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आइये घाटा पूरा करें और सुखी हो जायें
By फ़ुरसतिया on January 31, 2009
पिछली पोस्ट में प्रशान्त प्रियदर्शी हमारे टोटल टाइम वेस्ट से दुखी से हो गये और ऐसन टिपियाये:
हद है भाई.. आप अपना टाइम बर्बाद किये तो किये.. अब फिर से आप सोचिये.. ई अल्ल-बल्ल जो लिखे हैं उसे केतना आदमी पढेगा.. चलिए मान लेते हैं कि कम से कम १०० आदमी पढेगा.. एतना लंबा लिखे हैं कि सब कोई कम से कम 10 मिनट तो पढ़बे करेगा ना? कम से कम १० आदमी हमरे जैसन लम्बा-लम्बा टिपियायेगा.. जिसमे फिर से १० मिनट मान लीजिये.. तो केतना हुआ?
(10×100)+(10*10)=1000+100=1100
अब ई मिनटवा को घंटवा में बदलते हैं..
1100/60=18.33
अब एक आदमी एक दिन में औसत ८ घंटा काम करता है.. सो इसको ८ से भागा देते हैं..
18.33/8=2.29
एक बिलोगर का एक पोस्ट २.२९ आदमी के बराबर काम का हर्जा करता है तो सोचिये कि एतना पोस्ट हर दिन पोस्ट होता है, ऊ केतना हर्जा करता होगा?
हम तो कहते हैं कि खाली ई बिलोगर्वा के चलते भारत में आर्थिक संकट है.. सब कोई पोस्ट पढ़े लिखे में मस्त है.. कोई काम धाम करता नहीं है.. तो और का होगा?
तो हमें अपना एक ठो लेख याद आ गया जिसे हम काफ़ी पहिले लिखे थे। इसी में समय की बरबादी को सही ठहराने और घाटा-पूर्ति के सूत्र छिपे हैं। सो प्रशान्त प्रियदर्शी के सवाल के जबाब में ये लाइन आफ़ एक्शन देखा जाये। बतायें कि अगर ये स्वीकार हो तो इसी लाइन पर समय की बरबादी को सही ठहराने के उपाय बतायें जायें।
उधर ज्ञानजी भी लिखे हैं:हम तो पहले ही उदास हैं। कोई खुश होने का आवाहन करती पोस्ट लिखें।
उदासी ज्ञानजी की कोर-कम्पीटेंशी है। जब देखो तब उदास हो जाते हैं। बहुत खुश होंगे तब भी उदास हो जायेंगे -हाय, ये खुशी दुबारा न जाने कब फ़िर मिलेगी। ये कविता देखिये न जहां कवि कहता है- फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो, शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना। अब बताओ इत्ते पर भी दुखी हों तो क्या किया जाये? अच्छा आज वाली कविता बांचियेगा शायद ज्ञान की बात दुख कुछ कम करे।
फैक्ट्री से मिलने वाली कुछ परम्परागत सुविधाऒं से वंचित रह गये आडिट आफीसर की निगाहें एक वर्ष पुराने एक आदेश को देखकर चमक उठीं। कपड़े पहने-पहने ही उन्होंने यूरेका, यूरेका ( पा लिया, पा लिया) कहा और उस आदेश को दुबारा-तिबारा पढ़ा। इसके बाद एक बार आंखों से चिपकाकर और एक बार आंखों से ओझल-दूरी तक ले जाकर पढ़ा। उस आदेश में लिखा था-
इस फैक्ट्री की दीवारें और फर्श देखकर साफ पता चलता है कि यहां थू-थू की पुरानी परम्परा है। गत वर्ष यहां कार्य स्थल के आस-पास थूकते हुये पाये जाने पर पांच रुपये का जुर्माना किये जाने का आदेश किया गया था। जबकि चारो तरफ़ देखकर यह साफ पता चलता है कि यहां कार्य-स्थल के आस-पास थूकने की परम्परा काफ़ी पुरानी है। अत: थूकने पर ज्रुर्माना लगाने का आदेश पहले न किया जाना फैक्ट्री के राजकोष में हानि का कारण रहा। यदि माना जाये कि फैक्ट्री के एक चौथाई कर्मचारियों को कार्यस्थल के आस-पास औसतन दिन में दस बार थूकने की आदत है तो थूकने पर जुर्माना न किये जाने का एक वर्ष का राजकोषीय घाटा निम्नवत होगा:-
कर्मचारियों की औसत प्रतिदिन उपस्थिति- 6000
प्रतिदिन थूकने वाले कर्मचारियों की औसत संख्या-6000×1/4= 1500
औसतन दस बार थूकने पर प्रति कर्मचारी प्रतिदिन जुर्माना राशि- 10×5= 50/- रुपये
फैक्ट्री के कर्मचारियों पर प्रतिदिन कुल जुर्माना राशि – 1500x 50= 75,000/- रुपये
प्रतिवर्ष कुल जुर्माना राशि (300 कार्य दिवस) -75,000x 300= 2,25,000,00/- रुपये= 2.25 करोड़ रुपये
उपरोक्त गणना से स्पष्ट है कि यह फैक्ट्री आर्ड्रर पहले न करके 2.25 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष की राजकोषीय आय की सम्भावना को क्षीण किया गया। थूकने पर जुर्माने से सम्बन्धित आदेश होने के बाद भी गत वर्ष थूकने के कारण लगाये गये जुर्माने का कोई धन खजाने में नहीं जमा कराया गया जबकि कारखाने की दीवारें और फर्श पर्याप्त रंगे हुये हैं। ऐसी रंगाई या तो कलात्मक पेंटिंग से सम्भव है या श्रद्धापूर्वक थूकने से। यदि यह कार्य (रंगाई) कलात्मक पेंटिग से कराई गयी तो उसका भुगतान किस मद से कराया गया? उसका अनुमोदन कहां है? अनुमोदन यदि है तो उसे अवलोकनार्थ प्रस्तुत किया जाये। यदि ऐसा थुकाई से सम्भव हुआ तो उसका जुर्माना क्यों नहीं कराया गया? इस सन्दर्भ में निम्न बिन्दुऒं के जवाब अविलम्ब प्रस्तुत किये जायें-
१. थूकने पर जुर्माना जमा न किये जाने पर राजकोषीय घाटे की गणना सही है? कृपया पुष्टि करें।
२.कारखाने की दीवारों/ फर्शों की रंगाई कलात्मक पेंटिंग से हुई या श्रद्धापूर्वक थूकने से? यदि थूकने हुई तो थूकने वालों से जुर्माना क्यों नहीं वसूल किया गया?
३.कार्यस्थल के आस-पास थूकने पर जुर्माना किये जाने का आर्डर होने के बाद थूकने की दर में क्या परिवर्तन हुआ? थूकने की दर कम हुई याअ बढ़ी?
४. गत वर्ष जुर्माना जमा न कराये जाने का राजकोषीय घाटा किस तरह पूरा किये जाने की योजना है?
५. यह नियम पहले क्यों नहीं लागू किया गया? यदि यह नियम दस वर्ष पहले लागू किया जाता तो अब तक 22.50 करोड़ रुपये राजकोष में जमा हो गये होते।
यह आपत्ति पत्र पाते ही कारखाने के मैनेजर ने सबसे पहले उस अधिकारी की लानत-मलानत की जिसके जिम्मे आडिट आधिकारी की देखभाल का जिम्मा था। डांटने-फटकारने के बाद उससे सारे ब्योरे लेने के बाद यह समझने का प्रयास किया कि किन सुविधाऒं की कमी होने के कारण आडिट अधिकारी ने आपत्ति पत्र बनाने में इतनी मेहनत कर डाली। उन सुविधाऒं को आडिट अधिकारी को प्रदान किया गया। इसके बाद आपत्ति पत्र के जबाव बनाने के लिये एक अनुभवी आधिकारी को लगा दिया गया।
अधिकारी ने सबसे पहला जवाब लिखते हुये लिखा- ये आपत्तियां इस विभाग से सम्बंधित नहीं हैं। इसके बाद आडिट आधिकारी से पूछ कर बिन्दुवार जवाब भेजे गये। बिन्दुवार जवाब निम्नवत थे-
१. प्रति कर्मचारी प्रतिदिन थूकने की संख्या पांच से पचास तक परिवर्तित होती रहती है। परन्तु कार्यस्थल के आसपास थूकने वाले कर्मचारियों का औसत दस ही बैठता है। रात्रि पाली में एक बार सो जाने पर सिर्फ़ थूकने के लिये उठने की परम्परा नहीं है। परन्तु इससे औसत में कोई फर्क नहीं पड़ता। अत: पुष्टि की जाती है कि थूकने पर जुर्माना जमा न किये जाने पर राजकोषीय घाटे की गणना सही है। हालांकि इस सन्दर्भ में यह विचार भी उल्लेखनीय है कि यदि जुर्माना जमा कराया जाता तो प्रति कर्मचारी थूकने का औसत तथा थूकने वाले कर्मचारियों की संख्या में भारी कमी हो जाती।
२. दीवारों/फर्श की रंगाई श्रद्धापूर्वक थूकने से हुई है न कि कलात्मक पेंटिग से। थूकने वालों से जुर्माना वसूल न कर पाने का मुख्य कारण कर्मचारी भाइयों में आपसी एकता और भाईचारा रहा। एक चौथाई लोग थूकने का और तीन चौथाई लोग देखने का मजा लेते रहे। एक चौथाई सक्रिय रहे और तीन चौथाई निष्क्रिय। जुर्माना वसूल न कर पाने का तकनीकी कारण भी रहा। थूकने वालों की सुविधा एवं कार्यस्थल की साफ-सफाई के लिहाज से हर बेंच के पास एक ‘डस्टबिन’ रखवाया गया था। लेकिन ‘कर्म ही पूजा’ मानने वाले लोग पूजा करते-करते ही डस्ट बिन में थूकते रहे। तमाम लोग पान-मसाला खाते थे। इससे दीवारें तथा फर्श रंग गयीं। पकड़े जाने पर थूकने वालों ने अपने बचाव में तर्क पेश किया- साहब, जब एक फुट दूरी से सिलाई करते हैं तो एक-दो सेमी सिलाई इधर-उधर हो जाने पर कोई टोंकता नहीं है। जब हमें एक फुट दूर से सिलाई करने पर एक सेमी मार्जिन (छूट) मिलता है तो पांच-दस फीट की दूरी से थूकने पर कम से कम एकाध फीट का मार्जिन तो मिलना ही चाहिये। खासकर तब जबकि हम सिलाई मजबूरी में आंख खोलकर करते हैं जबकि थुकाई आख मींचकर (आनन्दातिरेक में) करते हैं। और साहब यह हमसे नहीं हो सकता कि सिर्फ़ थूकने के लिये डस्टबिन तक जायें। नहीं तो हमें थूकने का रेट (मजदूरी) दीजिये, हम थूकने लगेंगे डस्टबिन में। तार्किक दृष्टि से यह बात सही थी अत: हमें सारे केस उसी तरह छोड़ देने पड़े जिस तरह सबेरे किसी दंबग दरोगा द्वारा हवालात में बंद किया गया कोई छुटभैया अपराधी शाम तक किसी मंत्री का आदमी निकल जाने पर छोड़ दिया जाता है। क्या करें, करना पड़ता है!
३. थूकने पर जुर्माना लगाने का आदेश किये जाने के बाद ऐसा देखा गया है कि कुछ लोग तो जुर्माने के डर से अपना थूक गटकने लगे वहीं कुछ लोग इस मामले में ज्यादा उदार हो गये। थूक गटकने वाले सोचते हैं कि इस तरह वे जुर्माने के पैसे बचा रहे हैं। वहीं ज्यादा थूकने वालों का विचार है कि थूकने के बावजूद जुर्माना न देकर वे अपनी कमाई बढ़ा रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर देखा जाये तो थूकने पर जुर्माना करने का आदेश होने से थूकने की औसत दर में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है। सिर्फ़ पहले के निर्लिप्त प्रयास के साथ बचत/कमाई की भावना जुड़ गयी है।
४.गतवर्ष का राजकोषीय घाटा, इस वर्ष गत वर्ष की तुलना में दोगुने लोगों थूकने के लिये प्रोत्साहित करके उनसे जुर्माना वसूल करके पूरा करने का विचार है। विचार यह भी है कि थूक कर इस तरह कलात्मक रंगाई की कला को पेटेंट करा लिया जाये। फिर दुनिया में जहां भी को इस तरह दीवाल/फर्श पर थूकते पाया जाया उससे तड़ से पेटेंट के कानून के अनुसार थूकने की फीस वसूल ली जाये। विचार यह भी है कि रंगी दीवारों और फर्श की आर्ट गैलरी की तरह प्रदर्शनी की जाये। इस तरह हुयी आमदनी से राजकोष का घाटा पूरा किये जाने की योजना है।
५. पहले यह नियम यही सोचकर नहीं बनाया/लागू किया गया था कि इससे इसी तरह के फालतू के सवाल उठेंगे। वही हुआ भी।
आशा है आप हमारे इन जवाबों से सन्तुष्ट होंगे और सारी आपत्तियां निरस्त कर देंगे।
चूंकि जवाब आडिट आफीसर से ही विचार-विमर्श करके तैयार किये गये थे तथा इस बीच आडिट आफीसर को वे सभी बाजिव-गैरबाजिब सुविधायें प्रदान की जा चुकीं थी जिनके अभाव में उन्होंने आपत्तियां उठाईं थी, लिहाजा आडिट अफसर इन जवाबों से संतुष्ट हो गये। फैक्ट्री की तरफ़ से भी गत वर्ष का राजकोषीय घाटा पूरा करने की योजना पर पूरी श्रद्धा पूर्वक अमल हो रहा है। दीवारों/फर्शों की रंगाई दोगुनी रफ़्तार से जारी है।
आइये घाटा पूरा करने के इस यज्ञ में आप भी अपनी आहुति दें।
मेरी पसन्द
डोम मणिकर्णिका से अक्सर कहता है,
दु:खी मत होऒ
मणिकर्णिका,
दु:ख तुम्हें शोभा नहीं देता
ऐसे भी श्मशान हैं
जहां एक भी शव नहीं आता
आता भी है,
तो गंगा में नहलाया नहीं जाता।
डोम् इसके सिवा कह भी
क्या सकता है,
एक अकेला
डोम ही तो है
मणिकर्णिका में अकेले
रह सकता है।
दु:खी मत होऒ, मणिकर्णिका,
दु:ख मणिकर्णिका के
विधान में नहीं
दु:ख उनके माथे है
जो पहुंचाने आते हैं
दु:ख उनके माथे था
जिसे वे छोड़ चले जाते हैं।
भाग्यशाली हैं, वे
जो लदकर या लादकर
काशी आते हैं
दु:ख मणिकर्णिका को सौंप जाते हैं।
दु:खी मत होऒ
मणिकर्णिका,
दु:ख हमें शोभा नहीं देता।
ऐसे भी डोम हैं
शव की बाट जोहते
पथरा जाती हैं जिनकी आंखे,
शव् नहीं आता-
इसके सिवा डोम कह भी क्या सकता है!
श्रीकांत् वर्मा
हद है भाई.. आप अपना टाइम बर्बाद किये तो किये.. अब फिर से आप सोचिये.. ई अल्ल-बल्ल जो लिखे हैं उसे केतना आदमी पढेगा.. चलिए मान लेते हैं कि कम से कम १०० आदमी पढेगा.. एतना लंबा लिखे हैं कि सब कोई कम से कम 10 मिनट तो पढ़बे करेगा ना? कम से कम १० आदमी हमरे जैसन लम्बा-लम्बा टिपियायेगा.. जिसमे फिर से १० मिनट मान लीजिये.. तो केतना हुआ?
(10×100)+(10*10)=1000+100=1100
अब ई मिनटवा को घंटवा में बदलते हैं..
1100/60=18.33
अब एक आदमी एक दिन में औसत ८ घंटा काम करता है.. सो इसको ८ से भागा देते हैं..
18.33/8=2.29
एक बिलोगर का एक पोस्ट २.२९ आदमी के बराबर काम का हर्जा करता है तो सोचिये कि एतना पोस्ट हर दिन पोस्ट होता है, ऊ केतना हर्जा करता होगा?
हम तो कहते हैं कि खाली ई बिलोगर्वा के चलते भारत में आर्थिक संकट है.. सब कोई पोस्ट पढ़े लिखे में मस्त है.. कोई काम धाम करता नहीं है.. तो और का होगा?
तो हमें अपना एक ठो लेख याद आ गया जिसे हम काफ़ी पहिले लिखे थे। इसी में समय की बरबादी को सही ठहराने और घाटा-पूर्ति के सूत्र छिपे हैं। सो प्रशान्त प्रियदर्शी के सवाल के जबाब में ये लाइन आफ़ एक्शन देखा जाये। बतायें कि अगर ये स्वीकार हो तो इसी लाइन पर समय की बरबादी को सही ठहराने के उपाय बतायें जायें।
उधर ज्ञानजी भी लिखे हैं:हम तो पहले ही उदास हैं। कोई खुश होने का आवाहन करती पोस्ट लिखें।
उदासी ज्ञानजी की कोर-कम्पीटेंशी है। जब देखो तब उदास हो जाते हैं। बहुत खुश होंगे तब भी उदास हो जायेंगे -हाय, ये खुशी दुबारा न जाने कब फ़िर मिलेगी। ये कविता देखिये न जहां कवि कहता है- फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो, शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना। अब बताओ इत्ते पर भी दुखी हों तो क्या किया जाये? अच्छा आज वाली कविता बांचियेगा शायद ज्ञान की बात दुख कुछ कम करे।
आइये घाटा पूरा करें
[सरकारी उपक्रम अपनी तमाम अव्यवस्थाऒं के लिये आलोचना का शिकार होते रहे हैं। इन उपक्रमों में नियम-कायदों की जांच के लिये आडिट टीमें होती हैं जो अपनी वार्षिक जांच में अपनी आपत्तियां दर्ज कराती रहती हैं। कुछ आपत्तियों का निराकरण होता है तो कुछ आपत्तियां बड़ी आपत्तियों में बदल जाती हैं। इन उपक्रमों में अनियमितताऒं पर तो आडिट की निगाहें होती ही हैं लेकिन अक्सर सुधारों पर भी उनकी वक्र दृष्टि रहती है। कोई भी उम्दा से उम्दा सुधार करके लाखों, करोडों, अरबों की बचत पर उनका सबसे पहला सवाल होता है -यह सुधार पहले क्यों नहीं हुआ ? इस सुधार को देर से लागू होने के कारण हुये नुकसान के लिये कौन जिम्मेदार है? उसके खिलाफ़ कार्यवाही सुनिश्चित की जाये। इसी तरह के एक झमेले से रूबरू होते हुये यह लेख कुछ साल पहले लिखा गया था। पिछले दिनों जब हमारी भतीजी स्वाति की शादी में हमारे साथ काम करने वाले अब्दुल लतीफ़ जब शाहजहांपुर से आये तो मैंने उनको यह लेख खोजकर भेजने के लिये कहा। उन्होंने लेख भेजा। इससे पहले कि यह लेख इधर से उधर हो मैं इसे आपको पढ़ा देना चाहता हूं। लीजिये प्रस्तुत है लेख -आइये घाटा पूरा करें]फैक्ट्री से मिलने वाली कुछ परम्परागत सुविधाऒं से वंचित रह गये आडिट आफीसर की निगाहें एक वर्ष पुराने एक आदेश को देखकर चमक उठीं। कपड़े पहने-पहने ही उन्होंने यूरेका, यूरेका ( पा लिया, पा लिया) कहा और उस आदेश को दुबारा-तिबारा पढ़ा। इसके बाद एक बार आंखों से चिपकाकर और एक बार आंखों से ओझल-दूरी तक ले जाकर पढ़ा। उस आदेश में लिखा था-
यदि कोई कर्मचारी कार्य स्थल के आस-पास थूकता पाया गया तो उस पर पांच रुपया जुर्माना किया जायेगा।आडिट आफ़ीसर ने अपने आडिट-पीरियड के दौरान तमाम हुयी तमाम असुविधाऒं को फिर-फिर स्मरण करते हुये आपत्ति पत्र बनाया-
इस फैक्ट्री की दीवारें और फर्श देखकर साफ पता चलता है कि यहां थू-थू की पुरानी परम्परा है। गत वर्ष यहां कार्य स्थल के आस-पास थूकते हुये पाये जाने पर पांच रुपये का जुर्माना किये जाने का आदेश किया गया था। जबकि चारो तरफ़ देखकर यह साफ पता चलता है कि यहां कार्य-स्थल के आस-पास थूकने की परम्परा काफ़ी पुरानी है। अत: थूकने पर ज्रुर्माना लगाने का आदेश पहले न किया जाना फैक्ट्री के राजकोष में हानि का कारण रहा। यदि माना जाये कि फैक्ट्री के एक चौथाई कर्मचारियों को कार्यस्थल के आस-पास औसतन दिन में दस बार थूकने की आदत है तो थूकने पर जुर्माना न किये जाने का एक वर्ष का राजकोषीय घाटा निम्नवत होगा:-
कर्मचारियों की औसत प्रतिदिन उपस्थिति- 6000
प्रतिदिन थूकने वाले कर्मचारियों की औसत संख्या-6000×1/4= 1500
औसतन दस बार थूकने पर प्रति कर्मचारी प्रतिदिन जुर्माना राशि- 10×5= 50/- रुपये
फैक्ट्री के कर्मचारियों पर प्रतिदिन कुल जुर्माना राशि – 1500x 50= 75,000/- रुपये
प्रतिवर्ष कुल जुर्माना राशि (300 कार्य दिवस) -75,000x 300= 2,25,000,00/- रुपये= 2.25 करोड़ रुपये
उपरोक्त गणना से स्पष्ट है कि यह फैक्ट्री आर्ड्रर पहले न करके 2.25 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष की राजकोषीय आय की सम्भावना को क्षीण किया गया। थूकने पर जुर्माने से सम्बन्धित आदेश होने के बाद भी गत वर्ष थूकने के कारण लगाये गये जुर्माने का कोई धन खजाने में नहीं जमा कराया गया जबकि कारखाने की दीवारें और फर्श पर्याप्त रंगे हुये हैं। ऐसी रंगाई या तो कलात्मक पेंटिंग से सम्भव है या श्रद्धापूर्वक थूकने से। यदि यह कार्य (रंगाई) कलात्मक पेंटिग से कराई गयी तो उसका भुगतान किस मद से कराया गया? उसका अनुमोदन कहां है? अनुमोदन यदि है तो उसे अवलोकनार्थ प्रस्तुत किया जाये। यदि ऐसा थुकाई से सम्भव हुआ तो उसका जुर्माना क्यों नहीं कराया गया? इस सन्दर्भ में निम्न बिन्दुऒं के जवाब अविलम्ब प्रस्तुत किये जायें-
१. थूकने पर जुर्माना जमा न किये जाने पर राजकोषीय घाटे की गणना सही है? कृपया पुष्टि करें।
२.कारखाने की दीवारों/ फर्शों की रंगाई कलात्मक पेंटिंग से हुई या श्रद्धापूर्वक थूकने से? यदि थूकने हुई तो थूकने वालों से जुर्माना क्यों नहीं वसूल किया गया?
३.कार्यस्थल के आस-पास थूकने पर जुर्माना किये जाने का आर्डर होने के बाद थूकने की दर में क्या परिवर्तन हुआ? थूकने की दर कम हुई याअ बढ़ी?
४. गत वर्ष जुर्माना जमा न कराये जाने का राजकोषीय घाटा किस तरह पूरा किये जाने की योजना है?
५. यह नियम पहले क्यों नहीं लागू किया गया? यदि यह नियम दस वर्ष पहले लागू किया जाता तो अब तक 22.50 करोड़ रुपये राजकोष में जमा हो गये होते।
यह आपत्ति पत्र पाते ही कारखाने के मैनेजर ने सबसे पहले उस अधिकारी की लानत-मलानत की जिसके जिम्मे आडिट आधिकारी की देखभाल का जिम्मा था। डांटने-फटकारने के बाद उससे सारे ब्योरे लेने के बाद यह समझने का प्रयास किया कि किन सुविधाऒं की कमी होने के कारण आडिट अधिकारी ने आपत्ति पत्र बनाने में इतनी मेहनत कर डाली। उन सुविधाऒं को आडिट अधिकारी को प्रदान किया गया। इसके बाद आपत्ति पत्र के जबाव बनाने के लिये एक अनुभवी आधिकारी को लगा दिया गया।
अधिकारी ने सबसे पहला जवाब लिखते हुये लिखा- ये आपत्तियां इस विभाग से सम्बंधित नहीं हैं। इसके बाद आडिट आधिकारी से पूछ कर बिन्दुवार जवाब भेजे गये। बिन्दुवार जवाब निम्नवत थे-
१. प्रति कर्मचारी प्रतिदिन थूकने की संख्या पांच से पचास तक परिवर्तित होती रहती है। परन्तु कार्यस्थल के आसपास थूकने वाले कर्मचारियों का औसत दस ही बैठता है। रात्रि पाली में एक बार सो जाने पर सिर्फ़ थूकने के लिये उठने की परम्परा नहीं है। परन्तु इससे औसत में कोई फर्क नहीं पड़ता। अत: पुष्टि की जाती है कि थूकने पर जुर्माना जमा न किये जाने पर राजकोषीय घाटे की गणना सही है। हालांकि इस सन्दर्भ में यह विचार भी उल्लेखनीय है कि यदि जुर्माना जमा कराया जाता तो प्रति कर्मचारी थूकने का औसत तथा थूकने वाले कर्मचारियों की संख्या में भारी कमी हो जाती।
२. दीवारों/फर्श की रंगाई श्रद्धापूर्वक थूकने से हुई है न कि कलात्मक पेंटिग से। थूकने वालों से जुर्माना वसूल न कर पाने का मुख्य कारण कर्मचारी भाइयों में आपसी एकता और भाईचारा रहा। एक चौथाई लोग थूकने का और तीन चौथाई लोग देखने का मजा लेते रहे। एक चौथाई सक्रिय रहे और तीन चौथाई निष्क्रिय। जुर्माना वसूल न कर पाने का तकनीकी कारण भी रहा। थूकने वालों की सुविधा एवं कार्यस्थल की साफ-सफाई के लिहाज से हर बेंच के पास एक ‘डस्टबिन’ रखवाया गया था। लेकिन ‘कर्म ही पूजा’ मानने वाले लोग पूजा करते-करते ही डस्ट बिन में थूकते रहे। तमाम लोग पान-मसाला खाते थे। इससे दीवारें तथा फर्श रंग गयीं। पकड़े जाने पर थूकने वालों ने अपने बचाव में तर्क पेश किया- साहब, जब एक फुट दूरी से सिलाई करते हैं तो एक-दो सेमी सिलाई इधर-उधर हो जाने पर कोई टोंकता नहीं है। जब हमें एक फुट दूर से सिलाई करने पर एक सेमी मार्जिन (छूट) मिलता है तो पांच-दस फीट की दूरी से थूकने पर कम से कम एकाध फीट का मार्जिन तो मिलना ही चाहिये। खासकर तब जबकि हम सिलाई मजबूरी में आंख खोलकर करते हैं जबकि थुकाई आख मींचकर (आनन्दातिरेक में) करते हैं। और साहब यह हमसे नहीं हो सकता कि सिर्फ़ थूकने के लिये डस्टबिन तक जायें। नहीं तो हमें थूकने का रेट (मजदूरी) दीजिये, हम थूकने लगेंगे डस्टबिन में। तार्किक दृष्टि से यह बात सही थी अत: हमें सारे केस उसी तरह छोड़ देने पड़े जिस तरह सबेरे किसी दंबग दरोगा द्वारा हवालात में बंद किया गया कोई छुटभैया अपराधी शाम तक किसी मंत्री का आदमी निकल जाने पर छोड़ दिया जाता है। क्या करें, करना पड़ता है!
३. थूकने पर जुर्माना लगाने का आदेश किये जाने के बाद ऐसा देखा गया है कि कुछ लोग तो जुर्माने के डर से अपना थूक गटकने लगे वहीं कुछ लोग इस मामले में ज्यादा उदार हो गये। थूक गटकने वाले सोचते हैं कि इस तरह वे जुर्माने के पैसे बचा रहे हैं। वहीं ज्यादा थूकने वालों का विचार है कि थूकने के बावजूद जुर्माना न देकर वे अपनी कमाई बढ़ा रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर देखा जाये तो थूकने पर जुर्माना करने का आदेश होने से थूकने की औसत दर में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है। सिर्फ़ पहले के निर्लिप्त प्रयास के साथ बचत/कमाई की भावना जुड़ गयी है।
४.गतवर्ष का राजकोषीय घाटा, इस वर्ष गत वर्ष की तुलना में दोगुने लोगों थूकने के लिये प्रोत्साहित करके उनसे जुर्माना वसूल करके पूरा करने का विचार है। विचार यह भी है कि थूक कर इस तरह कलात्मक रंगाई की कला को पेटेंट करा लिया जाये। फिर दुनिया में जहां भी को इस तरह दीवाल/फर्श पर थूकते पाया जाया उससे तड़ से पेटेंट के कानून के अनुसार थूकने की फीस वसूल ली जाये। विचार यह भी है कि रंगी दीवारों और फर्श की आर्ट गैलरी की तरह प्रदर्शनी की जाये। इस तरह हुयी आमदनी से राजकोष का घाटा पूरा किये जाने की योजना है।
५. पहले यह नियम यही सोचकर नहीं बनाया/लागू किया गया था कि इससे इसी तरह के फालतू के सवाल उठेंगे। वही हुआ भी।
आशा है आप हमारे इन जवाबों से सन्तुष्ट होंगे और सारी आपत्तियां निरस्त कर देंगे।
चूंकि जवाब आडिट आफीसर से ही विचार-विमर्श करके तैयार किये गये थे तथा इस बीच आडिट आफीसर को वे सभी बाजिव-गैरबाजिब सुविधायें प्रदान की जा चुकीं थी जिनके अभाव में उन्होंने आपत्तियां उठाईं थी, लिहाजा आडिट अफसर इन जवाबों से संतुष्ट हो गये। फैक्ट्री की तरफ़ से भी गत वर्ष का राजकोषीय घाटा पूरा करने की योजना पर पूरी श्रद्धा पूर्वक अमल हो रहा है। दीवारों/फर्शों की रंगाई दोगुनी रफ़्तार से जारी है।
आइये घाटा पूरा करने के इस यज्ञ में आप भी अपनी आहुति दें।
मेरी पसन्द
डोम मणिकर्णिका से अक्सर कहता है,
दु:खी मत होऒ
मणिकर्णिका,
दु:ख तुम्हें शोभा नहीं देता
ऐसे भी श्मशान हैं
जहां एक भी शव नहीं आता
आता भी है,
तो गंगा में नहलाया नहीं जाता।
डोम् इसके सिवा कह भी
क्या सकता है,
एक अकेला
डोम ही तो है
मणिकर्णिका में अकेले
रह सकता है।
दु:खी मत होऒ, मणिकर्णिका,
दु:ख मणिकर्णिका के
विधान में नहीं
दु:ख उनके माथे है
जो पहुंचाने आते हैं
दु:ख उनके माथे था
जिसे वे छोड़ चले जाते हैं।
भाग्यशाली हैं, वे
जो लदकर या लादकर
काशी आते हैं
दु:ख मणिकर्णिका को सौंप जाते हैं।
दु:खी मत होऒ
मणिकर्णिका,
दु:ख हमें शोभा नहीं देता।
ऐसे भी डोम हैं
शव की बाट जोहते
पथरा जाती हैं जिनकी आंखे,
शव् नहीं आता-
इसके सिवा डोम कह भी क्या सकता है!
श्रीकांत् वर्मा
एक समस्या है चुनाव हो जाने के बाद इस घाटे की भरपाई करना तो और भी मुश्किल होगा.
दु:ख मणिकर्णिका के
विधान में नहीं
दु:ख उनके माथे है
जो पहुंचाने आते हैं
दु:ख उनके माथे था
जिसे वे छोड़ चले जाते हैं।
” behtrin, isko yhan pdhvane ke liye aabhar…..”
regards
दु:ख मणिकर्णिका के
विधान में नहीं
दु:ख उनके माथे है
जो पहुंचाने आते हैं
दु:ख उनके माथे था
जिसे वे छोड़ चले जाते हैं।
आज तो श्रीकांत वर्मा जी की कविता पढवाकर आपने धन्य कर दिया.
ईश्वर करे ऐसे फ़ुरसतिया लेखन करने वाले एक – दो फ़ुरसतिया इस
ब्लाग जगत मे और पैदा हो जाये तो पढने का आनन्द दुगुना हो जाये.
बहुत शुभकामनाएं आपको.
रामराम.
डोम तो वीतरागी है – स्थितप्रज्ञता की उच्चावस्था को प्राप्त। डोम कैसे बनें पर तो समस्त दर्शन टिका है।
कैसे बनें डोम!
वैसे यह राजू वालू बेलैंसशीट तो नहीं
लेकिन क्या करें। मजबूर जो हैं। चिच की ढिंचक पोस्ट में शामिल होने के लिए करना पड़ता है जी…:)
जिस घाट ना जाने कितने गँगा जी माँ जा कर समाँ गइल..
उसी को “मणिकर्णिक़ा ” जैसा सुमधुर नाम दै दिया ..
हे विधाता !
डोम का जीवन भी किसी तपस्या से कम नहीँ !
आपकी पोस्ट हमेशा बहुत कुछ समेटे रहती है ..
यथा नाम तथा गुण !
- लावण्या
कल हम कम से कम १० बार घूमे हैं आपके यहाँ खाली टिपियाने के लिए.. लेकिन टिपियाने वाला जगहे नहीं दिख रहा था.. हमको हुआ कि कौनो जुगत लगा रहे होंगे, पोस्टवा में कुछ चेंज कर रहे होंगे.. थोडा मन में लालच भी था कि हमारे नाम के साथ फोटुवा भी डालेंगे क्या? लेकिन ऊ भी नहीं हुआ.. आज जाकर टिपियाने वाला डब्बा देखे तो निराश हो गए.. सो अबकी बार फिर से इल्जाम लगायेंगे कि १० बार हम यहाँ आये, मेरी तरह कम से कम २० लोग १० बार यहाँ आये होंगे..ऐसे ही २०० हो गया.. आगे क्या कहें?
घुघूती बासूती
वैसे श्रीकांत वर्मा जी की इस कविता के लिये असीम धन्यवाद
ई ससुरे नेती-नेता भी तो थू-थू और धिक्कार दिवस हर मिनट में बहत्तर बार मनाते हैं.. लगाओ टैक्स सबों पर.. थोड़ा रेसेशन कम हो।
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युवा शक्ति को समर्पित ब्लॉग http://yuva-jagat.blogspot.com/ पर आयें और देखें कि BHU में गुरुओं के चरण छूने पर क्यों प्रतिबन्ध लगा दिया गया है…आपकी इस बारे में क्या राय है ??
हमारा मानना है कि लें-देन साफ़ होना चाहिए नही तो यूरेका वाली स्थिति आती ही रहती है
ओझा जी का करिहें भाई????
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ…