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Thursday, August 25, 2022

ट्रेवल ब्लागर Anany Shukla की युवा पत्रकार Ragini Srivastava से बातचीत

 एक युवा घुमक्कड़ और ट्रेवल ब्लागर Anany Shukla की युवा पत्रकार Ragini Srivastava से बातचीत। लखनऊ से निकलने वाले अख़बार विधान केशरी से जुड़ी रागिनी शाहजहाँपुर की अकेली रजिस्टर्ड महिला पत्रकार हैं और अपना यू ट्यूब चैनल रागिनी टाइम्स चलाती हैं। अनन्य ने पिछले वर्ष कारपोरेट की नौकरी छोड़कर (https://www.goldmansachs.com) घूमना , लिखना और ट्रिप लीडिंग करना शुरू किया। अपनी मित्र काजल गुप्ता के साथ फिरगुन ट्रेवल्स (firguntravels.com) नाम से कम्पनी शुरू की। उनकी नौकरी छोड़कर घूमना शुरू करने को लेकर बनाया वीडियो ( https://www.instagram.com/reel/CdTc_zdF3Aq/?igshid=YmMyMTA2M2Y=) को अब तकि 17 लाख लोग देख चुके हैं।

इन दो युवाओं की बातचीत सुनिए। इनको अपनी शुभकामनाएँ दीजिए। रागिनी टाइम्स चैनल को सब्सक्राइब कीजिए और अनन्य को Instagram पर फालो (।https://instagram.com/ananyshukla?igshid=YmMyMTA2M2Y=) शुभकामनाएं। । घूमने निकलिए। फ़िलहाल तो सुनिए बातचीत और इस पर अपनी राय बताइए।

https://www.facebook.com/share/p/9v5Q6oEVAcNeq8ZJ/

Monday, July 05, 2021

हमको छोटी-छोटी खुशियों का आनंद उठाना सीखना चाहिए

 हमको छोटी-छोटी खुशियों का आनंद उठाना सीखना चाहिए।

हमारे आसपास तमाम बहुत अच्छे लोग हैं।
हमको अपने आप को भी प्यार करना चाहिए।
इसी तरह की और इसके साथ कुछ खूबसूरत कविताएं भी सुनिए इस बातचीत में। बातचीत में शामिल है हमारे छोटे सुपुत्र Anany Shukla

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222625637123081

Thursday, December 31, 2020

मेहनत करने वाले के लिए काम की कमी नहीं होती

 

कल सोबरन लाल मिले। सड़क किनारे फ़सक्का मारे बैठे। तसले में वाल पुट्टी घोल रहे थे। घोल रहे थे , मिला रहे थे। वाल पुट्टी दीवार पर लगाई जाएगी। दीवार चिकनी होने के बाद पेंट होगा। इमारत चमकेगी। सोबरन लाल अपने खुरदुरे हाथों से पुट्टी तैयार कर रहे थे। हर चकमती इमारत के पीछे खुरदुरे हाथों की मेहनत लगी होती है।
52 साल के सोबरन ने सालों पहले पुताई, पुट्टी का काम शुरू किया। पहली बार 20 रुपये मिली थी दिहाड़ी। आज 400 रुपये मिलते हैं। लेकिन 20 रुपये की दिहाड़ी की याद ज्यादा खुशनुमा है। उस समय सवा रुपये का पांच किलो गुड़ मिलता था। आज चालीस रुपये किलो है। मतलब मंहगाई बढ़ी 160 गुना जबकि तनख्वाह बढ़ी 20 गुना।
दिहाड़ी और मंहगाई के आंकड़े हो सकता है कुछ गड़बड़ हो लेकिन एक कामगार को अपनी तरह से समय को देखने की आजादी पर कौन अंकुश लगा सकता है।
तीन बेटियों और दो बेटों के पिता सोबरन दो लड़कियों की शादी कर चुके हैं। एक की करनी है। बेटियां मजे में है। बेटे भी काम करते हैं। तीन टिफिन बनते हैं सुबह। सब निकलते हैं काम पर।
'काम की कमी नहीं। काम हमेशा मिल जाता है। मेहनत से काम करने वाले को काम की कमी कभी नहीं होती।'- पुट्टी घोलते हुए बयान जारी किया सोबरन ने।
ऊंचाई पर काम करने के हिसाब से सर पर हेलमेट धारण किये पुट्टी घोल रहे सोबरन लाल ने बताया -'6-7 लड़को को काम सिखाया है। कोई फेल नहीं कर सकता उनको काम में। बहुत मानते हैं हमको। कोई काम को मना नहीं कर सकते।'
साथ में काम करने वाले रामकीरत 28 साल के हैं।
'पिता पल्लेदारी करते थे। बुजुर्ग हो गए तो घर बैठा दिया कि अब आराम करो। हम करेंगे काम।'-बताया रामकीरत ने।
दो भाई हैं रामकीरत के। एक पिता की जगह पल्लेदारी करता है कोल्ड स्टोरेज में। दूसरा टाइलिंग का काम करता है। दिन भर काम करते हैं। आठ घण्टे। काम मिल जाता है। घर चल जाता है। दो बच्चे हैं।
पास के गांव में रहते हैं। जमीन जायदाद कोई नहीं। दोनों के बुजुर्गों ने बताया कि पुराने समय में लिखाने के लिए एक रुपया घूस मांगी थी। जिन्होंने दे दी उनके नाम जमीन लिखा दी। हमारे बुजुर्ग नहीं दे पाए, नहीं लिखा पाये।
खाना घर का लाते हैं। चाय यहीं के लोग पिला देते हैं। कोई मीटिंग होती है तो चाय बनती है। उसी समय मिल जाती है।
दुनिया का कारोबार चलते रहने के लिए काम चलता रहना चाहिए, मीटिंग होती रहनी चाहिए। चाय बनती रहनी चाहिए। पी जाती रहनी चाहिए।
उसी समय उनके मुंशी साइकिल पर आए। उतरकर एड़ी मिलाकर फौजी अंदाज में नमस्ते किया। बताया उनके पिता फैक्ट्री में ही काम करते। नाम बताया। पहचान के रूप में बताया-' कान में कुंडल पहनते थे। उनके बाबा ने पहनाए थे।'
हर इंसान के पास कितना कुछ होता है साझा करने को। सुनने वाले चाहिए।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10221425590922676

Monday, December 21, 2020

सुधीर विद्यार्थी जी से मुलाकात

 पिछले शनिवार को अभिव्यक्ति नाट्य मंच द्वारा काकोरी एक्शन के महानायकों की याद में सातवां रंग महोत्सव आयोजित किया गया। कोरोना के चलते तीन दिन का कार्यक्रम एक दिन में सिमट गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विचार गोष्ठी और नाटक होना था। विचार गोष्ठी में शाहजहांपुर के रंगमंच और क्रांतिकारी आंदोलन पर बातचीत होनी थी। डॉ सुरेश मिश्र शाहजहांपुर के सदाबहार संचालक हैं। उन्होंने शाहजहांपुर के रंगमंच पर रोचक व्याख्यान दिया। डॉ प्रशान्त अग्निहोत्री साझी शहादत-साझी विरासत पर अच्छी बात की। पत्रकार कुलदीप दीपक जी ने क्रांतिकारी आन्दोलन और काकोरी काण्ड पर अपने विचार रखे। इसके बाद सुधीर विद्यार्थी जी ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी आन्दोलन की भूमिका पर विस्तार से बात की।

सुधीर विद्यार्थी जी के नाम और काम से तो परिचय बहुत पुराना है। लेकिन मुलाकात पहली बार हुई। आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले क्रांतिकारियों के बारे जितना विपुल लेखन सुधीर विद्यार्थी जी ने किया उतना शायद किसी अन्य लेखक ने अकेले नहीं किया होगा। अब तक लगभग ३५ किताबें लिख चुके हैं विभिन्न क्रांतिकारियों के नाम। बहुत बड़ा काम है। विपुल काम। नौकरी करते, कर्मचारी-मजदूर आन्दोलन में सक्रिय भागेदारी करते, कई मुकदमें और यातनायें झेलते, व्यक्तिगत जीवन में पहले कम उम्र के बेटे और फ़िर पत्नी को खो देने के बावजूद निरन्तर इतना लेखन बिना अद्भुत जिजीविषा और जुनून के संभव नहीं। सुधीर विद्यार्थी जी को सुनने का लालच ही था कि ,शनिवार के दोपहर के बाद की नींद, जो कि मेरी सबसे प्यारी नींद है, को त्याग कर गोष्ठी में पहुंचा। उनको सुनकर लगा सौदा घाटे का नहीं रहा।
सुधीर विद्यार्थी जी ने लगभग घंटे भर की बातचीत में भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन पर बातचीत की। काकोरी के शहीदों पर बातचीत करते हुये उन्होंने कहा –’इतिहास बनता है समझदारी से, इतिहास बनता है बड़े लक्ष्य से और इतिहास बनता है कुर्बानी के जज्बे से।’ अशफ़ाक उल्ला , बिस्मिल , चन्द्रशेखर आजाद, मैनपुरी काण्ड, भगतसिंह आदि अनेक व्यक्तियों , घटनाओं का उल्लेख करते हुये अपनी बात कही विद्यार्थी जी ने। मैनपुरी काण्ड के क्रान्तिकारी भारतीय जी का उल्लेख करते हुये उन्होंने बताया –’देशबन्धु चितरंजन दास,जो कि उनके भारतीय जी के वकील थे जब उनसे पूछा इस समय तुम कितनी शक्ति और सामर्थ्य रखते हो? इस पर भारतीय जी ने कहा –’ सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूं कि अगर आप कहें तो आज रात मैनपुरी जेल उड़ा दें और बताइये तो मैनपुरी शहर उड़ा दें।’
शहरों में भले ही क्रान्तिकारियों की मूर्तियां बढ़ रही हैं लेकिन क्रांतिचेतना दिन पर दिन कम होती जा रही है। शहीद होने पर उनकी जयकार करने वाले समाज में उनको जिन्दा रहते सहयोग न करने की बात का बिस्मिल की आत्मकथा के हवाले से जिक्र करते हुये विद्यार्थी जी ने बताया-’ मैनपुरी काण्ड के बाद आम माफ़ी मिलने पर लोग बिस्मिल को देखकर मुंह फ़ेर लेते थे कि कहीं कोई उनसे बात करते न देख ले।’
क्रांतिकारी चेतना के प्रसार के लिए सुधीर विद्यार्थी शहरों में जगह-जगह मूर्तियां लगवाने की बजाय क्रांतिकारियों की जीवनी और उनका लिखा विचार साहित्य छपवाना और वितरित करवाना बेहतर मानते हैं।
रामप्रसाद बिस्मिल से प्रभावित तुर्की के शासक कमाल पाशा ने तुर्की में बिस्मिल शहर बसाया इसका भी जिक्र विस्तार से किया सुधीर जी ने।
रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक उल्ला की क्रांति चेतना पर बात करते हुये उन्होंने बताया-’दोनों अपने व्यक्तिगत जीवन में अपने धर्म के कट्टर अनुयायी थे लेकिन अपने धर्मों की बन्दिशों का अतिक्रमण किया दोनों ने। क्रांति चेतना रूढियों को तोड़ती है।
इसी रूढि को सुधीर जी ने अपने नाम के मामले में तोड़ा। उनकी अम्मा ने एक छोटी कहानी में ’सुधीर’ नामक आज्ञाकारी , शिक्षा में तेज और सुशील लड़के के बारे में वही नाम रख दिया। लेकिन सुधीर जी उसका उल्टा साबित हुये ( जैसा उन्होंने बताया) न पढ़ने में मन लगा, न ही मां-बाप की आज्ञा मानी और लेखन जैसे निकृष्ट (?) काम में जा लगे।
क्रांतिकारियों के नाम का मनगढंत किस्सों के जरिये शातिराना उपयोग के भी किस्से सुनाये विद्यार्थी जी ने। इंकलाब विरोधी लोग इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगा रहे हैं। भगतसिंह के हैट को बिस्मिल से मिला बताया जा रहा है। भगतसिंह को सरदार बनाया जा रहा है। क्रांतिकारियों से जुड़ी हुई चीजों का अपहरण करते हुये उनको नष्ट करने की कोशिशे हो रहे हैं। भगतसिंह को सिखों तक सीमित करने की कोशिश हो रही है। ऐसे ही किसी समारोह में विद्यार्थी जी ने कहा था-“ भगतसिंह का कद इतना ऊंचा है कि दुनिया की कोई पगड़ी उनके सर पर फ़िट नहीं होगी( भगतसिंह को किसी मजहब ,देश तक सीमित नहीं किया जा सकता)।
क्रांतिकारियों के बारे में मनगढंत बातें जोड़तोड़ कर प्रचारित करने के पीछे की मंशा यह है कि क्रांतिकारी चेतना को नखदंत हीन करके नष्ट किया जा सके।
देश की आजादी और क्रान्तिचेतना बनाये रखने के लिये अपने इतिहास का अध्ययन जरूरी है। अपने समाज का इतिहास जाने बगैर आगे का रास्ता नहीं तय किया जा सकता।
सुधीर विद्यार्थी जी ने हालांकि अनमने मन से बोलने की बात कही लेकिन उनको सुनते हुये ऐसा कहीं नहीं लगा। एक घंटा कब बीत गया , पता नहीं चला।
शाहजहांपुर कर्मभूमि रही है सुधीर जी की। यहां से चले भले गये लेकिन शहर उनके खून में धड़कता है। इसका जिक्र करते हुये बताया उन्होंने कि बरेली से लखनऊ जाते हुये तिलहर से ट्रेन गुजरती तो लगता कि अब शाहजहांपुर आने वाला है, उतरना है। इसीतरह लखनऊ से बरेली लौटते हुये ट्रेन के रोजा पहुंचते ही उतरने को हो जाते।
विपुल लेखन वाले सुधीर जी जीवन में विकट अनुभव रहे। अकेले जिस तरह तमाम परेशानियों से जूझते हुये इतना बिना विक्षिप्त हुये इतना सृजन कर पाना अद्भुत है। धुन के पक्के विद्यार्थी जी ने कुछ दिन पहले ही बरेली में वीरेन डंगवाल की प्रतिमा स्थापित करवायी। उसका जिक्र करते हुये उन्होंने कुछ लोगों के बौनेपन के किस्से भी सुनाये। उन लोगों की उदासीनता के बारे में भी जिन पर वीरेन जी ने कवितायें भी लिखी थीं।
क्रांतिकारी लेखन की शुरुआत कैसे हुई इसका जिक्र करते हुये उन्होंने बताया –’अम्मा के लिये पान तम्बाकू जिस पुडिया में लाये थे वह अखबार का कागज था। उसमें बम और क्रांतिकारियों का जिक्र था। कौतूहल हुआ कि ये क्रांतिकारी कैसे होते हैं। उनके मिलने की इच्छा हुई। मिले और फ़िर सिलसिला चल निकला।’
क्रांतिकारी लेखन के अलावा व्यंग्य लेखन भी अद्भुत है सुधीर जी का। शुरुआत खर्चे के लिये पैसे की जरूरत हुई थी। फ़िर खूब लिखा। ’हाशिया’ व्यंग्य संग्रह आया भी। अब व्यंग्य लिखना बन्द कर दिया। व्यंग्य लेखन को जिस तरह नख-दंत-हीन करके छापा जा रहा है उससे अच्छा तो न लिखना ही सही।
कल मुलाकात के दौरान अपनी सुधीर जी ने अपनी किताब ’लौटना कठिन है’ दी मुझे। इसमें एक नवोदय विद्यालय में बच्चों के बीच रचनात्मक लेखन कार्यशाला के दौरान खुद के और बच्चों के डायरी लेखन के अंश हैं। निष्कपट बच्चों ने सुधीर जी के बारे में जो लिखा और जैसे उनके आपसी सम्बन्ध बन गये उससे उनका स्कूल से लौटना कठिन हो गया। आंसू आ गये उनके। एक बच्ची ने लिखा –“मैने पहले दिन आपकी वेशभूषा और आदतों को ध्यान से देखा। आप मुझे काफ़ी संवेदनशील और वास्तविक लेखक लगे। लेकिन आपकी एक आदत बहुत अजीब सी लगी कि आप अपने कन्धे उचकाते हुये बात करते हैं। क्या आपने इसे सुधारने की कोशिश नहीं की। लेकिन फ़िर भी कोशिश कीजियेगा कि इसे सुधार लें।“
कक्षा 9 की छात्रा अपराजिता मिश्रा ने लिखा-“मुझे इसका भी ज्ञान नहीं कि आपकी उपमा किस चांद-तारे, फ़ूलों से करूं। अगर मैं यह मान लूं कि आप कोई फ़ूल हो तो आप कोई साधारण फ़ूल नहीं बल्कि वो फ़ूल हैं जिससे लिपटने के लिये हर भंवरा राजी होगा। हर किसी के लिये आपके लिये अलग-अलग रसधार प्रवाहित होगी। लेकिन मेरी ये धार निष्छल, निष्कपट और स्वतंत्र भावों से आपको अर्पण। यदि मेरी कोई बात आपको बुरी लगे आपको व्यर्थ लगे तो अपनी पुत्री समझकर मुझे क्षमा करें।’
इसी बच्ची ने ’मेरा राजहंस’ पढने के बाद प्रतिक्रिया देते हुये लिखा-’ स्मृतियां तो वस्तु नहीं जिसे किसी कमरे में बन्द कर दिया जाये। परन्तु आपको बुरा न लगे तो एक बात कहना चाहती हूं। कभी-कभी इंसान को वर्तमान में जी रहे लोगों के लिये एक प्रेरणा बनकर जीना पड़ता है, उन्हें अपने अतीत से हटाना पड़ता है। आप विशाल हृदय वाले हैं जो इतना कष्ट सहकर भी गम की सलवटों को कभी अपने चेहरे पर नहीं आने देते।’
अपने लेखन के बारे में अपनी बात कहते हुये सुधीर जी कहते हैं-“आत्मकथा लिखने का अभी मेरा कोई इरादा नहीं है। मेरे एजेण्डे पर बहुत काम है इनदिनों । वैसे अब तक जो कुछ लिखा है, वह सब आत्मकथ्य ही तो है मेरा। यद्यपि मेरी जिन्दगी बहुत घटना बहुल और औपन्यासिक ढंग की है, जिसे पिरोया जा सकता है। पर उसके लिये जिस धैर्य की आवश्यकता होती है वह शायद मेरे भीतर अनुपस्थित है। मैंने अब तक जितना लिखा वह बहुत अव्यवस्थित है, लेकिन उत्तेजना भरा है। मैं ठहरकर और सन्तुलित होकर नहीं लिख पाता। जाने क्यों बहुत बेचैन रहता हूं, कलम चलाते वक्त मैं। लेखक से ज्यादा एक्टिविस्ट हूं। वही मुझे अच्छा लगता है।“
सुधीर जी से मुलाकात करना एक सुखद अनुभव रहा। इस साल की उपलब्धि। तमाम बाते हुईं। उनको अपने वक्तव्य/बातचीत रिकार्ड करके यू ट्यूब पर अपलोड करके के लिये उकसाया गया जिसे उन्होंने अपनी तकनीकी अज्ञानता के सहारे टालने की कोशिश की। लेकिन बहुत दिन तक शायद टाल न पायें।
सुधीर विद्यार्थी जैसे लोग हमारे समाज की धरोहर हैं। बहुत काम किया है इन्होंने। अभी और न जाने कितना करना है। कर भी रहे हैं। करेंगे भी।
सुधीर विद्यार्थी जी के लिये मन में जितना सम्मान है उससे कई गुना प्यार है। तरल मन के बीहड़ एक्टिवट (सक्रिय लेखक) को बहुत प्यार करने जरूरत है।

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Thursday, December 03, 2020

साबिर साहब से मुलाकात

 

साबिर साहब हमारी फैक्ट्री के बुजुर्ग हैं। 30 साल हो गए उनको रिटायर हुए लेकिन फैक्ट्री के हर बड़े जलसे में उनकी उपस्थिति जरूरी मानी जाती है। उनकी मौजूदगी के बगैर कोई बड़ा जलसा मुकम्मल नहीं होता।
जब मैं शाहजहांपुर आया था, गए साल , तो उनसे बात हुई थी। मिलने की बात भी। लेकिन फिर कोरोना के चलते आना-जाना, मेल-मुलाकात सब स्थगित हो गया। लेकिन परसों मुलाकात हो ही गयी।
मुलाकात के लिए पता किया तो किसी ने बताया जलाल नगर में रहते हैं, स्टेशन के पास। घर खोजने निकले तो सड़क पर बताया गया- गली में मकान है साबिर साहब का। गली लगातार लम्बी और संकरी होती गयी। जिससे भी पूछो -'बताते आगे मकान है साबिर साहब का। किसी ने यह नहीं कहा -'कौन साबिर साहब।'
मकान पहुंचे तो पता चला -'साबिर साहब अब यहां नहीं रहते। हयातपुरा में रहते हैं। दामाद के साथ। यहां कभी-कभी आते रहते हैं। भाई से मिलने। परसों आये थे। स्कूटी से आते हैं।'
नब्बे साल की उम्र में स्कूटी से आने की बात सुनकर थोड़ा अचरज हुआ लेकिन अविश्वास नहीं हुआ। हमारे अख्तर साहब 80 पार हो गए हैं। अभी भी सायकिल सवारी करते हैं।
घर पता चलने के बाद हयातपुरा गए। घर खोजा। बाहर धूप में बैठे थे साबिर साहब। खुशी जाहिर की। बोले -'मैं बहुत दिन से मिलने की सोच रहा थे। लेकिन कोरोना की वजह से नहीं हुआ मिलना। आपने पहल की। बहुत अच्छा किया।'
इसके बाद तो खूब सारी बातें हुईं। साबिर साहब यादों के समंदर में गोते लगाते रहे। 90 साल की उम्र में भी याददाश्त टनाटन। कई किस्से सिलसिलेवार सुनाए। सन 1951 में अप्रेंटिस में भरती हुए थे। चार साल की ट्रेनिंग के बाद बहाली हुई। इसके बाद प्रमोशन मिलने पर जबलपुर गए और करीब दस साल अवाडी। इसके बाद शाहजहांपुर आये। फिर यहीं से रिटायर हुए जुलाई 1990 में।
पुराने समय के महाप्रबंधको के किस्से सुनाए कई। एस. एन. गुप्ता फैक्टी को अपने घर की तरह मानते थे। रामास्वामी का बड़ा दबदबा था लेकिन राउण्ड पर जाने के पहले हमको साथ जरूर ले जाते थे। सुबह जब कभी देर हो जाती तो उनका पीए फोन करता -'साबिर साहब, जल्दी आइये साहब राउंड पर जाने के लिए आपका इंतजार कर रहे हैं।'
सरकारी संस्थानों में प्राइवेट लोगों की शुरुआत का किस्सा सुनाते हुए बताया -"कैप बैरेट लोग बनाते नहीं थे। टेंडर हुआ। बहुत कम दाम में बनाने की बात हुई। हमने सप्लायर से पूछा -'इतने कम दाम में कैसे बनाओगे?'
'हम तो दाना डाल रहे हैं। कम दाम पर आर्डर मिल जाएगा। फिर जब यहां बनना बन्द हो जाएगा। तब रेट बढाएंगे। -सप्लायर का जबाब था।' "
मार्केट में घुसकर जगह बनाने का यह आजमाया हुआ तरीका है। मुफ्त शुरू हुआ जियो का सिम अब टहलते हुए 550 रुपये तक का सफर तय कर चुका है।
सप्लायरों के किस्से भी सुनाए साबिर साहब ने। लोग आते कहते -'साबिर साहब यह आपका हिस्सा है। सबका होता है। आप मना क्यों करते हैं?'
इस पर हमारा जबाब होता -'हमको हमारे काम की तनख्वाह मिलती है। कोई नाजायज काम हमको करना नहीं। कोई जायज काम तुम्हारा रुकेगा नहीं। हमको अपने काम के लिए तुमसे कुछ नहीं चाहिए।'
फैक्ट्री आने के बारे में मैंने कहा तो बोले-'जब मैं रिटायर हुआ था तो दस हजार लोग काम करते थे फैक्ट्री में। आज दो हजार लोग हैं। ऐसे में फैक्ट्री जाना ऐसा ही जैसे कोई किसान लहलहाती हुई फसल देखने के बाद उजड़ा हुआ खेत देखने जाए। लेकिन आऊंगा जरूर।'
तीन बेटियां हैं साबिर साहब की। एक बेटा हुआ था। उसे वापस ले लिया अल्लाताला ने। बेटियों के पास रहते हैं। खुश हैं। एक बेटी जेद्दा में है, दो शाहजहांपुर में। कोरोना नहीं होता तो इस समय बेटी के पास जेद्दा में होते।
घर में कार है, ड्राइवर हैं लेकिन साबिर साहब को स्कूटर की सवारी ही पसन्द है। डॉक्टर से याददाश्त बढ़ाने की कोई दवाई की गुजारिश की तो डॉक्टर ने कहा -'आपकी याददाश्त तो नौजवानों से भी बेहतर है। आपको किसी दवा की जरूरत नहीं।'
साबिर साहब के दामाद बीएचयू के पढ़े हैं। हमारे सीनियर हुए। चार साल पहले चीफ इंजीनियर पद से रिटायर हुए। घर सिविल इंजीनियर का घर होने की ताईद करता है। कई पेड़ हैं अपनी तरह के अनूठे हैं।
साबिर साहब से पहली बार मुलाकात तब हुई थी जब 97-98 में हमारे महाप्रबन्धक एस. के. सक्सेना साहब ने साबिर साहब से प्राइवेट लोगों से काम कराने के लिए अनुरोध किया था। रिटायर्ड लोगों को काम पर रखकर उस काम को बखूबी अंजाम दिया साबिर साहब ने। उसके बाद मुलाकात नहीं हुई। बादबाक़ी किस्से और खबरें सुनते रहे साबिर साहब के।
'फैक्ट्री में और शहर में लोग आपको बड़ी इज्जत से याद करते हैं' मेरे यह कहने पर साबिर साहब बोले-'जब मैं रिटायर हुआ था तो तमाम लोग गेट तक छोड़ने आये। उस समय मैने कहा था। साबिर ज्वाइंट जी एम था। आज रिटायर होने पर ज्वाइंट जी एम का ओहदा यहीं गेट पर छोड़कर जा रहा हूँ, सिर्फ साबिर बाहर जा रहा है। लोग मेरे बारे में अच्छी राय रखते हैं तो लगता है कुछ नेक काम किये होंगे। इसमें भी ऊपर वाले की मेहरबानी है।'
फैक्ट्री और शहर में साम्प्रदायिक सद्भाव के बारे में बात हुई। साबिर साहब का कहना था-' आज के खराब होते माहौल में सद्भाव बना हुआ है यह तो बहुत सुकून की बात है। लेकिन मुझे लगता है कि लोगों के बीच सम्बन्धों की गर्माहट और अपनेपन में कमी आई है। यह बात बहुत कचोटती है मुझे।'
साबिर साहब से उनके तमाम अनुभव सुनकर और आशीर्वाद लेकर मैं वापस लौट आया। जल्दी ही फिर मुलाकात होगी। साबिर साहब स्वस्थ रहें और लंबे समय तक उनका आशीर्वाद हमको मिलता रहे।

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Wednesday, March 18, 2020

हम युद्द और शांति में देश की रक्षा तैयारियों में सहयोग कर रहे हैं- Hari Mohan




देश के रक्षा उत्पादन में आर्डनेन्स फैक्टरियों की अहम भूमिका रही है | आर्डनेन्स फैक्टरियों का 218 साल का गौरवशाली इतिहास रहा है भारत की सबसे पुरानी आर्डनेन्स फैक्टरी ’ गन एंड सेल फ़ैक्ट्री’ की स्थापना 1802 में काशीपुर, कोलकाता में की गई थी तब से देश की रक्षा जरूरतों के अनुसार अब तक 41 आर्डनेन्स फैक्टरियां स्थापित की जा चुकी है ।
18 मार्च 1801 में काशीपुर कोलकाता में गन एंड सेल पहली आर्डनेन्स फैक्टरी स्थापित की गई थी | इसीलिए प्रति वर्ष 18 मार्च को आयुध निर्माणी दिवस मनाया जाता है इसी संदर्भ में 15 मार्च 2020 को ओएफबोर्ड कोलकाता के अध्यक्ष एवं चेयरमैन श्री हरि मोहनजी के साथ श्रीरूद्रनाथ सान्याल संवाददाता इंडिया न्यूज़ ने साक्षात्कार लिया । साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर के वरिष्ठ हिंदी अनुवादक श्री प्रकाश चन्द्र ने किया। साक्षात्कार के मुख्य अंश यहां पेश हैं।
सवाल: श्री हरिमोहन जी किसी समय भारत में 39 आर्डनेन्स फैक्टरियां थीं अब 41 आर्डनेन्स फैक्टरियां हैं, आर्डनेन्स फैक्टरियों के इतने विस्तृत नेटवर्क का सार क्या है ?
जबाब: रक्षा उत्पादन में आर्डनेन्स फैक्टरियां देश में 1801 से विद्यमान हैं, 1801 में पहली आर्डनेन्स फैक्टरी गन एंड सेल कॉशीपुर कोलकाता में स्थापित हुई थी और 1947 तक 15 आर्डनेन्स फैक्टरियां थीं। आजादी बाद और कुछ उसके और बाद में स्थापित की गईं । इस प्रकार इस समय कुल 41 आर्डनेन्स फैक्टरियां हैं। इस समय आर्डनेन्स फैक्टरी आर्गेनाइजेशन देश की रक्षा की रीढ़ है। देश की पहली स्टील इकाई 1904 में एम0एस0एफ0 ईशापुर में स्थापित की गई। आज जो विस्तृत नेटवर्क रक्षा उत्पादन क्षेत्र में आपको दिखाई पड़ रहा है वह पूरे देश में फैला हुआ आर्डनेन्स फैक्टरियों का नेटवर्क है।
सवाल: आपके नियंत्रण में आर्डनेन्स फैक्टरियों में अभी हाल में क्या कुछ हाईलाईट् है ?
जबाब: परम्परागत रूप से आर्डनेन्स फैक्टरियां देश की रक्षा सेवा में एक संगठित सेटअप है। आर्डनेन्स फैक्टरियां देश की सुरक्षा की इंट्रीगेटेड रीढ़ हैं। इंट्रीगेटेड का अर्थ यह हुआ कि हम अपने विस्फोटक का निर्माण खुद कर रहे हैं। हम अपने हार्डवेयर का निर्माण खुद कर रहे हैं। अर्थात् अपने लिये विस्फोटक खुद बनाते हैं, स्टील खुद बनाते हैं। इस समय हम तोप आदि हथियारों के लिए खुद बना रहे हैं। जो भी हथियार हम बना रहे हैं उसकी पूरी मेटलर्जी हम ही तैयार करते हैं। तोप की बैरल्स का उत्पादन हम अपनी स्टील बनाने वाली यूनिट में कर रहे हैं। जब मैं इंट्रीगेशन शब्द का प्रयोग करता हूं तो उसका अर्थ यह है कि हमारे पास कई निर्माणियां हैं जो केमिकल्स एंड विस्फोटक की मेन्युफैक्चरिंग कर रही हैं।
हमारे पास सभी प्रकार के हार्डवेयर और एम्युनेसन निर्माणी की सुविधाएं हैं। हमारे पास सभी प्रकार के वीपेन और सभी प्रकार के रॉ-मैटेरियल बनाने की सुविधाएं हैं। हमें जो भी चाहिए होता है, ब्रास, स्टील, एल्मुनियम यह सब निर्माणियों में तैयार कर लेते हैं । हम अच्छी तरह से प्रोग्रेस कर रहे हैं, हम अच्छी तरीके से सेनाओं को युद्ध एवं शांति दोनों समय सपोर्ट करते हैं। ‘वार एंड पीस’ के कार्यक्रम में हमारी भूमिका रहती है। जब आप युद्ध का नाम लेते हैं, जब आप दुश्मन के साथ युद्ध लड़ रहे होते हैं तो आप अपने हथियारों से ही युद्ध लड़ते हैं, इसके लिए हम विभिन्न प्लेटफार्म पर ट्रेनिंग देते हैं।
युद्ध के लिए गोला-बारूद की जरूरत पड़ती है जिसकी हम आपूर्ति करते हैं। जो भी गोला-बारूद या जितनी मात्रा में हम बनाते हैं इसे आप अगले चालीस-पचास वर्षों तक प्रयोग नहीं कर सकते हैं। गोला-बारूद को केमिकल और एक्प्लोसिव से भरा जाता है, एक्प्लोसिव की अपनी सेल्फ लाइफ पांच या पन्द्रह साल तक की होती है। इसकी लाइफ सीमित होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि आप अधिक मात्रा में गोला-बारूद जमा करके युद्ध के समय प्रयोग नहीं कर सकते हैं। आपको जिस चीज की जरूरत है वह यह है कि जब युद्ध हो तो आपको अपने मोर्चे पर इसका स्टॉक सैनिको के साथ रखना चाहिए। आपको यह स्टॉक मध्य क्षेत्र में भी रखने चाहिए और जब युद्ध छिड़ जाए तो सैनिक इसका उपयोग करेंगे। यही वह क्षमता है जो आर्डनेन्स फैक्टरियों के पास उपलब्ध है। जब कहीं युद्ध होता है तो हम इन स्टॉक्स का प्रयोग करने में समर्थ होंगे और यहां तक कि हमारे पास ऐसी क्षमता और इन्फ्रास्ट्रक्चर है कि हम सेना को सीधे मोर्चे पर एम्युनिसन पहुंचाने में सक्षम हैं।
सवाल: मि0 हरिमोहन युद्ध के समय में रक्षा उत्पादन में ऐसा सेटअप तैयार करने में आप अवश्य एक्सपर्टाईज रहे हैं ?
जबाब: जब आप युद्ध के समय विषम परिस्थितियों में युद्ध कर रहे होते हैं तो उस समय आपकी राजनीतिक स्थिति का व्ययवहार भिन्न हो सकता है जिसके बारे में आप पहले से नहीं सोच सकते अधिकतर स्थितियों में अधिकतर चीजों के लिए, विशेषकर उपभोक्ता वस्तुओं के लिए आपको आत्मनिर्भर होना चाहिए।
हमारे देश के योजनाकार और दृष्टाओं ने काफी सोच-विचार किया है और उन्होंने पर्याप्त क्षमताओं की योजना बनाई है ताकि देश युद्ध के समय जवाब देने में सक्षम हो सके। यहां तक कि हमारे पास कई एम्युनिशन फैक्टरियां हैं। एक ही एम्युनिशन के लिए हमारे पास दो फैक्टरियां हैं। एक फैक्टरी अलग जगह स्थित है और दूसरी फैक्टरी दूसरी जगह स्थिति है। मान लीजिए यदि एक फैक्टरी पर बम गिरा दिया जाता है या किसी कारणवश बन्द हो जाती है ऐसी स्थिति में हमारी दूसरी फैक्टरी हमें सपोर्ट करेगी। हम आपके साथ यह भी जानकारी साझा करना चाहते हैं कि हमने इतना अर्जित ज्ञान, तकनीक, नवाचार, इन्फ्रास्ट्रक्चर संचित कर रखा है कि 97 प्रतिशत एम्युनिशन जो हम बना रहे हैं वह पूरी तरह स्वदेशी है। कुछ ऐसे एम्युनिशन हैं जिनको हमने अभी विकसित किया है या हाल ही में उनकी तकनीक का अधिग्रहण किया है। यह संभावित आयात पर निर्भर हैं अन्यथा हम एम्युनिशन के संदर्भ में आर्डनेन्स फैक्टरी के नाम के प्रोडक्ट में स्वतः पर्याप्त हैं।
हम आपको यह भी बताना चाहते हैं कि इस देश द्वारा लड़े गए सभी युद्धों में आर्डनेन्स फैक्टरियां सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हमेशा खड़ी रही हैं।
कारगिल युद्ध के समय हमारी फैक्टरियों ने 24 घंटे काम किया है। कर्मचारी घर नहीं जाते थे, उन्हें फैक्टरी के अंदर ही खाने-पीने की वस्तुएं उपलब्ध कराई जाती थी और उन्होंने लगातार काम किया और उस समय जो एम्युनिशन का उत्पादन किया जाता था वह सीधे युद्ध के मोर्चे पर भेजा जाता था। यह स्थिति थी, यही कारण था कि हमारे जनरल मलिक, जो उस समय चीफ आफ आर्मी स्टाफ थे, ने कारगिल के समय सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि कुछ कंपनियां जिन्हें आर्डर दिए गए थे वह सप्लाई नहीं दे सकीं जबकि आर्डनेन्स फैक्टरियों ने सेना को पूरी तरह से सपोर्ट किया।
सवाल: जब हम हाईलाईट के बारे में बात करते हैं तो हम स्वदेशी डिफेंस हाडवेयर पर अथवा न्यू 100 प्रतिशत डिफेंस हार्डवेयर मेन्युफेक्चरिंग पर फोकस करते हैं, यही समय था जब आप पूरी तरीके से डीआरडीओ पर रिसर्च कार्य के लिए निर्भर थे। अब आर्डनेन्स फैक्टरियों के कारण मैं समझता हूं कि सभी 41 आर्डनेन्स फैक्टरियों के पास अपने स्वयं रिसर्च यूनिट हैं। अतः इसके बारे में बताइए ?
जबाब: 20 साल पहले तक हम विशुद्ध रूप से उत्पादन करने वाले संस्थान थे। हमारे पास केवल उत्पादन में विशेष योग्यता थी उस समय हम टेक्नालॉजी, डिजाईन, गाइडेंस या तो डीआरडीओ से लेते थे या विदेशी निर्माताओं से लेते थे। लेकिन हमने अनुभव किया कि यदि हमारे पास अपनी डिजाईन नहीं है, क्षमता नहीं है, यदि हम अपना खुद का तकनीकी विकास नहीं करते हैं तो हम आगे नहीं बढ़ सकते हम आत्मनिर्भर रक्षा उत्पादन संगठन नहीं बन सकते। वर्ष 2006 के दौरान हमने सरकार के साथ विचार-विमर्श करके एक निर्णय लिया कि हम अपना रिसर्च एंड डेवलपमेंट भी स्वयं करेंगे और हमने प्रोडक्ट डेवलपमेंट शुरू कर दिया है। हमने प्रोडक्ट्स को अपग्रेड करना शुरू कर दिया है और इसका परिणाम यह हुआ है कि हम मात्र मेन्युफेक्चरिंग संगठन से एक आत्मनिर्भर रक्षा उत्पादन संगठन बन गए हैं। अब हमारे पास अपनी खुद की डिजाइनिंग क्षमता है और तकनीकी नवाचार की क्षमता है।
आपके साथ जानकारी साझा करते हुए मैं खुश हूं कि वर्ष 2006 से 2020 के इन 14 वर्षों में जो भी उत्पादन हम कर रहे हैं उसका 25 प्रतिशत टर्नओवर स्वदेशी विकसित उत्पाद हैं और हमारा काम जारी है। हम कई क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। जल्दी ही हमारे नए से नए उत्पाद सामने आएंगे।
सवाल: मि0 हरि मोहन कृपया मुझे यह बताइए कि आप मेक इन इंडिया अभियान में डीआरडीओ के साथ कैसे कोआर्डिनेट कर रहे हैं ?
जबाब: वास्तव में आपके साथ खुलकर बात करना चाहूंगा कि आप 7 साल पीछे देखें तो हमारे पास इंडियन आर्मी, नेवी, एयरफोर्स का काफी वर्कलोड था और कभी ऐसा भी था आप जानते हैं कि हम डीआरडीओ को प्रोटोटाइप डेवलप करने में कोई रिस्पांस नहीं दे रहे थे। लेकिन दो साल पहले हमने एक निर्णय लिया कि हम पूरी तरीके से डीआरडीओ के साथ कोआपरेट करेंगे। डीआरडीओ जो भी प्रोडक्ट हमारे डोमेन में डेवलप करना चाहता है उन प्रोडक्ट्स के प्रोटोटाइप (नमूने) को हम पूरी तरीके से सपोर्ट करेंगे। हम इस सीमा तक जा रहे हैं कि जो भी नमूने डीआरडीओ बनाना चाहता है हम उसे अपनी लागत पर बनवाएंगे, इस प्रकार डीआडीओ प्रोडक्ट की लागत नीचे आएगी। होता यह है कि जो भी प्रोडक्ट वह डिजाइन करते हैं उसकी एक अलग प्रकार की क्षमता होती है लेकिन जो ज्यादा मात्रा में उत्पादन करना होता है उसकी एक अलग प्रकार की क्षमता होती है।
हां, होता क्या है कि एक पीस या दो पीस, पांच पीस प्रयोगशाला में बनाना बहुत सरल है लेकिन जब आपको एक ही पीस के हजार या लाख बनाने हों तो तकनीक पूरी तरीके से अलग होती है, तरीका भी पूरी तरीके से अलग होता है। जब आप किसी वस्तु की थोक में मेन्युफेक्चरिंग करना चाहते हैं तो उसकी तकनीक पूरी तरीके से अलग होती है। बल्क मेन्युफेक्चरिंग कम से कम लागत में होती है। देखिए एक पीस, दो पीस आप किसी भी लागत में बना सकते हैं लेकिन जब आपको हजार या लाख पीस बनाने होते हैं तो पूरी तकनीकी प्रक्रिया को आप्टिमाइज करना होता है। यह वह क्षेत्र है जिसमें हमें विशेष योग्यता है।
अतः हो यह रहा है कि आर्डनेन्स फैक्टरियों के इंजीनियर्स और डीआरडीओ के साइंटिस्ट्स प्रोडक्ट बनाने के लिए अब एक साथ मिलकर रिसर्च वर्क कर रहे हैं। उदाहरण के लिए हमने डीआडीओ के साथ संयुक्त रिसर्च करके आर्मामेंट डेवलपमेंट रिसर्च इस्टेब्लिसमेंट लैब पुणे और हमारी स्माल आर्म्स फैक्टरी कानपुर ने 5.56 एमएम x 30 जेबीपीसी कार्बाइन विकसित की है इसको विकसित करने में लगभग 7 से 8 वर्ष लगे हैं। यह युद्ध क्षेत्र का वीपेन है जोकि हमारे सामने है। इन दोनों यूनिट के साइंटिस्ट्स और प्रोडकशन इंजीनियर्स ने एक साथ मिलकर काम किया है और इस वीपेन का निर्माण किया है।
यह हथियार अद्वितीय है और अद्वितीय केलिबर का है। यह केलिबर हथियार अपने प्रकार अद्वितीय हथियार है। वीआईपी सुरक्षा एवं शार्ट रेंज बैटल के लिए यह सर्वश्रेष्ठ हथियार है। इसका प्रयोग छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा नक्सलवादियों से मुकाबला करने के लिए बहुत ही कारगर तरीके से किया जा रहा है। सीआरपीएफ भी इस हथियार का प्रयोग कर रही है। बीएसएफ ने भी इस वीपेन को लेने के लिए इच्छा जाहिर की है। अन्य कई पुलिस फोर्सेज भी इसे लेने की इच्छुक हैं। यह हथियार हमारा स्वयं विकसित किया हथियार है यह शत-प्रतिशत स्वदेशी डिजाईन से तैयार किया हथियार है।
सवाल: कुछ तात्कालिक प्राथमिकताएं क्या हैं ?
जबाब: हम आपको कुछ और विस्तार से बताते हैं। हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री ने देश से एक आह्वान किया है कि हमारे देश का 70 प्रतिशत रक्षा उपकरण जो हम प्रयोग कर रहे हैं उनको आयात किया जा रहा है। जहां तक डिफेंस इक्योजिशन की बात है यह लगभग 60 से 70 प्रतिशत इम्पोर्टेड है। कतिपय वस्तुएं ऐसी हैं जिनका हम देश में निर्माण कर रहे हैं। इनमें काफी संख्या में इम्पोर्टेड कंटेन्ट्स हैं, जैसे एयरक्राफ्ट जिसका निर्माण एचएएल में किया जा रहा है इसमें भी काफी इम्पोर्टेट कंटेन्ट्स हैं। कई तरीके के इलेक्ट्रानिक डिफेंस सिस्टम जिनको हम बना रहे हैं उनमें भी इम्पोर्टेड कंटेन्ट्स हैं। इस तरह कुल इम्पोटेड कंटेन्ट लगभग 60 से 70 प्रतिशत है।
अब हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने आह्वान किया है कि हमें डिफेंस हार्डवेयर और इक्यूपमेंट्स इम्पोर्ट करना बंद कर देना चाहिए। आइए देश में टेक्नालॉजी लाएं और देश में ही उत्पादन करें और इस दिशा में काफी काम हो रहा है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि काफी संख्या में प्राइवेट इंडस्ट्रीज डिफेंस बिजनेस में रूचि दिखा रही हैं।

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Saturday, February 01, 2020

साठ प्रतिशत व्यंग्य सिर्फ़ खानापूरी के लिए लिखा जा रहा है-अरविन्द तिवारी

 आज अरविंद तिवारी जी का जन्मदिन है। उनको जन्मदिन की हार्दिक

बधाई
। इस मौके पर उनका एक साझा साक्षात्कार यहां पेश है।
अरविन्द तिवारी जी वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं। गणित के शिक्षक , शिक्षा विभाग में अधिकारी, विभाग की पत्रिका के संपादक और अखबारों में नियमित व्यंग्य लेखक रहे। कविता से शुरु करके व्यंग्य लेखन की तरफ़ आये। ’सवाल के जबाब में सवाल पूछने वाली पत्नी जी’ व्यंग्य लेखन की सूत्रधार रहीं। जब शरद जोशी जी नवभारत टाइम्स में प्रतिदिन लिख रहे थे उस समय अरविन्द जी राजस्थान के ’दैनिक नवज्योति’ में नियमित व्यंग्य लिख रहे थे। अरविन्द जी अपने व्यंग्य लेखन के लिये कल्पना के भरोसे नहीं रहते। अपने परिवेश की विसंगतियां उनके व्यंग्य लेखन का खाद-पानी हैं। उनके चर्चित और पुरस्कृत उपन्यास ’शेष अगले अंक में’ और ’हेड आफ़िस का गिरगिट’ उनके शिक्षा जगह और अखबारी जगत के अनुभवों पर आधारित हैं। किसी नफ़े नुकसान का विचार किये बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बातें कहने वाले अरविन्द जी अप्रिय व्यक्तिगत सच बोलने से सहज परहेज करते हैं। इसी के चलते उनके इंटरव्यू से कुछ ऐसे सवाल रह गये जिनके जबाब लंबे समय तक बवाल का मसाला दे सकते थे। बुजुर्ग होने की उमर पर पहुंचे अरविन्द जी अपनी फ़ेसबुक पर नियमितता के मामले में युवाओं से पंजा लड़ाते दिखते हैं। वरिष्ठ व्यंग्यकार नये से नये लेखकों के लेख पढते रहते हैं। उनसे संवाद करते हैं। बिना किसी लाग-लपेट के उनकी तारीफ़ भी करते हैं।
अपने लेखन के दूसरे दौर की सक्रियता का श्रेय अरविन्द तिवारी जी ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ को देते हैं। दो साल तक नियमित चले इस आयोजन में अच्छे और सामान्य तथा खराब मिलाकर लगभग हजार लेख तो लिखे गये होंगे। लेकिन इसे किसी ’व्यंग्य-बुजुर्ग’ ने कहीं उल्लेख लायक नहीं समझा।
व्यंग्य यात्रा के लिये अरविन्द तिवारी जी से साक्षात्कार के लिये आदेश होने पर उनसे सवाल पूछने का काम भारी लगा तो काम बांट लिया गया। पहले ’ व्यंग्य के एटीएम –आलोक पुराणिक’ के सवाल आये। आलोक पुराणिक का समय प्रबन्धन जबरदस्त है। सुबह दस बजे सवाल भेजने को कहा तो उसके पहले भेज भी दिये। इसके बाद अनूप शुक्ल के प्रश्न आये। अनूप शुक्ल ने कुछ उकसाऊ सवाल किये। लेकिन अरविन्द जी ने अपने अनुभव का इस्तेमाल करते हुये संतोषी प्रवृत्ति का प्रदर्शन करते हुये उनके सटीक जबाब दिये। इसके बाद साक्षात्कार में तड़का लगाने के लिये शशि पांडेय के सवाल-जबाब भी शामिल किये गये। शशि पांडेय व्यंग्य लेखकों से नियमित साक्षात्कार का काम बड़ी खूबसूरती से कर रही हैं।
तो पेश है अरविन्द तिवारी जी से हुई मिली-जुली बातचीत। यह बातचीत व्यंग्ययात्रा के अक्टूबर-दिसम्बर 2019 के अंक में प्रकाशित हुई।
आलोक पुराणिक: वह क्या है ,जो आपको व्यंग्य लेखन के लिए प्रेरित करता है?
अरविन्द तिवारी: सामाजिक और सरकारी व्यवस्था की विसंगतियां मुझे व्यंग्य लेखन के लिए प्रेरित करती हैं। इनके कारकों के प्रति जब ज़बरदस्त आक्रोश पैदा होता है,तब सच कहूं आलोक जी, सामने वाले को पीटने की इच्छा होती है! पीट तो सकता नहीं, इसलिए आक्रोश व्यंग्य में तब्दील हो जाता है।व्यक्तिगत जीवन और माहौल में विसंगतियों का ही बोलबाला रहा,इसलिए व्यंग्य लिखने की प्रेरणा मिली।आप किसी दबंग के प्रति आक्रोश व्यक्त नहीं कर सकते, इसलिए विट के जरिए ऐसी बात कहो,जिससे वह झेंप जाए।रोजमर्रा की घटनाएं और अख़बार की सुर्खियां भी व्यंग्य लिखने को मजबूर करती हैं।व्यंग्य दृष्टि विकसित होने के बाद कोई लेखक घुइयां(अरबी) तो छीलने से रहा, इसलिए व्यंग्य ही लिखेगा!
आलोक पुराणिक: व्यंग्य लेख और व्यंग्य उपन्यास दोनों में आपका लेखन है। दोनों की रचना प्रक्रिया में क्या अंतर है?
अरविन्द तिवारी: दोनों के लेखन में बहुत फ़र्क है। मैंने जब स्तंभ लिखना शुरू किया तब बड़े बड़े व्यंग्य छपते थे।संडे मेल में पहला व्यंग्य कम से कम 1200 शब्दों का छपा होगा।रोजाना व्यंग्य स्तम्भ भी आठ सौ शब्दों के होते थे।लेख लिखना आसान लगता है।एक विषय पर लिखना शुरू करो तो,आगे से आगे विचार आते रहते हैं।पंच भी अनायास ही आते चले जाते हैं।जब शीर्षक लिखता हूं तो पता नहीं चलता क्या लिखूंगा।कई बार बिंदु पूर्व निर्धारित होते हैं पर कई बार हवा में कलम भांजते हैं। लेकिन आधा घंटा या ज्यादा से ज्यादा एक घंटे में व्यंग्य लिख जाता है।व्यंग्य उपन्यास तभी आप लिख सकते हैं जब आपने खूब होमवर्क किया हो। घटनाओं को सूचीबद्ध किया हो।लिखते समय कथानक की कसावट का भी ध्यान रखना होता है और व्यंग्य का भी।मेरे मामले में भोगा हुआ यथार्थ ही उपन्यास का विषय बना,इसलिए अच्छी तरह लिख सका।उपन्यास के दो तीन ड्राफ्ट भी करता हूं।
आलोक पुराणिक : इधर व्यंग्य बहुत छप रहा है।फेसबुक पर उसकी कटिंग रोज़ाना दिखाई देती है।तो क्या हम व्यंग्य की स्थिति शानदार मान लें?
अरविन्द तिवारी: यह सच है कि परिमाण में व्यंग्य खूब लिखा जा रहा है।खूब छप भी रहा है,पर गुणात्मक रूप में कुछ लोग ही अच्छा लिख रहे हैं। साठ प्रतिशत व्यंग्य सिर्फ़ खानापूरी के लिए लिखा जा रहा है।छपने और फेसबुक पर दिखने की हड़बड़ी ने व्यंग्यकारों की बड़ी खेप हमें दी है पर अच्छा व्यंग्य अभी भी संभावना है।कोई हमेशा अच्छा नहीं लिख सकता,पर सिर्फ़ छपना हेतु नहीं होना चाहिए।जिस दिन हमें साठ प्रतिशत व्यंग्य अच्छे मिलने लगेंगे हम कह सकेंगे कि व्यंग्य की स्थिति शानदार है।
आलोक पुराणिक : व्यंग्य में आज भी विमर्श परसाई ,जोशी से आगे नहीं बढ़ा है। तो क्या पचास साठ साल में हिंदी व्यंग्य में दस नाम भी नहीं हैं,जिन पर विमर्श हो सके?
अरविन्द तिवारी: यह सच है कि व्यंग्य विमर्श परसाई जोशी को नहीं छोड़ पा रहा,खासकर अन्य विधाओं के आलोचक उससे आगे बढ़े ही नहीं। ये लोग आज भी व्यंग्य को विधा नहीं मानते। पर यह गलत है कि हम साठ सत्तर सालों में विमर्श हेतु दस नाम नहीं दे पाए। मैं आपको दस नाम बताए देता हूं,जिन पर चर्चा होती रही है।कई लोगों पर कई विमर्श की पुस्तकें आ गईं हैं। स्थिति वैसी ही बनी जैसी मुक्तिबोध और अज्ञेय को लेकर बनी थी।मुक्तिबोध का नाम तो लिया जाता था,पर अज्ञेय का नाम जानबूझ छोड़ दिया जाता।परसाई, जोशी का व्यंग्य साहित्य में प्रभा मण्डल ऐसा रहा कि दूसरों पर कम चर्चा हुई।ये दस नाम हैं, हरिशंकर परसाई,श्रीलाल शुक्ल,शरद जोशी, रवींद्र नाथ त्यागी,मनोहर श्याम जोशी, लतीफ़ घोंघी,शंकर पुणतांबेकर, गोपाल चतुर्वेदी,प्रेम जनमेजय,ज्ञान चतुर्वेदी।यह क्रम यों ही है,वरिष्ठता का नहीं।व्यंग्य यात्रा ने इनमें से अधिकांश पर विमर्श हेतु विशेषांक निकाले। अन्य मंचों पर भी इन लेखकों पर चर्चा होती रही।व्यंग्य कार्यशालाओं में इन पर ही नहीं,कई समकालीन व्यंग्य लेखकों पर भी चर्चा होती है।
आलोक पुराणिक : आप मंचों से व्यंग्य कविता भी पढ़ते रहे हैं।व्यंग्य लेख और व्यंग्य कविता में क्या फ़र्क है?
अरविन्द तिवारी: पहले मंच पर अच्छी व्यंग्य कविताएं पढ़ी जाती थीं।अब उनका स्तर गिर गया है,जबकि गद्य व्यंग्य लेखन और समृद्ध हुआ है।मुझे भी मंच पर श्रोताओं के हिसाब से कई बार घटिया पढ़ना पड़ा।आजकल मंच पर कवि नहीं होते,परफॉर्मर होते हैं।व्यंग्य को अब लाफ्टर ने रिप्लेस कर दिया है। गम्भीर व्यंग्य कविताएं अब कोई सुनना भी नहीं चाहता।व्यंग्य कविता सघन होती है और पंचों से भरपूर।जबकि गद्य व्यंग्य में विस्तार से लिखा जाता है।गद्य व्यंग्य विचार भी देता है।आजकल जो लोग गद्य व्यंग्य पढ़ रहे हैं वे श्रोताओं को ध्यान में रखकर पढ़ रहे हैं।यह व्यंग्य सतही ज्यादा होता है जबकि शरद जोशी और के पी सक्सेना वही पढ़ते थे,जो छपता था।
आलोक पुराणिक: आपकी नज़र में हिंदी के श्रेष्ठ दस व्यंग्य उपन्यास कौन से हैं?
अरविन्द तिवारी: इसके उत्तर में मैं पूरी लिबर्टी ले रहा हूं। ज़रूरी नहीं आप मुझसे सहमत हों।
1 रागदरबारी(श्रीलाल शुक्ल) 2. बारामासी 3. हम न मरब (दोनों ज्ञान चतुर्वेदी)4. नेताजी कहिन (मनोहर श्याम जोशी)5. ब से बैंक(सुरेश कांत) 6. आदमी स्वर्ग में(विष्णु नागर)7. दारुलशफा(राजकृष्ण मिश्र) 8. ख़्वाब के दो दिन(यशवंत व्यास) 9. मदारीपुर जंक्शन(बालेंदु द्विवेदी) 10. ढाक के तीन पात(मलय जैन)
वैसे मेरा व्यंग्य उपन्यास "शेष अगले अंक में"भी इनमें शुमार होना चाहिए,पर यह मैं स्वयं ही करूं तो आत्म श्लाघा की श्रेणी में आ जाएगा।
आलोक पुराणिक: हिंदी व्यंग्य के पास गंभीर आलोचक नहीं हैं।इसकी वजह क्या है?
अरविन्द तिवारी: सबसे बड़ी वजह यह है कि व्यंग्य साहित्य की मुख्य धारा में माना ही नहीं जाता।मुख्य धारा के आलोचक व्यंग्य लेखक को सतही लेखक बताते रहे। इसे अख़बारी लेखन के खाते में डाला जाता रहा क्योंकि व्यंग्य के मानक लेखक परसाई और जोशी अख़बारों के स्तंभ लेखन के कारण ही लोकप्रिय हुए।जिन युवा व्यंग्य आलोचकों ने इसमें काम करना शुरू किया है,उनसे बड़ी उम्मीदें हैं पर अभी तक गम्भीर काम नहीं हुआ है।ये लोग विशेष टारगेट पर काम करते हैं जैसे पुस्तकों का संपादन आदि।इनसे उम्मीद है आलोचना पर गम्भीर पुस्तकें भी मिलेंगी।वैसे पुराने आलोचकों में बरसाने लाल चतुर्वेदी,श्यामसुंदर घोष,सुदर्शन मजीठिया,बालेंदु शेखर तिवारी, शेर जंग गर्ग आदि ने खूब काम किया है।
आलोक पुराणिक : अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताएं।
अरविन्द तिवारी: दरअसल मेरा व्यंग्य लेखन 1973 से शुरू हुआ। 1973 मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी साल मैंने ग्रेजुएशन (बी एस सी)किया, इसी साल शादी हुई,इसी साल चार व्यंग्य कविताएं लिख डाली।पत्नी की बोलचाल की भाषा व्यंग्य से भरपूर थी।वह प्रश्न का जवाब प्रश्न से देती थी। साठ वर्ष की हुए बिना वह दुनिया से चली गई।उसने बहुत से देशज शब्दों से परिचय कराया ।हमारा परिवेश मालवा का था। हम खुद बोलचाल में विट का प्रयोग करते थे।मामला करेला वह भी नीम चढ़ा हो गया।ऐसे माहौल में व्यंग्य लिखने की शुरुआत हो गई। मैं लोगों के बीच से व्यंग्य का विषय उठाता हूं और अपनी लेखनी से उसे व्यंग्य में तब्दील कर देता हूं। मैं व्यंग्य लेख एक सिटिंग में पूरा कर लेता हूं।आजकल तो अख़बार बहुत कम शब्दों का व्यंग्य छापने लगे हैं इसलिए थोड़ी कश्मकश ज़रूर करनी होती है पर लिख जाता है।नए विचार आते चले जाते हैं।उपन्यास धीमी गति का काम है।कई बार लिख कर मिटाना होता है।मेरे साथ यह अच्छाई है कि ज्यादातर लेखन अनुभूतियों पर है फिर चाहे यह अनुभूति मेरी हो या किसी मित्र की।शीघ्र ही मेरा व्यंग्य कहानी संग्रह आएगा। मैं कहानी लिखते समय कल्पना में नहीं खोता हूं,बल्कि आम जीवन से कहानियां उठाता हूं।सच्ची घटनाओं को व्यंग्य में बदलना मुझे आता है।आज भी मैं रजिस्टर में लिखता हूं उसके बाद टाइप करता हूं।जब कहीं घूमने जाता हूं तो यह रजिस्टर साथ होता है।कई बार रजिस्टर बिना कुछ लिखे ही लौट आता है।
एक वाकया शेयर करना चाहूंगा।उन दिनों मैं राजस्थान के कुचामन सिटी में था और दैनिक नवज्योति अख़बार के लिए रोज़ाना व्यंग्य कॉलम लिख रहा था।कई दिनों तक कुछ लिख नहीं पाया।तब डाक से चार पांच लेख एक साथ भेज देता था,जिन्हें अख़बार छापता रहता था।पैसे मिलते थे इसलिए रुचि भी थी।जब लिखा नहीं गया तो एक दिन के लिए कुचामन सिटी के एक होटल में ठहर गया। ताज़्जुब यह कि होटल में डेरा डालते ही कई दिनों के लिए कॉलम लिख लिए।
आलोक पुराणिक :एक व्यंग्यकार को क्या क्या पढ़ना चाहिए?
अरविन्द तिवारी: आपने अच्छा प्रश्न किया है। व्यंग्यकार को हिंदी की हर विधा की क्लासिकल किताबें पढ़ने की आदत से डालनी चाहिए। मैं रात को पढ़ता ज़रूर हूं।नियमित लेखन नहीं कर पाता पर नियमित पढ़ता हूं।पढ़ने से भाषा का संस्कार आता है।मेरी रुचि कथा साहित्य ,कविता और संस्मरण पढ़ने में है। कृष्णा सोबती और रवींद्र कालिया की भाषा ने मुझे खूब प्रभावित किया।
अनूप शुक्ल: आपने व्यंग्य लेखन की शुरुआत कैसे की?
अरविन्द तिवारी: इस प्रश्न का जवाब ऊपर आ गया है,फिर भी इतना बता दूं मैंने लिखने की शुरुआत व्यंग्य कविता से की थी।कवि सम्मेलनों के अलावा मेरी कविताएं शुरू में पत्रिकाओं में छपती रहीं। पहला गद्य व्यंग्य संडे मेल में छपा था।पर नियमित व्यंग्य लेखन 1982 से कॉलम के ज़रिए लिखना शुरू किया लोकल अख़बार में।पैसे नहीं मिलते थे पर अभ्यास होता रहा। बाद में सभी अख़बारों में छपने लगा।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य में आप किसे आदर्श मानते थे,जिसकी तरह लिखना चाहते रहे हों?
अरविन्द तिवारी: रागदरबारी के बाद मैंने परसाई को पढ़ा।आज भी उन्हें आदर्श मानता हूं।मेरे पहले व्यंग्य संग्रह पर उनकी टिप्पणी पोस्टकार्ड पर आई थी जो आज भी किसी इनाम जैसी लगती है।पर उन जैसा लिख नहीं पाया।कई लोग कहते हैं कि मेरे लेखन पर त्यागी जी का प्रभाव है,जो सच नहीं है। उतना हास्य मैंने नहीं लिखा।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य के क्षेत्र में सपाट बयानी से लेकर पढ़ने में मज़ा आना चाहिए घराने के लोग मौजूद हैं।आपको बहुतायत किसकी लगती है?
अरविन्द तिवारी: प्रश्न ख़तरनाक है।मेरा मानना है कि अभिधा में व्यंग्य लिखना और सपाट बयानी लिखना दोनों में बहुत अंतर है।आजकल इन दोनों में खूब लिखा जा रहा है।पंच वाले व्यंग्य कम लिखे जा रहे हैं।हास्य युक्त व्यंग्य लेखन का भी अभाव है।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य लेखन में व्यंग्य यात्राओं और शिविरों का क्या योगदान है?
अरविन्द तिवारी: व्यंग्य ही क्या, हर विधा में शिविरों और यात्राओं का सकारात्मक योगदान रहता है।व्यंग्य यात्रा पत्रिका ने खूब पहल की है।अकादमियों और अन्य संस्थानों ने भी व्यंग्य शिविर लगाए हैं।राजस्थान साहित्य अकादमी के कई व्यंग्य शिविरों में मैं शामिल रहा।कमलेश्वर जी ने समानांतर कहानी के दिनों में देश के दूरस्थ स्थानों पर कहानी शिविर लगाए तो कई कहानीकार सामने आए। संगमन यात्राओं का उल्लेख किया जाता है।पर आजकल लिटरेरी फेस्टिवल का ज़माना है।ज्ञान जी ,प्रेमजी इन समारोहों में जाते रहे हैं।मुझे अवसर नहीं मिला।
अनूप शुक्ल: क्या आप महसूस करते हैं कि बड़े प्रकाशनों से किताबें न आने का खामियाजा भुगतना पड़ा?
अरविन्द तिवारी: मेरे तीनों व्यंग्य उपन्यास बड़े प्रकाशनों से आए हैं। एक प्रभात प्रकाशन से, दो किताब घर से।चौथा प्रभात प्रकाशन से आ रहा है।मुझे कोई खामियाजा नहीं भुगतना पड़ा।दो व्यंग्य संग्रहों को छोड़कर मेरी सभी व्यंग्य पुस्तकें पुरस्कृत हैं फिर चाहे किसी भी प्रकाशन से आईं हों।एक व्यंग्य संग्रह के तीन संस्करण आए तो एक अन्य के दो संस्करण हो गए।
अनूप शुक्ल : विपुल लेखन के बावजूद व्यंग्य के कई बड़े इनाम आप तक नहीं पहुंचे।क्या आप गुट विहीन होने और किसी पत्रिका का संपादन न करने को इसका कारण मानते हैं?
अरविन्द तिवारी: मैं शिक्षा विभाग राजस्थान की शिविरा मासिक पत्रिका का तीन साल तक संपादक रहा।लेखन को ध्यान में रखकर मैं पत्रिका का संपादक नहीं होना चाहता।गुट में शामिल न होने का कारण थोड़ा बहुत हो सकता है पर यह पूरी तरह सच नहीं है।मेरी टिप्पणियां ज़रूर इसमें बाधक रही हैं।फिर उप्र हिंदी संस्थान का दो लाख रुपयों का श्रीनारायण चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान मिल ही गया।कुल मिलाकर अब तक साढ़े तीन लाख मिल गए।अधिकांश पुस्तकें पुरस्कृत हैं।तो जोड़ तोड़ क्यों करूं।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य की जुगलबंदी’ में में आपने काफी लिखा।इस प्रयोग के बारे में आपके विचार क्या हैं?
अरविन्द तिवारी: ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ अच्छा प्रयोग था।दो साल तक हर सप्ताह व्यंग्य लिखा दिए हुए विषय पर।इस प्रयोग से मैं पुनः कॉलम में सक्रिय हुआ।पर नुकसान भी हुआ।व्यंग्य उपन्यास अधूरा है।इस समय खूब व्यंग्य लिखने लगा हूं,नब्बे के दशक की तरह।इसका श्रेय आपकी जुगलबंदी को है।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य विधा की छवि सत्ता विरोधी रही है।आजकल व्यंग्य सत्ता के समर्थन में ज्यादा लिखा जा रहा है।इस सम्बन्ध में क्या कहेंगे?
अरविन्द तिवारी: अब लेखक जोख़िम नहीं ले रहे।इनमें मैं भी शामिल हूं।कतिपय लिखते हैं पर वे सत्ता समर्थक अख़बारों में लिखते हैं।जाहिर है ज्यादा विरोध ये अख़बार नहीं छाप सकते।व्यंग्य में पक्षपात नहीं होना चाहिए।सुविधाओं के बरअक्स अगर आप लिखते हैं तो व्यंग्य के साथ न्याय नहीं होता।
अनूप शुक्ल: आपको अपनी एक रचना का चुनाव करना हो तो किसे श्रेष्ठ मानेंगे?
अरविन्द तिवारी: ज़ाहिर है व्यंग्य उपन्यास "शेष अगले अंक" को।
अनूप शुक्ल: अब तक के अपने लेखन से आप कितना संतुष्ट हैं?
अरविन्द तिवारी: संतोषजनक स्थिति तो है पर संतुष्ट नहीं हूं। होटलों पर व्यंग्य उपन्यास अधूरा है। इस बीच व्यंग्य कहानियों की पांडुलिपि में लग गया। गांव की पृष्ठिभूमि पर व्यंग्य उपन्यास लिखने के अलावा जिला कलेक्टर कार्यालय और प्रशासनिक अधिकारियों पर भी व्यंग्य उपन्यास की रूपरेखा जहन में है।पर स्वास्थ्य बाधक रहता है।
अनूप शुक्ल: आपको लगता है कि शिकोहाबाद के स्थान पर दिल्ली में होते तो इतना लिखकर और सफल हो चुके होते?
अरविन्द तिवारी: बहुत फ़र्क नहीं पड़ता,पर पड़ता है। दिल्ली के लोकल संपर्कों से लेखक पत्र पत्रिकाओं के संपादकों से रसूख रखता है।प्रकाशकों के संपर्क में रहता है।कई बार ये संपादक ऐसे लोगों से विशेषांक की सामग्री मांग लेते हैं जो अच्छा नहीं लिख पाते।
अनूप शुक्ल: लिखने के लिए आपको कोई ख़ास माहौल मुफीद रहता है या किसी भी माहौल में लिख सकते हैं?
अरविन्द तिवारी: मुझे सिर्फ़ शांति का माहौल चाहिए होता है।हर माहौल में नहीं लिख पाता।यह मेरे लेखन का महत्वपूर्ण कारक है।
अनूप शुक्ल: व्यंग्य लेखन में पंच की क्या भूमिका है?क्या कारण है व्यंग्य लेखन में पंच कम होते जा रहे हैं?
अरविन्द तिवारी: अच्छा सवाल और महत्वपूर्ण भी।व्यंग्य में पंच होने चाहिए। पंच ही हैं जो व्यंग्य लेखन को सपाटबयानी से बचाते हैं और व्यंग्य को विशिष्ट बनाते हैं।सामान्य लेख और व्यंग्य लेख में जो अंतर है वह पंच के कारण ही है। पंच का मतलब प्रहार है।विसंगति का चित्रण और प्रहार दोनों को मिलाकर व्यंग्य बनता है।इनका अनुपात कुछ भी हो।वन लाइनर व्यंग्य में सिर्फ़ पंच होता है इसलिए उसे व्यंग्य का दर्ज़ा नहीं दे सकते।छपने की हड़बड़ी में व्यंग्य बिना पंच के ही लोग लिख रहे हैं।पंच कम होने का यही कारण है।दूसरा कारण लोग अपने लिखे के अलावा किसी का पढ़ना ही नहीं चाहते,परसाई का भी नहीं!
अनूप शुक्ल: तात्कालिक घटनाओं पर लिखने के लिए टूट पड़ने की प्रवृत्ति के बारे में आपका क्या कहना है?
अरविन्द तिवारी: यह स्थिति व्यंग्य के लिए अच्छी नहीं है। दरअसल अख़बार तात्कालिक घटनाओं के शीर्षक देखकर ही लेख छाप देते हैं।संपादक यह भी नहीं देखते कि यह व्यंग्य है या नहीं।समसामयिक व्यंग्य खूब लिखे जाते हैं पर तसल्ली से। इन दिनों तसल्ली कम हो रही है।
शशि पांडेय: पहली बार कब साहित्यकार के रुप में आप किससे भिड़े और क्यूं?
अरविन्द तिवारी: पहला ही प्रश्न भिड़ंत के संबंध में। कमाल करती हैं आप। लेखक के लिए भिड़ंत मुख्य है, लेखन गौण! पर आप भूल गईं, शास्त्रों में लिखा है- कटु सच्चाई नहीं बोलनी चाहिए। लेकिन, मैं फिर बोले दे रहा हूं। एक अच्छे लेखक को लेखन के साथ-साथ भिड़ना भी आना चाहिये। लेखक सबसे पहले खुद से भिड़ंत करता है, तभी लेखक बन पाता है। विधिवत भिड़ंत मैंने 1973 के एक सरकारी कवि सम्मेलन में की, जहाँ व्यंग्य कवि के रूप में मुझे बुलाया गया था और कविता पढवाये बिना ही लिफाफा दे दिया गया। मैं अपनी परफॉर्मेंस दिखाने के लिए उतावला था, पर संचालक ने मौका ही नहीं दिया।
शशि पांडेय: आपको लिख-लिख कर माथा मारी करने से क्या मिला?
अरविन्द तिवारी: लिखने की माथापच्ची से जेब का बहुत नुकसान हुआ, पर मानसिक संतोष इतना कि लोग पागलों से तुलना करने लगे! बस पागलखाने नहीं भेजा गया। मैं गणित का शिक्षक था, चाहता तो पैसा कूट कर रख लेता। लेकिन, हजारों की ट्यूशन छोड़कर कुछ सैकड़ों के लिए लिख रहा था। मैं राजस्थान के ‘दैनिक नवज्योति’ अखबार में रोजाना व्यंग्य कॉलम लिखता था, जबकि उस समय शरद जोशी नवभारत टाइम्स में प्रतिदिन व्यंग्य लिख रहे थे। यह समय सुकून देने वाला था।
शशि पांडेय: आपका व्यंग्य रूपी इंसान कब जागृत होता है?
अरविन्द तिवारी: व्यंग्य रूपी इंसान कब जाग्रत होता है, इसका जवाब मिश्रित है। मेरे अंदर ये हमेशा सोया जागा रहता है। सकारात्मक यह कि जब समाज और सियासत की घटनाएँ उद्वेलित करती हैं तो व्यंग्यकार का भूत जाग जाता है। मेरे बारे में नकारात्मक यह कि जब कतिपय व्यंग्यकार व्यंग्य के नाम पर कचरा बीच बाजार फैंकने लगते हैं, तो मुझे व्यंग्य के दौरे पड़ने लगते हैं। तब जो लिखा जाता है वह सचमुच अच्छा होता है।
शशि पांडेय: जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि… ऐसा ही कुछ व्यंग्यकारों के लिये क्या कहा जा सकता है?
अरविन्द तिवारी: कवि हर जगह पहुँचता है पर इसी लोक में, जबकि व्यंग्यकार दूसरे लोक (मंगल, शनि आदि) में नासा से पहले पहुँच जाता है। वह वहाँ छपने वाले अखबारों में व्यंग्य लिखता है और जब फेसबुक पर उसकी कटिंग चेपता है, तो लोगों को ‘अलौकिक’ अखबारों के बारे में जानकारी मिलती है।
शशि पांडेय: नाम के लिये काम करना चाहिये या काम के लिये नाम करना होना चाहिये?
अरविन्द तिवारी: सारा खेल ही नाम का है। हर लेखक नाम के लिए ही मरते हुये कलम घिसे जा रहा है। इसके लिए लेखन से इतर सारे गठजोड़ व कोशिशें करता है, पत्रिका निकालना, पुरस्कार शुरू करना आदि इसी इतर कोशिश के अंग हैं। अपनी बात यह है कि एक बार जब बड़े अखबार ने हमारा व्यंग्य छाप दिया और त्रुटिवश नाम नहीं छापा तो हमें प्रसव हो जाने के बाद प्रसव पीड़ा शुरू हुई।
शशि पांडेय: व्यंग्यकार समाज सुधारक होता है अथवा खुन्नस निकारक होता है?
अरविन्द तिवारी: व्यंग्यकार समाज सुधारक ही होता है, पर इन दिनों व्यक्तिगत खुन्नस निकालने का चलन चल पड़ा है। इस तरह से वह अब खुन्नस निकालक भी हो गया है। मेरे जैसे इक्का-दुक्का व्यंग्यकार लिंचिंग के शिकार भी हो रहे हैं। वैसे तरीका अच्छा है।
शशि पांडेय: साहित्यकारों के लिये फेसबुक अखाड़ा है या आरामतलब स्थान है?
अरविन्द तिवारी: फेसबुक आरामगाह हो ही नहीं सकती क्योंकि, वहाँ नेहरू जी का नारा ‘आराम हराम है’ शुरू से ही तारी है। लेकिन, हां जगह मजेदार है। दूसरी बात सही है, अखाड़ेबाजी वाली। व्यंग्य के बड़े-बड़े धुरंधरों को खींचकर इस अखाड़े में लाया जाता है, जहाँ फाउल तरीके से कुश्ती होती है। चित्त न होने पर भी रेफरी चित्त घोषित कर देता है। हां, अपनी पोस्ट पर चौधराहट दिखाने का अच्छा ऑप्शन है।
शशि पांडेय: वर्तमान को रचनाकारों का मकाड़जाल युग माना जाये या पुनः भक्तिकाल युग माना जाये?
अरविन्द तिवारी: यह युग मकड़जाल का ही युग है। इसे भक्तिकाल कह सकते है लेकिन, भगवान बदल चुके हैं। जिनसे काम है, वहीं असली भक्ति है। पहले मूर्ति बनाकर पूजो, उसके बाद जैसे ही काम खत्म हो मूर्ति को उखाड़ कर सर के पत्थर पर बल पटक दो, इस तरीके से यह आधुनिक भक्तिकाल है।
शशि पांडेय: व्यंग्यकार साथियों से ज्यादा डर लगता है या सांप से?
अरविन्द तिवारी: इस प्रश्न पर घोर आपत्ति है। मैं अपने धुर-विरोधी व्यंग्यकारों की तुलना भी साँप से नहीं कर सकता। कहां बेचारे सांपों को इंसानों के बीच ला दिया। सांप तो नाम से बदनाम है। समय इतना बदल गया है कि अब दुश्मनी से खलिश गायब हो गयी है। स्वार्थ के
लिए लोग दुश्मन को दोस्त बनाने में गुरेज नहीं करते। ये हुनर बेचारे सांपों को कहां!

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