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दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में
By फ़ुरसतिया on February 28, 2007
ये भैये हमारे मोहल्ले वाले अविनाश जो न करायें!
पहले बोले आओ इरफ़ान-इरफ़ान खेलें। फिर जब लोग खेलना शुरू किये तो बोले ऐसे नहीं खेला जाता। तुमको खेलना ही नहीं आता। लोग बोले हम तो ऐसे ही खेलेंगे। ये बोले-हम ऐसे तो नहीं खेलने देंगे चाहे खेल होय या न होये। इसके बाद बोले खेल खतम पैसा हजम! हम खुश कि चलो इरफ़ान को चैन मिला। कम से कम होली में तो चैन से बैठेगा।
लेकिन फिर देखा कि भैया अपने इरफ़ान को फिर जोत दिहिन। जैसे शाम को ठेकेदार काम बंद करने के बाद फिर से लगा देता है कभी-कभी जरूरी काम होने पर।
उधर से हमारे प्रियंकर भैया बमक गये- आप कैसे बहस स्थगित कर सकते हैं?
उधर से धुरविरोधी चिल्लाये जा रहे हैं हम नफरत फैलाने नहीं देंगे, वाट लगाने नहीं देंगे। नफरत का गाना गाने नहीं देंगे। जहर फैलाने नहीं देंगे। हमें लगा कि आगे की कड़ियां हो सकती हैं खाट खड़ी कर देंगे/ खाट खड़ी नहीं करने देंगे, चाट खिला देंगे/ चाट खाने नहीं देंगे, परदा गिरा देंगे/परदा गिरने नहीं देंगे( यशपाल की कहानी परदा)। हमें तो एकबारगी यह भी लगा कि मोहल्ले वाले और धुरविरोधी कोई मैत्री मैच खेल रहे हैं। इधर से मोहल्ले वाले ने गेंद फेंकी नहीं उधर से धुरविरोधी ने गेंद के धुर्रे उड़ा दिये। अब स्ट्राइक बदलने के लिये इधर से अभिषेक भी जुट गये। इस चक्कर में प्रत्यक्षा के इरफ़ान को उदारता और इंसानियत का गीत टाइप बताकर किनारे कर दिया गया कि भाई जरा कुछ सनसनाता उदाहरण पेश करो जो जाति और धर्म बंटे आम हिंदुस्तानी का सच हो!
हम सोचे हम भी कुछ लिखें लेकिन लिखें क्या यह नहीं सोच पाये। क्या लिखें? न किसी मुसलमान भाई के यहां रोज का आना-जाना। ईद-मुबारक, बकरीद मुबारक के अलावा न कुछ बतियाना। न कभी दंगे में फंसे न कभी जलालत भोगे। न कभी किसी को मारा न मारे गये। क्या बतायें?
मैं अपने जीवन के कुछ अनुभव बताना चाहूंगा। इन अनुभवों से हो सकता है कि मैं अपनी बात कह सकूं।
सन १९९२ में बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी। पूरे भारत में तनाव था। लगभग पूरा उत्तर प्रदेश दंगे की चपेट में था। मैं उन दिनों शाहजहांपुर में पोस्टेड था। शाहजहांपुर में हिंदू-मुसलमानों की आबादी लगभग बराबर है। वहां दंगा नहीं हुआ। अब इसका पोस्टमार्टम करने को कोई करे कि चूंकि वहां मामला बराबरी का था इसलिये नहीं हुआ। ऐसा होता तो वैसा होता आदि। लेकिन यह सच है कि वहां एक भी दिन दंगा नहीं हुआ। और मेरी जानकारी में वहां अभी तक कोई दंगा नहीं हुआ।
हां, इसके लिये हमने बहुत मेहनत की। सबेरे छह बजे फैक्ट्री आ जाते थे। हर शाप में एक आफीसर तब तक रहता जब तक काम शुरू नहीं हो जाता। फिर एक-एक करके नाश्ता करने जाते। लेकिन पांच हजार लोगों के लिये बीस आदमी कोई चीज नहीं होते। अगर वे उतारू होते तो हमें भी निपटा देते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह संयोग था कि कम पढ़े-लिखे कामगारों में दंगा होने से रोकने के प्रयास में लगे सारे लोग मध्यमवर्गीय पढ़े-लिखे लोग थे।
इसीलिये सोचकर अचरज होता है गुजरात में हफ्तों दंगे होते रहे और प्रसाशन उसे ‘चाहने पर भी’ न रोक पाया।
शाहजहांपुर में होली के अवसर पर एक अजीब सी हरकत होती है। वहां होली के दिन जब रंग चलता है तो नवाब साहब का जुलूस निकलता है। किसी मुस्लिम को बैलगाड़ी में बैठाकर,खूब नशे में धुत करके उसे जूतों की माला पहना कर जुतियाते हुये पूरे शहर में घुमाते हैं। कहते हैं कि पुराने समय के किसी क्रूर नवाब के प्रति अपना रोष जाहिर करने के लिये यह शुरू हुआ था। बाद में तमाम आपत्तियां उठायी गयीं लेकिन परम्परा के नाम पर इसे अदालत की अनुमति से प्रशासन की देखरेख में हर साल जारी रखा जाता है।
होने को इसपर कभी भी दंगा हो सकता है लेकिन कभी हुआ नहीं। और अब तो लोगों ने इसे शायद बेहूदगी समझकर इससे कटना शुरू कर दिया है। शहर के चंदेक लोग जुलूस के साथ चलते हैं बस!
शाहजहांपुर की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है। फैक्ट्री परिसर में इसका आयोजन होता है। लोग बताते हैं सन १९६५ में वहां के जनरल मैनेजर एस.एन.गुप्ता हुआ करते थे। उनकी दिली इच्छा थी कि वहां रामलीला करायें। चूंकि काम फैक्ट्री के बाहर होना था इसलिये यह काम फैक्ट्री के संसाधन से नहीं हो सकता था। उन दिनों इधर का खर्चा उधर दिखाने का चलन नहीं शुरू नहीं था। अंतत: चंदा करके रामलीला का पक्का मंच बनवाने की बात तय हुयी। यह तय हुआ कि फैक्ट्री के सारे कर्मचारी चंदा करके मंच बनवायेंगे। इनमें हिंदू-मुसलमान दोनों शामिल थे।
लेकिन, जैसा कि लोग बताते हैं, न जाने क्या हुआ कि हिंदू नेता चंदा देने की बात से मुकर गये। इससे जनरल मैनेजर गुप्ताजी निराश हो गये। यह बात जब मुस्लिम नेता को पता चली तो वह उनसे बोला – हुजूरे आला, आप चिंता क्यों करते हैं। आपको हमने जबान दी है और आपकी मंशा पूरी होगी। जो आपने सोचा है वह पूरा होगा। वो पैसा नहीं देते हैं मत देने दीजिये हम हैं न! ( उन दिनों मैं हूं न! पिक्चर नहीं बनी थी)।
इसके बाद उस मुस्लिम नेता ने अपने तमाम साथियों से चंदा दिलाया। सारे शहर में चंदा किया और मंच बनवाने के काम में सहयोग करने का वायदा निभाया। अगले महीने मारे शरम के हिंदू नेताऒं ने भी चंदा जमा किया-कराया। कंधे-से-कंधा लगाकर रामलीला का मंच बनवाया।
मंच की नीव पर पहला फावड़ा उसी मुस्लिम नेता ने चलाया जिसने कहा था कि हुजूरे आला आप चिंता काहे करते हो? अभी हाल-फिलहाल तक रामलीला के तमाम पात्र मुस्लिम लोग निभाते हैं। दिन में फैक्ट्री गेट से प्रशासन के खिलाफ़ दहाड़ने वाला युवा नेता सुल्तान शाम को रामलीला में कुंभकरण का पार्ट करते हुये अटटहास लगाते दिखता रहा!
शाहजहांपुर में ही हमें मिले थे हमारे फोरमैन अब्दुल नवी।
जब हम सन १९९२ में तबादलित होकर शाहजहांपुर पहुंचे तो हमें वहां का डिजाइन सेक्शन देखने को दिया गया। वहां सिलाई के लिये इस्टीमेट, पैटर्न, मार्स्डन ले वगैरह बनायी जातीं। हममें नयी-नयी चार साल की अफसरी का उत्साह था। पहले-पहले दिन हम गये सेक्शन तो हमने ये ऐसा क्यों वैसा क्यों शुरू किया तो नवी साहब हंसते हुये बोले- साहब, आप अभी दो साल देखिये, जानिये इसके बाद बताइयेगा कैसे करें।
हम भी मुस्करा दिये।
धीरे-धीरे हम नवी साहब के मुरीद होते चले गये। वे बहुत काबिल, अनुशासित थे। हंसते-हंसते अपना काम करते। जनरल मैनेजर तक उनके काम के मुरीद थे। काम के अलावा वे पक्के मुसलमान थे। पांचो वक्त नमाज पढ़ते। किसी से दबते नहीं थे लेकिन कभी ऊंची आवाज में बाद नहीं करते थे। उनका नारजगी जाहिर करने का अंदाज भी अनोखा था।
हमसे बतियाते हुये कुछ देर बाद नवी साहब को न जाने क्या सूझा वे मेरे हाथ से कागज लेकर सीधे जनरल मैनेजर के पास गये और पांच मिनट में इनाम की लिस्ट में अपने (और मेरे) बास का नाम जुड़वा के आ गये। ये उनका जवाब देने का अंदाज था!
जिसने उनको इनाम से वंचित किया उनको इनाम दिलवा कर नवी साहब मुस्करा रहे थे।
बाद में नवी साहब से मेल-मुलाकात बढ़ता गया, उनकी खूबियां पता चलती गयीं। वे पैसे से मजबूत थे, गरीबों की सहायता करते-करवाते रहते, पास की मस्जिद से भी जुड़े रहे लेकिन काम के वक्त उसका कोई जिक्र नहीं होता था।
एक दिन ऐसे ही बातचीत के दौरान पता चला कि उनको कुछ सीने में दर्द की शिकायत है। मैं उनको अस्पताल लेकर गया। पता चला कि उनका पहले से ही इलाज चल रहा था। मैंने उनको तमाम हिदायतें दे डालीं कि लापरवाही ठीक नहीं है, ख्याल रखना चाहिये। नवी साहब मुस्कराते रहे। उस दिन शनिवार था।
चलते-चलते मैंने कहा कल इतवार को फैक्ट्री चलेगी आप आइयेगा थोड़ी देर के लिये। नवी साहब चूंकि फोरमैन थे। उनको ओवरटाइम नहीं मिलता था इसलिये उनको आने की बाध्यता नहीं थी। लेकिन जब मैंने कहा आप आइये तो वे मुस्कराते हुये बोले अच्छा, आप कहते हैं तो आ जाउंगा आपके साथ चाय पीकर चला जाउंगा।
अगले दिन सबेरे फोन की घंटी बजी। फोन नवी साहब के घर से था। उनको दिल का दौरा पड़ा था। मैंने तुरन्त उनको अस्पताल में लाने को कहा और वहां पहुंचकर उनका इंतजार करने लगा। मैं यह सोच भी रहा था कि नवी साहब को हड़काउंगा, ‘ये कौन तरीका है आने का भाई?‘
लेकिन हमको उन्होंने कोई मौका नहीं दिया। अस्पताल पहुंचते-पहुंचते उनकी सांसे थम गयीं थीं। उस दिन मैं जिंदगी में पहली बार किसी की मौत पर रोया। वह मेरे जीवन का ऐसा वाकया था कि जब याद करता हूं आंसू आ जाते हैं।
नवी साहब के बारे में बाद में और तमाम अच्छाइयां लोगों ने बताईं जिससे उनकी और शिद्दत से याद आती रही। उनके जाने पर दुख की मैं इसलिये नहीं बयान कर रहा कि मुझे कोई कौमी एकता का इनाम मिल जायेगा। मैं सिर्फ़ यह बताना चाह रहा हूं कि अपनी जिंदगी के महज एकाध साल के संग ने जिस आदमी ने
मेरे दिल में इतना गहरा असर डाला कि अब भी उसकी याद से मन उदास हो जाता है वह संयोग से पक्का मुसलमान था।
मैंने बहुत कुछ पढ़ रखा है मुसलमानों के बारे में, हिंदुओं के बारे में। राही मासूम रजा की आधा गांव के पात्र जैसे जिन्ना के बारे में बतियाते हैं उससे इस सबके पीछे की सियासत अंदाजा लगता है। अब्दुल बिस्मिल्लाह की किताब झीनी-झीनी बीनी चदरिया और शानी के उपन्यास काला जल से मुस्लिम समाज का कुछ अंदाजा लगता है। हर समाज की अपनी कुछ समस्यायें होती हैं वैसे ही मुस्लिम समाज की भी हैं, हिंदू समाज की भी हैं। न पूरी की पूरी मुस्लिम कौन गद्दार है न सारे के सारे हिंदू दूध के धुले हैं। ‘अल्लाहो अकबर’या ‘हरहरमहादेव’ का नारा लगाने वाला आम हिंदू या मुसलमान कभी किसी दूसरे धर्म के आम आदमी की जान नहीं लेना चाहता। वे कोई दूसरे ही लोग होते हैं जो धर्म के नाम पर आदमी को मार देते हैं। वे हैवान होते हैं, वहशी होते हैं। हैवानों और वहशियों का कोई धर्म नहीं होता। ऐसे हैवानों के लिये ही हरिशंकर परसाई जी ने लिखा है -वे पानी तो छानकर पीते हैं लेकिन आदमी का खून बिना छाने पी जाते हैं।
हिंदू समाज से जुड़ा होने के नाते मुझे यह लगता है कि हिंदुओं में यह आम धारणा है कि दंगा मुसलमान फैलाते हैं। वे लोग इकट्ठा होकर हिदुऒं को मार डालते हैं। यह एक मिथक है जो गलत है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन ६० से लेकर सन ८० तक देश में हुये कुल ३९४९ दंगों में कुल ५३० हिंदू मारे गये जबकि मरने वाले मुसलमानों की तादाद १५९८ थी। मतलब लगभग तीन गुने मुसलमान मारे गये। ये आंकड़े सरकारी हैं और पुलिस विभाग द्वारा जारी किये गये हैं जहां कि मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं।
उपरोक्त आंकड़े अपनी शोध पुस्तिका सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस में जारी पेश करते हुये १९७५ से पुलिस विभाग में अधिकारी रहे विभूति नारायण राय ने दंगों के मनोविज्ञान के बारे में लिखा है-
दुनिया में बहुत लफड़े होते हैं। तमाम घटनायें ऐसी होती हैं जो दिल दहला देती हैं। सांप्रदायिक दंगों के दौरान हैवानियन अपने चरम पर होती है। इनका हम बढ़ा-चढ़ाकर गाना गाते हैं और इंसानियत की हत्या पर टसुये बहाते हैं। लेकिन इसी समय में ऐसी तमाम घटनायें भी घटती हैं जिनसे लगता है कि इंसानियत जिंदा है लेकिन हम उनका नोटिस नहीं लेते क्योंकि वह सनसनीखेज नहीं होती।
किसी भी घटना को देखने के पीछे देखने वाले के नजरिये की सबसे मुख्य भूमिका होती है। किसी से आंख मिलने पर कोई हो सकता है उसकी आंख निकाल लेने
पर आमादा हो जाये और उसी घटना का शिकार कोई दूसरा गुनगुनाने लगे -नैन लड़ जैहैं तो मनवा मां कसक हुइबै करी!।
कानपुर एक दंगा प्रधान शहर है। यहां पिछले दिनों एक दंगा होते-होते रह गया। इसमें मुस्लिम परिवार का लड़का मारा गया था। दोनों समुदाय के लोग दंगा करने पर उतारू थे। दिन भर मोहल्ले के लोग दंगा टालने के लिये कोशिशे करते रहे। अंत में बुजुर्ग ने जिसका लड़का मारा गया था लोगों से अनुरोध किया – मैं अपना इकलौता बेटा खो चुका हूं। वह तो चला गया और किसी और की मौत से तो वापस आ नहीं जायेगा। अब मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि अब जो हो गया सो हो गया लेकिन अब किसी और के घर का चिराग बुझाने का कोई काम न करो।
दंगे पर आमादा लोग चुपचाप अपने-अपने घर चले गये। एक अकेले बुजुर्ग बाप ने अकेले एक संभावित दंगे की ‘वाट‘ लगा दी। अखबार में इस घटना की केवल एक दिन चर्चा हुयी। मीडिया में कोई जिकर नहीं हुआ। होता कैसे न उसमें सचिन/सहवाग के शतक जैसी चमक थी न ऐश्वर्या-अभिषेक जैसी सनसनाती सेक्सी अपील!
भले ही आपको ये मेरी कूपमंडूकता लगे लेकिन मुझे वे कवितायें /शेर बहुत पसंद हैं जो आदमी को जोड़ने की कोशिश करते हैं। राकेश खंडेलवाल कहते हैं:-
दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में
ढूंढ रहे हो सूरज को तुम अंधियारे तहखानों में
कानपुर के गीतकार अंसार कंबरी लिखते हैं:-
शायर हूं कोई ताजा गजल सोच रहा हूं
मस्जिद में पुजारी हो मंदिर में मौलवी
ऐसी ही कोई नई जुगत सोच रहा हूं।
इसी लहजे में हमारे समीरलालजी कहते हैं:-
रिश्तों मे दरार डालती
सियासी ये किताबें हैं
ईद के इस मौके पे इनकी
होली आज जला दी जाये.
भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद हिंदू-मुसलमान की एकता की आवश्यकता पर अपने भाव व्यक्त करते हुये गीतकार स्व. रमानाथ अवस्थी ने कविता पढ़ी थी:-
धरती तो बंट जायेगी लेकिन
उस नील गगन का क्या होगा
हम तुम ऐसे बिछड़ेंगे तो
महामिलन का क्या होगा?
अपने देश-प्रदेश, गली-मोहल्ले के लोग हिंदू-मुसलमान की वाट लगाने ,एक दूसरे को धूल चटाने की बातें माइकोफोन लगाकर सुनेंगे और माइक्रोस्कोप से देखेंगे तो हिंदुस्तान का क्या होगा?
मेरी पसंद
पहले बोले आओ इरफ़ान-इरफ़ान खेलें। फिर जब लोग खेलना शुरू किये तो बोले ऐसे नहीं खेला जाता। तुमको खेलना ही नहीं आता। लोग बोले हम तो ऐसे ही खेलेंगे। ये बोले-हम ऐसे तो नहीं खेलने देंगे चाहे खेल होय या न होये। इसके बाद बोले खेल खतम पैसा हजम! हम खुश कि चलो इरफ़ान को चैन मिला। कम से कम होली में तो चैन से बैठेगा।
लेकिन फिर देखा कि भैया अपने इरफ़ान को फिर जोत दिहिन। जैसे शाम को ठेकेदार काम बंद करने के बाद फिर से लगा देता है कभी-कभी जरूरी काम होने पर।
उधर से हमारे प्रियंकर भैया बमक गये- आप कैसे बहस स्थगित कर सकते हैं?
उधर से धुरविरोधी चिल्लाये जा रहे हैं हम नफरत फैलाने नहीं देंगे, वाट लगाने नहीं देंगे। नफरत का गाना गाने नहीं देंगे। जहर फैलाने नहीं देंगे। हमें लगा कि आगे की कड़ियां हो सकती हैं खाट खड़ी कर देंगे/ खाट खड़ी नहीं करने देंगे, चाट खिला देंगे/ चाट खाने नहीं देंगे, परदा गिरा देंगे/परदा गिरने नहीं देंगे( यशपाल की कहानी परदा)। हमें तो एकबारगी यह भी लगा कि मोहल्ले वाले और धुरविरोधी कोई मैत्री मैच खेल रहे हैं। इधर से मोहल्ले वाले ने गेंद फेंकी नहीं उधर से धुरविरोधी ने गेंद के धुर्रे उड़ा दिये। अब स्ट्राइक बदलने के लिये इधर से अभिषेक भी जुट गये। इस चक्कर में प्रत्यक्षा के इरफ़ान को उदारता और इंसानियत का गीत टाइप बताकर किनारे कर दिया गया कि भाई जरा कुछ सनसनाता उदाहरण पेश करो जो जाति और धर्म बंटे आम हिंदुस्तानी का सच हो!
हम सोचे हम भी कुछ लिखें लेकिन लिखें क्या यह नहीं सोच पाये। क्या लिखें? न किसी मुसलमान भाई के यहां रोज का आना-जाना। ईद-मुबारक, बकरीद मुबारक के अलावा न कुछ बतियाना। न कभी दंगे में फंसे न कभी जलालत भोगे। न कभी किसी को मारा न मारे गये। क्या बतायें?
जो
हम बता रहे हैं वह जरूरी नहीं कि वह सबका सच हो। हमारा समाज विषम समाज है।
और जहां विषमता होती है वहां समाकलन गणित ( इंटीगरल कैलकुलस) के फार्मूले
नहीं चलते कि एक व्यक्ति के अनुभव को समाकलित (इंट्रीग्रेट) करके पूरे समाज
के बारे में राय जाहिर कर दी जाये।
पहले एक बात बता दें कि जो हम बता रहे हैं वह जरूरी नहीं कि वह सबका सच
हो। हमारा समाज विषम समाज है। और जहां विषमता होती है वहां समाकलन गणित (
इंटीगरल कैलकुलस) के फार्मूले नहीं चलते कि एक व्यक्ति के अनुभव को समाकलित
(इंट्रीग्रेट) करके पूरे समाज के बारे में राय जाहिर कर दी जाये कि चूंकि
यह हमारा सच है इसलिये यही सारे समाज का सच है। मैं अपने जीवन के कुछ अनुभव बताना चाहूंगा। इन अनुभवों से हो सकता है कि मैं अपनी बात कह सकूं।
सन १९९२ में बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी। पूरे भारत में तनाव था। लगभग पूरा उत्तर प्रदेश दंगे की चपेट में था। मैं उन दिनों शाहजहांपुर में पोस्टेड था। शाहजहांपुर में हिंदू-मुसलमानों की आबादी लगभग बराबर है। वहां दंगा नहीं हुआ। अब इसका पोस्टमार्टम करने को कोई करे कि चूंकि वहां मामला बराबरी का था इसलिये नहीं हुआ। ऐसा होता तो वैसा होता आदि। लेकिन यह सच है कि वहां एक भी दिन दंगा नहीं हुआ। और मेरी जानकारी में वहां अभी तक कोई दंगा नहीं हुआ।
हां, इसके लिये हमने बहुत मेहनत की। सबेरे छह बजे फैक्ट्री आ जाते थे। हर शाप में एक आफीसर तब तक रहता जब तक काम शुरू नहीं हो जाता। फिर एक-एक करके नाश्ता करने जाते। लेकिन पांच हजार लोगों के लिये बीस आदमी कोई चीज नहीं होते। अगर वे उतारू होते तो हमें भी निपटा देते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह संयोग था कि कम पढ़े-लिखे कामगारों में दंगा होने से रोकने के प्रयास में लगे सारे लोग मध्यमवर्गीय पढ़े-लिखे लोग थे।
इसीलिये सोचकर अचरज होता है गुजरात में हफ्तों दंगे होते रहे और प्रसाशन उसे ‘चाहने पर भी’ न रोक पाया।
शाहजहांपुर में होली के अवसर पर एक अजीब सी हरकत होती है। वहां होली के दिन जब रंग चलता है तो नवाब साहब का जुलूस निकलता है। किसी मुस्लिम को बैलगाड़ी में बैठाकर,खूब नशे में धुत करके उसे जूतों की माला पहना कर जुतियाते हुये पूरे शहर में घुमाते हैं। कहते हैं कि पुराने समय के किसी क्रूर नवाब के प्रति अपना रोष जाहिर करने के लिये यह शुरू हुआ था। बाद में तमाम आपत्तियां उठायी गयीं लेकिन परम्परा के नाम पर इसे अदालत की अनुमति से प्रशासन की देखरेख में हर साल जारी रखा जाता है।
होने को इसपर कभी भी दंगा हो सकता है लेकिन कभी हुआ नहीं। और अब तो लोगों ने इसे शायद बेहूदगी समझकर इससे कटना शुरू कर दिया है। शहर के चंदेक लोग जुलूस के साथ चलते हैं बस!
शाहजहांपुर की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है। फैक्ट्री परिसर में इसका आयोजन होता है। लोग बताते हैं सन १९६५ में वहां के जनरल मैनेजर एस.एन.गुप्ता हुआ करते थे। उनकी दिली इच्छा थी कि वहां रामलीला करायें। चूंकि काम फैक्ट्री के बाहर होना था इसलिये यह काम फैक्ट्री के संसाधन से नहीं हो सकता था। उन दिनों इधर का खर्चा उधर दिखाने का चलन नहीं शुरू नहीं था। अंतत: चंदा करके रामलीला का पक्का मंच बनवाने की बात तय हुयी। यह तय हुआ कि फैक्ट्री के सारे कर्मचारी चंदा करके मंच बनवायेंगे। इनमें हिंदू-मुसलमान दोनों शामिल थे।
लेकिन, जैसा कि लोग बताते हैं, न जाने क्या हुआ कि हिंदू नेता चंदा देने की बात से मुकर गये। इससे जनरल मैनेजर गुप्ताजी निराश हो गये। यह बात जब मुस्लिम नेता को पता चली तो वह उनसे बोला – हुजूरे आला, आप चिंता क्यों करते हैं। आपको हमने जबान दी है और आपकी मंशा पूरी होगी। जो आपने सोचा है वह पूरा होगा। वो पैसा नहीं देते हैं मत देने दीजिये हम हैं न! ( उन दिनों मैं हूं न! पिक्चर नहीं बनी थी)।
इसके बाद उस मुस्लिम नेता ने अपने तमाम साथियों से चंदा दिलाया। सारे शहर में चंदा किया और मंच बनवाने के काम में सहयोग करने का वायदा निभाया। अगले महीने मारे शरम के हिंदू नेताऒं ने भी चंदा जमा किया-कराया। कंधे-से-कंधा लगाकर रामलीला का मंच बनवाया।
मंच की नीव पर पहला फावड़ा उसी मुस्लिम नेता ने चलाया जिसने कहा था कि हुजूरे आला आप चिंता काहे करते हो? अभी हाल-फिलहाल तक रामलीला के तमाम पात्र मुस्लिम लोग निभाते हैं। दिन में फैक्ट्री गेट से प्रशासन के खिलाफ़ दहाड़ने वाला युवा नेता सुल्तान शाम को रामलीला में कुंभकरण का पार्ट करते हुये अटटहास लगाते दिखता रहा!
घटनायें
जब इतिहास/ स्मृतियों में दर्ज होती हैं तो उनमें भुनभुनाहटें/ कसमसाहटें
नहीं दर्ज नहीं होतीं। वहां सिर्फ़ यही रिकार्ड हो पाता है कि कौन डटा
रहा, कौन पलट गया।
ऐसा नहीं सहयोग कि करने वाले कुछ मुसलमान भुनभुनाये नहीं होंगे या
शुरुआती मना करते समय कुछ हिंदू कसमसाये नहीं होंगे। लेकिन घटनायें जब
इतिहास/ स्मृतियों में दर्ज होती हैं तो उनमें भुनभुनाहटें/ कसमसाहटें
नहीं दर्ज नहीं होतीं। वहां सिर्फ़ यही रिकार्ड हो पाता है कि कौन डटा रहा,
कौन पलट गया।शाहजहांपुर में ही हमें मिले थे हमारे फोरमैन अब्दुल नवी।
जब हम सन १९९२ में तबादलित होकर शाहजहांपुर पहुंचे तो हमें वहां का डिजाइन सेक्शन देखने को दिया गया। वहां सिलाई के लिये इस्टीमेट, पैटर्न, मार्स्डन ले वगैरह बनायी जातीं। हममें नयी-नयी चार साल की अफसरी का उत्साह था। पहले-पहले दिन हम गये सेक्शन तो हमने ये ऐसा क्यों वैसा क्यों शुरू किया तो नवी साहब हंसते हुये बोले- साहब, आप अभी दो साल देखिये, जानिये इसके बाद बताइयेगा कैसे करें।
हम भी मुस्करा दिये।
धीरे-धीरे हम नवी साहब के मुरीद होते चले गये। वे बहुत काबिल, अनुशासित थे। हंसते-हंसते अपना काम करते। जनरल मैनेजर तक उनके काम के मुरीद थे। काम के अलावा वे पक्के मुसलमान थे। पांचो वक्त नमाज पढ़ते। किसी से दबते नहीं थे लेकिन कभी ऊंची आवाज में बाद नहीं करते थे। उनका नारजगी जाहिर करने का अंदाज भी अनोखा था।
सन ६० से लेकर सन ८० तक देश में हुये कुल ३९४९ दंगों में कुल ५३० हिंदू मारे गये जबकि मरने वाले मुसलमानों की तादाद १५९८ थी।
एक बार उन्होंने कुछ काम कराया जिससे फैक्ट्री को लाखों का फायदा हुआ।
वे इनाम के हकदार थे। उनके बास ने जो कि संयोग से हमारे भी बास थे संकेत
दिया था कि नवी साहब को इनाम मिलेगा। लेकिन जब मेरे पास प्रस्ताव स्वीकृत
होकर आया तो उसमें से नवी साहब का नाम गायब था। चूंकि नवी साहब मेरे मातहत
थे इसलिये मेरा मन कुछ खिन्न था। लेकिन नवी साहब हंसते रहे। मेरे बास नवी
साहब के बहुत दिन से बास थे मैं नया-नया बीच में आया था इसलिये मुझे कुछ
समझ में भी नहीं आया था कि क्या करें। हमसे बतियाते हुये कुछ देर बाद नवी साहब को न जाने क्या सूझा वे मेरे हाथ से कागज लेकर सीधे जनरल मैनेजर के पास गये और पांच मिनट में इनाम की लिस्ट में अपने (और मेरे) बास का नाम जुड़वा के आ गये। ये उनका जवाब देने का अंदाज था!
जिसने उनको इनाम से वंचित किया उनको इनाम दिलवा कर नवी साहब मुस्करा रहे थे।
बाद में नवी साहब से मेल-मुलाकात बढ़ता गया, उनकी खूबियां पता चलती गयीं। वे पैसे से मजबूत थे, गरीबों की सहायता करते-करवाते रहते, पास की मस्जिद से भी जुड़े रहे लेकिन काम के वक्त उसका कोई जिक्र नहीं होता था।
एक दिन ऐसे ही बातचीत के दौरान पता चला कि उनको कुछ सीने में दर्द की शिकायत है। मैं उनको अस्पताल लेकर गया। पता चला कि उनका पहले से ही इलाज चल रहा था। मैंने उनको तमाम हिदायतें दे डालीं कि लापरवाही ठीक नहीं है, ख्याल रखना चाहिये। नवी साहब मुस्कराते रहे। उस दिन शनिवार था।
चलते-चलते मैंने कहा कल इतवार को फैक्ट्री चलेगी आप आइयेगा थोड़ी देर के लिये। नवी साहब चूंकि फोरमैन थे। उनको ओवरटाइम नहीं मिलता था इसलिये उनको आने की बाध्यता नहीं थी। लेकिन जब मैंने कहा आप आइये तो वे मुस्कराते हुये बोले अच्छा, आप कहते हैं तो आ जाउंगा आपके साथ चाय पीकर चला जाउंगा।
अगले दिन सबेरे फोन की घंटी बजी। फोन नवी साहब के घर से था। उनको दिल का दौरा पड़ा था। मैंने तुरन्त उनको अस्पताल में लाने को कहा और वहां पहुंचकर उनका इंतजार करने लगा। मैं यह सोच भी रहा था कि नवी साहब को हड़काउंगा, ‘ये कौन तरीका है आने का भाई?‘
लेकिन हमको उन्होंने कोई मौका नहीं दिया। अस्पताल पहुंचते-पहुंचते उनकी सांसे थम गयीं थीं। उस दिन मैं जिंदगी में पहली बार किसी की मौत पर रोया। वह मेरे जीवन का ऐसा वाकया था कि जब याद करता हूं आंसू आ जाते हैं।
हर
समाज की अपनी कुछ समस्यायें होती हैं वैसे ही मुस्लिम समाज की भी हैं,
हिंदू समाज की भी हैं। न पूरी की पूरी मुस्लिम कौन गद्दार है न सारे के
सारे हिंदू दूध के धुले हैं।
इसके बाद मेरे पिता गये, मेरे गुरूजी नहीं रहे, न जाने कितने बुजुर्ग,
जवान, रिश्तेदार ,दोस्त चले गये। उनकी कमी खलती है, उदास हो जाता हूं उनके
बारे में सोचकर लेकिन कभी भी उनकी मौत पर मेरे आंसू नहीं निकले।नवी साहब के बारे में बाद में और तमाम अच्छाइयां लोगों ने बताईं जिससे उनकी और शिद्दत से याद आती रही। उनके जाने पर दुख की मैं इसलिये नहीं बयान कर रहा कि मुझे कोई कौमी एकता का इनाम मिल जायेगा। मैं सिर्फ़ यह बताना चाह रहा हूं कि अपनी जिंदगी के महज एकाध साल के संग ने जिस आदमी ने
मेरे दिल में इतना गहरा असर डाला कि अब भी उसकी याद से मन उदास हो जाता है वह संयोग से पक्का मुसलमान था।
मैंने बहुत कुछ पढ़ रखा है मुसलमानों के बारे में, हिंदुओं के बारे में। राही मासूम रजा की आधा गांव के पात्र जैसे जिन्ना के बारे में बतियाते हैं उससे इस सबके पीछे की सियासत अंदाजा लगता है। अब्दुल बिस्मिल्लाह की किताब झीनी-झीनी बीनी चदरिया और शानी के उपन्यास काला जल से मुस्लिम समाज का कुछ अंदाजा लगता है। हर समाज की अपनी कुछ समस्यायें होती हैं वैसे ही मुस्लिम समाज की भी हैं, हिंदू समाज की भी हैं। न पूरी की पूरी मुस्लिम कौन गद्दार है न सारे के सारे हिंदू दूध के धुले हैं। ‘अल्लाहो अकबर’या ‘हरहरमहादेव’ का नारा लगाने वाला आम हिंदू या मुसलमान कभी किसी दूसरे धर्म के आम आदमी की जान नहीं लेना चाहता। वे कोई दूसरे ही लोग होते हैं जो धर्म के नाम पर आदमी को मार देते हैं। वे हैवान होते हैं, वहशी होते हैं। हैवानों और वहशियों का कोई धर्म नहीं होता। ऐसे हैवानों के लिये ही हरिशंकर परसाई जी ने लिखा है -वे पानी तो छानकर पीते हैं लेकिन आदमी का खून बिना छाने पी जाते हैं।
आम
हिंदू या मुसलमान कभी किसी दूसरे धर्म के आम आदमी की जान नहीं लेना चाहता।
वे कोई दूसरे ही लोग होते हैं जो धर्म के नाम पर आदमी को मार देते हैं। वे
हैवान होते हैं, वहशी होते हैं। हैवानों और वहशियों का कोई धर्म नहीं
होता।
यह लिखते हुये मैं यह साबित नहीं करना चाहता कि सारे मुसलमान लोग बहुत
अच्छे होते हैं या कुल हिंदू बहुत खराब! मेरा कहना सिर्फ़ यह है कि :-साम्प्रदायिकता किसी कौम की बपौती नहीं है। साम्प्रदायिक हिंदू जितने खतरनाक हो सकते हैं मुसलमान भी उससे कम वहसी नहीं होते होंगे। लेकिन यह सच सबसे बड़ा सच है कि न आम हिंदू साम्प्रदायिक होता है और न ही आम मुसलमान किसी हिंदू की जान का प्यासा होता है। दोनों समुदायों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास का कारण इनके बीच की दूरिया हैं और आपस में परस्पर मेल जोल का न होना इस खाई को चौड़ा करता रहता है।
हिंदू समाज से जुड़ा होने के नाते मुझे यह लगता है कि हिंदुओं में यह आम धारणा है कि दंगा मुसलमान फैलाते हैं। वे लोग इकट्ठा होकर हिदुऒं को मार डालते हैं। यह एक मिथक है जो गलत है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन ६० से लेकर सन ८० तक देश में हुये कुल ३९४९ दंगों में कुल ५३० हिंदू मारे गये जबकि मरने वाले मुसलमानों की तादाद १५९८ थी। मतलब लगभग तीन गुने मुसलमान मारे गये। ये आंकड़े सरकारी हैं और पुलिस विभाग द्वारा जारी किये गये हैं जहां कि मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं।
उपरोक्त आंकड़े अपनी शोध पुस्तिका सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस में जारी पेश करते हुये १९७५ से पुलिस विभाग में अधिकारी रहे विभूति नारायण राय ने दंगों के मनोविज्ञान के बारे में लिखा है-
ये तथ्य किसी भी तरह गोपनीय नहीं हैं। विशेष रूप से उर्दू प्रेस हर दंगे के बाद मुसलमानों के साथ ज्यादती की खबर छापता है। कई बार ये खबरें अतिरंजित होती हैं, लेकिन इनका मूल सदेश तो मुसलमानों तक पहुंच ही जाता है कि अगर दंगा होगा तो उसमेअम मुसलमान ही मुख्य रूप से मारे जायेंगे, उन्हीं के घरों की तलासियां होंगी और उन्हें ही गिरफ़्तार किया जायेगा। इसके बाद भी अगर मुसलमान दंगा शुरू करते हैं तो इस धारणा के पीछे कई तरह के निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। सबसे पहले तो यही मानना होगा कि इस धारणा में कहीं न कहीं बुनियादी गलती है। कोई भी समुदाय,जब तक उसमें सामूहिक आत्महत्या की प्रवृत्ति न हो या वह पूरी तरह पागल न हो, अपनी क्षति के बारे में आश्वस्त होने के बावजूद दंगा क्यों शुरू करेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि एक डरा हुआ समुदाय पहले हाथ उठाकर पूरे तंत्र के प्रति अपने अविश्वास और गुस्से का इजहार कर रहा हो? साथ ही हमें दंगों की शुरुआत के बारे में यह भी तय करना होगा कि क्या किसी दंगे का प्रारंभ वास्तव में तभी माना जाना चाहिये, जब वह प्रत्यक्षत: शुरू हुआ।मुझे तो लगता है कि सच तो यह है कि सांप्रदायिकता किसी समुदाय में नहीं वरन व्यक्ति में होती है। कोई मुसलमान सांप्रदायिक जब हिंदुओं से निपट लेगा तो वो अपने यहां शिया-सुन्नी, अंसारी- सैयद के दंगे में मशगूल हो जायेगा। वहीं फितरती हिंदू, मुसल्लों की वाट लगाने के बाद अगड़े-पिछड़े , ठाकुर- ब्राह्मण, सोलह बिसवा-बीस बिसवा, के त्रिशूल लहराने लगता है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है।
दुनिया में बहुत लफड़े होते हैं। तमाम घटनायें ऐसी होती हैं जो दिल दहला देती हैं। सांप्रदायिक दंगों के दौरान हैवानियन अपने चरम पर होती है। इनका हम बढ़ा-चढ़ाकर गाना गाते हैं और इंसानियत की हत्या पर टसुये बहाते हैं। लेकिन इसी समय में ऐसी तमाम घटनायें भी घटती हैं जिनसे लगता है कि इंसानियत जिंदा है लेकिन हम उनका नोटिस नहीं लेते क्योंकि वह सनसनीखेज नहीं होती।
किसी भी घटना को देखने के पीछे देखने वाले के नजरिये की सबसे मुख्य भूमिका होती है। किसी से आंख मिलने पर कोई हो सकता है उसकी आंख निकाल लेने
पर आमादा हो जाये और उसी घटना का शिकार कोई दूसरा गुनगुनाने लगे -नैन लड़ जैहैं तो मनवा मां कसक हुइबै करी!।
कानपुर एक दंगा प्रधान शहर है। यहां पिछले दिनों एक दंगा होते-होते रह गया। इसमें मुस्लिम परिवार का लड़का मारा गया था। दोनों समुदाय के लोग दंगा करने पर उतारू थे। दिन भर मोहल्ले के लोग दंगा टालने के लिये कोशिशे करते रहे। अंत में बुजुर्ग ने जिसका लड़का मारा गया था लोगों से अनुरोध किया – मैं अपना इकलौता बेटा खो चुका हूं। वह तो चला गया और किसी और की मौत से तो वापस आ नहीं जायेगा। अब मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि अब जो हो गया सो हो गया लेकिन अब किसी और के घर का चिराग बुझाने का कोई काम न करो।
दंगे पर आमादा लोग चुपचाप अपने-अपने घर चले गये। एक अकेले बुजुर्ग बाप ने अकेले एक संभावित दंगे की ‘वाट‘ लगा दी। अखबार में इस घटना की केवल एक दिन चर्चा हुयी। मीडिया में कोई जिकर नहीं हुआ। होता कैसे न उसमें सचिन/सहवाग के शतक जैसी चमक थी न ऐश्वर्या-अभिषेक जैसी सनसनाती सेक्सी अपील!
अपने
देश में तमाम समस्यायें हैं। गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या, बेरोजगारी,
भ्रष्टाचार, सम्प्रदायवाद, जाति वाद,भाई भतीजा वाद। कौन किसके कारण है कहना
मुश्किल है। मुझे तो लगता है कि सब एक दूसरे की बाइप्रोडक्ट हैं। इनका
रोना रोते-रोते तो आंख फूट जायेगी।
अपने देश में तमाम समस्यायें हैं। गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या, बेरोजगारी,
भ्रष्टाचार, सम्प्रदायवाद, जाति वाद,भाई भतीजा वाद। कौन किसके कारण है
कहना मुश्किल है। मुझे तो लगता है कि सब एक दूसरे की बाइप्रोडक्ट हैं। इनका
रोना रोते-रोते तो आंख फूट जायेगी। कोई फायदा भी नहीं रोने से। हो सके तो
अपनी ताकत भर जहां हैं जैसे हैं वैसे इनसे निपटने की कोशिश करते रहें बस
यही बहुत है।भले ही आपको ये मेरी कूपमंडूकता लगे लेकिन मुझे वे कवितायें /शेर बहुत पसंद हैं जो आदमी को जोड़ने की कोशिश करते हैं। राकेश खंडेलवाल कहते हैं:-
दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में
ढूंढ रहे हो सूरज को तुम अंधियारे तहखानों में
कानपुर के गीतकार अंसार कंबरी लिखते हैं:-
शायर हूं कोई ताजा गजल सोच रहा हूं
मस्जिद में पुजारी हो मंदिर में मौलवी
ऐसी ही कोई नई जुगत सोच रहा हूं।
इसी लहजे में हमारे समीरलालजी कहते हैं:-
रिश्तों मे दरार डालती
सियासी ये किताबें हैं
ईद के इस मौके पे इनकी
होली आज जला दी जाये.
भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद हिंदू-मुसलमान की एकता की आवश्यकता पर अपने भाव व्यक्त करते हुये गीतकार स्व. रमानाथ अवस्थी ने कविता पढ़ी थी:-
धरती तो बंट जायेगी लेकिन
उस नील गगन का क्या होगा
हम तुम ऐसे बिछड़ेंगे तो
महामिलन का क्या होगा?
अपने देश-प्रदेश, गली-मोहल्ले के लोग हिंदू-मुसलमान की वाट लगाने ,एक दूसरे को धूल चटाने की बातें माइकोफोन लगाकर सुनेंगे और माइक्रोस्कोप से देखेंगे तो हिंदुस्तान का क्या होगा?
मेरी पसंद
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों,मोती व्यर्थ लुटाने वालों!गोपाल दास नीरज
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है!
सपना क्या है? नयन सेज पर सोया हुआ आंख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी।
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों!
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता।
माला बिखर गयी तो क्या है खुद ही हल हो गयी समस्या,
आंसू गर नीलाम हुये तो समझो पूरी हुई तपस्या।
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज सिलाने वालों
कुछ दीपों के मर जाने से आंगन नहीं मरा करता।
खोता कुछ भी नहीं यहां पर केवल जिल्द बदलती पोथी,
जैसे रात उतार चांदनी , पहने सुबह धूप की धोती।
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चंद खिलौनों के खो जाने से बचपन नहीं मरा नहीं करता।
कितनी बार गगरियां फूटीं शिकन न आई पनघट पर,
कितनी बार किश्तियां डूबीं चहल-पहल वही है तट पर।
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता।
लूट लिया माली ने उपवन लुटी न लेकिन गंध फूल की
तूफानों तक ने छेड़ा पर खिड़की बन्द न हुयी धूल की।
नफरत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पन नहीं मरा करता!
Posted in बस यूं ही | 33 Responses
Lot of nonsense and also good-intentioned ranting on this issue has occupied the blogs recently. Mostly personal experiences of anger, frustration, unstudied and unfounded notions of the ‘other’ guy as also replies to these which are founded on correctness, humanism, etc. but each of these in a very narrow way; strictly maintaining aloofness from the emotional individual whose world cannot be neatly classified in terms of interactions with various communities, and experiences thereof.
This post is a lesson in how to be a human being while writing on such issues and then also a lesson at being honest with your experiences, i.e., not explaining away that which does not fit your prejudices through artificially conjured factors.
Also, a very touching piece. While the tone of the various posts on this issue on other blogs were disturbing, to say the least, I am sure if all those people read this post, they will be able to recollect beautiful memories and experiences of their own regarding their interaction with individuals (some of whom might have belonged to different communities). It is well nigh impossible to interact with community. We talk to individuals, them we hear; individuals we hate or love, not the community; and, if we claim to be humans (or, at least consider that as our foremost identity) then we interact with human beings.
Thanks for this post. One of the best I have ever read. And thanks for that very beautiful verse at the end too.
कभी, किसी ने, कईयों ने दूसरों के साथ दुर्व्यवहार किया है तो इसका व्यापक अर्थ निकालना ठीक नहीं।
मुझे तो लगता है कि सच तो यह है कि सांप्रदायिकता किसी समुदाय में नहीं वरन व्यक्ति में होती है। कोई मुसलमान सांप्रदायिक जब हिंदुओं से निपट लेगा तो वो अपने यहां शिया-सुन्नी, अंसारी- सैयद के दंगे में मशगूल हो जायेगा। वहीं फितरती हिंदू, मुसल्लों की वाट लगाने के बाद अगड़े-पिछड़े , ठाकुर- ब्राह्मण, सोलह बिसवा-बीस बिसवा, के त्रिशूल लहराने लगता है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है।
-बहुत सजग प्रस्तुति. बधाई.
अपनी एक पुरानी रचना याद आती है:
मंदिर से अज़ान
http://udantashtari.blogspot.com/2006/04/blog-post_14.html
उम्मीद करता हूँ कि हम अपनी इस आदत के बारे में सोचें और स्वयं आकलन करें कि हम प्रतिदिन एसी गलती कितनी बार करते हैं।
एक बार श्रीकृष्ण जी ने युधिष्ठिर और दुर्योधन को भेजा कि जाओ नगर में पता करो कि कौन कौन सज्जन और कौन कौन दुर्जन हैं। दुर्योधन आया और बोला कि नगर में सब दुर्जन हैं दुष्ट हैं मुझे तो एक भी भला आदमी नहीं मिला। फिर युधिष्ठिर आए और बोले भगवन सभी लोग बहुत भले हैं सज्जन हैं मुझे तो कोई दुर्जन नहीं दिखा।
यदि इरफान पुराण पर अविनाश के भागवत आयोजन का इतिहास होगा तो तय मानिए बाकी सब भुनभुनाहट ही है, इतिहास आपने ही रचा है। सौभाग्य से चिट्ठाकारी में ये नहीं कहना पड़ता कि ‘संग्रहणीय है…’ क्योंकि ये तो हो गया दर्ज और रहेगा हम रहें न रहें।
समस्याग्रस्त हर नागरिक है, मात्र इरफान नहीं. फिर शिकायत कैसी? आओ मिल कर भारत बनाएं.
दीवाली में अली बसें और राम बसें रमज़ान में,
ऐसा ही हो आने वाला कल अब हिंदुस्तान में।
काश, सचमुच में ऐसा पूरे देश में हो जाए तो मज़ा आ जाए।
लेख जबरदस्त है, बिल्कुल एक नम्बर।
“मुझे तो लगता है कि सच तो यह है कि सांप्रदायिकता किसी समुदाय में नहीं वरन व्यक्ति में होती है।” – आपके इस कथन के संदर्भ में मैं बस यह कहना चाहूंगा कि
सांप्रदायिकता, वैमनस्य,नफरत और हिंसा जैसी भावनाएँ भले ही व्यक्तियों में हो, लेकिन फूटती वे भीड़ (समुदाय) में ही हैं, अकेले में नहीं। भीड़ का चेहरा चूंकि पहचान में नहीं आता है, इसलिए दंगे भीड़ के द्वारा ही किए जाते हैं।
चाचु, आपकी इस बात से मै पुर्णतः सहमत हुँ.
लेकिन अपनी बात पर कायम भी हुँ कि दुःखी, शोषित, पिडीत सिर्फ मुसलमान नही है।
उन्हें आपके नबी साहब भी घरेलू किस्म के ही लगेंगे, और जो मुसलमान हिन्दू को ना धिक्कारे उसको मुसलमान भी माने या नहीं यह उनकी मर्जी पर निर्भर करता है। इनकी नजरों में मुसलमान सिर्फ इनके इरफान और फ़रदीन ही है बाकी सब को पता नहीं ये क्या मानते हैं।
बड़े दुख: की बात है कि फुरसतियाजी और धुरविरोधीजी को अपनी उर्जा इन मसलों पर व्यर्थ करनी पड़ रही है।
मोहब्बत का गला है
फ़रमाइये ये कौन से मज़हब में रवा है ?-नज़ीर बनारसी
हमने जो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर
गंगा तेरे पानी से वजू कर करके ।-नज़ीर बनारसी
अनूप,आभार।
इस तरह की बहसें होती रहनी चाहियें।
कुछ तो समस्या है कि दंगे होते हैं बार बार। किसी में तो कमी है। हम सब अच्छे अच्छे उदाहरण देते हैं, सब अच्छे हैं तो फिर वो कौन हैं जो बम चलाते हैं?
कहीं दिलों में जख्म छिपे हुए हैं जिनमें मवाद भरे हैं, इरफान ने उसी जख्म को नंगा कर के दिखा दिया।
@राजीवजी कभी अपनी रजत जयंती मना चुकी कहानी सुनायें!
@समीरलालजी, आपकी कविता-पंक्तियों का उल्लेख लेख में कर दिया। साभार!
@मैथिलीजी,यह लेख हमने धुरविरोधीजी और उसके पहले प्रत्यक्षाजी की बात आगे बढा़ने के लिये लिखा। वे लोग शुरुआत न करते तो शायद हम लिख भी न पाते।
@मसिजीवीजी,आपकी टिप्पणी से तो हम निहाल हो गये।
@संजय बेंगाणी, चलो नया भारत बना ही डालते हैं!
@प्रियंकरजी, बस एक बार बहुत है वाह!
@सृजन शिल्पी, यह सही है कि भीड़ की मानसिकता अकेले की मानसिकता से अलग होती है। लेकिन भीड़-भीड़ में भी अन्तर होता है। यह अन्तर इस बात पर निर्भर करता है कि भीड़ में शामिल लोग अकेले में कैसे व्यवहार करते हैं।
@पंकज बेंगाणी, यह सही है कि दुःखी, शोषित, पीड़ित सिर्फ मुसलमान नही है। इसपर तो नरेन्द्र मोदीजी का डायलाग है न- गरीबी धर्म देखकर नहीं आती।
@सागर, अरे यह तो ऊर्जा का सदुपयोग हो रहा है। बाइ दे वे लेख पसन्द करने के लिये शुक्रिया!:)
@अफलातूनजी, नजीर बनारसी की और कवितायें पोस्ट करते रहें!
@जगदीशजी, यह सच है कि दंगे अक्सर होते हैं और अब तो हम इनके आदी से हो गये हैं! कारण हमें अपने में खोजने होंगे!
छंद भी निश-प्राण धरा पर मूक खड़े हैं।
भाव लगते हैं विराट सिन्धु से…..(मृग-त्रिशणा है किन्तु)
अभिव्यक्ति के प्रयास, सभी विफल हुये हैं
फ़िर भी एक सोपान मैं पुन: चढ़ूँगा
आप की लेखनी की जय जय करूँगा….
आप की लेखनी की जय जय करूँगा….
वाकई आप बहुत अच्छा लिखते हैं| एक एक कर के आप के सभी पोस्ट पढ़ रहा हूँ| कई बार टिप्पणी करने का मन हुआ लेकिन रह जाता है| अभी लेकिन गूगल transliterator खुला ही हुआ है तो सोचा टिप्पणिया दिया जाये|
आपकी बात सही है, दंगा इत्यादि राजनैतिक ही होते हैं| लेकिन आपने जो सरकारी आंकड़े दिए वह सही नहीं हैं| भारत में आज़ादी के समय से ही मुस्लिम तुष्टिकरण रहा है (आप शायद न माने, लेकिन कोई नहीं) और दंगो की संख्या तोड़ मोड़ कर दी जाती है| मैंने सरकारी नौकरी में खुद देखा है| यकीन नहीं तो शरद पवार के उस बयान को देखें, जहाँ उन्होंने कबूला की बम ब्लास्ट के समय उन्होंने जन-बूझ कर मुस्लिम इलाकों के नाम भी जोड़ दिए थे की वहां भी ब्लास्ट हुए हैं|
खैर, प्रमुख बात तो सिर्फ यही है की अगर आदमी दुसरे के धर्म, रीति आदि का सम्मान करे तो सब ठीक रहेगा| लेकिन शायद वही सबसे मुश्किल बात है|
…और अगर मज़हब/धर्म का बहाना न हो तो पैसा, बेवफाई, धोखा, फरेब या पागलपन आदि कोई भी बहाना लेकर और अक्सर बे-बहाना भी मार देते हैं.
बहुत अच्छा आलेख+संस्मरण!
इसे पढना अच्छा रहा। आपके बारे में और बातें पता चलीं