Sunday, January 28, 2024

पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी



हमको दीपक नें अपनी मोटरसाइकिल पर बैठाकर खुदाबख्श लाइब्रेरी तक छोड़ दिया। मजे की बात जब हमने प्लेन में मिली बालिका से खुदाबख्श लाइब्रेरी के बारे पूछा तो उसको लाइब्रेरी के बारे में कुछ नहीं पता था। मुझे कुछ अचंभा नहीं हुआ। एक बड़ी आबादी अपने शहर में मौजूद ऐतिहासिक महत्व की इमारतों के बारे में नहीं जानती।
पटना की खुदाबख्श लाइब्रेरी के बारे में बचपन से पढ़ते आये थे। लेकिन इसके बारे में पता नहीं था कि किसने शुरू करवाई । लाइब्रेरी देखकर आ गए तब भी जानकारी नहीं की। आज जब लिखने बैठे तो खोजा इसके बारे में। पता चला कि खुदाबख्शजी के पिता जी को किताबें पढ़ने और जमा करने का शौक था। उनकी आमदनी का बड़ा हिस्सा किताबे खरीदने में जाता था। उनका निधन 1876 में हुआ । तब तक उनके पास 1700 किताबें जमा हो गयीं थीं।
1876 में जब वे अपनी मृत्यु-शैय्या पर थे उन्होंने अपनी पुस्तकों की ज़ायदाद अपने बेटे को सौंपते हुये एक पुस्तकालय खोलने की इच्छा प्रकट की।
खुदाबख्श ने अपने पिता द्वारा सौंपी गयी पुस्तकों के अलावा और भी पुस्तकों का संग्रह किया तथा 1888 में लगभग अस्सी हजार रुपये की लागत से एक दोमंज़िले भवन में इस पुस्तकालय की शुरुआत की और 1891 में 29 अक्टूबर को जनता की सेवा में समर्पित किया। उस समय पुस्तकालय के पास अरबी, फारसी और अंग्रेजी की चार हजार दुर्लभ पांडुलिपियाँ मौज़ूद थीं। क़ुरआन की प्राचीन प्रतियां और हिरण की खाल पर लिखी क़ुरानी पृष्ठ भी मौजूद हैं।
1908 में अपने निधन तक खुदाबक्श ने लाइब्रेरी के काम को लगातार आगे बढ़ाया। पुस्तकों के निज़ी दान से शुरू हुआ यह पुस्तकालय देश की बौद्धिक सम्पदाओं में काफी प्रमुख है। भारत सरकार ने संसद में 1969 में पारित एक विधेयक द्वारा इसे राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान के रूप में प्रतिष्ठित किया।।यह स्वायत्तशासी पुस्तकालय जिसके अवैतनिक अध्यक्ष बिहार के राज्यपाल होते हैं, पूरी तरह भारत सरकार के संस्कृति मन्त्रालय के अनुदानों से संचालित है।
लाइब्रेरी में घुसते ही काउंटर पर एक रजिस्टर रखा था। उसमे दस्तखत कराये गए। हमसे पहले आठ-दस लोग दस्तखत कर चुके थे। अधिकतर के आने का उद्धेश्य रिसर्च लिखा था। अन्दर घुसने से पहले बैग रखवा लिया गया। हमने बताया उसमें लैपटाप भी है। काउंटर पर बैठे शख़्स ने कहा -'रख दो चिंता न करो।' हमने उसकी पहली बात मान ली। बैग रखा दिया लेकिन दूसरी बात पूरी नहीं मानी- ' थोड़ी -थोड़ी चिंता करते रहे।'
लाइब्रेरी के हाल में कुछ लोग बैठे किताबें पढ़ रहे थे। कुछ के सामने किताबों का ढेर लगा था। वे शायद नोट्स ले रहे थे।
हमने सोचा था कि लाइब्रेरी में बड़ा सा हाल होगा जिसमे किताबें ही किताबें दिखेंगी। लेकिन वहां ऐसा नहीं था। पता लगा कि किताबो की सूची कम्प्यूटर में दर्ज है। आप अपनी पसंद की किताब कंप्यूटर से खोजकर बताइये तो लाइब्रेरी के लोग किताब लाकर आपको देंगे फिर आप उसको पढ़ सकते हैं। खुद किताबें देखने की अनुमति नहीं है। हाल में पीछे की तरफ दुर्लभ किताबों का कमरा भी दिखा लेकिन वहां भी जाने की अनुमति नहीं नहीं थी लाइब्रेरी देखने का मजा कम हो गया। किताबें खुद उलट-पलट के न देख सकें तो काहे की लाइब्रेरी।
पता चला कि लाइब्रेरी में करीब तीन लाख किताबें हैं उनमें से बमुश्किल तीस हजार किताबें सर्कुलेशन में हैं मतलब नियमित रूप से पढी जाती हैं। बाकी किताबें न जाने कब से पाने पढ़े जाने का इन्तजार करती रहती होंगी। कभी वीआइपी रहीं किताबों को अब कोई पूछने वाला नहीं।
बहरहाल कुछ देर हाल में इधर-उधर देखते रहे। कंप्यूटर में किताबें देखी। क्लिक करने पर किताब का विवरण दिख जाता। लेकिन हमको बैठकर किताबें पढ़नी तो थीं नहीं। देखनी थी लाइब्रेरी। कुछ देर में हाल से बाहर आ गए।
हाल से बाहर आते हुए शौचालय दिखा। हमने उसका भी उपयोग किया। देशी स्टाइल के शौचालय में पानी के लिए प्लास्टिक के टोंटीदार बड़े लोटे रखे थे। नल में तो पानी आ रहा था लेकिन फ्लस जलविहीन था। क्या फर्क पड़ता है किसी को। हर जगह पानी कम हो रहा है आजकल।
बाहर आकर हमने पहले तो बैग अपने कब्जे में किया। फिर पूछा कि हम यहाँ अकबर की लिखाई देखने आये हैं। सबने नकार दिया कि ऐसी कोई लिखाई मौजूद है यहाँ। हमने शाजी जमां की किताब का कवर दिखाया कि इस किताब के लेखक ने एक बातचीत में कहा है कि यहाँ अकबर की लिखाई का नमूना मौजूद है। लेकिन किसी ने माना नहीं। लोगों ने वहां मौजूद तमाम मुगलकालीन बादशाहों के दरबारों के फोटो दिखाते हुए कहा -'यहाँ तो यही है' उनके कहने का मतलब था -'इसी को देखकर काम चलाओ।'
हम उन सबको देख लिए। तमाम पुरानी वस्तुएं तो राजे-महाराजे-बादशाह-नवाब और उनकी रानियाँ उपयोग में लाती थी वहां मौजूद थीं। एक जगह महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर जी की हस्तलिपि में लिखे उनके उदगार मौजूद थे जो उन्होंने लाइब्रेरी आने पर लिखे थे। करीब सौ साल पहले की अंगरेजी में लिखे सन्देश। गांधी जी ने अपने सन्देश में लिखा था कि करीब नौ साल पहले उन्होंने लाइब्रेरी के बारे में सुना था। लाइब्रेरी देखकर होने वाली खुशी उन्होंने बहुत उदारता पूर्वक जाहिर की थी।
लाइब्रेरी में ही मोबाइल की बैटरी ख़त्म होती दिखी। वहीं काउंटर के पास चार्जर में लगा दिया मोबाइल। बतियाने लगे वहाँ मौजूद लोगों से। पता चला क़रीब चालीस लोग काम करते हैं लाइब्रेरी में । हम बतिया रहे थे कि मोबाइल हिला और छिपकली की तरह पेट के बल जमीन पर गिरा । गनीमत कि टूटा नहीं। हम सामान समेट के बाहर निकल आये।
बाहर लाइब्रेरी के दूसरे हिस्से में कम्पटीशन के लिए पढ़ने वाले बच्चों के लिए बैठने और पढ़ने की व्यवस्था थी। सैकड़ों बच्चे मोबाइल, किताबें, कम्पटीशन की पत्रिकाएं लिए जुटे थे पढ़ने में। एक हिस्सा लड़कियों के पढ़ने के लिए आरक्षित था। कुछ बच्चे खुसफुसाते हुए बतिया रहे थे। क्या पता हाल ही में पेपर आउट होने की कारण निरस्त हुए इम्तहान की चर्चा कर रहे हों -'फिर देना होगा इम्तहान।'
वहीं पास में एक आँगन नुमा जगह में खुदाबख्श के परिवार के लोगों की कब्रें मौजूद थीं। उसके बगल में भी पढ़ने की जगह पर बच्चे पढ़ रहे थे। जन्नतनशीन खुदाबख्श जी अपनी बनवाई लाइब्रेरी में बच्चों को पढ़ते देख जरुर खुश होते होंगे।
लाइब्रेरी के सामने संकरी सड़क पर भारी भीड़ थी। ओवरब्रिज बन रहा था। पता चला ओवरब्रिज के कारण लाइब्रेरी का कुछ हिस्सा तोड़े जाने के निर्णय का भरपूर विरोध स्थानीय लोगों ने किया है। विरासत की क़ीमत पर विकास का विरोध। लाइब्रेरी से जुड़ी तमाम रोचक और आत्मीय जानकारी के लिए फेसबुक में 'खुदाबख्श' सर्च करके पढ़ें।
लाइब्रेरी में कैसे किताबें इशू होती हैं इस बारे में इस पोस्ट के बाद साझा की गयी पोस्ट पढिये।
हम कुछ देर लाइब्रेरी परिसर में टहलने में के बाद बाहर आ गए।

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