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Thursday, June 17, 2021

ब्लागर दोस्तों से बतकही

 

कल ब्लागर दोस्तों के साथ बतकही हुई। क्लबहाउस कोई नया बतकही का अड्डा है। उसमें जुड़ने में ही समय निकल गया। अड्डे पर पहुंचे तो दोस्त लोग बतियाने में जुटे थे। ब्लागिंग से जुड़ी यादें , बहुत दिन बाद मायके पहुंची सहेलियों की तरह साझा कर रहे थे।
ब्लागिंग में अपन 2004 में आये। 2010 तक सक्रिय रहे। इसके बाद फेसबुक पर आ गए। ब्लाग अनियमित हो गया। लेकिन अभी भी जब भी मौका मिलता है फेसबुक की पोस्ट्स ब्लाग पर डालते रहते हैं ताकि सनद रहे और सुरक्षित रहें। फेसबुक पर पुरानी पोस्ट्स को खोजना मुश्किल है, ब्लाग के मुकाबले। ब्लाग पर लिंक करना, फोटो लगाना, ऑडियो , वीडियो सब फेसबुक के मुकाबले बेहतर है। लेकिन फेसबुक पर एक मॉल की तरह की तेजी है। एक के बाद एक बहुत सारी पोस्ट्स देख सकते हैं, लाइक, टिप्पणी कर सकते हैं। ब्लॉग पर एक समय में एक ब्लॉग पर रहना होता है।
लेकिन ब्लागिंग के समय जो दोस्तों से जुड़ाव हुआ वह आगे फिर दूसरे माध्यमों में नहीं हुआ, या कहे कम हुआ। ब्लॉग हम लोगों की पहचान थी। हमको लोग अनूप शुक्ल से ज्यादा फुरसतिया के नाम से जानते हैं। समीरलाल उड़नतश्तरी ज्यादा लोगों के लिए हैं। पूजा उपाध्याय लहरें वाली पूजा हैं। देवांशु अगड़म-बगड़म-स्वाहा। अभिषेक ओझा उवाच हैं।
लगभग सभी लोगों ने बताया कि उनकी जिंदगी में ब्लागिंग ने बहुत अहम किरदार निभाया। अपन की तो सारी लिखाई ही ब्लागिंग की देन है।
बातचीत के दौरान अशोक पांडेय Ashok Pande के कबाड़खाना की याद कई लोगों ने की। रवीश कुमार Ravish Kumar के कस्बा बलाग के भी किस्से आये। Vineet Kumar की हुंकार भी आई चर्चा में। पंकज उपाध्याय, दर्पण शाह , संजय व्यास , मनीष भट्ट , कमल ने अनेक यादें साझा कीं। अपन ने सबके बलाग खोलकर देखे। मन किया कि ब्लॉग नियमित लिखेंगे। मौका मिलने पर चिट्ठाचर्चा भी करेंगे।
ढाई घण्टे चली इस चर्चा में न जाने क्या-क्या बातें हुईं। जो याद रहीं वो यहां लिख दीं। बाकी याद आने पर।
देखते हैं क्या होता है। 🙂

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222525781506753

Tuesday, June 15, 2021

कानपुर की लाल इमली

 

यह फोटो हमारे मित्र Rajeev Sharma ने भेजते हुए अपन से मजे लिए -'अगर इस फोटो में (डॉ शुक्ला का) इश्तहार न होता तो यह इमारत लन्दन में किसी जगह की इमारत लगती।'

यह इमारत कानपुर की लाल इमली की है। लाल इमली कभी ऊनी कपड़ों के लिए देश भर में प्रसिद्ध थी। फिलहाल वर्षो से ताला बन्दी की मार झेल रही है। अक्सर इसके फिर से चलने की बात चलती है लेकिन फिर ठहर जाती है। मिल नहीं चलती।
कानपुर की शान रही इस मिल के अलावा कभी कानपुर में अनेकों मिलें थीं। कानपुर पूर्व का मानचेस्टर कहलाता था। धीरे-धीरे मिलें बन्द होती गईं। मिलों के कामगार बेरोजगार हो गए। कोई रिक्शा चलाने लगा, कोई मजदूरी करने लगा। कभी भारत का मानचेस्टर कहलाने वाला शहर कुली-कबाड़ियों का शहर बन कर रह गया।
वैसे तो कानपुर में आई.आई.टी., एच. बी.टी.आई. , मेडिकल कॉलेज के अलावा कई रक्षा उत्पादन के संस्थान भी हैं, जिनमें कामगारों की संख्या दिन पर दिन सिकुड़ती जा रही है, लेकिन कानपुर के हाल-बेहाल होते जा रहे हैं। किसी शहर की सेहत उसकी लोगों को रोजगार और रोजी-रोटी मुहैया करा सकने की क्षमता से नापी जाती है। हालांकि अभी भी कानपुर के आस-पास रहने वाले लोग रोजी-रोटी की तलाश में कानपुर ही आते हैं लेकिन यह भी सच है कि मस्ती के अंदाज में 'झाड़े रहो कलक्टरगंज' कहने वाले शहर के दुश्मनों की तबियत अक्सर नासाज ही रहती है। ऐसा होना लाजिमी भी है क्योंकि जिस शहर में कभी कपड़ा मिलों का जाल बिछा था, वह शहर अब मसाले- गुटखे-जर्दे के उत्पादन के लिए जाना जाता है।
कनपुरियों के पान मसाले के प्रचलित कई किस्सों में एक मसाला प्रेमी अमृत पीने का ऑफर यह कहते हुए ठुकरा देता है -'अभी मसाला खाये हैं।'
बहरहाल बात लाल इमली की इमारत और उस पर डॉ शुक्ला के इश्तहार की हो रही थी। यह भी तो हो सकता है कि यह इमारत लन्दन की ही कोई इमारत हो और उस पर वहीं के किसी डॉ शुक्ला का इश्तहार हो। आखिर लन्दन में भी तो डॉ शुक्ला हो सकते हैं।
लन्दन की बात चली तो याद आया कि प्रख्यात लेखक यूसुफी साहब ' खोया पानी' की भूमिका में लन्दन के बारे में लिखते हुए कहते हैं-'यूं लन्दन बहुत दिलचस्प शहर है और इसके अलावा इसमें कोई खराबी नजर नहीं आती कि यह गलत जगह स्थित है।'
यूसुफी साहब पाकिस्तान और लन्दन जाने के पहले कानपुर में भी कुछ दिन रहे, कानपुर के किस्से भी लिखे उन्होंने। लन्दन के गलत जगह बसे होने की बात कहते हुए वे कहीं यह तो नहीं कहना चाहते थे कि लन्दन को टेम्स नदी किनारे होने की जगह गंगा किनारे कानपुर में होना चाहिए। ऐसा होता तो कानपुर की लाल इमली लन्दन में ही कहलाती।
युसूफ़ी साहब भले ही ऐसा न सोचते हों लेकिन हमारे ऐसा सोचने में कोई फीस थोड़ी लगती है। है कि नहीं?
वैसे आपको लन्दन में किसी डॉ शुक्ला का पता हो तो बताइए । उनसे कहा जाए कि वे अपना इश्तहार किसी इमारत में लगवाकर फ़ोटो भेजें ताकि हम बता सकें कि लन्दन भी उतना गया बीता नहीं है- वहां भी डॉक्टर ( शुक्ला) मिलते हैं।
सूचना: 'खोया पानी' एक बेहतरीन किताब है। इसका लिंक कमेंट बॉक्स में। 🙂

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222516483874318

Friday, June 11, 2021

क्रांति के रास्ते की कठिनाइयां

 

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के जन्मदिन पर उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनके क्रांतिकारी जीवन की कठिनाइयां का वर्णन देखिए।
उन्होंने जैसे-तैसे क्रांतिकारी कार्यो का संचालन किया। क्रांतिकारी पर्चे आये तो उन्हें भी वितरित कराया। पर समिति के सदस्यों की बड़ी दुर्दशा थी। वे बताते हैं कि चने मिलना भी कठिन था। " सब पर कुछ न कुछ कर्ज हो गया था। किसी के पास सबूत कपड़े तक न थे। कुछ विद्यार्थी बनकर धर्मक्षेत्रों तक में भोजन कर आते थे। चार-पांच ने अपने-अपने केंद्र त्याग दिए थे। पांच और रुपये से अधिक रुपये मैं कर्ज लेकर व्यय कर चुका था। यह दुर्दशा दे मुझे बड़ा कष्ट होने लगा। मुझसे भी भरपेट भोजन न किया जाता था। सहायता के लिए कुछ सहानुभूति रखने वालों का द्वार खटखटाया, किंतु कोरा उत्तर मिला। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। कुछ समझ में न आता था। कोमल हृदय नवयुवक मेरे चारों तरफ बैठकर कहा करते पंडित जी, अब क्या करें? मैं उनके सूखे-सूखे मुंह देख बहुधा रो पडता कि स्वदेशसेवा व्रत लेने कारण फकीरों से भी बुरी दशा हो रही थी। एक-एक कुर्ता तथा धोती भी ऐसी नहीं थी जो साबुत होती। लँगोट बांधकर दिन व्यतीत करते थे। अंगौछे पहनकर नहाते थे, एक समय क्षेत्र में भोजन करते थे, एक समय दो-दो पैसे के सत्तू खाते थे। मैं पन्द्रह वर्ष से एक समय दूध पीता था। इन लोगों की ऐसी देखकर मुझे दूध पीने का साहस न होता था। मैं भी सबके साथ बैठ कर सत्तू खा लेता था। मैंने विचार किया कि इतने नवयुवकों के जीवन को नष्ट करके उन्हें कहाँ भेजा जाए। जब समिति का सदस्य बनाया था तो लोगों ने बड़ी-बड़ी आशाएं बंधाई थीं। कइयों का पढ़ना-लिखना छुड़ाकर काम मे लगा दिया था। पहले से मुझे यह हालत मालूम होती तो मैं कदापि इस प्रकार की समिति में योग न देता। बुरा फंसा ! क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता था। अंत में धैर्य धारण कर दृढ़तापूर्वक कार्य करने का निश्चय किया।"
सुधीर विद्यार्थी जी की किताब-' मेरे हिस्से का शहर' से साभार।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222490980156741

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जीवन

 आज अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्मदिन है। उनकी याद को नमन करते हुए उनके जीवन से जुड़े किस्से यहां पेश हैं। कैसी विषम परिस्थियों में जिये हमारे क्रांतिकारी।

मैनपुरी केस में आम माफी की राजकीय घोषणा के पश्चात बिस्मिल शाहजहाँपुर आये। उस समय तक एक क्रांतिकारी के रूप में लोग उनका नाम जानने लगे थे। यहां शहर में वे आये तब उनके लिए सब कुछ बदला हुआ था। उन्होंने लिखा है--" कोई पास तक खड़े होने का साहस न करता था। जिसके पास मैं जाकर खड़ा हो जाता, वह नमस्ते कर चल देता था। पुलिस का बड़ा प्रकोप था। प्रत्येक समय वह छाया की भांति पीछे-पीछे फ़िरा करती थी। इस प्रकार का जीवन कब तक व्यतीत किया जाए। मैने कपड़ा बुनने का काम सीखना आरम्भ किया। जुलाहे बड़ा कष्ट देते थे। कोई काम सिखाना नहीं चाहता था। बड़ी कठिनाई से मैंने कुछ काम सीखा। उसी समय एक कारखाने में मैनेजरी का स्थान खाली हुआ। मैंने उसी स्थान के लिए प्रयत्न किया। मुझसे पांच सौ रुपये की जमानत मांगी गई। मेरी दशा बड़ी सोचनीय थी। तीन-तीन दिवस तक भोजन प्राप्त नहीं होता था, क्योंकि मैंने प्रतिज्ञा की थी कि किसी से कुछ सहायता न लूंगा। पिताजी से कुछ कहे बिना मैं चला आया था। मैं पांच सौ रुपये कहां से लाता। मैंने दो-एक मित्रों से केवल दो सौ रुपये की जमानत देने की प्रार्थना की। उन्होंने साफ इंकार कर दिया। मेरे हृदय पर वज्रपात हुआ। संसार अंधकारमय दिखाई देता था। पर बाद को एक मित्र की कृपा से नौकरी मिल गई। अब अवस्था कुछ सुधरी। मैं भी सभ्य पुरुषों की भांति जीवन व्यतीत करने लगा। मेरे पास भी चार पैसे हो गए। वे ही मित्र, जिनसे मैंने दो सौ रुपये की जमानत देने की प्रार्थना की थी, अब मेरे पास चार-चार हजार रुपयों की थैली, अपनी बन्दूक , लाइसेंस सब डाल जाते थे कि मेरे यहाँ उनकी वस्तुएं सुरक्षित रहेंगी। समय के इस फेर को देखकर मुझे हंसी आती थी।"
-सुधीर विद्यार्थी जी की किताब 'मेरे हिस्से का शहर' से साभार।

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शहादत के बाद बिस्मिल का परिवार

 इस मां के संकट के उन दिनों को बिस्मिल की बहन श्रीमती शास्त्री देवी के शब्दों में देखिए-"पिताजी की हालत दुख से खराब हुई। तब विद्यार्थी जी पन्द्रह रुपये मासिक खर्च देने लगे। उससे कुछ गुजर चलती रही। फिर विद्यार्थी जी भी शहीद हो गए। मुझे भी बहन से ज्यादा समझते थे। समय-समय पर खर्चा भेजते थे। माता-पिता, दादा, भाई, दो गाय थीं। रहने के लिए हरगोविंद ने एक टूटा-फूटा मकान बता दिया था, उसमें गुजर करने लगे। वर्षा में बहुत मुसीबत उठानी पड़ी। फिर पांच सौ रुपये पंडित जवाहरलाल जी ने भेजे। तब माता जी ने कहा कि कुछ जगह ले लो। इस तरह के दुख से तो बचें।

नई बस्ती में जमीन अस्सी वर्ग गज ले ली। एक छप्पर एक कोठरी थी। उसमें गुजर की। पिताजी भी चल बसे। माताजी बहुत दुखी हुईं। एक महीने बाद मैं भी विधवा हो गयी। अब दोनों मां-बेटी दुखित थीं। मेरे पास एक पुत्र तीन साल का था। माता जी बोलीं कि मैं तो शरीर से कमजोर हूँ किस तरह दूसरे की मजदूरी करूँ। बिटिया अब क्या करना चाहिए। मैंने कहा कि जहां तक मुझसे होगा, माताजी आपकी सेवा करूंगी, आप धीरज बांधो। ईश्वर की यही इच्छा थी।
माता जी के पास रामप्रसाद जी के सोने तीन टोले तोले के बटन थे। उन्होंने किसी को नहीं बताया, छिपाए रहीं। जाने कैसा समय हो, इसलिए कुछ तो पास रखना चाहिए। पिताजी के स्टाम्प खजाने में दाखिल किए, दो सौ रुपये मिले। फिर बटन बेच दिए। फिर मैंने ईंट-लकड़ी लगाकर एक तिचारा तथा उसके ऊपर एक अटारी बनवाई। ऊपर माता जी ने गुजर की। नीचे का हिस्सा आठ रुपये में किराए पर उठा दिया। आठ रुपये में मैं , माताजी तथा बच्चा रहते थे बहुत ही मुसीबत से। एक समय वह भी कभी-कभी खाना प्राप्त होता था। मैंने एक डॉक्टर के यहां खाना बनाने का काम छह रुपये में कर लिया। माता जी ने सबसे फरियाद की कोई इस बच्चे पढ़ा दो। कुछ कर खायेगा। मगर शाहजहाँपुर में किसी ने ध्यान नहीं दिया।"
कहाँ थे तब बिस्मिल के शहर के राजनेता और समाजसेवी। किसी ने बिस्मिल की मां और उनके पिता को सहारा नहीं दिया। वे कब, कहां और कैसे मरे यह भी किसी को नहीं पता। कोई यादगार नहीं बनी शाहजहाँपुर की धरती पिता मुरलीधर और माँ मूलमती की। इस शहर के किसी सभागार में इनकी तस्वीरें नहीं लटकाई गईं। 1992 में जब मैं इस शहर के खिरनी बाग मुहल्ले में रामप्रसाद बिस्मिल उद्यान का निर्माण करा रहा था तब मैंने बिस्मिल की आदमकद संगमरमर की प्रतिमा के एक ओर मां मूलमती की समाधि भी बनवा दी जिस पर गोरखपुर जेल में बिस्मिल से मां के मिलन की कथा भी दर्ज है।
बिस्मिल की मां और पिता के अंतिम दिन इस शहर के माथे पर कलंक की तरह लगते हैं मुझे। आखिर कौन माफ करेगा हमें। क्या हम बिस्मिल के एक भाई और उनके मां-पिता को स्वाभिमान से जीने और मरने की सुविधा देने लायक भी नहीं थे।
सुधीर विद्यार्थी जी की पुस्तक 'मेरे हिस्से का शहर' के
लेख 'एक मां की आंखें' का अंश
अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के जन्मदिवस पर श्रद्धा सहित।

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Saturday, June 05, 2021

जैसे उनके दिन बहुरे

 

अभी तक परीक्षाओं में पास होने की तीन डिवीजन थीं- फर्स्ट डिवीजन, सेकेंड डिवीजन और थर्ड डिवीजन। 60 प्रतिशत से ज्यादा नम्बर पाने वाले बच्चे फर्स्ट डिवीजन, 45 और 60 प्रतिशत के बीच वाले बच्चे वाले सेकेंड डिवीजन और 33 प्रतिशत से 45 प्रतिशत वाले बच्चे थर्ड डिवीजन में पास कहलाते थे। थर्ड डिवीजन को गांधी डिवीजन भी कहते थे।
कोरोना काल में इम्तहान मुश्किल हो गए। इम्तहान मतलब संक्रमण का खतरा। पहले इम्तहान टाले गए और अब अंततः निरस्त हो गए। तय हुआ कि बच्चों को उनके पिछले अंको के आधार पर अंक देकर पास किया जाएगा।
जिन बच्चों के पिछले इम्तहानों के कोई नम्बर नहीं होंगे उनको सिर्फ अगली कक्षा में प्रोन्नत किया जाएगा। क्या पता आगे चलकर ऐसे बच्चों की डिवीजन कोरोना डिवीजन कहलाये। बच्चे बतायेंगें -'हम कोरोना डिवीजन में पास हुए हैं।'
होशियार बच्चे थोड़ा दुखी होंगे कि उनके नम्बर कम हुए। 100 प्रतिशत की आशा रखने वाले बच्चे को शायद कम नम्बर मिलें। अखबार में खबर, फोटो इंटरव्यू की आस वाले बच्चे भी निराश होंगे।
इससे अलग बड़ी संख्या उन बच्चों की भी है जो कोरोना की कृपा हाईस्कूल या इंटर पास कर जाएं। जो बच्चे कई सालों से इम्तहानों की देहरी न लांघ पाए वो कोरोंना काल में अगली कक्षा में पहुंच जाए। ऐसे लोग कोरोना के शुक्रगुजार होंगे।
हमारे जान पहचान में ऐसे कई बच्चे हैं जो वर्षों की मेहनत के बावजूद अगली कक्षा में नहीं जा पाये। कोरोना कृपा से वे अब सफल कहलायेंगे। भले ही कोई कहे कि कोरोना के चलते पास हुए वरना फेल हो जाते। लेकिन कहने से क्या होता है। कहलायेंगे तो पास ही भले ही डिवीजन कोरोना डिवीजन हो। बकौल परसाई जी -'अपनी बेइज्जती में दूसरे को शामिल कर लेने से बेइज्जती आधी हो जाती है।' यह तो लाखों लोग शामिल हो गए साथ। बेइज्जती धुंआ-धुंआ हो गयी।
कोरोना डिवीजन ने सिर्फ पास होने का रास्ता नहीं खोला है। इसने तमाम लोगों की रोजी-रोटी और नौकरी बचाने का रास्ता भी बनाया है। कई विभागों में अनुकम्पा के आधार पर नौकरी पाने वालों को हाई स्कूल पास होना अनिवार्य होता है। नौकरी लगने के पांच साल में हाईस्कूल पास न होने की स्थिति में नौकरी से निकाल दिए जाने का प्रावधान होता है। कोरोना डिवीजन ऐसे तमाम लोगों के लिए वरदान की तरह है जो कई प्रयासों के बाद अब यह सोचने लगे थे -'नौकरी छूटने के बाद क्या करेंगे?'
ऐसा एक उदाहरण हमारी निर्माणी में ही है। उसको नौकरी मिले पांच साल होने वाले थे। अभी तक के हाल देखकर यही लगता था कि उसकी नौकरी अब बस चन्द महीने की ही मोहताज है। लेकिन कोरोना काल में लोगों को प्रोन्नत करने के निर्णय से लगता है वह भी प्रोन्नत हो जाएगा। उसकी नौकरी बच जाएगी और वह जिंदगी भर इसके लिए शायद कोरोना का शुक्रगुजार हो।
आपदाएं किसी के लिए वरदान भी लेकर आती हैं।
पास होने के लिए मोहताज लोगों के लिए कोरोना डिवीजन एक वरदान की तरह है। उनके दिन फिर गए इस वरदान से।
जैसे उनके दिन बहुरे वैसे सबके बहुरे।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222451036038163

प्रेम

 इंसान के व्यक्तित्व का एक हिस्सा होता है जो हमेशा प्रेम को अस्वीकार करता है। यह वह हिस्सा होता है जो नष्ट होना चाहता है। ऐसे हिस्से को हमेशा अनदेखा/माफ किया जाना

चाहिए।
"There is always a part of man that refuses love ;it is that part which wants to die;it is that part which needs to be forgiven".
-अल्वेयर कामू
बमार्फत Shree Krishna Datt Dhoundiyal

Friday, June 04, 2021

यह क्या हो रहा है?

 आजकल खबरों में सच और झूठ , अफवाह और वास्तविकता इस कदर घुली मिली है कि असलियत पता नहीं चलती। लुटने वाला चोर साबित हो रहा है, जिसको जुतियाया जाना चाहिए उसकी जय बोली जा रही है। यह सब क्या है -'हमारे एक मित्र भन्नाते हुए बोले।'

यह जादुई यथार्थवाद है। मार्खेज का नाम सुने हो? जादुई यथार्थवाद उसी के नाम पर चला है। हजार साल पहले की बात आज घटती हुई बताता है। आज की बात को हजार साल पहले घटी बताता है। सब गड्ड-मड्ड। मार्खेज तो लिखकर चला गया, हमारा समाज उसको जी रहा है। यह जो हो रहा है न , वह जादुई यथार्थवाद है। हमारा समाज जादुई यथार्थवाद जी रहा है। हमारे दोस्त ने अंगड़ाई लेते हुए बताया।
हम जिस दोस्त को बुड़बक समझते थे वह सुबह-सुबह इतने ज्ञान की बात कह गया। हम समझ नहीं पा रहे कि क्या कहे? मन कह रहा है कि धृतराष्ट्र की तरह आंख मिचमिचा के पूछें - यह क्या हो रहा है?

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Thursday, June 03, 2021

साइकिल दिवस के बहाने

 

आज विश्व साइकिल दिवस है। 2018 से ही मनाया जाना शुरू हुआ। यूनाइटेड नेशन की जनरल असेम्बली में तय हुआ कि 3 जून को विश्व साइकिल दिवस मनाया जाएगा। तय हो गया तो मनाया जाने लगा।
किसी के नाम से कोई दिन मनाया जाए तो समझ लीजिये उसका अस्तित्व खतरे में है। या तो उसकी फोटो पर माला चढ़ गई है या फिर मामला सिर्फ यादों तक ही सिमटने वाला है।
साइकिल दिवस मनाया जाना भी इसी खतरे की तरफ इशारा है। दुनिया में साईकिलें कम होने लगी हैं। कम भले हुई हैं फिर भी चल तो बहुत रही हैं। चलती भी रहेंगी इंशाल्ल्लाह। जैसे पेट्रोल, डीजल के दाम तरक्की कर रहे हैं उससे लगता है साइकिल की सवारी भी लोकप्रिय होगी। मजबूरी का नाम साइकिल सवारी होगा।
बचपन में सुदर्शन जी का लेख साइकिल की सवारी पढ़ने तक साइकिल चलाना सीख गए थे। पहले कैंची चलाना सीखे फिर उचक के डंडे पर बैठकर और फिर गद्दी पर। लेकिन साइकिल अपनी नहीं थी। दोस्तों की साइकिल चलाते रहे।
इलाहाबाद में किराये की साइकिल चलाई। शायद 30 पैसे घण्टा। हॉस्टल का कमरा नम्बर लिखवाकर साईकल किराये पर मिल जाती।
इलाहाबाद में पढ़ने के दौरान ही साईकल से भारत यात्रा का प्लान बना। झटके में। बहुत अचानक ही तय कर लिया कि साइकिल यात्रा पर जाना है। तीन दोस्त साथ।
दीवानगी इतनी कि इम्तहान के दौरान साईकल यात्रा की तैयारी भी करते। इम्तहान होते ही निकल लिए। 1 जुलाई , 1983 को। अपनी टीम का नाम रखा हम लोगों ने -'जिज्ञासु यायावर।' नाम के पीछे अज्ञेय जी कविता -'अरे यायावर रहेगा याद' का कितना हाथ था कहना मुश्किल। क्या पता उस समय तक पढ़े ही न हों यह कविता।
बहरहाल हम निकले 1 जुलाई को और तीन महीने में उप्र , बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, पांडिचेरी, तमिलनाडु होते हुए तय समय पर 15 अगस्त को कन्याकुमारी पहुंच गए। लौटते में केरल, कर्नाटक, गोआ, मुंबई, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश होते हुए 2 अक्टूबर को वापस इलाहाबाद पहुंच गए।
रास्ते में दोस्तों के घर, ढाबे, मन्दिर, मस्जिद, धर्मशाला, थाना, स्कूल , पुलिया मतलब जहां भी जगह मिली रुके। वह अनुभव अभी भी उकसाता है फिर कहीं निकल लेने को। लेकिन लड़कपन का मन अब कहां। समझदारी जोखिम लेने से रोकती है।
बाद में बहुत दिन तक साइकिल छूटी रही। जबलपुर में फिर शुरू हुई। पूरा जबलपुर साईकिल से घूमा। खूब चलाई साईकिल। एक दिन में सत्तर किलोमीटर तक। साइकिल से 'नर्मदा परिक्रमा' का विचार भी किया कई बार लेकिन अमल में नहीं ला पाए। जोखिम लेने और आवारगी का जज्बा वो नहीं रहा जो लड़कपन में था।
फिर कानपुर और अब शाहजहांपुर में भी साइकिल चलाना जारी रहा। 'शाहजहांपुर साइकिल क्लब' के साथियों के साथ इतवार को साइकिल चलाना शुरू हुआ। अलग से भी चलाते। एक दिन सिंधौली तक गए। लेकिन फिर कोरोना ने डरा दिया और साइकिल कोरोना को कोसती हुई गैराज में धरी है। देखिए कब चलेगी फिर से।
बहरहाल आज विश्व साइकिल दिवस के मौके पर सभी साइकिल चलाने वालों को
बधाई
। आप भी शुरू करें साइकिल चलाना। मजा आएगा। अच्छा लगेगा।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222438096394680

Monday, May 10, 2021

मुहब्बत

 *किसी शहर से परिचित होने के लिए शायद सबसे आसान तरीका यह है कि यह जानने की कोशिश की जाए कि उसमें रहने वाले लोग किस तरह काम करते हैं, किस तरह प्यार और मुहब्बत करते हैं और किस तरह मरते हैं।

*सच तो यह है कि यहां हर आदमी जिंदगी से ऊबा हुआ है और अच्छी आदतें डालने की कोशिश में लगा रहता है। हमारे नागरिक कठोर परिश्रम करते हैं, लेकिन इसमें उनका एकमात्र उद्देश्य धनवान बनना होता है।
* निश्चय ही आजकल सबसे साधारण बात जो हमें देखने को मिलती है वह यह कि लोग सुबह से लेकर शाम तक काम करते हैं और फिर जिंदा रहने के लिए उनके पास जो समय बच रहता है, उसको बर्बाद करने के लिए ताश खेलने की मेजों , जलपान-ग्रहों या गपशप करने की जगहों की ओर चल पड़ते हैं।
* जिसे 'प्रेम-क्रीड़ा' कहा जाता है, उसमें हमारे यहां के लोग या तो एक-दूसरे का बहुत तेजी से भक्षण कर लेते हैं या फिर दाम्पत्य-सम्बन्ध की हल्की-फुल्की आदत डालकर जिंदगी बसर करने लगते हैं। इन अतिवादों के बीच का जीवन हमें यहां अक्सर देखने को नहीं मिलता।
* और शहरों की तरह ओरान में भी, समय और चिंतन की कमी के कारण लोगों को एक-दूसरे से मुहब्बत करनी पड़ती है, बिना यह जाने हुए कि मुहब्बत क्या चीज होती है।
-अल्वेयर कामू के उपन्यास प्लेग के अंश।

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Sunday, May 09, 2021

कोरोना से लड़ना सबका फर्ज है

 

"अगर आदमी ध्यान से सोचे तो हर घटना का , चाहे वह कितनी ही अप्रिय क्यों न हो, आशापूर्ण पहलू भी होता है।
यह सुनकर रेम्बर्त ने गुस्ताखी से अपने कन्धे सिकोड़े और बाहर निकल आया।
दोनों शहर के केंद्र में पहुंच गए थे।
"यह निहायत अहमकाना बात है न डॉक्टर! दरअसल मैंने अखबारों के लिए लेख लिखने के लिए दुनिया में जन्म नहीं लिया था। मेरा ख्याल है किसी औरत के साथ जिंदगी बसर करने के लिए मैं पैदा हुआ हूँ। यह तर्क संगत बात है न ?"
रियो ने सतर्कता से उत्तर दिया कि सम्भव है रेम्बर्त की बात में सच्चाई हो।"
ऊपर उद्धरत बातचीत अल्वेयर कामू के प्रसिद्द उपन्यास प्लेग के दो पात्रों की है।
ओरान शहर में प्लेग फैल जाती है। रेम्बर्त संयोगवश ओरान में आया था। प्लेग महामारी से बचाव के लिए शहर के फाटक बंद कर दिए गए। लोगों का आना-जाना रुक गया।
रेमबर्त शहर से बाहर जाने के लिए छटपटाने लगा। उसकी प्रेमिका उसका इंतजार कर रही थी। लेकिन शहर के फाटक बंद थे। कोई बाहर नहीं जा सकता था।
रेम्बर्त ने हर सम्भव कोशिश की निकलने की। उच्चाधिकारियों से मिला। जोर-जुगाड़ लगाया। डॉ रियो से अनुरोध किया कि उसे प्लेग के कीटाणु न होने का प्रमाणपत्र दे ताकि वह उसे दिखाकर निकल सके। रियो ने मना कर यह कहते हुए:
"मैं तुम्हे सर्टिफिकेट नहीं दे सकता, क्योंकि मुझे यह नहीं मालूम कि तुम्हारे अंदर इस बीमारी के कीटाणु नहीं है। और अगर मुझे मालूम होता तो भी मैं इस बात की गारंटी कैसे दे सकता हूँ कि मेरे यहाँ से निकलकर प्रीफेक्ट के दफ्तर तक पहुँचने के बीच तुम्हें इस बीमारी की छूत नहीं लग जायेगी।"
रेम्बर्त हर तरह से अपने को सही ठहराने की कोशिश करते हुए निकलने की कोशिश करता है। असफल होता है। इस बीच वह डॉक्टर रियो के सम्पर्क में रहते हुए शहर से निकलने की कोशिशें करता रहता है।
डॉक्टर रियो आपदाग्रस्त लोगों के इलाज में लगा रहता है। रेम्बर्त शहर से निकलने की फिराक में। इस सिलसिले में वह गेट पर तैनात लोगों से जोड़-तोड़ कर निकलने की कोशिश में रहता है। उसको अपनी प्रेमिका से मिलने की उतावली है।
रेम्बर्त को पता चलता है कि डॉक्टर रियो की बीबी शहर से करीब 100 मील दूर एक सेनिटोरियम में है।
अगले दिन तड़के ही रेम्बर्त ने डॉक्टर को फोन किया। "जब तक मैं शहर से निकलने का कोई तरीका नहीं निकाल लेता , क्या तब तक तुम मुझे अपने साथ काम करने दोगे?"
कुछ देर की खामोशी के बाद जबाब सुनाई दिया , "जरूर, रेमबर्त! धन्यवाद।"
इसके बाद रेम्बर्त डॉक्टर रियो के साथ काम करने लगा। शहर से निकलने की कोशिश भी जारी रहीं।
एक दिन रेम्बर्त का शहर से बाहर निकलने का जुगाड़ बन गया। उसका शहर से जाना तय हो गया। वह रियो और तारो से विदा लेकर गया। रेम्बर्त की जगह नई टीम बन गई।
जिस रात रेम्बर्त को जाना है उसी शाम वह वापस आकर डॉक्टर रियो से मिलता है। आगे की बात :
"रेम्बर्त बोला , "डॉक्टर , मैं शहर छोड़कर नहीं जा रहा। मैं तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ।"
तारो बिना हिले-डुले कार चलाता रहा। लगता था कि रियो अपनी थकान से छुटकारा पाने में असमर्थ था।
"और ----'उसका' क्या होगा?" रियो की आवाज बड़ी मुश्किल से सुनाई दे रही थी।
रेम्बर्त ने जबाब दिया कि उसने सारे मामले पर बड़ी गम्भीरता से सोच-विचार किया है। उसके विचार तो नहीं बदले लेकिन अगर वह चला गया तो उसे अपने पर शरम आएगी, जिसकी वजह से अपनी प्रियतमा के साथ उसका सम्बन्ध और भी पेचीदा हो जायेगा।
इस बार और अधिक उत्साह दिखाते हुए रियो ने कहा कि यह निरी बकबास है। अगर कोई अपने सुख को ज्यादा पसन्द करता है तो इसमें उसे शरम नहीं महसूस करनी चाहिए।
" यह तो सही है," रेम्बर्त ने जबाब दिया, "लेकिन जब सब दुखी हों तो सिर्फ अपना सुख हासिल करने में शरम महसूस हो सकती है।"
तारो ने, जो अभी तक खामोश रहा था, पीछे मुड़कर देखे बगैर कहा कि अगर रेम्बर्त दूसरे लोगों के दुख में हिस्सा बटाने की इच्छा रखता है तो उसके पास फिर अपने सुख के लिए कोई समय नहीं बचेगा। इसलिए दोनों रास्ते में से उसे एक चुनना ही पड़ेगा।
"बात यह नहीं है," रेम्बर्त ने फिर कहा।" अब तक मैं हमेशा अपने को इस शहर में एक अजनबी- सा महसूस करता था। और मुझे ऐसा लगता था कि आप लोगों से मेरा कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन अब मैंने अपनी आंखों से जो कुछ देखा है, इसके बाद मैं जान गया हूँ कि मैं चाहूं या न चाहूं मैं यहीं का हूँ। प्लेग से लड़ना सबका फर्ज है।""
इसके बाद रेम्बर्त शहर छोड़कर भागने के प्रयास छोड़ देता है। डॉक्टर रियो की टीम से जुड़कर प्लेग रोगियों की सेवा में जुट जाता है। एक दिन ऐसा भी आता है जब शहर में प्लेग खत्म हो जाती है और सड़कों पर मरते हुए चूहों की जगह बिल्लियां दिखने लगती हैं।
पिछली सदी में हुई प्लेग महामारी पर केंद्रित यह उपन्यास पढ़ते हुए आज कोरोना की विभीषिका के समाचार छाए हुए हैं। तमाम लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं। असमय विदा हो रहे हैं।
यह विवरण एक पराये शहर के पत्रकार की एक अजनबी शहर के लोगों की पीड़ा से जुड़कर वहां के लोगो की सेवा करने की भावना का है।
आज जब हमारा समाज इस विभीषिका से जूझ रहा है तब समय यह देखने का भी है कि हम अपने समाज से कितने जुड़े हैं। हमारे अंदर डॉक्टर रियो और पत्रकार रेम्बर्त के कितने अंश बचे हैं।
डॉक्टर रियो और रेम्बर्त प्लेग से लड़े थे। आज कोरोना फैला है। कोरोना से लड़ना हमारा फर्ज है।

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Thursday, May 06, 2021

लिखना खुद को अभिव्यक्त करना है - मनोहर श्याम जोशी

 मेरी तमाम ऐसी 'रचनाएं' भी हैं, जो मैं अपने मानस पटल पर ही लिखकर खुश हो गया, कागज पर उतारी नहीं। एक जमाना था कि इस तरह सोची हुई रचनाएं भी बोलकर सुना डालता था। खैर, अब तो आलम यह है कि बात करते-करते यह भी भूल जाता हूँ कि बात किस प्रसंग से शुरू की थी और उसे किस ओर ले जाना चाहता था। जो रचनाएं मैंने शुरू भी कीं, उनमें से भी ढेरों ऐसी हैं , जिन्हें मेरी अन्य व्यस्तताओं ने या मेरे भीतर बैठे आलोचक ने पूरा होने ही नहीं दिया।

मैंने अभी अन्य व्यस्तताओं का जिक्र किया, उनमें से अधिकतर व्यवसायिक लेखन से जुड़ी हुईं थीं और लुत्फ की
बात यह है कि इस तरह के लेखन में भी मैं काटता-जोड़ता रहा हूँ।
मैं जब सम्पादक था , मेरी इसी संसोधन वृत्ति से परेशान प्रेस फोरमैन मुझे अपने लिखे हुए का प्रूफ एक बार से ज्यादा पढ़ने नहीं देता था कि ये तो हर बार बदलते ही चले जायेंगे।
तो मेरे हिस्से सन्तोष नहीं,खाली संशय पड़ा है। तो मेरे पास गिनाने को मेरी एक भी उपलब्धि नहीं है। अलबत्ता अफसोस अनेक हैं, जिन्हें बहानों की संज्ञा भी दी जा सकती है। गनीमत इतनी ही है कि ये बहाने कुछ ठोस और महत्वपूर्ण न लिख पाने के हैं।
कहा जाता है कि रचनात्मक तेवर दो तरह के होते हैं -एक रूमानी दूसरा क्लासिकी। मुझे खुशफहमी रही है कि मैं अपने गुरु नागर जी की तरह क्लासिकी तेवर का धनी हूँ। और अपने दूसरे गुरु अज्ञेय जी की तरह रोमांटिक नहीं। लेकिन क्लासिकी तेवर साध लेने पर भी कोई रचनाकार अपनी रचना में अपने मन का उल्लंघन नहीं कर सकता। यह क्या है कि लेखन अंततः और मूलतः आत्माभिव्यक्ति ही है। जिसे आत्म या सेल्फ कहा जाता है वह आध्यात्म और विज्ञान , दोनों के पंडितों के लिए खासी रहस्यमयी चीज रही है।
आद्यात्म और मष्तिष्क विज्ञान दोनों का ही विद्यार्थी न होने के कारण मैं उस रहस्यवादी आयाम में जा सकने की योग्यता नहीं रखता। लेकिन मुझे इसमें संदेह नहीं कि लिखना खुद को अभिव्यक्त करना है और कि स्वयं से किसी भी लेखक के लिए मुक्ति सम्भव नहीं।
आप विश्वास कीजिये मैने किशोरावस्था से अब तक कुछ और हो जाने का यत्न किया है। जैसे स्कूल में, जब मैंने पाया कि हीरो का दर्जा मुझे ज्यादा पढ़ाकू लड़के नहीं , खिलाड़ी लड़के पाते हैं , तब मैंने किसी खेल की टीम में जगह पाकर अपनी जय बुलवाने की जी-तोड़ कोशिश की। और लड़कों की अपेक्षा काया में कमजोर तथा उम्र में छोटा होने के कारण मेरी खेल के मैदान में एक न चली।
यह कमी पूरी करने के लिए मैं हर खेल के बारे में अपना।किताबी ज्ञान बढ़ाता चला गया, ताकि खिलाड़ियों के बीच उठ बैठ सकूं। अपने को कुछ और बना सकने के क्रम में मैंने अपने को स्वयं अपने लिए हास्यास्पद बनाया। उच्चतर शिक्षा के दौरान चाहा कि बहुत बड़ा वैज्ञानिक बन सकूं। मुझे ' कल का वैज्ञानिक' की उपाधि भी मिली, लेकिन मैं वैज्ञानिक न बन सका। नियति ने मुझे इतना ही धैर्य और इतनी ही समझ दी थी कि विभिन्न विषयों की सतही जानकारी हासिल कर सकूं और उनपर पत्रकार की हैसियत से कलम चला सकूं।
तो मैं तमाम कोशिशों के बाद मैं ही रह गया - एक अदद कायर, कमजोर और रोंदू किस्म का इंसान, जो अपनी कातर भावुकता , हर नए उत्साह के 'पर' नोच डालने वाली अपनी उद्दत उदासी और संसार तथा स्वयं पर उठते नपुंसक आक्रोश की पर्दादारी करने के लिए व्यंग्य- विनोद, आत्म व्यंग्य और विडम्बना की शरण लेता रहा है।
- स्व. मनोहरश्याम जोशी
आज के अमर उजाला से साभार

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प्लेग की जगह कोरोना

 


महामारी मुझे इसके सिवा कोई नया सबक नहीं सिखा पाई कि मुझे तुम्हारे साथ मिलकर लड़ना चाहिए। हमसे से हरेक के भीतर प्लेग है, धरती का कोई आदमी इससे मुक्त नहीं है। और मैं यह भी जानता हूँ कि हमें अपने पर लगातार निगरानी रखनी होगी, ताकि लापरवाही के किसी क्षण में हम किसी चेहरे पर अपनी सांस डालकर उसे छूत न दे दें। दरअसल कुदरती चीज तो रोग का कीटाणु है। बाकी सब चीजें ईमानदारी, पवित्रता -इंसान की इच्छाशक्ति का फल हैं-ऐसी निगरानी जिसमें कभी ढील न हो। एक नेक आदमी जो इसमें कभी ढील नहीं देता , किसी को छूत नहीं देता।
-अल्वेयर कामू के उपन्यास 'प्लेग' से।
पिछली सदी में लिखे इस कालजयी उपन्यास को आज पढ़ते हुए लगा कि काफी कुछ वैसा ही घट रहा है, बड़े पैमाने पर, ज्यादा तेजी के साथ। सिर्फ प्लेग की जगह 'कोरोना' ने ले ली है।
नीचे हमारा परिवेश - रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।


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Tuesday, April 20, 2021

आपका क्या होगा जनाबे अली

 

तीन मीटर दूरी पर रखे रेडियो पर यह गाना बज रहा है। बार बार कह रहा है -'आप का क्या होगा जनाबे अली।' जैसे हमी से सवाल कर रहा हो। मन किया उठकर जाएं और उमेठ के बंद कर दें कहते हुए -'बड़ा आया पूछने वाला -आप का क्या होगा जनाबे अली।'
लेकिन आलस्य ने बरज दिया। आलस्य को लोगों ने 'बेफालतू' में बदनाम किया है। आलस्य के चलते तमाम 'हिंसाबाद' रुक जाता है। किसी को पटककर मारने की मंशा उठाने, पटकने और फिर मारने में लगने वाली मेहनत को सोचकर स्थगित हो जाती है। दुनिया में आलस्य के चलते न जाने कितने बुरे काम होने से बचे हैं। आलस्य की महिमा अनंत है। चुपचाप भले काम करता रहता है यह बिना अपना प्रचार किये।
रेडियो को लगता है हमारे गुस्से की भनक मिल गयी। इसीलिए 'पान पराग' का हल्ला मचाने लगा। बदमाश है रेडियो। जैसे आजकल मीडिया एक बवाल को दबाने के लिए दूसरे बवाल की बाइट फुदकती है वैसे ही रेडियो ने भी 'जनाबे अली' से ध्यान बंटाने के लिए 'पान पराग' चला दिया।
बहरहाल पान पराग की बात पर हंसी आई। सुबह-सुबह की चाय के बाद पान पराग कौन खाता है। चाय वह भी अदरख वाली। लेकिन 'पान पराग' का कॉन्फिडेंस है भाई। सबेरे डंके की चोट पर पान पराग का हल्ला मचा रहा है। वैसे इस कॉन्फिडेंस की वजह है। किसी कनपुरिये मसाला भक्त को कोई अमृत भी दे मसाला खाने के बाद तो मुंह में मसाले के आनन्दातिरेक में आंख बंद करके कहेंगे -'अभी मसाला खाये हैं।' मल्लब मसाले के बाद अमृत कैसे पी लें, मसाले का अपमान होगा।
बहरहाल बात चाय की हो रही थी। सुबह से तीसरी चाय पी। अदरख वाली। पहली चाय में अहा, अहा। दूसरी में ठीक , ठीक। तीसरे कप तक मामला आते आते चाय की इमेज वही हो गयी जो लोकतंत्र में सरकारों के तीसरे चुनाव तक हो जाते हैं। एंटीइनकंबेंसी फैक्टर हर जगह होता है। चुनाव की सुविधा होती तो एक ही केतली की तीसरी चाय पीने के बजाय दूसरी केतली की चाय ही पीते, भले ही पीने के बाद वह पहली से घटिया लगती।
हम और कुछ सोंचे तब तक रेडियो सिटी ने हल्ला मचा दिया कि सीसामऊ में 'ए टू जेड' में सब कुछ मिलता है। दुकान न हुई डिक्शनरी हो गयी। वैसे ये डिक्शनरी भी एक लफड़ा है। पहले तो देखते थे। आजकल तो सब आनलाइन है।स्पेलिंग के हाल बेहाल हैं। जिन शब्दों के साथ बचपन और जवानी में उठते-बैठते रहे उनकी तक याद धुंधला जाती है अक्सर। अक्सर भूल जाते हैं कि किसी शब्द में 'आई' लगेगा कि 'वाई'। 'ई' 'एल' के पहले आएगा या बाद में। इस चक्कर में डॉक्टरों की तरह गड्ड-मड्ड लिख देते हैं। बिना सीपीएमटी किये डाक्टर बन जाते हैं। हमने तो लिख दिया 'गोलिया' के। झेलें पढ़ने , टाइप करने वाले। हड़काने का मौका अलग से मिलता है-'तुमको यह तक नहीं आता। कौन स्कूल में पढ़े हो।'
कभी सोचते हैं कि शब्द भी अगर बोल-लिख सकते और अपने साथ रोज होते दुर्व्यवहार की शिकायत 'मीटू' अभियान के तहत करते तो अनपढ़ों के अलावा दुनिया के सब लोग कटघरे में खड़े होते।
हम और कुछ सोचते तब तक गाना बजने लगा :
'सावन आया रे
तेरे मेरे मिलने का मौसम आया रे।'
हमने हड़काया रेडियो को। हमको हनीट्रैप में फंसा रहा है। जैसे विकसित देश पिछड़े मुल्कों को अपनी पुरानी तकनीक नई कहकर टिका देते हैं वैसे ही ये मुआ रेडियो सावन बीत चुकने के बाद सावन के आने की खबर सुना रहा है। मीडिया की तरह हरकतें कर रहा है। सावधान न रहते तो सही में मिलने के लिए हाथ में गुलदस्ता लेकर निकल लेते।
बहरहाल बाल बाल बचे। अब आगे का किस्सा फिर कभी। अभी चलते दफ्तर। देर हुई तो सही में सुनना पड़ेगा -'आप का क्या होगा जनाबे अली।'

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Thursday, April 08, 2021

लम्बा मारग दूरि घर

 

आज फिर सपना दिखा। वही पुराना, सदाबहार। इम्तहान के लिए निकलना है। देरी हो रही है। समय कम। डर हावी है कि कहीं समय पर पहुंच न पाए तो पेपर छूट जाएगा। करेला ऊपर से नीम चढा यह कि अभी फाइनल रिवीजन बाकी है।
रिवीजन करना है। निकलना है। पहुंचना है। इम्तहान देना है। लेकिन हो कुछ नहीं रहा है सिवाय चिंता के। कुछ नहीं करने पर सिवाय चिंता के कुछ नहीं होता। यह भी कह सकते कि सिर्फ चिंता करने से कुछ नहीं होता।
सपना भले पुराने टाइप का है लेकिन इस बार साधन बदले हैं। पहले सपने में रिक्शा रहता था। इस बार कार है। लगता है सपने में भी प्रमोशन हो गया। सवारी मंहगी हो गई। कार के साथ जाम की भी चिंता है। जाम लगा होगा तो पहुंच नहीं पाएंगे समय पर।
रिक्शे की जगह सपने में आई। लगता है आटोमोबाइल बिरादरी ने स्पांसर किया है सपना। बाजार सपनों में भी घुसपैठ करने लगा। मंहगे होते पेट्रोल के चलते कारों की बिक्री कम हुई तो सपने में बिकने लगी।
तरह तरह की बाधाएं कबीर दास जी के दोहे की याद दिला रही हैं :
"लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।"
अब नींद खुल गई लेकिन सपना भूला नहीं है। लेकिन सुकून है कि अब इम्तहान देने नहीं जाना पड़ेगा। इम्तहान से सबको डर लगता है। यह अलग बात है जिंदगी के स्कूल में हर समय कोई न कोई इम्तहान चलता रहता है। उसमें फेल-पास की चिंता नहीं होती। पता भी नहीं चलता कि किसी इम्तहान में शामिल हैं।
यह तो हुई सपने की बात। कल नहाते हुए एक बड़ा धांसू आइडिया आया था दिमाग में। बिना पूछे घुस गया था। पहले तो गुस्सा आया कि डांट के 'गेटआउट' कह दें। लेकिन आइडिया इतना क्यूट था कि नहीं बोल पाए। उसकी खूबसूरती पर फिदा हो गए।
आइडिया एक फैंटेसी पर एक उपन्यास लिखने का था। जो फैंटेसी आई थी दिमाग में वह इतनी हसीन थी कि तय किया कि नहाना छोड़कर पहले उसको पेटेंट करा लें। लेकिन आर्किमिडीज जैसी दीवानगी के अभाव में हमने पेटेंट का काम छोड़कर लिखने की बात तय की। सोचा कि लिखकर अच्छे से कई ड्राफ्ट के बाद उपन्यास किसी प्रकाशक को दे देंगे। भले ही वह छापे , न छापे। अपन तो लिख देंगे उपन्यास। बन जाएंगे -'अन छपे उपन्यास' के लेखक। जब तक छपेगा तब तक दो-चार भाषाओं में अनुवाद भी करा लेंगे। इनाम-उनाम की बात भी कर लेंगें। इधर उपन्यास छपे, उधर इनाम मिले।
यह सब तो बड़ा हसीन ख्वाब था जो अपन ने नहाते हुए देखा। आज सुबह जगने पर जब सपने की याद की तो कल के ख्वाब को भी याद क़िया। पता चला ख्वाब तो याद है लेकिन फैंटेसी के डिटेल कहीं गोल हो गए। फैंटेसी आइडिये के साथ फरार। याद ही नहीं आ रहा कि क्या लिखने की सोच रहे थे।
बहुत गुस्सा आया। कल लिखकर रख लेना चाहिए था। एक उपन्यास का कच्चा माल जरा सी लापरवाही से गायब हो गया। मन किया पकड़ के कुच्च दें अपनी लापरवाही को। लेकिन छोड़ दिया। ले-देकर लापरवाही ही तो है जो हमेशा साथ रहती है। यह भी रूठ गई तो बचेगा क्या अपन की शख्सियत में।
लेकिन मजे की बात यह कि अपन को सोते हुए देखा सपना, जो परेशानी वाला है , तो याद है लेकिन हसीन ख्वाब की तफसील भूल गई। इससे साबित होता है कि बुरी चीजें हम शिद्दत से याद रखते हैं, अच्छी चीजें याद करने में लापरवाही बरतते हैं।
बहरहाल जो हसीन ख्वाब जागते हुए देखा था वह आखिरी नहीं था। फिर देखा जाएगा और अमल में भी लाया जाएगा- इंशाअल्लाह।
आप भी देखिए कोई हसीन ख्वाब और अमल में भी लाइये। न ख्बाब में कोई राशनिंग है और न ही उनके अमल में लाने में।

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Saturday, April 03, 2021

रुप्पू

 आज ज्योति त्रिपाठी रुचि द्वारा लिखा उपन्यास रुप्पू पढा। पेज नम्बर 7 से 160 तक पूरा उपन्यास एक सिटिंग में पढ़ गये। बहुत दिन बाद ऐसा हुआ कि कोई किताब एक दिन में पढ़ ली जाए। वरना पिछले कई महीनों से ऐसा होता आ रहा है कि एक से एक अच्छी मानी जाने वाली किताबें जितनी तेजी से शुरू हुई उतनी ही तेजी से, बिना पूरी पढ़े गए, उनकी जगह दूसरी किताबें आती गयीं।

किताब एक सिटिंग में पढ़ ली जाए इससे उसकी पठनीयता तो अच्छी कही ही जा सकती है। इस मामले में तो ज्योति को पूरे नम्बर मिलने चाहिए।
ज्योति की कविताएं पिछले कई सालों से पढ़ते आये थे। स्त्री सँघर्ष और घर परिवार में आने वाली चुनौतियों और उनके बारे में पूर्वाग्रहों के बारे में बड़ी बेबाकी से लिखती रही हैं ज्योति। अक्सर उनकी अभिव्यक्ति चकित करती रहती है। समाज में महिलाओं की स्थितियों पर लिखी ज्योति की कुछ कविताएं तो इस विषय पर लिखी सबसे बेहतरीन कविताओं से कमतर नहीं हैं। आने वाले समय में शायद उनकी कविताओं का मूल्यांकन हो सके।
कविताओं से फेसबुक लेखन शुरू करके ज्योति क़िस्त-दर-क़िस्त वाले अंदाज में किस्से लिखने लगीं। लिखने का रोचक अंदाज होने के कारण पाठक उनका इंतजार करने लगे। शुरू में कुछ पोस्ट्स मैने भी पढ़ी। लेकिन फिर एक साथ पढ़ने की सोचकर पढ़ना छूट गया। ज्योति पाठकों की मांग पर लिखती रहीं। इसी तरह करते-करते कई किस्से बन गए उनके। किस्से मतलब उपन्यास।
ऐसे ही एक धारावाहिक किस्से की किस्तों को एक साथ करके जो किस्सा मुकम्मल हुआ वह उपन्यास 'रुप्पू' के रूप में सामने आया। रुप्पू एक बदसूरत लड़की की जिंदगी की चुनौतियों से जूझने की कहानी है।
रुप्पू की जिंदगी में कई 'उतार ही उतार'आये। जिंदगी लगातार कठिन होती रही। जिन पर भरोसा किया उनमें से अधिकतर से धोखे मिले। कई बार टूटी रुप्पू लेकिन हर बार खुद को संभाला। फिर चुनौतियों का सामना किया। कई बार अवसाद में आई रुप्पू। आत्महत्या की कोशिश की। लेकिन फिर जिंदगी की विजय हुई। रुप्पू अपने पैरों पर खड़ी हुई। मजबूत बनी।
रुप्पू के व्यक्तित्व की खासियत में से एक यह भी है कि वे अपने साथ अन्याय करने वाले , धोखा देने वाले के प्रति भी, उसकी परिस्थितियों को ध्यान करते हुए, उसको क्षमा कर देती है। निरन्तर धोखा खाने के बावजूद अपने पति को गलतियों को अनदेखा करते हुए उसकी अच्छाइयां देखकर जुड़े रहने की कोशिश करती है। गलत से गलत व्यक्ति की अच्छाइयों को भी देखने की यह नजर ज्योति के व्यक्तित्व का सहज अंग है।
ज्योति की यह सोच उनकी कविताओं में भी लगातार दिखती है। स्त्री का पक्ष लेते हुए कविताएं लिखने के बावजूद ज्योति की कविताओं में आने वाले पुरुष पात्र अपनी तमाम कमियों के बावजूद 'उतने बुरे नहीं ' होते जितने उनको समझा जाता है। उनमें बहुत कुछ ऐसा होता है जिनके चलते उनके प्रति प्यार उमड़ता है।
बहरहाल बात रुप्पू की। इस उपन्यास की कहानी अपने समाज में एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसको आमतौर पर खूबसूरत नहीं माना जाता। केरल में जो लड़की बिंदास रहती है वह रांची पहुंचकर बेचारी हो जाती है। बाकी किस्से पढ़ने के लिए किताब पढिये।
ज्योति का यह पहला उपन्यास है। जितनी जल्दी यह उपन्यास आया उससे बहुत खुशी हुई। उपन्यास में कई कमियां होंगी। लेकिन वह देखना आलोचकों का काम है। हम तो आनंदित और प्रमुदित हो रहे हैं यह सोचकर कि अभी और कई उपन्यास और कविता संकलन आएंगे ज्योति के।
ज्योति को उसके उपन्यास की
बधाई
।शुभकामनाएं।
किताब खरीदने का लिंक यह रहा


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Wednesday, March 31, 2021

हमारे दरमियाँ

 


मुश्किलों से जब मिलो आसान होकर मिलो,
देखना आसान होकर , मुश्किलें रह जाएंगी।
हमारे डॉ. राजीव रावत की किताब 'हमारे दरमियाँ' के पन्ने पलटते हुए स्व. प्रमोद तिवारी की गजल का यह शेर दिखा। मजा आ गया। पैसे वसूल हुए।
डॉ राजीव रावत हमारे आयुध निर्माणी संगठन से जुड़े रहे हैं। कानपुर की फील्ड गन फैक्ट्री के राजभाषा विभाग से जुड़े रहे। 2009 से आई.आई.टी. खड़गपुर में वरिष्ठ हिंदी अधिकारी हैं।
सहज, सरल, तरल भाषा में लिखे ललित निबन्ध तसल्ली से पढ़ने वाले हैं। अपनी बात कहते हुए बेहतरीन कविता पंक्तियों के उध्दरण से लेखों की खूबसूरती बढ़ गयी है। इन उद्धरणों के चलते हमेशा आसपास रखने लायक किताब है यह। किताबें वैसे भी आसपास रहनी चाहिए। तमाम अलाय बलाय से बचाती हैं किताबें।
किताब अभी तो शुरू की है। फिलहाल इतना ही।
किताब खरीदने का मन करे तो लिंक यह रहा।

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