Monday, June 29, 2020

शराफत के बहाने ऑनलाइन के किस्से

 कल इतवार था। कई काम सोचे थे करने को। कुछ किताबें , कुछ लेख। सोचा था हम भी कुछ लिख लेंगे। फ़िल्म भी देखने की मंशा थी। कुछ नया सीखने का भी मन था। उर्दू सोचते हैं पढ़ना सीख लें , शाहजहांपुर में रहते। कम्प्यूटर पर भी मन करता है काम करना कुछ और सीख लें। एक्सेल की किताबें मंगाई हैं ऑनलाइन । सोचते हैं कुछ अच्छे से सीख लें।

इतने काम एक अकेले इतवार के कंधे पर लाद दिए। इतवार बेचारा डरा-डरा आया। चेहरे पर शिकायत चिपकाए -'एक हमी बचे हैं सब काम के लिए। बाकी दिन खाली मौज मनाएंगे?'
शिकायत भले चेहरे पर चिपकी हो लेकिन मुंह से बोला कुछ नहीं। शरीफ लोगों की तरह चुपचाप सह जाने का भाव। शरीफ लोग बेचारे हमेशा लफड़ों से बचते हैं। उनको हमेशा डर लगता है कि कुछ बोले तो उनकी शराफत वाली पोस्ट छिन जाएगी। 'शरीफ बेरोजगार'हो जाएंगे। भूतपूर्व शरीफ। डरते हैं कि कुछ कहा और किसी ने कह दिया -'शक्ल से शरीफ दिखते हो लेकिन हरकतें ऐसी।' तो बेचारे कहीं मुंह दिखाने के काबिल न रहेंगे।
इसी डर के मारे शरीफ लोग कुछ भी नया करने से बचते हैं। इंतजार करते हैं कि जब सब लोग करने लगेंगे तो वे भी करने लगेंगे। शरीफ लोगों को लगता है कि उनका सब कुछ भले छिन जाए लेकिन शराफत का तमगा न छिने। इसीलिए जहां कोई इधर-उधर की बात हुई शरीफ लोग फौरन कट लेते हैं। वो कहा है न दुष्यंत जी ने:
'लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो
शरीफ लोग उठे और दूर जाकर बैठ गए।'
हम भी कहां की बात किधर मोड़ दिए। बात हो रही थी इतवार की और किस्से सुनाने लगे शराफत के। यह तो ऐसे ही हुआ कि लाइव बातचीत में विषय कुछ दिया जाए और लोग बोलते कुछ और रहें।
अरे हां लाइव की बात भली याद आई। कोरोना काल में जबसे मिलना-जुलना कम हुआ आन लाइन बातचीत बहुत बढ़ गयी है। वीडियो कांफ्रेंसिंग बढ़ी है। आन लाइन इन्टरव्यू बढ़े हैं। कविता पाठ, कहानी पाठ, व्यंग्यपाठ बढ़े हैं। इतवार , शनिवार खासतौर पर 'क्या मेरी बात सुनाई दे रही है?' के कब्जे में चले गए हैं।
ऑनलाइन बातचीत का नजारा यह है कि दिन में इत्ते सत्र मित्रों के प्लान हैं कि किसको सुने, किसको छोड़े , समझ मे नहीं आता। एक ही दिन में कई बारातें निपटाने की जिम्मेदारी जैसी बात। घण्टे-घण्टे भर के सत्र। बीस-बाइस लोग। हो रहे हैं ऑनलाइन सत्र।
ऑनलाइन सत्र के भी मजेदार नेपथ्य होते हैं। उधर ऑनलाइन श्रोता बने बैठे हैं इधर दोस्तों से चैटिंग चल रही है:
-अब ये लम्बा झेलायेगा।
-तो क्या झेलो। तुमने सुनाया तो उसको भी हक़ है झेलाने का।
-हम तो आडियो-वीडियो बन्द करके आंख मूंदकर बतिया रहे।
-अरे अध्यक्ष जी भी पढ़ेंगे। अध्यक्षता का मतलब यह थोड़ी की पाठ भी करेगें। अजीब बकैती है।
-हम तो लॉगआउट कर रहें यार बोर हो गए। हमको दूसरी जगह आन लाइन होना है।
इसी तरह की बतकहियों के बीच ऑनलाइन प्रसारण होता है। जो सामाजिक मीडिया दो-पांच मिनट की पोस्ट को बड़ी मानता है वो फिलहाल घण्टे भर के ऑनलाइन की भरमार कर रहा। लोग बाद में सुनते है। अपने हिसाब। नया चलन है । देखना है कितनी दूर जाएगा।
अरे बात तो इतवार की हो रही थी। लेकिन वह तो कल था। आज तो सोमवार है। सोमवार को इतवार के किस्से सुनने की किसको फुरसत।
चला जाये सोमवार अपने जलवे और खूबसूरती के साथ इंतजार कर रहा है। आपका सोमवार शुभ हो।

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Tuesday, June 23, 2020

पागलखाना -बाजार की फ़ंतासी की दास्तान

 "हर क्रान्तिकारी विचार शुरु के अकेलेपन में पागलपन ही तो होता है।"- 'पागलखाना'से

पिछले हफ़्ते ’पागलखाना’ किताब पूरी की। बड़ा सुकून मिला। बहुत दिनों से , मतलब महीनों से यह किताब पढने की कोशिश कर रहा था। लेकिन इधर पढने की गति इत्ती धीमी हो गयी कि कभी कोई किताब उठाई तो एकाध पन्ना पढकर वापस धर दी। फ़िर कुछ दिन बाद एक पन्ना और। यह बात अच्छी और खराब दोनों तरह की किताबों के साथ है।
जो किताब अच्छी लगती है उसे लगता है कि पूरी न पढो। पढ ली तो फ़िर इसके बाद क्या पढेंगे। खराब किताब के बारे में क्या कहें? वैसे किताब कित्ती भी खराब हो उसे लिखने में लेखक के क्या होते हैं यह कोई लेखक ही जान सकता है। श्रीलाल शुक्ल जी ने एक लेखक की व्यथा बताते हुये लिखा है:
"किताब लिखना दिमाग के लिए कठोर और शरीर के लिए कष्टप्रद कार्य है। इससे तंबाकू की लत पड़ जाती है। काफीन और डेक्सेड्रीन का जरूरत से ज्यादा सहारा लेना पड़ता है। बवासीर, बदहजमी, अनवरत् दुश्चिंता और नामर्दी पैदा होती है।"
श्रीलाल जी ने पाठक के हाल नहीं बयान किये। खासकर ऐसे पाठक के जिसके पास पढने के लिये खूब सारी किताबें हों लेकिन उसकी पढने की आदत कम हो गयी हो।
’पागलखाना’ ज्ञान जी का पांचवां उपन्यास है। बाजार की फ़ंतासी को लेकर लिखे गये इस उपन्यास के बारे में लोगों ने काफ़ी कुछ लिखा है। अधिकतर लोगों ने यह बताया कि उपन्यास में पठनीयता नहीं है। जबरियन खींचा गया उपन्यास है। अनावश्यक विस्तार है। वहीं कुछ लोगों ने यह भी लिखा है कि यह अद्भुत उपन्यास है। जो लोग इसकी बुराई कर रहे हैं वे इसको समझ नहीं पाये हैं। उनकी अकल कमजोर है।
यह दूसरी वाली बात उसी तरह की है जिस तरह लोग कहते हैं जो हमारा विरोध कर रहे हैं वे देशद्रोही हैं।
दुनिया का चलन है कि इंसान आमतौर पर चुगली बड़ी ध्यान से सुनता है और उस पर सहज विश्वास भी करता है। तो अपन ने यही मानकर पढा उपन्यास कि बोरिंग है। हमारी पढने की कम हुई गति ने भी इस नकार भाव में सहयोग किया। बोरिंग है इसीलिये पूरा नहीं पढ पा रहे। वर्ना हजार-हजार के पेज के ’मुगदर साहित्य’ अपन ने 3-4 दिन में पढकर किनारे किये हैं।
लेकिन बोरिंग है तो फ़िर पढ क्यों रहे हैं। किस डॉक्टर ने कहा है कि पढो नहीं तो तबियत खराब हो जायेगी। फ़िर पढना शुरु करते। मेहनत करते। अंतत: मेहनत सफ़ल हुई । किताब पूरी हुई।
बाजार पर केन्द्रित इस उपन्यास को पढते समय मुझे बार-बार कथाकार अखिलेश का कथादेश पत्रिका के फ़रवरी-2000 के अंक में छपा लेख याद आता रहा। लेख का शीर्षक था - "मनुष्य खत्म हो रहे हैं, वस्तुयें खिली हुई हैं "। इस लेख में बाजार के बढते प्रभाव को लेकर कही कुछ बातें यहां पेश हैं:
१. सबमें वह है। उसी में सब हैं। वह कहाँ नहीं है। अर्थात हर जगह है। वह पृथ्वी,नभ और भू -गर्भ सर्वत्र विराजमान है।संसार के समस्त क्रिया व्यापारों का संचालन उसकी मुट्ठी में हैं।
२.मेरी एक बड़ी ट्रेजडी है कि मैं ईश्वर की तरह हूं जिसके अनेक रूप हैं। हालांकि मैं ईश्वर का विलोम मनुष्य हूं। वाकई मेरे कई रूप हैं। मैं ही हूँ, जो उदास, गम्भीर और एकान्तप्रिय हूँ। मैं ही मितभाषी हूँ, मैं ही बकबक करने वाला हूँ। मैं आधुनिकता, कुलीनता को चाहने वाला हूँ और मैं ही फूहड़ गँवार हूँ। मैं ही सांवली सुन्दरियों का दीवाना हूं और मैं ही हूं जो गौरवर्णी रूपसियों पर लट्टू रहता हूं। मैं भावुकता की हंसी उडाता हूं,जबकि स्वयं बहुत भावुक हूं। जो चिरकुट, कायर, काहिल, घरघुसना, साहसी, फुर्तीला, घुमक्कड़ और सज्जन है वह भी मैं ही हूं। जो विश्वसनीय, मददगार, शाहखर्च है वह भी मैं ही हूं। जो संदिग्ध, ह्दयहीन और मक्खीचूस है वह भी मैं हूं। मैं एक साथ उच्च, नीच, श्रेष्ठ, घटिया, प्रिय, अप्रिय, सुन्दर और कुरूप हूं।
३.यह भी किसको अन्दाजा था कि दूसरा कवि एक इमारत की दसवीं मंजिल से इसलिये छ्लांग लगा लेगा कि जिन्दगी में उसकी रुचि समाप्त हो गयी थी। एक दार्शनिक सड़क दुर्घटना में मारा जायेगा लेकिन उसके नगर को महीनों इसकी खबर नहीं मिलेगी।
४. कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
अखिलेश जी का यह लेख मुझे इतना पसंद आया था कि मैंने इसे अपने ब्लॉग में पोस्ट किया था। दो पोस्टों में। लिंक यहां पोस्ट में नीचे है।
बहरहाल पागलखाना पढना बहुत अच्छा अनुभव रहा। सूरज के प्री-पेड कार्ड जैसी बातें मेरे दिमाग में आती रही हैं। सुरंग में बार-बार जाते हुये बुजुर्गवार मुझे अपनी उस कल्पना की याद दिलाते रहे जिसमें मैं कभी सोचता था कि एक पूरा का पूरा शहर जमीन के नीचे बसा है। इस कल्पना को विस्तार देने की कभी हिम्मत नहीं हुई।
सूरज के प्री-पेड कार्ड वाली बात पढकर मुझे प्रियंकर पालीवाल जी कविता याद आई:
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा।
’पागलखाना’ बाजार के प्रभाव में इंसान के सपने छिनने के खतरे और उनसे अपने सपने बचाये रखने की जद्दोजहद का आख्यान है। बुजुर्गवार बार-बार सुरंग के पास ’कदमताल’ करते रहते हैं। बच्चे उनकी बात समझते नहीं। पागल समझते हैं उनको। वे बच्चों को बेवकूफ़ समझते हैं। बाजार उनकी दुनिया पर कब्जा करने के लिये बेताब है, अपनी कोशिश में कामयाब होने वाला लेकिन वे सब उससे बेखबर हैं। मजबूरन बुजुर्गवार को अकेले मोर्चा संभालना पड़ता है। अंतत: वे निपट जाते हैं।
’पागलखाना’ एक सिद्ध कथाकार की नजर से बाजार के बारे में लिखा गया उपन्यास है। ज्ञान जी डिटेलिंग के उस्ताद हैं। बाजार की डिटेलिंग की उन्होंने। बाजार का रकबा बहुत बड़ा होता है। अनंत तक फ़ैले बाजार की रिपोर्टिंग इस उपन्यास में सुरंग, सपने, डॉक्टर की दुकान और ऐसी ही कुछ जगहों से की गयी है। जगर-मगर करते , तेजी से भागते, हर पल रूप बदलते बाजार के बारे में चंद स्थिर जगहों से पकड़ने की कोशिश की गई।
अब जब लिख रहा हूं यह भी लग रहा कि पागलखाना ज्ञानजी ,आलोक पुराणिक जी के साथ मिलकर लिखते तो कुछ और जगहें जुड़तीं।
उपन्यास इस मामले में खास है कि हिन्दी में बाजार को लेकर इतने विस्तार से लिखा गया शायद पहला उपन्यास है। भाषा पर पकड़ ज्ञान जी की जबरदस्त है। उसके अनगिनत नमूने किताब पढते समय दिखते हैं लगता है -’काश हम भी वैसे लिख पाते।’ आखिरी के पन्नों में ’चहबच्चे’ शब्द का प्रयोग कई बार हुआ। ’रोशनी के चहबच्चे’, ’अंधेरे के चहबच्चे’। पुरानी पीढी तक सीमित रहे गये इस तरह के शब्द शायद अगली पीढी के लेखकों के हाथ से निकल जायें।
हिन्दी में उपन्यास कम ही लिखे जाते हैं। साल में आठ-दस उपन्यास चर्चा में आ पाते हैं। पचास-साठ करोड़ की हिन्दी पट्टी की आबादी में यह संख्या हिन्दी में पठन-पाठन, लेखन की स्थिति का बैरोमीटर है। ऐसे में कोई उपन्यास लोग पढें, उसकी आलोचना ही करें यह अपने में एक उपलब्धि है। ज्ञान जी के ’पागलखाना’ की ’हम न मरब’ जितनी तो नहीं लेकिन फ़िर भी लोगों ने आलोचना की। कम आलोचना का कारण शायद इसमें गालियों की अनुपस्थिति भी रही हो। तारीफ़ भी खूब हुई। आलोचना भले संयमित रही लेकिन तारीफ़ जिन्होंने की उन्होंने ’बल भर’ की। कलम, माइक तोड़ दिया। फ़िर इनाम भी मिल गया लाख रुपये का। इससे अधिक और क्या चाहिये उपन्यास के सफ़ल होने के लिये।
ज्ञान जी हमारे समय के कुछ सबसे अच्छे लेखकों में हैं। व्यंग्य में तो लोगों ने उनको देवता मान लिया। ज्ञान जी इसे मानते भले न हों लेकिन जबरदस्ती मना भी नहीं करते। बड़ी प्यारी अदा है यह। वे कहते भले हैं कि लिखकर मैं भूल जाता हूं लेकिन ऐसा होता नहीं। किसी भी मुद्दे पर बात करेंगे तो अपने लेखन के विरोध की बात किसी न किसी तरह आ ही जाती है। ’हम न मरब’ की गालियों पर इत्ती गालियां पड़ीं, लोगों ने इत्ता विरोध किया, ’पागलखाना’ को लोगों ने शुरु में बोर उपन्यास बताया लेकिन बाद में लोगों ने उसे पसन्द किया, इनाम भी मिला। जब भी वे इस तरह की बातें करते हैं तो लगता है कि वे यह कहकर अपने उन अनगिनत पाठकों की अनदेखी करते हैं जिन्होंने इन उपन्यासों को बेइन्तहा पसंद किया और तारीफ़ भी की। अपने उन पाठकों की मोहब्बत की ’बेइज्जती खराब’ करते हैं जो उनके हर तरह के लेखन को प्यार से पढते हैं।
हम भी ज्ञान जी के लेखन को पसंद करने वाले हैं। इसलिए जब वे विरोध करने वालों को लिफ्ट देते हैं तो जलन तो होती ही है। 'पाठकीया डाह' होता है। बुराई करने वालों को इतना फुटेज, तारीफ करने वालों का कोई जिक्र नहीं। शिकायत करें तो कह देंगे ज्ञान जी -'भूल जाता हूँ।' ये अच्छी आदत है कि तारीफ करने वाले भूल जाते हैं, बुराई करने वाले याद रहते हैं। 🙂
’पागलखाना’ एक अनूठी कृति है। एक संवेदनशील कथाकार द्वारा लिखी गयी अपनी तरह किताब। इसे पढा जाना चाहिये। इस पर खूब बात होनी चाहिये। पीठ पीछे खुसुर-पुसुर करने की बजाय खुलकर खूब लिखा जाना चाहिए। खासकर हिन्दी व्यंग्य से जुड़े बड़े लोगों को इस पर बात करनी चाहिये। ज्ञान जी की ही किसी और किताब से इसकी तुलना की बात ठीक नहीं।
आज की दुनिया में दो ही तरह के पाठक हैं एक वे जो ’पागलखाना’ पढ चुके हैं। दूसरे वे जिन्होंने पागलखाना नहीं पढी। हमको खुशी है कि हम उन लोगों में शामिल हो चुके हैं जो ’पागलखाना’ पढ चुके हैं। आप भी ’पागलखाना’ पढ चुके लोगों में शामिल होइये। अच्छा लगेगा।
पागलखाना -लेखक Gyan Chaturvedi
1.उपन्यास : पागलखाना
लेखक: ज्ञान चतुर्वेदी
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
पेज: २७१
कीमत: पेपरबैक -२५०
खरीदने का लिंक : https://www.amazon.in/Pagalkhana-Gyan.../dp/938746234X
मनुष्य खत्म हो रहे हैं.. वस्तुयें खिली हुई हैं -भाग १
मनुष्य खत्म हो रहे हैं.. वस्तुयें खिली हुई हैं -भाग २

'पागलखाना' के पंच

 

1. दुनिया बाजारवाद के कब्जे में आ गई थी। दुनिया बाजार में रहना और जीना सीख रही थी। पर कुछ लोगों ने बाजारवाद को पागलपन माना तथा बाजार को पागलखाना।

एक चमकीले अंधेरे से भरा पागलखाना।
2. अब सूर्योदय उन्हीं घरों में होता था जिन्होंने सूरज का प्री-पेड कार्ड बनवा रखा हो और समय पर इसे रिचार्च भी करते रहते हों। बाजार ने सूरज को अपनी मुट्ठी में बांध लिया था और सूरज बाजार का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया।
3. बेहद आलीशान फ़्रेमों में जड़े प्रशंसापत्र तथा डिग्रियां। इतने सुन्दर हैं ये प्रमाणपत्र कि देखते ही इनके नकली होने का अहसास होता है।
4. फ़्रेम यदि एक बार चमकीला , नक्कासीदार और बहुत मंहगा वाला लगा दो तो फ़िर इस बात का कहीं कोई खतरा नहीं रह जाता कि आदमी का ध्यान उस विचार की तरफ़ भी जा सकता है।
5. ’क्या करें बाप हैं!’ वाले भाव में ’तुम बहुत सुन्दर हो’ वाला भाव मिला दो तो चेहरा जैसा बनेगा ,वैसा चेहरा लेकर वह रिशेप्शन पर बैठी युवती को घूर रहा है।
6. सरकार बाजार की ताकत का इस्तेमाल खुद के सरकार बने रहने के लिये करेगी, मानो कोई सुनामी की लहरों से बिजली पैदा करने की योजना बनाये और इस मूर्खता पर अपनी पीठ थपथपाये।
7. बाजार की सत्ता, सरकार की सत्ता से मिलकर यों गड्डमड्ड हो गई थी कि पता करना कठिन हो गया था कि दुकान कहां तक है और सरकार का दफ़्तर कहां से शुरु हो जाता है। सरकारी घोषणायें एकदम बाजार द्वारा डिक्टेट करके लिखवाई गई लगती थीं।
8. सपने देखने की क्षमता ही तो मनुष्य को मनुष्य बनाती है दोस्त।
9. सच, ईमानदारी, प्यार,सफ़लता, भाईचारा,लोकतंत्र,वात्सल्य, भलाई,सुन्दरता,स्वास्थ्य,सुकून भरी नींद, एकता,बराबरी-उसके हर सपने को बाजार ने उठा लिया था और अपने काम पर लगा दिया था।
10. कानून पर इतना भरोसा करना ठीक चीज नहीं क्योंकि स्वयं कानून भी कानून पर कोई खास भरोसा नहीं करता है आजकल।
11. सिस्टम में वह रोशनी पैदा तो कर सकता है पर इस रोशनी का इस्तेमाल स्वयं नहीं कर सकता है वह। उसे बस उन अंधेरों की मिल्कियत दी गई है जिन्हें इसी रोशनी ने पैदा किया है।
12. इन दिनों मानसिक रोगी होना भी एक किस्म की ऐयाशी है।
13. सरकार के विरुद्ध जो भी है, सब पर सरकार की नजर है।
14. वे संविधान में इतने संसोधन करा चुके हैं कि संविधान का हर पेज कटा-पिटा है। अब उसे पढना मुश्किल है, समझना तो और भी मुश्किल।
15. वे हमारा कान पकड़कर हमें सड़क पर बिठा दें तो अदालत भी बस यही कहकर रह जायेगी कि आपका इसका मुआवजा तो दिया जा चुका है न!
16. ’देवता बोले कि वे अब हमारे बस से एकदम बाहर जा चुके हैं। अब खुद सबसे बड़ा देवता बन गया है बाजार !’
17. देवता अब खुद भी बाजार से नहीं लड़ सकते। मैंने पूछा तो कहते हैं कि हमारा पूजा-पाठ भी तो अब बाजार के हाथों में ही है, सो हम तो मजबूर हैं। ... हम बस कभी-कभी आकाशवाणी भर कर सकते हैं।
18. आदमी जब फ़ोटो खिंचाता है तब झूठमूठ खुश हो ही लेता है। कहते हैं इससे फ़ोटो अच्छी आती है।
19. नकटा समय चल रहा हो तो नाक से निजात पाना जरूरी हो जाता है।
20. बाजार में आजकल भ्रम डिस्काउंट रेट पर मिल जाता है और नाक बड़े ऊंचे भाव पर बिक जाया करती है। लोग नाक बेच देते हैं और भ्रम लगाये घूम रहे हैं।इससे सभी को बड़ा सुभीता हो गया है।
21. जब समय ने ही अपनी नाक उतार डाली हो तब ऐसे नकटे समय में अपनी नाक रखने का आग्रह करना बड़ी मूर्खता कहलायेगी।
22. समय अब बाजार के हिसाब से चलना सीख रहा था क्योंकि समय ने भी स्वीकार कर लिया था कि बाजार का समय चल रहा है।
23. बाजार पागलों के लिये भी क्या खूब समय निकलता है।
24. पागल और सही आदमी के बीच अन्तर करना कठिन हो रहा है। यह अन्तर रोज-रोज और भी बारीक होता जा रहा है। दिनोंदिन यह जानना कठिन हो रहा है कि कौन समझदार है और कौन पागल।
25. कोई कितना भी समझदार हो जाये या कितना भी पागल- बाजार दोनों का इस्तेमाल कर सकता है।
26. बाजार को पागलों से कोई डर नहीं लगता। वह तो बस सतर्क रहता है उनसे।
27. कहीं सारी मानव-जाति ने ही तो सपने देखना बन्द नहीं कर दिया? कहां तो वह कभी खुली आंखों से भी खूब सपने देखा करता था और अब, उसके आसपास कहीं कोई सपना ही नहीं?
28. केवल मुर्दे ही नहीं, समझदार लोग भी नहीं सोचा करते।
29. एक बार सामने वाले को पागल भर मान लो तो चीजें आसान हो जाती हैं। तब उसके द्वारा सच भी एक चुटकुला माना जा सकता है।
30. बाजार जितना और-और चमकदार होता जाता था, उसके ठीक नीचे तथा पीछे अंधेरा बढता जाता था।
31. बाजार की यही तो विशेषता है। वह खुद ही अंधेरे पैदा करता है, फ़िर खुद ही उन अंधेरों की चिन्ता भी करता है। वह अपने ही पैदा किये और पाले हुये अंधेरों को दूर करता भी दीखता है। वह इन अंधेरों को दूर करने का संकल्प लेता है और इसके लिये जुगनुओं की व्यवस्था भी कर देता है। वह इन अंधेरों में बिना
बाती की मोमबत्तियां भी लगाकर आता है। वह अंधेरों पर चिन्ता करने वाले सम्मेलन प्रायोजित करता है, बहसें आयोजित करता है। अंधेरों की परिभाषा तय करने के लिये वह उन विद्वानों को आमंत्रित करता है जो बाजार की खाकर , उसकी ही गाते-बजाते हैं।
32. बाजार भी तो आजकल यही करता है। सबको उसी तरह डील करता है मानों सब पागल हों।
33. कई दफ़े , साथ रहने वाला शख्स पागल हो रहा हो तो करीबी लोगों को पता ही नहीं चल पाता। ...आदमी ,अधिकतर बड़ा धीरे-धीरे ही पागल होता है न ! इसीलिये।’
34. खुशबू बस एक भ्रम है। बदबू यथार्थ। वास्तव में सब तरफ़ बदबू ही है।
35. हर क्रान्तिकारी विचार शुरु के अकेलेपन में पागलपन ही तो होता है।
36. हत्यारे अपने हाथों में पुराणों और इतिहास के पन्नों से बने हथियार लिये थे। उनके कई हथियार तो हथियारों जैसे लगते ही नहीं थे। भीड़ में कई हमलावर तो पुष्पगुच्छ और मालायें लेकर दौड़ रहे थे। इनके हाथों में आकर गुलदस्ते, विनम्रता , प्रार्थना और स्वागत भी पैने हथियार बन गये थे। वे हर चीज को हथियार बना सकते थे। वे शातिर हत्यारे थे। वे आदमी की हत्या किये बिना भी उसकी हत्या कर सकते थे।
37. घुटन कहीं भी एक हद से ज्यादा बढ जाये तो विद्रोह खदबदाने लगता है।
38. ग्राहक जितना पागल हो, बाजार के लिये उतना ही फ़ायदेमन्द होता है।
लेखक: Gyan Chaturvedi
पागलखाना के बारे में यह भी पढ़ें
उपन्यास : पागलखाना
लेखक: ज्ञान चतुर्वेदी
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
पेज: २७१
कीमत: पेपरबैक -२५०
खरीदने का लिंक : https://www.amazon.in/Pagalkhana-Gyan.../dp/938746234X

Wednesday, June 17, 2020

नर्म बिस्तर, ऊंची सोंचे, फिर उनींदापन

 आज सुबह ढाई बजे ही नींद खुल गयी। वैसे ऐसा कम ही होता है। नींद हमारी सुपरफास्ट ट्रेन की तरह है। रात के स्टेशन पर चढ़ी तो सुबह के जंक्शन पर ही रुकती है। आधी रात में कोई स्टापेज नहीं आता। लेकिन आज खुल गयी नींद। शायद किसी ने 'नींद ट्रेन' की चैन पुलिंग की। क्या पता कोई सपना उतरने की कोशिश कर रहा हो। क्या पता कोई आतंकवादी सपना 'नींद डकैती' की कोशिश में हो।

अब जब खुल गयी नींद तो।सोचा क्या करें? मन किया चाय बनवा के पी जाए। लेकिन फौरन मन ने मना भी कर दिया। मन को ऐसे ही थोड़ी चंचल कहा गया है।
फिर ख्याल आया कि सिरहाने रखी किताब पूरी कर ली जाए। पिछले कई महीनों से पढ़ रहे हैं किताब। पूरी नहीं हो पाई। रोज एक-दो पन्ना पढ़ते हैं, किनारा मोड़ कर रख देते हैं। हमेशा लगता है कि कब पूरी होगी किताब। हर छुट्टी सोचते हैं इस बार निपटा ही देंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। छुट्टी निपट जाती है, किताब नहीं निपटती।
पढ़ने की इच्छा और स्पीड बहुत कम हुई है पिछले कई दिनों में। एक से एक शानदार किताबें कुछ दिन साथ-साथ रहकर 'पढ़-कुंवारी' ही बनी रहीं। साथ छूट गया उनका। बिस्तर, मेज से अलमारी , डेस्क में चली गईं। कभी कुछ खोजते हुए मिलती हैं तो लगता है कोई पुराना दोस्त मिल गया। मन खिल जाता है। कुछ किताबें फिर मेज पर आ जाती हैं। लेकिन अक्सर वैसे ही फिर वापस चली जाती हैं।
बहरहाल किताब पूरी करने का ख्याल की सरकार भी पर्याप्त समर्थन के अभाव में गिर गयी। अंततः हम भी बिना और कुछ सोचे बिस्तर पर गिर गए। जो हुआ वह हम बहुत पहले कह चुके हैं:
'नर्म बिस्तर,
ऊंची सोंचे
फिर उनींदा पन।'
उनींदापन के बाद फिर नींद आई। इसके बाद कायदे से तो कोई सपना आना चाहिए। लेकिन अपन के पास सपने कम आते हैं। सामाजिक दूरी बनाए रखते हैं। लेकिन सुबह तो आई ही। रोज आती है।
सुबह के साथ बढ़िया चाय आई। एक के बाद एक दो पिये। फेसबुक के मैदान पर जल्दी-जल्दी टहले। मामला तनावपूर्ण दिखा। लोग अलग-अलग तरह से चीन से मुकाबला कर रहे थे। हम सभी वीरों को बाहर से समर्थन देते हुए भारत माता की जय बोलकर टहलने निकल लिए।
बाहर लान पर खड़े पेड़ पर एक चिड़िया पेड़ पर बैठी थी। हमको देखकर चोंच इधर-उधर करती हुई मुस्कराई। हम समझ नहीं पाए। हम कुछ कहते तब तक वह पेड़ से फुदककर गुमटी पर बैठ गयी। वहां से भी चोंच हिलाकर हमको नमस्ते टाइप करने लगी। हम भी सर हिलाकर सड़क पर निकल गए।
सड़क पार करके पार्क में आये। तमाम लोग आपस में सटे हुए स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। बिना मास्क के बैठे लोग कोरोना को चुनौती देते हुए दिखे। गोया कह रहे हों -'अबे कोरोना के बच्चे, हिम्मत हो तो आ सामने।' कोरोना बेचारा किसी के सीने में, किसी के फेफड़े में दुबककर बैठ गया होगा। उसकी कहां हिम्मत ऐसे वीरों से मुकाबला करने की जो अक्ल और स्वास्थ्य हथेली पर लिए हवाखोरी करने निकले हों।
एकाध को हमने हिम्मत करके टोंका -'बिना मास्क लगाए कैसे सटे हुए बैठे हैं आप लोग।' लोगों ने हमको -'तुम कौन खाम ख्वाह ' वाली नजरों से देखा। सच बता रहे अगर हम मास्क न लगाए होते तो चेहरा उनकी निगाह से झुलस जाता।
कुछ लोगों ने अलबत्ता जेब से तहाया हुआ मास्क निकालकर चेहरे पर धारण कर लिया। शायद इनकी कोरोना से जान-पहचान या पैक्ट है कि जब आना तो बता देना। तुम्हारा स्वागत हम चेहरे पर मास्क लगाकर करेंगे।
ये टोंकने पर जेब से मास्क लगाने वाले लोग उस घराने के लोग हैं जो अपना हेलमेट घर पर या डिक्की में रखते हैं । टोंके जाने पर धारण कर लेते हैं। मानों दुर्घटनाएं उनसे बताकर घटती हैं। घटने के पहले सूचित करती हैं -'हेलमेट धारण करो आर्यपुत्र, अब मेरे अवतार का समय हो गया।'
पार्क में लोग मस्त थे। हम उनकी हिम्मत देखकर पस्त हो गए। लौट लिए।
सड़क पर लोग आ-जा रहे थे। लान में धूप पसरी हुई थी। वह भी कोई मास्क नहीं लगाए थी। धूप को तो टोंक भी नहीं सकते। उसको कोई कोरोना थोड़ी होना है। हमको लगा कि काश हम भी धूप की तरह होते। नरम, गुनगुने, खुशनुमा। लेकिन चाहने से क्या होता है।

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Saturday, June 06, 2020

क्रांतिकारी आइडिये अकडू होते हैं

 एक बहुत क्रांतिकारी टाइप का आइडिया हमारे दिमाग में घुसने की कोशिश कर रहा था। हमने घुसने नहीं दिया। साफ कह दिया -'कितने भी क्रांतिकारी हो, घुसने नहीं देंगे दिमाग में बिना मास्क लगाए। मास्क लगाओ, फिर आओ।घुसोगे भी तो पहले से मौजूद आइडियों से कम से कम दो फिट दूरी पर रहोगे। सोशल डिस्टैनसिंग का पालन करना पड़ेगा।'

आइडिया भन्ना के फूट लिया कहते हुए -'कुल जमा दो इंच मोटा भी दिमाग नहीं। बड़े आये दो फिट सामाजिक दूरी वाले। दुनिया में न जाने कित्ते और मोटे दिमाग वाले हैं। जा रहे हैं उनमें से किसी के पास। ऐश से रहेंगे। '
हम सुनकर खिसिया गए। कोरोना के चक्कर में क्रांतिकारी आइडिया को नाराज कर दिया। मन किया मना लें। लेकिन तब तक वह फूट लिया था। हमको भी गुस्सा आ गया -'बड़ा अकडू आइडिया है। एक बार जिद करता तो क्या घुसने नहीं देता उसको। घुसा के बन्द कर लेते दिमाग। ये सुसरे क्रांतिकारी आइडिये अकडू बहुत होते हैं।'
कहीं आपके पास तो नहीं आया कोई क्रांतिकारी आइडिया। सम्भलकर रहियेगा। फिर न कहिएगा बताया नहीं।

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