Monday, July 31, 2023

सैकड़ो सालों का इतिहास समेटे क़ुतुब परिसर में कुछ घंटे



कल दिल्ली वाक में शामिल हुए। आलोक पुराणिक जी और मनु कौशल जी ने लोगों को पिछले कुछ दिनों से दिल्ली घुमाना शुरू किया है। बकौल आलोक पुराणिक उनको इसकी प्रेरणा उनकी बिटिया इरा पुराणिक से मिली है जो लगभग हर इतवार को बस्ता पैक करके निकल जाती थी। बिटिया से सीखकर पिताजी ने भी शुरू किया दिल्ली टहलना। इस काम में उनके साथ मनु कौशल जी भी जुड़े हैं जिनके अंदर गालिब की आत्मा ने स्थायी रूप से डेरा जमाया हुआ है। पुरानी दिल्ली, लाल किला की घुमाई के बाद अब कुतुब परिसर नया ठिकाना है आवारगी की चाहत रखने वाले आलोक पुराणिक जी का।
इतवार की वाक में हम भी शामिल हुए। हमारे साथ तकरीबन 30 लोग और थे। टिकट के दाम आलोक जी ने पहले ही धरा लिए थे। 400 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से। कामर्स के मास्टर होने की आड़ में उनका कहना है -'कोई काम मुफ्त में करना आर्थिक अपराध है।'
35 रुपये का टिकट भारतीयों के लिए है। परदेशियों के लिए टिकट के दाम ज्यादा हैं- शायद 500 रुपये। देशी होने का फायदा तो ठीक लेकिन परदेश के लोगों से भी ज्यादा पैसे लेना जमा नहीं। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के विपरीत काम है।
बहरहाल अंदर प्रवेश करने के बाद आलोक पुराणिक और मनु कौशल जी ने एंकरिंग शुरू की। शुरुआत में सबके परिचय हुए। कुछ वरिष्ठ नागरिक भी थे। बच्चे भी थे। टूर शुरू हुआ।
कुतुब परिसर का इतिहास कुतुबुद्दीन ऐबक से शुरू हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गोरी का गुलाम था। गोरी ने तराई की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया और अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का कामकाज सौंप कर वापस लौट गया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुतुबमीनार की शुरुआत करवाई जिसे बाद में उनके दामाद एल्तुतमिस ने पूरा करवाया। इल्तुतमिश के बाद उसकी बेटी रजिया सुल्तान गद्दी नशीन हुई। वह पहली महिला सुल्तान थी जिसके बारे में कहा गया कि रजिया में सिवाय औरत होने के कोई ऐब नहीं था। ऐसे समय में जब महिला होना अपने आप में ऐब माना जाता हो इल्तुतमिश ने अपनी बेटी को सुल्तान बनाया। कितनी आधुनिक सोच रही होगी गुलाम वंश के दूसरे शासक की।
गुलाम वंश के बाद खिलजी वंश की पारी शुरु हुई। अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी को ठिकाने लगाकर अलाउद्दीन गद्दीनशीन हुआ। मजे की बाद जलालुद्दीन अपने भतीजे को बेटे से ज्यादा चाहता था और बेटा भी अपने चाचा को बाप से ज्यादा इज्जत देता था। लेकिन मौका पाते ही अपने चाचा को निपटाकर अलाउद्दीन सुल्तान बन गया। इतिहास में हर तरह तरह के धतकरम हो चुके हैं।
खिलजी चाचा भतीजे की कहानी सुनते हुए मुझको पड़ोसी पाकिस्तान के किस्से याद आये जहां भुट्टो ने कई सीनियरों को नजरअंदाज करके जियाउलहक को सेना की कमान सौंपी थी। जियाउलहक भुट्टो से इतना डरता था कि एक बार सिगरेट पीते हुए भुट्टो के सामने पड़ने पर सिगरेट जेब में डाल ली। पैंट सुलग गयी लेकिन बोला नहीं। भुट्टो उसको अपना बंदर कहते थे। बाद में उसी बंदर ने उनकी गर्दन पर उस्तरा चला दिया और भुट्टो को निपटा दिया।
कहने का मतलब कि बहुत चापलूसी करने वाले, विनयवनत रहने वाले मुलाजिमों से सावधान रहने की जरूरत है।
बहरहाल बात हो रही थी कतुबपरिसर की। कुतुब परिसर की घुमाई शुरुआत अलाई मीनार से। अलाई मीनार की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी के समय हुई। सुल्तान की तमन्ना कुतुबमीनार से ऊंची और बुलंद मीनार बनवाने की थी। शुरुआत हुई। उनकी शान में कसीदे पढ़ने वालों ने लिखा -'मीनार के बनाने में सारे ग्रह लग गए।'
हिंदी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल में कवियों को अपने आश्रयदाता राजाओं की तारीफ़ में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन की बात कही गई है। लेकिन यह काम उनके बहुत पहले शुरू हो गया था। अमीर ख़ुसरो बेहतरीन प्रतिभा से युक्त थे। वे अपने समय सात सुल्तानों के अजीज शायर रहे। उनकी सफलता में उनके द्वारा सुल्तानों की उदार तारीफ और बेहिसाब शाब्दिक चापलूसी का भी योगदान रहा होगा। हर सुल्तान की जी खोलकर तारीफ।
अलाई मीनार की शुरुआत तो हुई लेकिन मुकम्मल नहीं हो पाई और अलाउद्दीन मुकम्मल हो गए। बाद के सुल्तानों ने भी इरादा किया इसे बनवाने का लेकिन फिर लोगों की समझाइश पर हाथ खींच लिए।
इसी बहाने मोहम्मद बिन तुगलक की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए आलोक पुराणिक जी ने उनको बहुत बेवकूफ किस्म का जीनियस और जीनियस किस्म का बेवकूफ बताते हुए उनकी बेवकूफी के कई किस्से भी बयान किये यह कहते हुए कि इसको किसी से जोड़कर न देखा जाए। उनको पूरा भरोसा था कि यह कहने के बाद तुगलक के किस्सों से लोग आज के किस्से जरूर जोड़ लेंगे।
अलाई मीनार के बाद कुव्वतुल मस्जिद , लौह स्तम्भ, इल्तुमिश का मकबरा, अलाउद्दीन का मकबरा , उस समय के क्लासरूम और अलाई दरवाजा वगैरह देखना हुआ। इसी क्रम में शब्दों के सफर के लेखक पत्रकार अजित वडनेकर जी के हवाले से आलोक पुराणिक जी ने बताया कि महरौली नाम वराह मिहिर के मिहिर और पंक्ति माने कतार से पड़ा।
कुतुब पसिसर की मस्जिद कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद वहां मौजूद जैन मंदिरों के मलबे से बनाई गईं। इस बार का उल्लेख वहां के लेख में है।
परिसर में मौजूद लौह स्तम्भ चौथी शताब्दी का बताया जाता है। इस तरह कुतुब परिसर में चौथी सदी से लेकर आज तक का इतिहास आरामफरमा है। दुनिया में किसी एक जगह इतने लंबे समय की ऐतिहासिक इमारतें शायद ही मौजूद हों।
कुतुबुमीनार सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम पर बनवाई बताई जाती है। लेकिन इसके पीछे की एक कहानी यह भी है कि वहीं पास में रहने वाले एक फकीर के नाम पर इसका निर्माण हुआ।
इल्तुतमिश की कब्र के बारे में बताने का काम आलोक पुराणिक जी ने बिटिया इरा पुराणिक को सौंप दिया। इल्तुतमिश ने अपनी सल्तनत अपनी काबिल बेटी रजिया को सौंपी इधर एंकरिंग का काम आलोक पुराणिक जी ने बिटिया को थमाया। इरा ने यह काम बखूबी पूरा किया।
अलाऊद्दीन खिलजी के मकबरे में उनकी कब्र बनी है। एक चबूतरा है। इसके किस्से सुनाते हुए आलोक पुराणिक जी ने उस पर कुत्ते के टहलने और एक कन्या द्वारा उस पर डांस करते हुए रील बनाने के किस्से सुनाए। अगर अलाउद्दीन इसको देखते सुनते तो कैसा महसूस करते , कहना मुश्किल है।
अलाऊद्दीन खिलजी की कब्र के बाद वहां बने क्लास रूम देखे गए जहां कभी लोग पढ़ाई करते होंगे। इसके बाद खुले में विस्तार से खुसरो पर चर्चा हुई।
खुसरो की काबिलयत, उनकी भाषाई पकड़ और आशुकवित्व पर विस्तार से चर्चा करते हुए आलोक पुराणिक जी ने उनके परम चापलूस और काम भर के छिछोरेपन का भी हसरत वाले अंदाज में कई बार उल्लेख किया इस अंदाज में गोया वह यह स्थापित करना चाहते हैं कि सदियों तक मशहूर होने वाला काम करने के लिए चापलूसी और थोड़ा छिछोरापन भी चाहिए होता है। इसी सिलसिले में ग़ालिब जी की बात भी चली जो मुगलों से वजीफे लेने के बाद उनके दुश्मन रहे अंग्रेजों से पेंसन हासिल कर ली। इसमें उनकी काबिलियत के साथ मिजाजपुर्सी का हाथ भी रहा। आजकल के मैनेजमेंट में तो मिजाजपुर्सी और चापलूसी भी काबिलियत में शुमार है।
खुले में क्लास लगी में अमीर खुसरो के चर्चे हुए। अपने हुनर और काबिलियत से सात सुल्तानों के प्रिय रहे खुसरो साहब। उनकी कविता, प्रतिभा के साथ उनकी पहेलियों के चर्चे भी हुए। सही हल बताने वाले को चॉकलेट मिली। हमको भी एक बार मिलीं। एक साथ तीन छुटकी चाकलेट। हमने मिलबांट कर खा लीं।
कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद का जिक्र करते हुए अपनी बात कहने के लिये लाल कपड़े में आने वाली फ़रियादिन का जिक्र भी हुआ। उसके तार रामायण काल के कोपभवन तक खिंचे। और भी न जाने कहाँ-कहाँ के किस्से टहलते हुए बिना टिकट इस घुमाई के दौरान बतकही में शामिल होते गए और किस्सा बनते गए। चौथी सदी से शुरु हुई कहानी का सिलसिला 21 वीं सदी तक चला।
आखिर में मामला अलाई दरवाजा पर निपटा। बुलंद दरवाजा बनने तक यह अपने यहाँ का सबसे बड़ा दरवाजा था। वहां सबके फोटो हुए। फोटो के साथ delhi walk का पोस्टर भी लगा पहले उल्टा फिर सीधा। इसके बाद सब लोग निकल लिए एक-एक करके।
करीब ढाई घण्टे के वाक के संक्षेप में किस्से यहां बयान हुए। बाकी फोटो और वीडियो नीचे लगाए जा रहे हैं। वीडियो देखकर आप दिल्ली से बाहर रहते हुए भी इस वॉक में शामिल हो सकते हैं। लेकिन अगर दिल्ली में हैं अगले इतवार को 6 अगस्त को कुतुब परिसर की वाक में शामिल हो सकते हैं। मजे की पूरी गारंटी। मजा न आने पर पैसे वापस लेकिन इसके लिए मजा न आने का सबूत पेश करना होगा। मुझे पूरा यक़ीन हैं कि आप सबूत पेश न कर पाएंगे। यकीन तो यह भी है कि अगर यहाँ के इतिहास में शामिल बुज़ुर्गवारों को भी मौका मिलता तो वे भी इस वॉक में शामिल होते। अमीर खुसरो भी अपनी पहेलियों के हल बताकर चाकलेट लूट रहे होते।
वीडियो कुछ यहां लग पाए। बाकी जो नहीं लग पाए वो अगली पोस्ट में।

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Wednesday, July 19, 2023

बहुत उलझने हैं जिंदगी में



सुबह चाय की दुकान पर भट्टी सुलगनी शुरू हो गयी। पहले धुंआ उड़ता रहा। फिर आग जली। चाय बनने लगी। लोग इंतजार में हैं।
एक बुजुर्ग दुकान के बाहर रखी बेंच पर बीड़ी पी रहे हैं। बीड़ी पीते हुए धुंआ उड़ा रहे हैं। धुंए को उड़ते हुए धुंए के पार देख रहे हैं। नजरे दूर टिकी हुई हैं। क्षितिज को ताक रहे हैं। शायद सोच रहे हैं -'धुंआ वहां तक जाएगा। लेकिन धुंआ मुंह के पास ही थक कर हवा में ही बैठ गया है शायद। संभावनाएं इसी तरह दम तोड़ देती हैं।'
बुजुर्ग जिस तरह चुपचाप बैठे बीड़ी पी रहे हैं उससे लग रहा है कि कुछ सोच रहे हैं। सोच मतलब चिंता। गरीब आदमी जब सोचता है तो उसको चिंतन कहा जाता है। यही काम जब सम्पन्न करता है तो उसे चिंतन का नाम दिया जाता है। आजकल तो चिंतन शिविरों का हल्ला है।
जो काम एक गरीब आदमी बीड़ी पीकर कर लेता है उसी काम के लिये लाखों फुंक जाते हैं चिंतन शिविरों में।
एक बीच की उमर का आदमी टहलते हुए दुकान में घुसा। बोला-'माचिस है किसी के पास?'
किसी के पास से माचिस अपने आप उसतक पहुंच गयी। बीड़ी सुलगाते हुए बोला-'बहुत उलझने हैं जिंदगी में। दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं। समझ में नहीं आ रहा कैसे निपटा जाए इनसे।'
कोई कुछ बोलता नहीं हैं। वह चुपचाप बीड़ी पीने लगता है। साथ के लोगों से बातचीत करने लगा। पता चला -'ऑटो चलाता है। फजलगंज से सवारी लेकर आया है।'
चाय बन गयी। दुकान वाला कागज के ग्लास से नापकर एक पन्नी में चाय भरने लगा। पांच ग्लास चाय बांधकर उसने पन्नी का मुंह बंद कर दिया। ग्राहक को थमा दिया।
हमने कुल्हड़ में चाय मांगी। उसने चुपचाप केतली से चाय डाल दी कुल्हड़ में। कुछ चाय कुल्हड़ की दीवार को भिगो गयी। चाय पीते हुए अपनी बनाई चाय से तुलना करने लगे। हमको लगा हम भी चाय बढिया बना लेते हैं। मन किया कि खोल लें चाय की दुकान। जितनी देर बैठें , लोगों की गप्पाष्टक सुनते रहें। लिखते रहें। सीरीज बने -'चाय की दुकान से।' या ऐसा ही कुछ।
दस रुपये की है चाय। पहली बार चाय पी थी दुकान से तीस पैसे की। 42 साल में 300 गुना बढ़ गए हैं चाय के दाम। और भी न जाने कितना बदला है इस दरम्यान। बदलाव ही शाश्वत है दुनिया में।
इस तरह के अनगिनत आइडिए आते हैं दिन भर। लेकिन जितनी जल्दी आते हैं, उससे भी जल्दी फूट भी लेते हैं। सबके साथ होता होगा। हमारे दिमाग ऐसी सड़क की तरह होते हैं जिनमें दिन भर तरह-तरह के विचार गाड़ियों की तरह गुज़रते रहते हैं। कोई टिककर नहीं बैठता।
गाड़ी आ गई। लोग बाहर आने लगे। ऑटो वाले सवारियों को अपने कब्जे में लेने की कोशिश करने लगे-'आइए कल्याणपुर, आइए विजयनगर, आइए रावतपुर।' बीच में ऑटो वालों में आपस में कहा-सुनी भी हो गयी। मां-बहन भी हुई। लेकिन सवारियां आते ही लोग लड़ाई स्थगित करके उनकी तरफ मुड़ गए। इससे लगा कि गाली-गलौज, लड़ाई-झगड़ा खाली समय और दिमाग की उपज है।
एक सवारी को एक ऑटो वाले ने लपक लिया। सवारी ने पूछा -'कितने पैसे लोगे?'
ऑटो वाले ने बोला-'उतने ही जितने पिछली बार लिए थे।' सवारी उसके साथ हो ली। उसके बेटे ने पूछा-'आपने कैसे पहचाना कि यह ऑटो वाला वही है जो पिछली बार ले गया था।' सवारी ने कोई जवाब नहीं दिया। मुस्करा कर ऑटो वाले के पीछे चल दी।
स्टेशन से लौटते हुए लगा शहर कितना बदल गया है। पहचान में नहीं आता। जो जगहें दिमाग में बसी हई हैं वो इतनी बदल गयी हैं कि पहचानी नहीं जाती। उनके आसपास इतनी जगहें पैदा हो गई हैं कि लगता है नई जगह पर आ गए-'हम कहाँ आ गए हैं, तेरे साथ चलते-चलते।'
इस्टेट में एक आदमी सामने से भागता आ रहा है। कसरत कर रहा है। दूसरा आदमी पीछे की तरफ चलता हुआ सड़क पर चल रहा है। उसके पीछे आंख नहीं है। बिना देखे पीछे चल रहा है। कोई गड्ढा पड़ गया तो उसमें लुढ़क सकता है। लेकिन अगला इससे बेपरवाह पीछे की तरफ चल रहा है।
दुनिया में कई समाज भी तो इसी तरह बिना सोचे पीछे की तरफ चल रहे हैं। उनको किसी गड्ढे में गिरने की चिंता नहीं।
आसमान में सूरज भाई मुस्कराकर गुड मॉर्निंग कर रहे हैं।

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Monday, July 10, 2023

लेखकों के खतों पर बातचीत

 लेखकों के खतों पर बातचीत। लेखक की कोई निजता नहीं होती।

सदियों-दशकों पहले कुछ रोशनियाँ लिफ़ाफ़ों में बंद कर प्रियजनों को भेजी गईं थीं, जो रविवार शाम मर्चेंट चेम्बर हाल के पहले तल पर शहर के साहित्यप्रेमियों की मौजूदगी में चमक उठीं। यह कुछ चुनिंदा ख़तों की ख़ुशबू थी, जिसका सुरूर क़रीब चार घंटे श्रोताओं पर तारी रहा। वक्ताओं के ख़ास अन्दाज़-ए-बयां ने ख़ुशबू और रोशनी की जुगलबंदी में रंग भर दिए। साहित्यिक संस्था अनुष्टुप की ‘लिफ़ाफ़े में कुछ रोशनी भेज दे’ शीर्षक से तीसरी गिरिराज किशोर स्मृति व्याख्यानमाला यादगार बन गई।
इस मौक़े पर पहला व्याख्यान प्रख्यात लेखक प्रियंवद का था। उन्होंने कहा कि मेरे विचार में लेखक की कोई निजता नहीं होती। वह कथा, उपन्यास, इंटरव्यू, संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी आदि में खुद को ही तो खोलता है। ऐसे में उसके जीवन का सब कुछ सार्वजनिक होना चाहिए। यह एक तरह का साहित्य ही है। ख़त हर समय और समाज की अमूल्य धरोहर हैं। उन्होंने माँ को लिखे जेम्स जायस के पत्र,भाई थियो को लिखे चित्रकार वान गाग के पत्र, मित्र सुरेंद्रनाथ को लिखे शरतचंद्र के पत्रों के अंश सुनाए और कहा कि इनसे साहित्य की बेहतर समझ विकसित होती है। बताया कि पहला गिरमिटिया समेत कई चर्चित क्रतियो के लेखक स्व.गिरिराज किशोर और अन्य लेखकों में हुए पत्राचार को किताब की शक्ल में लाने का काम वह पिछले दो साल से कर रहे थे। यह काम पूरा हो चुका है। किताब के पहले खंड की पहली प्रति उन्होंने गिरिराज किशोर की पुत्री शिवा को सौंपी। किताब दो खण्डों में आएगी। हलीम मुस्लिम पी जी कालेज में उर्दू के प्रोफ़ेसर खान अहमद फ़ारुक ने अदबी खतूत के सफ़र पर कहा कि उर्दू अदीबों के ख़त भी मशहूर रहे हैं। इनमें ग़ालिब, अबुल कलाम आज़ाद, मोहम्मद अली रूदौलवी के खतूत ख़ास तौर पर मशहूर रहे हैं, क्योंकि वे आम रविश से हटकर लिखे गए हैं। अगर ग़ालिब के खतों पर बात की जाए तो उनकी ज़िंदगी, उनकी शायरी से कहीं बेहतर ढंग से उनके खतूत में नुमाया हुई है। साहित्यसुधी मनोचिकित्सक डा आलोक बाजपेई ने दिलचस्प अन्दाज़ में ख़त-ओ-किताबत की पुरानी दुनिया से लेकर मौजूदा वक्त में सोशल मीडिया के ज़रिए होने वाली बातचीत के अंतर को पेश किया। कार्यक्रम की शुरुआत लेखिका अनीता मिश्रा के स्वागत वक्तव्य से हुई। संचालन कर रहे डा आनंद शुक्ल ने मुक्तिबोध के खतों का ज़िक्र करते हुए ख़ूबसूरती से कार्यक्रम को गति दी। लेखक गिरिराज किशोर की बेटी शिवा ने अनुष्टुप परिवार व उपस्थित श्रोताओं को धन्यवाद दिया। कार्यक्रम में भावना मिश्रा, पंकज चतुर्वेदी, संध्या त्रिपाठी, सईद नकवी, प्रताप साहनी, मौलि सेठ आदि रहे।
दुनिया में केवल उसने मुझे पहचाना:
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मेरा 24 घंटे का साथी भेलू। इस दुनिया में केवल उसने मुझे पहचाना था। जब उसने मुझे काटा, तब सब लोग डर गए थे। उस वक्त रवि बाबू की पंक्तियाँ याद आई ‘तोमार प्रेम आघात, आछे नाइक अवहेला’ उसका प्रेम आघात था,पर अवहेला नहीं था। उसके पूर्व कभी इतना दर्द मुझे नहीं मिला। डाक्टर इलाज कर रहे हैं। पागल कुत्ते के काटने पर जो करना चाहिए,वही। 28 इंजेक्शन, जिनमें आजतक 10 लग चुके हैं, अब 18 बाक़ी रहे। इंसान को ज़िंदा रहना है,कारण -योर लाइफ़ इज टू वैलुएबल। बहरहाल, यह भी देख लिया जाए कि आख़िर कहाँ तक क्या होता है।
(मित्र सुरेंद्रनाथ को 25.04.1925 को लिखे लेखक शरतचंद्र का लिखा पत्र)
इंतज़ार है ….मुझसे क्या कहा जाएगा :
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मैं और कुछ नहीं कर सकता था। मैंने वही किया जो मेरे हाथ करना पसंद करते थे। मेरा ख़याल है बिना शब्दों के भी मुझे समझा जाना चाहिए। मैं उस दूसरी औरत को नहीं भूला जिसके लिए मेरा दिल धड़कता था, लेकिन वह दूर थी और उसने मुझे मिलने से इंकार कर दिया था, और यह औरत सर्दी में सड़कों पर बीमार, गर्भवती, भूखी भटक रही थी। …. तुम्हारे हाथों में मेरी रोटी है। क्या तुम इसे छीन लोगे और मुझसे मुँह मोड़ लोगे? मैंने सब कह दिया है। इंतज़ार है कि मुझसे आगे क्या कहा जाएगा?
( नीदरलैंड में जन्मे मशहूर चित्रकार वान गाग द्वारा मई 1882 को अपने भाई को थियो को लिखा पत्र)

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