Saturday, August 31, 2024

सड़क पर ज़िंदगी



कल सुबह बैंक जाना हुआ। घर से क़रीब 14 किलोमीटर दूर है बैंक। पहले सोचा अपनी गाड़ी से जाएँ। फिर तय किया किराए की गाड़ी से चला जाए। कारण यह भी कि शहर में भीड़-भाड़ और गाड़ी खड़ी करने के लफड़े।
गाड़ी बुक करते ही ड्राइवर का फ़ोन आ गया। थोड़ी देर में वह भी आ गया गाड़ी लेकर। उसने पूछा -'भुगतान कैसे करेंगे?' हमने कहा -'जैसे बताओ।' उसने कहा -'कैश कर दीजिएगा।बोहनी नहीं हुई है। आप पहली सवारी हैं।' हमने कहा -'ठीक।'
उस समय क़रीब बारह बज रहे थे। बताया उसने कि सुबह नौ बजे से घर से निकला है। पहली सवारी तीन घंटे बाद मिली। गाड़ी उसकी काफ़ी पुरानी लग रही थी। लेकिन उसने बताया कि दो साल पहले ही ली थी। अभी किस्त दो साल और चलनी है। दो साल में एक लाख किलोमीटर चल चुकी है गाड़ी।
रास्ते में ज़्यादा भीड़ नहीं मिली। इस बीच उसका कोई फ़ोन आ गया। वह तसल्ली से बतियाते हुए अपनी गाड़ी के चलने की रनिंग कमेंट्री करते हुए (अब यहाँ पहुँच गए, फ़लानी जगह आ गए आदि) गाड़ी चलाता रहा। हमको बैंक के पास उतारकर वह चला गया। उसका भुगतान मैंने पहले ही आनलाइन कर दिया था। मेरे भुगतान करने पर उसने पूछा भी -'अरे आपने पेमेंट कर दिया।' हमने कहा -'हाँ। कम पड़ेगा तो दुबारा कर देंगे।' लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ अतिरिक्त ही भुगतान हुआ था।
बैंक में काउंटर पर पता चला कि हमको जितने पैसे चाहिए थे उतने थे नहीं बैंक में। कैशियर बोला -'कल आइए। आज तो हो नहीं पाएँगे।' हम अचम्भे में थे। बैंक में पैसे नहीं तो कहाँ मिलेंगे। लेकिन उसने हमको क़ायदे से समझाया तो हमारी समझ में आ गया। यह भी याद आया कि पिछली बार भी मुश्किल से पैसे दिए थे बैंक ने।
बहरहाल अपन वापस हो लिए। पहले मन किया कि गाड़ी बुला लें। लेकिन यह ध्यान आने पर कि आज की टहलाई हुईं नहीं है, पैदल ही चल दिए। यह सोचा कि जब तक मन करेगा पैदल चलेंगे। थक जाएँगे तो गाड़ी ख़रीद लेंगे किराए पर।
थोड़ी दूर चलने पर सड़क किनारे एक ठेलिया पर दिल्ली वाले छोले कुलचे का बोर्ड लगा दिखा। पता नहीं कैसे वह दिल्ली से छोले-कुलचे लाकर कानपुर में बेचता होगा। यह भी लगा कि कानपुर वालों के पेट पर दिल्ली वाले लात मार रहे हैं। कल योगी जी आए थे कानपुर। उनको कोई बात देता तो वो पक्का अपने भाषण में कहते कुछ ऐसा जिससे केजरीवाल जी की हुलिया और टाइट हो जाती।
आगे सीओडी क्रासिंग के ऊपर वाला पुल था। चढ़ाई बचाने के लिहाज़ से हम नीचे से आए। क्रासिंग के पास सड़क के बीचोंबीच दीवाल उठी थी जिससे कोई वाहन इधर से न जा सके। पैदल चलने वाले लोग अलबत्ता बगलिया के पटरी पार करते हुए निकल रहे थे। अपन भी निकल आए। पटरी पार करते हुए फ़ोटो भी ले लिए ताकि सनद रहे।
क्रासिंग के पास की झाड़ियों पर कुछ रंग-बिरंगी तितलियाँ इठलाती हुई उड़ रही थीं। मन किया कि उनका वीडियो बनाएँ लेकिन जब तक मन की बात पर अमल करें तब तक आगे आ चुके थे। फिर पीछे लौटने का मन नहीं हुआ।
पुल के बाद ओपीएफ के कई कर्मचारी चाय की दुकान पर बैठे चायपानी करते हुए बतिया रहे थे। उनका लंच का समय चल रहा था। हमको देखकर कुछ लोगों ने नमस्ते भी किया। हमारा भी मन किया कि रुककर बतियाएँ। लेकिन उसी समय एक मित्र का फ़ोन का आ गया। लिहाज़ा हम फ़ोन पर बतियाते हुए उनको दूर से ही नमस्ते करते हुए आगे बढ़ गए।
हमको पैदल जाता देख उनमें से एक साथी अपना स्कूटर लेकर मेरे पास आया और जहांतक कहे वहाँ तक छोड़ देने के लिए कहा। हमने बताया कि हम पैदल टहलते हुए ही जाने के लिए निकले हैं । सवारी की ज़रूरत नहीं। उसने फिर ज़िद की। लेकिन हम उनको समझाकर आगे बढ़ गए। हमको लगा कि खड़े रहे तो मोहब्बत में गिरफ़्तार करके स्कूटर पर ज़बरियन बैठा लिए जाएँगे।
वहीं एक महिला सड़क किनारे मैले कुचैले कपड़े पहने बैठी थी। उसके हाथ में आधा समोसा था। समोसे के अंदर के आलू को वह बार-बार उलट-पलट रही थी। पता नहीं क्या सोच रही थी। उसके चेहरे दैन्य, बेचारगी और ऐसे अनगिनत भाव थे जिनका कोई अनुवाद शब्दों में नहीं किया जा सकता। वह अनमने भाव से हाथ में पकड़े समोसे के आलू को उलटती पलटती रही। हम कुछ देर उसको देखते रहे। फिर बिना कुछ बोले आगे बढ़ गए।
आगे जहां पहले पूरी सड़क पीछे की नाली तक खुल्ली दिखती थी वह टीन की सीट से घिरी दिखी। ऐसा लगता है मानो सड़क की हदबंदी की गयी हो। गोया यहाँ किसी देश का कोई राष्ट्राध्यक्ष आ रहा हो जिसकी नज़र से यहाँ की ग़रीबी छिपाने के लिए टीन लगा दी गयी हो।
आगे एक जगह थोड़ी टीन खुली दिखी तो वहाँ मौजूद महिला से पूछा कि यह टीन कब लगी, क्यों लगी?
इस पर उसने निर्लिप्त भाव से कहा -'मोदी लगवाईन हैं।छह सात महीना पहले लगी है। का जाने काहे लगवाईन हैं। लेकिन गर्मी बहुत लागत है टीन के कारण।'
हमने कहा -'हियाँ मोदी जी कहाँ? हियाँ तो योगी जी लगवाईन होईहैं।'
वह कुछ बोली नहीं। अपने काम में लग गयी।
हमको उस तीन लगाने का कोई कारण समझ में नहीं आया। सड़क खुली रहती तो अच्छा था। टीन की आड़ में तमाम ग़ैरक़ानूनी काम भी होने का ख़तरा है। यह भी हो सकता है किसी टीन निर्माता की टीन खपाने के लिए यह निर्णय लिया गया कि सड़क किनारे टीन लगा दी जाए।
आगे एक पेड़ मस्ती में झूमता खड़ा था। शायद वह टीन के अंदर क़ैद किये जाने की ख़ुशी में हरिया रहा हो।
सड़क किनारे एक झोपड़ी के बाहर खड़े एक आदमी ने मुझसे समय पूछा। हमने बताया -'सवा एक बजा है।' उसने बताया कि उसको अपना मोबाइल लेने जाना है। दुकान पर चार्जिंग के लिए दिया है। उसकी टेंटनुमा झोपड़ी झोपड़ी बिजली विहीन है। मोबाइल चार्जिंग की दुकान दो बजे बंद हो जाती है। दस रुपए लगते हैं एक बार की चार्जिंग के।
आगे बताया उसने कि उसको मोबाइल काशीराम ट्रस्ट वालों ने दिया है। 3500 रुपए का मोबाइल 2200 में मिलता है वहाँ। दो-तीन सौ चाय-पानी के देने पड़ते हैं। काशीराम ट्रस्ट मतलब बहुजन समाजवादी पार्टी ? पूछने पर उसने न हाँ कहा न न। पता चला उसने दो मोबाइल लिए हैं। एक अपने लिए एक बेटे के लिए। बेटा काम पर गया है।
राजनीतिक पार्टियाँ कहीं से जुगाड़ करके सस्ते में कुछ देती हैं आम लोगों में उसमें भी कार्यकर्ता चाय-पानी के पैसे लूट लेते हैं।
हमको बात करते देख झोपड़ी से एक महिला ने झांक कर देखा और तेजी से हड़काया अपने आदमी को -'किससे बात कर रहे हो?' आदमी ने सकपकाते हुए कहा -'भैया जी से टाईम पूछ रहे थे।' इसके बाद वह भी झोपड़ी में समा गया।
सड़क पर बहुत भीड़ थी। रास्ता एकदम जाम। पुलिस भर्ती की लिखित परीक्षा से छूटे हुए बच्चों के कारण भीड़ ज़्यादा थी। गाड़ियाँ सड़क पर अटी थीं। हमने अपने पैदल आने की निर्णय की तारीफ़ की। गाड़ी से आते तो ओला/उबर वाला मेसेज करके मोबाइल को हलकान कर देता-'आप काफ़ी देर से एक ही जगह पर खड़े हुए हैं। कोई समस्या तो नहीं है?'
तय किया कि अगली बार कहेंगे -'झकरकटी के जाम में फँसे हैं। आओ निकलवाओ आकर।' फिर देखेंगे क्या कहता है वो।
आगे नुक्कड़ पर एक ठेले पर 'सूरज छोले भटूरे'का बोर्ड लगा देखा। हमें लगा कि बताओ 'सूरज भाई' ने छोले भटूरे की दुकान खोल ली। बताया तक नहीं। बताना तो चाहिए था। कोई हम मुफ़्त थोड़ी खा लेते।
बस अड्डे पर भारी भीड़ थी। एक इश्तहार में 500 रुपए रुपए प्रतिदिन के हिसाब से होटल का इश्तहार दिखा। तय किया अगर कभी घूमने निकले तो सस्ते होटल के लिए होटल बस स्टैंड/रेलवे स्टेशन के पास खोजेंगे।
झकरकटी पुल के पास थकान महसूस हुई। प्यास भी। उस समय तक धूप में चार किलोमीटर चल चुके थे। मन किया कोई सवारी ले लें। लेकिन जड़त्व के चलते चलते रहे। इस बीच पसीना सूखा तो मज़ा आया। फिर पैदल ही चलते रहे।
पुल के नीचे एक दुकान पर ठेलिया में केले बेचती महिला ने अपने बाल खोलकर झटका दिया। सारे बाल लहरा कर खुल गए। हवा में मस्ती करने लगे। लेकिन महिला ने बालों को ज़्यादा देर मस्ती नहीं करने दी। सबको इकट्ठा करके जुड़े में बांध लिया और सामने सड़क की तरफ़ देखने लगी।
पैदल चलते हुए अनवरगंज स्टेशन के सामने सड़क तक आए। सोचा शायद वहाँ पंकज बाजपेयी मिल जाएँ। लेकिन वे वहाँ थे नहीं। शायद कहीं 'नोट जलवाने' गए हों।
आगे एक चाय की साफ़ सुथरी दुकान दिखी। सामने पत्थर की बेंचें बनी थीं। पाँच किलोमीटर पैदल चल चुके थे। हमने यात्रा को विराम दिया और चाय पीने बैठ गए। पानी की बोतल ली। दस रुपए की ठंडे पानी की बोतल । घूँट-घूँट पानी पीते हुए चाय का इंतज़ार किया। चाय पीते हुए चाय की तारीफ़ की-'चाय बढ़िया बनी है।'
तारीफ़ सुनकर मुस्कराते हुए वह बोला -'बढ़िया न बनाएँ तो चाय पीने कौन आएगा?'
चाय की दुकान के सामने पुराने जमाने का नल सड़क किनारे देखा। दीवार बनने वाले आले के आकार के ढाँचे में पानी का नल। पानी तो नहीं ही आता था अब उसमें। लेकिन ढाँचा बचा हुआ था।
चाय पीने के बाद गाड़ी बुक की। सड़क के दूसरी तरफ़ खड़े वह मेरा इंतज़ार कर रहा था। हमने उसको सड़क पार करके आने के लिए कहा। वह एक किलोमीटर से अधिक घूम कर आया।
गाड़ी आने पर हम उसमें विराजे और चल दिए। पाँच किलोमीटर पैदल चलने से गाड़ी का किराया क़रीब सत्तर रुपए बचा। एक किलो क़रीब चर्बी कम हुई होगी पसीने के रूप में।
घर आकर पसीने से भीगे कपड़े बदले और लद्द से बिस्तर पर पड़ गए। थोड़ी देर में खाना खाकर सो गए। जगे तो शाम हो गयी थी।

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सड़क पर ज़िंदगी



कल सुबह बैंक जाना हुआ। घर से क़रीब 14 किलोमीटर दूर है बैंक। पहले सोचा अपनी गाड़ी से जाएँ। फिर तय किया किराए की गाड़ी से चला जाए। कारण यह भी कि शहर में भीड़-भाड़ और गाड़ी खड़ी करने के लफड़े।
गाड़ी बुक करते ही ड्राइवर का फ़ोन आ गया। थोड़ी देर में वह भी आ गया गाड़ी लेकर। उसने पूछा -'भुगतान कैसे करेंगे?' हमने कहा -'जैसे बताओ।' उसने कहा -'कैश कर दीजिएगा।बोहनी नहीं हुई है। आप पहली सवारी हैं।' हमने कहा -'ठीक।'
उस समय क़रीब बारह बज रहे थे। बताया उसने कि सुबह नौ बजे से घर से निकला है। पहली सवारी तीन घंटे बाद मिली। गाड़ी उसकी काफ़ी पुरानी लग रही थी। लेकिन उसने बताया कि दो साल पहले ही ली थी। अभी किस्त दो साल और चलनी है। दो साल में एक लाख किलोमीटर चल चुकी है गाड़ी।
रास्ते में ज़्यादा भीड़ नहीं मिली। इस बीच उसका कोई फ़ोन आ गया। वह तसल्ली से बतियाते हुए अपनी गाड़ी के चलने की रनिंग कमेंट्री करते हुए (अब यहाँ पहुँच गए, फ़लानी जगह आ गए आदि) गाड़ी चलाता रहा। हमको बैंक के पास उतारकर वह चला गया। उसका भुगतान मैंने पहले ही आनलाइन कर दिया था। मेरे भुगतान करने पर उसने पूछा भी -'अरे आपने पेमेंट कर दिया।' हमने कहा -'हाँ। कम पड़ेगा तो दुबारा कर देंगे।' लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ अतिरिक्त ही भुगतान हुआ था।
बैंक में काउंटर पर पता चला कि हमको जितने पैसे चाहिए थे उतने थे नहीं बैंक में। कैशियर बोला -'कल आइए। आज तो हो नहीं पाएँगे।' हम अचम्भे में थे। बैंक में पैसे नहीं तो कहाँ मिलेंगे। लेकिन उसने हमको क़ायदे से समझाया तो हमारी समझ में आ गया। यह भी याद आया कि पिछली बार भी मुश्किल से पैसे दिए थे बैंक ने।
बहरहाल अपन वापस हो लिए। पहले मन किया कि गाड़ी बुला लें। लेकिन यह ध्यान आने पर कि आज की टहलाई हुईं नहीं है, पैदल ही चल दिए। यह सोचा कि जब तक मन करेगा पैदल चलेंगे। थक जाएँगे तो गाड़ी ख़रीद लेंगे किराए पर।
थोड़ी दूर चलने पर सड़क किनारे एक ठेलिया पर दिल्ली वाले छोले कुलचे का बोर्ड लगा दिखा। पता नहीं कैसे वह दिल्ली से छोले-कुलचे लाकर कानपुर में बेचता होगा। यह भी लगा कि कानपुर वालों के पेट पर दिल्ली वाले लात मार रहे हैं। कल योगी जी आए थे कानपुर। उनको कोई बात देता तो वो पक्का अपने भाषण में कहते कुछ ऐसा जिससे केजरीवाल जी की हुलिया और टाइट हो जाती।
आगे सीओडी क्रासिंग के ऊपर वाला पुल था। चढ़ाई बचाने के लिहाज़ से हम नीचे से आए। क्रासिंग के पास सड़क के बीचोंबीच दीवाल उठी थी जिससे कोई वाहन इधर से न जा सके। पैदल चलने वाले लोग अलबत्ता बगलिया के पटरी पार करते हुए निकल रहे थे। अपन भी निकल आए। पटरी पार करते हुए फ़ोटो भी ले लिए ताकि सनद रहे।
क्रासिंग के पास की झाड़ियों पर कुछ रंग-बिरंगी तितलियाँ इठलाती हुई उड़ रही थीं। मन किया कि उनका वीडियो बनाएँ लेकिन जब तक मन की बात पर अमल करें तब तक आगे आ चुके थे। फिर पीछे लौटने का मन नहीं हुआ।
पुल के बाद ओपीएफ के कई कर्मचारी चाय की दुकान पर बैठे चायपानी करते हुए बतिया रहे थे। उनका लंच का समय चल रहा था। हमको देखकर कुछ लोगों ने नमस्ते भी किया। हमारा भी मन किया कि रुककर बतियाएँ। लेकिन उसी समय एक मित्र का फ़ोन का आ गया। लिहाज़ा हम फ़ोन पर बतियाते हुए उनको दूर से ही नमस्ते करते हुए आगे बढ़ गए।
हमको पैदल जाता देख उनमें से एक साथी अपना स्कूटर लेकर मेरे पास आया और जहांतक कहे वहाँ तक छोड़ देने के लिए कहा। हमने बताया कि हम पैदल टहलते हुए ही जाने के लिए निकले हैं । सवारी की ज़रूरत नहीं। उसने फिर ज़िद की। लेकिन हम उनको समझाकर आगे बढ़ गए। हमको लगा कि खड़े रहे तो मोहब्बत में गिरफ़्तार करके स्कूटर पर ज़बरियन बैठा लिए जाएँगे।
वहीं एक महिला सड़क किनारे मैले कुचैले कपड़े पहने बैठी थी। उसके हाथ में आधा समोसा था। समोसे के अंदर के आलू को वह बार-बार उलट-पलट रही थी। पता नहीं क्या सोच रही थी। उसके चेहरे दैन्य, बेचारगी और ऐसे अनगिनत भाव थे जिनका कोई अनुवाद शब्दों में नहीं किया जा सकता। वह अनमने भाव से हाथ में पकड़े समोसे के आलू को उलटती पलटती रही। हम कुछ देर उसको देखते रहे। फिर बिना कुछ बोले आगे बढ़ गए।
आगे जहां पहले पूरी सड़क पीछे की नाली तक खुल्ली दिखती थी वह टीन की सीट से घिरी दिखी। ऐसा लगता है मानो सड़क की हदबंदी की गयी हो। गोया यहाँ किसी देश का कोई राष्ट्राध्यक्ष आ रहा हो जिसकी नज़र से यहाँ की ग़रीबी छिपाने के लिए टीन लगा दी गयी हो।
आगे एक जगह थोड़ी टीन खुली दिखी तो वहाँ मौजूद महिला से पूछा कि यह टीन कब लगी, क्यों लगी?
इस पर उसने निर्लिप्त भाव से कहा -'मोदी लगवाईन हैं।छह सात महीना पहले लगी है। का जाने काहे लगवाईन हैं। लेकिन गर्मी बहुत लागत है टीन के कारण।'
हमने कहा -'हियाँ मोदी जी कहाँ? हियाँ तो योगी जी लगवाईन होईहैं।'
वह कुछ बोली नहीं। अपने काम में लग गयी।
हमको उस तीन लगाने का कोई कारण समझ में नहीं आया। सड़क खुली रहती तो अच्छा था। टीन की आड़ में तमाम ग़ैरक़ानूनी काम भी होने का ख़तरा है। यह भी हो सकता है किसी टीन निर्माता की टीन खपाने के लिए यह निर्णय लिया गया कि सड़क किनारे टीन लगा दी जाए।
आगे एक पेड़ मस्ती में झूमता खड़ा था। शायद वह टीन के अंदर क़ैद किये जाने की ख़ुशी में हरिया रहा हो।
सड़क किनारे एक झोपड़ी के बाहर खड़े एक आदमी ने मुझसे समय पूछा। हमने बताया -'सवा एक बजा है।' उसने बताया कि उसको अपना मोबाइल लेने जाना है। दुकान पर चार्जिंग के लिए दिया है। उसकी टेंटनुमा झोपड़ी झोपड़ी बिजली विहीन है। मोबाइल चार्जिंग की दुकान दो बजे बंद हो जाती है। दस रुपए लगते हैं एक बार की चार्जिंग के।
आगे बताया उसने कि उसको मोबाइल काशीराम ट्रस्ट वालों ने दिया है। 3500 रुपए का मोबाइल 2200 में मिलता है वहाँ। दो-तीन सौ चाय-पानी के देने पड़ते हैं। काशीराम ट्रस्ट मतलब बहुजन समाजवादी पार्टी ? पूछने पर उसने न हाँ कहा न न। पता चला उसने दो मोबाइल लिए हैं। एक अपने लिए एक बेटे के लिए। बेटा काम पर गया है।
राजनीतिक पार्टियाँ कहीं से जुगाड़ करके सस्ते में कुछ देती हैं आम लोगों में उसमें भी कार्यकर्ता चाय-पानी के पैसे लूट लेते हैं।
हमको बात करते देख झोपड़ी से एक महिला ने झांक कर देखा और तेजी से हड़काया अपने आदमी को -'किससे बात कर रहे हो?' आदमी ने सकपकाते हुए कहा -'भैया जी से टाईम पूछ रहे थे।' इसके बाद वह भी झोपड़ी में समा गया।
सड़क पर बहुत भीड़ थी। रास्ता एकदम जाम। पुलिस भर्ती की लिखित परीक्षा से छूटे हुए बच्चों के कारण भीड़ ज़्यादा थी। गाड़ियाँ सड़क पर अटी थीं। हमने अपने पैदल आने की निर्णय की तारीफ़ की। गाड़ी से आते तो ओला/उबर वाला मेसेज करके मोबाइल को हलकान कर देता-'आप काफ़ी देर से एक ही जगह पर खड़े हुए हैं। कोई समस्या तो नहीं है?'
तय किया कि अगली बार कहेंगे -'झकरकटी के जाम में फँसे हैं। आओ निकलवाओ आकर।' फिर देखेंगे क्या कहता है वो।
आगे नुक्कड़ पर एक ठेले पर 'सूरज छोले भटूरे'का बोर्ड लगा देखा। हमें लगा कि बताओ 'सूरज भाई' ने छोले भटूरे की दुकान खोल ली। बताया तक नहीं। बताना तो चाहिए था। कोई हम मुफ़्त थोड़ी खा लेते।
बस अड्डे पर भारी भीड़ थी। एक इश्तहार में 500 रुपए रुपए प्रतिदिन के हिसाब से होटल का इश्तहार दिखा। तय किया अगर कभी घूमने निकले तो सस्ते होटल के लिए होटल बस स्टैंड/रेलवे स्टेशन के पास खोजेंगे।
झकरकटी पुल के पास थकान महसूस हुई। प्यास भी। उस समय तक धूप में चार किलोमीटर चल चुके थे। मन किया कोई सवारी ले लें। लेकिन जड़त्व के चलते चलते रहे। इस बीच पसीना सूखा तो मज़ा आया। फिर पैदल ही चलते रहे।
पुल के नीचे एक दुकान पर ठेलिया में केले बेचती महिला ने अपने बाल खोलकर झटका दिया। सारे बाल लहरा कर खुल गए। हवा में मस्ती करने लगे। लेकिन महिला ने बालों को ज़्यादा देर मस्ती नहीं करने दी। सबको इकट्ठा करके जुड़े में बांध लिया और सामने सड़क की तरफ़ देखने लगी।
पैदल चलते हुए अनवरगंज स्टेशन के सामने सड़क तक आए। सोचा शायद वहाँ पंकज बाजपेयी मिल जाएँ। लेकिन वे वहाँ थे नहीं। शायद कहीं 'नोट जलवाने' गए हों।
आगे एक चाय की साफ़ सुथरी दुकान दिखी। सामने पत्थर की बेंचें बनी थीं। पाँच किलोमीटर पैदल चल चुके थे। हमने यात्रा को विराम दिया और चाय पीने बैठ गए। पानी की बोतल ली। दस रुपए की ठंडे पानी की बोतल । घूँट-घूँट पानी पीते हुए चाय का इंतज़ार किया। चाय पीते हुए चाय की तारीफ़ की-'चाय बढ़िया बनी है।'
तारीफ़ सुनकर मुस्कराते हुए वह बोला -'बढ़िया न बनाएँ तो चाय पीने कौन आएगा?'
चाय की दुकान के सामने पुराने जमाने का नल सड़क किनारे देखा। दीवार बनने वाले आले के आकार के ढाँचे में पानी का नल। पानी तो नहीं ही आता था अब उसमें। लेकिन ढाँचा बचा हुआ था।
चाय पीने के बाद गाड़ी बुक की। सड़क के दूसरी तरफ़ खड़े वह मेरा इंतज़ार कर रहा था। हमने उसको सड़क पार करके आने के लिए कहा। वह एक किलोमीटर से अधिक घूम कर आया।
गाड़ी आने पर हम उसमें विराजे और चल दिए। पाँच किलोमीटर पैदल चलने से गाड़ी का किराया क़रीब सत्तर रुपए बचा। एक किलो क़रीब चर्बी कम हुई होगी पसीने के रूप में।
घर आकर पसीने से भीगे कपड़े बदले और लद्द से बिस्तर पर पड़ गए। थोड़ी देर में खाना खाकर सो गए। जगे तो शाम हो गयी थी।

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Thursday, August 29, 2024

कोलकता का विक्टोरिया मेमोरियल



कोलकता प्रवास के दौरान एक दिन हम विक्टोरिया मेमोरियल हाल देखने गए। पहले भी देख चुके हैं। कई साल पहले। अंदर का कुछ याद नहीं। अलबत्ता बाहर के दृश्य जो याद में थे वे तमाम घोड़े थे। घुले में हिनहिनाते और कुछ बग्घी में जुते । शायद लोग इन पर सवारी करके शाही जेहनी तौर पर गए जमाने की सैर कर लेते होंगे।
विक्टोरिया मेमोरियल के सामने चौड़ी सड़क अभी भी अतिक्रमण रहित है। सुखद है। मेमोरियल के सामने गेट के बाहर ही एक आदमी बांस की बनी हैटनुमा टोपी बेंच रहा था। धूप तेज थी। टोपी पचास रुपए की एक। धूप, क़ीमत और टोपियों के रंगबिरंगे पन के संयुक्त प्रभाव के चलते कुछ टोपियाँ ख़रीदीं गयीं। टोपियों के बाद अंदर घुसने के पहले मेमोरियल को पीछे रखते हुए फोटोबाज़ी हुई। ताकि सनद रहे। मोबाइलों में कैमरों की मौजूदगी के चलते इमारतों को तसल्ली से देखने से अधिक उनके साथ फ़ोटो खिंचाना ज़्यादा ज़रूरी हो गया है।
मेमोरियल के गेट पर संगमरमर के दो शेर बने हैं। जिन शेरों को ज़िंदा हालात में देखकर इंसान की घिग्घी बंध जाए उनकी मूर्ति को लोग बिना कोई तवज्जो दिए अंदर घुसते जा रहे थे। सामने महारानी विक्टोरिया की मूर्ति लगी थी। जिन महारानी की याद में स्मारक बनाया गया और जिनके जीवित होने पर बड़े-बड़े राजे-महाराजे उनके सामने फ़र्सी सलाम बजाते होंगे उनको भी लोग बिना नमस्ते, सलाम होंगे उन महारानी की मूर्ति को लोग उचटती निगाह से देखते हुए अंदर की तरफ़ बढ़ रहे थे।
इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के जनवरी, 1901 में शांत हो जाने पर भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्ज़न ने महारानी की याद में स्मारक बनाने का सुझाव रखा। किसकी हिम्मत जो मना करे उस समय। उस समय के राजा महाराजाओं ने चंदा दिया। उस समय एक करोड़ पाँच लाख रुपए आए थे चंदे में।
विक्टोरिया मेमोरियल का शिलान्यास जार्ज पंचम द्वारा 4 जनवरी 1906 को किया गया। मेमोरियल के का काम मेसर्स मार्टिन एंड कंपनी, कोलकाता को सौंपा गया। 1910 में अधिरचना पर काम शुरू हुआ। निर्माण कार्य पूरा होने के बाद इसे औपचारिक रूप से 28 दिसम्बर, 1921 में जनता के लिए खोल दिया गया। इस बीच 1912 में ब्रिटिश भारत की राजधानी कोलकता से दिल्ली हो गयी।
विक्टोरिया मेमोरियल के वास्तुकार विलियम इमर्सन (1843-1924) थे जो रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स के अध्यक्ष थे।
मेमोरियल हाल का निर्माण के लिए संगमरमर उन्हीं खदानों से लाया गया जहां से ताजमहल के निर्माण के लिए लाया गया था। हाल का गुम्बद ताजमहल की ही तरह बनाया गया। ताजमहल की नक़ल करते हुए बनाए गए विक्टोरिया मेमोरियल गुम्बद का आकार (61 फ़ीट) ताजमहल के गुम्बद के आकार (60 फ़ीट) से थोड़ा बढ़ा दिया गया। इससे ताजमहल के गुम्बद से बड़ा गुम्बद बनाने का गर्व हासिल हुआ। यह भी एक तरह का सुख है।
पुरानी प्रख्यात इमारतों से बड़ी इमारतें, बड़ी मूर्तियां बनाने की होड़ हमेशा से चली आई है। आज भी जारी है।
विक्टोरिया मेमोरियल हाल में रानी विक्टोरिया की संगमरमर की मूर्ति लगी है। बीच हाल में दीवारों पर विक्टोरिया की उद्घोषणाएँ लगी हैं जिनके माध्यम से यह बताने की कोशिश की गयी थी कि वे जनता के हित के लिए न्यायप्रिय, कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध हैं।
हाल में ब्रिटिश काल की तमाम पेंटिंग्स, हथियार और दुर्लभ धरोहर मौजूद हैं। इनमें टीपू सुल्तान की तलवार और दीगर ऐतिहासिक चीजें शामिल हैं। पेंटिंग्स में उस समय के तमाम यादगार चित्र भी हैं जो ब्रिटिश लोगों के भारत में प्रवेश की कहानी बताते हैं।
विक्टोरिया मेमोरियल में 25 चित्र दीर्घाएँ हैं। इनमें शाही गैलरी, राष्ट्रीय नेताओं की गैलरी, पोर्ट्रेट गैलरी, सेंट्रल हॉल, मूर्तिकला गैलरी, हथियार और शस्त्रागार गैलरी और नई कलकत्ता गैलरी शामिल हैं।
विक्टोरिया मेमोरियल में थॉमस डेनियल (1749-1840) और उनके भतीजे विलियम डेनियल (1769-1837) के कार्यों का सबसे बड़ा एकल संग्रह है।इसमें दुर्लभ और पुरातन पुस्तकों का संग्रह भी है जैसे कि विलियम शेक्सपियर के कार्यों का सचित्र निरूपण, आलिफ़ लैला और उमर खय्याम की रुबाइयत के साथ-साथ नवाब वाजिद अली शाह के कथक नृत्य और ठुमरी संगीत के बारे में किताबें आदि।
डेनियल चाचा -भतीजे के चित्र और संग्रह आज से सौ साल से भी पहले के बने हैं। जिन जगहों के वे चित्र हैं वे अब अपने स्वरूप में इतनी बदल गयी हैं कि उनको देखकर पहचानने में मुश्किल होती है। लेकिन जिस तल्लीनता से ये चित्र बनाए गए हैं उनको देखकर ताज्जुब होता है कि डेनियल परिवार के लोगों ने भारत के विविध भागों के इतने खूबसूरत चित्र कैसे बनाए होंगे।
ऊपर के हिस्से में विप्लवी भारत हाल में भारत के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े दुर्लभ दस्तावेज और छायाचित्र मौजूद हैं। क्रांतिकारियो के हस्तलेख में लिखे लेख। क्रांतिकारी हिंदुस्तान रिपब्लिकन पार्टी का संविधान, क्रांतिकारियों की सूचना देने पर पर घोषित इनाम की खबर प्रकाशित करने वाला समाचार पत्र और तमाम सामग्री वहाँ मौजूद है।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संविधान में स्थापना का उद्धेश्य निम्नलिखित है:
"The object of the association shall be establish a Federated Republic of the United States of India by an organised and armed revolution."
एसोसिएशन का उद्देश्य संगठित और सशस्त्र क्रांति द्वारा संयुक्त भारतीय संघ गणराज्य की स्थापना करना होगा।
एसोसिएशन ने देश का संविधान बनाने का काम आज़ादी मिलने के बाद तय करने के लिए छोड़ दिया था।
विप्लवी अनुभाग में विभिन्न क्रांतिकारियों से जुड़े कार्यों के विवरण मौजूद थे। एक हिस्से में दिल्ली बम कांड, रास बिहारी बोस, सचीन्द्र नाथ सान्याल और काकोरी केस से सम्बंधित विवरण मौजूद थे। क्रांतिकारी दामोदर हरि चापेकर को फाँसी पर लटकाने के समाचार वाला अख़बार भी वहाँ मौजूद था। क्रांतिकारी सचीन्द्र नाथ सान्याल के हस्तलेख में अंग्रेज़ी के शब्दों के अर्थ लिखा एक पेज भी वहाँ दिखा। इसके अलावा और भी तमाम दुर्लभ दस्तावेज वहाँ मौजूद थे जिनको देखकर अंदाज़ा लगता है कि देश की आज़ादी के लिए हमारे पुरखों ने कितनी कुरबानियाँ दीं होंगी। कितने कष्ट सहे होंगे।
यह सब देखते हुए तक़रीबन तीन घंटे हो गए। बाहर निकले तो बारिश और धूप की जुगलबंदी हो रही थी। खूबसूरत बाग़ीचा देखते हुए हम बाहर निकले।
जो इमारत बनने में तक़रीबन ग्यारह साल लगे उसको पूरा तसल्ली से देखने के लिए कई दिन चाहिए। लेकिन अपन तो हड़बड़ी में देखते तीन घंटे में ही निकल आए। नायाब ऐतिहासिक इमारतें शायद इसी तरह देखी जाने के लिए अभिशप्त होती हैं।

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Wednesday, August 28, 2024

अत्र कुशलम तत्रास्तु



कल शहर जाना हुआ। शहर में रहते हुए शहर जाने की बात करना अटपटी बात है। लेकिन बात सही ही है। आर्मापुर शहर में होते हुए भी शहर से बाहर लगता है। वैसे है नहीं। शहर तो आर्मापुर से और दूर तक पसर गया है। लेकिन लगता है शहर के बाहर रहते हैं। लगना होने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
गए थे ओला से। ओला नहीं उबर से। किसी भी एप से बुक करें सवारी लेकिन मुँह से निकलता है -ओला से आए हैं। 110 रुपया बिल आया। 120 भुगतान किए। गाड़ी वाले भाई खुश हो गए। कहा -'लोग एक-एक रुपए की वापसी के लिए ज़िद करते हैं। आप जैसे भले लोग कम होते हैं।'
हमको लगा दस रुपए में भले आदमी का तमग़ा बुरा सौदा नहीं है। लोग तो करोड़ों , अरबों खर्च कर देते हैं अपनी इमेज चमकवाने में। जितनी बड़ी इमेज उतना ज़्यादा खर्च। इसी तरीक़े तमाम फ़र्ज़ी लोग न जाने कितने महान, क्रांतिकारी बन गए हैं।
डिस्पेंसरी में बोर्ड आधा उजड़ा हुआ था। उजड़ा नहीं उधड़ा हुआ। लगता है किसी ने नोच दिया हो। मानो सबूत नष्ट करने की कोशिश हो कि यहाँ कोई डिस्पेंशरी है।
डाक्टर से दवाई लिखवाने गए थे। दस मिनट में नम्बर आ गया। डाक्टर को दवाई के बारे में बताया। तीन साल से ले रहे हैं। बाहर से लेते हैं। आप लिख दीजिए। यहीं से मिलने लगे। दवा के महीने भर की 200 रुपए की पड़ती है। किराए का खर्च दवा से ज़्यादा है। लेकिन सिलसिला बना रहे इसलिए वहीं से लेना बेहतर।
रजिस्ट्रेशन करवाने में एक मिनट लगा। मोबाइल पर नम्बर आ गया। आधे घंटे बाद डाक्टर के पास जाने की बात थी। यह समय किसी भी डाक्टर के पास के इंतज़ारी समय से कम था। तीन से चार घंटे का वेटिंग टाईम मामूली बात है।
आधे घंटे से कुछ पहले ही हम चेम्बर में घुस गए। घुसते ही डाक्टर ने नाम पुकारा -'अनूप कुमार शुक्ला।' हम 'हाँ' कहते हुए डाक्टर के बग़ल के स्टूल पर बैठ गए। डाक्टर ने बीमारी पूछी। हमने बीमारी और दवा का विवरण बता दिया। यह भी कि तीन साल से ले रहे हैं। डाक्टर ने कंप्यूटर पर दवा देखी। दुविधा ज़ाहिर की -'पहली बार आए हैं। कैसे लिख दें दवा बिना जाँच के।' लेकिन फिर कुछ सोचकर दवा लिख दी।महीने भर की। बोले दो दिन बाद मिलेगी। ले लीजिएगा। हम उनको धन्यवाद देते हुए बाहर निकल आए।
दवा जहां मिलती है वहाँ पूछने गए। एक महिला पर सामने मेज़ पर रखे टिफ़िन से कुछ खाती हुई दिखी। इनका लंच चल रहा है सोचते हुए हमने अफ़सोस ज़ाहिर किया। लेकिन उन्होंने -'लंच नहीं, प्रसाद का रहे हैं। जन्माष्टमी का।लेव आपौ खाओ।' कहते हुए उन्होंने टिफ़िन हमारे आगे कर दिया।
हमने बिना प्रसाद ग्रहण किए धन्यवाद देते हुए दवा के बारे में जानकारी ली। बोली परसों मिलेगी। फिर दवा का डब्बा उठाते-धरते सहायक से पूछा -'परसों बुलाई कि नरसों? बताओ।' उसने कहा -'परसों। दस बजे।' हमने दोनों को संयुक्त धन्यवाद दिया। एक ही धन्यवाद में दोनों लोग निपटो। बाहर निकल आए।
बाहर एकदम नुक्कड़ पर चाय की दुकान थी। कुल्हड़ सजे थे। किसी सत्ताधारी पार्टी के बाहुबलियों सरीखे। (निरीह हुंडो को बाहुबली कहना ठीक नहीं। बाहुबली की जगह प्रवक्ता पढ़ें)
मन किया चाय पिया जाए। चाय का आर्डर दिया। इंतज़ार करने लगे चाय बनने का।
दुकान में दो लोग एक मोबाइल पर झुके कोई खेल खेल रहे थे। हमने भी झुककर देखा। वो दोनों लूडो खेल रहे थे। हमने पूछा -'फ़ोटो ले लें? वो बोले नहीं।' कहते हुए वे फिर झुक गए मोबाइल में। उनकी तल्लीनता देखकर लगा कि शायद वे कोई दांव भी लगा रहे थे।
कुछ देर बाद चाय बन गयी। हम खड़े-खड़े चाय पीते हुए उनको लूडो खेलते रहे। इस बीच हमने उनके फ़ोटो भी ले लिए। उनको दिखाए भी लेकिन वे इससे बेख़बर पाँसे फेंकने में जुटे रहे। चाय वाले ने फ़ोटो देखकर पास कर दिए।
वे सिर्फ़ लूडो खेल रहे थे या जुआँ हमको पता नहीं। लेकिन हमने यही सोचा कि जुआँ ही खेल रहे थे। दूसरे किसी के बारे में कोई अनुमान लगाना हो, ख़ासकर अनजान इंसान के बारे में, तो शुरुआत खराब माने जाने वाले से ही की जाती है। बाद में सही निकले तो क्लीन चिट दे दी। इस तरह दुनिया में अनगिनत आदमी अनजान लोगों के द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के इंतज़ार में जी रहे हैं ।
आज अख़बार में यह भी खबर पढ़ी कि देश में पाबंदी के बावजूद जुए का कारोबार बढ़ रहा है। यह लगा कि अगर वे लोग जुआँ खेल भी रहे थे तो देश का कारोबार ही बढ़ा रहे थे।
उन लोगों को लूडो खेलते देखकर ऐसे अनगिनत दृश्य याद आए जिनमें लोग अपने मोबाइल में डूबे दिखते हैं। समय गुज़ार रहे हैं, बिता रहे हैं। न जाने कितना समय बरबाद होता है देश में रोज़। परसाई जी ने एक लेख में लिखा था -'पूरा देश खाने के बाद कम से कम दो घंटे ऊंघता है।' आज परसाई जी होते तो लिखते -'आज देश की आबादी का बड़ा हिस्सा मोबाइल में घुसा जागते हुए सो रहा है। कुछ और करने को नहीं है तो यही कर रहा है।'
चाय की दुकान से पैदल वापस चले। हर गली में आगे बढ़ने पर रास्ता पूछते हुए। अपने शहर के बारे में कितना कम जानते हैं हम। पूछपूछ कर आगे बढ़ते हुए देश के बारे में भी सोचते रहे। देश के बारे में निर्णय लेने वाले भी अपने मालिकों से पूछपूछकर ही निर्णय लेते हैं। कभी हल्ला मचता है तो कदम वापस खींच लेते हैं।
एक गली में सड़क पर एक बच्चा पतंग लिए खड़ा था। हाथ में माँझा। वह एक दूसरी पतंग को पाने की फ़िराक़ में था। दूसरी पतंग के दुकान के छज्जे में फँसी थी। बच्चे की पहुँच छज्जे तक नहीं थी। आने-जाने वालों से पतंग निकालने के लिए अनुरोध कर रहा था। पतंग बच्चे की नहीं थी लेकिन उसको निकालने का अनुरोध करते हुए उस पर अपना मालिकाना हक़ उसने जमा लिया था।
पूरी दुनिया में यही हो रहा है। जो चीज़ पूरे देश/दुनिया की है उसकी रक्षा करने का हल्ला मचाते हुए उस पर क़ाबिज़ हुए जा रहे हैं। एक से एक लफ़ंडर, आवारा, बाहुबली लोग देश की रक्षा का नारा लगाते हुए देश की फ़िज़ा को बरबाद कर रहे हैं।
बहरहाल कुछ देर तक बच्चे की कोशिश को नाकाम होते देखने के बाद अपन ने भी डंडा हाथ में लिया । तीन -चार कोशिश के बाद पतंग नीचे आ गयी। बच्चे ने उसको अपने क़ब्ज़े में लिए और खुश हो गया।
हमने बच्चे की फ़ोटो लेने के लिए कहा। वह सावधान मुद्रा में खड़ा हो गया। हमने उससे पतंग सीने पर लगाने को कहा। उसने सीना फुलाकर गरदन ऊँची कर ली। इतनी ऊँची कि वह ऊपर की तरफ़ कुछ टेढ़ी सी हो गयी। अकड़ सी गयी। एकदम गर्वीली मुद्रा। हमने सहज मुद्रा में खड़े होने को कहा। उसने फ़ोटो खिंचाई और भागता चला गया। दो पतंग क़ब्ज़े में लेने का सुख उसके चेहरे पर चमक रहा था।
आगे पैदल चलते हुए हम विजय नगर तक आए। हर जगह लोग ऊँधते-सूंघते दिखे। पैदल चलते हुए यह दिखा। पैदल चलते हुए अलग नज़ारे दिखते हैं। गाड़ी से आते-जाते नहीं दिखते। शहर में गाड़ी से घूमना ऐसा ही है जैसा महानुभाव का किसी प्रदेश की बाढ़ का हवाई सर्वेक्षण।
विजय नगर तक हमारी काम भर की टहलाई हो गयी थी। अपन ने फिर उबर से ओला ख़रीदा और घर आ गए।
घर पहुँचकर सोचा किसी मित्र को पत्र लिखें। पत्र की शुरुआत करते हुये लिखें -‘अत्र कुशलम तत्रास्तु।’ लेकिन नहीं लिख पाए। कुछ आलस्य और बाक़ी कुछ बेवक़ूफ़ी में दिन बीत गया।ऐसे ही जीवन बीत जाता है।

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Tuesday, August 20, 2024

कानपुर से दिल्ली बजरिये तेजस और टैक्सी

 



कल तेजस से दिल्ली आए। जिस बोगी में हम लोग थे वो आधी खाली थी। कानपुर दिल्ली शताब्दी इसके पहले चलती है। तेजस का किराया शताब्दी के किराए से ड्योढ़ा है। ज्यादातर लोग उसी से निकल जाते होंगे। तेजस से वही लोग चलते होंगे जिनको शताब्दी में रिजर्वेशन नहीं मिलता होगा या फिर जिनको सुबह उठना खलता होगा।
हमारा कारण दूसरा था। अर्मापुर से स्टेशन की दूरी और सुबह निकलने के सहज आलस के चलते तेजस से आये।
सुबह निकल तो लिए समय पर। लेकिन आगे जरीब चौकी रेलवे क्रासिंग बंद मिली। समय पर्याप्त बचा था लेकिन फिर भी जब तक क्रासिंग खुली नहीं, सोचते रहे कहीं गाड़ी छूट न जाये।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक मालगाड़ी गुजरने के बाद क्रासिंग खुल गयी। आगे अनवरगंज के पास पंकज बाजपेई सड़क पर टहलते दिखे। पहली बार ऐसा हुआ कि उनको देखकर , उनसे मिलने के लिए रुके नहीं।
गाड़ी समय पर थी। रास्ता आराम से कटा। साथ लाई किताबों में से एक पढ़ने के लिए खोली। चार पन्ने पढ़े। बंद करके अखबार बांचा। इसके बाद आंख बंद करके सोते हुए यात्रा पूरी कर ली।
दिल्ली में ठहरने की जगह के लिए टैक्सी खोजी। दाम देखे। सोचा उतरकर ओला या उबर से टैक्सी करेंगे। लेकिन ट्रेन से उतरते ही लोकल टैक्सी वाले पीछे लग लिए। हर कदम पर हमको समझाते रहे कि हमारा सामान ज्यादा है। ओला में आएगा नहीं। हम उनकी बात सुनी-अनसुनी करके बाहर आ गए। वे भी साथ लगे रहे।
उबर बुक की तो टैक्सी वाले बोले वो अंदर आएगी नहीं। यहाँ का भी किराया देना होगा उसे। हमने उबर वाले से पूछा तो उसने भी बताया कि अंदर स्टैंड का किराया पड़ता है।
इस बीच एक टैक्सी वाले ने हम लोगों को कंजूस मानते हुए कहा-'दिल्ली आए हो तो पैसा तो खर्च करना होगा।'
उबर वाले ने आने में देरी की। इस बीच मोलभाव भी चलता रहा। आखिर में भावताव के बाद स्टेशन पर मौजूद टैक्सी से चलने की बात तय हो गई। सामान लादकर हम चल दिये।
टैक्सी चलने पर गर्मी लगी। हमने एसी चलाने को कहा। ड्राइवर ने कहा -'200 रुपये एक्स्ट्रा लगेगें।' हमने खिड़कियां खोल लीं। दुनिया का सबसे बड़ा एयरकंडीशनर हमारे लिए खुल गया। मुफ्त में।
ड्राइवर मजेदार अंदाज में अगल-बगल गुजरती गाड़ियों के ड्राइवरों पर कमेंट करता रहा। एक गाड़ी आगे रुकी थी। उसको देखकर बोला -'ये लगता है पूरी दिल्ली का ट्रैफिक निकाल कर ही आगे बढ़ेगा।'
एक ऑटो वाले को मच्छर कहकर मजाक किया। दोनों काफी दूर तक एक-दूसरे का पीछा करते हुए एक-दूसरे से हंसी-मजाक करते रहे। इस दौरान गाड़ी दाएं-बाएं भी घुमाते रहे सड़क पर। एक कार वाले ने टोंका इसके लिए तो बोले-'यहां आगे कोई बढ़ता ही नहीं तो क्या करें।'
एक जगह गाड़ी रोककर कुछ लेने गए। पान-मसाले की पूड़िया लटकी थीं दुकान पर। हमको लगा कि मसाले की पुड़िया लेने गए हैं। लेकिन लौटने पर देखा कि उनके हाथ में एक बिस्कुट का पैकेट था। उसे खाते हुए गाड़ी चलाते हुए वे हमको गेस्ट हाउस विदा करके चले गए।
जाते समय उनको भुगतान करने की बारी आई तो लगा कि जो पैसा वो शुरु में कह रहे थे वही जायज था। उसी हिसाब से भुगतान भी किया तो वे खुश हो गए और शुक्रिया कह कर गए।

Monday, August 19, 2024

डिजिटल अरेस्ट



कल मेरे पास एक संदेश आया कि क्या आप कोई जाब खोज रहे हैं? हमने लिखा नहीं। फिर आफ़र आया कि अगर चाहें तो २०३ रुपए प्रतिदिन से शुरू करके और भी कमा सकते हैं। २०३ रुपया प्रतिदिन मतलब एक अकुशल श्रमिक की दिहाड़ी से का लगभग एक चौथाई। हमने फिर मना किया। उसने फिर कहा - ‘सोच लो। अभी काम लग रहा मामला लेकिन आगे और बढ़ेगा पैसा।’
संदेश देने वाला अपने को गूगल का भारत का एच आर बता रहा था। हमको लगा कि बताओ गूगल वाले इतना चिल्लर काम बाँट रहे हैं। लगा कि गूगल ने भी कोई लाड़ले भैया स्कीम लाँच की है।
इससे आगे बात नहीं की। हमको लगा कि और बात की तो आगे के मेसेज में कोई लिंक आएगा। उस पर क्लिक करके काम ज्वाइन करने को बताया जा जाएगा। जैसे ही क्लिक किया वैसे ही हमारा काम लग जाएगा। हमारे पैसे कहीं और चले जाएँगे।
हमने नंबर ब्लाक किया और दूसरे काम में लग गए।
लिंक करके करके पैसे लूटने का तरीक़ा तो पुराना है। ओटीपी पूछकर खाता ख़ाली करना भी चलन में हैं। इसके चलते आनलाइन सामान ख़रीदने में डर लगने लगा है। हाल ही में इनकम टैक्स रिफ़ंड के लिए लिंक क्लिक करा के पैसे लूटने के किस्से भी सुनने में आए हैं।
इधर एक और नया तरीक़ा पता चला- डिजिटल अरेस्ट।
डिजिटल अरेस्ट के तरीक़े से पिछले दिनों SGPGI, लखनऊ की एसोसिएट प्रोफेसर के साथ साइबर फ्रॉड हुआ और इनसे 2.81 करोड़ रुपये का स्कैम किया गया। उनके पास फ़ोन आया कि उनके खाते से ऐसे लेनदेन हुए हैं जो आपराधिक प्रवृत्ति के हैं। उनसे कहा गया कि उनके खाते की जाँच हो रही है। उनके खाते के सारे विवरण ले लिए गए। यह भी कहा गया कि वे इस बारे में किसी को बताएँ नहीं अन्यथा उनके विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी। वे झाँसे में आ गयीं और उनके खाते से 2.81 करोड़ रुपए निकाल लिए गए। उन्होंने बाद में पुलिस को रिपोर्ट करायी। उन्होंने जिस तरह घटना का बयान किया उससे लगा कि वे उन लोगों के सामने एक आज्ञाकारी बालक की तरह फ्रॉड करने वालों के आदेश का पालन करतीं गयीं। लुटती गयीं। (लिंक कमेंट बक्से में बमार्फ़त Vivek Rastogi)
इस घटना के कुछ दिन पहले लखनऊ के ही प्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना जी को डिजिटली अरेस्ट किया गया। लूटने की कोशिश करने वालों ने उनको भला इंसान बताया गया। उनसे उनकी कविताएँ भी सुनी गयीं। उनसे पैसे ट्रांसफ़र करने को कहा गया। लेकिन नरेश सक्सेना जी इस झाँसे में नहीं आए। पैसे नहीं ट्रांसफ़र किए। उनके घर वालों को पता लगा तो उन्होंने फ़ोन काट दिया और वे साइबर फ्रॉड से बच गए। पैसे बच गए। डिजिटल गिरफ़्तारी की कोशिश करने वालों का समय खोटा हुआ।
नरेश सक्सेना जी की डिजिटल अरेस्ट का क़िस्सा काफ़ी चर्चा में रहा था। अख़बारों में भी आया था। शायद पढ़ नहीं पाईं होंगी एसजीपीजीआई की प्रोफ़ेसर साहिबा। पढ़ती तो लूटने से बच जातीं। इससे यह भी पता चलता है कि पुलिस से कितना डर है अपने यहाँ लोगों में।
डिजिटल अरेस्ट आर्थिक लूट का नया तरीक़ा है। किसी को डरा-धमका कर उससे पैसे लूट लिया। यह भी तभी सम्भव है जब पैसे ट्रांसफ़र करना आनलाइन सम्भव हो। पलक झपकते पैसे ट्रांसफ़र करना आसान हुआ तो एक झटके में पैसे लूट लिया जाना भी आसान हुआ। इस मामले में तकनीक कोई पक्षपात नहीं करती। लुटने वाले को और लूटने वाले को एक सी सुगमता प्रदान करती है।
डिजिटल अरेस्ट के इस तरीक़े में पैसे के नुक़सान तो पता चल जाता है। पैसे की लूट तो बचाई जा सकती है सावधान रहकर। लेकिन एक और तरह की डिजिटल अरेस्ट में हम फँसे हुए हैं। दिन रात जब मौक़ा मिले तब हम मोबाइल इंटरनेट की दुनिया में टहलते रहते हैं। मौक़ा न मिले तो भी निकाला जाता है। स्वयं डिजिटल गिरफ़्तारी के लिए खुद को पेश करते रहते हैं। बिना हथकड़ी के खुली जेल में अपनी डिजिटल गिरफ़्तारी देते हैं। कोई ज़मानत दिलाने की कोशिश करता है तो वह दुश्मन लगता है।
इस डिजिटल अरेस्ट के तमाम स्वरूप हैं। कोई सोशल मीडिया में लगा है, कोई रील बना रहा है, कोई सिनेमा देख रहा है, कोई बतिया रहा है, किसी को यूट्यूब की लत लगी है, कोई ब्रेकिंग न्यूज़ देखने में जुटा है। तमाम डिजिटल कुली अपनी-अपनी पार्टियों के समर्थन में और विरोधी पार्टी के ख़िलाफ़ पिले पड़े रहते हैं पोस्ट लिखने में, मेसेजिंग में। देश के देश इस डिजिटल ग़ुलामी में जुटे हुए हैं।
हमको लगता है कि पूरी दुनिया आज इंटरनेट में सिमट गयी है। वैसे तो इंटरनेट की दुनिया को आभासी दुनिया कहा जाता है। लेकिन आज के समय में यही रियल होती जा रही है। दुनिया में कहीं कुछ हो रहा है उसका होने का मतलब तभी है जब वह इंटरनेट पर भी अपनी हाज़िरी बजाए। इंटरनेट महाभारत की तरह हो गया है। जो दुनिया में है वह यहाँ भी है। जो यहाँ नहीं है वह समझ लिया जाए कि दुनिया में नहीं है।
लोग इंटरनेट के इतने आदी हो गए हैं कि बिना नेट के बेचैन होने लगते हैं। और कुछ आए न आए नेटवर्क आना चाहिए। कहीं पहुँचने पर सबसे पहले पूछे जाने वाले सवालों में ‘वाईफ़ाई का पासवर्ड’ होता है।
जिन लोगों को काम नहीं मिल रहा वे नेट पर जुटे हैं। सरकार के समर्थन या विरोध में नारे लगा रहा हैं। ‘समय बिताने के लिए करना है कुछ काम/शुरू करो नेटबाज़ी लेकर नेता जी का नाम’। घर में नहीं आटा माँग रहे हैं डाटा वाले हाल बने हुए हैं।
इंटरनेट की अधिकतर सेवा प्रदाता कम्पनियाँ अमेरिका में हैं। पूरी दुनिया को ये कम्पनियाँ अपनी गिरफ़्त में लिए हुए हैं। पूरी दुनिया को ‘डिजिटली अरेस्ट’ किए हैं। अपन को भी इस गिरफ़्तारी में मज़ा आ रहा है। डिजिटल ग़ुलामी का में जब मज़ा रहा तो इससे छुटकारे की कौन सोचे? डिजिटल दुनिया जग़र-मगर की दुनिया है। इसके चुंगल से बचना आसान नहीं।
यह तो हमारा सोचना हुआ। आप क्या सोचते हैं इस बारे में?

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Wednesday, August 14, 2024

जनता से कटे हुए शासकों का पतन अवश्यम्भावी होता है



[जब संस्थान खोखले और लोग चापलूस हो जायें तो जनतंत्र धीरे-धीरे डिक्टेटरशिप को रास्ता देता जाता है। फिर कोई डिक्टेटर देश को कुपित आंखों से देखने लगता है। तीसरी दुनिया के किसी भी देश के हालात पर दृष्टिपात कीजिये। डिक्टेटर स्वयं नहीं आता, लाया और बुलाया जाता है और जब आ जाता है तो प्रलय उसके साथ-साथ आती है।- खोया पानी]
पिछले दिनों बांगलादेश में सत्ता परिवर्तन हुआ। आंदोलनकारियों ने हसीना शेख़ की चुनी हुई सरकार को नकारकर उनको देश से भागने के लिए मजबूर कर दिया। देश में अराजकता की स्थिति पैदा हुई। अल्पसंख्यको पर अत्याचार होने लगे। उनके घर, सम्पत्तियों को नुक़सान पहुँचाया गया।
आंदोलनकारी छात्रों ने नोबल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का मुखिया बनाया। 84 वर्षीय मोहम्मद यूनुस ने अल्पसंख्यकों पर हिंसा रोकने की अपील की। यह भी कहा -'अगर अल्पसंख्यकों पर हिंसा न रुकी तो वे देश छोड़ देंगे।' बांगलादेश से आए समाचारों के अनुसार वहाँ हिंसा में कमी आई है। हिंसा रुकी है। बांगलादेश के एक समाचार पत्र के सम्पादक के अनुसार वहाँ के कट्टरपंथी संगठन ने भी हिंसा रोकने और अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों और सम्पत्तियों की रक्षा करना शुरू किया है।
मोहम्मद यूनुस ढाका के प्रसिद्ध मंदिर जाकर स्थितियों को सामान्य करने का प्रयास किया है। आज बीबीसी के एक वीडियो में दिखा कि ढाका शहर में हालात सामान्य हो रहे हैं। छात्र टैफ़िक पुलिस का काम कर रहे हैं। दूर-दराज के इलाक़ों में भी ऐसा ही हो रहा होगा। सम्भव है दूर के हिस्सों में हिंसा का प्रसार ही न हुआ।
बांगलादेश में पिछले पंद्रह वर्षों से शेख़ हसीना का शासन था। उनके कार्यकाल में बांगलादेश ने आर्थिक तरक़्क़ी के नए आयाम छुए थे। भारत-बांगलादेश सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। तमाम समस्यायों का निपटारा हुआ था। बांगलादेश में शेख़ हसीना की सरकार का अपदस्थ होना भारत के लिए एक मित्र देश की सरकार का अपदस्थ होना है।
बांगलादेश में सत्ता परिवर्तन के पहले तक वहाँ की कोई नकारात्मक खबर समाचारों में नहीं थी। सत्ता परिवर्तन होने के बाद तमाम पुरानी कहानियाँ सामने आने लगीं। शेख़ हसीना की सत्ता पर पकड़। उनके लोकतंत्र की आड़ में तानाशाह जैसे रवैए की कहानियाँ सामने आयीं। जिसने भी उनका विरोध किया उसको जेल में डाल दिया। नोबल पुरस्कार विजेता मोह्म्मद यूनुस भी जेल जा चुके थे। उनकी विरोधी ख़ालिद जिया कई वर्षों से जेल में थीं।
शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ आंदोलन 2018 से शुरू हुआ था। आरक्षण को लेकर शुरू हुआ आंदोलन अदालत के फ़ैसले के बाद समाप्त हो जाना चाहिए था। लेकिन लोगों के ग़ुस्से के कारण शायद और भी थे। सत्ता की हनक में शेख़ हसीना ने आंदोलनकारियों से बात करना भी गवारा नहीं किया। उनको 'रजाकार' (ग़द्दार) बताया। रजाकार इसलिए कि बांगलादेश के निर्माण के समय उन लोगों ने अवामी लीग का साथ देने के बजाय पाकिस्तान के साथ सहानुभूति प्रकट की थी। उसका साथ दिया था।
आंदोलनकारियों को 'रजाकार' कहने ने पेट्रोल में स्पार्क का काम किया। लोग भड़क गए। लोग सड़क पर उमड़ पड़े। प्रधानमंत्री आवास घेर लिया गया। शेख़ हसीना को बांगलादेश छोड़कर भागना पड़ा।
आंदोलन कारियों को ग़द्दार कहना उसी तरह से है जैसे अपने देश की आज़ादी के आंदोलन में अंग्रेजो का साथ देने वालों को आज ग़द्दार कहना।
लोगों ने इस सत्ता परिवर्तन की अपने-अपने हिसाब से व्याख्या की। सत्ता परिवर्तन में अमेरिका/चीन /पाकिस्तान का हाथ बताया। हाथ किसी का रहा हो लेकिन यह साफ़ है कि बांगलादेश की जनता का बड़ा हिस्सा उनके ख़िलाफ़ हो गया था। जिस अवामी लीग के वोटों से चुनकर वे प्रधानमंत्री बनी थीं उन लोगों की भी हिम्मत नहीं हुई कि अपनी प्रधानमंत्री के बचाव में सड़क पर उतरें।
दुखद स्थिति यह है कि अब देश के सभी तरफ़ पड़ोसियों से हमारे देश के सम्बन्ध भरोसेमंद नहीं हैं। सभी पड़ोसी देशों की सरकारें या तो हमारे देश के साथ तनावपूर्ण संबंध हैं या वे हमारे दुश्मन देशों के प्रभाव में हैं। यह हमारी विदेश नीति की असफलता है। हम या तो पड़ोसी देशों के अच्छे सम्बन्ध बनाने में असफल रहे या उनको दूसरे देशों के प्रभाव में जाने से रोक नहीं पाए।
अपने प्रधानमंत्री जी के भक्त उनके सम्मान में क़सीदे काढ़ने वाले लोग कहते हैं -'वे हैं तो मुमकिन हैं।' यही मुमकिन हुआ कि हमारे सारे पड़ोसी देश हमारे ख़िलाफ़ हो गए। यह बड़ी सफलता है।
बांगलादेश में हालिया सत्ता परिवर्तन के मूल में लोकतंत्र के चुने हुए शासक का अलोकतांत्रिक होते हुए तानाशाह होते चले जाना रहा। शेख़ हसीना ने देश के हर संस्थान पर अपने पिट्ठू बैठाए हुए थे। वे उनके इशारे पर काम करते थे। उनकी मर्ज़ी के बिना उन संस्थानों में पत्ता हिलना तो दूर, शायद हवा भी नहीं चलती थी। न्यायालय, विश्वविद्यालय, पुलिस सब जगह वही होता था जो शेख़ हसीना चाहती थी। यह किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए घातक होता है।
लोकतांत्रिक देशों में लम्बे समय तक शासक रहने वाले को भ्रम हो जाता है कि देश का भला केवल वही कर सकता है। इस मामले में अमेरिकी व्यवस्था सही है कि कोई भी राष्ट्रपति अधिकतम दस साल तक (दो कार्यकाल लिखना था। अमेरिका के संदर्भ में आठ साल ) रह सकता है। हर लोकतांत्रिक देश में यह व्यवस्था लागू होनी चाहिए।
लोकतंत्र में जिन लोगों को सत्ता मिलती है वे इससे चिपके रहना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि आजकल सत्ता से जुड़े रहने पर बेशुमार सम्पत्ति सुनिश्चित होती है। जो लोग किसी सरकार को चुनने के लिए पैसा देते हैं वे चाहते हैं कि सरकार बनी रहे ताकि वे पैसा पीटते रहें। मुनाफ़ा कमाते रहें। सत्ता और पैसेवालों का आपराधिक गठजोड़ दिन पर दिन मज़बूत होता जाता है।
आशा है कि अपने देश के लोग बांगलादेश की समस्या से सबक़ लेंगें। सबसे बड़ा सबक़ यह की उनको जो सत्ता मिली है वो सेवा के लिए मिली है। कमाई या तानाशाही के लिए नहीं। जनता का भला किससे होना यह बात जनता से जुड़ने पर ही पता चलती है। जो लोग जनता से कट जाते हैं उनका पतन देर-सबेर अवश्यम्भावी होता है। बड़े से बड़े नेता को इतिहास समय के कूड़ेदान में फेंक देता है।

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