पिछले दिनों कई मित्रों से बात हुई। कई लोगों ने पूछा -'कोलकता से लौट आए?'
कुछ लोगों ने शाहजहाँपुर से वापस आने का हिसाब लिया।
मेरे कुछ बुजुर्ग रिश्तेदार भी बातचीत होने पर पूछते हैं -'बाहर से कब लौटे?'
ये बुजुर्ग लोग घड़ी-घड़ी नोटीफिकेशन जाँचने वाले स्मार्ट फ़ोन घराने के लोगों के उलट बेसिक फ़ोन के जमाने के लोग हैं। उनको उनके घर में कोई बताता है मेरी पोस्ट्स के बारे में। याद रखते हैं और बात होने पर पूछते हैं।
कुछ मित्रों ने बताया कि वे भले न पढ़ें लेकिन उनके घर में लोग पढ़ते हैं मेरी पोस्ट। कुछ लोगों ने सूचित किया कि वे 'इनके' खाते से मेरी पोस्ट्स पढ़ते/पढ़ती हैं।
ऐसे समय में जब सोशल मीडिया पर पहुँच (Reach) लेखन के अलावा भुगतान आधारित भी होने लगी है इस तरह के 'चुप्पा पाठकों' का होना भी अपने में मज़ेदार , सुखद सा अनुभव है।
यह एक तरह से सोशल मीडिया पर हाज़िरी है। आपकी उपस्थिति सोशल मीडिया के माध्यम से लग रही है। हफ़्ते भर पहले हम कोलकता से लौट आए लेकिन वहाँ के किस्से अभी तक लिख रहे हैं लिहाज़ा तमाम लोगों के लिए हम अभी भी कोलकता में ही हैं। कानपुर में हमारी मौजूदगी के बावजूद हमारी हाज़िरी कोलकता में ही लग रही है।
‘मन अंते, चित अंते’ की तर्ज पर ‘मौजूदगी कहीं,हाजिरी कहीं’ जैसा हो रहा है।
इसका इलाज रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता पर यही है:
'लिखो-लिखो
जल्दी लिखो
तुम पर निगाह रखी जा रही है।'
जब से कहीं आने-जाने, घूमने जाने पर उसके किस्से लिखने शुरू किए (जिसे Alok Puranik जी ने हमारा वृतांत लेखन बताया) तब से लगता है कि उसका क़िस्सा न लिखा तो घूमना-फिरना , आना-जाना बेकार। किस्से लिखने में सबसे ज़्यादा आनंद तब आता है जब उसी दिन लिख लिया जाए। उसी समय लिखने पर जो बिम्ब, चित्रण के लिए शब्द सूझते हैं वे बाद में भूल जाते हैं। दिमाग़ का बहिष्कार करके भाग जाते हैं। बहुत नख़रीले होते हैं ऐसे बिम्ब। वे ओटीपी पासवर्ड की तरह होते हैं। समय बीतने पर 'शांत' हो जाते हैं। आप कितनी भी कोशिश कर लें, वापस नहीं आते।
इस चक्कर में तमाम यात्राओं के किस्से अधूरे पड़े हैं। लेह-लद्धाख, कश्मीर, नेपाल, अमेरिका और तमाम दीगर जगहों के कई किस्से लिखने से रह गए। अब उनको लिखने की सोचते हैं तो गजनी की तरह तमाम चीजें भूल जाते हैं। फिर याद करके उनको लिखना मुश्किल काम है। लेकिन करने का मन करता है।
पुराने किस्से लिखने में लफड़ा यह भी कि लिखते ही दोस्त लोग पूछते हैं , फिर पहुँच गए नेपाल, कश्मीर, अमेरिका, कोलकता।
इस डिजिटल हाज़िरी के बारे में लिखते हुए लगा कि क्या पता कल को उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की हाज़िरी के फ़रमान की तरह आदेश जारी हो जाए -'हर नागरिक जहां है, वहीं से अपनी हाज़िरी लगाए। डिजिटल हाज़िरी न लगने पर उस इंसान की उतने दिन की नागरिकता रद्द कर दी जाएगी। फिर से डिजिटल नागरिकता बहाल करने के लिए फ़ीस पड़ेगी। डिजिटल उपस्थिति में और वास्तविक उपस्थिति में अंतर होने पर डिजिटल उपस्थिति को मान्य माना जाएगा। विकसित राष्ट्र बनने के लिए यह ज़रूरी होगा।'
डिजिटल हाज़िरी वाले आदेश पर अमल करने में अक्सर समस्या नेटवर्क की आती है। पता लगा आप हाज़िरी लगा रहे हैं और नेटवर्क नदारद। लेकिन जब इस तरह का आदेश आएगा तो उसमें यह पूछल्ला भी ज़रूर लगा होगा -'डिजिटल हाज़िरी में नेटवर्क न होने का बहाना मान्य नहीं होगा। अपनी हाज़िरी के लिए नेटवर्क की व्यवस्था आपको स्वयं करनी होगी।'
हालाँकि फ़िलहाल ऐसा सोचना खाम ख़याली ही है लेकिन क्या पता आने वाले समय में ऐसा होने लगे। कुछ कहा नहीं जा सकता। पाकिस्तान की तर्ज़ पर आजकल हिंदुस्तान की अफ़वाहों *में भी सबसे बड़ी ख़राबी होने लगी है कि वे सच निकलने लगी हैं।
(*पाकिस्तान की अफ़वाहों में सबसे बड़ी ख़राबी यह है कि वे सच निकलती हैं -मुश्ताक़ अहमद युसुफ़ी)
बहरहाल बात हो रही थी सोशल मीडिया पर हाज़िरी की। तो ऐसा इसलिए भी है कि इसके अलावा आजकल हम लोगों का सम्पर्क तीज, त्योहार, ख़ुशी, गमी के मौक़ों तक सीमित होता जा रहा है। 'नो न्यूज़ इज गुड न्यूज़' वाले जुमले के हिसाब से मिलना-जुलना काम होता जा रहा है।
ऐसे में सोशल मीडिया के बहाने ही सही हम पर निगाह रखी जा रही है यह अपने में ख़ुशनुमा एहसास है।
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