Tuesday, October 31, 2023

रागिनी टाइम्स से बातचीत

 यू ट्यूब चैनल रागिनी टाइम्स के माध्यम से Ragini शाहजहाँपुर और आसपास की खबरों की जानकारी देती रहती हैं।रागिनी शाहजहाँपुर की अकेली रजिस्टर्ड महिला पत्रकार हैं। पिछले दिनों मुलाक़ात हुई तो रागिनी ने पत्रकारिता जीवन के अनुभव और संघर्ष के बारे में जानकारी दी। एयरहोस्टेस बनने के सपने के साथ जीवन शुरू करने वाली रागिनी का सपना है कि वो कुछ ऐसा कर जाएँ की लोग उनको याद करें। “किसके जैसा बनना चाहती हैं?” के जबाब में रागिनी ने जो बताया उससे कानपुर के भगवती चरण दीक्षित ‘घोड़ेवाला’ की बात याद आ गई:

चलो न मिटते पदचिह्नो पर,
अपने रस्ते आप बनाओ।
बहरहाल आप सुने बातचीत और बताएँ कैसा लगा बिना किसी तैयारी के लिया गया रागिनी का इंटरव्यू? ठीक लगे तो रागिनी टाइम्स को सब्सक्राइब भी करें। रागिनी को शुभकामनाएँ।

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Thursday, October 19, 2023

तुम बदल गये हो



आज सुबह की चाय धूप में पी। सामने सूरज भाई दिखे। पेड़ पीछे छिपे। लगता है सुंदर कांड पढ़े हैं हाल में। ‘तरु पल्लव माँ रहा लुकाई’ पढ़कर पेड़ के पीछे छिप गये। सोचे होंगे हनुमान जी बन जाएँगे। लेकिन ऐसा कहीं होता है दुनिया में। कौन समझाए। आजकल कैसी को समझाना भी बवाल है।
बहुत बाद मिले थे सूरज भाई। सोचा शिकायत करेंगे। कहेंगे -‘तुम बदल गये हो।You have changed.’
दोस्तों का प्यार जताने का अपना-अपना अन्दाज़ होता है। कोई पूछता है -‘कैसे हो?’कोई कहता है -‘क्या हाल?’ कोई कहता है -‘दिखते नहीं आजकल।’ ये सब आम अन्दाज़ होते हैं। बहुत अपनापे वाले मित्र के अपने ख़ास अन्दाज़ होते हैं। सिग्नेचर स्टाइल। ‘तुम बदल गये हो’ की शिकायत से बात शुरू होने पर लगता है कि कुछ भी नहीं बदला।
कुछ बोले नहीं सूरज भाई। चमकाते रहे धरती को। हमें भी कुछ सूझा नहीं तो बोल दिया -‘स्मार्ट लग रहे हो।’
कुछ न सूझे तो सामने वाले की किसी भी बात की तारीफ़ करके बात शुरू करना सबसे सुरक्षित होता है। तारीफ़ सुनकर पत्थर भी मुलायम हो जाता है। पानी बन जाता है। तारीफ़ ऐसा ब्रहमाष्त्र होता जिसकी मार से बचना असंभव होता है।
सूरज भाई कुछ बोले नहीं। लेकिन देखकर लगा लाज-लाल हो गये हैं। तारीफ़ सुनकर कुछ न बोलना भी एक अदा है। बड़े लोगों की हर हरकत एक अदा होती है। उनकी हर अदा पर उनके अनुयाई मरते हैं। ज़रूरी नहीं कि अदा अच्छी ही हो। लोग तो अपने नायकों की बुरी अदा पर भी मरते हैं। नायक की चिरकुटई पर मरते हैं। झूठ बोलने की अदा पर मरते हैं। उनकी कमीनगी पर मरते हैं।
ऐसा शायद इसलिए होता है कि लोग अपने नायक के माध्यम से अपनी उन इच्छाओं को पूरा होते देखते हैं जो उनकी ख़ुद की होती हैं लेकिन वो ख़ुद कर नहीं पाते। उनका नायक उसको करता है। अपनी इच्छा को नायक के माध्यम से पूरी होते देख वे तड़ से नायक के अनुयायी बन जाते हैं। उसकी अदा पर मर जाते हैं।
सूरज भाई कुछ बोले नहीं। काम से लगे रहे । हमने सोचा कितना ज़िम्मेदारी से काम करते हैं सूरज भाई। ये न हों तो दिन न निकले। नंदन जी कहते भी हैं:
‘जिसे दिन बताये दुनिया , वो तो आग का सफ़र है,
चलता तो सिर्फ़ सूरज है , कोई दूसरा नहीं है ।’
देखते -देखते सूरज भाई ऊपर होते गये। पूरी दुनिया में रोशनी और गरमाहट सप्लाई करने लगे। हमने भी इधर-उधर देखना शुरू किया।
जिस जगह बैठे थे वहाँ से घर के बाहर लॉन में खड़ा पेड़ दिखा। ऐसा लगा कि पेड़ घर के सामने हाथ जोड़कर खड़ा है। सुबह की नमस्ते कर रहा हो। किसी बड़े नेता के चिल्लर चमचे की मुद्रा में उसका पत्ता -पत्ता कह रहा था -‘तुमको जो पसंद हो वही बात करेंगे/तुम दिन को कहो रात तो रात कहेंगे।’
यह गाना जब सुना था तो लगा था कितना लगाव वाला भाव है। लेकिन आज लगा कि लगाव नहीं यह ख़ुद का बचाव है। जैसे राजनीति में पार्टियां व्हिप जारी करती हैं। सब लोग पार्टी लाइन के हिसाब से चलते हैं। अलग हुए तो पार्टी बदर। इसी भाव के घराने का गीत है यह -‘तुमको जो पसंद है वही बात करेंगे।’
घर के सामने झुके खड़े पेड़ को देखकर यह भी लगा मानो आलाकमान के सामने कोई टिकटयाचक विनयवत चुपचाप मौन खड़ा हो। उसके मौन के रोम-रोम से चीत्कार निकल रही हो -‘ तू दयालु दीन हौ, तू दास हौ भिखारी।’
जनसेवा का काम आसान नहीं होता है। ‘एक आग का दरिया है और डूब के जाना है’ घराने का काम होता है।
कुछ देर बाद पेड़ को फिर देखा तो उसकी शक्ल डायनाशोर सरीखी लगी। डायनाशोर तो निपट गये न जाने कितने पहले। अब पेड़ बेचारा खड़ा मकान के सामने विनय पूर्वक अपनी जान की अमान माँग रहा है। उसको लगता होगा कि यह चाहेगा तो वह बचा रहेगा। उसको क्या पता कि मकान तो बना ही बेजान चीजों से है। जबकि वह ख़ुद ज़िंदा है। लेकिन पेड़ को कौन समझाए। डरा हुआ है बेचारा। डरा हुआ जीव तो जो भी सामने दिखता है उसके सामने झुक जाता है। जान की भीख माँगने लगता है। उसको क्या पता कि सामने वाला भी उतना ही निरीह है। कैसी के मोहरे हैं। उसके कातिल तो कहीं और बैठे तमाशा कर रहे हैं।
पेड़ की बात सोचकर हमको दुनिया भर में अपनी ज़िंदगी की जंग लड़ते अनगिनत लोग याद आते हैं। वो न जाने किसके सामने झुककर अपनी ज़िंदगी बचाने की कोशिश में जुटे होंगे। उनके कातिल न जाने कहाँ बैठे उनके क़तल का इंतज़ाम पुख़्ता करते हुये उनके बचाव की योजनाएँ बनाने का दिखावा कर रहे होंगे। शातिर क़ातिलों की यही अदा है।
सुबह सुबह कहाँ क़त्ल और क़ातिलों का ज़िक्र आ गया बातचीत में। सूरज भाई आसमान से मुस्कराते हुए कह रहे हैं -‘ तुमने बेवक़ूफ़ी का दामन मज़बूती से थाम रखा है। अभी तक बदले नहीं ।’

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Wednesday, October 11, 2023

मेरा दिल ये पुकारे आ जा



शाहजहांपुर से वापस लौटने के पहले पंकज से मिलने गए। एक दिन पहले बातचीत के दौरान रागिनी Ragini ने बताया कि पंकज हमको याद करता है। उसी समय सोचा था कि जाने से पहले मिलेंगे पंकज से।
पंकज से मुलाकात कोरोना काल के दौरान हुई थी। गाने के शौकीन पंकज का अपना बैंड था -'शंकर बैंड।' उधार लेकर बैंड बनाया था। कोरोना काल में शादी-ब्याह में बैंड-बाजे बजे नहीं। काम बंद हो गया। कर्जा चुकाने के लिए बैंड के सब आइटम बेचने पड़े। रोजी-रोटी के लिए चाय की दुकान पर आ गए। गाने का शौक बरकरार रहा। जब भी जाते थे चाय पीने, पंकज का गाना जरूर सुनते थे।
कोरोना काल में तमाम लोगों के रोजगार तबाह हुए। होटल वाले, टूरिस्ट, ट्रांसपोर्ट और तमाम काम ठप्प हो गए। लोगों को लोन की किस्तें चुकाने के लिए गाड़ियां बेंचनी पड़ी। तमाम लोगों को लिए कोरोना एक भयावह याद की तरह है। लोग अभी भी उसके सदमे से उबर नहीं पाए हैं।
पंकज से सुबह मिलने के लिए गए। शाहिद रजा Shahid Raza जी को भी साथ ले लिया कहते हुए चलो बाहर चाय पीते हैं। गए जब तो पंकज का चाय का ठेला कहीं दिखा नहीं। हमे लगा शायद उसकी दुकान बंद हो गयी। लौट आये बिना चाय लिए।
शाहजहांपुर से चलते हुए हालांकि देर हो गयी थी लेकिन सोचा कि एक बार देखते हुए जाएं शायद पंकज की दुकान खुल गयी हो।
गए तो देखा दुकान खुली थी। पंकज के पापा थे दुकान पर। अब दुकान ठेले पर नहीं पक्की जगह थी। यह दुकान पहले किराए पर दी थी। किरायेदार का उधार था। वह चुकाकर उससे दुकान खाली करवाई और दुकान शुरू की। दुकान में बैठने की जगह भी थी। कुछ लोग अंदर बैठे चाय पी रहे थे। पीछे दुकान का नाम भी लिखा था -Yes tea.
पंकज ने बताया कि उनकी दुकान अब अच्छी चल रही है। बड़े भगौने में रखे दूध की तरफ इशारा करते हुए बताया -'सब दूध खत्म हो जाता है। शाम को फिर आता है। देर रात , ग्यारह-बारह बजे तक चलती है दुकान।
देर रात दुकान चलने के कारण ही सुबह देर से खुलती है दुकान।
पंकज ने बताया कि अब मम्मी की तबियत ठीक रहती है। बैंड वाले दोस्त जिससे थोड़ा मन-मुटाव था उससे भी फिर से दोस्ती हो गयी है। शादी के लिए मम्मी लड़की देख रही हैं। लड़की कैसी चाहिए पूछनी पर बताया -'जो घर में सबके साथ एडजस्ट करके चल सके।'
दांत कुछ साफ दिखे बालक के। पूछने पर बताया -'अब मसाला खाना बंद कर दिया। ' मुंह खोलकर दिखाया भी। मुंह में अधचुसा कम्पट जीभ की पिच पर पड़ा दिख रहा था।
मसाला खाना बंद कैसे किया ?पूछने पर बताया -'लगता था कि खराब आदत है। आप भी समझाते थे। फिर एक दिन सोचा नहीं खाना है। छोड़ दिया। अब तो महीनों हो गए खाये हुए।'
चलने के पहले गाना सुनाने को कहा। पंकज ने एक क्षण ठहरकर गाना सुनाया -'मेरा दिल ये पुकारे आ जा।' गाना सुनकर लगा कि गाना -गुनगुनाना कम हो गया है पंकज का। रोजी-रोटी की जंग में इंसान अपनी सबसे मनचाही आदत भी भुला देता है। हमने कहा -'गाते रहा करो।'
चलते समय सामने कहीं से आवाज आती सुनाई दी। लगा कोई बुला रहा है। इधर-उधर कोई दिखा नहीं। फिर देखा सड़क पार अपने घर के टेरेस से शुक्ला जी आवाज देकर इशारे कर रहे थे। बुला रहे थे।
शुक्ला जी फैक्ट्री से रिटायर हैं। बोलने-सुनने के मामले में दिव्यांग। लोग बताते हैं कि शाही तबियत के शुक्ला जी खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन दोस्तों को बुलाकर सिगरेट पिलाते थे। अनोखी आदत। पंकज की दुकान पर ही उनसे मुलाकात हुई थी। फिर अकसर होती रही। हमको देखकर सलाम किया। हमने भी नमस्कार किया। थोड़ी देर इशारे-इशारे में बात हुई। सब ठीक-ठाक का आदान-प्रदान हुआ और हम चल दिये कानपुर की तरफ।

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Tuesday, October 10, 2023

कचरा आर्ट से बनी कलाकॄति



सबेरे मार्निंग वाकर समूह के साथियों के साथ चाय पीने के बाद सैफ Saif Aslam Khan में साथ उनकी बनाई कलाकृति देखने गए। उनकी मोटरसाइकिल के पीछे बैठकर।
शाहजहाँपुर आफिसर्स कालोनी की के तिराहे पर बने छुटके पार्क में गांधी जयंती के मौके पर सैफ की डिजाइन की हुई कलाकृति का लोकार्पण हुआ। स्वच्छता ही सेवा अभियान के अंतर्गत छावनी परिषद शाहजहांपुर द्वारा प्लास्टिक की प्रयोग की गई बोतलों को ग्लोब के आकार में जोड़कर इस कलाकॄति का निर्माण किया गया। पुरानी बोतलों से बनाई इस कलाकॄति को 'कचरा आर्ट' नाम दिया गया। प्रयोग की हुई वस्तुओं से बनी कृति को 'कचरा आर्ट' नाम दिया गया। इससे यह भी लगता है कि यह बेकार का काम है। कुछ और बेहतर नाम रखा जा सकता था।
प्लाष्टिक ग्लोब में बोतलें एक गोलाकार जाली से के ऊपर तारों से बंधी थीं। कुल 1032 बोतलों से बना था प्लास्टिक ग्लोब। ग्रीन फ्यूचर कलेक्टिव संस्था और आर्टिस्ट सैफ ने मिलकर इस ग्लोब को बनाया था। प्रदेश के कैबिनेट मंत्री जी ने इसका लोकार्पण किया था। सैफ के नाम से सैफ गायब था। बोर्ड में उनका नाम असलम खान लिखा था। साथ न होते और बताते नहीं तो हम समझ ही न पाते कि इसके बनाने में सैफ की भी कोई भूमिका है। जल्दबाजी में ऐसे नाम गायब होते हैं।
बाद में छावनी बोर्ड के अधिकारियों से बातचीत करने पर पता चला कि प्लास्टिक ग्लोब की कुल लागत तकरीबन 70-75 हजार रुपये आई।
चंडीगढ़ के राकगार्डन की तर्ज पर बनाये इस प्लास्टिक ग्लोब जैसी अनेक योजनाएं हैं सैफ के पास। एक पत्रिका निकलना भी उनकी योजना में शामिल है। उत्साह भी है। लोग सराहना भी करते हैं। लेकिन योजनाओं में अमल के लिए पैसे की दरकार होती है। उसका इंतजाम शाहजहांपुर में रहते मुश्किल है। लेकिन उम्मीद तो है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सैफ शाहजहांपुर आने के पहले दिल्ली में काम करते थे। वहां काम मिल जाता था। आमदनी भी होती थी। शाहजहांपुर में दोनों की किल्लत है। गए साल पिताजी के न रहने से घर संभालने की जिम्मेदारी भी आ गयी है। बहुत कठिनाइयां हैं कला की दुनिया की।
सैफ को अपनी भतीजी को स्कूल छोड़ने के लिए निकलना था। जाने के पहले कुछ फोटो और सेल्फी ली हमने। बाद में स्कूल जाते एक बच्चे को पकड़कर उससे भी फोटो खिंचवाई। इस आस में कि क्या पता कोई फोटो अच्छा आ जाये। बच्चा सेंट पॉल में पढ़ता है। ग्यारह में। चलते-चलते उसने हमारी फोटो खींचकर मोबाइल वापस कर दिया। सैफ अपनी भतीजी की छोड़ने चले गए। अपन पैदल वापस चल दिये।
पैदल वापस आते हुए स्कूल से लाउडस्पीकर पर गाया जाता राष्ट्रगान सुनाई दिया। सुनते ही हम फुटपाथ पर खड़े हो गए। राष्ट्रगान खत्म होने पर आगे बढ़े। आगे बीच सड़क पर दो घोड़े शांत , सावधान मुद्रा में खड़े दिखे। ऐसे जैसे वे भी राष्ट्रगान सुनकर ही सावधान हो गए हों। लेकिन वे बाद में बहुत देर तक उसी मुद्रा में खड़े रहे तो लगा कि वे ऐसे ही निठल्ले खड़े हैं। पोज देने वाली स्टाइल में। उनको देखकर लगा कि जानवर भी इंसानों की तरह अपने निठल्लेपन को अनुशासन बताना सीख गये हैं। संगत का असर ।
हम उनकी बगल से होते हुए निकले, उनकी फोटो खींची तब भी वे ऐसे ही चुपचाप खड़े रहे। इससे लगा कि वे शायद धूप सेंकने के लिए खड़े हो गए हों। टैनिंग के मूड से। उनसे कुछ पूछना ठीक नहीं लगा। किसी की निजता में उल्लंघन क्या करना।
आहिस्ते-आहिस्ते चलते हुए हम मार्निंग वाकर ग्रुप की बेच के बगल से होते हुए वापस गेस्ट हाउस आ गए। अगले दिन फिर गए सुबह तो वहां मिश्र जी ने शेरो-शाइरी भी सुनी गई।

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Sunday, October 08, 2023

प्रोटोकॉल का हल्ला और सुबह की चाय

 



मार्निंग वाकर ग्रूप मतलब ‘सुबह टहलुआ समूह’ के सदस्यों के साथ काफी देर तक बतियाये। गपियाये। कोई भी नया साथी आये उससे नए सिरे से मुलाक़ात। सीतापुर वाले मुंशी जी के बारे में पता चला कि बहुत दिन से दिखे नहीं। चने बेचने वाला बच्चा भी नहीं दिखा।
अपन बेंच नंबर सात वाली फुटपाथ की तरफ थे। सामने की तरफ वाली फुटपाथ पर लगी बेंचों पर लोग बैठे थे। कसरत कर रहे थे। बतिया रहे थे। सड़क पर आते-जाते लोगों को देख रहे थे। बदले में लोग भी उनको देखते हुए गुजर रहे थे। किसी ने कहा भी है –‘आप जो व्यवहार लोगों के साथ करेंगे, लोग भी आपके साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे।‘
कुछ देर बाद तय हुआ कि चाय पी जाए। सबेरे बिना दूध की पी हुई आधी चाय यादों में कसक रही थी। मंदिर के पीछे बनी चाय की दूकान की तरफ जाते हुए तिराहे पर नया खुला ‘भारत ढाबा’ दिखा। लोगों ने बताया कि काफी गुलजार रहता है। लोग आते हैं। बैठते हैं। खाते-पीते हैं। बतियाते हैं। मीटिंग प्वाइंट जैसा कुछ। तिराहे के पास खाली पडी जमीन को जंगले से घेरकर बने ढाबे में मेज-कुर्सी रखी हुई थी। सुबह नहीं खुलता है ढाबा।
ढाबे को देखकर हमको याद आया कि पहले यहां ठेले वाले फल, सब्जी , भुट्टे और तमाम चीजें बेंचा करते थे। अब ढाबा खुल जाने के बाद वे कहाँ खड़े होते होंगे। पहले सुरक्षा कारणों से यहाँ किसी दूकान चलाने की अनुमति देने की बात सोची भी नहीं जाती थी। बदली परिस्थितियों में आमदनी के सभी संभावित मौके भुनाए जाने के समय में जहाँ से भी संभव हो, पैसा आना चाहिए।
चाय की दूकान की तरफ जाते हुए साथ के एक सज्जन ने पूछा –“ढाबे में बैठकर चाय पीने में आपके लिए प्रोटोकाल की कोई समस्या तो नहीं होगी?’
हमने कहा –‘ढाबे में चाय पीने में क्या प्रोटोकाल?’ दोस्तों के साथ ढाबे में बैठकर चाय पीने से भी क्या किसी प्रोटोकाल का उल्लंधन होता है? इंसान के साथ इंसान की मुलाक़ात का भी कोई प्रोटोकाल होता है क्या ?
होता नहीं है लेकिन आधुनिक होते समाज में प्रोटोकाल का हल्ला बड़ी तेजी से बढ़ा है। लोग अपने जनप्रतिनिधियों , बड़े अधिकारियों से सहज रूप में मिल नहीं सकते। यह प्रोटोकाल कभी सुरक्षा कारणों से लगता है और बाकिया पद के चलते। ऊँचे पद के साथ लोगों के यह एहसास होता है कि आम लोगों से मिलने-जुलने से उनके रुतबे में कभी हो जायेगी। अक्सर उनको उनके मातहत अपने साहब को यह एहसास दिलाते हैं कि आम लोगों से मिलने आपका रुआब कम हो जाएगा।
कल भी ऐसा हुआ। शाम को कुछ लोग मिलने आये तो बताया कि वे आ तो पहले गए थे लेकिन दरबान ने बताया कि साहब आराम कर रहे हैं। हमको ताज्जुब हुआ। हम तो दिन भर निठल्ले बैठे थे। न किसी को आने से रोकने के लिए कहा था । न आराम करने की बात । लेकिन मिलने वालों को इन्तजार कराया गया। प्रोटोकाल की महिमा अनंत हैं।
प्रोटोकाल की बात से जावेद अख्तर जी का सुनाया एक संस्मरण याद आया। छात्र जीवन में नेहरु जी उनके संस्थान आये थे। नेहरू जी के विदा होते समय जावेद साहब भागते हुए उनकी कार के फुटरेस्ट पर चढ़ गए और अपनी आटोग्राफ बुक नेहरू जी के सामने करके बोले –‘आटोग्राफ प्लीज।‘ नेहरू जी ने अचकचा कर उनको देखा और उनकी आटोग्राफ बुक में दस्तखत कर दिए। आज के समय दुनिया के किसी भी देश के प्रधानमत्री/राष्ट्रपति से इतनी सुगमता से मिलना और दस्तखत लेने की सोच भी नहीं सकते।
चाय की दूकान चाय आई। ग्लास में दूध की चाय देखकर मन खुश हुआ। खुशी में इजाफा करते हुए पकौड़ियाँ भी आयीं। बतरस के बीच सब चाय और पकौड़ी को आनंद के साथ उदरस्थ किया गया। वहां फोटोग्राफी और विडियोग्राफी भी हुई। वीडियो कमेंट्री के साथ यहाँ लगा है।
चलते समय हमने लपककर चाय के पैसे दे दिए। हिसाब नहीं पूछा इस लिए कि अगर हिसाब पूछेंगे तो फिर पैसे देने से रह जायेंगे। एतराज हुआ भी। चाय वाला भी इधर-उधर ताकता हुआ लेने , न लेने की मुद्रा में खड़ा रहा। हमने जबरियन पैसे उसकी कमीज की ऊपर की जेब में ठूस दिए। जेब में पैसे ठूंसने से नोट थोड़ा भुनभुनाया होगा। थोड़ी सलवटें भी आ गयीं उसके ठूंसे जाने से। उसको अपनी बेइज्जती भी खराब होती लगी होगी कि आज की तारीख में सबसे बड़ा नोट होने के बावजूद उसके साथ सुबह-सुबह इतनी जबरदस्ती हो।
चाय पीने के दौरान दूकान वाले ने बताया कि इसी महीने से किराया बढ़ गया है। पचास रूपया रोज हो गया है। किराए की बढ़ोत्तरी की सूचना देने के साथ ही उसने दूकान की छत से दिखते आसमान को दिखाया। हमने कहा –‘हो जाएगी मरम्मत भी। चिंता न करो।‘ वह कुछ बोला नहीं लेकिन हमारे कहने के बावजूद उसके चेहरे से चिंता के भाव गए नहीं।
चिंता जहाँ भी जाती है, वहां तसल्ली से रहती है। वापस आने की हडबडी नहीं रहती उसको। उसको इस बात की कोई फिकर नहीं रहती कि उसकी रिहायश से किसी को कोई तकलीफ है कि नहीं। चिंता की ख़ासियत है कि वो आती तेज़ी से है लेकिन जाती बहुत धीमे से है।
पैसे देकर अपन दूकान के बाहर आ गए। बाकी पैसे भी –‘चिल्लर धरे रहो’ वाले अंदाज में उससे लिए नहीं।
चाय की दूकान से निकलकर मार्निंग वाकर तो अपने-अपने घरों की तरफ प्रयाण कर गए । अपन सैफ Saif Aslam Khan की मोटर साइकिल पर बैठकर कैंट में पर्यावरण दिवस के मौके पर उनकी बनाई कृति देखने चल दिए ।

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Saturday, October 07, 2023

रागिनी टाइम्स से बातचीत

 कल शाहजहांपुर में Ragini Srivastava , Saif Aslam Khan और Anoop Kumar Adv से मुलाक़ात हुई। सैफ़ से तो सुबह भी मिल चुके थे। रागिनी और अनूप दोपहर बाद सैफ़ के साथ आए मिलने। थोड़ी देर की इधर-उधर की बातचीत के रागिनी ने मोबाइल आन करके सामने बैठे अनूप कुमार को थमा दिया और बातचीत शुरू कर दी। मजाक-मजाक में इंटरव्यू टाइप हो गया। रागिनी ने इस अनौपचारिक इंटरव्यू को आज साझा भी किया।

बताते चलें कि रागिनी शाहजहांपुर की अकेली पंजीकृत महिला पत्रकार हैं । अपना चैनल रागिनी टाइम्स लगभग साल भर पहले शुरू किया था इस चैनल में मुख्य रूप से शाहजहाँपुर के आसपास से जुड़ी खबरें रहती हैं। चैनल से कुछ कमाई भी होने लगी है , ऐसा रागिनी ने बताया। उनके चैनल का लिंक कमेंट बॉक्स में दिया है। उनके चैनल को देखें और सब्सक्राइब करके रागिनी का हौसला आफ़ज़ाई करें। इस बीच हमारी अनौपचारिक बातचीत भी सुनें ।

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Friday, October 06, 2023

विश्व मुस्कान दिवस पर शाहजहांपुर की सुबह

 



सुबह की शुरुआत मज़ेदार रही। साल भर से ऊपर हो चुका था यहाँ से गये। जिस गेस्ट हाउस में रुके हैं वहाँ क़रीब दस महीने रहे थे। कोरोना काल में। उस समय की कड़ी यादें हैं।
जगते ही चाय मंगाई। दूध फट गया था। बिना दूध की चाय आधी पी बाक़ी छोड़ दी। बिना दूध की चाय पीने का शऊर पता नहीं कब आएगा, जबकि आज इसी का चलन है।
बाहर निकले तो तमाम जाने पहचाने चेहरे मिले। मिलते ही सेल्फ़ी और फ़ोटोबाज़ी शुरू हो गई। पहली सेल्फी Ambrish Shukla और Harshit Tiwari के साथ हुई।
आजकल सेल्फ़ी और फ़ोटो का चलन इस कदर बढ़ गया है कि नमस्ते बाद में होता है फ़ोटो पहले।
फोटो का चलन जिस कदर बढ़ रहा है उससे लगता है कि क्या पता आने वाले समय में बिना फ़ोटो, वीडियो, सेल्फ़ी होने वाली मुलाक़ात, घटना , वाक़ये को घटित हुआ माना ही न जाये। ऐसी हर घटना को दुनिया की कार्यवाही से निकला हुआ माना जाये जिसकी फ़ोटो, वीडियो न हो।
कैंट की सड़क पर लोग सुबह की सैर में जुटे थे। मार्निंग वाकर क्लब के सदस्य बेंच नम्बर सात के पास जमा थे। यह बेंच Saif Aslam Khan के स्केचेज का नियमित हिस्सा है। दुनिया की तमाम हस्तियों और घटनाओं को सैफ़ प्रेम पूर्वक और जबरिया यहाँ लाकर उनके स्केच बनाते हैं। हाल यह दुनिया की कोई हस्ती अगर बेंच नम्बर सात पर नहीं आयी तो उसकी प्रसिद्धि में कुछ कमी सी है।
बेंच के पास पहुँचते ही Inderjeet Sachdev जी मिले। कल उनका जन्मदिन था। धूमधाम से मना। आज भी जारी था। बात करते हुए डॉ Anil Trehan जी साइकिलियाते हुए। देखते , मिलते ही अपन पर फूलमाला , गुलदस्ता की बौछार होने लगे। फूलमाला, गुलदस्ता से हमेशा लैश रहती है मार्निंग वाकर ग्रुप की टीम।
इस बीच एक साथी आए जिनका जन्मदिन था आज। उनको जन्मदिन की बधाई दी गई और माला , गुलदस्ता से शुभकामनाएँ।
बेंच नम्बर सात पर बैठकर फ़ोटोबाज़ी हुई। सैंफ़ की बेंच पर बिना उनकी अनुमति फ़ोटो खींचना ठीक नहीं यह मानते हुए इसी बहाने हमने उनको फ़ोन किया कि तुम्हारी बेंच पर फ़ोटो खींचा जा रहा है।पता लगते ही दस मिनट में सैफ़ बेंच पर हाज़िर हो गये। लेकिन तब तक टहलते हुए हम लोग मंदिर के पीछे चाय के ढाबे पर आ गये थे ।विश्व मुस्कान दिवस के मौक़े पर हंसते हुए चाय पीने के लिए।

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Thursday, October 05, 2023

मामा की दुकान पर भतीजे का काम

 



शहर का आख़िरी किनारा जहां से भारतीय देहात का महासागर शुरू होता है ।
कभी भी शहर से बाहर निकलने हैं तो श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी की शुरुआती लाइन याद आ जाती है ।
कानपुर से शाहजहांपुर जाते हुए हरदोई के पास जगदीशपुर में कई लगातार कई दुकाने दिखीं। हर दुकान पर जलेबी छन रही थी। हम लोगों को चाय की दरकार थी। उतर गये गाड़ी से। जलेबी बनते-छनते देख चाय की माँग की।
दुकान वाले ने कहा -‘चाय नहीं बनती यहाँ। ‘ क्यों नहीं बनती पूछने से पहले कारण भी बता दिया -‘बिकती नहीं यहाँ। माँग नहीं है।’ यह भी बता दिया उस दुकान पर मिलती है चाय।
ताज़ी जलेबी देखकर मन ललचा गया। तौला ली सौ ग्राम। एक किताब का पन्ना फाड़कर सौ ग्राम जलेबी थमा दी। किताब का पन्ना किसी गणित की किताब का था। जलेबी के नीचे किसी सिलिंडर का व्यास और ऊँचाई दी थी। आयतन निकालने को कहा गया था। मन किया निकाल के धर दें। लेकिन जलेबी के स्वाद में मन ऐसा रमा कि पन्ना डस्टबीन तक जाने तक याद नहीं आया।
दुकान पर बोर्ड लगा था -‘मामा स्वीट हाऊस।’ कारण पूछने पर बताया कि जिसकी यह दुकान है वो अपना घर छोड़कर अपनी बहन के पास आ गया। सभी लोगों का मामा हो गया। गाँव मामा। चूँकि गाँव में सब मामा कहते थे, बच्चे से बुजुर्ग तक । इसलिए दुकान मामा की दुकान के नाम से चल निकली। नाम हुआ ‘मामा स्वीट हाउस ।’
दुकान पर जलेबी बनाता बच्चा आठवीं के बाद , तीन साल पहले,स्कूल छोड़कर दुकान पर आ गया। कारण बताया -‘ग़रीबी बहुत थी। घर सब लोग काम पर लग गये। अब सब लोग कमाते हैं।’
ग़रीबी दूर हो गई लेकिन पढ़ाई छूट गई।
इससे सिद्ध हुआ कि सब लोग काम पर लग जाते हैं तो ग़रीबी दूर हो जाती है ।
हमने कहा कि अब ग़रीबी दूर हो गई तो फिर स्कूल जाने का मन नहीं करता ?
‘अब काम सीख गये हैं। इसी से कमाई होती है। क्या करेंगे स्कूल जाकर। कौन नौकरी करनी है।’ बालक में जलेबी का घान शीरे से निकाल कर थाल में रखते हुए बताया।
दुकान मामा की है लेकिन वो बच्चे के चाचा हैं। हमने पूछा -‘कुछ पैसा देते हैं चाचा कि मुफ़्त में काम करवाते हैं।’
‘अरे पैसे का क्या । सब तो हमारा ही है ।’ -बालक ने बताया।
दिन भर जलेबी बनती हैं। दिन भर बिकती है। अभी इतनी बनी। शाम फिर बनेंगी। ज़्यादातर ग्राहक आसपास काम करने वाले मजदूर हैं। ले जाते हैं किलो -दो किलो। आगे नवरात्रि भी आ रहे हैं। खूब बिकेंगी जलेबी।
सौ ग्राम जलेबी के दस रुपये हुए। जलेबी के दस रुपये देते हुए स्कूल के दिनों में दस पैसे की जलेबी खाने के दिन याद आए। हम और अप्पू जी Ajay Tiwari आई सी साथ जाते थे। गांधी नगर से। लेनिन पार्क के पास चौराहे पर मिठाई की दुकान पर ताजा बनी जलेबी खाते थे। दस पैसे की जलेबी में खाने का शौक़ पूरा हो जाता था । 45 साल पहले खाई जलेबी की याद आज भी उतनी ही ताजा है।
लेनिन पार्क की बात से याद आया कि हम लेनिन पार्क के पास रहते थे । वहाँ खेलने जाते थे। लेकिन लेनिन के बारे में नहीं जानते थे कि लेनिन कौन थे जिनके नाम पर यह पार्क बना है ।
अपने आसपास की ज़िंदगी से जुड़े तमाम लोगों , जगहों के साथ जीते हुए हम उनके बारे में कितना अनजान रहते हैं।
जलेबी की दुकान से जलेबी खाकर फिर पास की दुकान से चाय भी पी गई। टिक्की भी खाई गई। कोई रोकने वाला नहीं था कि मीठा क्यों खा रहे हो। चाय में चीनी क्यों डलवा रहे।
घर से बाहर निकलना मज़ेदार अनुभव होता होता। यह अलग बात है कि घर से निकलते ही घर याद भी आने लगता है।
घर से बाहर जाता आदमी
घर वापस लौटने के बारे में सोचता है।
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