Sunday, July 28, 2024

सोशल मीडिया पर हाजरी



पिछले दिनों कई मित्रों से बात हुई। कई लोगों ने पूछा -'कोलकता से लौट आए?'
कुछ लोगों ने शाहजहाँपुर से वापस आने का हिसाब लिया।
उनके पूछने का कारण मेरी शाहजहाँपुर/कोलकता के बारे में लिखी पोस्ट्स रही होंगी। इनमें से अधिकतर लोग मेरी किसी पोस्ट पर टिप्पणी नहीं करते। न लाइक करते हैं। न ही ऐसा कोई आभास या सूचना कि मेरी पोस्ट्स पढ़ते हैं। लेकिन उनकी बातचीत से पता चला कि वे मेरी पोस्ट्स पढ़ते हैं, भले ही कभी-कभार ही।
मेरे कुछ बुजुर्ग रिश्तेदार भी बातचीत होने पर पूछते हैं -'बाहर से कब लौटे?'
ये बुजुर्ग लोग घड़ी-घड़ी नोटीफिकेशन जाँचने वाले स्मार्ट फ़ोन घराने के लोगों के उलट बेसिक फ़ोन के जमाने के लोग हैं। उनको उनके घर में कोई बताता है मेरी पोस्ट्स के बारे में। याद रखते हैं और बात होने पर पूछते हैं।
कुछ मित्रों ने बताया कि वे भले न पढ़ें लेकिन उनके घर में लोग पढ़ते हैं मेरी पोस्ट। कुछ लोगों ने सूचित किया कि वे 'इनके' खाते से मेरी पोस्ट्स पढ़ते/पढ़ती हैं।
ऐसे समय में जब सोशल मीडिया पर पहुँच (Reach) लेखन के अलावा भुगतान आधारित भी होने लगी है इस तरह के 'चुप्पा पाठकों' का होना भी अपने में मज़ेदार , सुखद सा अनुभव है।
यह एक तरह से सोशल मीडिया पर हाज़िरी है। आपकी उपस्थिति सोशल मीडिया के माध्यम से लग रही है। हफ़्ते भर पहले हम कोलकता से लौट आए लेकिन वहाँ के किस्से अभी तक लिख रहे हैं लिहाज़ा तमाम लोगों के लिए हम अभी भी कोलकता में ही हैं। कानपुर में हमारी मौजूदगी के बावजूद हमारी हाज़िरी कोलकता में ही लग रही है।
‘मन अंते, चित अंते’ की तर्ज पर ‘मौजूदगी कहीं,हाजिरी कहीं’ जैसा हो रहा है।
इसका इलाज रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता पर यही है:
'लिखो-लिखो
जल्दी लिखो
तुम पर निगाह रखी जा रही है।'
जब से कहीं आने-जाने, घूमने जाने पर उसके किस्से लिखने शुरू किए (जिसे Alok Puranik जी ने हमारा वृतांत लेखन बताया) तब से लगता है कि उसका क़िस्सा न लिखा तो घूमना-फिरना , आना-जाना बेकार। किस्से लिखने में सबसे ज़्यादा आनंद तब आता है जब उसी दिन लिख लिया जाए। उसी समय लिखने पर जो बिम्ब, चित्रण के लिए शब्द सूझते हैं वे बाद में भूल जाते हैं। दिमाग़ का बहिष्कार करके भाग जाते हैं। बहुत नख़रीले होते हैं ऐसे बिम्ब। वे ओटीपी पासवर्ड की तरह होते हैं। समय बीतने पर 'शांत' हो जाते हैं। आप कितनी भी कोशिश कर लें, वापस नहीं आते।
इस चक्कर में तमाम यात्राओं के किस्से अधूरे पड़े हैं। लेह-लद्धाख, कश्मीर, नेपाल, अमेरिका और तमाम दीगर जगहों के कई किस्से लिखने से रह गए। अब उनको लिखने की सोचते हैं तो गजनी की तरह तमाम चीजें भूल जाते हैं। फिर याद करके उनको लिखना मुश्किल काम है। लेकिन करने का मन करता है।
पुराने किस्से लिखने में लफड़ा यह भी कि लिखते ही दोस्त लोग पूछते हैं , फिर पहुँच गए नेपाल, कश्मीर, अमेरिका, कोलकता।
इस डिजिटल हाज़िरी के बारे में लिखते हुए लगा कि क्या पता कल को उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की हाज़िरी के फ़रमान की तरह आदेश जारी हो जाए -'हर नागरिक जहां है, वहीं से अपनी हाज़िरी लगाए। डिजिटल हाज़िरी न लगने पर उस इंसान की उतने दिन की नागरिकता रद्द कर दी जाएगी। फिर से डिजिटल नागरिकता बहाल करने के लिए फ़ीस पड़ेगी। डिजिटल उपस्थिति में और वास्तविक उपस्थिति में अंतर होने पर डिजिटल उपस्थिति को मान्य माना जाएगा। विकसित राष्ट्र बनने के लिए यह ज़रूरी होगा।'
डिजिटल हाज़िरी वाले आदेश पर अमल करने में अक्सर समस्या नेटवर्क की आती है। पता लगा आप हाज़िरी लगा रहे हैं और नेटवर्क नदारद। लेकिन जब इस तरह का आदेश आएगा तो उसमें यह पूछल्ला भी ज़रूर लगा होगा -'डिजिटल हाज़िरी में नेटवर्क न होने का बहाना मान्य नहीं होगा। अपनी हाज़िरी के लिए नेटवर्क की व्यवस्था आपको स्वयं करनी होगी।'
हालाँकि फ़िलहाल ऐसा सोचना खाम ख़याली ही है लेकिन क्या पता आने वाले समय में ऐसा होने लगे। कुछ कहा नहीं जा सकता। पाकिस्तान की तर्ज़ पर आजकल हिंदुस्तान की अफ़वाहों *में भी सबसे बड़ी ख़राबी होने लगी है कि वे सच निकलने लगी हैं।
(*पाकिस्तान की अफ़वाहों में सबसे बड़ी ख़राबी यह है कि वे सच निकलती हैं -मुश्ताक़ अहमद युसुफ़ी)
बहरहाल बात हो रही थी सोशल मीडिया पर हाज़िरी की। तो ऐसा इसलिए भी है कि इसके अलावा आजकल हम लोगों का सम्पर्क तीज, त्योहार, ख़ुशी, गमी के मौक़ों तक सीमित होता जा रहा है। 'नो न्यूज़ इज गुड न्यूज़' वाले जुमले के हिसाब से मिलना-जुलना काम होता जा रहा है।
ऐसे में सोशल मीडिया के बहाने ही सही हम पर निगाह रखी जा रही है यह अपने में ख़ुशनुमा एहसास है।

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Saturday, July 27, 2024

दक्षिणेश्वर मंदिर और बेलूर मठ



कालीघाट मंदिर देखने के बाद हम लोग दक्षिणेश्वर मंदिर देखने गए। वीआइपी मंदिर प्रांगण में अंदर तक गाड़ी चली गयी। लेकिन पानी बरस रहा था। तेज, झमाझम। लिहाज़ा गाड़ी में ही बैठे रहे काफ़ी देर।
प्रकृति के सामने इंसान का कोई वीआइपी पना नहीं चलता।
वैसे हमको धर्मस्थलों में पूजा के लिहाज़ से कोई श्रद्धा नहीं है। पूजा-चोर हैं अपन। आमतौर पर घर वालों के साथ किसी मंदिर जाना भी होता है तो या तो फ़टाक से निकल आते हैं या फिर बाहर ही खड़े रहते हैं -ड्राइवरों की तरह ! लेकिन घरवालों के साथ जाना तो पड़ता ही है कभी-कभी।
पानी थोड़ा हल्का हुआ तो हम लोग आगे बढ़े। सुरक्षा जाँच के समय मोबाइल जेब में बरामद हुआ। लौटा दिए गए। वापस आकर मोबाइल गाड़ी में रखा फिर दर्शन के लिए।
मंदिर प्रांगण में दर्शनार्थी लोगों की भीड़ जमा थी। मुख्य द्वार से मंदिर तक लोग लाइन में लगे थे।
इस मंदिर की मुख्य देवी, भवतारिणी है, जो हिन्दू देवी काली माता ही है। यह कलकत्ता के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है, और कई मायनों में, कालीघाट मन्दिर के बाद, सबसे प्रसिद्ध काली मंदिर है। इसे वर्ष 1854 में जान बाजार की रानी रासमणि ने बनवाया था।
यह मन्दिर, प्रख्यात दार्शनिक एवं धर्मगुरु, स्वामी रामकृष्ण परमहंस की कर्मभूमि रही है, वर्ष 1857-68 के बीच, स्वामी रामकृष्ण इस मंदिर के प्रधान पुरोहित रहे। तत्पश्चात उन्होंने इस मन्दिर को ही अपना साधनास्थली बना लिया। कई मायनों में, इस मन्दिर की प्रतिष्ठा और ख्याति का प्रमुख कारण है, स्वामी रामकृष्ण परमहंस से इसका जुड़ाव।
मंदिर के भीतरी भाग में चाँदी से बनाए गए कमल के फूल जिसकी हजार पंखुड़ियाँ हैं, पर माँ काली शस्त्रों सहित भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई हैं। काली माँ का मंदिर नवरत्न की तरह निर्मित है और यह 46 फुट चौड़ा तथा 100 फुट ऊँचा है।
मंदिर में 12 गुंबद हैं। मंदिर के चारों ओर भगवान शिव के बारह मंदिर स्थापित किए गए हैं।
दर्शन करके वापस आने पर भी पानी बरस ही रहा था। बीच-बीच में रुक भी जाता था। लेकिन बरसने-रुकने का सिलसिला जारी रहा। हम लोगों ने मंदिर के पास ही स्थित कैफ़ेटेरिया में नाश्ता किया। ताज्जुब की बात कि वहाँ चाय या लस्सी मौजूद नहीं थी। छोले भटूरे खाकर काम चला।
दक्षिणेश्वर मंदिर से निकलकर हम लोग बेलूर मठ देखने के लिए निकले। किसी ने ड्राइवर को बता दिया कि वहाँ रास्ते में जाम लगा है। उसने बिना मठ देखे वापस लौटने की सलाह दी। लेकिन हम लोगों ने कहा -'चलो, जहां जाम होगा, वहाँ देखा जाएगा।'
रास्ते में कहीं कोई जाम नहीं मिला। कुछ देर में हम लोग बेलुर मठ के मुख्य द्वार पर थे।
यह रामकृष्ण मिशन और रामकृष्ण मठ का मुख्यालय है। इस मठ के भवनों की वास्तु में हिन्दू, इसाई तथा इस्लामी तत्वों का सम्मिश्रण है जो धर्मो की एकता का प्रतीक है। इसकी स्थापना 1887 में स्वामी विवेकानन्द ने की थी। यह मठ भारत के प्रमुख पर्यटनस्थलों में से एक है, तथा स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रामकृष्ण मिशन तथा स्वामी विवेकानंद के विश्वभर में विस्तृत श्रद्धालुओं हेतु एक पवित्र तीर्थस्थल के समान महत्व रखता है।
मठ में म्यूजियम और मंदिर और दीगर इमारतें थी। साफ़-सुथर स्थल।
मंदिर जो बने थे उनमें विवेकानंद जी और रामकृष्ण परमहंस जी की मूर्तियाँ लगीं थीं। मंदिर खुलने का समय अलग-अलग। जब विवेकानंद मंदिर खुला तब रामकृष्ण मंदिर बंद। पता चला कि रामकृष्ण मंदिर साढ़े ग्यारह बजे खुलेगा। तब तक लपककर अपन लोग विवेकानंद मंदिर देख आए। वहाँ पास ही बहती हुगली नदी पूरी लबालब भरी थी। स्टीमर भी दिखा नदी में। नदी में कपड़े धोने की मनाही का बोर्ड लगा था। कुछ लोग नदी में डुबकियाँ लगाते दिखे।
रामकृष्ण मंदिर खुलने का समय साढ़े ग्यारह बजे था। बताया गया कि पाँच मिनट के लिए खुलेगा। हाल में मोबाइल चलाने और फ़ोटो लेने की मनाही। वहाँ सुरक्षा के लिए तैनात लोग चुप रहने और फ़ोटो न लेने के लिए बार-बार आग्रह कर रहे थे। हाल में भीड़ जमा हो गयी थी।
हमारे अग़ल-बग़ल में एक स्कूल के बच्चे बैठे थे। उनको गर्मी लग रही होगी। एक बालिका ने पतला सा आइसक्रीम खाने वाली चम्मचों से बना पंखा निकाला और झलने लगी। पंखा दिल के आकार का था। उसमें दिल की फ़ोटो भी बनी थी। ऐसी जैसी सोशल मीडिया में दिल के आकार की ईमोजी बनी होती है। थोड़ी देर में पंखा बग़ल वाले वाले लड़के के हाथ में आ गया। वह खुद के और अग़ल-बग़ल की लड़कियों-लड़कों को दिल की आकार के पंखे से हवा करता रहा। अपन चुपचाप मंदिर के पट खुलने का इंतज़ार करते रहे।
स्कूल के बच्चों में एक बच्चा व्हीलचेयर पर था। उसके दोस्त उसको साथ लेकर आए थे। बच्चे का नाम पारिजात। उसने बताया कि उसको किशोर कुमार के गीत पसंद हैं। खुद रवींद्र संगीत गाता है। बच्चे से और बात करते तब तक उसके दोस्त उसकी व्हील चेयर रैम्प की तरफ़ ले गए जिससे वह भी अंदर आ सके।
मंदिर के पट खुलने पर हमने रामकृष्ण जी की मूर्ति के दर्शन किए और बाहर निकल आए।
बाहर आकर वहीं मौजूद दुकान से सबने नारियल का पानी पिया। पानी पीकर नारियल से निकली मुलायम गरी खाते-खाते वापस लौट लिए।

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Thursday, July 25, 2024

जय माँ काली कलकत्ते वाली



किसी शहर में अगर दो-चार दिन रुकना हो तो लगता है पूरा शहर नाप लिया जाए। लेकिन ऐसा होता कहाँ है आम तौर पर? हो भी नहीं पाता। अपना ही शहर नहीं देख पाते अच्छी तरह से। सोचते हैं देख लेंगे कभी आराम से। कौन कोई उठाये लिए जा रहा है शहर की जगहों को।
कानपुर में ही अनगिनत जगहें हैं जो अनदेखी है। ऐतिहासिक और तमाम नई इमारतें है जो हमारे इन्तजार में पलक पांवड़े बिछाए इन्तजार करते हुए दिन पर दिन बुजुर्गियाती जा रही हैं।
बहरहाल, बात कोलकता की। कोलकाता के बारे में सोचा था कि एकाध महीना रूककर पूरा कोलकता देखना है। महीना तो नहीं लेकिन इस बार हफ्ते भर रुके तो कई जगहें देखीं। शुरुआत कालेज स्ट्रीट से की। अगले दिन कोलकता के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल देखने गए। शुरुआत कालीघाट से हुई।
कालीघाट मंदिर कोलकाता के सबसे पवित्र स्थलों में से एक है और यह एक शीर्ष पर्यटन स्थल है। ऐसा माना जाता है कि कलकत्ता नाम कालीघाट से ही लिया गया है। इसे सभी 52 मार्गों में सबसे पवित्र पीठ के रूप में जाना जाता है।
कोलकता और काली देवी जी का संबंध में बचपन से उद्घोष सुनते आये हैं -‘जय माँ काली कलकत्ते वाली, तेरा वचन न जाये ख़ाली।’
हर दिन हज़ारों काली भक्त मंदिर में आते हैं और पूजा अर्चना करते हैं। यह एक शक्ति पीठ है। कालीघाट मंदिर उस स्थान पर बनाया गया है जहाँ देवी सती के दाहिने पैर की उंगलियाँ गिरी थीं। वर्तमान मंदिर लगभग 200 साल पुराना है । यह बात तो लिखा-पढी की लेकिन मंदिर में मौजूद एक व्यक्ति ने बताया कि मंदिर में स्थित कालीजी मूर्ति 2000 साल पुरानी है । दोनों ही बातों को चुपचाप मान लेने के सिवा हमारे पास कोई और उपाय नहीं है ।
मंदिर के लिए सुबह जल्दी निकलने का फरमान हुआ था । सुबह सात बजे ही निकल लिए । रास्ते एकदम साफ़ था । जल्दी ही मंदिर पहुँच गए। हल्की बारिश शुरू हो गयी थी । लेकिन सड़क से मंदिर बहुत पास ही थी । इसलिए कोई ज्यादा फरक नहीं पड़ा । बिना ज्यादा भीगे मंदिर पहुँच गए ।
मंदिर में वीआइपी दर्शन की व्यवस्था थी । वीआइपी दर्शन में मतलब लाइन में लगे बिना दर्शन । लाइन में नहीं लगे लेकिन घुसे पीछे से । कोई भी वीआईपी मामला पिछवाड़े से ही आने-जाने का होता है । साथ में गए साथी ने वहां मौजूद सुरक्षा कर्मचारी के माध्यम वीआईपी दर्शन कराये । सुरक्षा कर्मचारी में मौजूद महिला पुलिस का मुंह कनपुरिया पान मसाले से भरा हुआ था । मतलब कोलकता में भी –झाडे रहो कलट्टरगंज ।
मंदिर में काली जी की प्रतिमा की भव्यता और आकर्षण की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। काली जी जब दुष्टों का संहार करते आगे बढ़ रहीं थीं। हाहाकार मचा था। उनको रोकने के लिए शंकर जी काली जी के रास्ते में लेट गये। कालीजी का पैर शंकर जी की छाती पर पड़ा तो आश्चर्य और अफ़सोस से उनकी जीभ बाहर निकल आई। शायद इसी क्षण की कल्पना करके काली जी की मूर्ति बनी होगी।
मंदिर में दर्शन के बाद बाहर निकले । मुख्य मंदिर के पास ही एक छुटका मंदिर दिखा । लोगों ने बताया कि यहाँ बलि दी जाती है । पास ही एक छोटा बकरा रस्सी से बंधा मिमिया सा रहा था । शायद उसको एहसास हो गया होगा कि उसकी बलि दी जानी है । बकरे के बारे में सोचते हुए लगा कि दुनिया में न जाने कितने लोग ऐसी जिन्दगी जीते हैं, शायद इससे भी गयी-गुज़री । उनको जीने के लिए रोज मरना होता है । किस्तों में मरना । तमाम लोग तो जिन्दगी भर मरते हुए जीते हैं ।
मंदिर के बाहर ही फूलों की दूकाने थीं । लाल लाल फूल । गुडहल और कमल के फूल। गुड़हल के फूलों की मालायें लोग लेकर चढ़ा रहे थे । कमल के फूल मात्रा में बहुत कम –पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की उपस्थिति की तरह ।
मंदिर से बाहर निकलते हुए बारिश थोड़ी तेज हो गयी थी । हमको बाहर आते देखकर मंदिर के बाहर मौजूद माँगने वाले अपना चाय पीना स्थगित करके माँगने के लिए लपके । चाय से ज्यादा काम जरुरी । सरकारी/दफ़्तरी कर्मचारी की तरह नहीं कि काम के लिए चाय छोड़ दें ।
तेज होती बारिश ने माँगने वालों को कुछ देने की दुविधा से हमको उबारा । हम लोग लपककर गाड़ियों में बैठे और दक्षिणेश्वर मंदिर देखने निकल लिए ।

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Tuesday, July 23, 2024

हावड़ा रेलवे स्टेशन पर ‘मानुष नदी’



कोलकता से लौट आये। इस बार हफ़्ता भर रहे कोलकता। तीन किलो वजन बढ़ा कोलकता यात्रा में। इससे समझा जा सकता है कि कितना सुखद प्रवास रहा होगा।
कोलकता रहने दौरान हावड़ा पुल कई बार देखा।इसके बारे में विस्तार से पढ़ा। इसका नाम भले रवींद्र सेतु रख दिया गया हो लेकिन लोग जानते इसे हावड़ा ब्रिज के नाम से ही हैं।
यह भी जाना कि रोज़ रात को बारह बजे हावड़ा ब्रिज कुछ देर के लिए बंद कर दिया जाता है। पुल के ऊपर कोई वाहन नहीं चलता, नीचे कोई नाव नहीं चलती। माना जाता है कि ऐसा करने से पुल को ख़तरा है।
यह लिखते हुए याद आया कि पहली बार जब आये थे कोलकता 1983 में पुल के पास ही 52, स्ट्रैंड रोड पर स्थित Indra Awasthi के घर रुके थे। पुल देखने के कौतुक में रात को आये थे। वहाँ मौजूद पुलिस वाले ने डांटकर भगा दिया था। उसको लगा होगा कि ये रहेगा तो पुल का बारह बज जाएगा।
पुल को बनाने में लगने वाले स्टील का बड़ा हिस्सा टाटा स्टील्स से मिला था। बनते समय दुनिया का तीसरा सबसे लंबा कैंटीलीवर पुल था। बाद में छठवाँ हो गया। लंबाई की बात अलग लेकिन जब से बना तब से मिथक के रूप में भारतीय समाज में प्रचलित है हावड़ा ब्रिज।
लाखों लोग रोज़ गुजरते हैं इस पर से।
पुल के बाद हावड़ा स्टेशन अपने में अलग कौतूहल का विषय है। गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म तक चली जाती है। कोई प्लेटफ़ॉर्म टिकट नहीं पड़ता। रोचक क़िस्सा पता चला कि कोलकता स्टेशन पर एक प्लेटफ़ार्म ग़ायब है। प्लेटफ़ॉर्म नंबर 16 है ही नहीं। कभी मरम्मत के सिलसिले में हटा तो ग़ायब ही हो गया।
देश का सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशन है हावड़ा स्टेशन। देश का सबसे ज़्यादा प्लेटफ़ॉर्म (23 ) वाला स्टेशन है हावड़ा स्टेशन। रोज़ 600 गाड़ियाँ आती-जाती हैं यहाँ। दस लाख यात्री गुजरते हैं हावड़ा स्टेशन से रोज़। यात्रियों और ट्रेनों के इस संगम के चलते हावड़ा रेलवे स्टेशन को ‘रेल नगर’ भी कहा जाता है।
पहली बार आये तो हावड़ा स्टेशन तो लोगों की भीड़ देखकर ताज्जुब हुआ। प्लेटफ़ॉर्म से बाहर निकलने वाले रास्ते में लोगों की भीड़ इस तरह उतरती जा रही थी जैसे बरसात में किसी सड़क का पानी बड़ी तेज़ी से मैनहोल में तेज़ी से घुसा जा रहा हो। लोग इसकी दूसरी उपमा यह भी देते हैं कि हावड़ा ब्रिज पर लोगों की भीड़ देखकर ऐसा लगता है मानों कोई आलू का बोरा उलट दिया गया हो।
इस बार शांतिनिकेतन जाने के लिए हावड़ा स्टेशन जाना हुआ। जिस प्लेटफ़ॉर्म पर हमारी ट्रेन आनी थी उसके बग़ल वाले प्लेटफ़ार्म पर कोई ट्रेन आयी थी शायद। यात्री एक के पीछे एक करके आते दिखे। उनको देखकर लगा कि प्लेटफ़ार्म पर कोई ‘मानुष नदी’ बह रही हो। एक के पीछे एक बिना धक्का-मुक्की किए तरल जलधार की तरह बहती मानुष नदी। बिना जाति, धर्म , गोत्र का बिल्ला लगाये चलते इंसानों की नदी। यह ‘मानुष नदी’प्लेटफ़ॉर्म से बाहर निकलकर हावड़ा पुल से होती हुई कोलकता के ‘मानुष सागर’ में मिल जाती होगी।

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Friday, July 19, 2024

कालेज स्ट्रीट से अलीपुर

 कॉलेज स्ट्रीट पर हम लोग (पोस्ट का लिंक टिप्पणी में ) अपनी गाड़ी का देर तक इंतज़ार करते रहे। ड्राइवर ने बताया कि वो जाम में फँसा है। जाम से छूटते ही आएगा। जाम का कारण उल्टी रथयात्रा होना थी। भगवान जगन्नाथ वापस घर लौट रहे थे। इसलिए सड़क पर भीड़ और जाम था।

ड्राइवर के आने तक हम सड़क पर टहलते रहे इधर-उधर। सामने हिंदू स्कूल के बच्चों की छुट्टी होने वाली थी। स्कूल 1817 से चल रहा है। बच्चों को लेने आये उनके अभिभावक सड़क पर इंतज़ार कर रहे थे।
एक बच्ची ने हम लोगों को कोलकता वासी समझते हुए कहीं जाने वाली बस के बारे में पूछा। हमको पता नहीं था। बता नहीं पाए। बच्ची वहीं खड़ी बस का इंतज़ार करती रही।
पीछे प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय था। वहाँ जाकर देखने का मन नहीं किया। थके थे। सोच रहे थे बस घर चला जाये।
सामने काफ़ी हाउस दिखा। लेकिन एक तो वह पहली मंज़िल पर था , दूसरे हमको ऐसा लगा कि वहाँ एसी नहीं होगा। गर्मी में वहाँ जाने का मन नहीं हुआ। आज Lili जी ने बताया कि वहाँ पैरामाउंट रेस्तराँ भी है जहां हमको जाना चाहिये था। इस बार तो छूट गए दोनों रेस्तराँ लेकिन अगली बार ज़रूर जाएँगे।
ऐसा अक्सर होता है। किसी जगह जाकर वहाँ के बारे में लिखें तो मित्र लोगों से पता चलता है कि पास की ही कोई और महत्वपूर्ण जगह रह गई देखने को।
गाड़ी के इंतज़ार में खड़े-खड़े एक ठेले वाले से क़ुल्फ़ी खाई। क़ुल्फ़ी वाला गया , बिहार का रहने वाला था। उससे गया के बारे में बात करते हुए क़ुल्फ़ी खाते रहे।
सामने एक बोर्ड लगा था जिसमें कॉलेज स्ट्रीट के हाकर्स को बिना उचित जगह दिये विस्थापित करने के विरोध में रैली का आह्वान किया गया था। अगर यह किताबों की दुकानों को हटाने की बाबत है तो ग़लत है। 200 साल से ऊपर की विरासत को ख़त्म करना ठीक नहीं।
सामने सड़क पर लोगों के साथ-साथ हाथ रिक्शे वाले भी आते-जाते दिखे। किसी में कोई सवारी थी। किसी में कोई सामान। कोई ख़ाली ही जा रहा था। हाथ रिक्शा और ट्राम कोलकता की ख़ासियत रही हैं। दोनों के ही दायरे सिमटते जा रहे हैं। हाथ रिक्शा चलाने वाले शायद पुराने लोग ही बचे हैं जिनके लिए कोई दूसरा काम करके आजीविका कमाना मुश्किल होगा।
कोलकता से संबंधित एक पिक्चर की शूटिंग के पहले बलराज साहनी द्वारा उसके रिहर्सल का क़िस्सा कहीं पढ़ा था। उसमें बलराज साहनी भीषण गर्मी ने नंगे पैर हाथ रिक्शा चलाते थे। यहाँ मैंने जितने हाथ रिक्शा वालों को देखा , वे सब चप्पल पहने थे। एक हाथ रिक्शा के पास खड़ी दो महिलायें देर तक रिक्शे वाले से बात करती रहीं। शायद कहीं जाने के लिए किराए का मोलभाव कर रहीं हों।
एक हाथ रिक्शे वाला ढेर सारी किताबें के जाता दिखा। जब तक हम हाथ में पकड़ी किताब और खाई जाती क़ुल्फ़ी को सम्भालकर मोबाइल निकालते फ़ोटो लेने के लिए तब तक वह कैमरे की सीमा के बाहर चला गया था।
देर तक ड्राइवर के न आने पर हमने फिर फ़ोन किया उसको। पता चला वह अभी तक जाम में फँसा था। उसको वापस चले जाने को कहकर हम लोग दूसरी सवारियों की तलाश में चल दिये।
सवारी के लिए पहले टैक्सी खोजी। पता चला वहाँ से कोई टैक्सी अलीपुर की तरफ़ नहीं जाएगी। हमने एक आटो किया। पंद्रह रुपया सवारी के हिसाब से उसने हमारी माणिक चन्द्र रोड तक छोड़ा। पता चला कि आटो वाला बालक अपने मामा का आटो चला रहा था। वैसे पढ़ाई करता है लेकिन कभी-कभी ऑटो चलाता है।
ऑटो के बाद फिर बस पकड़ी। दस रुपये की यात्रा करके धर्मतल्ला पहुँचे। वहाँ से अलीपुर की टैक्सी ली। टैक्सी पुरानी , कलकतिया एंबेसडर थी। उबर का किराया 250 बता रहा था। टैक्सीवाले ने तीन सौ बताये। हमने 250 कहा। उसने बैठा लिया कहते हुए कि यह महाराजा सवारी है। कुछ दिन बाद बंद हो जाएगी। इसका मुक़ाबला ओला/उबर से करना ठीक नहीं।
हम बैठ गये। रास्ते में धक्के और जाम का अनुभव लेते हुए टैक्सी वाले को ढाई सौ रुपये दिये तो उसने पचास और माँगे यह कहते हुए कि उसने तो तीन सौ रुपये ही माँगे थे। आख़िर में बात पास में फुटकर बचे बीस रुपये और देकर निपटी।
रास्ते में जगह-जगह तृण मूल कांग्रेस की पोस्टर लगे दिखे। मुट्ठी भींचे, ललकार मुद्रा में। ऐसा लगा ममता जी ही यहाँ की मोदी जी हैं।
रास्ते में जाम थोड़ा-थोड़ा मिला लेकिन इस कदर नहीं की खड़े रहें घंटों। रास्ते में पड़ने वाली नेशनल लाइब्रेरी को एक बार फिर से बाहर से ही देखा और तय किया कि कोलकता से वापस होने से पहले लाइब्रेरी देखनी है।

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Wednesday, July 17, 2024

दास गुप्ता एंड कंपनी - एक ऐतिहासिक पुस्तक संस्थान



कॉलेज स्ट्रीट ( लेख का लिंक टिप्पणी में) में एक किताब की दुकान दिखी दास गुप्ता एंड कंपनी। स्थापना वर्ष 1886 मतलब 138 साल पुरानी दुकान। इतनी पुरानी दुकान देखकर ताज्जुब हुआ। तफ़सील जानने के लिए अंदर घुसे।
सामने ही एक बुजुर्ग किताबों को रैक में लगाते दिखे। पता चला कि बुजुर्ग दुकान के संस्थापक परिवार की चौथी पीढ़ी के हैं। नाम रंजन दास गुप्ता उम्र 81 साल। बात की तो बताया 1963 से दुकान आना शुरू किया। मतलब 61 साल हो गये दुकान में।
हमने उनसे पूछा किं क्या आपकी दुकान यहाँ की सबसे पुरानी किताब की दुकान है? इस पर वे बोले -‘ ये तो नहीं बोलने सकता। लेकिन हमारा दुकान सबसे पुराने दुकान में से एक है।’
बाद में मुझे याद आया कि कॉलेज स्ट्रीट में किताबों की दुकानों की शुरुआत 1817 में हुई। उसके लगभग सत्तर साल बाद खुली दुकान शायद यहाँ की सबसे पुरानी दुकान न हो।
दास गुप्ता एंड कंपनी दुकान के इतिहास के बारे में छपे लेख के अनुसार इस दुकान की शुरुआत अब के बांग्लादेश में स्थित कालिग्राम गाँव से आये गिरीश चंद्र दास गुप्ता ने की थी। उन दिनों कोलकाता देश की राजधानी थी।
कॉलेज स्ट्रीट पर कोलकता विश्वविद्यालय और अन्य प्रमुख शिक्षण संस्थान होने के कारण दास गुप्ता एंड कंपनी के पनपने का प्रमुख कारण रहा।
दुकान की प्रसिद्धि का अन्दाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रख्यात लेखक शरत चन्द्र चटर्जी , पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन और प्रसिद्ध वैज्ञानिक मेघनाथ साहा यहाँ नियमित रूप से आया करते थे। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन भी यहाँ आ चुके हैं।
दुकान के बारे में वहाँ मौजूद आँकड़े के अनुसार 138 वर्ष में दुकान औसतन साल में 280 दिन खुली। रोज़ लगभग 400 लोग दुकान आये और 31 मई, 2024 तक कुल 154,560,00 लोग मतलब देश की आबादी के करीब दस प्रतिशत लोग दुकान में आये।
दुकान के बारे में प्रचलित किस्से के अनुसार एक बार शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय जी ने दुकान के संस्थापक गिरीश चंद्र दास गुप्ता से 35 रुपये उधार माँगे। बदले में अपने उपन्यास गृहदाह की पांडुलिपि देने की बात कही। गिरीश चन्द्र दास गुप्ता जी ने पैसे तो दे दिये लेकिन उपन्यास की पांडुलिपि लेने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि इस उपन्यास के लिये 35 रुपये की रॉयल्टी बहुत कम है।
दुकान तीन मंज़िला है। पहली दो मंजिलों पर किताबें ही किताबें हैं। तीसरी मंज़िल पर बच्चों के लिए बैठकर पढ़ने की व्यवस्था हो रही है।
हमको दुकान दिखाने वाले मुजफ्फरपुर , बिहार से आये प्रभु महंतो ने बताया -‘ वे यहाँ 1986 में आये। तब यहाँ 46 लोग काम करते थे। आज मालिकों को मिलाकर 10 लोग हैं दुकान में । यह भी बताया कि आठ-दस फ़िल्मों की शूटिंग भी हो चुकी है दुकान में। एक बार दुकान में आग भी लग चुकी है। दुकान में मौजूद गणेश प्रतिमा सौ साल से अधिक पुरानी है। जब आग लगी थी तो इस प्रतिमा से आगे नहीं बढ़ी।’
कॉलेज स्ट्रीट के शुरुआती दिनों की चर्चा करते हुए दुकान में मौजूद लोगों में से एक ने बताया -‘तब एक डिक्शनरी बिक जाता था तो लोग कहता था चलो आज का बिक्री हो गया।’
किताबों के व्यवसाय में नक़ली किताबों के चलन ने भी नकारात्मक भूमिका अदा की है। प्रकाशक किताबों के दाम कम करके इससे मुक़ाबला करने की कोशिश करते हैं लेकिन मुक़ाबला कठिन है।
दुकान के दूसरे मालिक अरविंद गुप्ता की उम्र 79 वर्ष है। 1970 से दुकान से जुड़ गये। उन दिनों नक्सल आंदोलन के दिन थे। कुछ दिन उनका भी जुड़ाव रहा आंदोलन से जुड़े लोगों से। लेकिन जल्द ही मोहभंग हो गया। आंदोलन से जुड़े लोगों को शुरुआत में लगता था कि बदलाव होगा लेकिन जब सौ पचास रुपये के लिए गरीब लोगों की ही हत्याएँ होने लगी तो लोगों का मोहभंग हुआ। आंदोलन भटक गया।
प्रभु महंतो ने बताया था कि अरविंद दास गुप्ता जी की बेटी गूगल में काम करती है।
अरविंद दास गुप्ता जी का पुस्तक मेला में प्रकाशकों द्वारा किताबों को पुस्तक संस्कृति के प्रसार के ख़िलाफ़ बताते हैं। उनका कहना है कि साल भर प्रकाशक हमारे माध्यम से किताबें बेचते हैं। लेकिन पुस्तक मेले में ख़ुद भारी छूट के साथ किताबें बेचते हैं। यह अनैतिक है। पुस्तक मेले में प्रकाशकों को किताबें बेचने की बजाय सिर्फ़ पुस्तक प्रदर्शन की अनुमति होनी चाहिये जैसी कि दुनिया के दूसरे देशों में होता है। पुस्तक संस्कृति के बने रहने के लिए यह ज़रूरी है।
दुकान पर दास गुप्ता एंड कंपनी के पाँचवीं पीढ़ी के अनुत्तम गुप्ता से भी मुलाक़ात हुई। उनके नाम पर चर्चा हुई। हमने कहा -‘अनुत्तम का अर्थ तो यह हुआ कि जो उत्तम न हो। यह तो नकारात्मक नाम हुआ।’ इस पर अनुत्तम ने कहा -‘नहीं। अनुत्तम का मतलब है सबसे उत्तम।’ हमने कहा -‘ फिर तो तुम्हारा नाम होना चाहिये अत्युत्तम।’ लेकिन अपना नाम और उसका मतलब बदलने से अनुत्तम ने साफ़ मना कर दिया।
अनुत्तम ने हाल ही में कोलकता आये अमर्त्य सेन के साथ अपनी फ़ोटो दिखाई। एक फ़ोटो में अपनी दुकान से संबंधित किताब अमर्त्य सेन को भेंट कर रहे हैं अनुत्तम। किताब में दुकान से जुड़े कई समाचार और फ़ोटो हैं। मेरे कहने पर फ़ोटो भी भेज दिये मुझे अनुत्तम ने।
दुनिया के पुरानी पुस्तकों के सबसे बड़े बाज़ार कॉलेज स्ट्रीट के
एक कोने में स्थित दुकान दास गुप्ता एंड कंपनी में गुजारा समय 138 साल के इतिहास को महसूस करने का रहा। अनगिनत घटनाओं की गवाह रही होगी यह दुकान। इस ऐतिहासिक संस्थान में कुछ समय गुज़ारना भी एक ख़ुशनुमा अनुभव रहा।

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Tuesday, July 16, 2024

कॉलेज स्ट्रीट मतलब किताबों का मोहल्ला


कल एक बार फिर कोलकाता आना हुआ। पहली बार आना हुआ था 10 जुलाई, 1983 को। 41 साल पहले। साइकिल से। इलाहाबाद से कन्याकुमारी के भारत दर्शन साइकिल यात्रा के मौक़े पर। उस समय कोलकता के दोस्तों ने शहर घुमाया था। कई जगहें घूमीं थीं। बाद में भी आते रहे। कोलकता की तमाम जगहें घूमी। हर बार तमाम जगहें बाक़ी रह जाती देखने को। हर बार सोचते कि अगली बार घूमेंगे।
ऐसी ही एक जगह यहाँ की कॉलेज स्ट्रीट है। पिछली बार तो आधे रास्ते से लौट गये। भीड़ और जाम के चलते जाना हो नहीं पाया। वह कमी इस बार पूरी हुई।
कॉलेज स्ट्रीट में कोलकाता का विख्यात पुस्तक बाज़ार है। यह भारत और एशिया का सबसे बड़ा पुस्तक बाजार माना जाता है। बंगाली में इसे ‘ बोई पाड़ा’ कहते हैं जिसका मतलब है ‘पुस्तकों का मोहल्ला/किताब टोला।’हर तरफ़ किताबें ही किताबें।
‘पुस्तक सरणी’ भी कहते हैं कॉलेज स्ट्रीट को।
कॉलेज स्ट्रीट में सड़क के दोनों किनारे छोटी-बड़ी गुमटियों में सैकड़ों किताबों की दुकानें हैं। नई पुरानी किताबों से अटी-पटी दुकानें। किसी भी दुकान के सामने खड़े हो जाने पर दुकानदार ग्राहक का स्वागत करते हुए किताबें दिखाने लगते। लेकिन हम लोगों को किताबें लेनी कम दुकानें देखनी ज़्यादा थीं। हम लोग दुकान दर दुकान देखते कॉलेज स्ट्रीट घूमते रहे।
कॉलेज स्ट्रीट की किताबों की दुकानों की शुरुआत 1817 में हुई। मतदान 207 साल पहले। सड़क के दोनों तरफ़ कई कॉलेज होने के कारण सड़क का नाम पड़ा -‘कॉलेज स्ट्रीट।’ कॉलेज स्ट्रीट पर स्थित प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी की शुरुआत भी 1817 में हुई। तब इसका नाम हिंदू कॉलेज था। बाद में 1855 में इसका नाम प्रेसीडेंसी कॉलेज हुआ। 2010 में विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने के बाद यह प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय बन गया। सड़क की दूसरी तरफ़ हिंदू स्कूल है जिसकी शुरुआत भी 1817 में हुई थी।
कई प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान भी कॉलेज स्ट्रीट पर हैं।
क़रीब 900 मीटर लंबी सड़क के दोनों तरफ़ किताबों की दुकानें हैं। नई पुरानी किताबें। लोग यहाँ किताबें ख़रीदने-बेचने आते हैं। बंगला, अंग्रेज़ी और हिन्दी की किताबें रखी मिलती हैं।
किताबों की ख़रीद में मोलभाव खूब होता है। स्टीफ़न हाकिंग की ब्रीफ़ आंसर्स टु बिग क्वेशचन्स (brief answers to big questions ) जिसकी मूल क़ीमत 650 रुपये लिखी थी हम लोगों ने एक सौ रुपये में ख़रीदी। एक दुकान पर भुगतान का स्कैनर दुकान की गुमटी के ऊपर के पल्ले पर चिपका था। ऐसे जैसे मुँह देखने के लिए शीशा कमरे की छत पर लगा हो। भुगतान करने में बड़ी मशक़्क़त करनी पड़ी।
एक जगह हर किताब सौ रुपये की मिल रही थी।
किताबों की दुकानों पर तरह-तरह की किताबें पलटते , देखते रहे। किसी ने माना नहीं किया। एक दुकानदार सड़क की तरफ़ पीठ लिए अपना लंच करता रहा, हम उसकी दुकान की किताब पलटते रहे।
तमाम प्रसिद्ध लेखकों की कालजयी किताबें दुकानों पर एक के ऊपर एक लगीं थीं। हर तीसरी किताब लेने का मन किया लेकिन हम मन को रोकते-टाँकते रहे। समझाते रहे कि पहले पास की किताबें जो पढ़ने को बकाया हैं , उनको पढ़ लो फिर ख़रीदना नई किताबें। जहाज़ पर ले जाए जाने वाले वजन की सीमा ने भी बाधा पैदा की किताब ख़रीदने में।
स्टीफ़न हाकिंग की एक किताब विश्व प्रसिद्ध गणितीय समस्याओं के हल गणितीय रूप में पेश करने से सम्बन्धित थी। कुछ देर पलटकर वापस धर दी किताब। समझ की सीमा से बाहर लगी किताब।
हिन्दी की किताबें अधिक दिखी नहीं। अलबत्ता एक जगह लिखा ज़रूर था -‘यहाँ हिन्दी का किताब मिलता है।’ मतलब कि इलाक़ा बदलने के साथ ‘किताब’ का लिंग परिवर्तन हो गया। हिन्दी की किताबों में भी लेखकों के कहानी संग्रह /कविता संग्रह मुख्य थे। वे किताबें भी नई थीं यानि मोलभाव की गुंजाइश नहीं थी। कुछ देर में दुकान से बाहर आ गये।
बहुत देर तक कॉलेज स्ट्रीट की दुकानों पर किताबें देखते, पलटते, पढ़ते, वापस रखते टहलते रहे। वर्षों से कॉलेज स्ट्रीट देखने की तमन्ना को पूरा होने की ख़ुशी महसूस करते रहे। हर दुकान एक जैसी होते हुए भी अपने में अनूठी लगती। पुस्तक मोहल्ला ही अपने में अनूठा है।
काफ़ी देर कॉलेज स्ट्रीट के दोनों तरफ़ टहलने के बाद इस इरादे से वापस लौटे कि फिर आना है। जल्द ही। अगली बार किताबों। की ख़रीद भी करेंगे। खूब सारी। तब तक किताबों की बातें ही सही।

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Saturday, July 13, 2024

इंसानियत पर भरोसा दिलाती बातें



क़िस्सा 1986 का है। क़रीब 38 साल पुराना। हम बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। एमटेक कर रहे थे। हम सभी साथियों को स्कालरशिप मिलती थी। मिलने वाली सकालरशिप इतनी होती थी कि हमारा खर्च बहुत आराम से चल जाता। कुछ बचा भी लेते। घर से पैसे मंगाने बंद हो गए थे।
एक बार ऐसा हुआ कि वज़ीफ़ा मिलने में देरी हुई। हम इंतज़ार करते रहे लेकिन वज़ीफ़ा हमारे खाते में आया नहीं। लोगों के पास जमा पैसा ख़त्म होने लगा। बात उधारी तक पहुँच गयी। लेकिन उधारी कौन देता? सभी साथियों के हाल क़रीब एक जैसे ही हो गए थे।
एक दिन हम लोग एक बार फिर आफिस में स्कालरशिप के बारे में पता करने गए। आफिस का क्लर्क जी शायद हमारी अक्सर होने वाली पूछताछ से बोर गये थे । हमने पूछा तो फिर उकताई आवाज़ में बोले -'आ जाएगा पैसा। जब आएगा तब बता देंगे।'
हम लोगों ने पूछा -'कब तक आएगा पैसा? देर क्यों हो रही है ?'
क्लर्क जी हमारे तक़ादे से शायद झल्ला गए थे। झल्लाहट में बोले-' हम तुम्हारे नौकर नहीं हैं जो तुम्हारी हर बात का जबाब दें।'
यह सुनकर हमारे साथ के यादव जी तमतमा गए। तेज आवाज़ में बोले -' सुनो बाबू जी। तुम हमारे नौकर हो। केवल तुम ही नहीं, सामने बैठे HOD भी हमारे नौकर हैं।'
क्लर्क जी थोड़ा सकपका कर यादव जी की तरफ़ देखने लगे। उनको आशा नहीं थी कि कोई छात्र उनको इस तरह जवाब देगा।
यादव जी ने अपनी बात को समझाते हुए और भी तेज आवाज़ में कहा -' हम यहाँ इस लिए नहीं पढ़ने आते हैं कि तुम लोग यहाँ नौकरी करते हो। बल्कि तुम लोगों को यहाँ इसलिए नौकरी मिली है क्योंकि हम यहाँ पढ़ने आते हैं।'
इसके बाद हम लोग वापस चले आए। यादव जी की ऊँची आवाज़ शायद सामने कमरे में बैठे HOD तक भी पहुँची होगी। जो भी रहा हो , हम लोगों की स्कालरशिप अगले दिन हमारे खाते में आ गयी।
38 साल पहले की यह घटना हमारे दिमाग़ में हमेशा के दिए दर्ज हो गयी।अपने सेवाकाल में अक्सर मैं यह बात अपने साथियों के साथ साझा करता रहा। सेवा के किसी भी मौक़े पर यह याद करता और तदनुसार आचरण का प्रयास करता रहा। सफल होना, असफल रहना अलग बात है लेकिन अपने साथी की कही यह बात हमेशा याद रही।
हमारे साथी यादव जी कोई बड़े विद्वान या तर्क शास्त्री नहीं थे। सामान्य बुद्धि के छात्र थे। उनकी बाद की ज़िंदगी का मुझे पता नहीं लेकिन उनकी कही एक बात मुझे जीवन भर याद रही।
आज अनायास यह बात याद आई। तमाम लोगों को जो सेवा के मौक़े मिलते हैं वो उसको अपनी ऐंठ में गँवा देते हैं। अपनी ऐंठ को सही ठहराने के अनेक बहाने भी खोज लेते हैं। भाषा बहुत बड़ा हथियार होती है अपनी ग़लतियाँ छिपाने के लिए। लोग नरसंहार को भी सही ठहरा लेते हैं।
बड़ी बातें आमतौर पर सामान्य लोगों के बीच से ही आती हैं और नज़ीर बनाती हैं। हाल ही में भाला फेंक प्रतियोगिता में जीते खिलाड़ियों की माताओं ने दूसरों के बेटों के लिए सहज रूप में कहा -'वो भी हमारा ही बेटा है। उसके लिए दुआ करती हूँ।'
आज जबकि दुनिया बहुत तेज़ी से चालाक, क्रूर, संहारक और विनाशक होती जा रही है ऐसे समय ऐसी भली लगने वाली मासूम बातें इंसानियत पर भरोसा दिलाती है।

शाहजहांपुर बाढ़ की चपेट में


शाहजहांपुर आजकल बाढ़ की चपेट में हैं। शहर गर्रा और खन्नौत नदियों के बीच बसा है। इन नदियों ने अपने आलिंगन में समेट रखा है शहर को। शहर इनसे बाहर निकलने की कोशिश करता है तो नदियां गुस्से से उफनकर दबोच लेती हैं उसको। शहर को अपनी औकात पता चलती है। वह सहम-सिकुड़ जाता है नदियों के आगोश में। नदियां फिर उसको प्यार से समेट लेती हैं।
दो दिन पहले गए थे तो पता चला खन्नौत की तरफ के इलाके पानी में डूबे हैं। लोदीपुर की तरफ का रास्ता बंद है। पानी से भरा है। केरूगंज की तरफ से शहर में घुसे।
जिस जगह हम रहे वहां पानी नहीं भरा था। न बारिश हो रही थी। अंदाज नहीं था कि जिनके घर पानी में डूबे हैं उनके हाल कैसे होंगे।
पता चला और हमने बाद में पुल से देखा भी कि इमारतों में पानी भरा है। घर आधे-आधे डूबे है पानी में।
लोगों ने नदियों के किनारे घर बनाये हैं। कई साल पानी नहीं आता होगा उस इलाके में तो उसको सुरक्षित मानकर वहां घर बना लिए। लेकिन जब दस-बीस साल बाद नदी में पानी बढ़ता है तो उस जमीन पर फिर से कब्जा करता है। डूबो देता है जमीन को।
नदियों किनारे बने नीचे इलाके में बने घर ऐसे होते हैं जैसे किसी ट्रेन की कोई रिजर्व बोगी में अनारक्षित यात्री आकर बैठ जाये और कि पूरी यात्रा आराम कटेगी। लेकिन चार-छह स्टेशन बाद वह यात्री आये जिसके नाम बर्थ रिजर्व है और ट्रेन में आराम से लेटे यात्री को उठाकर कहे -'भाई साहब, यह बर्थ मेरी है। खाली कर दीजिए।' यात्री बेचारा दुखी होकर खुद को और सामान को भी समेट कर सीट छोड़ देता होगा।
नदियां भी इसी तरह अपनी जमीन पर कब्जा कायम करने को वापस लौटती हैं। लोगों को अपनी जमीन पर घर बसाए देखकर भन्ना जाती होंगी। बेदखल कर देती हैं लोगों को।
लेकिन यह पानी यहाँ की बरसात का नहीं है। बांध से छोड़ा पानी है। कहीं और बरसा होगा पानी। बांध में आया होगा। बांध का पेट भरा है। उसने पानी इधर उलट दिया। बरसा कहीं, भरा कहीं कहावत है न :
एक गांव में आग लगी, एक गांव में धुंवा।
एक दिन बाद खन्नौत की तरफ पानी कम हुआ तो गर्रा की तरफ बढ़ गया। नदी किनारे तमाम इलाके पानी में डूब गए। शहर के अस्पताल के सामने घुटनों, कमर तक के पानी में लोग भागते दिखे। जो बीमार हैं उनका क्या हाल होगा।
लोग अपने घरों को छोड़कर दूसरे इलाके में भाग रहे हैं। सामान निकालना समस्या है। सामान ढोने वाली सवारियों के भाव बढ़े हैं। वो भी निकाल कहाँ पा रही है। लोग अपना सामान घर में ही छोड़ कर सुरक्षित इलाकों में जा रहे हैं।
बाढ़ के पानी ने रास्ते बदल दिए हैं। हमको 30 किलोमीटर दूर एक कार्यक्रम में जाना था। बरेली मोड़ पर पानी भरा होने के चलते दूसरे रास्ते जाना पड़ा। 30 किलोमीटर की दूरी 90 किलोमीटर में बदल गयी। रास्ते में जाम। 90 किलोमीटर की दूरी छह घण्टे में तय कर पाए।
शहर कई तरफ से पानी से घिरा है। जगह-जगह नदियों का पानी ‘जनता-दर्शन’ के लिए मौजूद है। लोग फोटो-वीडियो बनाने में जुटे हुये हैं। अनगिनत फोटो-वीडियो इधर-उधर टहल रहे हैं। लोगों के मोबाइल डिजटल बाढ़ में डूब रहे हैं।
दो दिन शाहजहांपुर रहने के बाद वापस लौट आये कल। खन्नौत की तरफ का पानी कम हो गया था। जाते समय जिधर से रास्ता पानी में डूबा था वह साफ हो गया था। उधर से ही आये।
शाहजहांपुर में तमाम मित्रों से मिलना हुआ। कुछ से नहीं मिल पाए। फिर मिलेंगे।
मित्रों के प्रेम-स्नेह की बारिश और बाढ़ में भीगे-डूबे। यह स्नेह/प्रेम की बारिश और बाढ़ ऐसी है जिसमें हमेशा भीगने और डूबे रहने का मन करता है।

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Thursday, July 11, 2024

मार्निंग वाकर्स ग्रुप के ठीहे पर

 कल शाहजहांपुर आना हुआ। सुबह टहलने निकले। सड़क पर लोग कम थे। शायद जल्दी हो अभी। साढ़े पांच ही तो बजे थे।

कई परिचित मिले। कुछ फैक्ट्री के , कुछ शहर के। कुछ लोगों ने कहा-'आप अब यहीं आ जाईये फिर से।' उनको पता नहीं था अपन रिटायर हो दो महीने पहले।
लोगों से मिलते ,हाल-चाल पूछते बताते सड़क पर टहलते रहे कुछ देर। सामने से शाहजहाँपुर मार्निंग वाकर्स ग्रुप के Inderjeet Sachdev जी आते दिखे। बाद में Dr Anil Trehan त्रेहन जी भी साइकिल पर आते दिखे। ये दोनों बुजुर्ग युवाओ वाले जोश से शाहजहांपुर मार्निंग वाकर्स ग्रुप को लगातार सक्रिय और उत्साह से लबरेज रखते हैं। खुशी और उत्साह के किसी भी मौके को बिना सेलिब्रेट किये जाने नहीं देते। तय हुआ कि उनसे उनके ठीहे पर मुलाकात होगी।
आगे जाकर लौट लिए। एक बेंच पर बैठा एक आदमी आत्मालाप कर रहा था। रुककर सुना तो कह रहा था -'औरत के लिए उसका आदमी बिंदी, लिपिस्टिक, आलता लाता है। उनके टिकुली सिंगार के खर्च उठाता है। खिलाता पिलाता है। इसलिए औरतों को अपने आदमियों को पतिपरमेश्वर मानना चाहिए। '
हमने रुककर उसकी बात सुनी तो हमसे अपनी बात के समर्थन की अपेक्षा की उसने। हमको श्रोता समझकर उसने 'उनकी' ही तरह पूछा भी -"मानना चाहिए कि नहीं ?"
हमें लगा कि अगर हम रुके तो मनवा के ही छोड़ेगा। अपन बिना समर्थन दिए आगे बढ़ गए।
मैदान में पानी और पिछले दिनों हुई प्रदर्शनी का कचरा जमा था। बीच में घास भी दिख रही थी। साफ होगा धीरे-धीरे। कभी हमने यहां पुस्तक मेला लगवाने की सोची थी। लेकिन पहले कोरोना ने समय खा लिया और बाद में दीगर कामों में उलझ गए।
मार्निंग वाकर्स ग्रुप के ठीहे पर पहुंचे तो साथी लोग माला, शाल, पटका ले आये थे। हमको पकड़कर माला पहना दी, पटका पहना दिया और सभी के साथ फोटो भी हो गयी। जो बाद में आया उसने भी पहनी माला के साथ फोटो खिंचाई। अपन गर्दन झुकाए खड़े रहे। माला पहनने में गर्दन झुक ही जाती है।
सामने Saif Aslam Khan की बेंच नम्बर सात पर बैठे दो आदमी एक-दूसरे की तरफ झुके बतियाने में मशगूल थे।
शाहजहांपुर मार्निंग वाकर्स ग्रुप के साथी हमेशा सम्मान करने वाले समानों से लैस रहते हैं। कोई भी खुशी का अवसर मिला, सम्बंधित सदस्य को सम्मानित करने का अवसर नहीं चूकते।
फोटोबाजी के बाद वक्तव्य भी हुए एक-एक मिनट के। किसी ने नाम गलत बोल दिया तो रिकार्डिंग दुबारा हुई।
बाढ़ आई हुई है शहर में आजकल। शहर के कई इलाके पानी में डूबे हैं। शारदा डैम का पानी छोड़ा गया है। लोगों के घरों में पानी भरा है। लोग बाढ़ से और चोरों से अपने घर का सामान बचाने की जुगत में लगे हैं। पता चला आज कुछ पानी कम हुआ है।
'जस की तस धर दीन चदरिया' की तर्ज पर सम्मान -सामान वहीं छोड़कर वापस आ गए। चाय पीते हुए पानी बरसने की आवाज सुनाई दी। बाहर निकलकर देखा तो सड़क भीग रही है। मैदान भीग रहा है। बिल्डिंग भीग रही हैं। जहाँ तक देखो सब भीगता दिखा।
भीगने से याद आया कि पिछले दिनों 'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है' शीर्षक से बहुत कुछ लिखा गया। फ़ोटो सहित। हम उस बारे में कुछ न लिखेंगे।
फिलहाल हमको तो सामने की भीगती सड़क पर साइकिल पर भीगता जाता इंसान दिख रहा है। भीगने के नाम पर शेर भी याद आ गया। मुलाहिजा फरमाएं :
"तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
भीग तो पूरा गए, पर हौसला बना रहा। "
आपको भी कोई शेर याद आ रहा तो सुना दीजिए। इरशाद कह रहे हैं।

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