते हुये पूरे शहर में घुमाते हैं। कहते हैं कि पुराने समय के किसी क्रूर नवाब के प्रति अपना रोष जाहिर करने के लिये यह शुरू हुआ था। बाद में तमाम आपत्तियां उठायी गयीं लेकिन परम्परा के नाम पर इसे अदालत की अनुमति से प्रशासन की देखरेख में हर साल जारी रखा जाता है।
होने को इसपर कभी भी दंगा हो सकता है लेकिन कभी हुआ नहीं। और अब तो लोगों ने इसे शायद बेहूदगी समझकर इससे कटना शुरू कर दिया है। शहर के चंदेक लोग जुलूस के साथ चलते हैं बस!
शाहजहांपुर की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है। फैक्ट्री परिसर में इसका आयोजन होता है। लोग बताते हैं सन १९६५ में वहां के जनरल मैनेजर एस.एन.गुप्ता हुआ करते थे। उनकी दिली इच्छा थी कि वहां रामलीला करायें। चूंकि काम फैक्ट्री के बाहर होना था इसलिये यह काम फैक्ट्री के संसाधन से नहीं हो सकता था। उन दिनों इधर का खर्चा उधर दिखाने का चलन नहीं शुरू नहीं था। अंतत: चंदा करके रामलीला का पक्का मंच बनवाने की बात तय हुयी। यह तय हुआ कि फैक्ट्री के सारे कर्मचारी चंदा करके मंच बनवायेंगे। इनमें हिंदू-मुसलमान दोनों शामिल थे।
लेकिन, जैसा कि लोग बताते हैं, न जाने क्या हुआ कि हिंदू नेता चंदा देने की बात से मुकर गये। इससे जनरल मैनेजर गुप्ताजी निराश हो गये। यह बात जब मुस्लिम नेता को पता चली तो वह उनसे बोला – हुजूरे आला, आप चिंता क्यों करते हैं। आपको हमने जबान दी है और आपकी मंशा पूरी होगी। जो आपने सोचा है वह पूरा होगा। वो पैसा नहीं देते हैं मत देने दीजिये हम हैं न! ( उन दिनों मैं हूं न! पिक्चर नहीं बनी थी)।
इसके बाद उस मुस्लिम नेता ने अपने तमाम साथियों से चंदा दिलाया। सारे शहर में चंदा किया और मंच बनवाने के काम में सहयोग करने का वायदा निभाया। अगले महीने मारे शरम के हिंदू नेताऒं ने भी चंदा जमा किया-कराया। कंधे-से-कंधा लगाकर रामलीला का मंच बनवाया।
मंच की नीव पर पहला फावड़ा उसी मुस्लिम नेता ने चलाया जिसने कहा था कि हुजूरे आला आप चिंता काहे करते हो? अभी हाल-फिलहाल तक रामलीला के तमाम पात्र मुस्लिम लोग निभाते हैं। दिन में फैक्ट्री गेट से प्रशासन के खिलाफ़ दहाड़ने वाला युवा नेता सुल्तान शाम को रामलीला में कुंभकरण का पार्ट करते हुये अटटहास लगाते दिखता रहा!
घटनायें जब इतिहास/ स्मृतियों में दर्ज होती हैं तो उनमें भुनभुनाहटें/ कसमसाहटें नहीं दर्ज नहीं होतीं। वहां सिर्फ़ यही रिकार्ड हो पाता है कि कौन डटा रहा, कौन पलट गया।
ऐसा नहीं सहयोग कि करने वाले कुछ मुसलमान भुनभुनाये नहीं होंगे या शुरुआती मना करते समय कुछ हिंदू कसमसाये नहीं होंगे। लेकिन घटनायें जब इतिहास/ स्मृतियों में दर्ज होती हैं तो उनमें भुनभुनाहटें/ कसमसाहटें नहीं दर्ज नहीं होतीं। वहां सिर्फ़ यही रिकार्ड हो पाता है कि कौन डटा रहा, कौन पलट गया।
शाहजहांपुर में ही हमें मिले थे हमारे फोरमैन अब्दुल नवी।
जब हम सन १९९२ में तबादलित होकर शाहजहांपुर पहुंचे तो हमें वहां का डिजाइन सेक्शन देखने को दिया गया। वहां सिलाई के लिये इस्टीमेट, पैटर्न, मार्स्डन ले वगैरह बनायी जातीं। हममें नयी-नयी चार साल की अफसरी का उत्साह था। पहले-पहले दिन हम गये सेक्शन तो हमने ये ऐसा क्यों वैसा क्यों शुरू किया तो नवी साहब हंसते हुये बोले- साहब, आप अभी दो साल देखिये, जानिये इसके बाद बताइयेगा कैसे करें।
हम भी मुस्करा दिये।
धीरे-धीरे हम नवी साहब के मुरीद होते चले गये। वे बहुत काबिल, अनुशासित थे। हंसते-हंसते अपना काम करते। जनरल मैनेजर तक उनके काम के मुरीद थे। काम के अलावा वे पक्के मुसलमान थे। पांचो वक्त नमाज पढ़ते। किसी से दबते नहीं थे लेकिन कभी ऊंची आवाज में बाद नहीं करते थे। उनका नारजगी जाहिर करने का अंदाज भी अनोखा था।
सन ६० से लेकर सन ८० तक देश में हुये कुल ३९४९ दंगों में कुल ५३० हिंदू मारे गये जबकि मरने वाले मुसलमानों की तादाद १५९८ थी।
एक बार उन्होंने कुछ काम कराया जिससे फैक्ट्री को लाखों का फायदा हुआ। वे इनाम के हकदार थे। उनके बास ने जो कि संयोग से हमारे भी बास थे संकेत दिया था कि नवी साहब को इनाम मिलेगा। लेकिन जब मेरे पास प्रस्ताव स्वीकृत होकर आया तो उसमें से नवी साहब का नाम गायब था। चूंकि नवी साहब मेरे मातहत थे इसलिये मेरा मन कुछ खिन्न था। लेकिन नवी साहब हंसते रहे। मेरे बास नवी साहब के बहुत दिन से बास थे मैं नया-नया बीच में आया था इसलिये मुझे कुछ समझ में भी नहीं आया था कि क्या करें।
हमसे बतियाते हुये कुछ देर बाद नवी साहब को न जाने क्या सूझा वे मेरे हाथ से कागज लेकर सीधे जनरल मैनेजर के पास गये और पांच मिनट में इनाम की लिस्ट में अपने (और मेरे) बास का नाम जुड़वा के आ गये। ये उनका जवाब देने का अंदाज था!
जिसने उनको इनाम से वंचित किया उनको इनाम दिलवा कर नवी साहब मुस्करा रहे थे।
बाद में नवी साहब से मेल-मुलाकात बढ़ता गया, उनकी खूबियां पता चलती गयीं। वे पैसे से मजबूत थे, गरीबों की सहायता करते-करवाते रहते, पास की मस्जिद से भी जुड़े रहे लेकिन काम के वक्त उसका कोई जिक्र नहीं होता था।
एक दिन ऐसे ही बातचीत के दौरान पता चला कि उनको कुछ सीने में दर्द की शिकायत है। मैं उनको अस्पताल लेकर गया। पता चला कि उनका पहले से ही इलाज चल रहा था। मैंने उनको तमाम हिदायतें दे डालीं कि लापरवाही ठीक नहीं है, ख्याल रखना चाहिये। नवी साहब मुस्कराते रहे। उस दिन शनिवार था।
चलते-चलते मैंने कहा कल इतवार को फैक्ट्री चलेगी आप आइयेगा थोड़ी देर के लिये। नवी साहब चूंकि फोरमैन थे। उनको ओवरटाइम नहीं मिलता था इसलिये उनको आने की बाध्यता नहीं थी। लेकिन जब मैंने कहा आप आइये तो वे मुस्कराते हुये बोले अच्छा, आप कहते हैं तो आ जाउंगा आपके साथ चाय पीकर चला जाउंगा।
अगले दिन सबेरे फोन की घंटी बजी। फोन नवी साहब के घर से था। उनको दिल का दौरा पड़ा था। मैंने तुरन्त उनको अस्पताल में लाने को कहा और वहां पहुंचकर उनका इंतजार करने लगा। मैं यह सोच भी रहा था कि नवी साहब को हड़काउंगा, ‘ये कौन तरीका है आने का भाई?
लेकिन हमको उन्होंने कोई मौका नहीं दिया। अस्पताल पहुंचते-पहुंचते उनकी सांसे थम गयीं थीं। उस दिन मैं जिंदगी में पहली बार किसी की मौत पर रोया। वह मेरे जीवन का ऐसा वाकया था कि जब याद करता हूं आंसू आ जाते हैं।
हर समाज की अपनी कुछ समस्यायें होती हैं वैसे ही मुस्लिम समाज की भी हैं, हिंदू समाज की भी हैं। न पूरी की पूरी मुस्लिम कौन गद्दार है न सारे के सारे हिंदू दूध के धुले हैं।
इसके बाद मेरे पिता गये, मेरे गुरूजी नहीं रहे, न जाने कितने बुजुर्ग, जवान, रिश्तेदार ,दोस्त चले गये। उनकी कमी खलती है, उदास हो जाता हूं उनके बारे में सोचकर लेकिन कभी भी उनकी मौत पर मेरे आंसू नहीं निकले।
नवी साहब के बारे में बाद में और तमाम अच्छाइयां लोगों ने बताईं जिससे उनकी और शिद्दत से याद आती रही। उनके जाने पर दुख की मैं इसलिये नहीं बयान कर रहा कि मुझे कोई कौमी एकता का इनाम मिल जायेगा। मैं सिर्फ़ यह बताना चाह रहा हूं कि अपनी जिंदगी के महज एकाध साल के संग ने जिस आदमी ने
मेरे दिल में इतना गहरा असर डाला कि अब भी उसकी याद से मन उदास हो जाता है वह संयोग से पक्का मुसलमान था।
मैंने बहुत कुछ पढ़ रखा है मुसलमानों के बारे में, हिंदुओं के बारे में। राही मासूम रजा की आधा गांव के पात्र जैसे जिन्ना के बारे में बतियाते हैं उससे इस सबके पीछे की सियासत अंदाजा लगता है। अब्दुल बिस्मिल्लाह की किताब झीनी-झीनी बीनी चदरिया और शानी के उपन्यास काला जल से मुस्लिम समाज का कुछ अंदाजा लगता है। हर समाज की अपनी कुछ समस्यायें होती हैं वैसे ही मुस्लिम समाज की भी हैं, हिंदू समाज की भी हैं। न पूरी की पूरी मुस्लिम कौन गद्दार है न सारे के सारे हिंदू दूध के धुले हैं। ‘अल्लाहो अकबर’या ‘हरहरमहादेव’ का नारा लगाने वाला आम हिंदू या मुसलमान कभी किसी दूसरे धर्म के आम आदमी की जान नहीं लेना चाहता। वे कोई दूसरे ही लोग होते हैं जो धर्म के नाम पर आदमी को मार देते हैं। वे हैवान होते हैं, वहशी होते हैं। हैवानों और वहशियों का कोई धर्म नहीं होता। ऐसे हैवानों के लिये ही हरिशंकर परसाई जी ने लिखा है -वे पानी तो छानकर पीते हैं लेकिन आदमी का खून बिना छाने पी जाते हैं।
आम हिंदू या मुसलमान कभी किसी दूसरे धर्म के आम आदमी की जान नहीं लेना चाहता। वे कोई दूसरे ही लोग होते हैं जो धर्म के नाम पर आदमी को मार देते हैं। वे हैवान होते हैं, वहशी होते हैं। हैवानों और वहशियों का कोई धर्म नहीं होता।
यह लिखते हुये मैं यह साबित नहीं करना चाहता कि सारे मुसलमान लोग बहुत अच्छे होते हैं या कुल हिंदू बहुत खराब! मेरा कहना सिर्फ़ यह है कि :-
साम्प्रदायिकता किसी कौम की बपौती नहीं है। साम्प्रदायिक हिंदू जितने खतरनाक हो सकते हैं मुसलमान भी उससे कम वहसी नहीं होते होंगे। लेकिन यह सच सबसे बड़ा सच है कि न आम हिंदू साम्प्रदायिक होता है और न ही आम मुसलमान किसी हिंदू की जान का प्यासा होता है। दोनों समुदायों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास का कारण इनके बीच की दूरिया हैं और आपस में परस्पर मेल जोल का न होना इस खाई को चौड़ा करता रहता है।

हिंदू समाज से जुड़ा होने के नाते मुझे यह लगता है कि हिंदुओं में यह आम धारणा है कि दंगा मुसलमान फैलाते हैं। वे लोग इकट्ठा होकर हिदुऒं को मार डालते हैं। यह एक मिथक है जो गलत है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन ६० से लेकर सन ८० तक देश में हुये कुल ३९४९ दंगों में कुल ५३० हिंदू मारे गये जबकि मरने वाले मुसलमानों की तादाद १५९८ थी। मतलब लगभग तीन गुने मुसलमान मारे गये। ये आंकड़े सरकारी हैं और पुलिस विभाग द्वारा जारी किये गये हैं जहां कि मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं।
उपरोक्त आंकड़े अपनी शोध पुस्तिका सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस में जारी पेश करते हुये १९७५ से पुलिस विभाग में अधिकारी रहे विभूति नारायण राय ने दंगों के मनोविज्ञान के बारे में लिखा है-

ये तथ्य किसी भी तरह गोपनीय नहीं हैं। विशेष रूप से उर्दू प्रेस हर दंगे के बाद मुसलमानों के साथ ज्यादती की खबर छापता है। कई बार ये खबरें अतिरंजित होती हैं, लेकिन इनका मूल सदेश तो मुसलमानों तक पहुंच ही जाता है कि अगर दंगा होगा तो उसमेअम मुसलमान ही मुख्य रूप से मारे जायेंगे, उन्हीं के घरों की तलासियां होंगी और उन्हें ही गिरफ़्तार किया जायेगा। इसके बाद भी अगर मुसलमान दंगा शुरू करते हैं तो इस धारणा के पीछे कई तरह के निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। सबसे पहले तो यही मानना होगा कि इस धारणा में कहीं न कहीं बुनियादी गलती है। कोई भी समुदाय,जब तक उसमें सामूहिक आत्महत्या की प्रवृत्ति न हो या वह पूरी तरह पागल न हो, अपनी क्षति के बारे में आश्वस्त होने के बावजूद दंगा क्यों शुरू करेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि एक डरा हुआ समुदाय पहले हाथ उठाकर पूरे तंत्र के प्रति अपने अविश्वास और गुस्से का इजहार कर रहा हो? साथ ही हमें दंगों की शुरुआत के बारे में यह भी तय करना होगा कि क्या किसी दंगे का प्रारंभ वास्तव में तभी माना जाना चाहिये, जब वह प्रत्यक्षत: शुरू हुआ।
मुझे तो लगता है कि सच तो यह है कि सांप्रदायिकता किसी समुदाय में नहीं वरन व्यक्ति में होती है। कोई मुसलमान सांप्रदायिक जब हिंदुओं से निपट लेगा तो वो अपने यहां शिया-सुन्नी, अंसारी- सैयद के दंगे में मशगूल हो जायेगा। वहीं फितरती हिंदू, मुसल्लों की वाट लगाने के बाद अगड़े-पिछड़े , ठाकुर- ब्राह्मण, सोलह बिसवा-बीस बिसवा, के त्रिशूल लहराने लगता है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है।
दुनिया में बहुत लफड़े होते हैं। तमाम घटनायें ऐसी होती हैं जो दिल दहला देती हैं। सांप्रदायिक दंगों के दौरान हैवानियन अपने चरम पर होती है। इनका हम बढ़ा-चढ़ाकर गाना गाते हैं और इंसानियत की हत्या पर टसुये बहाते हैं। लेकिन इसी समय में ऐसी तमाम घटनायें भी घटती हैं जिनसे लगता है कि इंसानियत जिंदा है लेकिन हम उनका नोटिस नहीं लेते क्योंकि वह सनसनीखेज नहीं होती।
किसी भी घटना को देखने के पीछे देखने वाले के नजरिये की सबसे मुख्य भूमिका होती है। किसी से आंख मिलने पर कोई हो सकता है उसकी आंख निकाल लेने
पर आमादा हो जाये और उसी घटना का शिकार कोई दूसरा गुनगुनाने लगे -नैन लड़ जैहैं तो मनवा मां कसक हुइबै करी!
कानपुर एक दंगा प्रधान शहर है। यहां पिछले दिनों एक दंगा होते-होते रह गया। इसमें मुस्लिम परिवार का लड़का मारा गया था। दोनों समुदाय के लोग दंगा करने पर उतारू थे। दिन भर मोहल्ले के लोग दंगा टालने के लिये कोशिशे करते रहे। अंत में बुजुर्ग ने जिसका लड़का मारा गया था लोगों से अनुरोध किया – मैं अपना इकलौता बेटा खो चुका हूं। वह तो चला गया और किसी और की मौत से तो वापस आ नहीं जायेगा। अब मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि अब जो हो गया सो हो गया लेकिन अब किसी और के घर का चिराग बुझाने का कोई काम न करो।
दंगे पर आमादा लोग चुपचाप अपने-अपने घर चले गये। एक अकेले बुजुर्ग बाप ने अकेले एक संभावित दंगे की ‘वाट‘ लगा दी। अखबार में इस घटना की केवल एक दिन चर्चा हुयी। मीडिया में कोई जिकर नहीं हुआ। होता कैसे न उसमें सचिन/सहवाग के शतक जैसी चमक थी न ऐश्वर्या-अभिषेक जैसी सनसनाती सेक्सी अपील!
अपने देश में तमाम समस्यायें हैं। गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सम्प्रदायवाद, जाति वाद,भाई भतीजा वाद। कौन किसके कारण है कहना मुश्किल है। मुझे तो लगता है कि सब एक दूसरे की बाइप्रोडक्ट हैं। इनका रोना रोते-रोते तो आंख फूट जायेगी।
अपने देश में तमाम समस्यायें हैं। गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सम्प्रदायवाद, जाति वाद,भाई भतीजा वाद। कौन किसके कारण है कहना मुश्किल है। मुझे तो लगता है कि सब एक दूसरे की बाइप्रोडक्ट हैं। इनका रोना रोते-रोते तो आंख फूट जायेगी। कोई फायदा भी नहीं रोने से। हो सके तो अपनी ताकत भर जहां हैं जैसे हैं वैसे इनसे निपटने की कोशिश करते रहें बस यही बहुत है।
भले ही आपको ये मेरी कूपमंडूकता लगे लेकिन मुझे वे कवितायें /शेर बहुत पसंद हैं जो आदमी को जोड़ने की कोशिश करते हैं। राकेश खंडेलवाल कहते हैं:-
दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में
ढूंढ रहे हो सूरज को तुम अंधियारे तहखानों में

कानपुर के गीतकार अंसार कंबरी लिखते हैं:-
शायर हूं कोई ताजा गजल सोच रहा हूं
मस्जिद में पुजारी हो मंदिर में मौलवी
ऐसी ही कोई नई जुगत सोच रहा हूं।

इसी लहजे में हमारे समीरलालजी कहते हैं:-
रिश्तों मे दरार डालती
सियासी ये किताबें हैं
ईद के इस मौके पे इनकी
होली आज जला दी जाये.

भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद हिंदू-मुसलमान की एकता की आवश्यकता पर अपने भाव व्यक्त करते हुये गीतकार स्व. रमानाथ अवस्थी ने कविता पढ़ी थी:-
धरती तो बंट जायेगी लेकिन
उस नील गगन का क्या होगा
हम तुम ऐसे बिछड़ेंगे तो
महामिलन का क्या होगा?

अपने देश-प्रदेश, गली-मोहल्ले के लोग हिंदू-मुसलमान की वाट लगाने ,एक दूसरे को धूल चटाने की बातें माइकोफोन लगाकर सुनेंगे और माइक्रोस्कोप से देखेंगे तो हिंदुस्तान का क्या होगा?
मेरी पसंद
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों,मोती व्यर्थ लुटाने वालों!
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है!

सपना क्या है? नयन सेज पर सोया हुआ आंख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी।
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों!
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता।
माला बिखर गयी तो क्या है खुद ही हल हो गयी समस्या,
आंसू गर नीलाम हुये तो समझो पूरी हुई तपस्या।
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज सिलाने वालों
कुछ दीपों के मर जाने से आंगन नहीं मरा करता।
खोता कुछ भी नहीं यहां पर केवल जिल्द बदलती पोथी,
जैसे रात उतार चांदनी , पहने सुबह धूप की धोती।
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चंद खिलौनों के खो जाने से बचपन नहीं मरा नहीं करता।
कितनी बार गगरियां फूटीं शिकन न आई पनघट पर,
कितनी बार किश्तियां डूबीं चहल-पहल वही है तट पर।
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता।
लूट लिया माली ने उपवन लुटी न लेकिन गंध फूल की
तूफानों तक ने छेड़ा पर खिड़की बन्द न हुयी धूल की।
नफरत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पन नहीं मरा करता!
गोपाल दास नीरज

33 responses to “दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में”

  1. मृणाल कान्त
    lovely! very beautiful piece of work! issues that affect us as individual human beings should be seen from that angle; to generalize (or, integrate as you choose to say) for communities one must first admit to not being an individual in at least with respect to the issue being discussed. In which case, one has no right to speak for a community whose members prefer to speak for themselves.
    Lot of nonsense and also good-intentioned ranting on this issue has occupied the blogs recently. Mostly personal experiences of anger, frustration, unstudied and unfounded notions of the ‘other’ guy as also replies to these which are founded on correctness, humanism, etc. but each of these in a very narrow way; strictly maintaining aloofness from the emotional individual whose world cannot be neatly classified in terms of interactions with various communities, and experiences thereof.
    This post is a lesson in how to be a human being while writing on such issues and then also a lesson at being honest with your experiences, i.e., not explaining away that which does not fit your prejudices through artificially conjured factors.
    Also, a very touching piece. While the tone of the various posts on this issue on other blogs were disturbing, to say the least, I am sure if all those people read this post, they will be able to recollect beautiful memories and experiences of their own regarding their interaction with individuals (some of whom might have belonged to different communities). It is well nigh impossible to interact with community. We talk to individuals, them we hear; individuals we hate or love, not the community; and, if we claim to be humans (or, at least consider that as our foremost identity) then we interact with human beings.
    Thanks for this post. One of the best I have ever read. And thanks for that very beautiful verse at the end too.
  2. राम चन्द्र मिश्र
    बहुत अच्छी तरह से विषय को व्यक्त किया।
  3. राजीव
    बहुत अच्छे प्रसंग प्रस्तुत किए है आपने, फुरसतिया जी। यदि हम अपने आस पास ही देखें तो ऐसी सद्भावना के अनेक उदाहरण मिलेंगे। मेरा तो वर्षों साथ रहा है और अभी भी है पक्के नमाज़ी मुस्लिमों से जो कि हमारे सहपाठी भी रहे, मित्र भी हैं और ग्राहक भी। हमारा यह साथ अभी रजत-जयंती भी मना चुका है। उनका ज़िक्र कभी फिर… यहाँ तो बहुत बातें पहले ही हो चुकी हैं।
    कभी, किसी ने, कईयों ने दूसरों के साथ दुर्व्यवहार किया है तो इसका व्यापक अर्थ निकालना ठीक नहीं।
  4. समीर लाल
    हमेशा की तरह सधे हुये अंदाज में इतने गंभीर विषय पर आपने अपनी बात कही. शायद किसी को समझ आये और इस पर भी विवाद करे. उसे तो हम रोक नहीं सकते बस अपना नजरिया रख सकते हैं:

    मुझे तो लगता है कि सच तो यह है कि सांप्रदायिकता किसी समुदाय में नहीं वरन व्यक्ति में होती है। कोई मुसलमान सांप्रदायिक जब हिंदुओं से निपट लेगा तो वो अपने यहां शिया-सुन्नी, अंसारी- सैयद के दंगे में मशगूल हो जायेगा। वहीं फितरती हिंदू, मुसल्लों की वाट लगाने के बाद अगड़े-पिछड़े , ठाकुर- ब्राह्मण, सोलह बिसवा-बीस बिसवा, के त्रिशूल लहराने लगता है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है।

    -बहुत सजग प्रस्तुति. बधाई.
    अपनी एक पुरानी रचना याद आती है:
    मंदिर से अज़ान
    http://udantashtari.blogspot.com/2006/04/blog-post_14.html
  5. मैथिली
    बहुत अच्छे फुरसतिया जी, बहुत सधा सधाया लेख है. धुरविरोधी जी जिन बातों को कह नहीं पा रहे थे उन्हें आपने बडे खूबसूरत अन्दाज़ में कह दिया है. अब शायद अविनाश जी बजट बतियाने और होली मनाने देंगे.
  6. हिंदी ब्लॉगर
    आपका अनुभव निश्चय ही हममें से कइयों का अनुभव होगा. आपकी ये बात साढ़े सोलह आना सही है- ‘इंसानियत ज़िंदा है…लेकिन हम उसकी नोटिस नहीं लेते, क्योंकि वह सनसनीखेज नहीं होती!’
  7. अनुराग मिश्र
    अभी दो दिन पहले एक मित्र से बहस हो रही थी, इंसान की स्वभावगत आदत “judge” करने के बारे में। हम किसी एक बात या कुछ बातों से लोगों को, समुदाय को, समाज को, देश को, धर्म को और संस्कृति तक को जज कर लेते हैं। मेरे ख्याल से कई पूर्वाग्रहों का कारण भी यही है। समय कम है अनय्था इंसान की इस आदत के बारे में विस्तार से लिखने की इच्छा है।
    उम्मीद करता हूँ कि हम अपनी इस आदत के बारे में सोचें और स्वयं आकलन करें कि हम प्रतिदिन एसी गलती कितनी बार करते हैं।
  8. श्रीश शर्मा 'ई-पंडित'
    एकदम सही कहा जी आपने। यह तो देखने वाले पर निर्भर करता है, उसी गिलास को एक आदमी आधा खाली बताता है और दूसरा आधा भरा हुआ। कुछ लोगों को हिन्दू-मुस्लिमों में सदभाव दिखता है तो कुछ को अलगाव। इस बारे में एक प्रसंग है।
    एक बार श्रीकृष्ण जी ने युधिष्ठिर और दुर्योधन को भेजा कि जाओ नगर में पता करो कि कौन कौन सज्जन और कौन कौन दुर्जन हैं। दुर्योधन आया और बोला कि नगर में सब दुर्जन हैं दुष्ट हैं मुझे तो एक भी भला आदमी नहीं मिला। फिर युधिष्ठिर आए और बोले भगवन सभी लोग बहुत भले हैं सज्जन हैं मुझे तो कोई दुर्जन नहीं दिखा।
  9. masijeevi
    ‘….लेकिन घटनायें जब इतिहास/ स्मृतियों में दर्ज होती हैं तो उनमें भुनभुनाहटें/ कसमसाहटें नहीं दर्ज नहीं होतीं। ……’
    यदि इरफान पुराण पर अविनाश के भागवत आयोजन का इतिहास होगा तो तय मानिए बाकी सब भुनभुनाहट ही है, इतिहास आपने ही रचा है। सौभाग्‍य से चिट्ठाकारी में ये नहीं कहना पड़ता कि ‘संग्रहणीय है…’ क्‍योंकि ये तो हो गया दर्ज और रहेगा हम रहें न रहें।
  10. संजय बेंगाणी
    यह कैसा दूर्भाग्य है की हमें, उदाहरण दे दे कर समझाना पढ़ता है की एक आम मुसलमान अच्छा इंसान है.
    समस्याग्रस्त हर नागरिक है, मात्र इरफान नहीं. फिर शिकायत कैसी? आओ मिल कर भारत बनाएं.
  11. प्रत्यक्षा
    बहुत अच्छा लिखा !
  12. priyankar
    कितनी बार वाह! कहूं .
  13. अभिनव
    कहीं सुना है,
    दीवाली में अली बसें और राम बसें रमज़ान में,
    ऐसा ही हो आने वाला कल अब हिंदुस्तान में।

    काश, सचमुच में ऐसा पूरे देश में हो जाए तो मज़ा आ जाए।
    लेख जबरदस्त है, बिल्कुल एक नम्बर।
  14. सृजन शिल्पी
    संवेदनशीलता और प्रवाहमान गद्यात्मकता से ओतप्रोत बेहतरीन संस्मरणात्मक लेख!
    “मुझे तो लगता है कि सच तो यह है कि सांप्रदायिकता किसी समुदाय में नहीं वरन व्यक्ति में होती है।” – आपके इस कथन के संदर्भ में मैं बस यह कहना चाहूंगा कि
    सांप्रदायिकता, वैमनस्य,नफरत और हिंसा जैसी भावनाएँ भले ही व्यक्तियों में हो, लेकिन फूटती वे भीड़ (समुदाय) में ही हैं, अकेले में नहीं। भीड़ का चेहरा चूंकि पहचान में नहीं आता है, इसलिए दंगे भीड़ के द्वारा ही किए जाते हैं।
  15. पंकज बेंगाणी
    “मुझे तो लगता है कि सच तो यह है कि सांप्रदायिकता किसी समुदाय में नहीं वरन व्यक्ति में होती है। कोई मुसलमान सांप्रदायिक जब हिंदुओं से निपट लेगा तो वो अपने यहां शिया-सुन्नी, अंसारी- सैयद के दंगे में मशगूल हो जायेगा। वहीं फितरती हिंदू, मुसल्लों की वाट लगाने के बाद अगड़े-पिछड़े , ठाकुर- ब्राह्मण, सोलह बिसवा-बीस बिसवा, के त्रिशूल लहराने लगता है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है।”
    चाचु, आपकी इस बात से मै पुर्णतः सहमत हुँ.
    लेकिन अपनी बात पर कायम भी हुँ कि दुःखी, शोषित, पिडीत सिर्फ मुसलमान नही है।
  16. सागर चन्द नाहर
    भाई पाठकों को आपका यह लेख पसन्द आये उससे क्या फरक पड़ता है, क्या फरक पड़ता है आप, प्रत्यक्षाजी, धुरविरोधीजी और पंकज अपने अनुभव बतायें, यह तो उन पर निर्भर करता है कि वे आपके स्व. नबी साहब को स्वीकारें या नहीं!
    उन्हें आपके नबी साहब भी घरेलू किस्म के ही लगेंगे, और जो मुसलमान हिन्दू को ना धिक्कारे उसको मुसलमान भी माने या नहीं यह उनकी मर्जी पर निर्भर करता है। इनकी नजरों में मुसलमान सिर्फ इनके इरफान और फ़रदीन ही है बाकी सब को पता नहीं ये क्या मानते हैं।
    बड़े दुख: की बात है कि फुरसतियाजी और धुरविरोधीजी को अपनी उर्जा इन मसलों पर व्यर्थ करनी पड़ रही है।
  17. सागर चन्द नाहर
    बाई द वे मुझे भी लेख अच्छा लगा।
  18. अफ़लातून
    नफ़रत की छुरी और
    मोहब्बत का गला है
    फ़रमाइये ये कौन से मज़हब में रवा है ?-नज़ीर बनारसी
    हमने जो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर
    गंगा तेरे पानी से वजू कर करके ।-नज़ीर बनारसी
    अनूप,आभार।
  19. बेजी
    बहुत अच्छा लिखा है ।
  20. जगदीश भाटिया
    जिस खूबी से व्यंग लिखते हैं, उससे भी अच्छे तरीके से यह गम्भीर और संवेदनशील लेख लिखा।
    इस तरह की बहसें होती रहनी चाहियें।
    कुछ तो समस्या है कि दंगे होते हैं बार बार। किसी में तो कमी है। हम सब अच्छे अच्छे उदाहरण देते हैं, सब अच्छे हैं तो फिर वो कौन हैं जो बम चलाते हैं?
    कहीं दिलों में जख्म छिपे हुए हैं जिनमें मवाद भरे हैं, इरफान ने उसी जख्म को नंगा कर के दिखा दिया।
  21. Saif
    Sahi kah rahe ho bhaiyya..
  22. nitin
    बहुत अच्छा लिखा !
  23. राम जाने
    शब्द सब उच्चारण अपना भूल चुके हैं,
    छंद भी निश-प्राण धरा पर मूक खड़े हैं।
    भाव लगते हैं विराट सिन्धु से…..(मृग-त्रिशणा है किन्तु)
    अभिव्यक्ति के प्रयास, सभी विफल हुये हैं
    फ़िर भी एक सोपान मैं पुन: चढ़ूँगा
    आप की लेखनी की जय जय करूँगा….
    आप की लेखनी की जय जय करूँगा….
  24. radhey
    mast hai bhai
  25. awadhesh
    ABHI DEKHA AAPKA YE LEKH BAHOOT HI SUNDER BHAVPURN,SAMSAMYIK AATMA PRASANN HO GAYEE.HINDI ME LIKHANE PAR MAI APNI EK RACHNA,”DANGE KA AJAB HAI KHEL”LIKHUNGA JO AAPKO JAROOR PASAND AAYEGI.
  26. Ashutosh
    This is over-simplification of a deep rooted cultural issue. You present your understanding of a cultural conflict, which may be based on partial knowledge and carefully deleted truths. Looking microscopically, the picture may look entirely different.
  27. आशीष
    बॉस सही बोले सोलह आना।
  28. Shrikant
    बंधुवर,
    वाकई आप बहुत अच्छा लिखते हैं| एक एक कर के आप के सभी पोस्ट पढ़ रहा हूँ| कई बार टिप्पणी करने का मन हुआ लेकिन रह जाता है| अभी लेकिन गूगल transliterator खुला ही हुआ है तो सोचा टिप्पणिया दिया जाये|
    आपकी बात सही है, दंगा इत्यादि राजनैतिक ही होते हैं| लेकिन आपने जो सरकारी आंकड़े दिए वह सही नहीं हैं| भारत में आज़ादी के समय से ही मुस्लिम तुष्टिकरण रहा है (आप शायद न माने, लेकिन कोई नहीं) और दंगो की संख्या तोड़ मोड़ कर दी जाती है| मैंने सरकारी नौकरी में खुद देखा है| यकीन नहीं तो शरद पवार के उस बयान को देखें, जहाँ उन्होंने कबूला की बम ब्लास्ट के समय उन्होंने जन-बूझ कर मुस्लिम इलाकों के नाम भी जोड़ दिए थे की वहां भी ब्लास्ट हुए हैं|
    खैर, प्रमुख बात तो सिर्फ यही है की अगर आदमी दुसरे के धर्म, रीति आदि का सम्मान करे तो सब ठीक रहेगा| लेकिन शायद वही सबसे मुश्किल बात है|
  29. अनुराग शर्मा -  Smart Indian
    वे कोई दूसरे ही लोग होते हैं जो धर्म के नाम पर आदमी को मार देते हैं। वे हैवान होते हैं, वहशी होते हैं।
    …और अगर मज़हब/धर्म का बहाना न हो तो पैसा, बेवफाई, धोखा, फरेब या पागलपन आदि कोई भी बहाना लेकर और अक्सर बे-बहाना भी मार देते हैं.
    बहुत अच्छा आलेख+संस्मरण!
  30. बवाल
    आदरणीय फ़ुरसतिया साहब, इस लेख को पढ़कर आपके प्रति आदर और सम्मान का भाव हमारे दिल में कई गुना बढ़ गया। इसमें दिए गए तमाम दृष्टांत और शेर संग्रहणीय हैं दिलोदिमाग जब विकलन (डेबिट) में पड़ जाए तो उसे समाकलित (क्रेडिट) करने के लिए इसे बारंबार पढ़ा जाए। नवी साहब के बारे में पढ़कर हमारी भी आँख भर आई।
  31. Pankaj Upadhyay
    बहुत ही सुंदर पोस्ट!
    इसे पढना अच्छा रहा। आपके बारे में और बातें पता चलीं

Monday, February 26, 2007

मीडिया: ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही- अखिलेश मिश्र

http://web.archive.org/web/20140419215105/http://hindini.com/fursatiya/archives/248

मीडिया: ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही- अखिलेश मिश्र


[पिछ्ली बार जब मैं श्रीलाल शुक्लजी मिलने उनके घर गया था तो अनायास उनकी किताबों की अलमारी में रखी किताबें पलटने लगा। उन्हीं किताबों में एक किताब थी प्रख्यात पत्रकार स्व. अखिलेश मिश्र का लेख संग्रह पत्रकारिता:मिशन से मीडिया तक। कुछ दिन पहले ही मैंने एक अखबार में इसकी समीक्षा पढ़ी थी। उस समय तक मैंने किताब तो पढ़ी नहीं थी लेकिन अखिलेश मिश्र का परिचय पढ़ चुका था। अखिलेश मिश्र के लिये एक विशेषण बहुधा सभी इस्तेमाल करते थे चाहे वह उनके जानने वाले हों,उनके प्रशंसक, उनके पाठक या साथी- विलक्षण व्यक्ति। उनकी विद्वता, वक्तृता, सहजता, सरलता, सादगी के अलावा उनका एक और गुण था जो उन्हें विशिष्ट बनाता था वह थी उनकी निर्भीकता। उनमें भीड़ के खिलाफ़, सत्ता के खिलाफ़, धारा के खिलाफ़ अकेले खड़े होने का और मुकाबला करने का साहस था। सरकारों, अखबार, मालिकों, राजनैतिक दलों, समाज के गुंडों, माफियाओं और विश्वविद्यालय में पलनेवाले गुंडों के सन्दर्भ में उनका यह गुण लगातार सामने आता रहा। वह अनेक स्वयंसेवी संस्थानों को भी सलाह-मशविरा देते रहते थे। उनके रहते किसी को एनसाइक्लोपीडिया या डिक्शनरी देखने की जरूरत नहीं पड़ती थी। सुबह विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की शिक्षा देना, फिर कोई लेख या गोष्ठी या कोई और कार्यक्रम, शाम कोई शोधार्थी। अखिलेश मिश्र की एडवांश बुकिंग करानी पड़ती थी लेकिन विद्यार्थी किसी समय भी आये उसे अखिलेश मिश्र सदैव उपलब्ध हैं, सो रहे हों तो स्पष्ट निर्देश कि कोई बिद्यार्थी आये तो मुझे जगा देना।
ऐसे व्यक्ति के संबंध में जानकर उनके लेख पढ़ने का अनायास मन हो आया। श्रीलाल शुक्ल जी ने जब मुझे किताब पलटते देखा तो वह किताब मुझे अपने साथ ले जाने को दे दी। हमने कहा- हम पढ़कर वापस कर देंगे लेकिन वे बोले आप ले जाओ वापस करने की जरूरत नहीं है।
बहरहाल जब मैंने इस किताब के लेख देखे तो कुछ लेख मुझे बहुत अच्छे लगे। उन्हीं में से एक लेख जो कि मीडिया की बदलती स्थिति के बारे में है -ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही मैं यहां पोस्ट कर रहा हूं। इनमें उन कारणों की पड़ताल की गयी है जिसके चलते मीडिया की प्रभाव क्षेत्र तो व्यापक हुआ है लेकिन उसका सम्मान कम होता गया। लेख पढ़त समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह उस पीढ़ी के पत्रकार के विचार हैं जो अपना इस्तीफ़ा जेब में रखते थे, जिनका आदर्श वाक्य था- किसी की नियत पर सन्देह मत करो, और पत्रकारों की सुरक्षा के बारे में जिनका मानना था - पत्रकार की वास्त्विक सुरक्षा है उसकी तेजस्विता, ओजस्विता, उसका खरापन, दीनजन-पीड़ित-शोषित से उसकी आत्मीयता। यह सब जिन्हें रास नहीं आता है वे ही आज पत्रकार को सुरक्षा तथा सुविधा में कैद करना चाहते हैं।]
एक पुरानी घटना याद आ रही है। बुजुर्ग एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री चन्द्र अग्निहोत्री आजादी के बाद काफ़ी ऊंचे पदों पर पहुंचे। आजादी के पहले भी वह अनुभवी सम्पादकों में गिने जाते थे। अब संसार में नहीं है। उस दिन बहुत गमगीन मिले। जेब कट गई थी। एक लिफ़ाफ़ा निकल गया था। पूछने पर उन्होंने बताया कि उसमें नोट-वोट नहीं थे। लेकिन कागज थे। दो-तीन कविताएं थीं, कुछ पते और फ़ोन नम्बर थे। अंग्रेजी में बोले-”वेरी लिटिल प्राइस बट वेरीग्रेट वैल्यू फ़ार मी।” मैंने सोचा अभारी जेबकतरे ने सिर पीट लिया होगा। किस मनहूस जेब पर हाथ पड़ा। तीन दिन बाद वह बहुत खुश मिले। लिफ़ाफ़ा सही-सलामत कोई उनके घर पर डाल गया था। लिफ़ाफ़े पर पता लिखा था। गिरहकट ने सोचा होगा एक बार तो पुण्य कमा लें, ईमानदार बन लें। वह बोले कि अगर कोई
हिन्दी पत्रकार का लेबल आगे-पीछे चिपकाकर चले तो उसकी जेब न कटे। लेकिन क्या आज वैसी घटना हो सकती है? आज तो लिफ़ाफ़े की जगह पर्स होगा। उसमें
धेला न हो लेकिन पर्स ही इतना कीमती होगा कि उसे कोई लौटाने नहीं आएगा। आजादी के पहले और बाद की पत्रकारिता का फ़र्क यह एक घटना ही जता देती है।
एक और घटना याद आ रही है। एक हिन्दी अखबार के सम्पादकीय दफ़्तर में कोई सेठजी आ पहुंचे। उन दिनों ‘एसोसिएट प्रेस आफ़ इंडिया’ और ‘रायटर‘ का ही टेलीप्रिंटर अखबारों में लगा करता था। अन्य किसी संवाद समिति को टेलीप्रिंटर की सुविधा न थी। देशी भाषाओं के अखबारों को भी खबरें अंग्रेजी में ही मिलती थी। उस टेलीप्रिंटर पर रात एक बजे के बाद कोई विदेशी बाजार भाव आता था। मिलता सबको था पर उसे छापते सिर्फ़ अंग्रेजी अखबार थे। हिन्दी पाठकों की उसमें रूचि न थी। अंग्रेजी अखबार वह जानकारी लेकर अपने पाठकों के हाथ में सबेरे पांच बजे से पहले नही पहुंचते थे।
सेठजी चाहते थे कि वह जानकारी उन्हें टेलीप्रिंटर पर आते ही मिल जाए। उनकी तरफ़ से फ़ोन आएगा, इधर से कोई बता दे। इसके लिए सेठजी २० हजार रूपया
माहवार देने को तैयार थे। आपस में लोग जैसे चाहें, बांट लें। यह रकम सेठजी ने खुद ही बताई थी। मोल-भाव होता तो शायद ज्यादा पर भी राजी हो जाते। लेकिन इतना सुनते ही सब पत्रकार आगबबूला हो गए। कैसे यहां आकर यह कहने की हिम्मत की? सेठजी बेआबरू होकर वहां से निकले। अन्य अखबारों को भी
सावधान कर दिया गया। बाद में सेठजी की मंश किसी अखबार से नहीं किसी सरकारी दफ़्तर से पूरी हुई जहां टेलीप्रिंटर लगा था। जानने लायक बात यह है कि उस हिन्दी अखबार के सब कर्मचारियों के कुल वेतन का टोटल इस रकम के आधे से कम था। टेलीप्रिंटर सम्बन्धी नियम वही आज भी हैं। यों भी अखबार में
आनेवाली कोई भी जानकारी केवल प्रकाशनार्थ होती है। प्रकाशन से पहली उसका उपयोग अन्य किसी रूप में नहीं होना चाहिए। लेकिन आज इन नियम को कितना
माना जाता है? वैसी परिस्थिति में आज क्या किया जाएगा, बातानी की जरूरत नहीं है। वैसा करनेवाला आज दकियानूस और उल्लू समझा जाएगा। अब तो हाथ पसार कर रकमें ली जा रही है। मेज की दराज और जेब में लिफ़ाफ़े पहुंच रहे हैं। अब उन सेठजी की इज्जत होगी।

aks
मीडिया शब्द तब भी था लेकिन तब अखबारों से नत्थी पत्रकारों को इस शब्द की परिधि में नहीं लिया जाता था। इस शब्द से विज्ञापन, प्रसार आदि विभागों
का बोध होता था। तब कुछ एजेंसियां समाचार, विचार सेवा के अलावा विज्ञापन सेवा भी चलाती थीं। वे अक्सर सम्पादक को पत्र लिखती थी, “आपसे हमारे मधुर मीडिया सम्बन्ध स्थापित हो चुके है। हम चाहते हैं कि आप हमारी समाचार-विचार सेवा का भी उपयोग करें।” इस भाषा से यह स्पष्ट है कि मीडिया
के अन्तर्गत पत्रकार नहीं आते थे। बाद में ‘इलेक्ट्रोनिक मीडिया’ प्रयोग चला। पहले उसका अर्थ था रेडियो प्रसारण तन्त्र। बाद में मीडिया में
सरकारी प्रचार तन्त्र के सूचना अधिकारी गिने जाने लगे। बहुत पुरानी बात नहीं है। सन १९८७ में मैं लखनऊ से बाहर एक पत्र का सम्पादक था। लखनऊ से
इंस्टीट्यूट आज मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट ने जवाबी तार भेजकर पूछा था। कि उनके यहां चल रहे जिला सूचना अधिकारी प्रशिक्षण शिविर में मीडिया विषयक
लेक्चर देने के लिए क्या मैं तीन-चार दिन समय निकाल पाऊंगा। अखबार के विज्ञापन व्यवस्थापक ही तार लेकर मेरे पास आए और बोले ” मीडिया विषय पर
आपको क्यों? मुझे बुलाना चाहिए था।” उस दिन लगा कि मीडिया शब्द पत्रकारों पर ठोंका जा रहा है। शास्त्री भवन से सेवानिव्रत्त एक उच्च अधिकारी भी बताते है कि मीडिया शब्द का इंजेक्शन पत्रकारों को लगाने की योजना यही कोई दस वर्ष से चल रही है। उस युग के पत्रकार अपने लिए मीडिया शब्द सुनकर बिगड़ उठेंगे। आज के पत्रकार बड़े फ़ख्र से अपने को मीडिया में शामिल मानते है।
बात केवल शब्द की नहीं है। मीडिया शब्द से व्यावसायिक बिचौलिया या दलाल जैसी गन्ध आती है। दलाल ने शताब्दियों तक बहुमूल्य सेवा की। उसकी एक साख
है, उसकी बात कभी खाली नहीं जाती। वह दोनों पक्षों का हित साधता है। करोड़ो का सौदा बिना लिखे-पढ़े उसकी जबान पर होता है। आज का पत्रकार शायद
उस इज्जत के लायक नहीं है। उसकी दलाली का लेन-देन बहुत कुछ ठगी के अन्तर्गत आता है। लेकिन उस युग का पत्रकार मिडिल मैन बनना ही पसन्द नही
करता था। वैस्टमिन्स्टर ने जिस लोकतन्त्र का झंडा उठाया उसमें पत्रकार को कैमरे की-सी भूमिका दी गई। किसी ने बहुत दिया तो पत्रकार को गूंगी प्रजा
के वकील की हैसियत दे दी। लेकिन आजादी से पहले वाले हिन्दी पत्रकार को यह सब लेबल बुरे लगते थे। बिचौलिया, दलाल, कैमरा, वकील, या घटनाक्रम का
सिर्फ़ तमाशबीन या किस्सागो वह नही था।
वह जनता मे से एक था, जनता के दु:ख-दर्द का दर्शक नहीं, भोक्ता था। जनता पर होनेवाले प्रहार पहले अपने ऊपर लेता था। वह खोपड़ी फ़ुड़वाकर, हाथ तुड़वाकर जनसंघर्षो का समाचार लाता था। वह दंगे रोकने के लिए दंगो में घुसकर गणेशशंकर विद्यार्थी की तरह जान देता था। उत्सर्ग न करते बन पाए तो सिर्फ़ कलम घिसाई किसी इज्जत के लायक नही थी। आर्थिक द्रष्टि से हिन्दी पत्रकार की कोई हैसियत नहीं थी। वह पीर, बावर्ची, भिश्ती सब था। एक अखबार में सम्पादक, कमपोजिटर, प्रूफ़रीडर, चपरासी व हांकर-ये सब ड्यूटियां मैं भी दे चुका हूं। कुछ पहले श्री चन्द्र अग्निहोत्री का जिक्र आया। उनकी रची एक लम्बी कविता का एक पद याद रखने लायक है:

दौड़ो इधर-उधर और सारी न्यूज आप लो,
कम्पोज भी करो, पढ़ो, ट्रेडिल पर छाप लो।
दाबों बगल में कापियां दर-दर आलाप लो।
पेपर छपा पड़ा है कोई माई-बाप लो।
निकले सुबह से शाम तक, दो एक जो बीसी,
झक मारकर करते रहो अखबारनवीसी।
उन दिनों किसी भी पत्रकार प्रशिक्षण में पत्रकारिता पढ़ाई नहीं जाती थी बल्कि अखबार के दफ़्तरों में सिखाई जाती थी। अब अखबार में संवाददाता का नाम देने की परम्परा थी तब सम्पादक समाचार लानेवाले का नाम किसी को बता देता तो पत्रकार उसके नीचे काम करने से इनकार कर देता। हर पत्रकार अपने सम्पादक की इज्जत का रखवाला था। सम्पादक का विश्वासपात्र बनना ही उसका धर्म था। बाजार मे. सत्ता के गलियारों में या अपने ही संस्था के प्रबन्धतन्त्र में सम्पादक की हीनता दिखाई दे तो पत्रकार नौकरी को लात मार देता था।
तब लोग पत्रकार की कलम की शक्ति से वाकिफ़ थे, उसकी शक्ल नहीं पहचानते थे। एक बड़े पत्रकार के बारे में बता दूं। वह रोज जिस दुकान पर एक बार नही, कई
बार पान खाते थे. उस पर वही अखबार आता था। जिसके वह स्वयं सम्पादक थे। दुकान पर उस अखबर में छपी खबरों, लेखो, तस्वीरों आदि की चर्चा भी ग्राहकों के बीच होती थी। वह सुनते थे, मजा लेते थे. नसीहत लेते थे, लौटकर दफ़्तर में बताते भी थे कि बाजार में यह कहा जा रहा है। लेकिन वहां चर्चा करनेवाला कोई न जानता था कि अखबर का सम्पादक उनके बीच खड़ा है। सम्पादक जी जब मरे तो हर अखबार में फ़ोटो छपी. मोटी हैडिंग लगी। पानवाला उस दिन माथा ठोंककर सबसे कह रहा था-”हाय राम, ये तो वही हैं जो रोज हमारी दुकान पर पान खाते थे। पता ही नही चला, नहीं तो एक बार उनके पांव की धूल माथे पर लगाता ही।” उस पीढ़ी के सैकड़ो पत्रकार ऎसे हैं जिनका नाम लोग जानते है पर उन्हें पहचानते नहीं। मन्त्री, दारोगा या अफ़सर आदि से उनकी पूरे जीवन में पांच-छ: बार भी भेंट हुई हो तो बहुत है। गए भी तो सिर्फ़ जानकारी पाने के लिए। तब कोई पत्रकार किसी से कोई काम करा सके, इस लायक नहीं माना जाता था। किसी से कुछ कराने के लिए, उसके लिए कलम से कुछ करना पड़ता। इसके लिए पत्रकार राजी नहीं था।
एक सम्पादक के घर पर बदमाशों ने कब्जा करके उनका सामान फ़ेंक दिया। वह मन मारकर चले गए। कई महीनों मय परिवार एक परिचित के बरामदे मे सोए। तब कुछ इन्तजाम हुआ। अपना घर कभी वापस न पा सके। क्या करते, किसी को जानते न थे। साइकिल पर च्लाते थे। अक्सर बीमार कम्पोजीटर को अपने कैरियर पर बैठा लेते थे। उनके पैर जमीन पर थे। आज का पत्रकार देवताओं की तरह आकाश मार्ग पर चलता है। देवता कौन है? तुलसी बता गए है: ऊंच निवास नीच करतूती, देखि न सकहिं परारि विभूती।’ पत्रकार अगर देवता है तो सम्पादक हुए सुरपति यानी इन्द्र। तुलसी के शब्दों में ‘ सूख हाड़ लै भाग सठ तिमि सुरपतिहि न लाज।’ कूकुर तो पत्रकार को कहा ही जाता था लेकिन इतना बेहया कूकुर? पत्रकार और सम्पादक इस आईने में जरा अपना चेहरा देख लें। उस युग के पत्रकारों से कोई गरीब किसी मेंड़ या फ़ुटपाथ पर आमने-सामने उकड़ूं बैठकर बात कर सकता था। टुटही साइकिल पर फ़टा पजामा, बिना बटन कमीज पहने वह राजभवन और सचिवालय जाकर किसी से मिल लेता था। सम्पादकीय विभाग में फ़रार, हिस्ट्रीशीटर भी
वेवक्त, बेरोकटोक पहुंकर अपनी बात बता आते थे। न गेट पर जिरह होती थी, न मुखबिरी का डर था। अखबार में जो छपता था उसकी जिम्मेदारी सम्पादक पर थी।
वह स्त्रोत नहीं बताता था, चाहे प्राण चले जाएं। एक सम्पादक ने सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी से कहा था कि ‘अखबार में जो कुछ गलती है, मेरी है। गलती सिर्फ़ मैं कर सकता हूं और किसी की गलती मेरे रहते छपेगी कैसे?”
तब सरकार किसी पत्रकार को मान्यता नहीं देती थी। सरकार से मान्यता पाना कोई पत्रकार पसन्द नहीं करता था। सम्पादक से मान्यता मिले इतना ही काफ़ी
था। सरकार को अपना प्रचार कराना हो तो उसे माने। तब डेस्क और फ़ील्ड के बीच कोई दीवार नहीं थी। सम्पादक भी खबरें लाते थे। उनकी खबर पर भी ‘विशेष
संवाददाता’ ही छपता था।
नटवर लाल की पहली गिरफ़्तारी की खबर के मामले में लखनऊ के एक हिन्दी अखबार ने सब अखबारों को पछाड़ दिया था। वह खबर कैसे आई थी। सम्पादकीय विभाग के लोग घर जा चुके थे। अखबार के पेज मशीन पर पहुंच चुके थे। कैसरबाग कोतवाली पर चहल-पहल देखी। तुरन्त घुसे। अपने को सम्पादक बताया। खबर ली, तेज चाल से लौटे। मशीन रूकवाई। खुद खबर लिखी, हेडिंग लगाई, टेलीफ़ोन पर सम्पादक से इजाजत ली और पहले पेज पर ठोंक दी।
एक बार बाढ़ से उफ़नती गोमती नदी के उस पार की खबर लाने के लिए यही शर्माजी तैरकर गए और लौटे। उनके रह्ते उनके अखबार में खबर कैसे न जाती! जान की जोखिम उठाई। सबने बुरा-भला कहा। लेकिन उन्हें परवाह नहीं थी। कहीं कोई उन्हें मालिकों का चमचा न कह दे। वह मजदूर नेता थे। कई बार इंकलाब
जिन्दाबाद और मजदूर हड़ताल करा चुके थे। वह कहा करते थे कि छात्र नेता वह बने जो पढ़ाई में आगे हो, मजदूर नेता वही हो सकता है जो ज्यादा कर्मठ हो।
उनकी वफ़ादारी अपनी आत्मा के प्रति थी। आज शर्माजी भी इस दुनिया में नही हैं। उनकी वाणी कानों मे गूंज रही है।
इन इन सब बातो का असर था या और कोई कारण थे। एक फ़र्क तो साफ़ दिखाई पड़ रहा है। हिन्दी के चौपतिया अखबार मे उन दिनों चार लाइनें प्रशासन शिकायत में छप जाती थें तो प्रशासन में तहलका मच जाता था। सचिवालय में मातम होता था। अब पहले पेज पर चार कालमो हेडिंग देकर रंगीन फ़ोटो देकर छापिए, कोई परवाह नहीं करता।
तब अखबार समाचार-पत्र थे, बंगाल में खबर-कागज। अधिकतम सम्भव घटनाओं की जानकारी देनेवाला अखबार बढ़िया। एक रात्रि सम्पादक ने एक दिन अखबार में फ़ी पेज औसतन पचास खबरें दी थीं। दूर-दूर तक उनकी तारीफ़ होती थी। सिंगल और डबल खबरों को लेकर सुन्दर पेज बना देना भी एक हुनर था। उन दिनों भारत के प्रमुख राष्ट्रवादी अंग्रेजी दैनिक, मद्रास के ‘हिन्दू’ में सब खबरें सिंगल कालम ही छपती थी और हर पेज बढ़िया सजा हुआ होता था। एक दिन लखनऊ के
‘नेशनल हेराल्ड’ ने यही प्रयोग कर दिखाया था। तब होड़ अधिक से अधिक खबरें देने की होती थी। आज अखबार का पूरा पेज बस पांच-छ: मोटी भड़कीली हेडिंग के
नीचे छापी सामग्री से भर जाता है। उसमें घट्ना नहें होती, खबर नहीं होती। रिपोर्टर के नाम के नीचे निजी या प्रेरित विचार या प्रभावहीन प्रचार ही छपते हैं। समाचार है घटना, वही नदारद होती है। स्टाक मार्केट और शेयर तो खैर देश की नई धारा है। जुआ, सट्टा, लाटरी आदि की जनरूचि आजादी के बाद पैदा हुई।
अब सम्पादक एवं प्रत्रकार ठेके पर नियुक्त किए जाते है। ठेका अधिकतम तीन साल का, वैसे आमतौर पर छ: माह का होता है। अब तो सम्पादक और पत्रकार के
मन में कभी जीविका सम्बन्धी निश्चिन्तता आती ही नहीं। स्वभावत: ध्यान कम से कम समय में भले-बुरे किसी ढंग से अधिक से अधिक धन बटोरने की तरफ़ होगा। अब अखबार के साथ कोई अपनी आत्मा को जोड़ना पसन्द ही नहीं करेगा। तब अखबार सम्पादक या पत्रकार के नाम से जाने जाते थे। पराड़कर वा ला ‘आज’, तुषार बाबू वाला ‘पत्रिका’, डेसमेंड यंग वाला ‘पायनियर’, बालमुकुन्द गुप्त का ‘भारत मित्र’, रामाराव या एम.सी. का ‘हेराल्ड’। अब शायद हयातुल्ला अंसारी
वाला ‘कौमी आवाज’ ही इस किस्म के प्रयोग की अन्तिम कड़ी है। अक्सर किपलिंग, चर्चिल का ‘पायनियर’ भी कह दिया जाता है।
‘पायनियर’ के शताब्दी अंक में चर्चिल का एक लेख छपा था। उसमें एक जगह ‘माइ पायनियर’ लिखा है। किपलिंग और चर्चिल सम्पादक नहीं थे, केवल पत्रकार
थे। ठेकेवाले पत्रकार या सम्पादक में यह आत्मीयता कैसे आएगी? हजार बार नाम छपने से मन नहीं मिलता। कुरपरिणाम पत्र और पत्रकार भुगतते है। उन दिनों एक बार मन मुताबिक सम्पादक मिल गया तो मालिक पूरी जिन्दगी के लिए निश्चिन्त हो गया। अखबार में कब, क्या, कैसे जाएगा, नहीं जाएगा तो क्यों नहीं जाएगा, इन सवालों से मालिक का कोई वास्ता नहीं था। कभी कोई मित्र चिरौरी या शिकायत लेकर आए भी तो वह सीधे सम्पादक के पास भेज दिया जाता था। अन्य पत्रकारों की नियुक्ति, सेवा-शर्ते, छुट्टी, तरक्की, तैनाती पूरी तरह सम्पादक की मर्जी पर।
सम्पादकीय विभाग के लिए सम्पादक का मिजाज ही कानून था। पूरे सम्पादकीय विभाग में सब लोग एक शरीर के अंग थे। उस शरीर में मस्तिष्क था सम्पादक।
सम्पादकीय विभाग के लिए ‘अखबार का परिवार’ कहा जाता था। वह स्थित न अब है, न हो सकती है। परिवार कहीं ठेके पर बनता है। तब ठेके पर कुछ कम्पोजीटर ही होते थे लेकिन ये भी यथाशीघ्र बनाकर परिवार स्थायी कर लिए जाते थे। अब अधिकतर स्टाफ़ ठेके पर ही रखने का रिवाज है।
एक बुनियादी फ़र्क कभी न भूलने लायक है। तब कोई विशुद्ध पत्रकार नहीं होता था। मूलत: राजनीतिज्ञ, समाजसेवी, सुधारक, धर्मनिष्ठ, क्रान्तिकारी,साहित्यकार, मजदूर नेता, छात्र नेता आदि कोई होता था। जिस उद्देश्य के लिए जीता था, जीवन खपाता था उसी के लिए अथवा उस उद्देश्य की स्वतन्त्रता पाने के लिए वह अखबारी कालमों में कलम घिसना भी शुरू कर देता था। पत्रकारिता कोई उद्योग नहीं था जिसके लिए, कोई इस धन्धे में आए। यह धन्धा ऎसा मोहक भी नहीं था कि किसी का मन इधर आने को ललचाता। इस धन्धे में आने के लिए किसी डिग्री-डिप्लोमा की दरकार नहीं थी। तब प्रशिक्षण देता कौन? इस निगोड़े धन्धे का प्रशिक्षण पाने के लिए कौन एक छदाम भी देना पसन्द करता! मेहनत, योग्यता, अध्ययन और मुस्तैदी देखते हुए पगार बहुत कम थी।
आम जनता में तो लोग जानते ही न थे कि पत्रकारिता में काम क्या होता है या कैसे काम होता है। प्रूफ़रीडर, कम्पोजीटर, हाकर से लोग वाकिफ़ थे, बाकी अखबार में कोई क्या काम करता होगा! अच्छा चलो एक मशीनमैन भी सही लेकिन ये सम्पादक और पत्रकार किस खाज के मलहम है? मुझसे एक बार सड़क पर झाड़ू
लगानेवाली ने पूछा था,”भइया, तुम कहां काम करते हो? क्या काम करते हो?” कहां का जवाब तो आसान था लेकिन क्या करता हूं यह बताना जरा मुश्किल था।
यही बताना पड़ा-”इधर-उधर घूमता हूं, देखता हूं, पढ़ता-लिखता हूं।” उसने कहा,”वह सब तो करते हो, देख रही हूं। लेकिन काम क्या करते हो, रोटी कैसे चलती है?” मैं उसे समझा न पाया। एक बार मेरी ससुराल के कुछ लोग मेरा घर नहीं जानते थे तो दफ़्तर पहुंच गए। वहां किसी से पूछा मेरे बारे में। पता लगा कि वह मेकअप करा रहे हैं। उधर शोर मच गया कि फ़लां का दामाद नौटंकी में नाचता है। बड़ी बदनामी हुई। कुछ लोग तो आज तक वही मानते हैं। शादी-ब्याह या रामलीला में अच्छी और सस्ती नौटंकी तय कराने मेरे पास आते हैं। ‘स्वतन्त्र भारत’ के सम्पादक अशोक जी के बारे में तो कई लोगों ने मुझसे पूछा था,”अच्छा प्रूफ़ पढ़ते होगे, पुराने आदमी हैं।” यों उस युग में कुछ प्रूफ़रीडर थे भी बहुत मशहूर। चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, काशी प्रसाद, पुत्तुलाल शर्मा ‘उद्दंड’ अच्छे वैयाकरण,
साहित्यकार, लेखक और कवि माने जाते थे। उस युग में विभागीय घेराबन्दी नहीं होती थी। कई चपरासी, कम्पोजीटर और प्रूफ़रीडर बाद में प्रतिष्ठित सम्पादक होकर निकले।
एक आपबीती सुना दूं। ऎसी घटना अक्सर हो जाती थी। रात को दो बजे ड्यूटी करके लौट रहा था। गश्ती पुलिस से मुठभेड़ हो गई। उनकी समझ में इतनी रात को
सड़क पर चोर, उचक्का या बदमाश ही हो सकता था। सूरत से मैं यो भी भला आदमी नहीं लगता। सो मुठभेड़ का वार्ताक्रम ऎसा चला।
“क्यों बे, कहां जा रहा है? कहां गया था? जेब दिखा?”
“ड्यूटी पर गया था, घर लौट रहा हू।”
“इस वक्त कौन-सा काम होता है, कौन-सी ड्यूटी होती है?”
“बहुतरी होती हैं, आपकी ही है।”
“मजाक करता है (डंडा तानकर) अभी बताता हूं। दो डंडे लगाऊंगा, उसके बाद अन्दर कर दूंगा।”
“अन्दर-बाहर दोनो जगह मेरा काम चलता है। आप अपनी सोच लीजिए।”
इतना कहने पर डंडा पड़ ही गया होता। अन्दर भी हो जाता। वह तो खैर हुई कि उसी समय प्रेस के कुछ वर्कर्स भी उधर से आ निकले। तकदीर अच्छी थी उन्होंने पहचानकर पुकार लिया। हवलदार साहब का हाथ ऊपर का ऊपर रूक गया। उनकी समझ में सिर्फ़ इतना आया था कि आज छापाखाना रात में भी खुला था।
अब ऎसी घटना नहीं हो सकती। अब तो हर पत्रकार की जेब में मय फ़ोटो शिनाख्ती कार्ड होता है। तब शिनाख्ती कार्ड को पत्रकार बेइज्जती मानता था। अखबार में काम करनेवाले को कोई न पहचाने तभी अखबारनवीस बढ़िया खबर लाएगा और अखबार बढ़िया निकलेगा। ‘पायनियर’ शताब्दी में राष्ट्रपति राधाक्रष्णन और
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री दोनो आए थे। जाहिर है तगड़ा सुरक्षा प्रबन्ध था। लेकिन अखबार तो निकलना था। सिर्फ़ चार दिन के लिए सब कर्मचारीयों को फ़ोटो सहित शिनाख्ती कार्ड देने की योजना बनी। उस समय मुख्य उपसम्पादक बोस ने इतना तगड़ा विरोध किया, योजना को इतना अपमानजनक माना कि योजना जमींदोज हो गई। ऎन समारोह के बीच, फ़ाटक पर पुलिस से और किसी की नहीं उसी संस्था में काम कर रहे पत्रकारों की ठायं-ठायं हो गई थी। डंडे उठ गए थे। गनीमत हुई जो घूमे नहीं चले नहीं। सत्य नारायण जायसवाल वहीं काम करते थे। उन्होंने पुलिस के दुर्व्यवहार पर खबर बनाई। पहले पेज पर रखने के लिए बाक्स कम्पोज करा लिया। बड़ी मुश्किल से चिरौरी करके राजी किया गया कि वह खबर न दें, समारोह अपना है, समारोह की बेइज्जती होगी। वह मान गए। न मानते तो वह खबर जाती ही। मालिक में या किसी सरकारी अफ़सर में यह कहने कि हिम्मत नहीं थी कि शिफ़्ट प्रभारी की दी हुई यह खबर पहली पेज पर नहीं जाएंगी। यह घटना आजादी के बाद की है लेकिन ये पत्रकार आजादी के पहले के थे। इसलिए पुरानी हनक बाकी थी। अब ठसक बढ़ गई है, अखबार का रंग, रूप, आकार, सजावट भी बहुत बढ़ गई है। लेकिन हनक न अखबारनवीस की है न अखबार की बची है।
ठसक और हनक में क्या फ़र्क है? यह इस देश का देहाती खूब समझता है। हिन्दी अखबारों के ग्राहक जितने होते हैं, उसके दस गुने पाठक होते हैं। पाठकों की संख्या से दस गुनी संख्या होती है सुन्कर चर्चा करनेवालों की और बतकहीं मे तो उससे कहीं ज्यादा होते हैं। वे सब हनक के मुरीद है। ठसक को अंगूठा दिखा देते है।
अखबार सरकारी आदेश से बन्द होते थे तो पत्रकार जुटकर गैरकानूनी अखबार निकाल देते थे। पिछली इमरजेन्सी मे भी ऎसा हुआ है। ऎसे अखबारों की मुश्किल से सौ, सवा सौ कापी छपती, बंटती रही होंगी। लागत बिक्री से नहीं, अन्य तरीकों से आती थी। सौ परचे बंटकर हजारों जनता के मन में आग लगाते थे। उनकी जर्जर प्रतियां आज भी लोगों के पास सुरक्षित हैं। वे एक सम्पदा की भांति जोगाये जाते हैं। उन्होंने इतिहास बनाया। आज के अखबार जुगराफ़िया पर लड़ते हैं। वे जिले बनवाते हैं, राज्य बंटवाते हैं, भूमि और मकानों पर कब्जा दिलवाते हैं, प्रोमोशन, तबादले और तैनाती कराते हैं। उन्हें आग में जलाया जाता है, कूड़ा फ़ेंकने के काम आता है। तब फ़टे पायजामे, टूटी साइकिल, बटन टूटी कमीजवाले सम्पादक की इज्जत थी, उसमें अपनौनि थी, परतीत थी। अब कार, सफ़ारी, पांचसितारा जिन्दगी का रूआब है, खौफ़ है। जनता की उससे दूरी है, चिढ़ है। नफ़रत भी कम नही। वे दिन देखे हैं ये भी देखने ही हैं। तब अखबारनवीसी थी, अब मीडिया है। जैसा पहले कहा जा चुका है बात केवल शब्द की नही हैं। लाख प्रचार किया जाए लेकिन पुलिस और जनसेवक में फ़र्क है। लाख प्रचार किया जाए, मीडिया और अखबारनवीसी में फ़र्क है। आमदनी ऊपर-नीचे की बढ़ी है। बाजार बढ़ा है। लेकिन जिसे साख कहा जाता है वह घटी है। यह भी हो सकता है कि यह सब इस नजर का दोष हो।
याद आ रहा है नाम-जगदम्बाप्रसाद मिश्र ‘हितैषी’। चोटी के कवि, सवइया छन्द के अधिकारी, गद्य में साफ़-सुथरी शैली के लेखक, क्रान्तिद्रष्टा, स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानी गणेशशंकर विद्यर्थी के साथी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी के मर्मज्ञ विद्वान और पत्रकार। उनकी कुछ वाणी तो मुहावरों में पहुंच चुकी है। यों तो उमर खैय्याम का हिन्दी अनुवाद बहुतों ने किया है लेकिन फ़ारसी न समझने के कारण अधिकतर लोगों ने फ़िटजरल्ड के अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी में उल्था किया है। फ़िटजरल्ड का अनुवाद बहुत अच्छा है। लेकिन सूफ़ी दर्शन और गणितशास्त्र की जो गहराई उमर खैय्याम में है उसे फ़िटजरल्ड पकड़ नही पाए। हितैषी ने मूल फ़ारसी से अनुवाद किया। उन्होंने भाव पकड़ा है। खैय्याम के दर्शन और विज्ञान के प्रति उनकी आस्था है। उनका एक छन्द यहां दोहरा देने को जी चाहता है। हितैषी का अभीष्ट तो र्शनिक रहा होगा लेकिन आज के हिन्दी पत्रकारिता के लिए यह छन्द भविष्यद्रष्टा जान पड़ता है।

“मम अंश में स्रष्टि के आदि से एक अज्ञान मही दुखदाई पड़ा।
नव विज्ञान का भाग तो भाग में मेरे नहीं एक पाए पड़ा।
जिसको जगती ने विकास कहा इस द्रष्टि को ह्रास दिखाई पड़ा।
मुझको महानाश का श्वास-प्रश्वास में भी पदचाप सुनाई पड़ा।”
यों विकास और ह्रास को कुछ विचारक एक ही सिक्के के
दो पहलू भी कह देंगे।
तब भी अखबार अलग-अलग विचारों के तो थे ही। कांग्रेसी, मुस्लिमलीगी, हिन्दू-महासभाई। विचारों का संघर्ष कितना तीव्र रहा होगा, यह कल्पना की जा सकती है। लेकिन पत्रकारों के बीच भाईचारा था। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, पत्रकारो के बीच कोई खाई नही थी। सरस्वती शरण ‘कैफ़’, एस.एन. मुंशी जैसे लोग तीनों में जिन्दगी के अंश गुजार चुके थे। किसी पत्रकार का अपमान कोई नेता, अफ़सर, या धन्ना सेठ कर दे तो पूरी बिरादरी एक होकर मुंहतोड़ जवाब देती थी। दो बार गवर्नर को एक बार वाइसराय को नतीजा चखा दिया गया था। तब प्रेस क्लब नहीं था, पत्रकार संगठन नहीं थे. मीडिया नाम के फ़ोरम भी नहीं थे। ड्यूटी पर जाते-लौटते रास्ते की चलन्तु गोष्ठियां भर थी। लेकिन एकता गजब की थी। तब खुफ़िया पुलिस से हाथमिलौवल नहीं होती थी। उस युग की आपसी एकता रक्षा-कवच का काम करती थी। पत्रकार तब जनता को रोकने के लिए सुरक्षा दल नहीं लगाता था। जनता पत्रकारिता की सुरक्षा करती थी।
उत्तर प्रदेश में एक मुख्यमन्त्री ऎसे भी हो चुके हैं जो बहुत बदजबान थे। एक बार उन्होंने अध्यापक बिरादरी के विरूद्ध बेहद अपमानजनक बातें कहीं। पत्रकारों ने यह बात शिक्षकों की सभा में पहुंचाई। सभा में यहां तक कहा गया कि राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान किया तो एक शिष्य अर्जुन ने द्रुपद को नतीजा दिखा दिया। अब वैसा क्यों नही होता। शिक्षकों ने आजिजी से कहा,”हमने एक भी अर्जुन पैदा नही किया।” बाद में वही मुख्यमन्त्री करीब दो दर्जन पत्रकारों के बीच पत्रकारों को मां-बहन की गाली दे बैठे। खबर केवल इतनी छपी। खबर में यह नही छपा था कि किसी अखबारनवीस ने उसी समय गाली का जवाब जूते से दिया है। इसी से साबित हुआ कि जो अपमान हुआ, कम था। पत्रकार अधिक अपमान के लायक हैं। और अब वह मुख्यमन्त्री स्वर्ग में हैं। परमात्मा उनकी आत्मा को शान्ति दे और मीडिया को अधिक अपमान सहते रहने की शक्ति प्रदान करे ताकि वह दलाली कार सकें, छोटो लोगों पर रूआब गालिब कर सके और शक्तिशाली के आगे दुम हिलाने के लायक बनी रह सके।

लेखक: स्व. अखिलेश मिश्र
पुस्तक पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तक
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ- २८७, मूल्य-१२५ रुपये
पहला संस्करण: २००४

12 responses to “मीडिया: ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही- अखिलेश मिश्र”

  1. PRAMENDRA PRATAP SINGH
    अच्‍छा लिखा है, सुन्‍दर, अद्धितीय
  2. मैथिली
    इस लेख के बारे में क्या शब्द बोलूं? अभी तो बस दो बार पढा है. पूरी किताब पढने की लालसा है.
    बहुत बहुत खूब.
  3. नीरज रोहिल्ला
    अनूपजी,
    पिछ्ले कई दिनों से आपके चिट्ठे पर नये लेख का इन्तजार हो रहा था ।
    इस विचारोत्तेजक लेख ने वर्तमान पत्रकारिता एवं मीडिया की भूमिका पर एक सजग और तुलनात्मक पक्ष प्रस्तुत किया है ।
    काफ़ी दिन हुये राग दरबारी के नये अध्याय को पढने की हनक हो रही है ।
    साभार,
  4. राकेश खंडेलवाल
    गुरुवर ! अच्छा ज्ञान दिया है, संस्मरण अनमोल
    बिकती नहीं लेखनी कोई कितना भी दे मोल
    और मान अपमान कहाँ पर किस किस का होता है
    कोई सह लेता चुप होकर कोई बजाता ढोल
  5. समीर लाल
    स्व. अखिलेश मिश्र जी का ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही पढ़ना एक अत्यंत सुखद अनुभव रहा. मैने आज पहली बार स्व. अखिलेश मिश्र जी को पढ़ा. आशा है आगे भी स्व. अखिलेश मिश्र के कभी कुछ और आलेख आपके माध्यम से पढ़ने मिलेंगे. आपका साधुवाद.
  6. अफ़लातून
    अखिलेश मिश्रजी का लेख चिट्ठाकारों को पढ़ाने के लिए धयवाद।उनकी स्मृति में लखनऊ में एक सालाना व्याख्यानमाला भी आयोजित होती है।
  7. हिंदी ब्लॉगर
    तीन साल पहले छपे लेख को अब पढ़ने का अवसर मिला है. लेकिन आज भी अखिलेश मिश्र जी की अधिकतर बातों से सहमत हूँ.
    कारण जो भी गिनाए जाएँ, पत्रकारिता अब मिशन नहीं रही है. अख़बार अब उत्पाद हैं. मीडिया संस्थान अब ख़बरों का व्यापार करते हैं. लेकिन, पत्रकारिता का चरित्र बाक़ी पेशों जैसा हो जाने का बावजूद पत्रकारों का ये आग्रह बना हुआ है कि उन्हें लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में देखा जाए, उनके काम को लेकर ज़्यादा सवाल नहीं उठाए जाएँ, उन्हें बाक़ियों से ज़्यादा इज़्ज़त दी जाए.
  8. Neeraj Tripathi
    Bahut achha lekh hai. Parhaane ke liye haardik dhanyavaad..
    बाद में वही मुख्यमन्त्री करीब दो दर्जन पत्रकारों के बीच पत्रकारों को मां-बहन की गाली दे बैठे। खबर केवल इतनी छपी। खबर में यह नही छपा था कि किसी अखबारनवीस ने उसी समय गाली का जवाब जूते से दिया है।
    Aaj joote maarna to door ki baat hai, log netaaon ke joote apni jeebh se chaat ke chamkaane ko taiyaar baithe hain..
  9. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] मीडिया: ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही- अखिलेश �… [...]
  10. Sanjeet Tripathi
    lekh padh kar puri kitab padhne ki iccha ho uthi hai.
  11. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] [...]

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