कल सुबह बैंक जाना हुआ। घर से क़रीब 14 किलोमीटर दूर है बैंक। पहले सोचा अपनी गाड़ी से जाएँ। फिर तय किया किराए की गाड़ी से चला जाए। कारण यह भी कि शहर में भीड़-भाड़ और गाड़ी खड़ी करने के लफड़े।
गाड़ी बुक करते ही ड्राइवर का फ़ोन आ गया। थोड़ी देर में वह भी आ गया गाड़ी लेकर। उसने पूछा -'भुगतान कैसे करेंगे?' हमने कहा -'जैसे बताओ।' उसने कहा -'कैश कर दीजिएगा।बोहनी नहीं हुई है। आप पहली सवारी हैं।' हमने कहा -'ठीक।'
रास्ते में ज़्यादा भीड़ नहीं मिली। इस बीच उसका कोई फ़ोन आ गया। वह तसल्ली से बतियाते हुए अपनी गाड़ी के चलने की रनिंग कमेंट्री करते हुए (अब यहाँ पहुँच गए, फ़लानी जगह आ गए आदि) गाड़ी चलाता रहा। हमको बैंक के पास उतारकर वह चला गया। उसका भुगतान मैंने पहले ही आनलाइन कर दिया था। मेरे भुगतान करने पर उसने पूछा भी -'अरे आपने पेमेंट कर दिया।' हमने कहा -'हाँ। कम पड़ेगा तो दुबारा कर देंगे।' लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ अतिरिक्त ही भुगतान हुआ था।
बैंक में काउंटर पर पता चला कि हमको जितने पैसे चाहिए थे उतने थे नहीं बैंक में। कैशियर बोला -'कल आइए। आज तो हो नहीं पाएँगे।' हम अचम्भे में थे। बैंक में पैसे नहीं तो कहाँ मिलेंगे। लेकिन उसने हमको क़ायदे से समझाया तो हमारी समझ में आ गया। यह भी याद आया कि पिछली बार भी मुश्किल से पैसे दिए थे बैंक ने।
बहरहाल अपन वापस हो लिए। पहले मन किया कि गाड़ी बुला लें। लेकिन यह ध्यान आने पर कि आज की टहलाई हुईं नहीं है, पैदल ही चल दिए। यह सोचा कि जब तक मन करेगा पैदल चलेंगे। थक जाएँगे तो गाड़ी ख़रीद लेंगे किराए पर।
थोड़ी दूर चलने पर सड़क किनारे एक ठेलिया पर दिल्ली वाले छोले कुलचे का बोर्ड लगा दिखा। पता नहीं कैसे वह दिल्ली से छोले-कुलचे लाकर कानपुर में बेचता होगा। यह भी लगा कि कानपुर वालों के पेट पर दिल्ली वाले लात मार रहे हैं। कल योगी जी आए थे कानपुर। उनको कोई बात देता तो वो पक्का अपने भाषण में कहते कुछ ऐसा जिससे केजरीवाल जी की हुलिया और टाइट हो जाती।
आगे सीओडी क्रासिंग के ऊपर वाला पुल था। चढ़ाई बचाने के लिहाज़ से हम नीचे से आए। क्रासिंग के पास सड़क के बीचोंबीच दीवाल उठी थी जिससे कोई वाहन इधर से न जा सके। पैदल चलने वाले लोग अलबत्ता बगलिया के पटरी पार करते हुए निकल रहे थे। अपन भी निकल आए। पटरी पार करते हुए फ़ोटो भी ले लिए ताकि सनद रहे।
क्रासिंग के पास की झाड़ियों पर कुछ रंग-बिरंगी तितलियाँ इठलाती हुई उड़ रही थीं। मन किया कि उनका वीडियो बनाएँ लेकिन जब तक मन की बात पर अमल करें तब तक आगे आ चुके थे। फिर पीछे लौटने का मन नहीं हुआ।
पुल के बाद ओपीएफ के कई कर्मचारी चाय की दुकान पर बैठे चायपानी करते हुए बतिया रहे थे। उनका लंच का समय चल रहा था। हमको देखकर कुछ लोगों ने नमस्ते भी किया। हमारा भी मन किया कि रुककर बतियाएँ। लेकिन उसी समय एक मित्र का फ़ोन का आ गया। लिहाज़ा हम फ़ोन पर बतियाते हुए उनको दूर से ही नमस्ते करते हुए आगे बढ़ गए।
हमको पैदल जाता देख उनमें से एक साथी अपना स्कूटर लेकर मेरे पास आया और जहांतक कहे वहाँ तक छोड़ देने के लिए कहा। हमने बताया कि हम पैदल टहलते हुए ही जाने के लिए निकले हैं । सवारी की ज़रूरत नहीं। उसने फिर ज़िद की। लेकिन हम उनको समझाकर आगे बढ़ गए। हमको लगा कि खड़े रहे तो मोहब्बत में गिरफ़्तार करके स्कूटर पर ज़बरियन बैठा लिए जाएँगे।
वहीं एक महिला सड़क किनारे मैले कुचैले कपड़े पहने बैठी थी। उसके हाथ में आधा समोसा था। समोसे के अंदर के आलू को वह बार-बार उलट-पलट रही थी। पता नहीं क्या सोच रही थी। उसके चेहरे दैन्य, बेचारगी और ऐसे अनगिनत भाव थे जिनका कोई अनुवाद शब्दों में नहीं किया जा सकता। वह अनमने भाव से हाथ में पकड़े समोसे के आलू को उलटती पलटती रही। हम कुछ देर उसको देखते रहे। फिर बिना कुछ बोले आगे बढ़ गए।
आगे जहां पहले पूरी सड़क पीछे की नाली तक खुल्ली दिखती थी वह टीन की सीट से घिरी दिखी। ऐसा लगता है मानो सड़क की हदबंदी की गयी हो। गोया यहाँ किसी देश का कोई राष्ट्राध्यक्ष आ रहा हो जिसकी नज़र से यहाँ की ग़रीबी छिपाने के लिए टीन लगा दी गयी हो।
आगे एक जगह थोड़ी टीन खुली दिखी तो वहाँ मौजूद महिला से पूछा कि यह टीन कब लगी, क्यों लगी?
इस पर उसने निर्लिप्त भाव से कहा -'मोदी लगवाईन हैं।छह सात महीना पहले लगी है। का जाने काहे लगवाईन हैं। लेकिन गर्मी बहुत लागत है टीन के कारण।'
हमने कहा -'हियाँ मोदी जी कहाँ? हियाँ तो योगी जी लगवाईन होईहैं।'
वह कुछ बोली नहीं। अपने काम में लग गयी।
हमको उस तीन लगाने का कोई कारण समझ में नहीं आया। सड़क खुली रहती तो अच्छा था। टीन की आड़ में तमाम ग़ैरक़ानूनी काम भी होने का ख़तरा है। यह भी हो सकता है किसी टीन निर्माता की टीन खपाने के लिए यह निर्णय लिया गया कि सड़क किनारे टीन लगा दी जाए।
आगे एक पेड़ मस्ती में झूमता खड़ा था। शायद वह टीन के अंदर क़ैद किये जाने की ख़ुशी में हरिया रहा हो।
सड़क किनारे एक झोपड़ी के बाहर खड़े एक आदमी ने मुझसे समय पूछा। हमने बताया -'सवा एक बजा है।' उसने बताया कि उसको अपना मोबाइल लेने जाना है। दुकान पर चार्जिंग के लिए दिया है। उसकी टेंटनुमा झोपड़ी झोपड़ी बिजली विहीन है। मोबाइल चार्जिंग की दुकान दो बजे बंद हो जाती है। दस रुपए लगते हैं एक बार की चार्जिंग के।
आगे बताया उसने कि उसको मोबाइल काशीराम ट्रस्ट वालों ने दिया है। 3500 रुपए का मोबाइल 2200 में मिलता है वहाँ। दो-तीन सौ चाय-पानी के देने पड़ते हैं। काशीराम ट्रस्ट मतलब बहुजन समाजवादी पार्टी ? पूछने पर उसने न हाँ कहा न न। पता चला उसने दो मोबाइल लिए हैं। एक अपने लिए एक बेटे के लिए। बेटा काम पर गया है।
राजनीतिक पार्टियाँ कहीं से जुगाड़ करके सस्ते में कुछ देती हैं आम लोगों में उसमें भी कार्यकर्ता चाय-पानी के पैसे लूट लेते हैं।
हमको बात करते देख झोपड़ी से एक महिला ने झांक कर देखा और तेजी से हड़काया अपने आदमी को -'किससे बात कर रहे हो?' आदमी ने सकपकाते हुए कहा -'भैया जी से टाईम पूछ रहे थे।' इसके बाद वह भी झोपड़ी में समा गया।
सड़क पर बहुत भीड़ थी। रास्ता एकदम जाम। पुलिस भर्ती की लिखित परीक्षा से छूटे हुए बच्चों के कारण भीड़ ज़्यादा थी। गाड़ियाँ सड़क पर अटी थीं। हमने अपने पैदल आने की निर्णय की तारीफ़ की। गाड़ी से आते तो ओला/उबर वाला मेसेज करके मोबाइल को हलकान कर देता-'आप काफ़ी देर से एक ही जगह पर खड़े हुए हैं। कोई समस्या तो नहीं है?'
तय किया कि अगली बार कहेंगे -'झकरकटी के जाम में फँसे हैं। आओ निकलवाओ आकर।' फिर देखेंगे क्या कहता है वो।
आगे नुक्कड़ पर एक ठेले पर 'सूरज छोले भटूरे'का बोर्ड लगा देखा। हमें लगा कि बताओ 'सूरज भाई' ने छोले भटूरे की दुकान खोल ली। बताया तक नहीं। बताना तो चाहिए था। कोई हम मुफ़्त थोड़ी खा लेते।
बस अड्डे पर भारी भीड़ थी। एक इश्तहार में 500 रुपए रुपए प्रतिदिन के हिसाब से होटल का इश्तहार दिखा। तय किया अगर कभी घूमने निकले तो सस्ते होटल के लिए होटल बस स्टैंड/रेलवे स्टेशन के पास खोजेंगे।
झकरकटी पुल के पास थकान महसूस हुई। प्यास भी। उस समय तक धूप में चार किलोमीटर चल चुके थे। मन किया कोई सवारी ले लें। लेकिन जड़त्व के चलते चलते रहे। इस बीच पसीना सूखा तो मज़ा आया। फिर पैदल ही चलते रहे।
पुल के नीचे एक दुकान पर ठेलिया में केले बेचती महिला ने अपने बाल खोलकर झटका दिया। सारे बाल लहरा कर खुल गए। हवा में मस्ती करने लगे। लेकिन महिला ने बालों को ज़्यादा देर मस्ती नहीं करने दी। सबको इकट्ठा करके जुड़े में बांध लिया और सामने सड़क की तरफ़ देखने लगी।
पैदल चलते हुए अनवरगंज स्टेशन के सामने सड़क तक आए। सोचा शायद वहाँ पंकज बाजपेयी मिल जाएँ। लेकिन वे वहाँ थे नहीं। शायद कहीं 'नोट जलवाने' गए हों।
आगे एक चाय की साफ़ सुथरी दुकान दिखी। सामने पत्थर की बेंचें बनी थीं। पाँच किलोमीटर पैदल चल चुके थे। हमने यात्रा को विराम दिया और चाय पीने बैठ गए। पानी की बोतल ली। दस रुपए की ठंडे पानी की बोतल । घूँट-घूँट पानी पीते हुए चाय का इंतज़ार किया। चाय पीते हुए चाय की तारीफ़ की-'चाय बढ़िया बनी है।'
तारीफ़ सुनकर मुस्कराते हुए वह बोला -'बढ़िया न बनाएँ तो चाय पीने कौन आएगा?'
चाय की दुकान के सामने पुराने जमाने का नल सड़क किनारे देखा। दीवार बनने वाले आले के आकार के ढाँचे में पानी का नल। पानी तो नहीं ही आता था अब उसमें। लेकिन ढाँचा बचा हुआ था।
चाय पीने के बाद गाड़ी बुक की। सड़क के दूसरी तरफ़ खड़े वह मेरा इंतज़ार कर रहा था। हमने उसको सड़क पार करके आने के लिए कहा। वह एक किलोमीटर से अधिक घूम कर आया।
गाड़ी आने पर हम उसमें विराजे और चल दिए। पाँच किलोमीटर पैदल चलने से गाड़ी का किराया क़रीब सत्तर रुपए बचा। एक किलो क़रीब चर्बी कम हुई होगी पसीने के रूप में।
घर आकर पसीने से भीगे कपड़े बदले और लद्द से बिस्तर पर पड़ गए। थोड़ी देर में खाना खाकर सो गए। जगे तो शाम हो गयी थी।
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