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…..इति श्री इलाहाबाद ब्लागर संगोष्ठी कथा
By फ़ुरसतिया on October 31, 2009
इलाहाबाद
ब्लागर संगोष्ठी सम्मेलन की लानत-मलानत अपने आखिरी दौर में है। मामला
आखिरी सांसें ले रहा है। आई.सी.यू. में है। कभी भी दम तोड़ सकता है। इससे
पहले कि मामला आखिरी सांस ले, सोचते हैं कि हम भी इसके अंतिम दर्शन कर लें।
बाद में तो फ़ोटुयें रह जायेंगी। किस्से-कहानियों में फ़ड़फ़ड़ायेगी गोष्ठी।
इस तामझाम के चलते देखा गया कि लोगों का हास्य-बोध अचानक मुखर हो गया। विस्फोट की तरह। अद्भुत व्यंग्य लिखे लोगों नें। कल्पना शक्ति चरम पर। गद्य में रौद्र रस की छटा देखने को मिली। न जाने कितने लोग करमचंद जासूस बन गये। राष्ट्रीय संगोष्ठी ने लोगों को अंतरराष्ट्रीय दूरदूष्टि से लैस कर दिया। जो जितना दूर था उसने उतने सच्चे किस्से सुनाये।
सुना है जब भारत पर चीन ने हमला किया था तब देश वाशियों ने अपना सब कुछ सौंप दिया देश के काम के लिये। वही राष्ट्रीय भावना एक बार फ़िर देखने को मिली। संगोष्ठी संकट के समय जिसके पास जो था उसने हिन्दी नेट को खुले दिल से सौंप दिया। अपने विचार, अपना धिक्कार, अपना हाहाकार, अपनी सहमतियां, अपनी असहमतियां, अपनी चिरकुटैंया, अपनी बलैय़ां। कोमल लोगों ने अपनी कठोरता की कुंजी सौंप दी। व्यापक हित में अग्रजों ने अनुजों की इज्जत उतार दी। अद्भुत दृश्य दिखा। सब कुछ शोभा बरनि न जाये वाले मोड में पाया गया।
हम पहले ही कह चुके हैं हम जितना कुछ पाने की सोचकर गये थे उससे ज्यादा पाकर लौटे। रही-सही कसर साथियों की प्रतिक्रियाओं ने पूरी की। जो वहां जाकर न पा पाये थे वह लोगों की अभिव्यक्तियों में मिल गया। मालामाल हो गये। अपने बारे में तमाम बातें जानने को मिलीं जो अन्यथा हम जान ही न पाते। गाना गा रहे हैं- मैं जो कभी नहीं था वह भी दुनिया ने पढ़ डाला।
१. इस संगोष्ठी में विनीत कुमार से मिलने का मौका मिला। विनीत का काम के प्रति अद्भुत समर्पण मन खुश हो गया। विनीत ने अपने ब्लाग पर अपनी झांसे वाली फोटो लगा रखी है। सामने से देखने में वो कहीं बेहतर दिखते हैं। ब्लाग वाली उड़ी-उड़ी फ़ोटो बनवाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी उनको। अगर किसी को इलाहाबाद में क्या हुआ वह बिना नमक मिर्च के जानना हो तो विनीत की ये और ये वाली पोस्ट देखे।
२. अफ़लातून भैया कान में कुछ खोंसे हुये गाना-ऊना सुनते रहे। लोगों को मुहावरे में संशोधन करना चाहिये। कान में तेल डालने की बजाय कान में ईअर प्लग डाले होना चाहिये। देश में समाजवाद के विफ़ल होने के कारणों में कान में ईअर प्लग की भूमिका पर शोध कार्य होना चाहिये। अफ़लू भैया, भौजी से फोन पर डांट भी खाये। इससे यह सिद्ध हुआ कि समाजवादी और कुछ हासिल भले न कर पाये पर पत्नी से डरने का मौलिक अधिकार अवश्य हासिल कर सकता है।
३.मसिजीवी को हम बाई डिफ़ाल्ट खुराफ़ाती ब्लागर मानते रहे हैं। यहां इलाहाबाद में भी उन्होंने मेरे विश्वास की रक्षा की। नामवरजी को लुढका दिया, हमसे अंडे बेचवा दिये और क्या-क्या न किया। घुमा-फ़िराकर हमें कंघी-चोर भी बता दिया। कंघी की खोज में कुर्सियां उलटा दीं। लेकिन मसिजीवी का फ़ड़कता संबोधन सुनकर तबियत खुश हो गयी। संचालन भी मसिजीवी ने झकास किया। मसिजीवी को पाडकास्टिंग की दिशा में मुंह आजमाना चाहिये।
४. हिमांशु और मास्टर साहब बड़े प्यारे –प्यारे साथी लगे। गिरिजेश ने लौटकर अपनी छटा दिखायी कि उनके अन्दर इतना खुराफ़ाती पत्रकार बैठा है। शहरों का नाम बदलने में लोग सालों लगा देते हैं। गिरिजेश ने एक झटके में इलाहाबाद से ’इ’ गायब कर दिया।
५. मीनू खरेजी का इलाहाबाद से लौटकर विधा परिवर्तन ही हो गया। अच्छी-भली गीतकार मानी जाती थीं लौटने ही हास्य-व्यंग्य पार्टी में शामिल हो गयीं। कुछ लोगों यह भी सोच रहे हैं कि उन्होंने वहां मच्छरों से समझौता किया था अगर वे उनको काटेंगे नहीं तो वे उनके बारे में पोस्ट लिखेंगी। लौटते ही उन्होंने अपना वायदा निभाया।
६. संगोष्ठी में ही हमने देखा कि ज्यादातर लोगों ने बोलने के दौरान वही बोला जो उनको बोलना था। विषय के दबाब में बहुत कम लोग आये। भाषण के आगे विषय मुंह छिपाकर बैठा गया।
७. हमने यह भी पाया कि मोहल्ले वाले अविनाश बोलने में थोड़ा शर्माते हैं। जब बोलने की बारी आई तो अपना काम समरेन्द्र को आउटसोर्स कर दिया।
८. हमने एक बार फ़िर पाया कि ब्लागर में तो हम कौड़ी के तीन हैं हीं संचालक भी दो कौड़ी हैं। अपने संचालन के दौरान जिसने जो बोलना चाहा हमने बोलने दिया। हमको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पड़ी थी और वहां हमारा मूल्यांकन अनुशासन की तराजू से हो गया। अगले दिन इरफ़ान भाई ने संचालन करके बताया कि देखो ऐसे संचालन किया जाता है। उसी दौरान हमने देखा कि एक अनाम सा इलाहाबादी लड़का आता है विनीत की इज्जत उतार के चला जाता है। जब विनीत अपनी सफ़ाई में कुछ कहते हैं तो अनुशासित इरफ़ान भाई विनीत को सलाह देते हैं अपने खिलाफ़ बात सुनने की आदत डालनी चाहिये। हां , पहले दिन संचालन के दौरान माइक पास होने का फ़ायदा उठाते हुये हमने अपना ज्ञान झाड़ दिया और दू ठो डायलाग झाड़ दिये- जिसको जितनी अकल होती है उतनी बात करता है और जो जैसा होता है वैसा दूसरे के बारे में सोचता है! गोष्ठी के बाद में देखा कि सही में ये डायलाग सार्वजनिक टाइप के हैं।
९. बाद की प्रतिक्रियाओं में हमने पाया कि हमें तो इस कार्यक्रम की कुछ तमीज ही नहीं थी। दूर-दूर विराजमान रायचंदों (शब्द कापी राइट -ईस्वामी) ने बताया कि हमें ये करना चाहिये था, हमें वो करना चाहिये था। हमने ये मौका गंवा दिया, हमने वो अवसर लुटा दिया। ऐसा लगा कि हमने हिन्दी ब्लागिंग की इज्जत लुटा दी। घोर अपराध किया। चरम पर गुटबाजी की। यह भी गोया ब्लागिंग संगोष्टी कोई सोनछड़ी थी जिसको घुमाने मात्र से हिन्दी ब्लागिंग फ़र्श से अर्श तक पहुंच जाती। लेकिन हम उसको घुमाने की बजाय उस छड़ी से अपनी पीठ खुजाते रहे।
१०. नामवर जी के उद्धाटन की बात पर कुछ लोगों ने इतनी थुड़ी-थुड़ी की गोया हमने किसी अनपढ़ से फ़ीता कटवा लिया हो। नामवर जी से फ़ीता कटवा कर हमने आभासी जगत की अभिव्यक्ति की नाक कटवा दी। नामवरजी के बारें में लोगों के बयानों से हमें एक बार फ़िर लगा कि अज्ञानी का आत्मविश्वास तगड़ा होता है। वह कुछ भी साबित कर सकता है।
११. मनीषा पाण्डेय ने कहा कि वे लैंगिग भेदभाव पर अपनी बात कहेंगी। बाद के सभी सत्रों में उन्होंने जो भी बात रखी उसमें अपने कहे की रक्षा की।
१२. इलाहाबाद यात्रा के पहले हम अपने को बहुत बड़ा चिरकुट समझते थे। लेकिन लौटकर आकर पता चला कि हमसे बड़े चिरकुट वहां शिरकत कर गये और लौटने तक हमको हवा ही नहीं हुई। वो तो भला हो कि कुछ रपटें छपी तो पता चला वर्ना हम अंधेरे में ही बने रहते। इस यात्रा का ही प्रताप था कि हमारे आत्मीय लोगों ने हमारा एक्सरे करके हमें बताया कि हममें तकनीकी जहालत, दमित मंशायें आदि-इत्यादि सब कूट-कूट कर भरी हैं। ये संगोष्ठी न होती तो ये सब दबा-ढंका ही रह जाता। सामने ही न आ पाता।
१३. मसिजीवी मे ज्ञानजी से मौका निकालकर पूछ ही लिया- सरकारी कर्मचारियों द्वारा दफ़्तर के समय में ब्लागिंग के बारे में आपका क्या विचार है? ज्ञान जी लगता है इस सवाल की तैयारी करके आये थे सो बोले- ये सवाल सिरे से गलत है। मैं चौबीस घंटे की नौकरी पर रहता हूं। घर में दफ़्तर का काम चलता रहता है। तो मैं अपने दफ़्तर और घर को अलग-अलग कैसे परिभाषित करूं!
१४. समीर लाल ने ब्लागिंग सम्मेलन में ले जाये जाने वाले सामानों की लिस्ट बनायी है। मैं समीरलाल जी के संभावित गुस्से की चिंता किये बिना कहना चाहता हूं कि उनकी बनाई लिस्ट फ़र्जी है। एक आम मध्यम वर्गीय व्यक्ति जब इस तरह के किसी सम्मेलन में जाता है तो और कुछ साथ भले न ले जाये लेकिन अपना मिडिलची अहम जरूर साथ ले जाता है। बाकी चीजों तो हर कहीं मिल जाती हैं लेकिन इगो तो अपना ही साथ ले जाना होता है। पता नहीं कब किस बात पर माइंड करना पड़ जाये। किस बात पर बुरा मानना पड़े! बिना अहम के कुछ नहीं हो सकता भाई!
कुछ भाई लोगों का आक्रोश छलछलाकर फ़ूट रहा है। वे गुस्से में हैं कि हमने सरकारी पैसे पर गुलछर्रे उड़ाये। हा-हा, ही-ही की। उनका गुस्सा इधर-उधर के निशाने पर फ़ूट रहा है। उनकी जानकारी के लिये कुछ बातें बता दें ताकि वे निशाने पर चोट करें और उनकी हालत खोया पानी वाले मिर्जा की तरह न हो -[मिज़ाज, ज़बान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट,पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था।]
सिद्धार्थ ने अपनी किताब सत्यार्थ मित्र वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय को दिखाई। रायजी बहुत दिन इलाहाबाद में रहे हैं। उसी विश्वविद्यालय के हैं। उन्होंने सिद्धार्थ से एक ब्लागिंग का कार्यक्रम कराने और उसी में किताब का विमोचन कराने की बात कही/मानी/तय हुई। पहले कार्यक्रम सितम्बर महीने में होना था। फ़िर टल गया। अक्टूबर में हुआ।
आमंत्रितों की सूची वर्धा विश्वविद्यालय वालों ने तय की। कुछ नामों पर जब एतराज किया गया तो उन्होंने कहा कि इनको रहने दिया जाये। एकाध नाम और जोड़े गये। जो नाम उन्होंने तय किये उनके पते और फोन नम्बर जो पता थे उनको भेज दिये गये। उनका करीब पचीस लोगों को बुलाने का कार्यक्रम था। बाद में भदौरिया जी ने तमाम लोगों को व्यक्तिगत फोन भी किये।
हमको जब बताया गया हम चले गये। जाने के पहले घर वालों की डांट खाकर गये कि बड़ा बच्चा पहली बार हास्टल से लौट के आया है। उसको छोड़े बिना हम घर छोड़ गये। इत्ती जरूरी है ब्लागिंग।
हम वहां गये तो सबसे मजे-मजे से मिलना-जुलना हुआ। नये-पुराने लोग जिनको पढ़ते आये थे उनको आमने-सामने देखकर खुश हुये। मिले-भेंटे। बोले बतियाये। मुझे सब लोगों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। मुझे पता ही नही चला कि कौन साथी हिंदूवादी है कौन मार्क्सवादी। कौन अतिवादी है, कौन मानवतावादी। आयोजकों की व्यवस्था इस मामले में बहुत चौपट थी कि वाद के हिसाब से ब्लागरों को बिल्ले नहीं बांटे थे। सुबह-सुबह अमिताभ त्रिपाठी से मिला तो उनकी गजल/कविता की समझ के बारे में तारीफ़ करता रहा, शाम को प्रमेन्द्र दिखे आखिरी में तो प्रेम से उनको श्रोताओं के बीच से उनका परिचय कराया। मेरी नजर में प्रेमेन्द्र बच्चा है जो जब भी कानपुर आता है तो मिलकर जाता है। न मिल पाये तो फ़ोन पर बात करता है कि आये थे जा रहे हैं। लौटकर पता चला कि ये लोग तो हिन्दूवादी ब्लागर है। हमसे अनजाने में पहचानने में अंतर हो गया। हमें तो मिलकर अच्छा ही लगा लेकिन भाई लोगों के प्रति अनजाने में कुछ ऊंचनीच हो गयी हो तो माफ़ करें भाई लोग।
वहां रहने के दौरान किसी ने किसी किसिम की शिकायत की हो मुझे याद नहीं। लोग खूब-खूब बोले, ढेर-ढेर बतियाये। किसी किसिम की समस्या वहां नहीं दिखी। समय पर खाना/आने जाने के लिये सवारी/ट्रेन की व्यवस्था। मेरे ख्याल में कोई वहां और कुछ बोला हो लेकिन व्यवस्था से संबंधित कोई सवाल नहीं उठा।
बाद में पता चला कि वहां किसी किसिम की व्यवस्था थी ही नहीं सिवाय सुव्यवस्थित अव्यवस्था के। भेदभाव पूर्ण अव्यवस्था का लोग शान्ति से नोट ले रहे थे। आंखों में माइक्रोस्कोप फ़िट किये सारी खामियां नोट कर रहे थे। सारे विवरण इकट्ठा करके घर जाते ही नेट पर पलट दिये ताकि जिसको अनुज मानते हैं उसको उसकी यह सिखा सकें कि सबके सामने कि बेटा कार्यक्रम करते समय इन-इन बातों का ध्यान रखना तो तुम भूल ही गये। दूर बैठे लोग और दूर की बातें कर रहे थे कि हमने भयंकर अपराध करके डाल दिया।
वहां जिसकी जितनी समझ थी उतनी बातें हुईं। संजय तिवारी और दूसरे साथियों ने आने वाले खतरों के बारे में बताया। संजय तिवारी मुझे विस्फ़ोट विनजिप्ड दिखे। ऊर्जा का श्रोत। नामवरजी की बात पर जिन लोगों ने अपने की बोर्ड पटके वे सोचे और बतायें कि उन्होंने ऐसा क्या गलत कहा जिस पर लोग फ़िरंट हैं। ब्लागिंग में जिम्मेदारी की बात पर लोग हाय-हाय कर रहे हैं और 80 साल की उमर के विद्वान की ऐसी-तैसी कर रहे हैं। वे बतायें कि क्या ब्लागिंग के अवतरण के बाद राज्य के कानून, नियम, अधिनियम आदि सब फ़ूंक-ताप दिये जायेंगे? ब्लागिंग समाज के लिये है या समाज ब्लागिंग के लिये यह सवाल तो तय करना ही होगा।
इस सारे कार्यक्रम के आयोजक वर्धा विश्वविद्यालय वाले थे। सिद्धार्थ उनके सहयोगी थे। उनसे जैसा बना वैसा कार्यक्रम किया/कराया उन्होंने। इसके कुछ महीने पहले भी सिद्धार्थ ने एक कार्यक्रम कराया इलाहाबाद में। सिद्धार्थ पर सीधे/तिरछे तमाम तरह आरोप लगाने वाले सोचें और बतायें कि अपने शहर में उन्होंने इस तरह के कितने आयोजन करवाये।
जहां तक सरकारी पैसे से गुलछर्रे उड़ाने वाली बात है तो भैये वर्धा विश्वविद्यालय सरकारी अनुदान से इस तरह का कार्यक्रम करवाती है। यह भी करवाया है। सूचना के अधिकार के तरह आप उनसे जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि यह घपला कैसे हुआ। इनको क्यों बुलाया उनको क्यों नहीं बुलाया। ‘वाद’ के हिसाब से ब्लागर क्यों नहीं बुलाये गये। जो आये थे उनको उनकी गरिमा के अनुरूप सम्मान से क्यों नहीं रखा गया।
इस सारे कार्यक्रम में सिद्धार्थ ने दिन-रात मेहनत की। पिछली मई को हिन्दी ब्लालिंग कार्यशाला का आयोजन करवाया और अब वर्धा विश्वविद्यालय और हिन्दुस्तानी एकाडेमी के सहयोग से राष्ट्रीय ब्लागिंग संगोष्ठी। छह माह में दो कार्यक्रम ब्लागिंग से संबंधित कार्यक्रम करवाये उन्होंने। इसी मौके पर हिदी ब्लागिंग के चुनिंदा लेख लेकर एक किताब छपवानी थी। बहुत कम लोगों ने अपने लेख भेजे। लगता है । अच्छा ही हुआ कि किताब नहीं छपी। वर्ना उस पर भी लोग सिद्दार्थ को दौड़ाते कि ये कैसे किया/वो कैसे किया। अब क्या हिम्मत बची होगी सिद्धार्थ में किताब छपवाने की? क्या घरवाले टोंकेगे नहीं कि क्या जरूरत है पचड़े में पड़ने की जब मिलना गालियां ही हैं।
सिद्धार्थ के धैर्य और साहस की मैं मन से तारीफ़ करता हूं। यह सिद्धार्थ का ही जिगरा है कि वे सारे कार्यक्रम में मुस्कराते हुये लगे रहे। न केवल कार्यक्रम में बल्कि बाद में भी जब भाई लोगों ने बिना पूरी बात जाने उनकी दे तेरे की/ले तेरे की की तब भी वे शान्त रह सके। वर्धा विश्वविद्यालय के भदौरियाजी ने भी कार्यक्रम के सफ़ल संचालन में बहुत मेहनत की।
बाकी जहां तक अपनी बात है। हम एक बार फ़िर बता दें कि मुझे वहां कुछ ऐसा नहीं दिखा जिसका कि हम रोना रो सकें। सबसे मिलकर हम बहुत पुलकित च किलकित हुये। जिनसे हम केवल नेट पर मिले उनसे मिलकर लगा कि ये सब अपने ही हैं। अफ़लातूनजी ने आने से साफ़ मना कर दिया था। हमने उनसे कहा -आना तो पड़ेगा भैया। अधिक से अधिक यह होगा कि हमें एक दिन पहले आना पड़ेगा और बनारस से उठाकर लाना पड़ेगा। वे अपना सारा नखरा झाड़कर आये और पूरे दो दिन भाषण झाड़ते रहे। अजित वडनेरकर , रविरतलामी और प्रियंकर जी को जबरियन बुलाया गया। ज्ञानजी व भदौरियाजी के सहयोग से! वे आये और हम सब बहुत-बहुत कुछ लेकर लौटे। अभय और प्रमोद जी चाहते हुये भी न आ पाये। उनके न आ पाने का अफ़सोस रहेगा। कार्यक्रम के दौरान हम लोगों ने अभय और प्रमोद जी की उपस्थिति उनकी फ़िल्म सरपत देखकर महसूस की।
ब्लाग तो मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम है। अभिव्यक्ति वैसी ही तो होगी जैसा हम हैं। ब्लाग कोई अलादीन का चिराग तो है नहीं जो आदमी को एकदम से रूपान्तरित कर देगा।
बहरहाल सबसे मिलकर हम मन से और उदात्त होकर लौटे। लगा कि दुनिया में बहुत कुछ सुन्दर है और उस सुन्दर में बहुत कुछ लेकर हम संगोष्ठी के बाद लेकर लौटे।
इति श्री इलाहाबाद यात्रा कथा अंतिम अध्याय समाप्त:।
जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे।
हम कोई आम नहीं
जो पूजा के काम आयेंगे
हम चंदन भी नहीं
जो सारे जग को महकायेंगे
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे।
बांसुरी बन के,
सबका मन तो बहलायेंगे,
फिर भी बदनसीब कहलायेंगे।
जब भी कहीं मातम होगा,
हम ही बुलाये जायेंगे,
आखिरी मुकाम तक साथ देने के बाद
कोने में फेंक दिये जायेंगे।
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे ,उतना हरियायेंगे।
राजेश्वर पाठक, शाहजहांपुर
इस तामझाम के चलते देखा गया कि लोगों का हास्य-बोध अचानक मुखर हो गया। विस्फोट की तरह। अद्भुत व्यंग्य लिखे लोगों नें। कल्पना शक्ति चरम पर। गद्य में रौद्र रस की छटा देखने को मिली। न जाने कितने लोग करमचंद जासूस बन गये। राष्ट्रीय संगोष्ठी ने लोगों को अंतरराष्ट्रीय दूरदूष्टि से लैस कर दिया। जो जितना दूर था उसने उतने सच्चे किस्से सुनाये।
सुना है जब भारत पर चीन ने हमला किया था तब देश वाशियों ने अपना सब कुछ सौंप दिया देश के काम के लिये। वही राष्ट्रीय भावना एक बार फ़िर देखने को मिली। संगोष्ठी संकट के समय जिसके पास जो था उसने हिन्दी नेट को खुले दिल से सौंप दिया। अपने विचार, अपना धिक्कार, अपना हाहाकार, अपनी सहमतियां, अपनी असहमतियां, अपनी चिरकुटैंया, अपनी बलैय़ां। कोमल लोगों ने अपनी कठोरता की कुंजी सौंप दी। व्यापक हित में अग्रजों ने अनुजों की इज्जत उतार दी। अद्भुत दृश्य दिखा। सब कुछ शोभा बरनि न जाये वाले मोड में पाया गया।
हम पहले ही कह चुके हैं हम जितना कुछ पाने की सोचकर गये थे उससे ज्यादा पाकर लौटे। रही-सही कसर साथियों की प्रतिक्रियाओं ने पूरी की। जो वहां जाकर न पा पाये थे वह लोगों की अभिव्यक्तियों में मिल गया। मालामाल हो गये। अपने बारे में तमाम बातें जानने को मिलीं जो अन्यथा हम जान ही न पाते। गाना गा रहे हैं- मैं जो कभी नहीं था वह भी दुनिया ने पढ़ डाला।
१. इस संगोष्ठी में विनीत कुमार से मिलने का मौका मिला। विनीत का काम के प्रति अद्भुत समर्पण मन खुश हो गया। विनीत ने अपने ब्लाग पर अपनी झांसे वाली फोटो लगा रखी है। सामने से देखने में वो कहीं बेहतर दिखते हैं। ब्लाग वाली उड़ी-उड़ी फ़ोटो बनवाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी उनको। अगर किसी को इलाहाबाद में क्या हुआ वह बिना नमक मिर्च के जानना हो तो विनीत की ये और ये वाली पोस्ट देखे।
२. अफ़लातून भैया कान में कुछ खोंसे हुये गाना-ऊना सुनते रहे। लोगों को मुहावरे में संशोधन करना चाहिये। कान में तेल डालने की बजाय कान में ईअर प्लग डाले होना चाहिये। देश में समाजवाद के विफ़ल होने के कारणों में कान में ईअर प्लग की भूमिका पर शोध कार्य होना चाहिये। अफ़लू भैया, भौजी से फोन पर डांट भी खाये। इससे यह सिद्ध हुआ कि समाजवादी और कुछ हासिल भले न कर पाये पर पत्नी से डरने का मौलिक अधिकार अवश्य हासिल कर सकता है।
३.मसिजीवी को हम बाई डिफ़ाल्ट खुराफ़ाती ब्लागर मानते रहे हैं। यहां इलाहाबाद में भी उन्होंने मेरे विश्वास की रक्षा की। नामवरजी को लुढका दिया, हमसे अंडे बेचवा दिये और क्या-क्या न किया। घुमा-फ़िराकर हमें कंघी-चोर भी बता दिया। कंघी की खोज में कुर्सियां उलटा दीं। लेकिन मसिजीवी का फ़ड़कता संबोधन सुनकर तबियत खुश हो गयी। संचालन भी मसिजीवी ने झकास किया। मसिजीवी को पाडकास्टिंग की दिशा में मुंह आजमाना चाहिये।
४. हिमांशु और मास्टर साहब बड़े प्यारे –प्यारे साथी लगे। गिरिजेश ने लौटकर अपनी छटा दिखायी कि उनके अन्दर इतना खुराफ़ाती पत्रकार बैठा है। शहरों का नाम बदलने में लोग सालों लगा देते हैं। गिरिजेश ने एक झटके में इलाहाबाद से ’इ’ गायब कर दिया।
५. मीनू खरेजी का इलाहाबाद से लौटकर विधा परिवर्तन ही हो गया। अच्छी-भली गीतकार मानी जाती थीं लौटने ही हास्य-व्यंग्य पार्टी में शामिल हो गयीं। कुछ लोगों यह भी सोच रहे हैं कि उन्होंने वहां मच्छरों से समझौता किया था अगर वे उनको काटेंगे नहीं तो वे उनके बारे में पोस्ट लिखेंगी। लौटते ही उन्होंने अपना वायदा निभाया।
६. संगोष्ठी में ही हमने देखा कि ज्यादातर लोगों ने बोलने के दौरान वही बोला जो उनको बोलना था। विषय के दबाब में बहुत कम लोग आये। भाषण के आगे विषय मुंह छिपाकर बैठा गया।
७. हमने यह भी पाया कि मोहल्ले वाले अविनाश बोलने में थोड़ा शर्माते हैं। जब बोलने की बारी आई तो अपना काम समरेन्द्र को आउटसोर्स कर दिया।
८. हमने एक बार फ़िर पाया कि ब्लागर में तो हम कौड़ी के तीन हैं हीं संचालक भी दो कौड़ी हैं। अपने संचालन के दौरान जिसने जो बोलना चाहा हमने बोलने दिया। हमको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पड़ी थी और वहां हमारा मूल्यांकन अनुशासन की तराजू से हो गया। अगले दिन इरफ़ान भाई ने संचालन करके बताया कि देखो ऐसे संचालन किया जाता है। उसी दौरान हमने देखा कि एक अनाम सा इलाहाबादी लड़का आता है विनीत की इज्जत उतार के चला जाता है। जब विनीत अपनी सफ़ाई में कुछ कहते हैं तो अनुशासित इरफ़ान भाई विनीत को सलाह देते हैं अपने खिलाफ़ बात सुनने की आदत डालनी चाहिये। हां , पहले दिन संचालन के दौरान माइक पास होने का फ़ायदा उठाते हुये हमने अपना ज्ञान झाड़ दिया और दू ठो डायलाग झाड़ दिये- जिसको जितनी अकल होती है उतनी बात करता है और जो जैसा होता है वैसा दूसरे के बारे में सोचता है! गोष्ठी के बाद में देखा कि सही में ये डायलाग सार्वजनिक टाइप के हैं।
९. बाद की प्रतिक्रियाओं में हमने पाया कि हमें तो इस कार्यक्रम की कुछ तमीज ही नहीं थी। दूर-दूर विराजमान रायचंदों (शब्द कापी राइट -ईस्वामी) ने बताया कि हमें ये करना चाहिये था, हमें वो करना चाहिये था। हमने ये मौका गंवा दिया, हमने वो अवसर लुटा दिया। ऐसा लगा कि हमने हिन्दी ब्लागिंग की इज्जत लुटा दी। घोर अपराध किया। चरम पर गुटबाजी की। यह भी गोया ब्लागिंग संगोष्टी कोई सोनछड़ी थी जिसको घुमाने मात्र से हिन्दी ब्लागिंग फ़र्श से अर्श तक पहुंच जाती। लेकिन हम उसको घुमाने की बजाय उस छड़ी से अपनी पीठ खुजाते रहे।
१०. नामवर जी के उद्धाटन की बात पर कुछ लोगों ने इतनी थुड़ी-थुड़ी की गोया हमने किसी अनपढ़ से फ़ीता कटवा लिया हो। नामवर जी से फ़ीता कटवा कर हमने आभासी जगत की अभिव्यक्ति की नाक कटवा दी। नामवरजी के बारें में लोगों के बयानों से हमें एक बार फ़िर लगा कि अज्ञानी का आत्मविश्वास तगड़ा होता है। वह कुछ भी साबित कर सकता है।
११. मनीषा पाण्डेय ने कहा कि वे लैंगिग भेदभाव पर अपनी बात कहेंगी। बाद के सभी सत्रों में उन्होंने जो भी बात रखी उसमें अपने कहे की रक्षा की।
१२. इलाहाबाद यात्रा के पहले हम अपने को बहुत बड़ा चिरकुट समझते थे। लेकिन लौटकर आकर पता चला कि हमसे बड़े चिरकुट वहां शिरकत कर गये और लौटने तक हमको हवा ही नहीं हुई। वो तो भला हो कि कुछ रपटें छपी तो पता चला वर्ना हम अंधेरे में ही बने रहते। इस यात्रा का ही प्रताप था कि हमारे आत्मीय लोगों ने हमारा एक्सरे करके हमें बताया कि हममें तकनीकी जहालत, दमित मंशायें आदि-इत्यादि सब कूट-कूट कर भरी हैं। ये संगोष्ठी न होती तो ये सब दबा-ढंका ही रह जाता। सामने ही न आ पाता।
१३. मसिजीवी मे ज्ञानजी से मौका निकालकर पूछ ही लिया- सरकारी कर्मचारियों द्वारा दफ़्तर के समय में ब्लागिंग के बारे में आपका क्या विचार है? ज्ञान जी लगता है इस सवाल की तैयारी करके आये थे सो बोले- ये सवाल सिरे से गलत है। मैं चौबीस घंटे की नौकरी पर रहता हूं। घर में दफ़्तर का काम चलता रहता है। तो मैं अपने दफ़्तर और घर को अलग-अलग कैसे परिभाषित करूं!
१४. समीर लाल ने ब्लागिंग सम्मेलन में ले जाये जाने वाले सामानों की लिस्ट बनायी है। मैं समीरलाल जी के संभावित गुस्से की चिंता किये बिना कहना चाहता हूं कि उनकी बनाई लिस्ट फ़र्जी है। एक आम मध्यम वर्गीय व्यक्ति जब इस तरह के किसी सम्मेलन में जाता है तो और कुछ साथ भले न ले जाये लेकिन अपना मिडिलची अहम जरूर साथ ले जाता है। बाकी चीजों तो हर कहीं मिल जाती हैं लेकिन इगो तो अपना ही साथ ले जाना होता है। पता नहीं कब किस बात पर माइंड करना पड़ जाये। किस बात पर बुरा मानना पड़े! बिना अहम के कुछ नहीं हो सकता भाई!
कुछ भाई लोगों का आक्रोश छलछलाकर फ़ूट रहा है। वे गुस्से में हैं कि हमने सरकारी पैसे पर गुलछर्रे उड़ाये। हा-हा, ही-ही की। उनका गुस्सा इधर-उधर के निशाने पर फ़ूट रहा है। उनकी जानकारी के लिये कुछ बातें बता दें ताकि वे निशाने पर चोट करें और उनकी हालत खोया पानी वाले मिर्जा की तरह न हो -[मिज़ाज, ज़बान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट,पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था।]
सिद्धार्थ ने अपनी किताब सत्यार्थ मित्र वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय को दिखाई। रायजी बहुत दिन इलाहाबाद में रहे हैं। उसी विश्वविद्यालय के हैं। उन्होंने सिद्धार्थ से एक ब्लागिंग का कार्यक्रम कराने और उसी में किताब का विमोचन कराने की बात कही/मानी/तय हुई। पहले कार्यक्रम सितम्बर महीने में होना था। फ़िर टल गया। अक्टूबर में हुआ।
आमंत्रितों की सूची वर्धा विश्वविद्यालय वालों ने तय की। कुछ नामों पर जब एतराज किया गया तो उन्होंने कहा कि इनको रहने दिया जाये। एकाध नाम और जोड़े गये। जो नाम उन्होंने तय किये उनके पते और फोन नम्बर जो पता थे उनको भेज दिये गये। उनका करीब पचीस लोगों को बुलाने का कार्यक्रम था। बाद में भदौरिया जी ने तमाम लोगों को व्यक्तिगत फोन भी किये।
हमको जब बताया गया हम चले गये। जाने के पहले घर वालों की डांट खाकर गये कि बड़ा बच्चा पहली बार हास्टल से लौट के आया है। उसको छोड़े बिना हम घर छोड़ गये। इत्ती जरूरी है ब्लागिंग।
हम वहां गये तो सबसे मजे-मजे से मिलना-जुलना हुआ। नये-पुराने लोग जिनको पढ़ते आये थे उनको आमने-सामने देखकर खुश हुये। मिले-भेंटे। बोले बतियाये। मुझे सब लोगों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। मुझे पता ही नही चला कि कौन साथी हिंदूवादी है कौन मार्क्सवादी। कौन अतिवादी है, कौन मानवतावादी। आयोजकों की व्यवस्था इस मामले में बहुत चौपट थी कि वाद के हिसाब से ब्लागरों को बिल्ले नहीं बांटे थे। सुबह-सुबह अमिताभ त्रिपाठी से मिला तो उनकी गजल/कविता की समझ के बारे में तारीफ़ करता रहा, शाम को प्रमेन्द्र दिखे आखिरी में तो प्रेम से उनको श्रोताओं के बीच से उनका परिचय कराया। मेरी नजर में प्रेमेन्द्र बच्चा है जो जब भी कानपुर आता है तो मिलकर जाता है। न मिल पाये तो फ़ोन पर बात करता है कि आये थे जा रहे हैं। लौटकर पता चला कि ये लोग तो हिन्दूवादी ब्लागर है। हमसे अनजाने में पहचानने में अंतर हो गया। हमें तो मिलकर अच्छा ही लगा लेकिन भाई लोगों के प्रति अनजाने में कुछ ऊंचनीच हो गयी हो तो माफ़ करें भाई लोग।
वहां रहने के दौरान किसी ने किसी किसिम की शिकायत की हो मुझे याद नहीं। लोग खूब-खूब बोले, ढेर-ढेर बतियाये। किसी किसिम की समस्या वहां नहीं दिखी। समय पर खाना/आने जाने के लिये सवारी/ट्रेन की व्यवस्था। मेरे ख्याल में कोई वहां और कुछ बोला हो लेकिन व्यवस्था से संबंधित कोई सवाल नहीं उठा।
बाद में पता चला कि वहां किसी किसिम की व्यवस्था थी ही नहीं सिवाय सुव्यवस्थित अव्यवस्था के। भेदभाव पूर्ण अव्यवस्था का लोग शान्ति से नोट ले रहे थे। आंखों में माइक्रोस्कोप फ़िट किये सारी खामियां नोट कर रहे थे। सारे विवरण इकट्ठा करके घर जाते ही नेट पर पलट दिये ताकि जिसको अनुज मानते हैं उसको उसकी यह सिखा सकें कि सबके सामने कि बेटा कार्यक्रम करते समय इन-इन बातों का ध्यान रखना तो तुम भूल ही गये। दूर बैठे लोग और दूर की बातें कर रहे थे कि हमने भयंकर अपराध करके डाल दिया।
वहां जिसकी जितनी समझ थी उतनी बातें हुईं। संजय तिवारी और दूसरे साथियों ने आने वाले खतरों के बारे में बताया। संजय तिवारी मुझे विस्फ़ोट विनजिप्ड दिखे। ऊर्जा का श्रोत। नामवरजी की बात पर जिन लोगों ने अपने की बोर्ड पटके वे सोचे और बतायें कि उन्होंने ऐसा क्या गलत कहा जिस पर लोग फ़िरंट हैं। ब्लागिंग में जिम्मेदारी की बात पर लोग हाय-हाय कर रहे हैं और 80 साल की उमर के विद्वान की ऐसी-तैसी कर रहे हैं। वे बतायें कि क्या ब्लागिंग के अवतरण के बाद राज्य के कानून, नियम, अधिनियम आदि सब फ़ूंक-ताप दिये जायेंगे? ब्लागिंग समाज के लिये है या समाज ब्लागिंग के लिये यह सवाल तो तय करना ही होगा।
इस सारे कार्यक्रम के आयोजक वर्धा विश्वविद्यालय वाले थे। सिद्धार्थ उनके सहयोगी थे। उनसे जैसा बना वैसा कार्यक्रम किया/कराया उन्होंने। इसके कुछ महीने पहले भी सिद्धार्थ ने एक कार्यक्रम कराया इलाहाबाद में। सिद्धार्थ पर सीधे/तिरछे तमाम तरह आरोप लगाने वाले सोचें और बतायें कि अपने शहर में उन्होंने इस तरह के कितने आयोजन करवाये।
जहां तक सरकारी पैसे से गुलछर्रे उड़ाने वाली बात है तो भैये वर्धा विश्वविद्यालय सरकारी अनुदान से इस तरह का कार्यक्रम करवाती है। यह भी करवाया है। सूचना के अधिकार के तरह आप उनसे जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि यह घपला कैसे हुआ। इनको क्यों बुलाया उनको क्यों नहीं बुलाया। ‘वाद’ के हिसाब से ब्लागर क्यों नहीं बुलाये गये। जो आये थे उनको उनकी गरिमा के अनुरूप सम्मान से क्यों नहीं रखा गया।
इस सारे कार्यक्रम में सिद्धार्थ ने दिन-रात मेहनत की। पिछली मई को हिन्दी ब्लालिंग कार्यशाला का आयोजन करवाया और अब वर्धा विश्वविद्यालय और हिन्दुस्तानी एकाडेमी के सहयोग से राष्ट्रीय ब्लागिंग संगोष्ठी। छह माह में दो कार्यक्रम ब्लागिंग से संबंधित कार्यक्रम करवाये उन्होंने। इसी मौके पर हिदी ब्लागिंग के चुनिंदा लेख लेकर एक किताब छपवानी थी। बहुत कम लोगों ने अपने लेख भेजे। लगता है । अच्छा ही हुआ कि किताब नहीं छपी। वर्ना उस पर भी लोग सिद्दार्थ को दौड़ाते कि ये कैसे किया/वो कैसे किया। अब क्या हिम्मत बची होगी सिद्धार्थ में किताब छपवाने की? क्या घरवाले टोंकेगे नहीं कि क्या जरूरत है पचड़े में पड़ने की जब मिलना गालियां ही हैं।
सिद्धार्थ के धैर्य और साहस की मैं मन से तारीफ़ करता हूं। यह सिद्धार्थ का ही जिगरा है कि वे सारे कार्यक्रम में मुस्कराते हुये लगे रहे। न केवल कार्यक्रम में बल्कि बाद में भी जब भाई लोगों ने बिना पूरी बात जाने उनकी दे तेरे की/ले तेरे की की तब भी वे शान्त रह सके। वर्धा विश्वविद्यालय के भदौरियाजी ने भी कार्यक्रम के सफ़ल संचालन में बहुत मेहनत की।
बाकी जहां तक अपनी बात है। हम एक बार फ़िर बता दें कि मुझे वहां कुछ ऐसा नहीं दिखा जिसका कि हम रोना रो सकें। सबसे मिलकर हम बहुत पुलकित च किलकित हुये। जिनसे हम केवल नेट पर मिले उनसे मिलकर लगा कि ये सब अपने ही हैं। अफ़लातूनजी ने आने से साफ़ मना कर दिया था। हमने उनसे कहा -आना तो पड़ेगा भैया। अधिक से अधिक यह होगा कि हमें एक दिन पहले आना पड़ेगा और बनारस से उठाकर लाना पड़ेगा। वे अपना सारा नखरा झाड़कर आये और पूरे दो दिन भाषण झाड़ते रहे। अजित वडनेरकर , रविरतलामी और प्रियंकर जी को जबरियन बुलाया गया। ज्ञानजी व भदौरियाजी के सहयोग से! वे आये और हम सब बहुत-बहुत कुछ लेकर लौटे। अभय और प्रमोद जी चाहते हुये भी न आ पाये। उनके न आ पाने का अफ़सोस रहेगा। कार्यक्रम के दौरान हम लोगों ने अभय और प्रमोद जी की उपस्थिति उनकी फ़िल्म सरपत देखकर महसूस की।
ब्लाग तो मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम है। अभिव्यक्ति वैसी ही तो होगी जैसा हम हैं। ब्लाग कोई अलादीन का चिराग तो है नहीं जो आदमी को एकदम से रूपान्तरित कर देगा।
बहरहाल सबसे मिलकर हम मन से और उदात्त होकर लौटे। लगा कि दुनिया में बहुत कुछ सुन्दर है और उस सुन्दर में बहुत कुछ लेकर हम संगोष्ठी के बाद लेकर लौटे।
इति श्री इलाहाबाद यात्रा कथा अंतिम अध्याय समाप्त:।
मेरी पसन्द
हम तो बांस हैं,जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे।
हम कोई आम नहीं
जो पूजा के काम आयेंगे
हम चंदन भी नहीं
जो सारे जग को महकायेंगे
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे।
बांसुरी बन के,
सबका मन तो बहलायेंगे,
फिर भी बदनसीब कहलायेंगे।
जब भी कहीं मातम होगा,
हम ही बुलाये जायेंगे,
आखिरी मुकाम तक साथ देने के बाद
कोने में फेंक दिये जायेंगे।
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे ,उतना हरियायेंगे।
राजेश्वर पाठक, शाहजहांपुर
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आज किसी लिंक ने वापस इस पोस्ट पर ला पटका, वर्ना आपकी उद्धारक सोच का पता भी न चलता। हम तो शब्दों का सफर स्वांतः सुखाय कर रहे हैं। किसी अर्बन डिक्शनरी को हमारे सिर पर उठा कर मारने की क्या ज़रूरत पड़ गई भाई?
मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि नामवर को गाली देने की सफाई देने की जगह आप मुद्दे को क्यों भटका रहे हैं….आप भी वही कर रहे हैं जो कई मूर्ख भारतीय करते रहे हैं। खुद को कुलीन मानना। विदेश जा कर एक आभिजात्य ओढ़ते हुए हिन्दुस्तानी ब्लागरों को गाली दे रहे हैं। बार बार अलग अलग लिंक दिखा कर यह बताने की असफल कोशिश कर रहे हैं कि इसे कहते हैं ब्लागिंग या ऐसे आयोजित किए जाते हैं सेमिनार।
अर्बन डिक्शनरी का लिंक भेजने की क्या ज़रूरत पड़ गई। इसका मुझे क्या करना है ज़रा बताएं तो? आप शब्दों का सफर से इसकी तुलना करने को कह रहे हैं, मैं कहता हूं दोनों की कोई तुलना ही नहीं है। अर्बन डिक्शनरी शब्दों की विवेचना नहीं कर रही है, जो शब्दों का सफर कर रहा है। अर्बन डिक्शनरी विभिन्न धातुमूलों का संदर्भ एक ही स्थान पर उपलब्ध नहीं करा रही है जो शब्दों का सफर कर रहा है। सबसे बड़ी बात यह कि ये तमाम प्रयास सामूहिक हैं जबकि शब्दों का सफर एकल प्रयास है। एक नहीं अनेक बिन्दु है। जहां तक तकनीक का सवाल है, मुझे उसकी बहुत ज़रूरत नहीं है।
बेशक आप शुभचिंतक की तरह शब्दों के सफर को भी अर्बन डिक्शनरी की तरह तकनीकी रूप से समृद्ध और बहुत व्यापक रूप में देखना चाहते हैं। पर क्या इस विचार का बीज रुप डालने से पहले नामवर को गाली बकने का अनुष्ठान करना ज़रूरी था? शब्दों का सफर आज जिस रूप में है, शुरू से ही वैसा है। आपने बीजावपन का यही वक्त क्यों चुना। इससे पहले न तो आपने और न आपके आभिजात्य समूह के किसी साथी ने कभी मेरे ब्लाग पर किसी किस्म कि टिप्पणी करने की कृपा की। निजी स्तर पर भी कभी कोई दुआ,सलाम नहीं हुआ। यह कैसी सदेच्छा, कैसा भाईचारा, कैसी साझेदारी? क्या मुझे शब्दों का सफर चलाना चाहिए या बंद करना चाहिए, कुछ तो साफ बोलिये भाई साहब?
दरअसल आप सिर्फ तुर्की ब तुर्की जवाब दिये जा रहे हैं।“कवितागिरी का जवाब भी दूं?”जैसे वाक्य इसे सिद्ध कर रहे हैं। खुद का बचाव कर रहे हैं। अब ये नया पेंच ले आए हैं कि दरअसल भारतीय हिन्दी ब्लागरों के उद्धार करने की बात आप सोच रहे थे। इलाहाबाद में वैसा ही कुछ होना चाहिए था, सो यह सब लिखा। ठीक है। नामवर को गाली देने का क्या मतलब था तब भी? और फिर सारे मंतव्य सीधी सच्ची हिन्दी में क्यो न लिखे। जब सिद्धार्थजी ने इस सेमिनार की पहली सूचना दी थी तब भी आप उन्हें याद आपकी निगाह में किन्हीं महत्वपूर्ण मुद्दों की याद दिला सकते थे।
अब हम तो ब्लागर हैं नहीं। इसलिए कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं है। मानता हूं कि जैसे हम पश्चिम से कई मामलों में पीछे हैं वैसे ही यहां भी होंगे। ट्रेंड, तकनीक के स्तर पर आप भी चूंकि वहां हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं। इतनी जल्दी कोई नहीं बदलना चाहता। बदल भी नहीं सकता। दफ्तरों में खटनेवाला मध्यमवर्ग अब कम्प्यूटर पर काम करना सीख गया है, इसे ही महत्वपूर्ण मानें। धीरे-धीरे बाकी चीज़ें भी आ जाएंगी। अनपढ़ अमेरिका में भी बसते हैं। जहालत तो बेशक भारत से कई गुनी ज्यादा है वहां। मोटरसाइकल चलानेवाला हर आदमी न तो मोटर मैकेनिक होता है और न ही मोटोक्रास चैम्पियन। ये तीनों अलग अलग। अभी भारतीय ब्लागर शायद ठीक तरह से ब्लागिंग नहीं जानता, जान जाएगा। महज़ इस इच्छा को जताने के लिए नामवर को गाली बकने की ज़रूरत क्या थी ?
काश, आप सुझाते कि इलाहाबाद सेमिनार में आपकी ओर से विदेशों में बसे हिन्दी ब्लागरों की ओर से कोई पर्चा पढ़ा जाना चाहिए। यह एक महत्वपूर्ण पहल होती। निश्चित ही बेहतर ब्लागिंग, परिपक्व और सुप्रचारित-प्रसारित ब्लागिंग के मुद्दों पर हमारा ध्यान जाता। क्योंकि यह सब हम नहीं जानते। पर चिरपरिचित अमन्यता, दर्प जो प्रकारांतर से अन्य कई संकते भी करता है, का प्रदर्शन ज़रूरी था?
कृपया हिन्दी ब्लागरों को वैसा ही सहयोग दें, जैसा आप चाहते हैं। उपदेश न दें। मठाधीश की मुद्रा छोड़े और सहयोगी बनें। याद रखें आपकी कल्पना के नामवर और आपमें भी ज्यादा अंतर नहीं है।
I dont see any need to abuse or insult anyone.We may have differences but it will not be wise to condemn.
Kindly send good suggestions,be positive and open minded.We are not expected to make such comments which can hurt or trouble others,we are here to support a cause,for free expression of views and thoughts.
Thats all,no comments ,no criticism now.
Organizers should have invited a vider range of bloggers,publicise the event before but every mind has a limit and we must confess it.
Best wishes to all who have taken active part in THIS MAHABHARAT.
Dr.Bhoopendra
जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है
खैर……….
फुरसतिया पे पढ़ के हमें भी मन करने लगा कि काश हम भी इलाहबाद पहुँच पाए होते
जब पढना इतना अच्छा लगा तो खुद जा कर देखने पर कैसा लगता ?
और दिया विधु को आकर्श्ण उसकी लम्बी दूरी ने
सह्ज प्राप्त का हम समुचित सम्मान नही कर पाते
आदर दिया प्यार को केवल दूरी की मजबूरी ने