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इंक ब्लागिंग, अखबार और कार्टून
By फ़ुरसतिया on May 31, 2007
हमारी इंक-ब्लागिंगऔर फिर फ़ुरसतिया टाइम्स को साथियों ने कुछ ज्यादा ही पसंद कर लिया। अखबार निकालने की तो ऐसी मांग हुयी कि हम अखबार के लिये आफिस, प्रिंटिंग प्रेस, कम्पोजीटर, प्रूफरीडर जुटाने की सोचने लगे। आखिर सोचने में कौन पैसा लगता है। जब प्रमोदजी बीस साल बाद रवीश कुमार के हाल सोच सकते हैं तो हम अपने अखबार के काहे न सोंचें!
बहरहाल, आपको बतायें कि ये इंक ब्लागिंग भले ही मनलुभावन है लेकिन है ये भी बवालेजान। इसीलिये हमको राजीव टंडनजी बरजते रहते हैं कि ई लफड़ा मां न पडो़ लेकिन हम कहां मानने वाले थे! निकाल दिये दन्न से ‘फ़ुरसतिया टाइम्स’ का पहला अंक।
आइये पहले आपको बतायें कैसे निकाला गया ये अखबार। इसके बाद बतायेंगे कि इसमें क्या लफड़े हैं। इसके आगे की कथा उसके बाद।
लेकिन अखबार से पहले पत्रिका के बारे में। निरंतर पत्रिका का बहुप्रतीक्षित अंक आज निकल गया। निरंतर का यह दसवां अंक मुख्यत: शिक्षा पर केंद्रित है। आप इस अंक को पढ़ें और अपनी राय जाहिर करें।
पत्रिका के बाद अब अखबार की बात। इंकब्लागिंग की शुरुआत करते हुये मैंने सोचा था कि कभी-कभी हाथ से लिखकर स्कैन करके एकाध पन्ना लिखकर उसको प्रकाशित करते रहेंगे। इसमें लिखने से ज्यादा हाथ से लिखने का अभ्यास बनाये रहने का लालच था।
इंकब्लागिंग की शुरुआत करने के बाद फिर सोचा कुछ नया किया जाये। उसी समय मुझे अपने अपने दोस्त नीरज केला के तबादले के अवसर पर निकाला गया ‘शाहजहांपुर टाइम्स’ याद आया। हमारे मित्र नीरज केला शाहजहांपुर से तबादलित होकर इटारसी जा रहे थे। हमारे घरों में उनके विदाई समारोह का आयोजन किया गया। उसी अवसर मैंने अपने साथ की यादों को संजोते हुये चटपटे अंदाज में ये ‘शाहजहांपुर टाइम्स’ निकाला- हाथ से लिखकर। आज लगभग १२ साल बाद भी मेरे यहां और नीरज केला के यहां इसकी लैमिनेटेट प्रति मौजूद है। जब मेरा यह ‘फुरसतिया टाइम्स’ नीरज केला ने देखा तो सबसे पहले सवाल यह किया -वो वाला अखबार काहे नहीं डाला? उनके आग्रह पर ही इसे हम यहां पोस्ट कर रहे हैं।
‘शाहजहांपुर टाइम्स’ भी सालों पहले के कालेज के जमाने की दीवाल पत्रिका ‘सृजन‘ को याद करके लिखा। अपने कालेज के जमाने में हमने से कई लोगों ने ‘वाल मैगजीन’ या ‘भित्ति पत्रिका’ जैसी चीजें जरूर निकाली होंगी या उनसे रूबरू हुये होंगे। ऐसे ही कीड़े कुलबुलाते रहते हैं बाद के दिनों में भी। यही कीड़े देबाशीष से निरंतर निकलवाते हैं, मुझे फ़ुरसतिया टाइम्स में उलझा देते हैं।
उसी नमूने पर मैंने ‘फुरसतिया टाइम्स’ निकालने की सोची। पहले हाथ से लिखने का मन था। लेकिन बाद में सोचा टाइप करें। इससे कोई गलती होगी तो सुधार लेंगे। ‘एक्सेल‘ में तीन कालम बनाये। उनमें मसाला टाइप किया। उसका प्रिंट आउट लिया। उसको फ़्लिकर में डाला और उसका लिंक अपने ब्लाग पर पोस्ट कर दिया। अगले दिन इंक ब्लागिंग तकनीक के अनुसार दोनों पन्नों पर लिंक लगाये। अभी कुछ कमी है। दूसरे-तीसरे पन्ने पर लिंक दिखे नहीं। देबाशीष ने कुछ ‘टिप्स’ दिये हैं|उनको आजमायेंगे।
इंकब्लागिंग में सबसे कोफ्त वाली बात पाठक के लिये यह है कि फोटो की तरह लेख धीरे-धीरे खुलता है। ‘डायल अप’कनेक्शन में तो सच भारतीय न्याय व्यव्स्था के फैसले की तरह और आराम से सामने आता है। दूसरी बात यह भी कि इंक ब्लागिंग में फोटो होने के कारण कमेंट में लेख से ही कट-पेस्ट करके समीरलालजी की तरह बहुत सही है लिखकर तारीफ़ करना जरा मुश्किल होता है। आपको अपना कमेंट लिखना पढ़ता है। पसीना बहाकर व्यवहार बनाना पड़ता है। समीरलाल जी तो मेहनती हैं, व्यवहारी भी। वो तो मेहनत कर लेंगे लेकिन बाकी पाठकों के लिये कुछ तकलीफ़ होती है।
एक और कमी दोस्तों के अनुसार यह है कि फोटो होने के कारण गूगल आदि इंजन इसमें लिखे को सर्च नहीं कर पायेंगे। अगर सर्च दायरे में डालना है तो लिखे की फोटो के साथ उसको टाइप भी करके पोस्ट करें। यह मेहनत का काम है। पहले हाथ से लिखा जाये फिर टाइप किया जाये। यह भारतीय भाषा नीति की तरह का मामला है जिसमें गैरहिंदी भाषी राज्यों में हिंदी के पत्रों के, मांगे जाने पर, द्विभाषीय पत्र भेजे जायें।
इन सारी अड़चनों के बावजूद हम कभी-कभी इंकब्लागिंग करते रहेंगे। अखबार भी निकलता रहेगा -अनियतकालीन।
अब अखबार जैसे आयोजन के लिये भी मौज-मजे के लिये साथी लोग चाहिये। आपसे अनुरोध है कि आपलोग फुलझड़िया समाचार भेजते रहा करें। अच्छा रहेगा। वैसे इस तरह के काम में ये लफ़ड़ा भी है कि कौन जाने अपने पर दिये किसी समाचार का बुरा मान जाये और मान-हानि के लिये ताल ठोंककर अदालत में दावा ठोंक दे। कोई भरोसा नहीं किसी की वीरता का-कब बहक जाये।
पांडेयजी ने लिखा पठनीयता पढ़े जाने की पहली आवश्यकता है। यह सच है। अगर लिखने वाले का लिखने का अंदाज रुचिकर नहीं है पाठक बिदके भले न लेकिन ठहरेगा नहीं। अगर एक बार आ भी गया दुबारा आने के पहले कई बार सोचेगा।
आज सागर भाई हमारे ऊपर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गये। उन्होंने हमारे ऊपर कार्टून बना डाला। इसमें कहा गया कि फुरसतियाजी 8 पेज की लघुकथा लिखिन हैं। मुझे लगता है 8 पेज की जगह 80 छपा होना चाहिये।
मेरी पसंद
आज मेरी पसंद में अपने साथआयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर में काम कर चुके और अब सेवा से अवकाश प्राप्त अधिकारी श्री वी.के.भटनागर की एक कविता पोस्ट कर रहा हूं। यह कुछ अनगढ़ सी कविता भटनागरजी के व्यक्तित्व को बयान करती है। पिछले सात सालों से यह मेरे पास सुरक्षित है। इसे नष्ट होने से बचाने का मुझे सबसे उचित तात्कालिक उपाय इसे यहां पोस्ट करना ही लगता है।
एक बड़ा अवगुण है मुझ में, बहुत बोलता हूं,
धारदार पैने शब्दों के तीर छोड़ता हूं।ऐसा नहीं कि मित्रों, मुझको इतना ज्ञान नहीं,
बहुत बोलना किसी विद्वता की पहचान नहीं।पर जब अन्याय, अनीति का जोर देखता हूं,
अपने चारों ओर चोर ही चोर देखता हूं।चुप बैठकर रहूं देखता, यह स्वीकार नहीं,
कायर ही अन्याय का करते प्रतिकार नहीं।दरबारों का गीत मुझको नहीं सुहाता है,
मुझको तो बस खरी बात कहना ही आता है।कोई क्या कहता है, इसकी परवाह नहीं,
बुद्धिमान कहलाऊं ऐसी मुझको चाह नहीं।झूठ को सच कहने का मुझको हुनर नहीं आता
दिल में जलती आग हो तो चुप रहा नहीं जाता।हूं तो अकेला चना, मगर मैं भाड़ फोड़ता हूं,
यह सच है मित्रों कि मैं बहुत बोलता हूं।
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-वीरेंन्द्र कुमार भटनागर
(रचनाकाल सन २००० के करीब)
-वीरेंन्द्र कुमार भटनागर
(रचनाकाल सन २००० के करीब)
Posted in इंक-ब्लागिंग, बस यूं ही | 18 Responses
बारह साल तक एक अखबार निकालते रहे हैं. (अभी चार महीना पहले डुबा दिया है उसे)
आपकी भी सेवा में हाजिर है.
लघू मगर अच्छा विवरण. व्यंग्य की धार बनाए रखें.
भित्ती पत्रिका..और हम तो कई जगह वो भी निकाले जिसे दिल्ली के कॉलेज उत्सवों में Rag-Mag कहा जाता था। यानि हाथ से निकली पत्रिका की प्रतियोगिता। साईक्लोस्टाईल की स्टेन्सिल पर हाथ से पत्रिका बनाकर देते थे जिसकी जेस्टनर कापियॉं बांटी जाती थी।
बिट्स पिलानी में 1992-93 में एक ऐसी पत्रिका निकाली थी ‘साक्षी’, बहुत ही घातक परिणाम निकले उसके और आज तक भुगत रहे हैं…हमारे बच्चे उस परिणाम को ‘मम्मी’ कहते हैं
हमने राजीव टंडन जी से मेल खाते विचार प्रथम अंक पर इसलिए प्रकट किए थे ताकि अखबारवाला बन कर आप कहीं चिट्ठेकारों का साथ न छोड़ें ।
“खरी कहे मौसी का काजर, रिसहे होइहौ धनी हमार।”
संभव है, अन्य लोगों का सोचना भिन्न भी हो।