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कुछ टिप्पणी चर्चा
By फ़ुरसतिया on December 26, 2007
कुछ दिन पहले श्रीलाल शुक्लजी के बारे में लिखी एक पोस्ट पर नितेश एस. जी की यह टिप्पणी थी-
शास्त्रीजी की टिप्पणी का कुछ ऐसा होता है कि वह हमेशा स्पैम में पाई जाती है। मामला आचार संहिता का बनता है। ये कुछ ऐसा ही है कि धर्मोपदेशक आचार-सदाचार की बातें करते-सकते अनायास अनाचार करते रहने वालों के मोहल्ले में पाया जाय। आखिर उसको उनका भी उद्धार करना है। वे भी खुदा के बंदे हैं। पहले अतुल की कुछ टिप्पणियां भी स्पैम में मिलीं। ऐसा कैसे होता है? क्या ई-मेल पते में कुछ लफ़ड़ा होता है। शास्त्रीजी ने टिपियाते हुये कहा-
रविरतलामीजी ने बहुत कठिन मांग रखी है। उन्होंने लिखा-
जब से राखी सावंत नच बलिये में दूसरी नम्बर पर आयीं आलोक पुराणिक दुखी से हैं। उनको अच्छा नहीं लग रहा है। उनको डर भी लग रहा है कि राखी सावंत भी उनसे जब भी मिलेंगी पूछेगी- आपने भी मुझे एस.एम.एस. नहीं किया! आप बड़े बेवफ़ा हैं। लगता है आप दिल से मेडोना टाइप ग्लोबल सुन्दरियों से जुड़ने लगे हैं। देशी लगाव का केवल बहाना करते हैं सरोकार आपके परदेशी हैं।
ज्ञानजी यहां जो कहते हैं सो कहते ही हैं वे वहां चिट्ठाचर्चा में भी मौज लेते रहते हैं। दो दिन पहले की पोस्ट में उन्होंने लिखा-
कुछ दोस्तों ने राय जाहिर की है कि चिठेरा-चिठेरी में हम जो लिखते हैं वह महिलाओं को ‘हर्ट’ करता है। क्या सच में ऐसा है? यही सोचते हुये हमने अभी तक अगली सूटिंग नहीं की इन हीरो-हीरोइन को लेकर। सारा मेकअप का पैसा बरबाद हो गया। इसी लफ़ड़े में न जाने कितने डायलाग बेजार-बेकार हो रहे हैं। कुछ मुलाहिजा फ़र्मायें। यहां चिठेरा-चिठेरी आपस में भन्नाये हुये कि ज्ञानजी के हाथ में उनकी फोटो कैसे पड़ी! एक का मत है कि ज्ञानजी अब नौकरी पर ध्यान कम देते हैं, स्टिंग आपरेशन में ज्यादा
रुचि ले रहे हैं। दूसरा कहता है कि ये फोटो जानबूझकर लीक कराई गयी है ताकि रेटिंग बढ़े। दोनों एक दूसरे को कोस रहे हैं-
चिठेरा- जा ,तू ब्लागरों में इलाकाई हो जा।
चिठेरी- जा, तू बांगलादेश में भाजपाई हो जा।
चिठेरा-जा, तू पब्लिक स्कूलों में हिन्दी की पढ़ाई हो जा।
चिठेरी-जा, तू किसी बंद ब्लाग से विज्ञापन की कमाई हो जा।
हम विचार कर रहे हैं कि ये डायलाग किस तरह से महिलाओं को ‘हर्ट ‘करते हैं।
चिट्ठाचर्चा में , पेशे से जर्नलिस्ट ,देवप्रकाश चौधरी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है-
इसी बहाने एक सच्ची घटना याद आ गयी। करीब आठ-नौ साल पहले जब हम शाहजहांपुर में थे तो दफ़्तर में हेडक्वार्टर से आया एक पत्र मिला। उसका जबाब तुरन्त जाना था। दोपहर को बास से बात करने गये। बास न जाने किस बात भन्नाये हुये थे। शायद उनको भी पत्र अबूझमाड़ लगा होगा। वे छूटते ही बोले- तुमने इसे पढ़ा तो है नहीं इसका जबाब कैसे लिखोगे?
हम भी तुरन्ता जबाब दे दिये- देखिये साहब , आप ये नहीं कह सकते कि हम इसे पढ़े नहीं हैं। आप शायद एक बार भी न पढ़े हों लेकिन हम इसे दो बार पढ़ चुके हैं। अब ये अलग बात है कि हमें इसकी अंग्रेजी समझ में न आयी हो ।या फिर हमारी और आपकी समझ में अलग-अलग आया हो। आखिर अंग्रेजी-अंग्रेजी में फ़रक होता है।
साहब शरीफ़ थे। बेचारे चुपा गये। क्या बोलते। पेंसिल मुंह में लालीपाप की तरह चूसते हुये जबाब सुधारने में जुट गये।
हम भी शरीफ़ बनने के प्रयास हैं। यह पोस्ट इधर ही रोकते हैं। दफ़्तर जाना है जी।
हिन्दी मे इतना जबरदस्त माल नेट पर उपलब्ध है, सोचा न था. ज्ञानदत्त जी और आप सभी के ब्लोग्स को कुछ ही दिन पहले नारद द्वारा देखने का मौका मिला.तिस पर शुक्ल जी के रागदरबारी के बारे में पड़ कर, हिन्दी साहित्य का मेरा पुराना सोया हुआ कीडा फिर जाग्रत हो गया है.आप देखिये कि हम लोगों (अरे आप भी शामिल हैं हममें) ब्लागिंग से लोगों के साहित्य के कीड़े जाग रहे हैं। मतलब ब्लागिंग को ऐसा-वैसा न समझो ये बड़े काम की चीज है।
रागदरबारी ले आया हूँ. पता नहीं मेरी मेडिकल की बुक्स का क्या होगा
शास्त्रीजी की टिप्पणी का कुछ ऐसा होता है कि वह हमेशा स्पैम में पाई जाती है। मामला आचार संहिता का बनता है। ये कुछ ऐसा ही है कि धर्मोपदेशक आचार-सदाचार की बातें करते-सकते अनायास अनाचार करते रहने वालों के मोहल्ले में पाया जाय। आखिर उसको उनका भी उद्धार करना है। वे भी खुदा के बंदे हैं। पहले अतुल की कुछ टिप्पणियां भी स्पैम में मिलीं। ऐसा कैसे होता है? क्या ई-मेल पते में कुछ लफ़ड़ा होता है। शास्त्रीजी ने टिपियाते हुये कहा-
सन 2007 में इतना लिखा कि लगभग सारा मसाला खतम सा हो गया था एवं खाली हुए भेजे को 2008 की फिकर खाये जा रही थी की भईया अब भला क्या लिखोगे!! देवयोग से इस लेख पर नजर पड गई एवं कम से कम साल भर लिखने के लिये तकनीक मिल गई है. बीच बीच में इस तरह का मसाला देते रहें, हम सब का कल्याण हो जायगा!!! – शास्त्रीअब आप देखिये शास्त्रीजी ने मेरी पोस्ट के कन्धे पर रख कर बन्दूक चला दी है। अगले साल वे जो कुछ भी लिखेंगे लोग यही समझेंगे कि अगर उनको फ़ुरसतिया तकनीक न पता चलती तो इतना सब न लिख पाते। उन्होंने गंभीर से गंभीर पाठक के लिये हास्य जरूरी बता दिया है। आपको हंसना शुरू कर देना चाहिये।
पुनश्च: गंभीर से गंभीर पाठक/चिंतक के जीवन में भी हास्य का होना जरूरी है. काश कुछ और चिट्ठाकर इस विधा को समझ लें तो रोज कुछ न कुछ “मानसिक ऊर्जा” मिलती रहेगी.
रविरतलामीजी ने बहुत कठिन मांग रखी है। उन्होंने लिखा-
अब अगले पोस्ट में फुरसतिया टाइप सफल ब्लॉगिंग करने के अतिसुगम उपाय बताएँ तो हमारा भी कुछ फायदा हो. क्योंकि ऊपर बताए सब उपाय हमने आजमा लिए और हमारे लिए अब तक कोई भी मुफीद नहीं बैठा हैअब आपै बताओ कि उनकी मांग कैसे पूरी की जाये? वे एक तो फ़ुरसतिया टाइप ब्लागिंग के सूत्र जानना चाहते हैं। उसको सफ़ल भी बनाना चाहते हैं। और इन सब के लिये एकदम्मै सुगम उपाय जानना चाहते हैं। कित्ता मुश्किल है ई सब बताना? हम फ़ुरसतिया टाइप ब्लागिंग के सुगम उपाय बता सकते हैं लेकिन सफ़ल ब्लागिंग के कैसे बता सकते हैं? हम तो असफ़ल ब्लागर हैं जिससे चार दिन में एक ठो पोस्ट नहीं ठेली जाती।
जब से राखी सावंत नच बलिये में दूसरी नम्बर पर आयीं आलोक पुराणिक दुखी से हैं। उनको अच्छा नहीं लग रहा है। उनको डर भी लग रहा है कि राखी सावंत भी उनसे जब भी मिलेंगी पूछेगी- आपने भी मुझे एस.एम.एस. नहीं किया! आप बड़े बेवफ़ा हैं। लगता है आप दिल से मेडोना टाइप ग्लोबल सुन्दरियों से जुड़ने लगे हैं। देशी लगाव का केवल बहाना करते हैं सरोकार आपके परदेशी हैं।
ज्ञानजी यहां जो कहते हैं सो कहते ही हैं वे वहां चिट्ठाचर्चा में भी मौज लेते रहते हैं। दो दिन पहले की पोस्ट में उन्होंने लिखा-
एक जोरदार फोटोयुग्म हमने भी लगाया था आज – इस चर्चा में छपनीय! आपने सेंसर कर दिया!अब आप देखिये वे अपनी पोस्ट में लिखते क्या हैं-
वैसे इस पुच्छल्ले पर लगाने के लिये “अनूप शुक्ल” का गूगल इमेज सर्च करने पर दाईं ओर का चित्र भी मिला। अब आप स्वयम अपना मन्तव्य बनायें। हां, सुकुल जी नाराज न हों – यह मात्र जबरी मौज है!Red heartआप ऊपर वाला का फोटो देखें। अब आप ही बतायें कि हम इत्ते क्यूट लगते हैं जित्ती क्यूट ये फोटो ये है। लेकिन हम सोचते हैं कि अगर इस फोटो को चिठेरा-चिठेरी बताया जाये तो कैसा रहेगा।
कुछ दोस्तों ने राय जाहिर की है कि चिठेरा-चिठेरी में हम जो लिखते हैं वह महिलाओं को ‘हर्ट’ करता है। क्या सच में ऐसा है? यही सोचते हुये हमने अभी तक अगली सूटिंग नहीं की इन हीरो-हीरोइन को लेकर। सारा मेकअप का पैसा बरबाद हो गया। इसी लफ़ड़े में न जाने कितने डायलाग बेजार-बेकार हो रहे हैं। कुछ मुलाहिजा फ़र्मायें। यहां चिठेरा-चिठेरी आपस में भन्नाये हुये कि ज्ञानजी के हाथ में उनकी फोटो कैसे पड़ी! एक का मत है कि ज्ञानजी अब नौकरी पर ध्यान कम देते हैं, स्टिंग आपरेशन में ज्यादा
रुचि ले रहे हैं। दूसरा कहता है कि ये फोटो जानबूझकर लीक कराई गयी है ताकि रेटिंग बढ़े। दोनों एक दूसरे को कोस रहे हैं-
चिठेरा- जा ,तू ब्लागरों में इलाकाई हो जा।
चिठेरी- जा, तू बांगलादेश में भाजपाई हो जा।
चिठेरा-जा, तू पब्लिक स्कूलों में हिन्दी की पढ़ाई हो जा।
चिठेरी-जा, तू किसी बंद ब्लाग से विज्ञापन की कमाई हो जा।
हम विचार कर रहे हैं कि ये डायलाग किस तरह से महिलाओं को ‘हर्ट ‘करते हैं।
चिट्ठाचर्चा में , पेशे से जर्नलिस्ट ,देवप्रकाश चौधरी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है-
टिप्पणियां अच्छी हैं, लेकिन बिना पढ़े टिप्पणी करना रस्म अदायगी की करह लगता है। हर ब्लॉग पर टिप्पणी करने से पहले उसे पढ़ें भी। किस नाम का ब्लॉग है, लेखक कौन है,क्या लिखा है….धन्यवादहम बूझ ही न पाये कि किसकी टिप्पणियों के लिये ये बात कही गयी? हमारे वनलाइनर के लिये या पाठक की टिप्पणियों के लिये। वैसे सच तो यह है कि पाठक बादशाह होता है। उससे यह नहीं कहा जा सकता है पहले पढ़े फिर लिखे। उसकी जो मन में आयेगा वह करेगा!
इसी बहाने एक सच्ची घटना याद आ गयी। करीब आठ-नौ साल पहले जब हम शाहजहांपुर में थे तो दफ़्तर में हेडक्वार्टर से आया एक पत्र मिला। उसका जबाब तुरन्त जाना था। दोपहर को बास से बात करने गये। बास न जाने किस बात भन्नाये हुये थे। शायद उनको भी पत्र अबूझमाड़ लगा होगा। वे छूटते ही बोले- तुमने इसे पढ़ा तो है नहीं इसका जबाब कैसे लिखोगे?
हम भी तुरन्ता जबाब दे दिये- देखिये साहब , आप ये नहीं कह सकते कि हम इसे पढ़े नहीं हैं। आप शायद एक बार भी न पढ़े हों लेकिन हम इसे दो बार पढ़ चुके हैं। अब ये अलग बात है कि हमें इसकी अंग्रेजी समझ में न आयी हो ।या फिर हमारी और आपकी समझ में अलग-अलग आया हो। आखिर अंग्रेजी-अंग्रेजी में फ़रक होता है।
साहब शरीफ़ थे। बेचारे चुपा गये। क्या बोलते। पेंसिल मुंह में लालीपाप की तरह चूसते हुये जबाब सुधारने में जुट गये।
हम भी शरीफ़ बनने के प्रयास हैं। यह पोस्ट इधर ही रोकते हैं। दफ़्तर जाना है जी।
Posted in बस यूं ही | 13 Responses
हमें भी नियमित और सफल ब्लॉगर बनने के गुर सीखने हैं। हमारे लिए कुछ अलग टाइप के फंडे सोचकर बताइए, पुराने फंडों के लायक हम नहीं हैं।
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येल्लो, चिठ्ठाजगत में इलाकाई होना बद-दुआ का मामला है? अब तो मुझे खोजना पड़ेगा कि मेरी कितनी पोस्टों को उन्होने इलाकाई मॉडरेट किया है। आपने बता दिया, अच्छा किया। अब जबलपुर पर पोस्ट लिखूंगा तो उसमें दो-दो लाइन जकार्ता और जोहानसबर्ग पर भी ठेल दूंगा!
भाई साहब इतना अच्छा लिखकर हमें पड़ने को इतना मजबूर करेंगे तो हमारे बेचारे मरीजों का क्या होगा?
फिलहाल रागदरबारी को इस तरह पन्ना पन्ना पड़ रहे हैं जैसे कोई महंगी ब्रांडी कड़ाके की ठंड में घूँट घूँट कर पीता है, और डरता है की ख़त्म हो गई तो क्या होगा. अरे भाई कोई श्रीमान श्रीलाल शुक्ल साहब से ये कहे की इतनी छोटी क्यों बनाईं. मेरी मेडिकल की बोरिंग किताबें तो ३-४ हज़ार पन्नों से कम की नहीं होती.
अमृत इतना थोड़ा क्यों?
आप इतना ठाँस दिहो है,
कि हमार मुंह खुलै के खुला ही रह गवा ।
हम मूढ़मति का एक बात श्पष्टै कईं दियें ,महराज ।
ई बिलागर का कबौ परमोशन हुई तौ उई का बनी ?
खैर हटाओ जउनो बने, तो आप उहै बन जाओ।
काहे कि कउनो एग्रीगेटर एहिका प्रावीजन नहीं रक्खिस है
अउर हमार एक डिजर्विंग कन्डिडेट रहा जा रहा है, ई चक्कर मा !
और भला दुई हज़ारी सम्मान बरै आप एम०पी० तो जईहो ना !
ऐसा न करें. जबरिया ही लिखे. आप कहते हैं कोई आपका क्या करेगा. क्यों नहीं करेगा. आपका पढेंगे!!
– शास्त्री
पुनश्च: कहीं किसी कारण मेरी टिप्पणीयों को एक अमरीकई स्पेम तंत्र पकड रहा था जो कई चिट्ठों में काम आता है. उम्मीद है जनवरी अंत तक समस्या हल हो जायगी.